प्रेमचंद रचनावली ६/मंगलसूत्र-३
साबित करोगे?
सिन्हा ने विश्वासपूर्ण भाव से कहा—यह सब में देख लूंगा। किताब लिखना और बात है, होश-हवास का ठीक रहना और बात में ता कहता हूँ, जितने लेखक हैं, मभी सनकी हैं—पूरे पागल, जो महज वाह-वाह के लिए यह पेशा माेल लेते हैं। अगर यह लोग अपने होश में हों तो किताबें न लिखकर दलाली करें, या खोंचे लगायें। यहां कुछ तो मेहनत का मुआवजा मिलेगा। पुस्तकें लिखकर ताे बदहजमी, तपेदिक ही हाथ लगता है। रुपये का जुगाड़ तुम करते जाओ, बाकी सारा काम मुझ पर छोड़ दाे। और हां आज शाम को क्लब में जरूर आना। अभी से कैम्पेन (मुहासरा) शुरू कर देना चाहिए। तिब्बी पर डोरे डालना शुरू करो। यह समझलो वह सब-जज साहब की अकेली लड़की है और उस पर अपना रंग जमा दो तो तुम्हारी गोटी लाल हैं। सब-जज साहब तिब्बी की बात कभी नहीं टाल सकते। मैं यह मरहला करने में तुमसे ज्यादा कुशल हैं। मगर मैं एक खून के मुआमले में पैरवी कर रहा हूं और सिविल सर्जन मिस्टर कामत की वह पीले मुंह वाली छोकरी आजकल मेरी प्रमिका है। सिविल सर्जन मेरी इतनी आवभगत करते हैं कि कुछ न पूछो। उस चुड़ैल से शादी करने पर आज तक कोई राजी न हुआ। इतने मोटे ओंठ हैं और सीना तो जैसे झुका हुआ सायबान हो। फिर भी आपका दावा है कि मुझसे ज्यादा रूपवती संसार में न होगी। औरतों का अपने रूप का घमंड कैसे हो जाता है, यह में आज तक न समझ सका। जो रूपवान् है वह घमड़ करे तो वाजिब हैं, लेकिन जिसका सुरत देखकर कै आए, वह कैंसे अपने को अप्सरा समझ लेती है। उसके पीछे पीछे घूमने और आशिकी करने जी तो जलता है, मगर गहरी रकम हाथ लगने वाली हे कुछ तपस्या तो करनी ही पड़ेगी। तिब्बी तो सचमुच अप्सरा है और चंचल भी। जरा मुश्किल से काबू में आयेगी। अपनी सारी कला खर्च करनी पड़ेगी।
—यह कला में खूब सीख चुका हो
—तो आज शाम को आना क्लब में।
—जरूर आऊंगा।
—रुपये का प्रबंध भी करना।
—वह तो करना ही पड़ेगा।
इस तरह सन्तकुमार और सिन्हा दोनों ने मुहासिरा डालना शुरू किया। सन्तकुमार न लंपट था, न रसिक, मगर अभिनय करना जानता था। रूपवान भी था जवान का मीठा भी, दोहरा शरीर, हंसमुख और जहीन चेहरा गोरा चिट्टा। जब सूट पहनकर छड़ी घुमाता हुआ निकलता ताे आंखों में खुब जाता था। टेनिस, ब्रिज आदि फैशनेबल खेल में निपुर्ण था ही, तिब्बी से राह-रस्म पैदा करने में उसे देर न लगी। तिब्बी यूनिवर्सिटी के पहले साल में भी बहुत ही तेज, बहुत ही मगरूर, बड़ी हाजिरजवाब उसे स्वाध्याय का शोक न था, बहुत थोड़ा पढ़ती थी, मगर संसार की गति से वाकिफ थी, और अपनी ऊपरी जानकारी को विद्वत्ता का रूप देना जानती थी। कोई विषय उठाइए, चाहे वह घोर विज्ञान ही क्यों न हो, उस पर भी वह कुछ-न-कुछ आलोचना कर सकती थी, कोई मौलिक बात कहने का उसे शौक था और प्रांजल भाषा में। मिजाज में नफासत इतनी थी कि सलीके या तमीज की जरा भी कभी उसे असह्य थी। उसके यहां कोई नौकर या नौकरानी न ठहरने पाती थी। दूसरों पर कड़ी आलोचना करने में उसे आनंद आता था, और उसकी निगाह इतनी तेज थी कि किसी स्त्री या पुरुष में जरा भी कुरुचि या भोंडापन देखकर वह भौंओं से या ओंठों से अपना मनोभाव प्रकट कर देती थी। महिलाओं के समाज में उसकी निगाह उनके वस्त्राभूषण पर रहती थी और पुरुष—समाज में उनकी मनोवृत्ति की ओर। उसे अपने अद्वितीय रूप-लावण्य का ज्ञान था और वह अच्छे-से पहनावे से उसे और भी चमकाती थी। जेवरों से उसे विशेष रुचि न थी, यद्यपि अपने सिंगारदान में उन्हें चमकते देखकर उसे हर्ष होता था। दिन में कितनी ही बार वह नये-नये रूप धरती थी। कभी बैतालियों का भेष धारण कर लेती थी, कभी गुजरियों का, कभी स्कर्ट और मोजे पहन लेती थी। मगर उसके मन में पुरुषों को आकर्षित करने का जरा भी भाव न था। वह स्वयं अपने रूप में मग्न थी।
मगर इसके साथ ही वह सरल न थी और युवकों के मुख से अनुराग-भरी बातें सुनकर वह वैसी ही ठंडी रहती थी। इस व्यापार में साधारण रूप प्रशंसा के सिवा उसके लिए और कोई महत्त्व न था। और युवक किसी तरह प्रोत्साहन न पाकर निराश हो जाते थे मगर सन्तकुमार की रसिकता में उसे अंतर्ज्ञान से कुछ रहस्य, कुछ कुशलता का आभास मिला। अन्य युवकों में उसने जो असंयम, जो उग्रता, जो विह्वलता देखी थी उसका यहां नाम भी न था। सन्तकुमार के प्रत्येक व्यवहार में संयम था, विधान था, सचेतता थी। इसलिए वह उनसे सतर्क रहती थी और उनके मनोरहस्यों को पढ़ने की चेष्टा करती थी। सन्तकुमार का संयम और विचारशीलता ही उसे अपनी जटिलता के कारण अपनी ओर खींचती थी। सन्तकुमार ने उसके सामने अपने को अनमेल विवाह के एक शिकार के रूप में पेश किया था और उसे उनसे कुछ हमदर्दी हो गई थी। पुष्पा के रंग-रूप की उन्होंने इतनी प्रशंसा की थी जितनी उनको अपने मतलब के लिए जरूरी मालूम हुई, मगर जिसका तिब्बी से कोई मुकाबला न था। उसने केवल पुष्पा के फूहड़पन, बेवकूफी, असहृदयता और निष्ठुरता की शिकायत की थी, और तिब्बी पर इतना प्रभाव जमा लिया था कि वह पुष्पा को देख पाती तो सन्तकुमार का पक्ष लेकर उससे लड़ती।
एक दिन उसने सन्तकुमार से कहा—तुम उसे छोड़ क्यों नहीं देते?
सन्तकुमार ने हसरत के साथ कहा—छोड़ कैसे दूं मिस त्रिवेणी, समाज में रहकर समाज के कानून तो मानने ही पड़ेंगे। फिर पुष्पा का इसमें क्या कसूर है। उसने तो अपने आपको नहीं बनाया। ईश्वर ने या संस्कारों ने या परिस्थितियों ने जैसा बनाया वैसी बन गई।
—मुझे ऐसे आदमियों से जरा भी सहानुभूति नहीं जो ढोल को इसलिए पीटें कि वह गले पड़ गई है। मैं चाहती हूं वह ढोल को गले से निकालकर किसी खंदक में फेंक दें। मेरा बस चले तो मैं खुद उसे निकाल कर फेंक दूं।
सन्तकुमार ने अपना जादू चलते हुए देखकर मन में प्रसन्न होकर कहा—लकिन उसकी क्या हालत होगी, यह तो सोचो।
तिब्बी अधीर होकर बोली तुम्हें यह सोचने की जरूरत ही क्या है? अपने घर चली जायगी, या कोई काम करने लगेगी या अपने स्वभाव के किसी आदमी से विवाह कर लेगी।
सन्तकुमार ने कहकहा मारा—तिब्बी यथार्थ और कल्पना में भेद भी नहीं समझती, कितनी भोली है।
गंभीर उदारता के भाव से बोले—यह बड़ा टेढ़ा सवाल है कुमारी जी। समाज की नीति कहती है कि चाहे पुष्पा को देखकर रोज मेरा खून ही क्यों न जलता रहे और एक दिन मैं इसी शोक में अपना गला क्यों न काट लूं, लेकिन उसे कुछ नहीं हो सकता, छोड़ना तो असंभव है। केवल एक ही ऐसा आक्षेप है जिस पर मैं उसे छोड़ सकता हूं, यानी उसकी बेवफाई। लेकिन पुष्पा में और चाहे जितने दोष हों यह दोष नहीं है।
संध्या हो गई थी। तिब्बी ने नौकर को बुलाकर बाग में गोल चबूतरे पर कुर्सियां रखने को कहा और बाहर निकल आई। नौकर ने कुर्सियां निकालकर रख दीं, और मानो यह काम समाप्त करके जाने को हुआ।
तिब्बी ने डांटकर कहा—कुर्सियां साफ क्यों नहीं की? देखता नहीं उन पर कितनी गर्द पड़ी हुई है? मैं तुझसे कितनी बार कह चुकी, मगर तुझे याद ही नहीं रहती। बिना जुर्माना किए तुझे याद न आयेगी।
नौकर ने कुर्सियां पोंछ-पोंछ कर साफ कर दीं और फिर जाने को हुआ।
तिब्बी ने फिर डांटा—तू बार-बार भागता क्यों है। मेजें रख दीं? टी-टेबल क्यों नहीं लाया? चाय क्या तेरे सिर पर पिएंगे?
उसने बूढ़े नौकर के दोनों कान गर्मा दिये और धक्का देकर बाली—बिल्कुल गाबदी है, निरा पोंगा, जैसे दिमाग में गोबर भरा हुआ है।
बूढ़ा नौकर बहुत दिनों का था। स्वामिनी उसे बहुत मानती थीं। उनके देहांत होने के बाद गोकि उसे कोई विशेष प्रलोभन न था, क्योंकि इससे एक-दो रुपया ज्यादा वेतन पर उसे नौकरी मिल सकती थी पर स्वामिनी के प्रति उसे जो श्रद्धा थी वह उसे इस घर से बांधे हुए थी और यहां अनादर और अपमान सब कुछ सहकर भी वह चिपटा हुआ था। सब—जज साहब भी उसे डांटते रहते थे पर उनके डांटने का उसे दुख न होता था। वह उम्र में उसके जोड़ के थे। लेकिन त्रिवेणी को तो उसने गोद खेलाया था। अब वही तिब्बी उसे डांटती थी, और मारती भी थी। इससे उसके शरीर को जितनी चोट लगती थी उससे कहीं ज्यादा उसके आत्माभिमान को लगती थी। उसने केवल दो घरों में नौकरी की थी। दोनों ही घरों में लड़कियां भी थीं बहुए भी थीं। सब उसका आदर करती थीं। बहुएं तो उससे लजाती थीं। अगर उससे कोई बात बिगड़ भी जाती तो मन में रख लेती थीं। उसकी स्वामिनी तो आदर्श महिला थी। उसे कभी कुछ न कहा। बाबू जी कभी कुछ कहते तो उसका पक्ष लेकर उनसे लड़ती थी। और यह लड़की बड़े-छोटे का जरा भी लिहाज नहीं करती। लोग कहते हैं पढ़ने से अक्ल आती है। यही है वह अक्ल। उसके मन में विद्रोह का भाव उठा—क्यों यह अपमान सहे? जो लड़की उसकी अपनी लड़की से भी छोटी हो, उसके हाथां क्यों अपनी मूंछें नुचवाये? अवस्था में भी अभिमान होता है जो संचित धन के अभिमान से कम नहीं होता। वह सम्मान और प्रतिष्ठा को अपना अधिकार समझता है, और उसकी जगह अपमान पाकर मर्माहत हो जाता है।
घूरे ने टी-टेबल लाकर रख दी, पर आंखों में विद्रोह भरे हुए था।
तिब्बी ने कहा—जाकर बैरा से कह दो, दो प्याले चाय दे जाय।
घूरे चला गया और बैरा को यह हुक्म सुनाकर अपनी एकांत कुटी में जाकर खूब रोया। आज स्वामिनी होती तो उसका अनादर क्यों होता!
बैरा ने चाय मेज पर रख दी। तिब्बी ने प्याली सन्तकुमार को दी और विनोद भाव से बोली—तो अब मालूम हुआ कि औरतें ही पतिव्रता नहीं होतीं, मर्द भी पत्नीव्रता वाले होते हैं।
सन्तकुमार ने एक घूंट पीकर कहा—कम-से-कम इसका स्वांग तो करते ही हैं।
—मैं इसे नैतिक दुर्बलता कहती हूं। जिस प्यारा कहो दिल से प्यारा कहो, नहीं प्रकट हो जाय। मैं विवाह को प्रेमबंधन के रूप में देख सकती हूं, धर्मबंधन या रिवाज बंधन तो मेरे लिए असह्य हो जाय।
—उस पर भी तो पुरुषों पर आक्षेप किये जाते हैं।
तिब्बी चौंकी। यह जातिगत प्रश्न हुआ जा रहा है।
अब उसे अपनी जाति का पक्ष लेना पड़ेगा—तो क्या आप मुझसे यह मनवाना चाहते हैं कि सभी पुरुष देवता होते हैं? आप भी जो वफादारी कर रहे हैं वह दिल से नहीं, केवल लोकनिंदा के भय से। मैं इसे वफादारी नहीं कहती। बिच्छू के डंक तोड़कर आप उसे बिल्कुल निरीह बना सकते हैं, लेकिन इससे बिच्छुओं का जहरीलापन तो नहीं जाता।
सन्तकुमार ने अपनी हार मानते हुए कहा—अगर मैं भी यही कहूं कि अधिकतर नारियां का पातिव्रत भी लोकनिंदा का भय है तो आप क्या कहेंगी?
तिब्बी ने प्याला मेज पर रखते हुए कहा—मैं इसे कभी न स्वीकार करूंगी।
—क्यों?
—इसलिए कि मर्दो ने स्त्रियों के लिए और कोई आश्रय छोड़ा ही नहीं। पातिव्रत उनके अंदर इतना कूट-कूट कर भरा गया है कि अब अपना व्यक्तित्व रहा ही नहीं। वह केवल पुरुष के आधार पर जी सकती है। उसका स्वतंत्र कोई अस्तित्व ही नहीं। बिन ब्याहा पुरुष चैन म खाता है, विहार करता है और मूंछों पर ताव देता है। बिन ब्याही स्त्री रोती है, कलपती है और अपने को संसार का सबसे अभागा प्राणी समझती हैं। यह सारा मर्दो का अपराध है। आप भी पुष्पा को नहीं छोड़ रह हैं इसीलिए न कि आप पुरुष हैं जो कैदी को आजाद नहीं करना चाहता।
सन्तकुमार ने कातर स्वर में कहा—आप मेरे साथ बेइंसाफी करती हैं। मैं पुष्पा का इसलिए नहीं छोड़ रहा हूं कि मैं उसका जीवन नष्ट नहीं करना चाहता। अगर में आज उसे छोड़ दूँ तो शायद औरों के साथ आप भी मेरा तिरस्कार करेंगी।
तिब्बी मुस्कराई—मेरी तरफ से आप निश्चित रहिए। मगर एक ही क्षण के बाद उसने गंभीर होकर कहा—लकिन मैं आपकी कठिनाइयों का अनुमान कर सकती हूं।
—मुझे आपके मुंह से ये शब्द सुनकर कितना संतोष हुआ। में वास्तव में आपकी दया का पात्र हूं और शायद कभी मुझे इसकी जरूरत पड़े।
—आपके ऊपर मुझे सचमुच दया आती है। क्यों न एक दिन उनमें किसी तरह मेरी मुलाकात करा दीजिए। शायद मैं उन्हें रास्ते पर ला सकूं।
सन्तकुमार ने ऐसा लंबा मुंह बनाया जैसे इस प्रस्ताव से उनके मर्म पर चोट लगी है।
—उनका रास्ते पर आना असंभव है मिस त्रिवेणी! वह उलटे आप ही के ऊपर आक्षेप करेगी और आपके विषय में न जाने कैसी दुष्कल्पनाएं कर बैठेगी। और मेरा तो घर में रहना मुश्किल हो जायेगा।
तिब्बी का साहसिक मन गर्म हो उठा—तब तो मैं उससे जरूर मिलूंगी।
—तो शायद आप यहां भी मेरे लिए दरवाजा बंद कर देंगी।
—ऐसा क्यों?
—बहुत मुमकिन है वह आपकी सहानुभूति पा जाय और आप उसकी हिमायत करने लगें।
—तो क्या आप चाहते हैं मैं आपको एकतरफा डिगरी दे दूं?
—मैं केवल आपकी दया और हमदर्दी चाहता हूँ। आपसे अपनी मनोव्यथा कहकर दिल का बोझ हल्का करना चाहता हूं। उसे मालूम हो जाय कि मैं आपके यहां आता-जाता हूं तो एक नया किस्सा खड़ा कर दे।
तिब्बी ने सीधे व्यंग्य किया—तो आप उससे इतना डरते क्यों हैं? डरना तो मुझे चाहिए।
सन्तकुमार ने और गहरे में जाकर कहा—मैं आपके लिए ही डरता हूं, अपने लिए नहीं।
तिब्बी निर्भयता से बोली—जी नहीं, आप मेरे लिए न डरिए।
—मेरे जीते जी, मेरे पीछे, आप पर कोई शुबहा हो यह मैं नहीं देख सकता।
—आपको मालूम है मुझे भावुकता पसंद नहीं?
—यह भावुकता नहीं, मन के सच्चे भाव हैं।
—मैंने सच्चे भाववाले युवक बहुत कम देखे।
—दुनिया में सभी तरह के लोग होते हैं।
—अधिकतर शिकारी किस्म के। स्त्रियों में तो वेश्याएं ही शिकारी होती हैं। पुरुषों में तो सिरे से सभी शिकारी होते हैं।
—जी नहीं, उनमें अपवाद भी बहुत है।
—स्त्री रूप नहीं देखती। पुरुष जब गिरेगा रूप पर। इसीलिए उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। मेरे यहां कितने ही रूप के उपासक आते हैं। शायद इस वक्त भी कोई साहब आ रहे हों। मैं रूपवती हूँ, इसमें नम्रता का कोई प्रश्न नहीं। मगर मैं नहीं चाहती कोई मुझे केवल रूप के लिए चाहे।
सन्तकुमार ने धड़कते हुए मन से कहा—आप उनमें मेरा तो शुमार नहीं करतीं?
तिब्बी ने तत्परता के साथ कहा—आपको तो मैं अपने चाहने वालों में समझती ही नहीं।
सन्तकुमार ने माथा झुकाकर कहा—यह मेरा दुर्भाग्य हैं।
—आप दिल से नहीं कह रहे हैं, मुझे कुछ ऐसा लगता है कि आपका मन नहीं पाती। आप उन आदमियों में हैं जो हमेशा रहस्य रहते हैं।
—यही तो मैं आपके विषय में सोचा करता हूं।
—मैं रहस्य नहीं हूं। मैं तो साफ कहती हूं में ऐसे मनुष्य की खोज में हूं, जो मेरे हृदय में सोये हुए प्रेम को जगा दे। हां, वह बहुत नीचे गहराई में है, और उसी को मिलेगा जो गहरे पानी में डूबना जानता हो। आपमें मैंने कभी उसके लिए बैचेनी नहीं पाई। मैंने अब तक जीवन का रोशन पहलू ही देखा है। और उससे ऊब गई हूं। अब जीवन का अंधेरा पहलू देखना चाहती हूं। जहां त्याग है, रुदन है, उत्सर्ग है। संभव है उस जीवन से मुझे बहुत जल्द घृणा हो जाय, लेकिन मेरी आत्मा यह नहीं स्वीकार करना चाहती कि वह किसी ऊंचे ओहदे की गुलामी या कानूनी धोखधड़ी या व्यापार के नाम से की जाने वाली लूट को अपने जीवन का आधार बनाए। श्रम और त्याग का जीवन ही मुझे तथ्य जान पड़ता है। आज जो समाज और देश की दूषित अवस्था है उससे असहयोग करना मेरे लिए जुनून से कम नहीं है। मैं कभी-कभी अपने ही से घृणा करने लगती हूं। बाबू जी को एक हजार रुपये अपने छोटे-से परिवार के लिए लेने का क्या हक है और मुझे बे-काम-धंधे इतने आराम से रहने का क्या अधिकार है? मगर यह सब समझकर भी मुझमें कर्म करने की शक्ति नहीं है। इस भोग-विलास के जीवन ने मुझे भी कर्महीन बना डाला है। और मेरे मिजाज में अमीरी कितनी है यह भी आपने देखा होगा। मेरे मुंह से बात निकलते ही अगर पूरी न हो जाय तो मैं बावली हो जाती हूं। बुद्धि का मन पर कोई नियंत्रण नहीं है। जैसे शराबी बार-बार हराम करने पर शराब नहीं छोड़ सकता वही दशा मेरी है। उसी की भांति मेरी इच्छाशक्ति बेजान हो गई है।
तिब्बी के प्रतिभावान मुख-मंडल पर प्राय: चंचलता झलकती रहती थी। उससे दिल की बात कहते संकोच होता, क्योंकि शंका होती थी कि वह सहानुभूति के साथ सुनने के बदले फबतियां कसने लगेगी। पर इस वक्त ऐसा जान पड़ा उसकी आत्मा बोल रही है। उसकी आंखें आर्द्र हो गई थीं। मुख पर एक निश्चित नम्रता और कोमलता खिल उठी थी। सन्तकुमार ने देखा उनका संयम फिसलता जा रहा है। जैसे किसी सायल ने बहुत देर के बाद दाता को मनगुर देख पाया हो और अपना मतलब कह सुनाने के लिए अधीर हो गया हो।
बोला—कितनी ही बार। बिल्कुल यही मेरे विचार हैं। मैं आपसे उससे बहुत निकट हूं, जितना समझता था।
तिब्बी प्रसन्न होकर बोली—आपने मुझे कभी बताया नहीं।
—आप भी तो आज ही खुली हैं।
—मैं डरती हूं कि लोग यही कहेंगे आप इतनी शान से रहती हैं, और बातें ऐसी करती हैं। अगर कोई ऐसी तरकीब होती जिससे मेरी यह अमीराना आदतें छूट जातीं तो मैं उसे जरूर काम में लाती। इस विषय की आपके पास कुछ पुस्तकें हों तो मुझे दीजिए। मुझे आप अपनी शिष्या बना लीजिए।
सन्तकुमार ने रसिक भाव से कहा—मैं तो आपका शिष्य होने जा रहा था। और उसकी ओर मर्मभरी आंखों से देखा।
तिब्बी ने आंखें नीची नहीं कीं। उनका हाथ पकड़कर बोली! आप तो दिल्लगी करते हैं। मुझे ऐसा बना दीजिए कि मैं संकटों का सामना कर सकूं। मुझे बार-बार खटकता हैं अगर मैं स्त्री न होती तो मेरा मन इतना दुर्बल न होता।
और जैसे वह आज सन्तकुमार से कुछ भी छिपाना, कुछ भी बचाना नहीं चाहती। मानो वह जो आश्रय बहुत दिनों से ढूंढ रही थी वह यकायक मिल गया है।
सन्तकुमार ने रुखाई भरे स्वर में कहा—स्त्रियां पुरुषों से ज्यादा दिलेर होती हैं मिस त्रिवेणी!
—अच्छा आपका मन नहीं चाहता कि बस हो तो संसार की सारी व्यवस्था बदल डाले?
इस विशुद्ध मन से निकले हुए प्रश्न का बनावटी जवाब देते हुए सन्तकुमार का हृदय कांप उठा।
—कुछ न पूछो। बस आदमी एक आह खींचकर रह जाता है।
—मैं तो अक्सर रातों को यह प्रश्न सोचते-सोचते सो जाती हूं और वही स्वप्न देखती हूँ। देखिए दुनिया वाले कितने खुदगर्ज हैं। जिस व्यवस्था से सारे समाज का उद्धार हो सकता है वह थोड़े से आदमियों के स्वार्थ के कारण दबी पड़ी हुई है।
सन्तकुमार ने उतरे हुए मुख से कहा—उसका समय आ रहा है। और उठ खड़े हुए। यहा की वायु में उनका जैसे दम घुटने लगा था। उनका कपटी मन इस निष्कपट, सरल वातावरण में अपनी अधमता के ज्ञान से दबा जा रहा था जैसे किसी धर्मनिष्ठ मन में अधर्म विचार घुस तो गया हो पर वह कोई आश्रय न पा रहा हो।
तिब्बी ने आग्रह किया कुछ देर और बैठिए न?
—आज आज्ञा दीजिए, फिर कभी आऊंगा।
—कब आइएगा?
—जल्द ही आऊंगा।
—काश, मैं आपका जीवन सुखी बना सकती।
सन्तकुमार बरामदे में कूदकर नीचे उतरे और तेजी से होते के बाहर चले गए। तिब्बी बरामदे में खड़ी उन्हें अनुरक्त नेत्रों से देखती रही। वह कठोर थी, चंचल थी, दुर्लभ थी, रूपगर्विता थी, चतुर भी, किसी को कुछ समझनी न थी, न कोई उसे प्रेम का स्वांग भरकर ठग सकता था, पर जैसे कितनी ही वेश्याओं में सारी आसक्तियां के बीच में भक्ति-भावना छिपी रहती है, उसी तरह उसके मन में भी सार अविश्वास के बीच में कोमल, सहमा हुआ विश्वास छिपा बैठा था और उसे स्पर्श करने की कला जिसे आती हो वह उसे बेवकूफ बना सकता था। उस कोमल भाग का स्पर्श होते ही वह सीधी सादी, मरन विश्वासमयी, कातर बालिका बन जाती थी। आज इत्तफाक से सन्तकुमार ने यह आसन पा लिया था और अब वह जिस तरफ चाहे उसे लेजा सकता है, मानो वह मेस्मराइज हो गई थी। सन्तकुमार में उसे कोई दोष नहीं नजर आता! अभागिनी पुष्पा इस सत्यपुरुष का जीवन कैसा नष्ट किए डालती है। इन्हें तो ऐसी सांगनी चाहिए जो इन्हें प्रोत्साहित करें, हमेशा इनके पीछे पीछे रहे। पुष्पा नहीं जानती वह इनके जीवन का राहु बनकर समाज का कितना अनिष्ट कर रही है। और इतने पर भी सन्तकुमार का उसे गले बांध रखना देवत्व से कम नहीं। उनकी वह कोन सी सेवा करे, कैसे उनका जीवन सुखी करे।
चार
सन्तकुमार यहां से चले तो उनका हृदय आकाश में था। इतनी जल्द देवी से उन्हें वरदान मिलेगा इसकी उन्होंने आशा न की थी। कुछ तकदीर ने हो जोर मारा, नहीं तो जो युवती अच्छे-अच्छों को उंगलियों पर नचाती है, उन पर क्यों इतनो भक्ति करती। अब उन्हें विलंब न करना चाहिए। कोन जाने कब तिमी विरुद्ध हो जाय। और यह दो ही चार मुलाकातों में होने वाला है। तिब्बी उन्हें कार्य क्षेत्र में आगे बढ़ने की प्रेरणा करेगी और वह पीछे हटेंगे। वहीं मतभेद हो जाएगा। यहां से वह सीधे मि° सिन्हा के घर पहुंचे। शाम हो गई थी। कुहरा पड़ना शुरू हो गया था। मि° सिन्हा सजे सजाए कहा जाने को तैयार खड़े थे। इन्हें देखते ही पूछा—
—किधर से?
—वहीं से। आज तो रंग जम गया।