प्रेमचंद रचनावली ६/मंगलसूत्र-३

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गोदान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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तीन

मि• सिन्हा उन आदमियों में हैं जिनका आदर इसलिए होता है कि लोग उनसे डरते हैं। उन्हें देखकर सभी आदमी ‘आइएआइएकरते हैं, लेकिन उनके पीठ फेरते ही कहते हैं- बड़ा ही मूजी आदमी है, इसके काटे का मंत्र नहींउनका पेशा है मुकदमे बनाना! जैसे कवि एक कल्पना पर पूरा काव्य लिख डालता है, उसी तरह सिन्हा साहब भी कल्पना पर मुकदमों की सृष्टि कर डालते हैं। न जाने बह कवि क्यों नहीं हुए? मगर कब्रि होकर वह साहिब की चाहे जितनी वृद्धि कर सकतेअपना कुछ उपकार न कर सकतेकानून की उपासना करके उन्हें सभी सिद्धियां मिल गई थीं। शानदार बंगले में रहते थेबड़ेबड़े ईसों और हुक्काम से दोस्ताना था, प्रतिष्ठा भी थी , रोब भी था। कलम में ऐसा जादू ना कि मुकदमे में जान डाल देतेऐसे- ऐसे प्रसंग सोच निकालते. ऐसे-ऐसे चरित्रों की रचना करते कि उन्पना स डीव हो जाती थी।बड़ेबड़ेधाय जज भी उसकी तह तक न पहुंच सकतेसब कुद इतना स्वाभाविक इतना संवद्ध होता था कि उस पर ध्या का भ्रम तक न हो सकता था। वह सन्नकुमार से साथ के पढ़े हुए थे। दोनों में गहरी दोस्ती थी। सन्तकुमार के मन में एक भावना अली और सिन्हा ने उसमें रंगरूप भर कर जीता-जागता पुतला खड़ा कर दिया और आज मुकदमा दायर करने का निश्चय किया जा रहा है। नौ बजे होंगे वकील और मुवक्किल कचहरी जाने की तैयारी कर रहे हैं।सिन्हा अप भजे कमरे में मेज पर टांग फैलाए लेट हुए हैं। गरे-चिट्टे आदमा, ऊंचा कद, एक्रम बदन, बड़े-बड़ेवाल पीछे को कब से ऐंचे हुएमहें साफ, आखों पर एनक, लां पर भिगा। चेहर पर प्रतिभा का प्रकाश, आंखों में अभिमान, ऐसा जान पड़ता है कोई बच रईस है। साकुमार मीची अचकन पहनेफल्ट कैंप लगाए कुछ चिंतित से बैठे हैं। सिन्हा ने आश्वासन दिया -नुम नाइक्र इग्ते हो। मैं कहता हूं हमारी फतेह है। ऐसी ई ओ . , नजीमें मौजूद हैं जिसमें बेटों-पोतों ने बैनामे मंसूखे कगये हैं। पक्की शहादत चाहिए और उसे जमा करना बाएं हाथ का खेल है। सन्तकुमार ने दुविधा में पड़कर कहा लेकिन फादर को भी तो राजी करना होगा उनकी इच्छा के विना तो कुछ न हो सकेगा। - उन्हें सीधा करना तुम्हाग काम है। लेकिन उनका सीधा होना मुश्किल है। तो उन्हें भी गोली मारी। हम मावित करेंगे कि उनके दिमाग में खलल है। -यह साबित करना आसान नहीं है। जिसने बड़ी-बड़ी किताबें लिख डालीं, जो समय समाज का नेता समझा जाता हैजिसकी अक्लमंदी को सारा शहर मानता है, उसे दीवाना कंसें [ ३४३ ]साबित करोगे सिन्हा ने विश्वासपूर्ण भाव से कड़ा- यह सत्र में देरठ गकिताब लिग्नूला और वात है, होश-हवास का ठीक रहना और बात। मैं तो कहता हूं, जितने लेग्य हैं, सभी सनकी हैं-पूरे पागल, जो महज वाह-वाह के लिए यह पेशा मान लेते हैं। अगर यह लाग अपने होश में हों न लिखकर दलाली करेंलगायें। तो किताबें या लांचे यहां कुछ तो मेहनत का आवजा मिलेगा। पुस्तकें लिखकर ता बदहजमीनपदक ही हाथ लगता है। रुपये का जुगाड़ त्म करते जाओ, बाकी सारा काम मुझ पर छोड़ दा। और हां आज शराम को क्लन्व में जम्र आना। अभी से कैम्पेन ( मुहासरा) शरू कर देना चाहिए। तिब्बी पर डोरे डालना शुरू करो यह समझ रूनी, वह सब - गईच का अकलो लडका है और उस पर अपना रंग जमा दो तो तुम्बारी गोटी लाल है। सब-जज साहब तिब्वो की बात कभी नहीं टाल सकतेमैं यह मरहला करने में तुमसे ज्यादा कुशल । मगर मैं एक रन के मामले में पैरवी कर रहा हूं और सिविल सर्जन सिस्टम कामत की वह पीने मुंह वाली छोकरी आजकल मेरी प्रमिका है।सिविल सर्जन मेरी इतनी आवभगत करते हैं कि कुछ न पूछो उस खून से शादी करने पर आज तक कोई राजी न हुआ।इतने मोटे ओंठ हैं और सीना तो मे झुका हुआ सम्"वान हो फिर भी आपको दावा है कि मुझसे ज्यादा पबती संसार में न होगी। आरतों का अपने म्प का घमंड कंसे हो जाता है. यह में आज तक न समझ सका। जो पत्रान् है वह घमड़ करं तो वाजिब है. लेकिन राज सक। अरन देरषकर के , वह केसे अपने ' असर समझ लेती है। उसके पीछे पीछे अमन और आशिकी करन अ तो जलता है, मगर गहरी रकम सुध लगने वाला . कु तपस्या तो करनी हो पदेगी।तो सचमुच अपग हैं और चंचल भी। जरा मुश्किल से काबू में आगाअपना सारी कला रच करनी पड़ेगी। -यह कलां में ट्व में चुका । -तो आज 2भ का आन क्लब में। जर आगा - ए व 'भा कना वह ता करना ही पड़ा । इस तरह सन्तकुमार और सन् दोगे ने मुहागिन डालना शुरू कियासन्तकुमार न पट था, न रसिक, मगर अभिनय करना जानता था। रूपवान भी धा जवान का मीठा भी, दोहरा र, हंसमुख और जहीर चेहागोचिट्टा। जब मेट पहनकर छड़ी घुमाता हुआ निकलता तना आंखों म खुब जाता था। टेनिमविज आदि फैशनंबन खला में निपुण था हो, तिब्बी से राह-रस्म पैदा करने में उसे देर न लगी। तिी यूनिवर्सिटी के पहले साल में थी, बहुत ही तेजबहुत ही मगरूर, बड़ी हाजिरजवाब। उसे स्वाध्याय का ोक न था, बहुत थोड़ा पढ़ती थी, मगर संसार को गति से वाकिफ , ऊपरी जानकारी बोविना का रूप देना जानती थी। कोई थीऔर अपनी विषय उठाइए, चाहे वह घोर विज्ञान ही क्यों न हो, उस पर भी वह कुछ-न कुछ आलोचना कर सकती थी, कोई मौलिक बात कहने का उसे "क था और प्रांजल भाषा में मिजाज में तूफासत इतनी थी कि सलीक या तमीज की जरा भी कमी उसे असत्य थी। उसके यहां कोई नौकर या नौकरानी पर कड़ी आलोचना करने उसे आनंद आता न ठहरने पाती थी। दूसरों में था, और उसकी निगाह इतनी तेज थी कि किसी स्त्री या पुरुष में जरा भी कुरुचि या भोंडापन [ ३४४ ]
देखकर वह भौंओं से या ओंठों से अपना मनोभाव प्रकट कर देती थी। महिलाओं के समाज में उसकी निगाह उनके वस्त्राभूषण पर रहती थी और पुरुष समाज में उनकी मनोवृत्ति की ओर उसे अपने अद्वितीय रूप-लावण्य का ज्ञान था और वह अच्छे-से पहनावे सेउसे और भी चमकाती थी। जेवरों से उसे विशेष रुचि न थी, यद्यपि अपने सिंगारदान में उन्हें चमकते देखकर उसे हर्ष होता था। दिन कितनी ही बार वह नयेनये रूप धरती थी। कभी तालियों का भेष धारण कर लेती थी कभी गुजरियोंकाकभी स्कर्ट और मोजे पहन लेती थी। मगर उसके मन में पुरुषों को आकर्षित करने का जरा भी भव न था। वह स्वयं अपने रूप में मग्न थी। मगर इसके साथ ही वह सरल न थी और युवकों के मुख से अनुराग भरी बातें सुनकर वह वैसी ही ठंडी रहती थी। इस व्यापार में साधारण रूप-प्रशंसा के सिवा उसके लिए और कोई महत्व न था। और युवक किसी तरह प्रोत्साहन न पाकरनराश हो जाते थे मगर सन्तकुमार की रसिकता में उसे अंतन से कुछ रहस्यकुछ कुशलता का आभास मिला। अन्य युवकों में उसने जो असंयम, जो उग्रताजो बिहलत देखी थी उसका यहां नाम भी न था। सन्तकुमार के प्रत्येक व्यवहार में संयम था, विधान था, सचेतता थी। इसलिए वह उनसे सतर्क रहती थी और उन मनोरहस्यों को पढ़ने की चेष्टा करती थी।सन्तकुमारका संयम और विचारशीलता ही उसे अपनी जटिलता के कारण अपनी ओर खींचती थी। सन्तकुमार ने उसके सामने अपन को अनमेल विवाह के एक शिकार के रूप में पेश किया था और उसे उनम कुछ हमदर्दी हो गई थी। पुष्पा के रंग- रूप की उन्होंने इननी प्रशंसा की थी जितनी उनको अपने मतलब के लिए जरूरी मालूम हुई. मगर जिसका तिब्बी से कोई मुकाबला न था। उसने कवन पुष्पा के फूहड़पनबेबकूफी, असहृदयता और निष्ठुरता की शिकायत की थी, और निब्बी पर इतना प्रभाव जमा लिया था कि वह पुष्या को देख पाती तो सन्तकु मार का पक्ष लंकर उसस एक दिन उसने सन्तकुमार से कह-तुम उसे छोड़ क्यों नहीं देते? सन्तकुमार ने हसरत के साथ कहा-छोड़कैसे मिसत्रिवेणी , समद्ध 17 रहकर मम ि के कानून तो मानने ही यडेंगेफिर पुष्पा का इसमें क्या कसूर हैं।उसने तो अपने आपको नहीं बनाया। ईश्वर ने या संस्कारों ने या परिस्थितयों ने जैसा बनाया वैसी बन गई मुझे ऐसे आदमियों से जरा भी सहानुभूति नहीं जो ढोल को इसलिए पीटें कि वह गले पड़ गई है। मैं चाहती हूं बह ढोल को गले से निकालकर किसी में फेंक दें। मेरा बस खंदक चले तो मैं खुद उसे निकाल कर फेंक दें। सन्तकुमार ने अपना जादू चलते हुए देखकर मन में प्रसन्न होकर कहा-लकिन उस क्या हालत हांगा, यह तो मांचा। तिब्बी अधीर होकर बोली -तुम्हें यह सोचने की जरूरत ही क्या है? अपने घर चली जायगी, या कोई काम करने लगेगी या अपने स्वभाव के किसी आदमी से विवाह कर लेगी। सन्तकुमार ने कहकहा मारा-तिब्बी यथार्थ और कल्पना में भेद भी नहींसमझतोकितनी भोल है। गंभीर उदारता के भाव से बोले-यह बड़ा टेढ़ा सवाल है कुमारी जी समाज की नीति कहती है कि चाहे पुष्पा को देखकर रोज मेरा खून ही क्यों न जलता रहे और एक दिन में इस शोक में अपना गला क्यों न काट , लेकिन उसे कुछ नहीं हो सकता, छोड़ना तो असंभव है। [ ३४५ ]
केवल एक ही ऐसा आक्षेप है जिस पर मैं उसे छोड़ सकता हूं, यानी उसकी बेवफाई। लेकिन पुष्पा में और चाहे जितने दोष हों यह दोष नहीं है। संध्या हो गई थी। तिब्बी ने नौकर को बुलाकर बाग में गोल चबूतरे पर कुर्सियां रखने को कहा और बाहर निकल आईनौकर ने कुर्सियां निकालकर रख दीं, और मानो यह काम समाप्त करके जाने को हुआ। तिब्बी ने डांटकर कहा-कर्सियां साफ क्यों नहीं कटें देखता नहीं उन पर कितनी गर्द पड़ी हुई है? मैं तुझसे कितनी बार कह चुकी, मगर तुझे याद ही नहीं रहती। बिना जुर्माना किए तुझे याद न आयेगी। नौकर ने कुर्सियां पोंछ-पोंछ कर साफ कर दीं और फिर जाने को हुआ। तिब्बी ने फिर डांटा-तू बार- बार भागता क्यों है। मेजें रख दीं? टी-टेबल क्यों नहीं लाया? चाय क्या तेरे सिर पर पिएंगे उसने बूढे नौकर के दोनों कान गम दिये और धक्का देकर बोली-बिल्कुल गाबदी हैनिरा पोंगा, जैसे दिमाग में गोबर भग हुआ है। बूढ़ा नौकर बहुत दिनों का था। स्वामिनी उसे बहुत माननी थीं। उनके देहांत होने के बाद गोकि उसे कोई विशेष प्रलोभन न था, क्योंकि इससे एक-दो रुपया ज्यादा वेतन पर उसे नौकरी मिल सकती थी पर स्वामिनी के प्रति उसे जो श्रद्धा थी वह उसे इस घर से बांधे हुए थी और यहां अनादर और अपमान सब कुछ सहकर भी वह चिपटा हुआ था। सब-जज साहब भी उसे डांटते रहते थे पर उनके डांटने का उसे दुख न होता था। वह उम्र में उसके जोड़ के थे। लेकिन त्रिवेणी को तो उसने गोद खेलाया था। अब वही तिब्बो उसे डांटती थी, और मारत भी थी। इससे उसके शरीर को जितनी चोट लगती थी उससे कहीं ज्यादा उसके आत्माभिमान को लगती थी। उसने केवल दो घरों में नौकरी की थी। दोनों ही घरों में लड़कियां भी थीं बहुए भी थीं। सब उसका आदर करती थीं। बहुएं तो उससे लजाती थीं। अगर उससे कोई बात बिगड़ भी जाती तो मन में रख लेती थीं। उसकी स्वामिनी तो आदर्श महिला थी। उसे कभी कुछ न कहा। बाबू जी कभी कुछ कहते तो उसका पश्८ लेकर उनसे लड़ती थी। और यह लड़की -छोटे का जरा भी लिहाज नहीं करती। लोग वह ते हैं पढ़ने से अक्ल आती है। यही है वह अक्ल । उसके मन में विद्रोह का भाव उठा- क्यों यह अपमान सहे? जो लड़की उसकी अपनी लड़की से भी छोटी हो, उसके हाथो क्यों अपनी नुचवाये अवस्था में भी अभिमान होता है जो संचित धन के अभमान से कम नहीं होतावह सम्मान और प्रतिष्ठा को अपना अधिकार समझता है, और उसकी जगह अपमान पाकर मर्माहत हो जाता । है। मूरे ने टी-टेबल लाकर रख दी, पर आंखों में विद्रोह भरे हुए था। तिब्बी ने कहा-जाकर बैरा से कह दो, दो प्याले चाय दे जाय। पूरे चला गया और बैरा हुक्म सुनाकर अपनी एकांत कुटी में जाकर खूब रोया। को यह आज स्वामिनी होती तो उसका अनादर क्यों है । बैरा ने चाय मेज पर रख दी। तिब्बी ने यात्री सन्तकुमार को दी और विनोद भाव से बोली मालूम हुआ ही पतिव्रता , पत्नीव्रत वाले -तो अब कि औरतें नहीं होतींमर्द भी होते [ ३४६ ]सन्तकुमार ने एक पूंट पीकर कहा-कम-सेकम इसका स्वांग तो करते ही हैं। - मैं इसे नैतिक दुर्बलता कहती हूं। जिस प्यारा कहो दिल से प्यारा कहो, नहीं प्रकट हो जाय। मैं विवाह को प्रेमबंधन के रूप में देख सकती हूं, धर्मबंधन या रिवाज बंधन तो मेरे लिए असह्य हो जाय। उस पर भी तो पुरुषों पर आक्षेप किये जाते हैं। तिब्बी चौंकी। यह जातिगत प्रश्न हुआ जा रहा है। अब उसे अपनी जाति का पक्ष लेना पड़ेगा-तो क्या आप मुझसे यह मनवाना चाहते हैं कि सभी पुरुष देवता होते हैं? आप भी जो वफादारी कर रहे हैं वह दिल से नहीं, केवल लोकनिंदा के भय से। मैं इसे वफादारी नहीं कहतीबिच्छू के डक तोड़कर आप उसे बिल्कुल निरीह बना सकते हैं, लेकिन इससे बिच्छुओं का जहरीलापन तो नहीं जाता। सन्तकुमार ने अपनी हार मानते हुए कहा-अगर मैं भी यही कहूं कि अधिकतर नारियां का पातिगत भी लोकनिंदा का भय है तो आप क्या कहेंगी? तिब्बी ने प्याला मेज पर रखते हुए कहा-मैं इसे कभी न स्वीकार कलंगी। -क्यों? -इसलिए कि मदों ने स्त्रियों के लिए और कोई आश्रय छोड़ा ही नहीं। पातिव्रत उनः अंदर इतना कूट-कूट कर भरा गया है कि अब अपना व्यक्तित्व रहा ही नहीं वह केवल पुरुष के आधार पर जी सकती है। उसका स्वतंत्र कोई अस्तित्व ही नहीं बिन ब्याहा पुरुष चैन से खाता है, विहार करता है और मुंछों पर ताव देता है। बिन ब्याही स्त्री रोती है, कलपती है और अपने को संसार का सबसे अभागा प्राणी समझनी हैं। यह सारा मद का अपराध हैं। आप भी पुष्पा को नहीं छोड़ रहे हैं इसीलिए न कि आप पुरुष हैं जो कैदी को आजाद नहीं करना चाहता। सन्तकुमार कातर स्वर में कहा-आप मेरे साथ बेइंसाफी करती हैं। मैं पुष्पा का इलाए नहीं छोड़ रहा हूं कि मैं उसका जीवन नष्ट नहीं करना चाहता । अगर मैं आज उसे अड़ टू शायद औरों के साथ आप भी मेरा तिरस्कार करेंगी। तिब्नो मुस्कराई- मेरी तरफ से आप निचित रहिएमगर एक ही क्षण के बाद उसन गंभीर होकर कहा- लकिन मैं आपकी कठिनाइयों का अनुमान कर सकती हूं। मुझे आपके मुंह से ये शब्द सुनकर कितना संतोष हुआ। मैं वास्तव में आपकी दग्ग्रा का पात्र हूं और शायद कभी मुझे इसकी जरूरत पड़े। आपके ऊपर मुझे सचमुच दया आती है। क्यों न एक दिन उनसे किसी तरह मां मुलाकात करा दीजिए। शायद मैं उन्हें रास्ते पर ला सकें। सन्तकुमार ने ऐसा लंबा मुंह बनाया जैसे इस प्रस्ताव में उनके मर्म पर चोट लगी । -रका रास्ते पर आना असंभव है मिस त्रिवेणी वह उलटे आप ही के ऊपर आक्षेप करेगी और आपके विषय में न जाने कैसी दुकल्पनाएं कर बैठेगी। और मेरा तो घर में रहना मुश्किल हो जायेगा। तिब्बी का साहसिक मन गर्म हो उठा-तब तो मैं उससे जरूर मियूंगी। - तो शायद आप यहां भी मेरे लिए दरवाजा बंद कर देंगो। -ऐसा क्यों? [ ३४७ ]-बहुत मुमकिन है वह आपकी सहानुभूति पा जाय और आप उसकी हिमायत करने -तो क्या आप चाहते हैं मैं आपको एकतरफा डिगरी दे दें? मैं केवल आपकी दया और हमदद चाहता हूं। आपसे अपनी मनोव्यथा कहकर दिल का बोझ हल्का करना चाहता हूं। उसे मालूम हो जाय कि मैं आपके यहा आता-जाता हूं ता एक नया किस्सा ख़डा कर दे तिब्बी ने सीधे व्यंग्य किया तो आप उससे इतना डरते क्यों हैं? डरना तो मुझे चाहिए। सन्तकुमार ने और गहरे में जाकर कहा मैं आपके लिए ही डरता हूं, अपने लिए नहीं! तिब्बी निर्भयता से बोली-जी नहीं, आप मेरे लिए न डरिए। मेरे जीते जी, मेरे पीछेआप पर कई बहा हो यह मैं नहीं दे सकता

  • आपका मालूम है मुझ भावुकता पसंद नहीं

यह भावुकता नहीं, मन के सच्चे भाव हैं। मैंने सच्चे भाववाले युवक बहुत कम देखे -दुनिया में सभी तरह के लोग होते हैं। अधिकतर शिकारी किस्म कें। स्त्रियों में तो वेश्याएं हो शिकारी होती हैं। पुरुषों में तो सिरे को भी शिकारी होने हैं। -जो नहीं, उनमें अपवाद भी बहुत है। स्त्री रूप नहीं देखतीपुरुष जब गिरेगा रूप पर। इसीलिए उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। मेरे यहां कितने ही रूप के उपासक आते हैं। शायद इस वक्त भी कोई साहब आ रहे हों। में आपवती , इसमें नम्रता का कोई प्रश्न नहीं मगर मैं नहीं चाहती कोई मुझे केवल रूप के लिए चाहे। सन्नकुमार ने धड़कते हुए मन से कहा- आप उनमें मेरा तो शुमार नहीं करतीं? तिब्बो ने तत्परता के साथ कहा-आपको तो मैं अपने चाहने वालों में समझती ही नहीं। सन्तकुमार ने माथा झुकाकर कहा-यह से दुर्भाग्य है। अप दिन से नहीं कह रहे हैं. मुझे कुछ ऐसा लगता है कि 'पका मन नहीं पाती। आप उन आदमियों में हैं जो हमेशा रहस्य रहते हैं। यही तो मैं आपके विषय में सोचा करता हूं। -मैं रहस्य नहीं हूं। मैं तो साफ कहती हूं में ऐसे मनुष्य की खोज में हूं, जो मेरे हदय में को। सोये हुए प्रेम जगा देहां, वह बहुत नीचे गहराई में है, और उसी को मिलेगा जो गहरे पानी में डूबना जानता हो ! आपसे मैंने कभी उसके लिए बैचेनी नहीं पाई। मैंने अब तक जीवन काम रोशन पहलू ही देरखा है।और उससे ऊब गई। अब जीवन का अंधेरा पहलू देखना चाहती हूं। जहां त्याग है, रुदन है, उत्सर्ग है। संभव है उस जीवन से मुझे बहुत जल्द घृणा हो जाय न मेरी आत्मा यह नहीं स्वीकार करना चाहती कि वह किसी ऊंचे ओहदे की गुलामी या कानूनी धोखेधड़ी या व्यापार के नाम से की जाने बाomलूट को अपने जीवन का आधार बनाए। श्रम और त्याग का जीवन ही मुझे तथ्य जान पड़ता है। आज जो समाज और देश की दूषित अवस्था है उससे असहयोग करना मेरे लिए जुनून से कम नहीं है। मैं कभी-कभी अपने ही से। घृणा करने लगती हूंबाबू जी को एक हजार रुपये अपने छोटे से परिवार के लिए लेने का [ ३४८ ]
क्या हक है और मुझे बे-काम-धंधे इतने आराम से रहने का क्या अधिकार है ? मगर यह सब समझकर भी मुझमें कर्म करने की शक्ति नहीं है। इस भोगविलास के जीवन ने मुझे भी कर्महीन बना डाला हैं। और मेरे मिजाज में अमीरी कितनी है यह भी आपने देखा होगा। मेरे मुंह से बात निकलते ही अगर पूरी न हो जाय तो मैं बावली हो जाती हूं। बुद्धि का मन पर कोई नियंत्रण नहीं है। जैसे शराबी बार-बार हराम करने पर शराब नहीं छोड़ सकता वही दशा मेरी है। उसी की भांति मेरी इच्छाशक्ति बेजान हो गई है।

तिब्बी के प्रतिभावान मुखमंडल पर प्राय : चंचलता झलकती रहती थी। उससे दिल की बात कहते संकोच होता, क्योंकि शंका होती थी कि वह सहानुभूति के साथ सुनने के बदले फबतियां कसने लगेगीपर इस वक्त ऐसा जान पड़ा उसकी आत्मा बोल रही है। उसकी आंखें अर्द हो गई थींमुख पर एक निश्चित नम्रता और कोमलता ख़िल उठी थी।सन्तकुमार ने देखा उनका संयम फिसलता जा रहा है, जैसे किसी साग्रल ने बहुत देर के बाद दाता को मनगुर देख पाया हो और अपना मतलब कह सुनाने के लिए अधीर हो गया हो।

बोला-कितनी ही बार। बिल्कुल यही मेरे विचार हैं। मैं आपसे उससे बहुत निकट हूं, जितना समझता था।

तिब्बी प्रसन्न होकर बोली--अपने मुझे कभी बताया नहीं।

-आप भी तो आज ही खुली हैं।

-मैं डरती हूं कि लोग यही कहेंगे आप इतनी शान से रहती हैं, और बातें ऐसी करती हैं। अगर कोई ऐसी तरकीब होती जिससे मेरी यह अमीरामा आदतें छूट जाती तो मैं उसे जरूर काम में लाती। इस विषय की आपके पास कुछ पुस्तकें हों तो मुझे दीजिएमुझे आप अपनी शिष्या बना लीजिए।

सन्तकुमार ने रसिक भाव से कहा-मैं तो आपका शिष्य होने जा रहा था। और उसकी ओर मfभरी आंखों से ।

तिब्बी ने आंखें नी ची नहीं कीं। उनका हाथ पकड़कर बोनी आप तो दिल्लगी करते हैंमुझे ऐसा बना दीजिए कि मैं संकटों का सामना कर सकू। मुझे बार बार खटकता अगर मैं स्त्री न होती तो मेरा मन इतना दुर्बल न होता

और जैसे वह आज सन्तकुमार से कुछ भी छिपाना, कुछ भी बचाना नहीं चाहतो। मागां वह जो आश्रय बहुत दिनों से ढूंढ़ रही थी वह यकायक मिल गया हैं।

सन्तकुमार ने रुखाई भरे स्वर में कहास्त्रियां पुरुषों से ज्यादा दिलेर होती हैं मिस

अच्छा आपका मन नहीं चाहता कि बस हो तो संसार की सारी व्यवस्था बदल डाले?

इस विशुद्ध मन से निकले हुए प्रश्न का बनावटी जवाब देते हुए सन्तकुमार का हृदय कप उठा।

कुछ न पूछो। बस आदमी एक आह खींवकर रह जाता है।

मैं तो अक्सर रातों को यह प्रश्न सोचते-सोचते सो जाती हैं और वही स्वप्न देरलानी हूं। देखिए दुनिया वाले कितने खुदगर्ज हैंजिस व्यवस्था से सारे समाज का उद्धार हो म्कता है वह थोड़े से आदमियों के स्वार्थ के कारण दबी पड़ी हुई है।

सन्तकुमार ने उतरे हुए मुख से कहा-उसका समय आ रहा है। और उठ खड़े हुए। यहां [ ३४९ ]
की वायु में उनका जैसे दम घुटने लगा था। उनका कपटी मन इस निष्कपटसरल वातावरण में अपनी अधमता के ज्ञान से दबा जा रहा था जैसे किसी धर्मनप्ठ में अधर्म विचार घुस मन तो गया हो पर वह कोई आश्रय न पा रहा हो। तिब्बी ने आग्रह किया-कुछ देर और चैटि न?

आज आज्ञा दीजिएफिर कभी अऊंगा

- कब आइएगा

जल्द ही आग।

- काश, मैं आपका जीवन सुखी बना सकती ।

सन्तकुमार बरामदे में दकर नीचे उतरे और ने जी म हाते के बाहर चले गएतिब्बी बरामदे में घड़ी उन्हें अनुरक्त ों से देखती रही। वह कठोर थी. चंचल थी, दुर्लभ थी रूपगर्विता थी, चतुर भी, किसी को कुछ समझनी न थी, न कोई उसे प्रेम का स्वांग भरकर ठग सकता था, पर जैसे कितनी ही वेश्याओं में मारी आसक्तियां के बीच में भक्त-भावना छिपी। रहती है, उसी तरह उसके मन में भी सार अविश्वास के क्ध में कोमलसहमा हुआ विश्वास छिपा बैठा था और उसे स्पर्श करने की कनाजिम आती हो वह अरं बेवक्फ बना सकता था। उस कोमल भाग का ग्प होते ही वह सीधी स्पदा, स्मरत्न विश्वासमयी, कातर बाल्म्किा बन जाती थी। आज इत्तफाक से सन्नकुमार ने द अमन पा लिया था और अब वह जिस तरफ चाहे उम न जा सकता है. मानो वह ममगइज ा गइ था। स५राकुमार में उसे कोई दोष नहीं नजर आताअभभागनी शुपा इस सत्यपुरुष का जीवन कैसा नटकिए डालती है। इन्हें तो ऐसी गनी चाहिए जो इन्हें प्रोत्साहित करें, पशः अन्ना पर ची रहे। पुष्पा नहीं जानता वह इनके जीवन का रा बनकर १1ाज क कितना अन्टि कर रही । है। रि इतने पर । भी सन्नकुमार का। ये रTने वाघ रघुना द्र त्न से कम नहीं। एन7 व लोन गो सेवा करें, कैसे उनका जीवन ट्रा कई !