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प्रेमचंद रचनावली ६/मंगलसूत्र-४

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गोदान
प्रेमचंद

पृष्ठ ३४९ से – - तक

 

—सच!

—हां जी। उस पर तो जैसे मैंने जादू की लकड़ी फेर दी हो।

—फिर क्या, बाजी मार ली है। अपने फादर से आज ही जिक्र छेड़ो।

—आपको भी मेरे साथ चलना पड़ेगा।

—हां, हां, मैं तो चलूंगा ही। मगर तुम तो बड़े खुशनसीब निकले—यह मिस कामत ताे मुझसे सचमुच आशिकी कराना चाहती है। मैं तो स्वांग रचता हूं और वह समझती है, मैं उसका सच्चा प्रेमी हूं। जरा आजकल उसे देखो, मारे गरूर के जमीन पर पांव ही नहीं रखती। मगर एक बात है, औरत समझदार है। उसे बराबर यह चिंता रहती है मैं उसके हाथ से निकल न जाऊं, इसलिए मेरी बड़ी खातिरदारी करती है, और बनाव-सिंगार से कुदरत की कमी जितनी पूरी हो सकती है उतनी करती है। और अगर कोई अच्छी रकम मिल जाय तो शादी कर लेने ही में क्या हरज है।

सन्तकुमार को आश्चर्य हुआ—तुम तो उसकी सूरत से बेजार थे।

—हां, अब भी हूं, लेकिन रुपये की जो शर्त है। डॉक्टर साहब बीस पच्चीस हजार मेरी नजर कर दें, शादी कर लूं। शादी कर लेने से मैं उसके हाथ में बिका तो नहीं जाता।

दूसरे दिन दोनों मित्रों ने देवकुमार के सामने सारे मंसूबे रख दिए। देवकुमार को एक क्षण तक तो अपने कानों पर विश्वास न हुआ। उन्होंने स्वच्छंद, निर्भीक, निष्कपट जिदगी व्यतीत की थी। कलाकारों में एक तरह का जो आत्माभिमान होता है, उसने सदैव उनको ढारस दिया था। उन्होंने तकलीफें उठाई थीं, फाके भी किए थे, अपमान सहे थे लेकिन कभी अपनी आत्मा को कलुषित न किया था। जिंदगी में कभी अदालत के द्वार तक ही नहीं गए। बोले मुझे खेद होता है कि तुम मुझसे यह प्रस्ताव कैसे कर सके। और इससे ज्यादा दुःख इस बात का है कि ऐसी कुटिल चाल तुम्हारे मन में आई क्योंकर।

सन्तकुमार ने निस्संकाेच भाव से कहा—जरूरत सब कुछ सिखा देती है। स्वरक्षा प्रकृति का पहला नियम है। वह जायदाद जो आपने बीस हजार में दे दी, आज दो लाख से कम का नहीं है।

—वह दो लाख को नहीं, दस लाख की हो। मेरे लिए वह आत्मा को बेचने का प्रश्न है। मैं थोड़े से रुपयों के लिए अपनी आत्मा नहीं बेच सकता।

दानों मित्रों ने एक-दूसरे की ओर देखा और मुस्कराए। कितनी पुरानी दलील है और कितनी लचर। आत्मा जैसी चीज है कहा? और जब सारा संसार धोखेड़ी पर चल रहा है तो आत्मा कहां रही? अगर सौ रुपये कर्ज देकर एक हजार वसूल करना अधर्म नहीं है, अगर एक लाख नीमजान, फाकेकश मजदूरों की कमाई पर एक सेठ का चैन करना अधर्म नहीं है तो एक पुरानो कागजी कार्रवाई को रद कराने का प्रयत्न क्यों अधर्म हो?

—सन्तकुमार ने तीखे स्वर में कहा—अगर आप इसे आत्मा का बेचना कहते हैं तो बेचना पड़ेगा। इसके सिवा दूसरा उपाय नहीं है। और आप इस दृष्टि से इस मामले को देखते ही क्यों हैं? धर्म वह है जिससे समाज का हित हो। अधर्म वह है जिससे समाज का अहित हो। इसमें समाज का कौन-सा अहित हो जायगा, यह आप बता सकते हैं?

देवकुमार ने सतर्क होकर कहा—समाज अपनी मर्यादाओं पर टिका हुआ है। उन मर्यादाओं को तोड़ दो और समाज का अंत हो जाएगा।

दोनों तरफ से शास्त्रार्थ होने लगे। देवकुमार मर्यादाओं और सिद्धांतों और धर्म-बंधनों को आड़ ले रहे थे, पर इन दोनों नौजवानों की दलीलों के सामने उनकी एक न चलती थी। वह अपनी सुफेद दाढ़ी पर हाथ फेर-फेरकर और खल्वाट सिर खुजा-खुजा कर जो प्रमाण देते थे उसको यह दोनों युवक चुटकी बजाते तून डालते थे, धुनककर उड़ा देते थे।

सिन्हा ने निर्दयता के साथ कहा—बाबूजी, आप न जाने किस जमाने की बातें कर रहे हैं। कानून से हम जितना फायदा उठा सकें, हमें उठाना चाहिए। उन दफों का मंशा ही यह हैं कि उनसे फायदा उठाया जाय। अभी आपने देखा जमींदारों की जान महाजनों से बचाने के लिए सरकार ने कानून बना दिया है और कितनी मिल्कियतें जमींदारों को वापस मिल गई। क्या आप इसे अधर्म कहेंगे? व्यावहारिकता का अर्थ यही है कि हम जिन कानूनी साधनों से अपना काम निकाल सकें, निकालें। मुझे कुछ लेना-देना नहीं, न मेरा कोई स्वार्थ है। सन्तकुमार मेरे मित्र हैं और इसी वास्ते मैं आपसे यह निवेदन कर रहा हूं। मानें या न मानें, आपको अख्तियार है।

देवकुमार ने लाचार होकर कहा—तो आखिर तुम लोग मुझे क्या करने को कहते हो?

—कुछ नहीं, केवल इतना ही कि हम जो कुछ करें आप उसके विरुद्ध कोई कार्रवाई न करें।

—मैं सत्य की हत्या होते नहीं देख सकता।

सन्तकुमार ने आंखें निकाल कर उतेजित स्वर में कहा—तो फिर आपको मेरी हत्या देखनी पड़ेगी।

सिन्हा ने सन्तकुमार को डांटा—क्या फजूल की बातें करते हो सन्तकुमार! बाबू जी को दो चार दिन सोचने का मौका दो। तुम अभी किसी बच्चे के बाप नहीं हो। तुम क्या जानो बाप को बेटा कितना प्यारा होता है। वह अभी कितना ही विरोध करें, लेकिन जब नालिश दायर हो जायगी तो देखना वह क्या करते हैं। हमारा दावा यही होगा कि जिस वक्त आपने यह बैनामा लिखा, आपके होश-हवास ठीक न थे और अब भी आपको कभी-कभी जुनून का दौरा हो जाता है। हिन्दुस्तान जैसे गर्म मुल्क में यह मरज बहुतों को होता है, और आपको भी हो गया तो कोई आश्चर्य नहीं। हम सिविल सर्जन स इसकी तसदीक करा देंगे।

देवकुमार ने हिकारत के साथ कहा—मेरे जीते जी यह धोका नहीं हो सकती। हरगिज नहीं। मैंने जो कुछ किया सोच-समझकर और परिस्थितियों के दबाव से किया। मुझे उसका बिल्कुल अफसोस नहीं है। अगर तुमने इस तरह का कोई दावा किया तो उसका सबसे बड़ा विरोध मेरी ओर से होगा, मैं कहे देता है।

और वह आवेश में आकर कमरे में टहलने लगे।

सन्तकुमार ने भी खड़े होकर धमकाते हुए कहा—तो मेरा भी आपको चेलेंज है। या तो आप अपने धर्म ही की रक्षा करेंगे या मेरी। आप फिर मेरी सूरत न देखेंगे।

—मुझे अपना धर्म, पत्नी और पुत्र सबसे प्यारा है।

सिन्हा ने सन्तकुमार को आदेश किया—तुम आज दरखास्त दे दो कि आपके होश-हवास में फर्क आ गया और मालूम नहीं आप क्या कर बैठें। आपको हिरासत में ले लिया जाय।

देवकुमार ने मुट्ठी तानकर क्रोध के आवेश में पूछा—मैं पागल हूं?

—जी हां, आप पागल हैं। आपके होश बजा नहीं हैं। ऐसी बातें पागल ही किया करते हैं। पागल वही नहीं है जो किसी को काटने दौड़े। आम आदमी जो व्यवहार करते हों उसके विरुद्ध व्यवहार करना भी पागलपन है।

—तुम दोनों खुद पागल हो।

—इसका फैसला तो डॉक्टर करेगा।

—मैंने बीसों पुस्तकें लिख डालीं, हजारों व्याख्यान दे डाले, यह पागलों का काम है?

—जी हां, यह पक्के सिरफिरों का काम है। कल ही आप इस घर में रस्सियों से बांध लिये जायेंगे।

—तुम मेरे घर से निकल जाओ, नहीं तो मैं गोली मार दूंगा।

—बिल्कुल पागलों की-सी धमकी। सन्तकुमार उस दर्खास्त में यह भी लिख देना कि आपकी बंदूक छीन ली जाय, वरना जान का खतरा है।

और दोनों मित्र उठ खड़े हुए। देवकुमार कभी कानून के जाल में न फंसे थे। प्रकाशकों और बुकसेलरों ने उन्हें बारहा धोखे दिए, मगर उन्होंने कभी कानून की शरण न ली। उनके जीवन की नीति थी—आप भला तो जग भला, और उन्होंने हमेशा इस नीति का पालन किया था। मगर वह दब्बू या डरपोक न थे। खासकर सिद्धांत के मुआमले में तो वह समझौता करना जानते ही न थे। वह इस षड्यंत्र में कभी शरीक न होंगे, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय। मगर क्या यह सब सचमुच उन्हें पागल साबित कर देंगे? जिस दृढ़ता से सिन्हा ने धमकी दी थी, वह उपेक्षा के योग्य न थी। उसकी ध्वनि से तो ऐसा मालूम होता था कि वह इस तरह के दांव-पेंच में अभ्यस्त है, और शायद डाॅक्टरों को मिलाकर सचमुच उन्हें सनकी साबित कर दे। उनका आत्माभिमान गरज उठा—नहीं, वह असत्य की शरण न लेंगे चाहे इसके लिए उन्हें कुछ भी सहना पड़े। डाॅक्टर भी क्या अंधा है? उनसे कुछ पूछेगा, कुछ बातचीत करेगा या योंही कलम उठाकर उन्हें पागल लिख देगा। मगर कहीं ऐसा तो नहीं है कि उनके होश-हवास में फितूर पड़ गया हो। हुश! वह भी इन छोकरों की बातों में आए जाते हैं। उन्हें अपने व्यवहार में कोई अंतर नहीं दिखाई देता। उनकी बुद्धि सूर्य के प्रकाश की भांति निर्मल है। कभी नहीं। वह इन लौंडों के धौंस में न आयंगे।

लेकिन यह विचार उनके हृदय को मथ रहा था कि सन्तकुमार की यह मनोवृत्ति कैसे हो गई। उन्हें अपने पिता की याद आती थी। वह कितने सौम्य, कितने सत्यनिष्ठ थे। उनके ससुर वकील जरूर थे, पर कितने धर्मात्मा पुरुष थे। अकेले कमाते थे और सारी गृहस्थी का पालन करते थे। पांच भाइयों और उनके बाल-बच्चों का बोझा खुद संभाले हुए थे। क्या मजाल कि अपने बेटे-बेटियों के साथ उन्होंने किसी तरह का पक्षपात किया हो। जब तक बड़े भाई को भोजन न करा लें खुद न खाते थे। ऐसे खानदान में सन्तकुमार जैसा दगाबाज कहां से धंस पड़ा? उन्हें कभी ऐसी कोई बात याद न आती थी जब उन्होंने अपनी नीयत बिगाड़ी हो।

लेकिन यह बदनामी कैसे सही जायगी। वह अपने ही घर में जब जागृति न ला सके ताे एक प्रकार से उनका सारा जीवन नष्ट हो गया। जो लोग उनके निकटतम संसर्ग में थे, जब उन्हें वह आदमी न बना सके तो जीवन-पर्यन्त की साहित्य-सेवा से किसका कल्याण हुआ? और जब यह मुकदमा दायर होगा उस वक्त वह किसे मुंह दिखा सकेंगे? उन्होंने धन न कमाया, पर यश तो संचय किया ही। क्या वह भी उनके हाथ से छिन जाएगा? उनको अपने संतोष के लिए इतना भी न मिलेगा ऐसी आत्मवेदना उन्हें कभी न हुई थी।

शैव्या से कहकर वह उसे भी क्यों दुखी करें? उसके कोमल हृदय को क्यों चोट पहुंचावे? वह सब कुछ खुद झेल लेंगे। और दुखी होने की बात भी क्यों हो? जीवन तो अनुभूतियों का नाम है। यह भी एक अनुभव होगा। जरा इसकी भी सैर कर लें।

यह भाव आते ही उनका मन हल्का हो गया। घर में जाकर पंकजा में चाय बनाने को कहा।

शैव्या ने पूछा—सन्तकुमार क्या कहता था?

उन्होंने सहज मुस्कान के साथ कहा—कुछ नहीं, वही पुराना खव्त।

—तुमने तो हामी नहीं भरी न?

देवकुमार स्त्री से एकात्मता का अनुभव करके बोले—कभी नहीं।

—न जाने इसके सिर यह भूत कैसे सवार हो गया।

—सामाजिक संस्कार हैं और क्या?

—इसके यह संस्कार क्यों ऐसे हो गए? साधु भी तो है, पंकजा भी तो हैं, दुनिया में क्या धर्म ही नहीं?

—मगर कसरत ऐसे ही आदमियों को है, यह समझ लो।

उस दिन से देवकुमार ने सैर करने जाना छोड़ दिया। दिन-रात घर में मुंह छिपाए बैठे रहते। जैसे सारा कलंक उनके माथे पर लगा हो। नगर और प्रांत के सभी प्रतिष्ठित, विचारवान आदमियों से उनका दोस्ताना था, सब उनकी सज्जनता का आदर करते थे। मानो वह मुकदमा दायर होने पर भी शायद कुछ न कहेंगे। लेकिन उनके अतर में जैसे चोर-सा बैटा हुआ था। वह अपने अहंकार में अपने को आत्मीयों की भलाई-बुराई का जिम्मेदार समझते थे। पिछले दिनों जब सूर्यग्रहण के अवसर पर साधुकुमार ने नदी हुई नदी में कूदकर एक डूबते हुए आदमी की जान बचाई थी, उस वक्त उन्हें उससे कहीं ज्यादा खुशी हुई थी जितनी खुद सारा यश पाने से होती। उनकी आंखों में आंसू भर आए थे, ऐसा लगा था मानो उनका मस्तक कुछ ऊंचा हो गया है, मानो मुख पर तेज आ गया है। वही लाेग जब सन्तकुमार की चितकवरी आलोचना करेंगे तो वह कैसे सुनेंगे?

इस तरह एक महीना गुजर गया और सन्तकुमार ने मुकदमा दायर-किया। उधर सिविल सर्जन को गांठना था, इधर मि° मलिक को शहादतें भी तैयार करनी थीं। इन्हीं तैयारियों में सारा दिन गुजर जाता था। और रूपये का इंतजाम भी करना ही था। देवकुमार सहयोग करते तो यह सबसे बड़ी बाधा हट जाती। पर उनके विरोध ने समस्या को और जटिल कर दिया था। सन्तकुमार कभी-कभी निराश हो जाता। कुछ समझ में न आता क्या करे। दोनों मित्र देवकुमार पर दांत पीस-पीसकर रह जाते।

सन्तकुमार कहता—जी चाहता है इन्हें गोली मार दूं। मैं इन्हें अपना बाप नहीं, शत्रु समझता हूँ।

सिन्हा समझाता—मेरे दिल में तो भई, उनकी इज्जत होती है। अपने स्वार्थ के लिए आदमी नीचे से नीचा काम कर बैठता है, पर त्यागियों और सत्यवादियों का आदर ताे दिल में होता ही है। न जाने तुम्हें उन पर कैसे गुस्सा आता है। जो व्यक्ति सत्य के लिए बड़े से बड़ा कष्ट सहने को तैयार हो वह पूजने के लायक है।

—ऐसी बातों से मेरा जी न जलाओ सिन्हा! तुम चाहते तो वह हजरत अब तक पागलखाने में होते। मैं न जानता था तुम इतने भावुक हो।

—उन्हें पागलखाने भेजना इतना आसान नहीं जितना तुम समझते हो। और इसकी कोई जरूरत भी तो नहीं। हम यह साबित करना चाहते हैं कि जिस वक्त बैनामा हुआ वह अपने होश-हवास में न थे। इसके लिए शहादतों की जरूरत है। वह अब भी उसी दशा में हैं इसे साबित करने के लिए डॉक्टर चाहिए और मि° कामत भी यह लिखने का साहस नहीं रखते।

पं° देवकुमार को धमकियों से झुकाना तो असंभव था मगर तर्क के सामने उनकी गर्दन आप ही आप झुक जाती थी। इन दिनों वह यही सोचते रहते थे कि संसार की कुव्यवस्था क्यों है? कर्म और संस्कार का आश्रय लेकर वह कहीं न पहुंच पाते थे। सर्वात्मवाद से भी उनकी गुत्थी न सुलझती थी। अगर सारा विश्व एकात्म है तो फिर यह भेद क्यों है? क्या एक आदमी जिंदगी-भर बड़ी से बड़ी मेहनत करके भी भूखों मरता है, और दूसरा आदमी हाथ-पांव न हिलाने पर भी फूलों की सेज पर सोता है। यह सर्वात्म है या घोर अनात्म? बुद्धि जवाब देती—यहां सभी स्वाधीन हैं, सभी को अपनी शक्ति और साधना के हिसाब से उन्नति करने का अवसर है। मगर शंका पूछती—सबको समान अवसर कहां है? बाजार लगा हुआ है। जो चाहे वहां से अपनी इच्छा की चीज खरीद सकता है। मगर खरीदेगा तो वहीं जिसके पास पैसे हैं। और जब सबके पास पैसे नहीं हैं तो सबका बराबर का अधिकार कैसे माना जाय? इस तरह का आत्ममंथन उनके जीवन में कभी न हुआ था। उनकी साहित्यिक बुद्धि ऐसी व्यवस्था से संतुष्ट तो हो ही न सकती थी, पर उनके सामने ऐसी कोई गुत्थी न पड़ी थी जो इस प्रश्न को वैयक्तिक अंत तक ले जाती। इस वक्त उनकी दशा उस आदमी की-सी थी जो रोज मार्ग में ईंटें पड़े देखता है और बचकर निकल जाता है। रात को कितने लोगों को ठोकर लगती होगी, कितनों के हाथ-पैर टूटते होंगे, इसका ध्यान उसे नहीं आता मगर एक दिन जब वह खुद रात को ठोकर खाकर अपने घुटने फोड़ लेता है तो उसकी निवारण शक्ति हठ करने लगती है और वह उस सारे ढेर को मार्ग से हटाने पर तैयार हो जाता है। देवकुमार को वही ठोकर लगी थी। कहां है न्याय? कहां है? एक गरीब आदमी किसी खेत से बालें नोचकर खा लेता है, कानून उसे सजा देता है। दूसरा अमीर आदमी दिन दहाड़े दूसरों को लूटता है और उसे पदवी मिलती है, सम्मान मिलता है। कुछ आदमी तरह तरह के हथियार बांधकर आते हैं और निरीह, दुर्बल मजदूरों पर आतंक जमाकर अपना गुलाम बना लेते हैं। लगान और टैक्स और महसूल और कितने ही नामों से उसे लूटना शुरू करते हैं, और आप लंबा-लंबा वेतन उड़ाते है, शिकार खेलते हैं, नाचते हैं, रंगरेलियां मनाते हैं। यही है ईश्वर का रचा हुआ संसार? यही न्याय है?

हां, देवता हमेशा रहेंगे और हमेशा रहें हैं। उन्हें अब भी संसार धर्म और नीति पर चलता हुआ नजर आता है। वे अपने जीवन की आहुति देकर संसार से विदा हो जाते हैं। लेकिन देवता क्यों कहो? कायर कहो, स्वार्थी कहो, आत्मसेवी कहाे। देवता वह है जो न्याय की रक्षा कर और उसके लिए प्राण दे दें। अगर वह जानकर अनजान बनता है तो धर्म में गिरता है। अगर उसकी आंखों में यह कुव्यवस्था खटकती ही नहीं तो वह अंधा भी है और मुर्ख भी, देवता किसी तरह नहीं। और यहां देवता बनने की जरूरत भी नहीं। देवताओं ने ही भाग्य और ईश्वर और भक्ति की मिथ्याएं फैलाकर इस अनीति को अमर बनाया है। मनुष्य ने अब तक इसका अंत कर दिया होता या समाज का ही अंत कर दिया होता जो इस दशा में जिंदा रहने से कहीं अच्छा होता। नहीं, मनुष्यों में मनुष्य बनना पड़ेगा। दरिंदों के बीच में उनसे लड़ने के लिए हथियार बांधना पड़ेगा। उनके पंजों का शिकार बनना देवतापन नहीं, जढ़ता है। आज जो इतने तालुकेदार और राजे हैं वह अपने पूर्वजों की लूट का ही आनंद तो उठा रहे हैं। और क्या उन्होंने यह जायदाद बेच कर पागलपन नहीं किया? पितरों को पिंडा देने के लिए गया जाकर पिंडा देना और यहां आकर हजारों रुपये खर्च करना क्या जरूरी था? और रातों को मित्रों के साथ मुजरे सुनना, और नाटक मंडली खोलकर हजारों रुपये उसमें डुबाना अनिवार्य था? वह अवश्य पागलपन था। उन्हें क्यों अपने बाल-बच्चों की चिन्ता नहीं हुई? अगर उन्हें मुफ्त की संपत्ति मिली और उन्होंने उड़ाया तो उनके लड़के क्यों न मुफ्त की संपत्ति भोगें? अगर वह जवानी की उमंगों को नहीं रोक सके तो उनके लड़के क्यों तपस्या करें?

और अंत में उनकी शंकाओं को इस धारणा से तस्कीन हुई कि इस अनीति भरे संसार में धर्म-अधर्म का विचार गलत है, आत्मघात है। और जुआ खेलकर या दूसरों के लाेभ और आसक्ति से फायदा उठाकर संपत्ति खड़ी करना उतना ही बुरा या अच्छा है जितना कानूनी दांव-पेंच से। बेशक वह महाजन के बीस हजार के कर्जदार हैं। नीति कहती है कि उस जायदाद को बेचकर उसके बीस हजार दे दिये जायें। बाकी उन्हें मिल जाये। अगर कानून कर्जदारों के साथ इतना न्याय भी नहीं करता तो कर्जदार भी कानून में जितनी खींचतान हो सके करके महाजन से अपनी जायदाद वापस सेने की चेष्टा करने में किसी अधर्म का दोषी नहीं ठहर सकता। इस निष्कर्ष पर उन्होंने शास्त्र और नीति के हरेक पहलू में विचार किया और वह उनके मन में जम गया। अब किसी तरह नहीं हिल सकता। और यद्यपि इससे उनके चिर-संचित संस्कारों को आघात लगता था, पर वह ऐसे प्रसन्न और फैले हुए थे मानो उन्हें कोई नया जीवन मंत्र मिल गया हो।

एक दिन उन्होंने सेठ गिरधर दास के पास जाकर साफ-साफ कह दिया—अगर आप मेरी जायदाद वापस न करेंगे तो मेरे लड़के आपके ऊपर दावा करेंगे।

गिरधर दास नये जमाने के आदमी थे अंग्रेजी में कुशल कानून में चतुर राजनीति में भाग लेने वाले, कंपनियों में हिस्से लेते थे, और व्यापार अच्छा देखते-बेच देते थे, एक शक्कर का मिल खुद चलाते थे। सारा कारोबर अंग्रेजी ढंग से करते थे। उनका पता सेट मक्कूलाल भी यही सब करते थे, पर पूजा-पाठ, दान-दक्षिणा से प्रायश्विन करते रहते थे, गिरधर दास पक्के जड़वादी थे, हरेक काम व्यापार के कायदे से करते थे। कर्मचारियों का वेतन पहली तारीख को देते थे, मगर बीच में किसी को जरूरत पड़े तो सूद पर रुपये देते थे, मक्कूलाल जी साल साल भर वेतन न देते थे, पर कर्मचारियों को बराबर पेशगी देते रहते थे। हिसाब होने पर उनको कुछ देने के बदले कुछ मिल जाता था। मक्कूलाल साल में दो-चार बार अफसरों को सलाम करने जाते थे, डालियां देते थे, जूते उतार कर कमरे में जाते थे और हाथ बांधे खड़े रहते थे। चलते वक्त आदमियों को दो-चार रुपये इनाम दे आते थे। गिरधर दास म्युनिसिपल कमिश्नर थे, सूट-बूट पहन कर अफसरों के पास जाते थे और बराबरी का व्यवहार करेंगे और आदमियों के साथ केवल इतनी रिआयत करते थे कि त्योहारों में त्यांहारी दे देते थे, वह भी खूब खुशामद करा के। अपने हकों के लिए लड़ना और आंदोलन करना जानते थे, मगर उन्हें ठगना असंभव था।

देवकुमार का यह कथन सुनकर चकरा गये। उनकी बड़ी इज्जत करते थे। उनकी कई पुस्तकें पढ़ी थीं, और उनकी रचनाओं का पूरा सेट उनके पुस्तकालय में था। हिंदी भाषा के प्रेमी थे और नागरी-प्रचार सभा को कई बार अच्छी रकमें दान दे चुके थे। पंडा-पुजारियों के नाम से चिढ़ते थे, दूषित दान प्रथा पर एक पैम्पलेट भी छपवाया था। लिबरल विचारों के लिए नगर में उनकी ख्याति थी। मक्कूलाल मारे मोटापे के जगह से हिल न सकते थे, गिरधर दास गठीले आदमी थे और नगर-व्यायामशाला के प्रधान ही न थे, अच्छे शहसवार और निशानेबाज थे।

एक क्षण तो वह देवकुमार के मुंह की ओर देखते रहे। उनका आशय क्या है, यह समझ में ही न आया। फिर ख्याल आया बेचारे आर्थिक संकट में होंगे, इससे बुद्धि भ्रष्ट हो गई हैं। बेतुकी बातें कर रहे हैं। देवकुमार के मुख पर विजय का गर्व देखकर उनका यह खयाल और मजबूत हो गया।

सुनहरी ऐनक उतारकर मेज पर रखकर विनोद भाव से बोलें—कहिए, घर में तो सब कुशल तो हैं?

देवकुमार ने विद्रोह के भाव से कहा—जी हां, सब आपकी कृपा है।

—बड़ा लड़का तो वकालत कर रहा है न?

—जी हां।

—मगर चलती न होगी और आपकी पुस्तकं भी आजकल कम बिकती होंगी। यह देश का दुर्भाग्य है कि आप जैसे सरस्वती के पुत्रों का यह अनादर! आप यूरोप में होते तो आज लाखों के स्वामी होते!

—आप जानते हैं, मैं लक्ष्मी के उपासकों में नहीं है।

—धन-संकट में तो होंगे ही। मुझ से जो कुछ सेवा आप करें, उसके लिए तैयार हूँ। मुझे तो गर्व है कि आप जैसे प्रतिभाशाली पुरुष से मेरा परिचय है। आपकी कुछ सेवा करके मेरे लिए गौरव की बात होगी।

देवकुमार ऐसे अवसरों पर नम्रता के पुतले बन जाते थे। भक्ति और प्रशंसा देकर कोई उनका सर्वस्व ले सकता था। एक लखपती आदमी और वह भी साहित्य का प्रेमी जब उनका इतना सम्मान करता है तो उससे जायदाद या लेन-देन की बात करना उन्हें लज्जाजनक मालूम हुआ। बोले—आपकी उदारता है जो मुझे इस योग्य समझते हैं।

—मैंने समझा नहीं आप किस जायदाद की बात कह रहे थे।

देवकुमार सकुचाते हुए बोले—अजी वही, जो सेठ मक्कूलाल ने मुझसे लिखाई थी।

—अच्छा तो उसके विषय में कोई नयी बात है?

—उसी मामले में लड़के आपके ऊपर कोई दावा करने वाले हैं। मैंने बहुत समझाया, मगर मानते नहीं। आपके पास इसीलिए आया था कि कुछ-ले-देकर समझौता कर लीजिए, मामला अदालत में क्यों जाय? नाहक दोनों जेरबार होंगे।

गिरधर दास का जहीन, मुरौवतदार चेहरा कठोर हो गया। जिन महाजनी नखों को उन्होंने भद्रता की नर्म गद्दी में छिपा रखा था, वह यह खटका पाते ही पैने और उग्र होकर बाहर निकल आये।

क्रोध को दबाते हुए बोले—आपको मुझे समझाने के लिए यहां आने की तकलीफ उठाने की कोई जरूरत न थी। उन लड़कों ही को समझाना चाहिए था।

—उन्हें तो मैं समझा चुका।

—ताे जाकर शांत बैठिए। मैं अपने हकों के लिए लड़ना जानता हूँ। अगर उन लोगों के दिमाग में कानून की गर्मी का असर हो गया है तो उसकी दवा मेरे पास है।

अब देवकुमार की साहित्यिक नम्रता भी अविचलित न रह सकी। जेसे लड़ाई का पैगाम स्वीकार करते हुए बोले—मगर आपको मालूम होना चाहिए वह मिल्कियत आज दो लाख से कम की नहीं हैं।

—दो लाख नहीं, दस लाख की हो, आपसे सराकार नहीं।

—आपने मुझे बीस हजार ही तो दिये थे।

—आपको इतना कानून तो मालूम ही होगा, हालांकि कभी आप अदालत में नहीं गए, कि जो चीज विक जाती है वह कानूनन किसी दाम पर भी वापस नहीं की जाती। अगर इस नये कायदे को मान लिया जाय तो इस शहर में महाजन न नजर आयें।

कुछ देर तक सवाल-जवाब होता रहा और लड़ने वाले कुत्तों की तरह दोनों भले आदमी गुराने, दांत निकालने, खीखियाने रहे। आखिर दोनों लड़ ही गए।

गिरधर दास ने प्रचंड होकर कहा—मुझे आपसे ऐसी आशा नहीं थी।

देवकुमार ने भी छड़ी उठाकर कहा—मुझे भी न मालुम था कि आपके स्वार्थ का पेट इतना गहरा है।

—आप अपना सर्वनाश करने जा रहे हैं।

—कुछ परवाह नही!

देवकुमार वहां से चले तो माघ को उस अंधेरी रात की निर्दय ठंड में भी उन्हें पसीना हो रहा था। विजय का ऐसा गर्व अपने जीवन में उन्हें कभी न हुआ था। उन्होंने तर्क में तो बहुतों पर विजय पाई थी। यह विजय थी जीवन में एक नई प्रेरणा, एक नई शक्ति का उदय।

उसी रात को सिन्हा और सन्तकुमार ने एक बार फिर देवकुमार पर जोर डालने का निश्चय किया। दोनों आकर खड़े ही थे कि देवकुमार ने प्रोत्साहन भरे हुए भाव से कहा—तुम लोगों ने अभी तक मुआमला दायर नहीं किया। नाहक क्योंं देर कर रहे हो।

सन्तकुमार के सूखे हुए निराश मन में उल्लास की आधी सी आ गई। क्या सचमुच कहीं ईश्वर है जिस पर उसे कभी विश्वास नहीं हुआ? जरूर कोई दैवी शक्ति है। भीख मांगने आए थे, वरदान मिल गया।

बोला—आप ही की अनुमति का इंतजार था।

—मैं बड़ी खुशी से अनुमति देता हूं। मेरे आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं।

उन्होंने गिरधर दास से जो बातें हुई वह कह सुनाई।

सिन्हा ने नाक फुलाकर कहा—जब आपकी दुआ है तो हमारी फतह हैं। उन्हें अपने धन का घमंड होगा, मगर यहां भी कच्ची गोलियां नहीं खेली है।

सन्तकुमार ऐसा खुश था गोया आधी मंजिल तय हो गई। बोला—आपने जून उचित जवाब दिया।

सिन्हा ने तनी हुई ढोलकी-सी आवाज में बोले मारो—ऐसे-ऐसे सेठों को उगलियों पर नचाते हैं यहां।

सन्तकुमार स्वप्न देखने लगे—यहीं हम दोनों के बंगले बनेंगे दोस्त।

—यहां क्यों, सिविल लाइन्स में बनवायेंगे।

—अंदाज से कितने दिन में फैसला हो जायगा?

—छ: महीने के अंदर।

—बाबू जी के नाम से सरस्वती मंदिर बनवायेंगे।

मगर समस्या थी, रुपये कहां से आवें। देवकुमार निस्पृह आदमी थे। धन की कभी उपासना नहीं की। कभी इतना ज्यादा मिला ही नहीं कि संचय करते। किसी महीने में पचास जमा होते तो दूसरे महीने में खर्च हो जाते। अपनी सारी पुस्तकों का कॉपीराइट बेचकर उन्हें पांच हजार मिले थे। वह उन्होंने पंकजा के विवाह के लिए रख दिए थे। अब ऐसी कोई सूरत नहीं थी जहां में कोई बड़ी रकम मिलती। उन्होंने समझा था सन्तकुमार घर का खर्च उठा लेगा और वह कुछ दिन आराम से बैठेंगे या घूमेंगे। लेकिन इतना बड़ा मंसूबा बांधकर वह अब शांत कैसे बैठ सकते हैं? उनके भक्तों की काफी तादाद थी। दो-चार राजे भी उनके भक्तों में थे जिनकी यह पुरानी लालसा थी कि देवकुमार जी उनके घर को अपने चरणों से पवित्र करें और वह अपनी श्रद्धा उनके चरणों में अर्पण करें। मगर देवकुमार थे कि कभी किसी दरबार में कदम नहीं रक्खा, अब अपने प्रेमियों और भक्तों से आर्थिक संकट का रोना रो रहे थे और खुले शब्दों में सहायता की याचना कर रहे थे। वह आत्मगौरव जैसे किसी कब्र में सो गया हो।

और शीघ्र ही इसका परिणाम निकला। एक भवन ने प्रस्ताव किया कि देवकुमार जी की साठवीं सालगिरह धूमधाम से मनाई जाय और उन्हें साहित्य-प्रेमियों की ओर से एक थैली भेंट की जाय। क्या यह लज्जा और दुख की बात नहीं है कि जिस महारथी ने अपने जीवन के चालीस वर्ष साहित्य-सेवा पर अर्पण कर दिए, वह इस वृद्धावस्था में भी आर्थिक-चिंताओं से मुक्त न हो? साहित्य याे नहीं फल-फूल सकता। जब तक हम अपने साहित्य-सेवियों का ठोस सत्कार करना न सीखेंगे, साहित्य कभी उन्नति न करेगा, और दूसरे समाचारपत्रों ने मुक्त कंठ से इसका समर्थन किया। अचरज की बात यह थी कि वह महानुभाव भी जिनका देवकुमार से पुराना साहित्यिक वैमनस्य था, वे भी इस अवसर पर उदारता का परिचय देने लगे। बात चल पड़ी। एक कमेटी बन गई। एक राजा साहब उसके प्रधान बन गये। मि° सिन्हा ने कभी देवकुमार की कोई पुस्तक न पढ़ी थी पर वह इस आंदोलन में प्रमुख भाग लेते थे। मिस कामत और मिस मलिक की आर से भी समर्थन हो गया। महिलाओं को पुरुषों से पीछे न रहना चाहिए। जेठ में तिथि निश्चित हुई। नगर के इंटरमीडिएट कॉलेज में इस उत्सव की तैयारिया होने लगीं।

आखिर वह तिथि आ गयी। आज शाम को वह उत्सव होगा। दूर-दूर से साहित्य प्रेमी आए हैं। सोरांव के कुंअर साहब वह थैली भेंट करेंगे। आशा से ज्यादा सज्जन जमा हो गए हैं। व्याख्यान होंगे, गाना होगा, ड्रामा खेला जायगा, प्रीति भोज होगा, कवि सम्मेलन होगा। शहर में दीवारों पर पोस्टर लगे हुए हैं। सभ्य-समाज में अच्छी हलचल है। राजा साहब सभापति हैं।

देवकुमार को तमाशा बनने से नफरत थी। पब्लिक जलसों में भी कम आते-जाते थे। लेकिन आज तो बरात का दूल्हा बनना ही पड़ा। ज्यों-ज्यों सभा में जाने का समय समीप आता था उनके मन पर एक तरह का अवसाद छाया जाता था। जिस वक्त थैली उनको भेंट की जायगी और वह हाथ बढ़ाकर लेंगे वह दृश्य कैसा लज्जाजनक होगा। जिसने कभी धन के लिए हाथ नहीं फैलाया वह इस आखिरी वक्त में दूसरों का दान ले? यह दान ही है, और कुछ नहीं। एक क्षण के लिए उनका आत्मसम्मान विद्रोही बन गया। इस अवसर पर उनके लिए शाेभा यही देता है कि वह थैली पाते ही उसी जगह किसी सार्वजनिक संस्था को दे दें। उनके जीवन के आदर्श के लिए यही अनुकूल होगा, लोग उनसे यही आशा रखते हैं, इसी में उनका गौरव है। वह पंडाल में पहुंचे तो उनके मुख पर उल्लास की झलक न थी। वह कुछ खिसियाये से लगते थे। नेकनामों की लालसा एक ओर खींचती थी, लोभ दूसरी ओर। मन को कैसे समझाएं कि यह दान दान नहीं, उनका हक है। लोग हंसेंगे, आखिर पैसे पर टूट पड़ा। उनका जीवन बौद्धिक था, और बुद्धि जो कुछ करती है नीति पर कसकर करती है। नीति का सहारा मिल जाय तो फिर वह दुनिया की परवाह नहीं करती। वह पहुंचे तो स्वागत हुआ, मंगल-गान हुआ, व्याख्यान होने लगे। जिनमें उनकी कीर्ति गाई गई। मगर उनकी दशा उस आदमी की-सी हो रही थी जिसके सिर में दर्द हो रहा हो। उन्हें इस वक्त इस दर्द की दवा चाहिए। कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। सभी विद्वान् हैं, मगर उनकी आलोचना कितनी उथली, ऊपरी है जैसे कोई उनके संदेशों को समझा ही नहीं, जैसे यह सारी वाह-वाह और साग यह अंध-भक्ति के सिवा और कुछ न था। कोई भी उन्हें नहीं समझा—किस प्रेरणा ने चालीस साल तक उन्हें संभाले रखा वह कौन-सा प्रकाश था जिसकी ज्योति कभी मंद नहीं हुई।

सहसा उन्हें एक आश्रय मिल गया और उनके विचारशील, पीले मुख पर हल्की सी सुखी दौड़ गई। यह दान नहीं प्राविडेंट फंड है जो आज तक उनकी आमदनी से कटता जा रहा है। सरकार की नौकरी में लोग पेंशन पाते हैं, क्या वह दान है? उन्होंने जन्ता की सेवा की है, तन-मन से की है इस धुन से की है जा बड़े-से-बड़े वेतन से भी न आ सकती थी। पेंशन लेने में क्यों लाज आये?

राजा साहब ने जब थैली भेंट की ताे देवकुमार के मुंह पर गर्व था, हर्ष था, विजय थीं।

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