प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/उनतीस

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प्रेमचंद रचनावली ५  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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उदय होगा। उसकी इच्छाएं फिर फूले-फलेंगी। भविष्य अपनी सारी आशाओं और आकांक्षाओं के साथ उसके सामने था—विशाल, उज्ज्वल, रमणीक रतन का भविष्य क्या था? कुछ नहीं; शून्य, अंधकार !

जालपा आंखें पोंछकर उठ खड़ी हुई। बोली-पत्रों के जवाब देती रहना। रुपये देती जाओ।

रतन ने पर्स से नोटों को एक बंडल निकालकर उसके सामने रख दिया; पर उसके चेहरे पर प्रसन्नता न थी।

जालपा ने सरल भाव से कहा-क्या बुरा मान गईं।

रतन ने रूठे हुए शब्दों में कहा-बुरा मानकर तुम्हारा क्या कर लूंगी।

जालपा ने उसके गले में बांहें डाल दीं। अनुराग से उसका हृदय गदगद हो गया। रतन से उसे इतना प्रेम कभी न हुआ था। वह उससे अब तक खिंचतीथी,ईर्ष्या करती थी। आज उसे रतन का असली रूप दिखाई दिया।

यह सचमुच अभागिनी है और मुझसे बढ़कर।

एक क्षण बाद, रतन आंखों में आंसू और हंसी एक साथ भरे विदा हो गई।

उनतीस

कलकत्ते में वकील साहब ने ठरहने का इंतजाम कर लिया था। कोई कष्ट न हुआ। रतन ने महराज और टीमल कहार को साथ ले लिया था। दोनों वकील साहब के पुराने नौकर थे और घर के-से आदमी हो गए थे। शहर के बाहर एक बंगला था। उसके तीन कमरे मिल गए। इससे ज्यादा जगह को वहां जरूरत भी न थी। हाते में तरह-तरह के फूल-पौधे लगे हुए थे। स्थान बहुत सुंदर मालूम होता था। पास-पड़ोस में और कितने ही बंगले थे। शहर के लोग उधर हवाखोरी के लिए जाया करते थे और हरे होकर लौटते थे, पर रतन को वह जगह फाड़े खाती थी। बीमार के साथ वाले भी बीमार होते हैं। उदासों के लिए स्वर्ग भी उदास है।

सफर ने वकील साहब को और भी शिथिल कर दिया था। दो तीन दिन तो उनकी दशा उससे भी खराब रही, जैसी प्रयाग में थी, लेकिन दवा शुरू होने के दो-तीन दिन बाद वह कुछ संभलने लगे। रतन सुबह से आधी रात तक उनके पास ही कुर्सी डाले बैठी रहती । स्नान-भोजन की भी सुधि न रहती। वकील साहब चाहते थे कि यह यहां से हट जाय तो दिल खोलकर कराहें। उसे तस्कीन देने के लिए वह अपनी दशा को छिपाने की चेष्य करते रहते थे। वह पूछती, आज कैसी तबीयत है? तो वह फीकी मुस्कराहट के साथ कहते-आज तो जी बहुत हल्का मालूम होता है। बेचारे सारी रात करवटें बदलकर काटते थे; पर रतन पूछती-रात नींद आई थी? तो कहते-हां, खूब सोया। रतन पथ्य सामने ले जाती, तो अरुचि होने पर भी खा लेते। रतन समझती, अब यह अच्छे हो रहे हैं। कविराज जी से भी वह यही समाचार कहती। वह भी अपने उपचार की सफलता पर प्रसन्न थे।

एक दिन वकील साहब ने रतन से कहा-मुझे डर है कि मुझे अच्छा होकर तुम्हारी दवा न करनी पड़े। [ १३४ ]रतन ने प्रसन्न होकर कहा-इससे बढ़कर क्या बात होगी। मैं तो ईश्वर से मनाती हूं कि तुम्हारी बीमारी मुझे दे दें।

'शाम को घूम आया करो। अगर बीमार पड़ने की इच्छा हो, तो मेरे अच्छे हो जाने पर पड़ना।'

'कहां जाऊ, मेरा तो कहीं जाने को जी ही नहीं चाहता। मुझे यहीं सबसे अच्छा लगता वकील साहब को एकाएक रमानाथ का खयाल आ गया। बोले-जरा शहर के पार्को में घूम-घाम कर देखो, शायद् रमानाथ का पता चल जाय।

रतन को अपना वादा याद आ गया। रमा को पा जाने की आनंदमय आशा ने एक क्षण के लिए उसे चंचल कर दिया। कहीं वह पार्क में बैठे मिल जाएं, तो पूछू कहिए बाबूजी, अब कहां भागकर जाइएगा? इस कल्पना से उसकी मुद्रा खिल उठी। बोली-जालपा से मैंने वादा तो किया था कि पता लगाऊगी; पर यहां आकर भूल गई।

वकील साहब ने साग्रह कहा-आज चली जाओ। आज क्या, शाम को रोज घंटे भर के लिए निकल जाया करो।

रतन ने चिंतित होकर कहा–लेकिन चिंता तो लगी रहेगी।

वकील साहब ने मुस्कराकर कहा-मेरी? मैं तो अच्छा हो रहा है।

रतन ने संदिग्ध भाव से कहा-अच्छा, चली जाऊंगी। रतन को कल से वकील साहब के आश्वासने पर कुछ संदेह होने लगा था। उनकी चेष्टा से अच्छे होने का कोई लक्षण उसे न दिखाई देता था। इनका चेहरा क्यों दिन-दिन पीला पड़ता जाता है। इनकी आंखें क्यों हरदम बंद रहती हैं 'देह क्यों दिन-दिन घुलती जाती है । महराज और कहार से वह यह शंका न कह सकती थी। कविराज से पूछते उसे संकोच होता था। अगर कहीं रमा मिल जाते, तो उनसे पूछती। वह इतने दिनों से यहां हैं, किसी दूसरे डॉक्टर को दिखाती। इन कविराज जी से उसे कुछ-कुछ निराश हो चली थी।

जब रतन चली गई, तो वकील साहब ने टीमल से कहा-मुझे जरा उठाकर बिठा दो,टीमल। पड़े-पड़े कमर सीधी हो गई। एक प्याली चाय पिला दो। कई दिन हो गए, चाय की सूरत नहीं देखी। यह पथ्य मुझे मार डालता है। दूध देखकर ज्वर चढ़ आता है, पर उनकी खातिर से पी लेता हूं। मझे तो इन कविराज की दवा से कोई फायदा नहीं मालूम होता। तुम्क्या मालूम होता है?

टीमल ने वकील साहब को तकिए के सहारे बैठाकर कहा–बाबूजी सो देख लेव, यह तो मैं पहले ही कहने वाला था। सो देख लेवे, बहूजी के डर के मारे नहीं कहता था।

वकील साहब ने कई मिनट चुप रहने के बाद कहा-मैं मौत से डरता नहीं, टीमल !बिल्कुल नहीं। मुझे स्वर्ग और नरक पर बिल्कुल विश्वास नहीं है। अगर संस्कारों के अनुसार आदमी को जन्म लेना पड़ता है, तो मुझे विश्वास है, मेरा जन्म किसी अच्छे घर में होगा। फिर भी मरने को जी नहीं चाहता। सोचता हूं, मर गया तो क्या होगा।

टीमल ने कहा-बाबूजी सो देख लेव, आप ऐसी बातें न करें। भगवान् चाहेंगे, तो आप अच्छे हो जाएंगे। किसी दूसरे डाक्टर को बुलाऊं? आप लोग तो इंग्रेजी पढ़े हैं, सो देख लेव,कुछ मानते ही नहीं, मुझे तो कुछ और ही संदेह हो रहा है। कभी-कभी गंवारों को भी सुन लिय [ १३५ ]
करो। सो देख लेव, आप मानो चाहे न मानो, मैं तो एक सयाने को लाऊंगा। बंगाल के ओझे-सयाने मसहूर हैं।

वकील साहब ने मुंह फेर लिया। प्रेत-बाधा का वह हमेशा मजाक उड़ाया करते थे। कई ओझों को पीट चुके थे। उनका खयाल था कि यह प्रवंचना है, ढोंग है, लेकिन इस वक्त उनमें इतनी शक्ति भी न थी कि टीमल के इस प्रस्ताव का विरोध करते। मुंह फेर लिया।

महराज ने चाय लाकर कहा–सरकार, चाय लाया हूँ।

वकील साहब ने चाय के प्याले को क्षुधित नेत्रों से देखकर कहा-ले जाओ, अब न पीऊंगा। उन्हें मालूम होगी, तो दुखी होंगी। क्यों महराज, जब से मैं आया हूँ मेरा चेहरा कुछ हरा हुआ है?

महराज ने टीमल की ओर देखा। वह हमेशा दूसरों की राय देखकर राय दिया करते थे। खुद सोचने की शक्ति उनमें न थी। अगर टीमल ने कहा है, आप अच्छे हो रहे हैं, तो वह भी इसका समर्थन करेंगे। टीमल ने इसके विरुद्ध कहा है, तो उन्हें भी इसके विरुद्ध ही कहना चाहिए। टीमल ने उनके असमंजस को भांपकर कहा-हरा क्यों नहीं हुआ है, हां, जितना होना चाहिए उतना नहीं हुआ।

महराज बोले-हां, कुछ हरा जरूर हुआ है, मुदा बहत कम।

वकील साहब ने कुछ जवाब नहीं दिया। दो-चार वाक्य बोलने के बाद वह शिथिल हो जाते थे और दस-पांच मिनट शांत अचेत पड़े रहते थे। कदाचित् उन्हें अपनी दशा का यथार्थ ज्ञान हो चुका था। उसके मुख पर, बुद्धि पर, मस्तिष्क पर मृत्यु की छाया पड़ने लगी थीं। अगर कुछ आशा थी, तो इतनी ही कि शायद मन की दुर्बलता से उन्हें अपनी दशा इतनी हीन मालूम होती हो। उनका दम अब पहले से ज्यादा फूलने लगा था। कभी-कभी तो ऊपर की सांस ऊपर ही रह जाती थी। जान पड़ता था, बस अब प्राण निकला। भीषण प्राण-वेदना होने लगती थी। कौन जाने, कब यही अवरोध एक क्षण और बढ़कर जीवन का अंत कर दे। सामने उद्यान में चांदनी कुहरे की चादर ओढे, जमीन पर पड़ी सिसक रही थी। फूल और पौधे मलिन मुख, सिर झुकाए, आशा और भय से विकल हो-होकर मानो उसके वक्ष पर हाथ रखते थे, उसकी शीतल देह को स्पर्श करते थे और आंसू की दो बूदें गिराकर फिर उसी भांति देखने लगते थे।

सहसा वकील साहब ने आंखें खोलीं। आंखों के दोनों कोनों में आंसू की बूदें मचल रही थीं। क्षीण स्वर में बोले-टीमल । क्या सिद्धू आए थे?

फिर इस प्रश्न परआप ही लज्जित हो मुस्कराते हुए बोले-मुझे ऐसा मालूम हुआ, जैसे सिद्धू आए हों।

फिर गहरी सांस लेकर चुप हो गए, और आंखें बंद कर ली। सिद्ध उस बेटे का नाम था, जो जवान होकर मर गया था। इस समय वकील साहब को बराबर उसी की याद आ रही थी। कभी उसका बालपन सामने आ जाता, कभी उसका मरना आगे दिखाई देने लगता-कितने स्पष्ट, कितने सजीव चित्र थे। उनकी स्मृति कभी इतनी मूर्तिमान, इतनी चित्रमय न थी।

कई मिनट के बाद उन्होंने फिर आंखें खोलीं और इधर-उधर खोई हुई आंखों से देखा। [ १३६ ]उन्हें, अभी ऐसा जान पड़ता था कि मेरी माता आकर पूछ रही हैं, 'बेटा, तुम्हारा जी कैसा है?'

सहसा उन्होंने टीमल से कहा-यहां आओ। किसी वकील को बुला लाओ, जल्दी जाओ, नहीं वह घूमकर आती होंगी।

इतने में मोटर का हाने सुनाई दिया और एक पल में मोटर आ पहुंची। वकील को बुलाने की बात उड़ गई।

वकील साहब ने प्रसन्न-मुख होकर पूछा-कहां-कहां गईं? कुछ उसका पता मिला?

रतन ने उनके माथे पर हाथ रखते हुए कहा-कई जगह देखा। कहीं न दिखाई दिए। इतने बड़े शहर में सड़कों का पता तो जल्दी चलता नहीं, वह भला क्या मिलेंगे। दवा खाने का समय तो आ गया न?

वकील साहब ने दबी जबान से कहा-लाओ, खा लें।

रतन ने दवा निकाली और उन्हें उठाकर पिलाई। इस समय वह न जाने क्यों कुछ भयभीत-सी हो रही थी। एक अस्पष्ट, अज्ञात शंका उसके हृदय को दबाए हुए थी।

एकाएक उसने कहा-उन लोगों में से किसी को तार दे दूं?

वकील साहब ने प्रश्न की आंखों से देखा। फिर आप ही आप उसका आशय समझकर बोले-नहीं-नहीं, किसी को बुलाने की जरूरत नहीं। मैं अच्छा हो रहा हूं।

फिर एक क्षण के बाद सावधान होने की चेष्टा करके बोले–मैं चाहता हूं कि अपनी वसीयत लिखवा दें। जैसे एक शीतल, तीव्र बाण रतन के पैर से घुसकर सिर से निकल गया। मानो उसकी देह के सारे बंधन खुल गए, सारे अवयव बिखर गए, उसके मस्तिष्क के सारे परमाणु हवा में उड़ गए। मानो नीचे से धरती निकल गई, ऊपर से आकाश निकल गया और अब वह निराधार, निस्पंद, निर्जीव खडी है। अवरुद्ध, अश्रु-कपित कंठ से बोली-घर से किसी को बुलाऊं? यहां किससे सलाह ली जाए? कोई भी तो अपना नहीं है।

'अपनों' के लिए इस संमय रतन अधीर हो रही थी। कोई भी तो अपना होता, जिस पर वह विश्वास कर सकती, जिससे सलाह ले सकती। घर के लोग आ जाते, तो दौड़-धूप करके किसी दूसरे डाक्टर को बुलाते। वह अकेली क्या-क्या करे? आखिर भाई-बंद और किस दिन काम आवेंगे। संकट में ही अपने काम आते हैं। फिर यह क्यों कहते हैं कि किसी को मत बुलाओ । वसीयत की बात फिर उसे याद आ गई ! यह विचार क्यों इनके मन में आया? वैद्यजी ने कुछ कहा तो नहीं? क्या होने वाला है, भगवान् | यह शब्द अपने सारे संसर्गों के साथ उसके हृदय को विदीर्ण करने लगा। चिल्ला-चिल्लाकर रोने के लिए उसका मन विकल हो उठा। अपनी माता याद आई। उसके अंचल में मुंह छिपाकर रोने की आकांक्षा उसके मन में उत्पन्न हुई। उस स्नेहमय अंचल में रोकर उसकी बाल-आत्मा को कितना संतोष होता था। कितनी जल्द उसकी सारी मनोव्यथा शांत हो जाती थी। आह । यह आधार भी अब नहीं।

महराज ने अकार कहा-सरकार, भोजन तैयार है। थाली परोसे?

रतन ने उसकी ओर कठोर नेत्रों से देखा। वह बिना जवाब की अपेक्षा किए चुपके-से चला गया।

मगर एक ही क्षण में रतन को महराज पर दया आ गई। उसने कौन-सी बुराई की जो [ १३७ ]
भोजन के लिए पूछने आया। भोजन भी ऐसी चीज है, जिसे कोई छोड़ सके । वह रसोई में जाकर महराज से बोली-तुम लोग खा लो, महराज ! मुझे आज भूख नहीं लगी है।

महराज ने आग्रह किया-दो ही फुलके खा लीजिए, सरकार !

रतन ठिठक गई। महराज के आग्रह में इतनी सहृदयता, इतनी संवेदना भरी हुई थी कि रतन को एक प्रकार की सांत्वना का अनुभव हुआ। यहां कोई अपना नहीं है, यह सोचने में उसे अपनी भूल प्रतीत हुई। महराज ने अब तक रतन को कठोर स्वामिनी के रूप में देखा था। वहीं स्वामिनी आज उसके सामने खड़ी मानो सहानुभूति की भिक्षा मांग रही थी। उसकी सारी सद्वृत्तियां उमड़ उठीं। रतन को उसके दुर्बल मुख पर अनुराग का तेज नजर आया।

उसने पूछा-क्यों महराज, बाबूजी को इस कविराज की दवा से कोई लाभ हो रहा है?

महराज ने डरते-डरते वही शब्द दुहरा दिए, जो आज वकील साहब से कहे थे-कुछ-कुछ तो हो रहा है, लेकिन जितना होना चाहिए उतनी नहीं।

रतन ने अविश्वास के अंदाज से देखकर कहा-तुम भी मुझे धोखा देते हो, महराज।

महराज की आंखें डबडबा गईं। बोले-भगवान् सब अच्छा ही करेंगे बहूजी, घबड़ाने से क्या होगा। अपना तो कोई बस नहीं है।

रतन ने पूछा-यहां कोई ज्योतिषी न मिलेगा? जरा उससे पूछते। कुछ पूजा-पाठ भी कर लेने से अच्छा होता है।

महराज ने तुष्टि के भाव से कहा-यह तो मैं पहले ही कहने वाला था, बहुजी । लेकिन बाबूजी का मिजाज तो जानती हो। इन बातों से वह कितना बिगड़ते हैं।

रतन ने दृढ़ता से कहा-सवेरे किसी को जरूर बुला लाना।

'सरकार चिढ़ेंगे।'

'मैं तो कहती हूं।'

यह कहती कमरे में आई और रोशनी के सामने बैठकर जालपा को पत्र लिखने लगी-

'बहन, नहीं कह सकती, क्या होने वाला है। आज मुझे मालूम हुआ है कि मैं अब तक मीठे भ्रम में पड़ी हुई थी। बाबूजी अब तक मुझसे अपनी दशा छिपाते थे, म आज यह बात उनके काबू से बाहर हो गई। तुमसे क्या कहें, आज वह वसीयत लिखने की चर्चा कर रहे थे। मैंने ही टाला। दिल घबड़ा रहा है बहन, जी चाहता है, थोड़ी-सी संखिया खाकर सो रहूं। विधाता को संसार दयालु, कृपालु, दोन-बंधु और जाने कौन-कौन-सी उपाधियां देता है। मैं कहती हूं, उससे निर्दयी, निर्मम, निष्ठुर कोई शत्रु भी नहीं हो सकता। पूर्वजन्म का संस्कार केवल मन को समझाने की चीज है। जिस दंड का हेतु ही हमें न मालूम हो, उस दंड का मूल्य ही क्या । वह तो जबर्दस्त की लाठी है, जो आघात करने के लिए कोई कारण गढ़ लेती है। इस अंधेरे, निर्जन, कांटों से भरे हुए जीवन-मार्ग में मुझे केवल एक टिमटिमाता हुआ दीपक मिला था। मैं उसे अंचल में छिपाए, विधि को धन्यवाद देती हुई, गाती चली जाती थी; पर वह दीपक भी मुझसे छीना जा रहा है। इस अंधकार में मैं कहां जाऊ, कौन मेरा रोना सुनेगा, कौन मेरी बांह पकड़ेगा।'

‘बहन, मुझे क्षमा करना। मुझे बाबूजी का पता लगाने का अवकाश नहीं मिला। आज कई पार्क का चक्कर लगा आई, पर कहीं पता नहीं चला। कुछ अवसर मिला तो फिर जाऊंगी।' [ १३८ ]'माताजी को मेरा प्रणाम कहना।'

पत्र लिखकर रतन बरामदे में आई। शीतल समीर के झोंके आ रहे थे। प्रकृति मानो रोग-शय्या पर पड़ी सिसक रही थी।उसी वक्त वकील साहब की सांस वेग से चलने लगी।

तीस

रात के तीन बज चुके थे। रतन आधी रात के बाद आरामकुर्सी पर लेटे ही लेटे झपकियां ले रही थी कि सहसा वकील साहब के गले का खर्राटा सुनकर चौंक पड़ी। उल्टी सांसें चल रही थीं। वह उनके सिरहाने चारपाई पर बैठ गई और उनका सिर उठाकर अपनी जांघ पर रख लिया। अभी न जाने कितनी रात बाकी है। मेज पर रखी हुई छोटी घड़ी की ओर देखा। अभी तीन बजे थे। सबेरा होने में चार घंटे की देर थी। कविराज कहीं नौ बजे आवेंगे | यह सोचकर वह हताश हो गई। अभागिनी रात क्या अपना काला मुंह लेकर विदा न होगी । मालूम होता है, एक युग हो गया ।

कई मिनट के बाद वकील साहब की सांस रुकी। सारी देह पसीने में तर थी। हाथ से रतन को हट जाने का इशारा किया और तकिए पर सिर रखकर फिर आखें बंद कर ली।

एकाएक उन्होंने क्षीण स्वर में कहा–रतन, अब विदाई का समय आ गया। मेरे अपराध उन्होंने दोनों हाथ जोड़ लिए और उसकी ओर दीन याचना की आंखों से देखा। कुछ कहना चाहते थे, पर मुंह से आवाज न निकली।

रतन ने चीखकर कहा-टीमल, महराज, क्या दोनों मर गए?

महराज ने आकर कहा-मैं सोया थोडे ही था बहूजी, क्यों बाबूजी ?

रतन ने डांटकर कहा–बको मत, जाकर कविराज को बुला लागे, कहना अभी चलिए।

महराज ने तुरंत अपना पुराना ओवरकोट पहना, सोटा उठाया और चल दिया। रतन उठकर स्टोव जलाने लगी कि शायद सैंक से कुछ फायदा हो। उसकी सारी घबराहट, सारी दुर्बलता, सारा शोक मान लुप्त हो गया। उसकी जगह एक प्रबल आत्मनिर्भरता का उदय हुआ। कठोर कर्तव्य ने उसके सारे अस्तित्व को सचेत कर दिया।

स्टोव जलाकर उसने रुई के गले से छाती को सेंकना शुरू किया। कोई पंद्रह मिनट तक ताबड़तोड़ सेंकने के बाद वकील साहब की सांस कुछ थमी। आवाज काबू में हुई। रतन के दोनों हाथ अपने गालों पर रखकर बोले-तुम्हें बड़ी तकलीफ हो रही है, मुन्नी। क्या जानता था, इतनी जल्द यह समय आ जाएगा। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है, प्रिये ! ओह कितना बड़ा अन्याय । मन की सारी लालसा मन में रह गई। मैंने तुम्हारे जीवन का सर्वनाश कर दिया-क्षमा करना।

यही अंतिम शब्द थे जो उनके मुख से निकले। यही जीवन का अंतिम सूत्र था, यही मोह का अंतिम बंधन था।