प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/अठ्ठाइस

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प्रेमचंद रचनावली ५  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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'मैं तो तुम्हारी रसोई में खाऊंगा। जब मां-बाप खटिक हैं, तो बेटा भी खटिक है। जिसकी आत्मा बड़ी हो वही ब्राह्मण है।'

'और जो तुम्हारे घरवाले सुनें तो क्या कहें!'

'मुझे किसी के कहने-सुनने की चिंता नहीं है, अम्मां ! आदमी पाप से नीच होता है,खाने-पीने से नीच नहीं होता। प्रेम से जो भोजन मिलता है, वह पवित्र होता है। उसे तो देवताभी खाते हैं।'

बुढ़िया के हदय में भी जाति-गौरव का भाव उदय हुआ। बोली-बेटा, खटिक कोई नीच जात नहीं है। हम लोग बराम्हन के हाथ का भी नहीं खाते। कहार का पानी तक नहीं पीते। मांस-मछरी हाथ से नहीं छूते, कोई-कोई सराब पीते हैं, मुदा लुक-छिपकर। इसने किसी को नहीं छोडा, बेटा ! बड़े-बड़े तिलकधारी गटागट पीते हैं। लेकिन मेरी रोटियां तुम्हें अच्छी नहीं लगेंगी?

रमा ने मुस्कराकर कहा-प्रेम की रोटियों में अमृत रहता है, अम्मा चाहे गेहूं की हों यो बाजरे की।

बुढिया यहां से चली तो मानो अंचल में आनंद की निधि भरे हो।

अट्ठाईस

जब से रमा चला गया था, रतन को जालपा के विषय में चिंता हो गई थी। वह किसी बहाने से उसकी मदद करते रहना चाहती थी। इसके साथ ही यह भी चाहती थी कि जालपा किस तरह तोडने न पाए। अगर कुछ रुपया खर्च करके भी रमा का पता चल सकता, तो वह सहर्ष खर्च कर देती, और जालपा को वह रोती हुई आंखें देखकर उसका हृदय मसोस उठता था। वह उसे प्रसन्न-मुख देखना चाहती थी। अपने अंधेरे, रोने घर से ऊबकर वह जालपा के घर चली जाया करती थी। वहां घड़ी-भर हंस-बोल लेने से उसका चित्त प्रसन्न हो जाता था। अब वहां भी वही नहसत छा गई। यहां आकर उसे अनुभव होता था कि मैं भी संसार में हैं, उस संसार में जहां जीवन है, लालसा है, प्रेम है, विनोद है। उसका अपना जीवन व्रत की वेदी पर अर्पित हो गया था। वह तन-मन से उस व्रत का पालन करती थी, पर शिवलिंग के ऊपर रखे हुए घट में क्या वह प्रवाह है, तरंग है, नाद है, जो सरिता में है? वह शिव के मस्तक को शीतल करती रहे, यही उसका काम है, लेकिन क्या उसमें सरिता के प्रवाह और तरंग और नाद का लोप नहीं हो गया।

इसमें संदेह नहीं कि नगर के प्रतिष्ठित और संपन्न घरों से रतन का परिचय था, लेकिन जहां प्रतिष्ठा थी, वहां तकल्लुफ था, दिखावा था, ईर्ष्या थी, निंदा थी। क्लब के संसर्ग से भी उसे अरुचि हो गई थी। वहां विनोद अवश्य था, क्रीड़ा अवश्य थी; किंतु पुरुषों के आतुर नेत्र भी थे, विकल हृदय भी, उन्मत्त शब्द भी। जाला के घर अगर यह शान न थे तो वह दिखावा भी न था, वह ईष्र्या भी न थी। रमा जवान था, रूपवान था, चाहे रसिक भी हो;पर रतन को अभी तक इसके विषय में संदेह करने का कोई अवसर न मिला था, और जालपा
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जैसी सुंदरी के रहते हुए उसकी संभावना भी न थी। जीवन के बाजार में और सभी दुकानदारों की कुटिलता और जट्टूपन से तंग आकर उसने इस छोटी-सी दुकान का आश्रय लिया था; किंतु यह दुकान भी टूट गई। अब वह जीवन की सामग्रियां कहां बेसाहेगी, सच्चा माल कहां पावेगी?

एक दिन वह ग्रामोफोन लाई और शाम तक बजाती रही। दूसरे दिन ताजे मेवों की एक कटोरी लाकर रख गई। जब आती तो कोई सौगात लिए आती। अब तक वह जागेश्वरी से बहुत कम मिलती थी; पर अब बहुधा उसके पास आ बैठती और इधर-उधर की बातें करती। कभी-कभी उसके सिर में तेल डालती और बाल गूथती। गोपी और विश्वम्भर से भी अब स्नेह हो। गया। कभी-कभी दोनों को मोटर पर घुमाने ले जाती। स्कूल से आते ही दोनों उसके बंगले पर पहुंच जाते और कई लड़कों के साथ वहां खेलते। उनके रोने-चिल्लाने और झगड़ने में रतन को हार्दिक आनंद प्राप्त होता था। वकील साहब को भी अब रमा के घरवालों से कुछ आत्मीयता हो गई थी। बार-बार पूछते रहते थे-रमा बाबू का कोई ख़त आयी? कुछ पता लगा? उन लोगों को कोई तकलीफ तो नहीं है।

एक दिन रतन आई, तो चेहरा उतरा हुआ था। आंखें भारी हो रही थीं। जालपा ने पूछा-आज जी अच्छा नहीं है क्या?

रतन ने कुंठित स्वर में कहा-जी तो अच्छा हैं; पर रात-भर जागना पड़ा। रात से उन्हे बड़ा कष्ट है। जाड़ों में उनको दमे का दौरा हो जाता है। बेचा जड़ भर एमलशन और सनाटोजन और न जाने कौन-कौन से रस खाते रहते हैं, पर यह रोग गला नहीं छोड़ता। कलकत्ते में एक नामी वैद्य हैं। अबकी उन्हीं से इलाज कराने का इरादा है। कल चली जाऊंगी। मुझे ले तो नहीं जाना चाहते, कहते हैं, वहां बहुत कष्ट होगा, लेकिन मेरा जी नहीं मानता। कोई बोलने वाला तो होना चाहिए। वहां दो बार हो आई हूँ, और जब-जब गई हूं, बीमार हो गई हूं। मुझे वहां जरा भी अच्छा नहीं लगता; लेकिन अपने आराम को देखें या उनकी बीमारी को देखें। बहन कभी-कभी ऐसा जो ऊब जाता है कि थोड़ी-सी सखिया खाकर सो रहूं। विधाता से इतना भी नहीं देखा जाता। अगर कोई मेरा सर्वस्व लेकर भी इन्हें अच्छा कर दें, कि इस बीमारी की जड़ टूट जावे, तो मैं खुशी से दे दूंगी।

जालपा ने सशंक होकर कहा-यहां किसी वैद्य को नहीं बुलाया?

'यहां के वैद्यों को देख चुकी हैं, 'बहन । वैद्य-डॉक्टर सबको देख चुकी ।'

'तो कड़े तक आओगी?'

‘कुछ ठीक नहीं। उनकी बीमारी पर है। एक सप्ताह में आ जाऊ महीने-दो महीने लग जायं, क्या ठीक है, मगर जब तक बीमारी की जड़े न टूट जायगी, न आऊगी।'

विधि अंतरिक्ष में बैठी हंस रही थी। जालपा मन में मुस्कराई। जिस बीमारी की जड़ जवानी में न टूटी, बुढ़ापे में क्या टूटेगी, लेकिन इस सदिच्छा से सहानुभूति न ग्याना असंभव था। बोली-ईश्वर चाहेंगे, तो वह वहां से जल्द अच्छे होकर लौटेंगे, बहन।

'तुम भी चलतीं तो बड़ा आनंद आता।'

जालपा ने करुण भाव से कहा-क्या चलूं बहन, जाने भी पाऊं। यहां दिन-भर यह आशा लगी रहती है कि कोई खबर मिलेगी। वहां मेरा जी और घबड़ाया करेगा।

‘मेरा दिल तो कहता है कि बाबूजी कलकत्ते में हैं।' [ १३२ ]‘तो जरा इधर-उधर खोजना। अगर कहीं पता मिले तो मुझे तुरंत खबर देना।'

'यह तुम्हारे कहने की बात नहीं है, जालपा।'

'यह मुझे मालूम है। सत तो बराबर भेजती रहोगी?'

‘हां अवश्य, रोज नहीं तो अंतरे दिन जरूर लिखा करूंगी; मगर तुम भी जवाब देना।'

जालपा पान बनाने लगी। रतन उसके मुंह की ओर अपेक्षा के भाव से ताकती रही, मानो कुछ कहना चाहती है और संकोचवश नहीं कह सकती। जालपा ने पान देते समय उसके मन का भाव ताड़कर कहा-क्या है बहने, क्या कह रही हो?

रतन-कुछ नहीं, मेरे पास कुछ रुपये हैं, तुम रख लो। मेरे पास रहेंगे, तो खर्च हो जायेंगे।

जालपा ने मुस्कराकर आपत्ति की-और जो मुझसे खर्च हो जाये?

रतन ने प्रफुल्ल मन से कहा-तुम्हारे ही तो हैं बहन, किसी गैर के तो नहीं हैं।

जालपा विचारों में डूबी हुई जमीन की तरफ ताकती रही। कुछ जवाब न दिया। रतन ने शिकवे के अंदाज से कहा-तुमने कुछ जवाब नहीं दिया बहन, मेरी समझ में नहीं आता, तुम मुझसे खिंची क्यों रहती हो। मैं चाहती हूं, हममें और तुममें जरा भी अंतर न रहे लेकिन तुम मुझसे दूर भागती हो। अगर मान लो मेरे सौ-पचास रुपये तुम्हीं से खर्च हो गए, तो क्या हुआ। बहनों में तो ऐसा कौडी-कौड़ी का हिसाब नहीं होता।

जालपा ने गंभीर होकर कहा-कुछ कहूं, बुरा तो न मानोगी?

'बुरा मानने की बात होगी तो जरूर बुरा मानूंगी।'

'मैं तुम्हारा दिल दुखाने के लिए नहीं कहती। संभव है, तुम्हें बुरी लगे। तुम अपने मन में सोचो, तुम्हारे इस पहनापे में दया को भाव मिला हुआ है या नहीं? तुम मेरी गरीबी पर तरस खाकर।

रतन ने लपककर दोनों हाथों से उसका मुंह बंद कर दिया और बोली-बस अब रहने दो। तुम चाहे जो खयाल करो; मगर यह भाव कभी मेरे मन में न था और न हो सकता है। मैं तो जानती हूं, अगर मुझे भूख लगी हो, तो मैं निस्संकोच होकर तुमसे कह दूंगी, बहन, मुझे कुछ खाने को दो, भूखी हूं।

जालपा ने उसी निर्ममता से कहा-इस समय तुम ऐसा कह सकती हो। तुम जानती हो कि किसी दूसरे समय तुम पूरियों या रोटियों के बदले मेवे खिला सकती हो, लेकिन ईश्वर न करे कोई ऐसा समय आए जब तुम्हारे घर में रोटी का टुकड़ा न हो, तो शायद तुम इतनी निस्संकोच न हो सको।

रतन ने दृढ़ता से कहा-मुझे उस दशा में भी तुमसे मांगने में संकोच न होगा। मैत्री परिस्थितियों का विचार नहीं करती। अगर यह विचार बना रहे, तो समझ लो मैत्री नहीं है। ऐसी बातें करके तुम मेरा द्वार बंद कर रही हो। मैंने मन में समझा था, तुम्हारे साथ जीवन के दिन काट दूंगी, लेकिन तुम अभी से चेतावनी दिए देती हो। अभागों को प्रेम की भिक्षा भी नहीं मिलती।

यह कहते-कहते रतन की आंखें सजल हो गईं। जालपा अपने को दुःखिनी समझ रही थी और दुखी जनों को निर्मम सत्य कहने की स्वाधीनता होती है। लेकिन रतन की मनोव्यथा उसकी व्यथा से कहीं विदारक थी। जालपा के पति के लौट आने की अब भी आशा थी। वह जवान है, उसके आते ही जालपा को ये बुरे दिन भूल जाएंगे। उसकी आशाओं का सूर्य फिर [ १३३ ]
उदय होगा। उसकी इच्छाएं फिर फूले-फलेंगी। भविष्य अपनी सारी आशाओं और आकांक्षाओं के साथ उसके सामने था—विशाल, उज्ज्वल, रमणीक रतन का भविष्य क्या था? कुछ नहीं; शून्य, अंधकार !

जालपा आंखें पोंछकर उठ खड़ी हुई। बोली-पत्रों के जवाब देती रहना। रुपये देती जाओ।

रतन ने पर्स से नोटों को एक बंडल निकालकर उसके सामने रख दिया; पर उसके चेहरे पर प्रसन्नता न थी।

जालपा ने सरल भाव से कहा-क्या बुरा मान गईं।

रतन ने रूठे हुए शब्दों में कहा-बुरा मानकर तुम्हारा क्या कर लूंगी।

जालपा ने उसके गले में बांहें डाल दीं। अनुराग से उसका हृदय गदगद हो गया। रतन से उसे इतना प्रेम कभी न हुआ था। वह उससे अब तक खिंचतीथी,ईर्ष्या करती थी। आज उसे रतन का असली रूप दिखाई दिया।

यह सचमुच अभागिनी है और मुझसे बढ़कर।

एक क्षण बाद, रतन आंखों में आंसू और हंसी एक साथ भरे विदा हो गई।

उनतीस

कलकत्ते में वकील साहब ने ठरहने का इंतजाम कर लिया था। कोई कष्ट न हुआ। रतन ने महराज और टीमल कहार को साथ ले लिया था। दोनों वकील साहब के पुराने नौकर थे और घर के-से आदमी हो गए थे। शहर के बाहर एक बंगला था। उसके तीन कमरे मिल गए। इससे ज्यादा जगह को वहां जरूरत भी न थी। हाते में तरह-तरह के फूल-पौधे लगे हुए थे। स्थान बहुत सुंदर मालूम होता था। पास-पड़ोस में और कितने ही बंगले थे। शहर के लोग उधर हवाखोरी के लिए जाया करते थे और हरे होकर लौटते थे, पर रतन को वह जगह फाड़े खाती थी। बीमार के साथ वाले भी बीमार होते हैं। उदासों के लिए स्वर्ग भी उदास है।

सफर ने वकील साहब को और भी शिथिल कर दिया था। दो तीन दिन तो उनकी दशा उससे भी खराब रही, जैसी प्रयाग में थी, लेकिन दवा शुरू होने के दो-तीन दिन बाद वह कुछ संभलने लगे। रतन सुबह से आधी रात तक उनके पास ही कुर्सी डाले बैठी रहती । स्नान-भोजन की भी सुधि न रहती। वकील साहब चाहते थे कि यह यहां से हट जाय तो दिल खोलकर कराहें। उसे तस्कीन देने के लिए वह अपनी दशा को छिपाने की चेष्य करते रहते थे। वह पूछती, आज कैसी तबीयत है? तो वह फीकी मुस्कराहट के साथ कहते-आज तो जी बहुत हल्का मालूम होता है। बेचारे सारी रात करवटें बदलकर काटते थे; पर रतन पूछती-रात नींद आई थी? तो कहते-हां, खूब सोया। रतन पथ्य सामने ले जाती, तो अरुचि होने पर भी खा लेते। रतन समझती, अब यह अच्छे हो रहे हैं। कविराज जी से भी वह यही समाचार कहती। वह भी अपने उपचार की सफलता पर प्रसन्न थे।

एक दिन वकील साहब ने रतन से कहा-मुझे डर है कि मुझे अच्छा होकर तुम्हारी दवा न करनी पड़े।