प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/चालीस

विकिस्रोत से
प्रेमचंद रचनावली ५  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

[ १८१ ]
प्रायश्चित पूरा नहीं हुआ है, इसीलिए यह दुर्बलता हमारे पीछे पड़ी हुई है। मैं देख रही हूं, यह हमारा सर्वनाश करके छोड़ेगी।

रमा के दिल पर कुछ चोट लगी। सिर खुजलाकर बोला-चाहता तो मैं भी हूं कि किसी तरह इस मुसीबत से जान बचे।।

‘तो बचाते क्यों नहीं। अगर तुम्हें कहते शर्म आती हो, तो मैं चलें। यही अच्छा होगा। मैं भी चली चलेंगी और तुम्हारे सुपरंडंट साहब से सारा वृत्तांत साफ-साफ कह दूंगी।'

रमा का सारा पसोपेश गायब हो गया। अपनी इतनी दुर्गति वह न कराना चाहता था कि उसकी स्त्री जाकर उसकी वकालत करे। बोला-तुम्हारे चलने की जरूरत नहीं है जालपा, मैं उन लोगों को समझा दूंगा।

जालपा ने जोर देकर कहा-साफ बताओ, अपना बयान बदलोगे या नहीं? रमा ने मानो कोने में दबकर कहा-कहता तो हूं, बदल दूंगा।

'मेरे कहने से या अपने दिल से?'

'तुम्हारे कहने से नहीं, अपने दिल से। मुझे खुद ही ऐसी बातों से घृणा है। सिर्फ जरा हिचक थी, वह तुमने निकाल दी।'

फिर और बातें होने लगीं। कैसे पता चला कि रमा ने रुपये उड़ा दिए हैं? रुपये अदा कैसे हो गए? और लोगों को गबन की खबर हुई या घर ही में दबकर रह गई? रतन पर क्या गुजरी? गोपी क्यों इतनी जल्द चला गया? दोनों कुछ पढ़ रहे हैं या उसी तरह आवारा फिरा करते हैं? आखिर में अम्मां और दादा का जिक्र आया। फिर जीवन के मनसुबे बांधे जाने लगे। जालपा ने कहा-घेरे चलकर रतन से थोड़ी-जमीन ले लें और आनंद से खेती-बारी करें। रमा ने कहा-कहीं उससे अच्छा है कि यहां चाय की दुकान खोलें। इस पर दोनों में मुबहसा हुआ। आखिर रमा को हार माननी पड़ी। यहां रहकर वह घर की देखभाल न कर सकता था, भाइयों को शिक्षा न दे सकता था और न माता-पिता का सेवा-सत्कार कर सकता था। उधर घरवालों के प्रति भी तो उसका कुछ कर्तव्य है। रमा निरुत्तर हो गया।

चालीस

रमा मुंह-अंधेरे अपने बंगले जा पहुंचा। किसी को कानों-कान खबर न हुई। | नाश्ता करके रमा ने खत साफ किया, कपड़े पहने और दारोगा के पास जा पहुंचा। त्योरियां चढ़ी हुई थीं। दारोगा ने पूछा-खैरियत तो है, नौकरों ने कोई शरारत तो नहीं की।

रमा ने खड़े-खड़े कहा–नौकरों ने नहीं, आपने शरारत की है, आपके मातहतों,अफसरों और सब ने मिलकर मुझे उल्लू बनाया है।

दारोगा ने कुछ घबड़ाकर पूछा-आखिर बात क्या है,कहिए तो? ।

रमानाथ–बात यही है कि इस मुआमले में अब कोई शहादत न दूंगा। उससे मेरा ताल्लुक नहीं। आप लोगों ने मेरे साथ चाल चली और वारंट की धमकी देकर मुझे शहादत देने पर मजबूर [ १८२ ]
किया। अब मुझे मालूम हो गया कि मेरे ऊपर कोई इल्जाम नहीं। आप लोगों को चकमा था। पुलिस की तरफ से शहादत नहीं देना चाहता, मैं आज जज साहब से साफ कह दूंगा। बेगुनाहों का खून अपनी गर्दन पर न लूंगा।

दारोगा ने तेज होकर कहा-आपने खुद गबन तस्लीम किया था।

रमानाथ-मीजान की गलती थी। गबन न था। म्युनिसिपैलिटी ने मुझ पर कोई मुकदमा नहीं चलाया। |'यह आपको मालूम कैसे हुआ?'

'इससे आपको कोई बहस नहीं। मैं शहादत न दूंगा। साफ-साफ कह दूंगा, पुलिस ने मुझे धोखा देकर शहादत दिलवाई है। जिन तारीखों का वह वाकया है, उन तारीखों में मैं इलाहाबाद में था। म्युनिसिपल आफिस में मेरी हाजिरी मौजूद है।'

दारोगा ने इस आपत्ति को हंसी में उड़ाने की चेष्टा करके कहा-अच्छा साहब, पुलिस ने घोखा ही दिया, लेकिन उसका खातिरख्वाह इनाम देने को भी तो हाजिर है। कोई अच्छी जगह मिल जाएगी, मोटर पर बैठे हुए सैर करोगे। खुफिया पुलिस में कोई जगह मिल गई, तो चैन ही चैन है। सरकार की नजरों में इज्जत और रुसूख कितना बढ़ गया, यों मारे-मारे फिरते। शायद किसी दफ्तर में क्लर्को मिल जाती, वह भी बड़ी मुश्किल से। यहां तो बैठे-बिठाए तरक्की का दरवाजा खुल गया। अच्छी तरह कारगुजारी होगी, तो एक दिन रायबहादुर मुंशी रमानाथ डिप्टी सुपरिंटेंडेंट हो जाओगे। तुम्हें हमारा एहसान मानना चाहिए और आप उल्टे खफा होते हैं।

रमा पर इस प्रलोभन का कुछ असर न हुआ। बोला-मुझे क्लर्क बनना मंजूर है, इस तरह की तरक्की नहीं चाहता। यह आप ही को मुबारक रहे।

इतने में डिप्टी साहब और इंस्पेक्टर भी आ पहुंचे। रमा को देखकर इंस्पेक्टर साहब ने फरमाया-हमारे बाबू साहब तो पहले ही से तैयार बैठे हैं। बस इसी की कारगुजारी पर वारान्यारा है। रमा ने इस भाव से कहा, मानो मैं भी अपना नफा-नुकसान समझता हूं-जी हां, आज वारी-न्यारा कर दूंगा। इतने दिनों तक आप लोगों के इशारे पर चला, अब अपनी आंखों से देखकर चलूंगा।

इंस्पेक्टर ने दारोगा का मुंह देखा, दारोगा ने डिप्टी का मुंह देखा, डिप्टी ने इंस्पेक्टर की मुंह देखा। यह कहता क्या है? इंस्पेक्टर साहब विस्मित होकर बोले-क्या बात है? हलफ से कहता हूं, आप कुछ नाराज मालूम होते हैं।

रमानाथ-मैंने फैसला किया है कि आज अपना बयान बदल दूंगा। बेगुनाहों का खून नहीं कर सकता।

इंस्पेक्टर ने दया-भाव से उसकी तरफ देखकर कहा-आप बेगुनाहों का खून नहीं कर रहे हैं, अपनी तकदीर की इमारत खड़ी कर रहे हैं। हलफ से कहता हूं, ऐसे मौके बहुत कम आदमियों को मिलते हैं। आज क्या बात हुई कि आप इतने खफा हो गए? आपको कुछ मालूम है, दारोगा साहब? आदमियों ने तो कोई शोखी नहीं की? अगर किसी ने आपके मिजाज के खिलाफ कोई काम किया हो, तो उसे गोली मार दीजिए, हलफ से कहता हूं। [ १८३ ]दारोगा-मैं अभी जाकर पता लगाता हूं।

रमानाथ-आप तकलीफ न करें। मुझे किसी से शिकायत नहीं है। मैं थोड़े से फायदे के लिए अपने ईमान का खून नहीं कर सकता।

एक मिनट सन्नाटा रहा। किसी को कोई बात न सूझी। दारोगा कोई दूसरा चकमा सोच रहे थे, इंस्पेक्टर कोई दूसरा प्रलोभन। डिप्टी एक दूसरी ही फिक्र में थी। रूखेपन से बोली-रमा बाबू, यह अच्छा बात न होगा।

रमा ने भी गर्म होकर कहा-आपके लिए न होगी। मेरे लिए तो सबसे अच्छी यही बात है।

डिप्टी-नहीं,आपका वास्ते इससे बुरा दोसरा बात नहीं है। हम तुमको छोड़ेगा नहीं, हमारा मुकदमा चाहे बिगड़ जाय; लेकिन हम तुमको ऐसा लेसन दे देगा कि तुम उमर भर न भूलेगा। आपको वही गवाही देना होगा जो आप दिया। अगर तुम कुछ गड़बड़ करेगा, कुछ भी गोलमाल किया तो हम तोमारे साथ दोसरा बर्ताव करेगा। एक रिपोर्ट में तुम यों (कलाइयों को ऊपर-नीचे रखकर) चला जायेगा।

यह कहते हुए उसने आंखें निकालकर रमा को देखा, मानो कच्चा ही खा जाएगा। रमा सहम उठा। इन आतंक से भरे घाब्दों ने उसे विचलित कर दिया। यह सब कोई झूठा मुकदमा चलाकर उसे फंसा दें, तो उसकी कौन रक्षा करेगा। उसे यह आशा न थी कि डिप्टी साहब को शील और विनय के पुतले बने हुए थे,एकबारगी यह रुद्र रूप धारण कर लेंगे; मगर वह इतनी आसानी से दबने वाला न था। तेज होकर बोला-आप मुझसे जबरदस्ती शहादत दिलाएंगे?

डिप्टी ने पैर पटकते हुए कहा-हां, जबरदस्ती दिलाएगा !

रमानाथ-यह अच्छी दिल्लगी है।

डिप्टी-तोम पुलिस को धोखा देना दिल्लगी समझता है। अभी दो गवाह देकर साबित कर सकता है कि तुम राजद्रोह की बात कर रहा था। बस चला जायगा सात पाल के लिए। चक्की पीसते-पीसते हाथ में घट्टा पड़ जायगा। यह चिकना चिकना गाल नहीं रहेगा।

रमा जेल से डरता था। जेल-जीवन की कल्पना ही से उसके रोएं खड़े होते थे। जेल ही के भय से उसने यह गवाही देनी स्वीकार की थी। वही भय इस वक्त भी उसे कातर करने लगा। डिप्टी भाव-विज्ञान का ज्ञाता था। आसन का पता पा गया। बोला-वहां हलवा पूरी नहीं पायगा। धूल मिला हुआ आटा की रोटी, गोभी के सड़े हुए पत्तों का रसा, और अरहर के दाल का पानी खाने को पावेगा। काल-कोठरी का चार महीना भी हो गया, तो तुम बच नहीं सकता। वहीं मर जायगा। बात-बात पर वार्डर गाली देगा; जूतों से पीटेगा, तुम समझता क्या है।

रमा का चेहरा फीका पड़ने लगा। मालूम होता था प्रतिक्षण उसका खून सूखा चला जाता है। अपनी दुर्बलता पर उसे इतनी ग्लानि हुई कि वह रो पड़ा। कांपती हुई आवाज से बोला-आप लोगों की यह इच्छा है, तो यही सही ! भेज दीजिए जेल। मर ही जाऊंगा न, फिर तो आप लोगों से मेरा गला छूट जायगी। जब आप यहां तक मुझे तबाह करने पर आमादा हैं, तो मैं भी मरने को तैयार हूं। जो कुछ होना होगा, होगा।

उसका मन दुर्बलता की उस दशा को पहुंच गया था, जब जरा-सी सहानुभूति, जरा-सी [ १८४ ]
सहृदयता सैकड़ों धमकियों से कहीं कारगर हो जाती है। इंस्पेक्टर साहब ने मौका ताड़ लिया। उसका पक्ष लेकर डिप्टी से बोले हलफ से कहता हूं, आप लोग आदमी को पहचानते तो हैं। नहीं, लगते हैं रोब जमाने। इस तरह गवाही देना हर एक समझदार आदमी को बुरा मालूम होगा। यह कुदरती बात है। जिसे जरा भी इज्जत का खयाल है,वह पुलिस के हाथों की कठपुतली बनना पसंद न करेगा। बाबू साहब की जगह मैं होता तो मैं भी ऐसा ही करता; लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यह हमारे खिलाफ शहादत देंगे। आप लोग अपना काम कीजिए, बाबू साहब की तरफ से बेफिक्र रहिए, हलफ से कहता हूं।

उसने रमा का हाथ पकड़ लिया और बोला-आप मेरे साथ चलिए,बाबूजी । आपको अच्छे-अच्छे रिकार्ड सुनाऊ।

रमा ने रूठे हुए बालक की तरह हाथ छुड़ाकर कहा-मुझे दिक न कीजिए इंस्पेक्टर साहब। अब तो मुझे जेलखाने में मरना है।

इंस्पेक्टर ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा-आप क्यों ऐसी बातें मुंह से निकालते हैं। साहब। जेलखाने में मरें आपके दुश्मन।

डिप्टी ने तसमा भी बाकी न छोड़ना चाहा। बड़े कठोर स्वर में बोला; मानो रमा से कभी का परिचय नहीं है-साहब, यों हम बाबू साहब के साथ सब तरह का सलूक करने को तैयार हैं, लेकिन जब वह हमारा खिलाफ गवाही देगा, हमारा जड़ खोदेगा, तो हम भी कार्रवाई करेगा। जरूर से करेगा। कभी छोड़ नहीं सकता।

इसी वक्त सरकारी एडवोकेट और बैरिस्टर मोटर से उतरे।

इकतालीस

रतन पत्रों में जालपा को तो ढांढस देती रहती थी पर अपने विषय में कुछ न लिखती थी। जो आप ही व्यथित हो रही हो, उसे अपनी व्यथाओं की कथा क्या सुनाती ! वही रतन जिसने रुपयों की कभी कोई हकीकत न समझी, इस एक ही महीने में रोटियों को भी मुहताज हो गई थी। उसका वैवाहिक जीवन सुखी न हो; पर उसे किसी बात का अभाव न था। मरियल घोड़े पर सवार होकर भी यात्रा पूरी हो सकती है अगर सड़क अच्छी हो; नौकर-चाकर, रुपये-पैसे और भोजन आदि की सामग्री साथ हो। घोड़ा भी तेज हो, तो पूछना ही क्या रतन की दशा उसी सवार की-सी थी। उसी सवार की भाँति यह मंदगति से अपनी जीवन-यात्रा कर रही थी। कभी-कभी वह घोड़े पर झुंझलाती होगी, दूसरे सवारों को उड़े जाते देखकर उसकी भी इच्छा होती होगी कि मैं भी इसी तरह उड़ती, लेकिन वह दुखी न थी, अपने नसीबों को रोती न थी। वह उस गाय की तरह थी, जो एक पतली-सी पगहिया के बंधन में पड़कर, अपनी नाद के भूसे-खली में मगन रहती है। सामने हरे-हरे मैदान हैं, उसमें सुगंधमय घासे लहरा रही हैं; पर वह पगहिया तुड़ाकर कभी उघर नहीं जाती। उसके लिए उस पगहिया और लोहे की जंजीर में कोई अंतर नहीं। यौवन को प्रेम की इतनी क्षुधा नहीं होती; जितनी आत्म-प्रदर्शन की। प्रेम की