प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/छः

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प्रेमचंद रचनावली ५  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

[ १९ ] जालपा ने एक लंबी सांस लेकर कहा-क्या कहूं बहन, मुझे तो आशा नहीं है।

शहजादी-एक बार कहकर देखो तो, अब उनके कौन पहनने-ओढ़ने के दिन बैठे हैं।

जालपा-मुझसे तो न कहा जायेगा।

शहजादी–मैं कह दूंगी।

जालपा-नहीं-नहीं, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं। मैं जरा उनके मातृस्नेह की परीक्षा लेना चाहती हूं।

बासन्ती ने शहजादी का हाथ पकड़कर कहा-अब उठेगी भी कि यहां सारी रात उपदेश ही देती रहेगी।

शहजादी उठी, पर जालपा रास्ता रोककर खड़ी हो गई और बोली-नहीं, अभी बैठो बहन, तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ।

शहजादी-जब यह दोनों चुड़ैले बैठने भी दें। मैं तो तुम्हें गुर सिखाती हूँ और यह दोनों मुझ पर झल्लाती हैं। सुन नहीं रही हो, मैं भी विष को गांठ हूं।

वासन्ती-विष की गांठ तो तू है ही।

शहजादी-तुम भी तो ससुराल से सालभर बाद आई हो, कौन-कौन-सी नई चीजें बनवाई।

बासन्ती–और तुमने तीन साल में क्या बनवा लिया?

शहजादी-मेरी बात छोड़ो, मेरा खसम तो मेरी बात ही नहीं पूछता।

राधा-प्रेम के सामने गहनों का कोई मुल्य नहीं।

शहजादी-तो सूखा प्रेम तुम्हीं को फले।

इतने में मानकी ने आकर कहा-तुम तीनों यहां बैठी क्या कर रही हो, चलो वहां लोग खाना खाने आ रहे हैं।

तीनों युवतियां चली गई। जालपा माता के गले में चन्द्रहार की शोभा देखकर मन-ही-मन सोचने लगी-गहनों से इनका जी अब तक नहीं भरा।

छह

महाशय दयानाथ जितनी उमंगों से ब्याह करने गए थे, उतना ही हतोत्साह होकर लौटे। दीनदयाल ने खूब दिया, लेकिन वहां से जो कुछ मिला, वह सब नाच-तमाशे, नेग-चार में खर्च हो गया। बार-बार अपनी भूल पर पछताते, क्यों दिखावे और तमाशे में इतने रुपये खर्च किए। इसकी जरूरत ही क्या थी, ज्यादा-से-ज्यादा लोग यही तो कहते--महाशय बड़े कृपण हैं। उतना सुन लेने में क्या हानि थी? मैंने गांव वालों को तमाशे, खाने का ठीका तो नहीं लिया था। यह सब रमा का दुस्साहस हैं। उसी ने सारे खर्च बढ़ा-बढ़ाकर मेरा दिवाला निकाल दिया। और सब तकाजे तो दस-पांच दिन टल भी सकते थे, पर सर्राफ किसी तरह न मानता था। शादी के सातवें दिन उसे एक हजार रुपये देने का वादा था। सातवें दिन सर्राफ आया, मगर यहां रुपये कहां थे? दयानाथ में लल्लो -चप्पो को आदत न थी, मगर आज उन्होंने उसे चकमा देने की खूब कोशिश [ २० ]
की। किस्त बांधकर सब रुपये छ: महीने में अदा कर देने का वादा किया। फिर तीन महीने पर आए; मगर सर्राफ भी एक ही घुटा हुआ आदमी था, उसी वक्त टला, जब दयानाथ ने तीसरे दिन बाकी रकम की चीजें लौटा देने का वादा किया और यह भी उसकी सज्जनता ही थी। वह तीसरा दिन भी आ गया, और अब दयानाथ को अपनी लाज रखने का कोई उपाय न सूझता था। कोई चलता हुआ.आदमी शायद इतना व्यग्र न होता, हीले-हवाले करके महाजन को महीनों टालता रहता; लेकिन दयानाथ इस मामले में अनाड़ी थे।

जागेश्वरी ने आकर कहा–भोजन कब से बना ठंडा हो रहा है। खाकर तब बैठो।

दयानाथ ने इस तरह गर्दन उठाई, मानो सिर पर सैकड़ों मन का बोझ लदा हुआ है। बोले-तुम लोग जाकर खा लो, मुझे भूख नहीं है।

जागेश्वरी-भूख क्यों नहीं है, रात भी तो कुछ नहीं खाया था'इस तरह दाना-पानी छोड़ देने से महाजन के रुपये थोड़े ही अदा हो जाएंगे?

दयानाथ-मैं सोचता हूं, उसे आज क्या जवाब दूंगा? मैं तो यह विवाह करके बुरा फंस गया। बहू कुछ गहने लौटा तो देगी?

जागेश्वरी–बह का हाल तो सुन चुके, फिर भी उससे ऐसी आशा रखते हो। उसकी टेक है कि जब तक चन्द्रहार न बन जायगा, कोई गहना ही न पहनूंगी। सारे गहने संदूक में बंद कर रखे हैं। बस, वही एक बिल्लौरी हार गले में डाले हुए है। बहुएं बहुत देखीं, पर ऐसी बहू न देखीथी। फिर कितना बुरा मालूम होता है कि कल की आई बहू, उससे गहने छीन लिए जाए।

दयानाथ ने चिढ़कर कहा-तुम तो जले पर नमक छिड़कती हो। बुरा मालूम होता है तो लाओ एक हजार निकालकर दे दो, महाजन को दे आऊ, देती हो? बुरा मुझे खुद मालूम होता है, लेकिन उपाय क्या है? गला कैसे छूटेगा?

जागेश्वरी-बेटे का ब्याह किया है कि ठट्ठा है? शादी-ब्याह में क्यो कर्ज लेते हैं, तुमने कोई नई बात नहीं की। खाने-पहनने के लिए कौन कर्ज लेता है। धर्मात्मा बनने का कुछ फल मिलना चाहिए या नहीं? तुम्हारे ही दर्जे पर सत्यदेव हैं, पक्का मकान खड़ा कर दिया, जमींदारी खरीद ली, बेटी के ब्याह में कुछ नहीं तो पांच हजार तो खर्च किए ही होंगे। दयानाथ–जभी दोनों लड़के भी तो चल दिए।

जागेश्वरी-मरना-जीना तो संसार की गति हैं, लेते हैं, वह भी मरते हैं, नहीं लेते, वह भी पर तुम चाहो तो छ: महीने में सब रुपये चुका सकते हो।

दयानाथ ने त्‍योरी चढाकर कहा-जो बात जिंदगी भर नहीं की, वह अब आखिरी वक्त नहीं कर सकता बहू से साफ-साफ कह दो, उससे पर्दा रखने क़ी जरूरत ही क्या हैं, और पर्दा रह ही कै दिन सकता है। आज नहीं तो कल सारा हाल मालूम ही हो जाएगी। बस तीन-चार चीजें लौटा दे तो काम बन जाय। तुम उससे एक बार कहो तो।

जागेश्वरी झुंझलाकर बोली-उससे तुम्हीं कहो, मुझसे तो न कहा जायगा।

सुबह रमानाथ टेनिस-रैकेट लिए बाहर से आया। सफेद टेनिस शर्ट था, सफेद पतलून, कैनवस का जूता, गोरे रंग और सुंदर मुखाकृति पर इस पहनावे ने रईसों की शान पैदा कर दी थी। रूमाल में बेले के गजरे लिए हुए था। उससे सुगंध उड़ रही थी। माता-पिता की आंखें बचाकर वह जीने पर जाना चाहता था, कि जागेश्वरी ने टोका-इन्हीं के तो सब कांटे बोए हुए हैं, इनसे क्यों नहीं सलाह लेते? (रमा से) तुमने नाच-तमाशे में बारह-तेरह सौ रुपये उड़ा दिए, [ २१ ]
बतलाओ सर्राफ को क्या जवाब दिया जाय? बड़ी मुश्किलों से कुछ गहने लौटाने पर राजी हुआ; मगर बहू से गहने मांगे कौन? यह सब तुम्हारी ही करतूत है।

रमानाथ ने इस आक्षेप को अपने ऊपर से हटाते हुए कहा-मैंने क्या खर्च किया? जो कुछ किया बाबूजी ने किया। हां, जो कुछ मुझसे कहा गया, वह मैंने किया।

रमानाथ के कथन में बहुत कुछ सत्य था। यदि दयानाथ की इच्छा न होती तो रमा क्या कर सकता था? जो कुछ हुआ उन्हीं की अनुमति से हुआ। रमानाथ पर इल्जाम रखने से तो कोई समस्या हल न हो सकती थी। बोले—मैं तुम्हें इल्जाम नहीं देता भाई। किया तो मैंने ही; मगर यह बला तो किसी तरह सिर से टालनी चाहिए। सर्राफ का तकाजा है। कल उसका आदमी आवेगा। उसे क्या जवाब दिया जाएगा? मेरी समझ में तो यही एक उपाय है कि उतने रुपये के गहने उसे लौटा दिए जायं। गहने लौटा देने में भी वह झंझट करेगा, लेकिन दम-बीस रुपये के लोभ में लौटने पर राजी हो जायेगा। तुम्हारी क्या सलाह है?

रमानाथ ने शरमाते हुए कहा-मैं इस विषय में क्या सलाह दे सकता हूं; मगर मैं इतना कह सकता हूं कि इस प्रस्ताव को वह खुशी से मंजूर न करेगी। अम्मी तो जानती हैं कि चढ़ावे में चन्द्रहार न जाने से उसे कितना बुरा लगा था। प्रण कर लिया है, जब तक चन्द्रहार न बन जाएगा कोई गहना न पहनूंगी।

जागेश्वरी ने अपने पक्ष का समर्थन होते देख, खुश होकर कहा-यही तो मैं इनसे कह रही हूं।

रमानाथ–रोना-धोना मच जायगा और इसके साथ घर का पर्दा भी खुल जायगा।

दयानाथ ने माथा सिकोड़कर कहा—उससे पर्दा रखने की जरूरत ही क्या! अपनी यथार्थ स्थिति को वह जितनी ही जल्दी समझ ले, उतना ही अच्छा।

रमानाथ ने जवानों के स्वभाव के अनुसार जालपा से खूब जीट उड़ाई थी। खूब बढ़-बढ़कर बातें की थीं। जमींदारी है, उससे कई हजार का नफा है। बैंक में रुपये हैं, उनका सूद आता है। जालपा से अब अगर गहने की बात की गई, तो रमानाथ को वह पूरा लबाड़िया समझेगी। बोला-पर्दा तो एक दिन खुल ही जायगा, पर इतनी जल्दी खोल देने का नतीजा यही होगा कि वह हमें नीच समझने लगेगी। शायद अपने घरवालों को भी लिख भेजे। चारों तरफ बदनामी होगी।

दयानाथ-हमने तो दीनदयाल से यह कभी न कहा था कि हम लखपती हैं।

रमानाथ-तो आपने यही कब कहा था कि हम उधार गहने लाए हैं और दो-चार दिन में लौटा देंगे! आखिर यह सारा स्वांग अपनी धाक बैठाने के लिए ही किया था या कुछ और?

दयानाथ–तो फिर किसी दूसरे बहाने से मांगना पड़ेगा। बिना मांगे काम नहीं चल सकता। कल या तो रुपये देने पड़ेंगे, या गहने लौटाने पड़ेंगे। और कोई राह नहीं।

रमानाथ ने कोई जवाब न दिया। जागेश्वरी बोली-और कौन-सा बहाना किया जायगा? अगर कहा जाय, किसी को मंगनी देना है, तो शायद वह देगी नहीं। देगी भी तो दो-चार दिन में लौटाएंगे कैसे?

दयानाथ को एक उपाय सूझा। बोले-अगर। गहनों के बदले मुलम्मे के गहने दे दिए जाएं? मगर तुरंत ही उन्हें ज्ञात हो गया कि यह लचर बात है, खुद ही उसका विरोध करते हुए कहा-हां, बाद मुलम्मा उड़ जायगा तो फिर लज्जित होना पड़ेगा। अक्ल कुछ काम नहीं करती। [ २२ ]
मुझे तो यही सूझता है, यह सारी स्थिति उसे समझा दी जाय। जरा देर के लिए उसे दु:ख तो जरूर होगा, लेकिन आगे के वास्ते रास्ता साफ हो जाएगा।

संभव था, जैसा दयानाथ का विचार था, कि जालपा रो-धोकर शांत हो जायगी, पर रमा की इसमें किरकिरी होती थी। फिर वह मुंह न दिखा सकेगा। जब वह उससे कहेगी, तुम्हारी जमींदारी क्या हुई? बैंक के रुपये क्या हुए, तो उसे क्या जवाब देगा? विरक्त भाव से बोला-इसमें बेइज्जती के सिवा और कुछ न होगा। आप क्या सर्राफ को दो चार-छ: महीने नहीं टाल सकते? आप देना चाहें, तो इतने दिनों में हजार-बारह सौ रुपये बड़ी आसानी से दे सकते हैं।

दयानाथ ने पूछा-कैसे?

रमानाथ-उसी तरह जैसे आपके और भाई करते हैं।

दयानाथ-वह मुझसे नहीं हो सकता।

तीनों कुछ देर तक मौन बैठे रहे। दयानाथ ने अपना फैसला सुना दिया। जागेश्वरी और रमा को यह फैसला मंजूर न था। इसलिए अब इस गुत्थी के सुलझाने का भार उन्हीं दोनों पर था। जागेश्वरी ने भी एक तरह से निश्चय कर लिया था। दयानाथ को झख मारकर अपना नियम तोड़ना पडे़गा। यह कहां की नीति है कि हमारे ऊपर संकट पड़ा हुआ हो और हम अपने नियमों का राग अलापे जायं? रमानाथ बुरी तरह फंसा था। वह खूब जानता था कि पिताजी ने जो काम कभी नहीं किया, वह आज न करेंगे। उन्हें जालपा से गहने मांगने में कोई संकोच न होगा और यही वह न चाहता था। वह पछता रहा था कि मैंने क्यों जालपा से डींगें मारीं। अब अपने मुंह की लाली रखने का सारा भार उसी पर था। जालपा की अनुपम छवि ने पहले ही दिन उस पर मोहिनी डाल दी थी। वह अपने सौभाग्य पर फूला न समाता था। क्या यह घर ऐसी अनन्य सुंदरी के योग्य था? जालपा के पिता पांच रुपये के नौकर थे; पर जालपा ने कभी अपने घर में झाड़ू न लगाई थी। कभी अपनी धोती न छांटी थी। अपना बिछावन न बिछाया था। यहां तक कि अपनी धोती की खींच तक न सी थी। दयानाथ पचास रुपये पाते थे; पर यहां केवल चौका-बासन करने के लिए महरी थी। बाकी सारा काम अपने ही हाथों करना पड़ता था। जालपा शहर और देहात का फर्क क्या जाने। शहर में रहने का उसे कभी अवसर ही न पड़ा था। वह कई बार पति और सास से साश्चर्य पूछ चुकी थी, क्या यहां कोई नौकर नहीं है? जालपा के घर दूध-दही-घी की कमी नहीं थी। यहां बच्चों को भी दूध मयस्सर न था। इन सारे अभावों की पूर्ति के लिए रमानाथ के पास मीठी-मीठी बड़ी-बड़ी बातों के सिवा और क्या था। घर का किराया पांच रुपया था, रमानाथ ने पंद्रह बतलाए थे। लड़कों की शिक्षा का खर्च मुश्किल से दस रुपये था, रमानाथ ने चालीस बतलाए थे। उस समय उसे इसकी जरा भी शंका न थी, कि एक दिन सारा भंडा फूट जायगा। मिथ्या दूरदर्शी नहीं होता; लेकिन वह दिन इतनी जल्दी आयगा, यह कौन जानता था। अगर उसने ये डींगें न मारी होतीं; तो जागेश्वरी की तरह वह भी सारा भार दयानाथ पर छोड़कर निश्चिंत हो जाता; लेकिन इस वक्त वह अपने ही बनाए हुए जाल में फंस गया था। कैसे निकले।

उसने कितने ही उपाय सोचे; लेकिन कोई ऐसा न था, जो आगे चलकर उसे उलझनों में न डाल देता, दलदल में न फंसा देता। एकाएक उसे एक चाल सूझी। उसका दिल उछल पड़ा; पर इस बात को वह मुंह तक न ला सका। ओह! कितनी नीचता है! कितना कपट! कितनी निर्दयता! अपनी प्रेयसी के साथ धूर्तता! उसके मन ने उसे धिक्कारा। अगर इस वक्त उसे [ २३ ]
कोई एक हजार रुपया दे देता, तो वह उसका उम्रभर के लिए गुलाम हो जाता।। दयानाथ ने पूछा-कोई बात सूझी?

'मुझे तो कुछ नहीं सूझता।'

'कोई उपाय सोचना ही पड़ेगा।'

'आप ही सोचिए, मुझे तो कुछ नहीं सूझता।'

'क्यों नहीं उससे दो-तीन गहने मांग लेते? तुम चाहो तो ले सकते हो, हमारे लिए मुश्किल है।'

'मुझे शर्म आती है।'

'तुम विचित्र आदमी हो, न खुद मांगोगे ने मुझे मांगने दोगे, तो आखिर यह नाव कैसे चलेगी? मैं एक बार नहीं, हजार बार कह चुका कि मुझसे कोई आशा मते रक्खो। अपने आखिरी दिन जेल में नहीं काट सकता। इसमें शर्म की क्या बात है, मेरी समझ में नहीं आती। किसके जीवन में ऐसे कुअवसर नहीं आते ? तुम्हीं अपनी मां से पूछो।'

जागेश्वरी ने अनुमोदन किया—मुझसे तो नहीं देखा जाता था कि अपना आदमी चिंता में पड़ा रहे, मैं गहने पहने बैठी रहूं। नहीं तो आज मेरे पास भी गहने न होते ? एक-एक करके सब निकल गए। विवाह में पांच हजार से कम का चढ़ाव नहीं गया था, मगर पांच ही साल में सब स्‍वाहा हो गया। तब से एक छल्ला बनवाना भी नसीव न हुआ।।

दयानाथ जोर देकर बोले–शर्म करने का यह अवसर नहीं है। इन्हें मांगना पड़ेगा।

रमानाथ ने झेंपते हुए कहा-मैं मांगे तो नहीं सकता, कहिए उठा लाऊं।

यह कहते-कहते लज्जा, क्षोभ और अपनी नीचता के ज्ञान से उसकी आंखें सजल हो गई।

दयानाथ ने भौंचक्के होकर कहा-उठा लाओगे, उससे छिपाकर?

रमानाथ ने तीव्र कंठ से कहा-और आप क्या समझ रहे हैं?

दयानाथ ने माथे पर हाथ रख लिया, और कि क्षण के बाद आहत कंठ से बोले- नहीं, मैं ऐसा न करने दूँगा। मैंने जाल कभी नहीं किया, और न कभी करूंगा। वह भी अपनी बहू के साथ ! छि:-छि:, जो काम सीधे से चल सकता है, उसके लिए यह फरेब? कहीं उसकी निगाह पड़ गई, तो समझते हो, वह तुम्हें दिल में क्या समझेगी? मांग लेना इससे कहीं अच्छा है।

रमानाथ-आपको इससे क्या मतलब। मुझसे चीजें ले लीजिएगा, मगर जब आप जानते थे, यह नौबत आएगी, तो इतने जेवर ले जाने की जरूरत ही क्या थी व्यर्थ की विपत्ति मोल ली। इससे कई लाख गुना अच्छी था कि आसानी से जितना ले जा सकते, उतना ही ले जाते। उस भोजन से क्या लाभ कि पेट में पीड़ा होने लगे? मैं तो समझ रहा था कि आपने कोई मार्ग निकाल लिया होगा। मुझे क्या मालूम था कि आप मेरे सिर यह मुसीबतों की करो पटक देंगे। वरना मैं उन चीजों को कभी न ले जाने देता।

दयानाथ कुछ लज्जित होकर बोले-इतने पर भी चन्द्रहार न होने से वहां हाय-तोबा मच गई।

रमानाथ-उस हाय-तोबा से हमारी क्या हानि हो सकती थी। जब इतना करने पर भी हाय-तोबा मच गई, तो मतलब भी तो न पूरा हुआ। उधर बदनामी हुई, इधर यह आफत सिर पर [ २४ ]
आई। मैं यह नहीं दिखाना चाहता कि हम इतने फटेहाल हैं। चोरी हो जाने पर तो सब्र करना ही पड़ेगा।

दयानाथ चुप हो गए। उस आवेश में रमा ने उन्हें खूब खरी-खरी सुनाई और वह चुपचाप सुनते रहे। आखिर जब न सुना गया, तो उठकर पुस्तकालय चले गए। यह उनका नित्य का नियम था। जब तक दो-चार पत्र-पत्रिकाएं न पढ़ लें, उन्हें खाना न हजम होता था। उसी सुरक्षित गढ़ी में पहुंचकर घर की चिंताओं और बाधाओं से उनकी जान बचती थी।

रमा भी वहां से उठा, पर जालपा के पास न जाकर अपने कमरे में गया। उसका कोई कमरा अलग तो था नहीं, एक ही मर्दाना कमरा था, इसी में दयानाथ अपने दोस्तों से गप-शप करते, दोनों लड़के पढ़ते और रमा मित्रों के साथ शतरंज खेलता। रमा कमरे में पहुंचा, तो दोनों लड़के ताश खेल रहे थे। गोपी का तेरहवां साल था, विश्वम्भर का नवां। दोनों रमी से थरथर कांपते थे। रमा खुद खूब ताश और शतरंज खेलता, पर भाइयों को खेलते देखकर हाथ में खुजली होने लगती थी। खुद चाहें दिनभर सैर-सपाटे किया करे; मगर क्या मजाल कि भाई कहीं घूमने निकल जायं। दयानाथ खुद लड़कों को कभी न मारते थे। अवसर मिलता, तो उनके साथ खेलते थे। उन्हें कनकौवे उड़ाते देखकर उनकी बाल-प्रकृति सजग हो जाती थी। दो- चार पेंच लड़ा देते। बच्चों के साथ कभी-कभी गुल्ली-डंडा भी खेलते थे। इसलिए लड़के जितना रम्मा से डरते, उतना ही पिता से प्रेम करते थे।

रमा को देखते ही लड़कों ने ताश को टाट के नीचे छिपा दिया और पढ़ने लगे। सिर झुकाए चपत की प्रतीक्षा कर रहे थे, पर रमानाथ ने चपत नहीं लगाई, मोढें पर बैठकर गोपीनाथ से बोला-तुमने भंग की दुकान देखी है न, नुक्कड़ पर?

गोपीनाथ प्रसन्न होकर बाला-हां, देखी क्यों नहीं।

‘जाकर चार पैसे का माजृन ले लो। दोई हुए आना। हां, हलवाई की दुकान से आधे सेर मिठाई भी लंत आना। यह रुपया लो।'

कोई पंद्रह मिनट में रमा य दोनों चीजें ले, जालपा के कमरे की और चला।

सात

रात के दस बज़ गए थे। जालपा खुली हुई छत पर लेटी हुई थी। जेठ की सुनहरी चांदनी में सामने फैले हुए नगर के कलश, गुंबद और वृक्ष स्‍वप्‍न-चित्रों से लगते थे। जालपा की आंखें चंद्रमा की ओर लगी हुई थीं। उसे ऐसा मालूम हो रहा था, मैं चंद्रमा की ओर उड़ी जा रही हूं। उसे अपनी नाक में खुश्की, आंखों में जलन और सिर में चक्कर मालूम हो रहा था। कोई बात ध्यान में आते ही भूल जाती, और बहुत याद करने पर भी याद न आती थी। एक बार घर की याद आ गई, रोने लगी। एक ही क्षण में सहेलियों की याद आ गई, हंसने लगी। सहसा रमानाथ हाथ में एक पोटली लिए, मुस्कराता हुआ आया और चारपाई पर वैट गया।

जालपा ने उठकर पूछा-पोटली में क्या है?

रमानाथ-सृझ जाओ तो जानू।