प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/पाँच

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प्रेमचंद रचनावली ५  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
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पांच


नाटक उस वक्त 'पास' होता है, जब रसिक-समाज उसे पंसद कर लेता है। बरात का नाटक उस वक्त पास होता है, जब राह चलते आदमी उसे पंसद कर लेते हैं। नाटक की परीक्षा चार- पांच घंटे तक होती रहती है, बरात की परीक्षा के लिए केवल इतने ही मिनटों का समय होता है। सारी सजावट, सारी दौड़-धूप और तैयारी का निबटारा पांच मिनटों में हो जाता है। अगर सबके मुंह से 'वाह-वाह' निकल गया, तो तमाशा पास नहीं फेल । रुपया, मेहनत, फिक्र, सब अकारथ। दयानाथ का तमाशा पास हो गया। शहर में वह तीसरे दर्जे में आता, गांव में अव्वल दर्जे में आया। कोई बाजों की धों-धों, पों-पों सुनकर मस्त हो रहा था, कोई मोटर को आंखें फाड़-फोड़कर देख रहा था। कुछ लोग फुलवारियों के तख्त देखकर लोट-लोट जाते थे। आतिशबाजी ही मनोरंजन का केंद्र थी। हवाइयां जब सन्न से ऊपर जातीं और आकाश में लाल, हरे, नीले, पीले, कुमकुमे-से बिखर जाते; जब चर्खियां छूटतीं और उनमें नाचते हुए मोर निकल आते, तो लोग मंत्रमुग्ध-से हो जाते थे। वाह, क्या कारीगरी है।

जालपा के लिए इन चीजों में लेशमात्र भी आकर्षण न था। हां, वह वर को एक आंख देखना चाहती थी, वह भी सबसे छिपाकर; पर उस भीड़-भाड़ में ऐसा अवसर कहां! द्वारचार के समय उसकी सखियां उसे छत पर खींच ले गईं और उसने रमानाथ को देखा। उसका सारा विराग, सारी उदासीनता, सारी मनोव्यथा मानो छू-मंतर हो गई थी। मुंह पर हर्ष की लालिमा छा गई। अनुराग स्फूर्ति का भंडार है।

द्वारचार के बाद बरात जनवासे चली गई। भोजन की तैयारियां होने लगीं। किसी ने पूरियां खाईं, किसी ने उपलों पर खिचड़ी पकाई। देहात के तमाशा देखने वालों के मनोरंजन के लिए नाच-गाना होने लगा।

दस बजे सहसा फिर बाजे बजने लगे। मालूम हुआ कि चढाव आ रहा है। बरात में हर एक रस्म डंके की चोट अदा होती है। दूल्हा कलेवा करने आ रहा है, बाजे बजने लगे। समधी मिलने आ रहा है, बाजे बजने लगे। चढाव ज्योंही पहुंचा, घर में हलचल मच गई। स्त्री- पुरुष, बूढे-जवान, सब चढ़ाव देखने के लिए उत्सुक हो उठे। ज्योंही किश्तियां मंडप में पहुंचीं, लोग सब काम छोड़कर देखने दौड़े। आपस में धक्कम-धक्का होने लगा। मनिकी प्यास से बेहाल हो रही थी, कंठ सूखा जाता था, चढाव आते ही प्यास भाग गई। दीनदयाल मारे भूखे- प्यास के निर्जीव-से पड़े थे, यह समाचार सुनते ही सचेत होकर दौड़े। मानकी एक-एक चीज को निकाल-निकालकर देखने और दिखाने लगी। वहां सभी इस कला के विशेषज्ञ थे। मर्दों ने गहने बनवाए थे, औरतों ने पहने थे, सभी आलोचना करने लगे। चूहेदन्ती कितनी सुंदर है,कोई दस तोले की होगी । वाह ! साढ़े ग्यारह तोले से रत्ती भर भी कम निकल जाए, तो कुछ हार जाऊं ! यह शेरदहां तो देखो, क्या हाथ की सफाई है! जी चाहता है कारीगर के हाथ चूम लें। यह भी बारह तोले से कम न होगा। वाह ! कभी देखा भी है, सोलह तोले से कम निकल जाए, तो मुंह न दिखाऊं। हां, माल उतना चोखा नहीं है। यह कंगन तो देखो, बिल्कुल पक्की जड़ाई है, कितना बारीक काम है कि आंख नहीं ठहरती ! कैसा दमक रहा है। सच्चे नगीने हैं। झूठे नगीनों में यह अब कहां। चीज तो यह गुलूबंद है, कितने खूबसूरत फूल हैं । और उनके बीच के हीरे कैसे चमक रहे हैं। किसी बंगाली सुनार ने बनाया होगा। क्या बंगलियों ने कारीगरी का [ १७ ] ठेका ले लिया है, हमारे देश में एक-से-एक कारीगर पड़े हुए हैं। बंगाली सुनार बेचारे उनकोक्या बराबरी करेंगे।

इसी तरह एक-एक चीज की आलोचना होती रही। सहसा किसी ने कहा-चन्द्रहार नहीं है क्या । मानकी ने रोनी सूरत बनाकर कहा-नहीं, चन्द्रहार नहीं आया।

एक महिला बोली-अरे चन्द्रहार नहीं आया?

दीनदयाल ने गंभीर भाव से कहा-और सभी चीजें तो हैं, एक चन्द्रहार ही तो नहीं है।

उसी महिला ने मुंह बनाकर कहा–चन्द्रहार की बात ही और है ।

मानकी ने चढ़ाव को सामने से हटाकर कहा-बेचारी के भाग में चन्द्रहार लिखा ही नहीं हैं।

इस गोलाकार जमघट के पीछे अंधेरे में आशा और आकांक्षा की मूर्ति-सी जालपा भी खड़ी थी। और सब गहनों के नाम कान में आते थे, चन्द्रहार का नाम न आता था। उसकी छाती धक-धक कर रही थी। चन्द्रहार नहीं है क्या ? शायद सबके नीचे हो। इस तरह वह मन को समझाती रही। जब मालूम हो गया चन्द्रहार नहीं है तो उसके कलेजे पर चोट-सी लग गई। मालूम हुआ, देह में रक्त की बूंद भी नहीं है। मानो उसे मूर्छा आ जायेगी। वह उन्माद की-सी दशा में अपने कमरे में आई और फूट-फूटकर रोने लगी। वह लालसा जो आज सात वर्ष हुए,उसके हृदय में अंकुरित हुई थी, जो इस समय पुष्प और पल्लव से लदी खड़ी थी, उस पर वज्रपात हो गया। वह हरा-भरा लहलहाता हुआ पौधा जल गया–केवल उसकी राख रह गई। आज ही के दिन पर तो उसको समस्त आशाएं अवलंबित थीं। दुर्दैव ने आज वह अवलंब भी छीन लिया। उस निराशा के आवेश में उसका ऐसा जी चाहने लगा कि अपना मुंह नोच डाले। उसका वश चलता, तो वह चढ़ाव को उठाकर आग में फेंक देती। कमरे में एक आले पर शिव की मूर्ति रखी हुई थी। उसने उसे उठाकर ऐसा पटका कि उसकी आशाओं की भांति वह भी चूर-चूर हो गई। उसने निश्चय किया, मैं कोई आभूषण न पहनूंगी। आभूषण पहनने से होता ही क्या है। जो रूप- विहीन हों, वे अपने को गहने से सजाएं, मुझे ईश्वर ने यों ही सुंदरी बनाया है, मैं गहने न पहनकर भी बुरी न लगूंगी। सस्ती चीजें उठा लाए, जिसमें रुपये खर्च होते थे, उसका नाम ही न लिया। अगर गिनती ही गिनानी थी, तो इतने ही दामों में इसके दूने गहने आ जाते ।

वह इसी क्रोध में भरी बैठी थी कि उसको तीन सखियां आकर खड़ी हो गई। उन्होंने समझा था, जालपा को अभी चढ़ाव की कुछ खबर नहीं है। जालपा ने उन्हें देखते ही आंखें पोंछ डाले और मुस्कराने लगी।

राधा मुस्कराकर बोली- जालपा, मालूम होता है, तूने बड़ी तपस्या की थी, ऐसा चढ़ाव मैंने आज तक नहीं देखा था। अब तो तेरी सब साध पूरी हो गई।

जालपा ने अपनी लंबी-लंबी पलकें उठाकर उसकी ओर ऐसे दीन नेत्रों से देखा, मानो जीवन में अब उसके लिए कोई आशा नहीं है–हां बहन, सब साध पूरी हो गई।

इन शब्दों में कितनी अपार मर्मांतक वेदना भरी हुई थी, इसका अनुमान तीनों युवतियों में कोई भी न कर सकी। तीनों कौतूहल से उसकी ओर ताकने लगीं, मानो उसका आशय उनकी समझ में न आया हो। [ १८ ] बासन्ती ने कहा-जी चाहता है, कारीगर के हाथ चूम लें।

शहजादी बोली-चढ़ाव ऐसा ही होना चाहिए, कि देखने वाले फड़क उठे।

बासन्ती–तुम्हारी सास बड़ी चतुर जान पड़ती हैं, कोई चीज नहीं छोड़ी।

जालपा ने मुंह फेरकर कहा-ऐसा ही होगा।

राधा-और तो सब कुछ है, केवल चन्द्रहार नहीं है।

शहजादी--एक चन्द्रहार के न होने से क्या होता है बहन, उसकी जगह गुलूबंद तो है।

जालपा ने वक्रोक्ति के भाव से कहा- हां, देह में एक आंख के न होने से क्या होता है। और सब अंग होते ही हैं, आंखें हुई तो क्या, न हुई तो क्या ।

बालकों के मुंह से गंभीर बातें सुनकर जैसे हमें हंसी आ जाती है, उसी तरह जालपा के मुंह से यह लालसा से भरी हुई बातें सुनकर राधा और बासन्ती अपनी हंसी न रोक सकीं। हां, शहजादी को हंसी न आई। यह आभूषण-लालसा उसके लिए हंसने की बात नहीं, होने की बात थी। कृत्रिम सहानुभूति दिखाती हुई बोली-सब न जाने कहां के जंगली हैं कि और सब चीजें तो लाए, चन्द्रहार न लाए, जो सब गहनों का राजा हैं। लाला अभी आते हैं तो पृछती हूं कि तुमने यह कहां की रीति निकाली है-ऐसा अनर्थ भी कोई करता है।

राधा और बासन्ती दिल में कांप रही थीं कि जालपा कहीं ताड़ न जाय। उनका बस चलता तो शहजादी का मुंह बंद कर देती, बार-बार उसे चुप रहने का इशारा कर रही थी, मगर जालपा को शहजादी का यह व्यंग्य, संवेदना से परिपूर्ण जान पड़ा। सुजल नेत्र होकर बोली--क्या करोगी पूछकर बहन, जो होना था सो हो गया !

शहजादी-तुम पूछने को कहती हो, मैं रुलाकर छोडूंगी। मेरे चढ़ाव पर कंगन नहीं आया था, उस वक्त मन ऐसा खट्टा हुआ कि सारे गहनों पर लात मार दें। जब तक कंगन न बन गए, मैं नींद भर सोई नहीं।

राधा तो क्या तुम जानती हो, जालपा को चन्द्रहार न बनेगा? शहजादी-बनेगा तब बनेगा, इस अवसर पर तो नहीं बना। दस-पांच की चीज नहीं, कि जब चाहा बनवा लिया, सैकड़ों का खर्च हैं, फिर कारीगर तो हमेशा अच्छे नहीं मिलते।

जालपा का भग्न हदय शहजादी की इन बातों से मानो जी उठा, वह कंधे कट से बोली-यही तो में भी सोचती हूँ बहन, जब आज न मिला, तो फिर क्या मिलेगा ।

राधा और वासन्ती मन-ही-मन शहजादी को कोस रही थी, और थप्पड़ दिखा -दिखाकर धमका रही थी, पर शहजादी को इस वक्त तमाशा का मजा आ रहा था। बाली-नहीं, यह बात नहीं है जल्ली, आग्रह करने में सब कुछ हो सकता है, सास-ससुर को बार-बार याद दिलाती रहना। बहनोईजी से दो-चार दिन रूठे रहने से भी बहुत कुछ काम निकल सकता है। बस यही समझ लो कि घरवाले चैन न लेने पाएं, यह बात हरदम उनके ध्यान में रहे। उन्हें मालूम हो जाय कि बिना चन्द्रहार बनवाए कुशल नहीं। तुम जरा भी ढीली पड़ी और काम बिगड़ा।

राधा ने हंसी को रोकते हुए कहा-इनसे न बने तो तुम्हें बुला लें, क्यों ? अब उठेगी कि सारी रात उपदेश ही करती रहोगी ।

शहजादी-चलती हूं, ऐसी क्या भागड़ पड़ी है। हां, खूब याद आई, क्यों जल्ली, तेरी अम्मांजी के पास बड़ा अच्छा चन्द्रहार है। तुझे न देंगी? [ १९ ] जालपा ने एक लंबी सांस लेकर कहा-क्या कहूं बहन, मुझे तो आशा नहीं है।

शहजादी-एक बार कहकर देखो तो, अब उनके कौन पहनने-ओढ़ने के दिन बैठे हैं।

जालपा-मुझसे तो न कहा जायेगा।

शहजादी–मैं कह दूंगी।

जालपा-नहीं-नहीं, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं। मैं जरा उनके मातृस्नेह की परीक्षा लेना चाहती हूं।

बासन्ती ने शहजादी का हाथ पकड़कर कहा-अब उठेगी भी कि यहां सारी रात उपदेश ही देती रहेगी।

शहजादी उठी, पर जालपा रास्ता रोककर खड़ी हो गई और बोली-नहीं, अभी बैठो बहन, तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ।

शहजादी-जब यह दोनों चुड़ैले बैठने भी दें। मैं तो तुम्हें गुर सिखाती हूँ और यह दोनों मुझ पर झल्लाती हैं। सुन नहीं रही हो, मैं भी विष को गांठ हूं।

वासन्ती-विष की गांठ तो तू है ही।

शहजादी-तुम भी तो ससुराल से सालभर बाद आई हो, कौन-कौन-सी नई चीजें बनवाई।

बासन्ती–और तुमने तीन साल में क्या बनवा लिया?

शहजादी-मेरी बात छोड़ो, मेरा खसम तो मेरी बात ही नहीं पूछता।

राधा-प्रेम के सामने गहनों का कोई मुल्य नहीं।

शहजादी-तो सूखा प्रेम तुम्हीं को फले।

इतने में मानकी ने आकर कहा-तुम तीनों यहां बैठी क्या कर रही हो, चलो वहां लोग खाना खाने आ रहे हैं।

तीनों युवतियां चली गई। जालपा माता के गले में चन्द्रहार की शोभा देखकर मन-ही-मन सोचने लगी-गहनों से इनका जी अब तक नहीं भरा।

छह

महाशय दयानाथ जितनी उमंगों से ब्याह करने गए थे, उतना ही हतोत्साह होकर लौटे। दीनदयाल ने खूब दिया, लेकिन वहां से जो कुछ मिला, वह सब नाच-तमाशे, नेग-चार में खर्च हो गया। बार-बार अपनी भूल पर पछताते, क्यों दिखावे और तमाशे में इतने रुपये खर्च किए। इसकी जरूरत ही क्या थी, ज्यादा-से-ज्यादा लोग यही तो कहते--महाशय बड़े कृपण हैं। उतना सुन लेने में क्या हानि थी? मैंने गांव वालों को तमाशे, खाने का ठीका तो नहीं लिया था। यह सब रमा का दुस्साहस हैं। उसी ने सारे खर्च बढ़ा-बढ़ाकर मेरा दिवाला निकाल दिया। और सब तकाजे तो दस-पांच दिन टल भी सकते थे, पर सर्राफ किसी तरह न मानता था। शादी के सातवें दिन उसे एक हजार रुपये देने का वादा था। सातवें दिन सर्राफ आया, मगर यहां रुपये कहां थे? दयानाथ में लल्लो -चप्पो को आदत न थी, मगर आज उन्होंने उसे चकमा देने की खूब कोशिश