प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/तेरह

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प्रेमचंद रचनावली ५  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
[ ४८ ]

तेरह

सर्राफे में गंगू की दुकान मशहूर थी। गंगू था तो ब्राह्मण, पर बड़ा ही व्यापार-कुशल । उसकी दुकान पर नित्य गाहकों का मेला लगा रहता था। उसकी कर्म-निष्ठा गाहकों में विश्वास पैदा करती थी। और दुकानों पर ठगे जाने का भय था। यहां किसी तरह का धोखा न था। गंगू ने रमा को देखते ही मुस्कराकर कहा-आइए बाबूजी, ऊपर आइए। बड़ी दया की। मुनीमजी, आपके वास्ते पान मंगवाओ। क्या हुक्म है बाबूजी, आप तो जैसे मुझसे नाराज हैं। कभी आते ही नहीं, गरीबों पर भी कभी-कभी दया किया कीजिए।

गंगू की शिष्टता ने रमा की हिम्मत खोल दी। अगर उसने इतने आग्रह से न बुलाया होता तो शायद रमा को दुकान पर जाने का साहस न होता। अपनी साख का उसे अभी तक अनुभव न हुआ था। दुकान पर जाकर बोला-यहां हम जैसे मजदूरों का कहां गुजर है, महाराज ! गांठ में कुछ हो भी तो।

गंगू-यह आप क्या कहते हैं सरकार, आपकी दुकान है, जो चीज चाहिए ले जाइए, दाम आगे-पीछे मिलते रहेंगे। हम लोग आदमी पहचानते हैं बाबू साहब, ऐसी बात नहीं है। धन्य भाग कि आप हमारी दुकान पर आए तो। दिखाऊ कोई जड़ाऊ चीज? कोई कंगन, कोई हार? अभी हाल ही में दिल्ली से माल आया है।

रमानाथ कोई हल्के दामों का हार दिखाइए।

गंगू–यही कोई सात-आठ सौ तक?

रमानाथ-अजी नहीं,चार सौ तक।

गंगू-मैं आपको दोनों दिखाए देता हूं। जो पसंद आवें, ले लीजिएगा। हमारे यहां किसी तरह का दगल-फसल नहीं बाबू साहब इसको आप जरी भी चिंता न करें। पांच बरस का लड़का हो या सौ बरस का बूढा, सबके साथ एक बात रखते हैं। मालिक को भी एक दिन मुंह दिखाना है, बाबू।

संदूक सामने आया, रंगू ने हार निकाल-निकालकर दिखाने शुरू किए। रमा की आंखें खुल गई, जी लोट-पोट हो गया। क्या सफाई थी । नगीनों की कितनी सुंदर सजावट । कैसी आब-ताब ! उनकी चमक दीपक को मात करती थी। रमा ने सोच रखा था सौ रुपये से ज्यादा उधार न लगाऊंगा, लेकिन चार सौ वाला हार आंखों में कुछ जंचता ने था। और जेब में कुल तीन सौ रुपये थे। सोचा, अगर यह हार ले गया और जालपा ने पसंद न किया, तो फायदा ही क्या? ऐसी चीज ले जाऊं कि वह देखते ही फड़क उठे। यह जड़ाऊ हार उसकी गर्दन में कितनी शोभा देगा! वह हार एक सहस्र मणि-रंजित नेत्रों से उसके मन को खींचने लगा। वह अभिभूत होकर उसकी ओर ताक रहा था, पर मुंह से कुछ कहने का साहस न होता था। कहीं गंगू ने तीन सौ रुपये उधार लगाने से इंकार कर दिया, तो उसे कितना लज्जित होना पड़ेगा। गंगू ने उसके मन का संशय ताड़कर कहा-आपके लायक तो बाबूजी यही चीज है, अंधेरे घर में रख दीजिए, तो उजाला हो जाय।

रमानाथ-पसंद तो मुझे भी यही है, लेकिन मेरे पास कुल तीन सौ रुपये हैं, यह समझे लीजिए।

शर्म से रमा के मुंह लाली छा गई। वह धड़कते हुए हृदय से गंगू का मुंह देखने लगा। [ ४९ ] गंगू ने निष्कपट भाव से कहा-बाबू साहब, रुपये का तो जिक्र ही न कीजिए। कहिए दस हजार का माल साथ भेज दें। दुकान आपकी है, भला कोई बात है? हुक्म हो, तो एक-आध चीज और दिखाऊ? एक शीशफूल अभी बनकर आया है, बस यही मालूम होता है, गुलाब का फूल खिला हुआ है। देखकर जी खुश हो जाएगा। मुनीमजी, जरा वह शीशफूल दिखाना तो। और दाम को भी कुछ ऐसा भारी नहीं, आपको ढाई सौ में दे दूंगी।

रमा ने मुस्कराकर कहा-महाराज, बहुत बातें बनाकर कहीं उल्टे छुरे से न मूंड़ लेना,गहनों के मामले में बिल्कुल अनाड़ी हूं।

गंगू–ऐसा न हो बाबूजी, आप चीज ले जाइए, बाजार में दिखा लीजिए, अगर कोई ढाई सौ से कौड़ी कम में दे दे, तो मैं मुफ्त दे दूंगा।

शीशफूल आया, सचमुच गुलाब का फूल था, जिस पर हीरे की कलियां ओस की बूंदों के समान चमक रही थीं। रमा की टकटकी बंध गई, मानो कोई अलौकिक वस्तु सामने आ गई हो।

गंगू-बाबूजी, ढाई सौ रुपये तो कारीगर की सफाई के इनाम हैं। यह एक चीज है।

रमानाथ–हां, है तो सुंदर, मगर भाई ऐसा न हो, कि कल ही से दाम का तकाजा करने लगो। मैं खुद ही जहां तक हो सकेगा, जल्दी दे दंगा।

गंगू ने दोनों चीजें दो सुंदर मखमली केसों में रखकर रमा को दे दीं। फिर मुनीमजी से नाम टंकवाया और पान खिलाकर विदा किया।

रमा के मनोल्लास की इस समय मीमा न थी, किंतु यह विशुद्ध उल्लास न था, इसमें एक शंका का भी समावेश था। यह उस बालक का आनंद न था जिसने माता से पैसे मांगकर मिठाई ली हो, बल्कि उस बालक का जिसने पैसे चुराकर ली हो, उसे मिठाइयां मीठी तो लगती हैं, पर दिल कांपता रहता है कि कहीं घर चलने पर मार न पड़ने लगे। साढे छ: सौ रुपये चुका देने की तो उसे विशेष चिंता न थी, घात लग जाय तो वह छ: महीने में चुका देगा। भय यही था कि बाबूजी सुनेंगे तो जरूर नाराज होगे, लेकिन ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता था, जालपा को इन आभूषणों से सुशोभित देखने की उत्कंठा इसे शंका पर विजय पाती थी। घर पहुंचने की जल्दी में उसने सड़क छोड़ दी, और एक गली में घुस गया। सघन अंधेरी को हुआ था। बादल तो उसी वक्त छाए हुए थे, जब वह घर से चला था। गली में घुसा ही था, कि पानी की बूंद सिर पर छर्रें की तरह पड़ी। जब तक छतरी खोले, वह लथपथ हो चुकी थी। उसे शंका हुई, इस अंधकार में कोई कर दोनों चीजें छीन न ले, पानी की झरझर में कोई आवाज भी न सुनें।

अंधेरी गलियों में खून तक हो जाते हैं। पछताने लगा, नाहक इधर से आया। दो-चार मिनट देर ही में पहुंचता, तो ऐसी कौन-सी आफत आ जाती। असामयिक वृष्टि ने उसकी आनंद- कल्पनाओं में बाधा डाल दी। किसी तरह गली का अंत हुआ और सड़क मिली। लालटेनें दिखाई दीं। प्रकाश कितनी विश्वास उत्पन्न करने वाली शक्ति है, आज इसका उसे यथार्थ अनुभव हुआ।

वह घर पहुंचा तो दयानाथ बैठे हुक्का पी रहे थे। वह उस कमरे में न गया! उनकी आंख बचाकर अंदर जाना चाहता था कि उन्होंने टोका-इस वक्त कहां गए थे?

रमा ने उन्हें कुछ जवाब न दिया। कहीं वह अखबार सुनाने लगे, तो घंटों की खबर लेंगे। सीधा अंदर जा पहुंचा। जालपा द्वार पर खड़ी उसकी राह देख रही थी, तुरंत उसके हाथ से [ ५० ]छतरी ले ली और बोली-तुम तो बिल्कुल भींग गए। कहीं ठहर क्यों न गए।

रमानाथ-पानी का क्या ठिकाना, रात-भर बरसता रहे।

यह कहता हुआ रमा ऊपर चला गया। उसने समझा था, जालपा भी पीछे-पीछे आती होगी, पर वह नीचे बैठी अपने देवरों से बातें कर रही थी, मानो उसे गहनों की याद ही नहीं है। जैसे वह बिल्कुल भूल गई है कि रमा सरार्फ से आया है।

रमा ने कपड़े बदले और मन में झुंझलाता हुआ नीचे चला आया। उसी समय दयानाथ भोजन करने आ गए। सब लोग भोजन करने बैठ गए। जालपा ने जब्त तो किया था, पर इस उत्कंठा की दशा में आज उससे कुछ खाया न गया। जब वह ऊपर पहुंची, तो रमा चारपाई पर लेटा हुआ था। उसे देखते ही कौतुक से बोला-आज सरार्फ का जाना तो व्यर्थ हो गया। हार कहीं तैयार ही न था। बनाने को कह आया हूं।

जालपा की उत्साह से चमकती हुई मुख-छवि मलिन पड़ गई, बोली-वह तो पहले ही जानती थी। बनते-बनते पांच-छ: महीने तो लग हो जाएंगे।

रमानाथ–नहीं जी, बहुत जल्द बना देगा, कसम खा रहा था। जालपा-ऊह, जब चाहे दे।

उत्कंठा की चरम सीमा ही निराशा है। जालपा मुंह फेरकर लेटने जा रही थी, कि रमा ने जोर से कहकहा मारा। जालपा चौंक पड़ी। समझ गई, रमा ने शरारत की थी। मुस्कराती हुई बोली-तुम भी बड़े नटखट हो। क्या लाए?

रमानाथ-कैसा चकमा दिया?

जालपा-यह तो मरदों की आदत ही है, तुमने नई बात क्या की जालपा दोनों आभूषणों को देखकर निहाल हो गई। हृदय में आनंद की लहरें सी उठने लगीं। वह मनोभावों को छिपाना चाहती थी कि रमा उसे ओछी न समझे, लेकिन एक -एक अंग खिल जाता था। मुस्कराती हुई आंखें, दमकते हुए कपोल और खिले हुए अधर उसका भरम गंवाए देते थे। उसने हार गले में पहना, शीशफूल जूड़े में सजाया और हर्ष से उन्मत्त होकर बोली-तुम्हें आशीर्वाद देती हूं, ईश्वर तुम्हारी सारी मनोकामनाएं पूरी करें।

आज जालपा की अभिलाषा पूरी हुई, जो बचपन ही से उसकी कल्पनाओं का एक स्वप्न, उसकी आशाओं का क्रीड़ास्थल बनी हुई थी। आज उसकी वह साध पूरी हो गई। यदि मानकी यहां होती, तो वह सबसे पहले यह हार उसे दिखाती और कहती- तुम्हारा हार तुम्हें मुबारक हो ।

रमा पर घड़ों नशा चढ़ा हुआ था। आज उसे अपना जीवन सफल जान पड़ा। अपने जीवन में आज पहली बार उसे विजय का आनंद प्राप्त हुआ।

जालपा ने पूछा-जाकर अम्मांजी को दिखा आऊं?

रमा ने नम्रता से कहा-अम्मां को क्या दिखाने जाओगी। ऐसी कौन-सी बड़ी चीजें हैं।

जालपा-अब मैं तुम साल-भर तक और किसी चीज के लिए न कहूंगी। इसके रुपये देकर ही मेरे दिल का बोझ हल्का होगा।

रमा गर्व से बोला-रुपये की क्या चिंता । हैं ही कितने !

जालपा-जरा अम्मांजी को दिखा आऊं, देखें क्या कहती हैं।

रमानाथ-मगर यह न कहना, उधार लाए हैं। [ ५१ ]
जालपा इस तरह दौड़ी हुई नीचे गई, मानो उसे वहां कोई निधि मिल जायेगी।

आधी रात बीत चुकी थी। रमा आनंद की नींद सो रहा था। जालपा ने छत पर आकर एक बार आकाश की ओर देखा। निर्मल चांदनी छिटकी हुई थी-वह कार्तिक की चांदनी जिसमें संगीत की शांति है, शांति का माधुर्य और माधुर्य का उन्माद। जालपा ने कमरे में आकर अपनी संदूकची खोली और उसमें से वह कांच का चन्द्रहार निकाला जिसे एक दिन पहनकर उसने अपने को धन्य माना था। पर अब इस नए चन्द्रहार के सामने उसकी चमक उसी भांति मंद पड़ गई थी, जैसे इस निर्मल चन्द्रज्योति के सामने तारों का आलोक। उसने उस नकली हार को तोड़ डाला और उसके दानों को नीचे गली में फेंक दिया, उसी भांति जैसे पूजन समाप्त हो जाने के बाद कोई उपासक मिट्टी की मूर्तियों को जल में विसर्जित कर देता है।

चौदह

उस दिन से जालपा के पति- स्नेह में सेवा-भाव का उदय हुआ। वह स्नान करने जाता, तो उसे अपनी धोती चुनी हुई मिलती। आने पर तेल और साबुन भी रक्खा हुआ पाता। जब दफ्तर जाने लगता, तो जालपा उसके कपड़े लाकर सामने रख देती। पहले पान मांगने पर मिलते थे, अब जबरदस्ती खिलाए जाते थे। जालपा उसका रुख देखा करती। उसे कुछ कहने की जरूरत न थी। यहां तक कि जब वह भोजन करने बैटता, तो वह पंखा झला करती। पहले वह बड़ी अनिच्छा में भोजन बनाने जाती थी और उस पर भी बेगार-सी टालती थी। अब बड़े प्रेम से रसोई में जाती। चीजें अब भी वही बनती थीं, पर उनका स्वाद बढ़ गया था। रमा को इस मधुर स्नेह के सामने वह दो गहने बहुत हो तुच्छ जंचते थे।

उधर जिस दिन रमा ने गंगू की दुकान से गहने खरीदे, उसी दिन दूसरे सर्राफों को भी उसके आभूषण -प्रेम की सूचना मिल गई। रमा जब उधर से निकलता तो दोनों तरफ से दुकानदार उठ-उठकर उसे सलाम करते-आइए बाबूजी, पान तो खाके जाइए।दो-एक चीजें हमारी दुकान से तो देखिए।

रमा का आत्म-संयम उसकी साख को और भी बढ़ाता था। यहां तक कि एक दिन एक दलाल रमा के घर पर आ पहुंचा, और उसके नहीं- नहीं करने पर भी अपनी संदूकची खोल ही दी।

रमा ने उससे पीछा छुड़ाने के लिए कहा-भाई, इस वक्त मुझे कुछ नहीं लेना है। क्यों अपना और मेरा समय नष्ट करोगे। दलाल ने बड़े विनीत भाव से कहा-बाबूजी, देख तो लीजिए। पसंद आए तो लीजिएगा, नहीं तो न लीजिएगा। देख लेने में तो कोई हर्ज नहीं है। आखिर रईसों के पास न जायं, तो किसके पास जायं। औरों ने आपसे गहरी रकमें मारी, हमारे भाग्य में भी बदा होगा,तो आपसे चार पैसा पा जाएंगे। बहूजी और माईजी को दिखा लीजिए। मेरा मन तो कहता है कि आज आप ही के हाथों बोहनी होगी।

रमानाथ-औरतों के पसंद की न कहो, चीजें अच्छी होंगी ही। पसंद आते क्या देर लगती है, लेकिन भाई, इस वक्त हाथ खाली है।