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प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/पैंतीस

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प्रेमचंद रचनावली ५
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती-प्रेस, पृष्ठ १६१ से – १६५ तक

 

पैंतीस

रुदन में कितना उल्लास,कितनी शांति,कितना बल है। जो कभी एकांत में बैठकर,किसी की स्मृति में,किसी के वियोग में,सिसक-सिसक और बिलख-बिलख नहीं रोया,वह जीवन के ऐसे सुख से वंचित है, जिस पर सैकड़ों हँसिया न्योछावर हैं। उस मीठी वेदना का आनंद उन्हीं से पूछो,जिन्होंने यह सौभाग्य प्राप्त किया है। हंसी के बाद मन खिन्न हो जाता है,आत्मा क्षुब्ध हो जाती है, मानो हम थक गए हों, पराभूत हो गए हों। रुदन के पश्चात् एक नवीन स्फूर्ति,एक नवीन जीवन,एक नवीन उत्साह का अनुभव होता है। जालपा के पास 'प्रजा-मित्र' कार्यालय का पत्र पहुंचा, तो उसे पढ़कर वह रो पड़ी। पत्र एक हाथ में लिए,दूसरे हाथ से चौखट पकड़े, वह खूब रोई। क्या सोचकर रोई,वह कौन कह सकता है। कदाचित् अपने उपाय की इस आशातीत सफलता ने उसकी आत्मा को विह्वल कर दिया,आनंद की उस गहराई पर पहुंचा दिया जहां पानी है,या उस ऊंचाई पर जहां उष्णता हिम बन जाती है। आज छः महीने के बाद यह सुख-संवाद मिला। इतने दिनों वह छलमयी आशा और कठोर दुराशा का खिलौना बनी रही। आह ! कितनी बार उसके मन में तरंग उठी कि इस जीवन को क्यों न अंत कर दें। कहीं मैंने सचमुच प्राण त्याग दिए होते तो उनके दर्शन भी न पाती। पर उनका हिया कितना कठोर है। छः महीने से वहां बैठे हैं, एक पत्र भी न लिखा,खबर तक नहीं ली। आखिर यही न समझ लिया होगा कि बहुत होगा रो-रोकर मर जायगी। उन्होंने मेरी परवाह ही कब की । दस-बीस रुपये तो आदमी यार-दोस्तों पर भी खर्च कर देता है। वह प्रेम नहीं है। प्रेम हृदय की वस्तु है, रुपये की नहीं। जब तक रमा का कुछ पता न था, जालपा सारा इल्जाम अपने सिर रखती थी, पर आज उनका पता पाते ही उसका मन अकस्मात् कठोर हो गया। तरह-तरह के शिकवे पैदा होने लगे। वहां क्या समझकर बैठे हैं? इसीलिए तो कि वह स्वाधीन हैं, आजाद हैं, किसी का दिया नहीं खाते। इसी तरह मैं कहीं बिना कहे-सुने चली जाती, तो वह मेरे साथ किस तरह पेश आते? शायद तलवार लेकर गर्दन पर सवार हो जाते या जिंदगी भर मुंह न देखते। वहीं खड़े-खड़े जालपा ने मन-ही-मन शिकायतों का दफ्तर खोल दिया।

सहसा रमेश बाबू ने द्वार पर पुकारा-गोपी, गोपी, जरा इधर आना। मुंशीजी ने अपने कमरे में पड़े-पड़े कराहकर कहा-कौन है भाई, कमरे में आ जाओ। अरे ! आप हैं रमेश बाबू ! बाबूजी, मैं तो मरकर जिया हूं। बस यही समझिए कि नई जिंदगी हुई। कोई आशा न थी। कोई आगे न कोई पीछे; दोनों लौंडे आवारा है, मैं मरू या जीऊ, उनसे मतलब नहीं। उनकी मां को मेरी सूरत देखते डर लगता है। बस बेचारी बहू ने मेरी जान बचाई। वह न होती तो अब तक चल बसा होता।

रमेश बाबू ने कृत्रिम संवेदना दिखाते हुए कहा-आप इतने बीमार हो गए और मुझे खबर तक न हुई। मेरे यहां रहते आपको इतना कष्ट हुआ ! बहू ने भी मुझे एक पुर्जा न लिख दिया। छुट्टी लेनी पड़ी होगी?

मुंशी–छुट्टी के लिए दरख्वास्त तो भेज दी थी; मगर साहब मैंने डाक्टरी सर्टिफिकेट

नहीं भेजी। सोलह रुपये किसके घर से लाता। एक दिन सिविल सर्जन के पास गया,मगर उन्होंने चिट्ठी लिखने से इनकार किया। आप तो जानते हैं वह बिना फीस लिए बात नहीं करते। मैं चला आया और दरख्वास्त भेज दी। मालूम नहीं मंजूर हुई या नहीं। यह तो डाक्टरों का हाल है। देख रहे हैं कि आदमी मर रहा है, पर बिना भेट लिए कदम न उठावेंगे !

रमेश बाबू ने चिंतित होकर कहा-यह तो आपने बुरी खबर सुनाई। मगर आपकी छुट्टी नामंजूर हुई तो क्या होगा?

मुंशीजी ने माथा ठोंकर कहा-होगा क्या, घर बैठ रहूंगा। साहब पूछेगे तो साफ कह दूंगा,मैं सर्जन के पास गया था, उसने छुट्टी नहीं दी। आखिर इन्हें क्यों सरकार ने नौकर रखा है।महज कुर्सी की शोभा बढ़ाने के लिए? मुझे डिसमिस हो जाना मंजूर है, पर सर्टिफिकेट न दूंगा। लौंडे गायब हैं। आपके लिए पान तक लाने वाला कोई नहीं। क्या करूं?

रमेश ने मुस्कराकर कहा-मेरे लिए आप तरद्दुद न करें। मैं आज पान खाने नहीं,भरपेट मिठाई खाने आया हूं। (जालपा को पुकारकर) बहुजी, तुम्हारे लिए खुशखबरी लाया हूं। मिठाई मंगवा लो।

जालपा ने पान की तश्तरी उनके सामने रखकर कहा-पहले वह ख़बर सुनाइए! शायद आप जिस खबर को नई-नई समझ रहे हों, वह पुरानी हो गई हो।

रमेश-जी कहीं हो न। रमानाथ का पता चल गया। कलकत्ते में हैं।

जालपा-मुझे पहले ही मालूम हो चुका है।

मुंशीजी झपटकर उठ बैठे। उनका ज्वर मान भागकर उत्सुकता की आड़ में जा छिपा।

रमेश का हाथ पकड़कर बोले–मालूम हो गया कलकत्ते में हैं? कोई खत आया था?

रमेश-खत नहीं था, एक पुलिस इंक्वायरी थी। मैंने कह दिया, उन पर किसी तरह का इल्जाम नहीं है। तुम्हें कैसे मालूम हुआ, बहूजी?

जालपा ने अपनी स्कीम बयान की। 'प्रजा-मित्र' कार्यालय को पत्र भी दिखाया। पत्र के साथ रुपयों की एक रसीद थी जिस पर रमा का हस्ताक्षर था।

रमेश—दस्तख़त तो रमा बाबू की है,बिल्कुल साफ! धोखा हो ही नहीं सकता। मान गया बहूजी तुम्हें । वाह, क्या हिकमत निकाली है। हम सबके कान काट लिए। किसी को न सूझी। अब जो सोचते हैं,तो मालूम होता है, कितनी आसान बात थी। किसी को जाना चाहिए जो बचा को पकड़कर घसीट लाए।

यह बातचीत हो रही थी कि रतन आ पहुंची। जालपा उसे देखते ही वहां से निकली और उसके गले से लिपटकर बोली-बहन कलकत्ते से पत्र आ गया। वहीं हैं।

रतन–मेरे सिर की कसम?

जालपा-हां, सच कहती हूं। खत देखो न ।

रतन-तो आज ही चली जाओ।

जालपा-यही तो मैं भी सोच रही हूं। तुम चलोगी?

रतन-चलने को तो मैं तैयार हूं, लेकिन अकेला घर किस पर छोड़ू। बहन, मुझे मणिभूषण पर कुछ शुबहा होने लगा है। उसकी नीयत अच्छी नहीं मालूम होती। बैंक में बीस
हजार रुपये से कम न थे। सब न जाने कहां उड़ा दिए। कहता है, क्रिया-कर्म में खर्च हो गए। हिसाब मांगती हूँ, तो आंखें दिखाता है। दफ्तर की कुंजी अपने पास रखे हुए है। मांगती हूं, तो टोल जाता है। मेरे साथ कोई कानूनी चाल चल रहा है। डरती हूं, मैं उधर जाऊँ, इधर वह सब कुछ ले-देकर चलता बने। बंगले के गाहक आ रहे हैं। मैं भी सोचती हूँ, गांव में जाकर शांति से पड़ी रहूं। बंगला बिक जायगा, तो नकद रुपये हाथ आ जाएंगे। मैं न रहूंगी, तो शायद ये रुपये मुझे देखने को भी न मिलें। गोपी को साथ लेकर आज ही चली जाओ। रुपये का इंतजाम मैं कर दूंगी।

जालपा–गोपीनाथे तो शायद न जा सके। दादा की दवा-दारू के लिए भी तो कोई चाहिए।

रतन-वह मैं कर दूंगी। मैं रोज सवेरे आ जाऊंगी और दवा देकर चली जाऊंगी। शाम को भी एक बार आ जाया करूंगी।

जालपा ने मुस्कराकर कहा-और दिन- पर उनके पास बैठा कौन रहेगा?

रतन-मैं थोड़ी देर बैठी भी रहा करूंगी;मगर तुम आज ही जाओ। बेचारे वहां न जाने किस दशा में होंगे। तो यही तय ही न?

रतन मुंशीजी के कमरे में गई,तो रमेश बाबू उठकर खड़े हो गए और बोले-आइए देवीजी, रमा बाबू का पता चल गया !

रतन-इसमें आधा श्रेय मेरा है।

रमेश-आपकी सलाह से तो हुआ हीं होगा। अब उन्हें यहां लाने की फिक्र करनी है।

रतन-जालपा चली जाएं और पकड़ लाएं। गोपी को साथ लेती जावें। आपको इसमें कोई आपत्ति तो नहीं है, दादाजी?

मुंशीजी को आपत्ति तो थी, उनका बस चलता तो इस अवसर पर दस-पांच आदमियों को और जमा कर लेते,फिर घर के आदमियों के चले जाने पर क्यों पत्ति न होती,मगर समस्या ऐसी आ पड़ी थी कि कुछ बोल न सके।

गोपी कलकत्ते की सैर का ऐसा अच्छा अवसर पाकर क्यों न खुण होता। विशम्भर दिल में ऐंठकर रह गया। विधाता ने उसे छोटी न बनाया होता, तो आज उसकी यह हकतलफी न होती। गोपी ऐसे कहां के बड़े होशियार हैं, जहां जाते हैं कोई-न-कोई चीज खो आते हैं। हां, मुझसे बड़े हैं। इस दैवी विधान ने उसे मजबूर कर दिया।

रात को नौ बजे जालपा चलने को तैयार हुई। सास-ससुर के चरणों पर सिर झुकाकर आशीर्वाद लिया,विशम्भर रो रहा था,उसे गले लगा कर प्यार किया और मोटर पर बैठी रतन स्टेशन तक पहुंचाने के लिए आई थी।

मोटर चली तो जालपा ने कहा-बहन, कलकत्ता तो बहुत बड़ा शहर होगा। वहां कैसे पता चलेगा?

रतन-पहले 'प्रजा-मित्र' के कार्यालय में जाना। वहां से पता चल जाएगा। गोपी बाबू तो हैं ही।

जालपा–ठहरूंगी कहां? रतन-कई धर्मशाले हैं। नहीं होटल में ठहर जाना। देखो रुपये की जरूरत पड़े, तो मुझे तार देना। कोई-न-कोई इंतजाम करके भेजूंगी। बाबूजी आ जाएं,तो मेरा बड़ा उपकार हो। यह मणिभूषण मुझे तबाह कर देगा।

जालपा–होटल वाले बदमाश तो ने होंगे?

रतन-कोई जरा भी शरारत करे, तो ठोकर मारना। बस, कुछ पूछना मत। ठोकर जमाकर तब बात करनी। (कमर से एक छुरी निकालकर) इसे अपने पास रख लो। कमर में छिपाए रखना। मैं जब कभी बाहर निकलती हैं, तो इसे अपने पास रख लेती हैं। इससे दिल बड़ा मजबूत रहता है। जो मर्द किसी स्त्री को छेड़ता है, उसे समझ लो कि पल्ले सिरे को कायर,नीच और लंपट है। तुम्हारी छुरी की चमक और तुम्हारे तेवर देखकर ही उसकी रूह फना हो जायगी। सीधा दुम दबाकर भागेगा, लेकिन अगर ऐसा मौका आ ही पड़े जब तुम्हें छुरी से काम लेने के लिए मजबूर हो जाना पड़े, तो जरा भी मत झिझकना। छुरी लेकर पिल पड़ा। इसकी बिल्कुल फिक्र मत करना कि क्या होगा, क्या न होगा। जो कुछ होगा, हो जायगी।

जालपा ने छुरी ले ली, पर कुछ बोली नहीं। उसका दिल भारी हो रहा था। इतनी बातें सोचने और पूछने की थीं उनके विचार से ही उसका दिल बैठा जाता था।

स्टेशन आ गया। कुलियों ने असबाब उतारा। गोपी टिकट लाया। जालपा पत्थर की मूर्ति की भांति प्लेटफार्म पर खड़ी रही, मानो चेतना शून्य हो गई हो। किसी बड़ी परीक्षा के पहले हम मौन हो जाते हैं। हमारी सारी शक्तियां उस संग्राम की तैयारी में लग जाती हैं।

रतन ने गोपी से कहा-होशियार रहना।

गोपी इधर कई महीनों से कसरत करता था। चलता तो मुड्ढे और छाती को देखा करता। देखने वालों को तो वह ज्यों का त्यों मालूम होता है, पर अपनी नजर में वह कुछ और हो गया था। शायद उसे आश्चर्य होता था कि उसे आते देखकर क्यों लोग रास्ते से नहीं हट जाते, क्यों उसके डील-डौल से भयभीत नहीं हो जाते। अकड़कर बोला-किसी ने जरा चीं-चपड़ की तो हड्डी तोड़ दूंगा।।

रतन मुस्कराई-यह तो मुझे मालूम है। सो मत जाना।

गोपी-पलक तक तो झपकेगी नहीं। मजाल है नींद आ जाय।

गाड़ी आ गई। गोपी ने एक डिब्बे में घुसकर कब्जा जमाया। जालपा की आंख में आंसू भरे हुए थे। बोली-बहन,आशीर्वाद दो कि उन्हें लेकर कुशल से लौट आऊं।।

इस समय उसका दुर्बल घने कोई आश्रय, कोई सहारा, कोई बल ढूंढ रहा था और आशीर्वाद और प्रार्थना के सिवा यह बल उसे कौन प्रदान करता। यही बल और शांति का वह अक्षय भंडार है जो किसी को निराश नहीं करता, जो सबकी बांह पकड़ता है, सबका बेड़ा पार लगाता है।

इंजन ने सीटी दी। दोनों सहेलियां गले मिलीं। जालपा गाड़ी में जा बैठी।

रतन ने कहा-जाते ही जाते खत भेजना।

जालपा ने सिर हिलाया।

'अगर मेरी जरूरत मालूम हो,तो तुरंत लिखना। मैं सब कुछ छोड़कर चली आऊंगी।' जालपा ने सिर हिला दिया।

'रास्ते में रोना मत।'

जालपा हंस पड़ी। गाड़ी चल दी।

छत्तीस

देवीदीन ने चाय की दुकान उसी दिन से बंद कर दी थी और दिन-भर उस अदालत की खाक छानता फिरता था जिसमें डकैती का मुकदमा पेश था और रमानाथ की शहादत हो रही थी। तीन दिन रमा की शहादात बराबर होती रही और तीनों दिन देवीदीन ने ने कुछ खाया और न सोया। आज भी उसने घर आते ही आते कुरती उतार दिया और एक पखया लेकर झलने लगा। फागुन लग गया था और कुछ-कुछ गर्मी शुरू हो गई थी,पर इतनी गर्मी न थी कि पसीना बहे या पंखे की जरूरत हो। अफसर लोग तो जाड़ों के कपड़े पहने हुए थे,लेकिन देवीदीन पसीने में तर था। उसका चेहरा,जिस पर निष्कपट बुढ़ापा हंसता रहता था, खिसियाया हुआ था,मानो बेगार से लौटा हो।

जग्गो ने लोटे में पानी लाकर रख दिया और बोली-चिलम रख दूं? देवीदीन को आज तीन दिन से यह खातिर हो रही थी। इसके पहले बुढ़िया कभी चिलम रखने को न पृछती थी।

देवीदीन इसका मतलब समझता था। बुढ़िया को सदय त्रों से देखकर बोला-नहीं, रहने दो, चिलम न पिऊगा।

'तो मुंह-हाथ तो धो लो। गर्द पड़ी हुई है।

‘धो लूंगा,जल्दी क्या है।'

बुढिया आज का हाल जानने को उत्सुक थी, पर डर रही थी कह देवीदीन झुंझला न पड़े। वह उसकी थकान मिटा देना चाहती थी, जिससे देवीदीन प्रसन्न होकर आप-ही-आप सारा वृत्तांत कह चले 'तो कुछ जलपान तो कर लो। दोपहर को भी तो कुछ नहीं खाया था, मिठाई लाऊँ? लाओ, पंखी मुझे दे दो।'

देवीदीन ने पँखिया दे दी। बुढिया झलने लगी। दो-तीन मिनट तक आंखें बंद करके बैठे रहने के बाद देवीदीन ने कहा-आज भैया की गवाही खत्म हो गई।

बुढिया का हाथ रुक गया। बोली-तो कल से वह घर आ जाएंगे?

देवीदीन-अभी नहीं छुट्टी मिली जाती, यही बयान दीवानी में देना पड़े। और अब वह यहां आने ही क्यों लगे । कोई अच्छी जगह मिल जायेगी, घोड़े पर चढ़े-चढ़े घूमेंगे, मगर है बड़ा पक्का मतलबी। पंद्रह बेगुनाहों को फंसा दिया। पांच-छ: को तो फांसी हो जाएगी। औरों को दस-दस बारह-बारह साल की सजा मिली रक्खी है। इसी के बयान से मुकदमा सबूत हो गया। कोई कितनी ही जिरह करे,क्या मजाल जरा भी हिचकिचाए। अब एक भी न बचेगा। किसने कर्म किया,किसने नहीं किया इसका हाल दैव जाने पर मारे सब जाएंगे। घर से भी तो