प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/बयालीस

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प्रेमचंद रचनावली ५  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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दूसरों का बोझ बनने का कोई हक नहीं है।

यह कहती हुई रतन घर से निकली और द्वार की ओर चली।

मणिभूषण में उसका रास्ता रोककर कहा-अगर आपकी इच्छा न हो,तो मैं बंगला अभी न बेचें।

रतन ने जलती हुई आँखों से उसकी ओर देखा। उसका चेहरा तमतमाया हुआ था। आंसुओं के उमड़ते हुए वेग को रोककर बोली- मैंने कह दिया,इस घर की किसी चीज से मेरा नाता नहीं है। मैं किराए की लौंड़ी थी। लौड़ी का घर से क्या संबंध है ! न जाने किस पापी ने यह कानून बनाया था। अगर ईश्वर कहीं है और उसके यहां कोई न्याय होता है,तो एक दिन उसी के सामने उस पापी से पूछूगी,क्या तेरे घर में मां-बहनें न थीं? तुझे उनका अपमान करते लज्जा न आई? अगर मेरी जबान में इतनी ताकत होती कि सारे देश में उसकी आवाज पहुंचती,तो मैं सब स्त्रियों से कहती-बहनो,किसी सम्मिलित परिवार में विवाह मत करना और अगर करना तो अब तक अपना घर अलग न बना लो,चैन की नींद मत सोना। यह मत समझो कि तुम्हारे पति के पीछे उस घर में तुम्हारा मान के साथ पालन होगा। अगर तुम्हारे पुरुष ने कोई तरका नहीं छोड़ा,तो तुम अकेली रहो चाहे परिवार में,एक ही बात है। तुम अपमान और मजूरी से नहीं बच सकतीं। अगर तुम्हारे पुरुष ने कुछ छोड़ा है तो अकेली रहकर तुम उसे भोग सकती हो,परिवार में रहकर तुम्हें उससे हाथ धोना पड़ेगा। परिवार तुम्हारे लिए फूलों की सेज नहीं,कांटों की शय्या है, तुम्हारा पार लगाने वाली नौका नहीं, तुम्हें निगल जाने वाला जंतु।

संध्या हो गई थी। गर्द से भरी हुई फागुन की वायु चलने वालों की आंखों में धूल झोंक रही थी। रतन चादर संभालती सड़क पर चली जा रही थी। रास्ते में कई परिचित स्त्रियों ने उसे टोका, कई ने अपनी मोटर रोक ली और उसे बैठने को कहा; पर रतन को उनकी सहृदयता इस समय बाण-सी लग रही थी। वह तेजी से कदम उठाती हुई जालपा के घर चली जा रही थी। आज उसका वास्तविक जीवन आरंभ हुआ था।

बयालीस


ठीक दस बजे जालपा और देवीदीन कचहरी पहुंच गए। दर्शकों को काफी भीड़ थी। ऊपर की गैलरी दर्शकों से भरी हुई थी। कितने ही आदमी बरामदों में और सामने के मैदान में खड़े थे। जालपा ऊपर गैलरी में जा बैठी। देवीदीन बरामदे में खड़ा हो गया।

इजलास पर जज साहब के एक तरफ अहलमद थी और दूसरी तरफ पुलिस के कई कर्मचारी खड़े थे। सामने कठघरे के बाहर दोनों तरफ के वकील खड़े मुकदमा पेश होने का इंतजार कर रहे थे। मुलजिमों की संख्या पंद्रह से कम न थी। सब कठघरे के बगल में जमीन पर बैठे हुए थे। सभी के हाथों में हथकड़ियां थीं, पैरों में बेड़ियां। कोई लेटा था,कोई बैठा था,कोई आपस में बातें कर रहा था। दो पंजे लड़ा रहे थे। दो में किसी विषय पर बहस हो रही थी। सभी प्रसन्न-चित्त थे। घबराहट,निराशा या शोक का किसी के चेहरे पर चिन्ह भी न था।

ग्यारह बजते-बजते अभियोग को पेशी हुई। पहले जाते की कुछ बातें हुई, फिर दो [ १८९ ]
एक पुलिस की शहादतें हुईं। अंत में कोई तीन बजे रमानाथ गवाहों के कठघरे में लाया गया। दर्शकों में सनसनी-सी फैल गई। कोई तंबोली की दुकान से पान खाता हुआ भागा, किसी ने समाचार-पत्र को मरोड़कर जेब में रखा और सब इजलास के कमरे में जमा हो गए। जालपा भी संभलकर बारजे में खड़ी हो गई। वह चाहती थी कि एक बार रमा की आंखें उठ जातीं और वह उसे देख लेती, लेकिन रमा सिर झुकाए खड़ा था, मान वह इधर-उधर देखते डर रहा हो। उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। कुछ सहमा हुआ, कुछ घबराया हुआ इस तरह खड़ा था, मानो उसे किसी ने बांध रखी है और भागने की कोई राह नहीं है। जालपा का कलेजा धकधक कर रहा था, मानो उसके भाग्य का निर्णय हो रहा हो।

रमा का बयान शुरू हुआ। पहला ही वाक्य सुनकर जालपा सिहर उठी, दूसरे वाक्य ने उसको त्योरियों पर बल डाल दिए, तीसरे वाक्य ने उसके चेहरे का रंग फीका कर दिया और चौथा वाक्य सुनते ही वह एक लंबी सांस खींचकर पीछे रखी हुई कुरसी पर टिक गई; मगर फिर दिल न माना। जंगले पर झुककर फिर उधर कान लगा दिए। वही पुलिस की सिखाई हुई शहादत थी जिसका आशय वह देवीदीन के मुंह से सुन चुकी थी। अदालत में सन्नाटा छाया हुआ था। जालपा ने कई बार खांसा कि शायद अब भी रमा की आंखें ऊपर उठ जाएं; लेकिन रमा का सिर और भी झुक गया। मालूम नहीं, उसने जालपा के खांसने की आवाज पहचान ली या आत्म-ग्लानि का भाव उदय हो गया। उसका स्वर भी कुछ धीमा हो गया।

एक महिला ने जो जालपा के साथ ही बैठी थी,नाक सिकोड़कर कहा-जी चाहता है,इस दुष्ट को गोली मार दें। ऐसे-ऐसे स्वार्थी भी इस देश में पड़े हैं जो नौकरी या थोड़े-से धन के लोभ में निरपराधों के गले पर छुरी फेरने से भी नहीं हिचकते !

जालपा ने कोई जवाब न दिया।

एक दूसरी महिला ने जो आंखों पर ऐनक लगाए हुए थी,निराशा के भाव से कहा इस अभागे देश का ईश्वर ही मालिक है। गवर्नरी तो लाला को कहीं नहीं मिल जाती ! अधिक-सेअधिक कहीं क्लर्क हो जाएंगे। उसी के लिए अपनी आत्मा की हत्या कर रहे हैं। मालूम होता है,कोई मरभुखा,नीच आदमी है; पल्ले सिरे का कमीना और छिछोरा।

तीसरी महिला ने ऐनक वाली देवी से मुस्कराकर पूछा-आदमी फैशनेबुल है और पढ़ालिखा भी मालूम होता है। भला,तुम इसे पा जाओ तो क्या करो?

ऐनकबाज देवी ने उदंडता से कहा-नाक काट लें । बस नकटा बनाकर छोड़ दें।

'और जानती हो, मैं क्या करूं?'

'नहीं ! शायद गोली मार दो ।'

'ना ! गोली न मारू। सरे बाजार खड़ा करके पांच सौ जूते लगवाऊं। चांद गंजी हो जाय !'

'उस पर तुम्हें जरा भी दया नहीं आयगी?'

'यह कुछ कम दया है? उसकी पूरी सजा तो यह है कि किसी ऊंची पहाड़ी से ढकेल दिया जाय ! अगर यह महाशय अमेरीका में होते, तो जिन्दा जला दिये जाते !'

एक वृद्धा ने इन युवतियों का तिरस्कार करके कहा-क्यों व्यर्थ में मुंह खराब करती हो? [ १९० ]
वह घृणा के योग्य नहीं, दया के योग्य है। देखती नहीं हो, उसका चेहरा कैसा पीला हो गया है,जैसे कोई उसका गला दबाए हुए हो। अपनी मां या बहन को देख ले,तो जरूर रो पड़े। आदमी दिल का बुरा नहीं है। पुलिस ने धमकाकर उसे सीधा किया है। मालूम होता है,एक-एक शब्द उसके हृदय को चीर-चीरकर निकल रहा हो।

ऐनक वाली महिला ने व्यंग किया—जब अपने पांव कांटा चुभता है, तब आह निकलती।

जालपा अब वहां न ठहर सकी। एक-एक बात चिंगारी की तरह उसके दिल पर फफोले डाले देती थी। ऐसा जी चाहता था कि इसी वक्त उठकर कह दे,यह महाशय बिल्कुल झूठ बोल रहे हैं, सरासर झूठ, और इसी वक्त इसका सबूत दे दे। वह इस आवेश को पूरे बल से दबाए हुए थी। उसका मन अपनी कायरता पर उसे धिक्कार रहा था। क्यों वह इसी वक्त सारा वृत्तांत नहीं कह सुनाती। पुलिस उसकी दुश्मन हो जायगी,हो जाय। कुछ तो अदालत को खयाल होगा। कौन जाने, इन गरीबों की जान बच जाय । जनता को तो मालूम हो जायगा कि यह झूठी शहादत है। उसके मुह से एक बार आवाज निकलते-निकलते रह गई। परिणाम के भय ने उसकी जबान पकड़ ली।

आखिर उसने वहां से उठकर चले आने ही में कुशल समझी।

देवीदीन उसे उतरते देखकर बरामदे में चला आया और दया से सने हुए स्वर में बोला-क्या घर चलती हो, बहूजी?

जालपा ने आंसुओं के वेग को रोककर कहा-हां, यहां अब नहीं बैठा जाता।

हाते के बाहर निकलकर देवीदीन ने जालपा को सांत्वना देने के इरादे से कहा-पुलिस ने जिसे एक बार बूटी सुंघा दी,उस पर किसी दूसरी चीज का असर नहीं हो सकता।

जालपा ने घृणा-भाव से कहा-यह सब कायरों के लिए है।

कुछ दूर दोनों चुपचाप चलते रहे। सहसा जालपा ने कहा-क्यों दादा, अब और तो कही अपील न होगी? कैदियों का यह फैसला हो जायगा।

देवीदीन इस प्रश्न का आशय समझ गया। बोला-नहीं,हाईकोर्ट में अपील हो सकती है।

फिर कुछ दूर तक दोनों चुपचाप चलते रहे। जालपा एक वृक्ष की छांह में खड़ी हो गई और बोली-दादा,मेरा जी चाहता है,आज जज साहब से मिलकर सारा हाल कह दूं। शुरू से जो कुछ हुआ,सब कह सुनाऊं। मैं सबूत दे दूंगी,तब तो मानेंगे?

देवीदीन ने आंखें फाड़कर कहा-जज साहब से । जालपा ने उसकी आंखों से आंखें मिलाकर कहा- हां !

देवीदीन ने दुविधा में पड़कर कहा-मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता, बहूजी । हाकिम का वास्ता। न जाने चित पड़े या पट।

जालपा बोली-क्या पुलिस वालों से यह नहीं कह सकता कि तुम्हारी गवाह बनाया हुआ है?

'कह तो सकता है।'

‘तो आज मैं उससे मिलूं। मिले तो लेता है?' [ १९१ ]
'चलो, दरियाफ्त करेंगे, लेकिन मामला जोखिम है।'

'क्या जोखिम है, बताओ?'

‘भैया पर कहीं झूठी गवाही का इल्जाम लगाकर सजा कर दे तो?'

'तो कुछ नहीं। जो जैसा करे,वैसा भोगे।'

देवीदीन ने जालपा की इस निर्ममता पर चकित होकर कहा-एक दूसरा खटका है। सबसे बड़ा डर उसी का है।

जालपा ने उद्धत भाव से पूछा-वह क्या?

देवीदीन-पुलिस वाले बड़े काफर होते हैं। किसी का अपमान कर डालना तो इनकी दिल्लगी है। जज साहब पुलिस कमिसनर को बुलाकर यह सब हाल कहेंगे जरूर। कमिसनर सोचेंगे कि यह औरत सारा खेल बिगाड़ रही है। इसी को गिरफ्तार कर लो। जज अंगरेज होता तो निडर होकर पुलिस की तंबीह करता। हमारे भाई तो ऐसे मुकदमों में चू करते डरते हैं कि कहीं हमारे ही ऊपर न बगावत का इल्जाम लग जाय। यही बात है। जज साहब पुलिस कमिसनर से जरूर कह सुनावेंगे। फिर यह तो न होगा कि मुकदमा उठा लिया जाय। यही होगा कि कलई न खुलने पावे। कौन जाने तुम्हीं को गिरफ्तार कर लें। कभी-कभी जब गवाह बदलने लगता है, या वर्ट खोलने पर उतारू हो जाता है,तो पुलिस वाले उसके घर वालों को दबाते हैं। इनकी माया अपरंपार है।

जालपा सहम उठी। अपनी गिरफ्तारी का उसे भय न था,लेकिन कहीं पुलिस वाले रमा पर अत्याचार न करें। इस भय ने उसे कातर कर दिया। उसे इस समय ऐसी थकान मालूम हुई मानो सैकड़ों कोस की मंजिल मारकर आई हो। उसका सारा सत्साहस बर्फ के समान पिघल गया।

कुछ दूर आगे चलने के बाद उसने देवीदीन से पूछा--अब तो उनसे मुलाकात न हो सकेगी?

देवीदीन ने पूछा-भैया से?

'हां।'

'किसी तरह नहीं। पहरा और कड़ा कर दिया गया होगा। चाहे उस बंगले को ही छोड़ दिया हो। और अब उनसे मुलाकात हो भी गई तो क्या फायदा | अब किसी तरह अपना बयान नहीं बदल सकते। दरोगहलफी में फंस जाएंगे।'

कुछ दूर और चलकर जालपा ने कहा-मैं सोचती हूं,घर चली जाऊं। यहां रहकर अब क्या करूंगी।

देवीदीन ने करुणा भरी हुई आंखों से उसे देखकर कहा-नही बहू। अभी मैं न जाने दूंगा। तुम्हारे बिना अब हमारा यहां पल-भर भी जी न लगेगा। बुढ़िया तो रो-रोकर पर ही दे देगी। अभी यहां रहो,देखो क्या फैसला होता है। भैया को मैं इतना कच्चे दिल का आदमी नहीं समझता था। तुम लोगों की बिरादरी में सभी सरकारी नौकरी पर जान देते हैं। मुझे तो कोई सौ रुपया भी तलब दे,तो नौकरी न करू। अपने रोजगार की बात ही दूसरी है। इसमें आदमी कभी थकता ही नहीं। नौकरी में जहां पांच से छ: घंटे हुए कि देह टूटने लगी, जम्हाइयां आने लगीं। [ १९२ ]
रास्ते में और कोई बातचीत न हुई। जालपा का मन अपनी हार मानने के लिए किसी तरह राजी न होता था। वह परास्त होकर भी दर्शक की भांति यह अभिनय देखने से संतुष्ट न हो। सकती थी। वह उस अभिनय में सम्मिलित होने और अपना पार्ट खेलने के लिए विवश हो रही थी। क्या एक बार फिर रमा से मुलाकात न होगी? उसके हृदय में उन जलते हुए शब्दों का एक सागर उमड़ रहा था, जो वह उससे कहना चाहती थी। उसे रमा पर जरा भी दया न आती थी,उससे रत्ती भर सहानुभूति न होती थी। वह उससे कहना चाहती थी-तुम्हारा धन और वैभव तुम्हें मुबारक हो,जालपा उसे पैरों से ठुकराती है। तुम्हारे खून से रंगे हुए हाथ के स्पर्श से मेरी देह में छाले पड़ जाएंगे। जिसने धन और पद के लिए अपनी आत्मा बेच दी, उसे मैं मनुष्य नहीं समझती। तुम मनुष्य नहीं हो तुम पशु भी नहीं,तुम कायर हो । कायर ।

जालपा का मुखमंडल तेजमय हो गया। गर्व से उसकी गर्दन तन गई। यह शायद समझते होंगे, जालपा जिस वक्त मुझे झब्बेदार पगड़ी बांधे घोड़े पर सवार देखेगी, फूली न समाएगी। जालपा इतनी नीच नहीं है। तुम घोड़े पर नहीं,आसमान में उड़ो,मेरी आंखों में हत्यारे हो, पूरे हत्यारे,जिसने अपनी जान बचाने के लिए इतने आदमियों की गर्दन पर छुरी चलाई । मैंने चलते-चलते समझाया था,उसका कुछ असर न हुआ । ओह,तुम इतने धन-लोलुप हो,इतने लोभी । कोई हजर नहीं। जालपा अपने पालन और रक्षा के लिए तुम्हारी मुहताज नहीं। इन्हीं संतप्त भावनाओं में डूबी हुई जालपा घर पहुंची।

तेंतालीस

एक महीना गुजर गया। जालपा कई दिन तक बहुत विकल रही। कई बार उन्माद-सा हुआ कि अभी सारी कथा किसी पत्र में छपवा दें,सारी कलई खोल दूं, सारे हवाई किले ढा दें पर यह सभी उद्वेग शांत हो गए। आत्मा को गहराइयों में छिपी हुई कोई शक्ति उसकी जबान बंद कर देती थी। रमा को उसने हृदय से निकाल दिया था। उसके प्रति अब उसे क्रोध न था,द्वेष न था, दया भी न थी, केवल उदासीनता थी। उसके मर जाने की सूचना पाकर भी शायद वह न रोती। हां,इसे ईश्वरीय विधान की एक लीला, माया का एक निर्मम हास्य, एक क्रूर क्रीड़ा समझकर थोड़ी देर के लिए वह दुखी हो जाती। प्रणय का वह बंधन जो उसके गले में दो ढाई साल पहले पड़ा था, टूट चुका था। पर उसका निशान बाकी था। रमा को इस बीच में उसने कई बार मोटर पर अपने घर के सामने से जाते देखी। उसकी आंखें किसी को खोजती हुई मालूम होती थीं। उन आंखों में कुछ लज्जा थी, कुछ क्षमा-याचना,पर जालपा ने कभी उसकी तरफ आंखें न उठाईं। वह शायद इस वक्त आकर उसके पैरों पर पड़ता,तो भी वह उसकी ओर न ताकती। रमा की इस घृणित कायरता और महान् स्वार्थपरता ने जालपा के हृदय को मानो चीर डाला था, फिर भी उस प्रणय-बंधन का निशान अभी बना हुआ था। रमा की वह प्रेम-विह्वल मूर्ति, जिसे देखकर एक दिन वह गद्गद हो जाती थी, कभी-कभी उसके हृदय में छाए हुए अंधेरे में क्षीण, मलिन, निरनिंद ज्योत्स्ना की भांति प्रवेश करती, और एक क्षण के लिए वह स्मृतियां विलाप कर