प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/बीस

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प्रेमचंद रचनावली ५  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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ऐसी ही इच्छा हो, तो मुझे गोली मार दीजिए।

रमेश ने एक क्षण तक कुछ सोचकर कहा-तुम्हें विश्वास है, शाम तक रुपये मिल जाएंगे?

रमानाथ–हां, आशा तो है।

रमेश–तो इस थैली के रुपये जमा कर दो, मगर देखो भाई, मैं साफ-साफ कहे देता हूँ, अगर कल दस बजे रुपये न लाए तो मेरा दोष नहीं। कायदा तो यही कहता है कि मैं इसी वक्त तुम्हें पुलिस के हवाले करूं मगर तुम अभी लड़के हो, इसलिए क्षमा करता हूं। वरना तुम्हें मालूम है, मैं सरकारी काम में किसी प्रकार की मुरौवत नहीं करता। अगर तुम्हारी जगह मेरा भाई या बेटा होता, तो मैं उसके साथ भी यहीं सलूक करता, बल्कि शायद इससे सख्त। तुम्हारे साथ तो फिर भी बड़ी नर्मी कर रहा हूं। मेरे पास रुपये होते तो तुम्हें दे देता, लेकिन मेरी हालत तुम जानते हो। हां, किसी का कर्ज नहीं रखता। न किसी को कर्ज देता हूं, न किसी से लेता हूँ। कल रुपये न आए तो बुरा होगा। मेरी दोस्ती भी तुम्हें पुलिस के पंजे से न बचा सकेगी। मेरी दोस्ती ने आज अपना हक अदा कर दिया वरना इस वक्त तुम्हारे हाथों में हथकड़ियां होती।

हथकड़ियां ! यह शब्द तीर की भाँति रमा की छाती में लगा। वह सिर से पांव तक कांप उठा। उस विपत्ति की कल्पना करके उसकी आंखें डबडबा आईं। वह धीरे- धीरे सिर झुकाए, सजा पाए हुए कैदी की भांति जाकर अपनी कुर्सी पर बैठ गया; पर यह भयंकर शब्द बीच-बीच में उसके हृदय में गंज जाता था। आकाश पर काली घटाएं छाई थीं। सूर्य का कहीं पता न था, क्या वह भी उस पटारूपी कारागार में बंद है, क्या उसके हाथों में भी हथकड़ियां हैं?

बीस

रमा शाम को दफ्तर से चलने लगा, तो रमेश बाबू दौड़े हुए आए और कल रुपये लाने की ताकीद की । रमा मन में झुंझला उठा। आप बड़े ईमानदार की दुम बने हैं। ढोंगिया कहीं का । अगर अपनी जरूरत आ पड़े, तो दूसरों के तलवे सहलाते फिरेंगे: पर मेरा काम है, तो आप आदर्शवादी बन बैठे। यह सब दिखाने के दांत हैं, मरते समय इसके प्राण भी जल्दी नहीं निकलेंगे ।

कुछ दूर चलकर उसने सोचा, एक बार फिर रतन के पास चलें। और ऐसी कोई न था जिससे रुपये मिलने की आशा होती। वह जब उसके बंगले पर पहुंचा, तो वह अपने बगीचे में गोल चबूतरे पर बैठी हुई थी। उसके पास ही एक गुजराती जौहरी बैठा संदूक से सुंदर आभूषण निकाल-निकालकर दिखा रहा था। रमा को देखकर वह बहुत खुश हुई। ‘आइये बाबू साहब, देखिए सेठजी कैसी अच्छी-अच्छी चीजें लाए हैं। देखिए, हार कितना सुंदर है, इसके दाम बारह सौ रुपये बताते हैं।'

रमा ने हार को हाथ में लेकर देखा और कही-हां, चीज तो अच्छी मालूम होती है !

रतन-दाम बहुत कहते हैं।

जौहरी - बाईजी, ऐसा हार अगर कोई दो हजार में ला दे, तो जो जुर्माना कहिए, दूं। बारह [ ८९ ]

सौ मेरी लागत बैठ गई है।

रमा ने मुस्कराकर कहा-ऐसा न कहिए सेठजी, जुर्माना देना पड़ जाएगा।

जौहरी-बाबू साहब, हार तो सौ रुपये में भी आ जाएगा और बिल्कुल ऐसा ही। बल्कि चमक-दमक में इससे भी बढ़कर। मगर परखना चाहिए। मैंने खुद ही आपसे मोल-तोल की बात नहीं की। मोल-तोल अनाड़ियों से किया जाता है। आपसे क्या मोल-तोला हम लोग निरे रोजगारी नहीं हैं बाबू साहब, आदमी का मिजाज देखते है। श्रीमतीजी ने क्या अमीराना मिजाज दिखाया है कि वाह ।

रतन ने हार को लुब्ध नेत्रों से देखकर कहा कुछ तो कम कीजिए, सेठजी ! आपने तो जैसे कसम खा ली !

जौहरी-कमी का नाम न लीजिए, हुजूर । यह चीज आपकी भेंट है।

रतन-अच्छा, अब एक बात बतला दीजिए, कम-से-कम इसका क्या लेंगे?

जौहरी ने कुछ क्षुब्ध होकर कहा-बारह सौ रुपये और बारह कौड़ियां होंगी, हुजूर। आप से कसम खाकर कहता हूं, इसी शहर में पंद्रह सौ का बेचूगां, और आपसे कह जाऊंगा, किसने लिया।

यह कहते हुए जौहरी ने हार को रखने का केस निकाला। रतन को विश्वास हो गया, यह कुछ कम न करेगा। बालकों की भांति अधीर होकर बोली-आप तो ऐसा समेटें लेते हैं कि हार को नजर लग जाएगी ।


जौहरी-क्या करूं, हुजूर जब ऐसे दरबार में चीज को कदर नहीं होती, तो दुख होता है।

रतन ने कमरे में जाकर रमा को बुलाया और बोली-आप समझते हैं यह कुछ और उतरेगा?

रमानाथ-मेरी समझ में तो चीज एक हजार से ज्यादा की नहीं है।

रतन-उंह, होगा। मेरे पास तो छ: सौ रुपये है। आप चार सौ रुपये का प्रबंध कर दें, तो ले लें। यह इसी गाड़ी से काशी जा रहा है। उधार न मानेगा। वकील साहब किसी जलसे में गए हैं, नौ-दस बजे के पहले न लौटेंगे। मैं आपको कल रुपये लौटा देंगी।

रमा ने बड़े संकोच के साथ कहा-विश्वास मानिए, मैं बिल्कुल खाली हाथ है। मैं तो आपसे रुपये मांगने आया था। मुझे बड़ी सख्त जरूरत है। वह रुपये मुझे दे दीजिए, मैं आपके लिए कोई अच्छा-सा हार यहीं से ला दूंगा। मुझे विश्वास है, ऐसा हार सात-आठ सौ में मिल जाएगा।

रतन–चलिए, मैं आपकी बातों में नहीं आती। छ: महीने में एक कान तो बनवा न सके, अब हार क्या लाएंगे ! मैं यहां कई दुकानें देख चुकी हूं, ऐसी चीज शायद ही कहीं निकले। और निकले भी, तो इसके ड्योढे दाम देने पड़ेंगे।

रमानाथ–तो इसे कल क्यों न बुलाइए, इसे सौदा बेचने की गरज होगी, तो आप ठहरेगा।

रतन–अच्छा कहिए, देखिए क्या कहता है।

दोनों कमरे के बाहर निकले, रमा ने जौहरी से कहा--तुम कल आठ बजे क्यों नहीं आते?

जौहरी-नहीं हुजूर, कल काशी में दो-चार बड़े रईसों से मिलना है। आज के न-जाने से बड़ी हानि हो जाएगी। [ ९० ] रतन-मेरे पास इस वक्त छ: सौ रुपये हैं, आप हार दे जाइए; बाकी के रुपये काशी से लौटकर ले जाइएगा।

जौहरी–रुपये का तो कोई हर्ज न था, महीने-दो महीने में ले लेता; लेकिन हम परदेशी लोगों का क्या ठिकाना, आज यहां हैं, कल वहां हैं, कौन जाने यहां फिर कब आना हो ! आप इस वक्त एक हजार दे दें, दो सौ फिर दे दीजिएगा।

रमानाथ-तो सौदा न होगा।

जौहरी–इसका अख्तियार आपको है; मगर इतना कहे देता हूं कि ऐसा माल फिर न पाइएगा।

रमानाथ–रुपये होंगे तो माल बहुत मिल जायेगा।

जौहरी-कभी-कभी दाम रहने पर भी अच्छा माल नहीं मिलता।

यह कहकर जौहरी ने फिर होर को केस में रक्खा और इस तरह संदूक समेटने लगा, मानो वह एक क्षण भी न रुकेगा।

रतन का रोया-रोयां कान बना हुआ था, मानो कोई कैदी अपनी किस्मत का फैसला सुनने को खड़ा हो। उसके हृदय की सारी ममता, ममता का सारा अनुराग, अनुराग की सारी अधीरता, उत्कंठा और चेष्य उसी हार पर केंद्रित हो रही थी, मानो उसके प्राण उसी हार के दानों में जा छिपे थे, मानो उसके जन्म-जन्मांतरों की संचित अभिलाषा उसी हार पर मंडरा रही थी। जौहरी को संदूक बंद करते देखकर वह जलविहीन मछली की भांति तड़पने लगी। कभी वह संदूक खोलती, कभी वह दराज खोलती; पर रुपये कहीं न मिले।

सहसा मोटर की आवाज सुनकर रतन ने फाटक की ओर देखा। वकील साहब चले आ रहे थे। वकील साहब ने मोटर बरामदे के सामने रोक दी और चबूतरे की तरफ चले। रतन ने चबूतरे के नीचे उतरकर कहा-आप तो नौ बजे आने को कह गए थे?

वकील-वहां कोरम ही पूरा न हुआ, बैठकर क्या करता 'कोई दिल से तो काम करना नहीं चाहता, सब मुफ्त में नाम कमाना चाहते हैं। यह क्या कोई जौहरी है?

जौहरी ने उठकर सलाम किया।

वकील साहब रतन से बोले-क्यों, तुमने कोई चीज पसंद की?

रतन–हां, एक हार पसंद किया है, बारह सौ रुपये मांगते हैं।

वकील-बस। और कोई चीज पसंद करो। तुम्हारे पास सिर की कोई अच्छी चीज नहीं।

रतन इस वक्त मैं यही एक हार लूंगी। आजकल सिर की चीजें कौन पहनता है।

वकील-लेकर रख लो, पास रहेगी तो कभी पहन भी लोगी। नहीं तो कभी दूसरों को पहने देख लिया, तो कहोगी, मेरे पास होता, तो मैं भी पहनती।

वकील साहब को रतन से पति का-सा प्रेम नहीं, पिता का-सा सेह था। जैसे कोई स्नेही पिता मेले में लड़कों से पूछ-पूछकर खिलौने लेता है, वह भी रतन से पूछ-पूछकर खिलौने लेते थे। उसके कहने पर की देर थी। उनके पास उसे प्रसन्न करने के लिए धन के सिवा और चीज ही क्या थी। उन्हें अपने जीवन में एक आधार की जरूरत थी-संदेह आधार की, जिसके सहारे वह इस जीर्ण दशा में भी जीवन-संग्राम में खड़े रह सकें, जैसे किसी उपासक को प्रतिमा की जरूरत होती है। बिना प्रतिमा के वह किस पर फूल चढाए, किसे गंगा-जल से [ ९१ ]

नहलाए, किसे स्वादिष्ट चीजों का भोग लगाए। इसी भाति वकील साहब को भी पत्नी की जरूरत थी। रतन उनके लिए संदेह कल्पना मात्र थी जिससे उनकी आत्मिक पिपासा शांत होती थी। कदाचित् रतन के बिना उनका जीवन उतना ही सूना होता, जितना आंखों के बिना मुख।

रतन ने केस में से हार निकालकर वकील साहब को दिखाया और बोली-इसके बारह सौ रुपये मांगते हैं।

वकील साहब की निगाह में रुपये का मूल्य आनंददायिनी शक्ति थी। अगर हार रतन को पसंद है, तो उन्हें इसकी परवा न थी कि इसके क्या दाम देने पड़ेंगे। उन्होंने चेक निकालकर जौहरी की तरफ देखा और पूछा-सच-सच बोलो, कितना लिखें। अगर फर्क पड़ा तो तुम जानोगे।

जौहरी ने हार को उलट-पलटकर देखा और हिचकते हुए बोला-साढ़े ग्यारह सौ कर दीजिए। वकील साहब ने चेक लिखकर उसको दिया, और वह सलाम करके चलता हुआ।

रतन का मुख इस समय वसन्त की प्राकृतिक शोभा की भांति विसित था। ऐसा गर्व, ऐसा उल्लास उसके मुख पर कभी न दिखाई दिया था। मानो उसे संसार की संपत्ति मिल गई हार को गले में लटकाए वह अंदर चली गई। वकील साहब के आचार-विचार में नई और पुरानी प्रशाओं का विचित्र मेल था। भोजन वह अभी तक किसी ब्राह्मण के हाथ का भी न खाते थे। आज रतन उनके लिए अच्छी-अच्छी चीजें बनाने गई, अपनी कृतज्ञता को वह कैसे जाहिर करे?

रमा कुछ देर तक तो बैठा वकील साहब का योरप-गौरव-गान सुनता रहा, अंत को निराश होकर चल दिया।

इक्कीस

अगर इस समय किसी को संसार में सबसे दुखी, जीवन से निराश, चिताग्नि में जलते हुए प्राणी की मूर्ति देखनी हो, तो उस युवक को देखे, जो साइकिल पर बैठा हुआ, अल्फ्रेड पार्क के सामने चला जा रहा है। इस वक्त अगर कोई काला सांप नजर आए तो वह दोनों हाथ फैलाकर उसका स्वागत करेगा और उसके विष को सुधा की तरह पिएगा। उसकी रक्षा सुधा से नहीं, अब विष ही से हो सकती है। मौत ही अब उसकी चिंताओं का अंत कर सकती है, लेकिन क्या मौत उसे बदनामी से भी बचा सकती है? सवेरा होते ही, यह बात घर-घर फैल जायगी-सरकारी रुपैया खो गया और जब पकड़ा गया, तब आत्महत्या कर ली । कुल में कलंक लगाकर, मरने के बाद भी अपनी हंसी कराके चिंताओं से मुक्त हुआ तो क्या, लेकिन दूसरा उपाय ही क्या है।

अगर वह इस समय जाकर जालपा से सारी स्थिति कह सुनाए, तो वह उसके साथ अवश्य सहानुभूति दिखाएगी। जालपा को चाहे कितना ही दुख हो, पर अपने गहने निकालकर देने में एक क्षण को भी विलंब न करेगी। गहनों को गिरवी रखकर वह सरकारी रुपये अदा कर