प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/उन्नीस

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प्रेमचंद रचनावली ५  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ८३ ] रमा ने लज्जित होकर कहा-हां जी, न जाने क्या देख रहा था कुछ याद नहीं।

जालपा ने पूछा-अम्मांजी को क्यों धमका रहे थे। सच बताओ, क्या देखते थे?

रमा ने सिर खुजलाते हुए कहा-कुछ याद नहीं आता, यों ही बकने लगा हूंगा।

जालपा-अच्छा तो करवट सोना। चित सोने से आदमी बकने लगता है।

रमा करवट पौढ़ गया; पर ऐसा जान पड़ता था, मानो चिंता और शंका दोनों आंखों में बैठी हुई निद्रा के आक्रमण से उनकी रक्षा कर रही हैं। जागते हुए दो बज गए। सहसा जालपा उठ बैठी, और सुराही से पानी उंडेलती हुई बोली-बड़ी प्यास लगी थी, क्या तुम अभी तक जाग ही रहे हो?

रमा-हां जी, नींद उचट गई है। मैं सोच रहा था, तुम्हारे पास दो सौ रुपये कहां से आ गए? मुझे इसका आश्चर्य है।

जालपा-ये रुपये मैं मायके से लाई थी, कुछ बिदाई में मिले थे, कुछ पहले से रखे थे।

रमानाथ-तब तो तुम रुपये जमा करने में बड़ी कुशल हो। यहां क्यों नहीं कुछ जमा किया? जालपा ने मुस्कराकर कहा-तुम्हें पाकर अब रुपये की परवाह नहीं रही।

रमानाथ-अपने भाग्य को कोसती होगी।

जालपा-भाग्य को क्यों कोसू, भाग्य को वह औरतें रोएं, जिनका पति निखट्टू हो, शराबी हो, दुराचारी हो, रोगी हो, तानों से स्त्री को छेदता रहे, बात-बात पर बिगड़े। पुरुष मन का हो तो स्त्री उसके साथ उपवास करके भी प्रसन्न रहेगी।

रमा ने विनोद भाव से कहा-तो मैं तुम्हारे मन का हूं।

जालपा ने प्रेम-पूर्ण गर्व से कहा-मेरी जो आशा थी, उससे तुम कहीं बढ़कर निकले। मेरी तीन सहेलियां हैं। एक का भी पति ऐसा नहीं। एक एम० ए० हैं पर सदा रोगी। दूसरी विद्वान भी है और धनी भी, पर वेश्यागामी। तीसरा घरघुस्सू है और बिल्कुल निखट्टू।

रमा का हृदय गद्गद हो उठा। ऐसी प्रेम की मूर्ति और दया की देवी के साथ उसने कितना बड़ा विश्वासघात किया। इतना दुराव रखने पर भी जब इसे मुझसे इतना प्रेम है, तो मैं अगर उससे निष्कपट होकर रहता, तो मेरा जीवन कितना आनंदमय होता !

उन्नीस

प्रात:काल रमा ने रतन के पास अपना आदमी भेजा। खत में लिखा, मुझे बड़ा खेद है कि कल जालपा ने आपके साथ ऐसा व्यवहार किया, जो उसे न करना चाहिए था। मेरा विचार यह कदापि न था कि रुपये आपको लौटा दें, मैंने सराफ को ताकीद करने के लिए उससे रुपये लिए थे। कंगन दो-चार रोज में अवश्य मिल जाएंगे। आप रुपये भेज दें। उसी थैली में दो सौ रुपये मेरे भी थे। वह भी भेजिएगा। अपने सम्मान की रक्षा करते हुए जितनी विनम्रता उससे हो सकती थी, उसमें कोई कसर नहीं रक्खी। जब तक आदमी लौटकर न आया, वह बड़ी व्यग्रता से उसकी राह देखता रहा। कभी सोचती, कहीं बहाना न कर दे. या घर पर मिले ही नहीं, या दो[ ८४ ]

चार दिन के बाद देने का वादा करे। सारा दारोमदार रतन के रुपये पर था। अगर रतन ने साफ जवाब दे दिया, तो फिर सर्वनाश ! उसकी कल्पना से ही रमा के प्राण सूखे जा रहे थे। आखिर नौ बजे आदमी लौटा। रतन ने दो सौ रुपये तो दिए थे; मगर ख़त का कोई जवाब न दिया था।

रमा ने निराश आंखों से आकाश की ओर देखा। सोचने लगा, रतन ने खत का जवाब क्या नहीं दिया? मामूली शिष्टाचार भी नहीं जानती? कितनी मक्कार औरत है। रात को ऐसा मालूम होता था कि साधुता और सजनता की प्रतिमा ही है, पर दिल में यह गुबार भरा हुआ था ! शेष रुपयों की चिंता में रमा को नहाने-खाने की भी सुध न रही।। कहार अंदर गया, तो जालपा ने पूछा-तुम्हें कुछ काम-धंधे की भी खबर है कि मटरगश्ती ही करते रहोगे । दस बज रहे हैं, और अभी तक तरकारी-भाजी का कहीं पता नहीं? कहार ने त्योरियां बदलकर कहा-तो का चार हाथ-गोड़ कर लेई । कामें से तो वो रहिन। बाबू मेम साहब के तीर रुपैया लेबे का भेजिन रहा।

जालपा-कौन मेम साहब?

कहार-जौन मोटर पर चढ़कर आवत हैं।

जालपा-तों लाए रुपये?

कहार-लाए काहे नाहीं। पिरथी के छोर पर तो रहत हैं, दौरत-दौरत गोड़ पिराय लाग।

जालपा-अच्छा चटपट जाकर तरकारी लाओ।

कहार तो उधर गया, रमा रुपये लिए हुए अंदर पहुंचा तो जालपा ने कहा-तुमने अपने रुपये रतन के पास से मंगवा लिए न? अब तो मुझसे न लोगे?

रमा ने उदासीन भाव से कहा-मत दो ।

जालपा-मैंने कह दिया था रुपया दे दूंगी। तुम्हें इतनी जल्द मांगने की क्यों सूझी? समझी होगी, इन्हें मेरा इतना विश्वास भी नहीं।

रमा ने हताश होकर कहा-मैंने रुपये नहीं मांगे थे। केवल इतना लिख दिया था कि थैली में दो सौ रुपये ज्यादे हैं। उसने आप ही आप भेज दिए । जालपा ने हंसकर कहा-मेरे रुपये बड़े भाग्यवान हैं, दिखाऊं? चुन-चुनकर नए रुपये रखे हैं। सब इसी साल के हैं, चमाचम ! देखो तो आंखें ठंडी हो जाएं। इतने में किसी ने नीचे से आवाज दी–बाबूजी, सेठ ने रुपये के लिए भेजा है।

दयानाथ स्नान करने अंदर आ रहे थे, सेठ के प्यादे को देखकर पूछा-कौन सेठ, कैसे रुपये? मेरे यहां किसी के रुपये नहीं आते । प्यादा-छोटे बाबू ने कुछ माल लिया था। साल भर हो गए, अभी तक एक पैसा नहीं दिया। सेठजी ने कहा है, बात बिगड़ने पर रुपये दिए तो क्या दिए। आज कुछ जरूर दिलवा दीजिए।

दयानाथ ने रमा को पुकारा और बोले-देखो, किस सेठ का आदमी आया है। उसका कुछ हिसाब बाकी है, साफ क्यों नहीं कर देते? कितना बाकी है इसका?

रमा कुछ जवाब न देने पाया था कि प्यादा बोल उठा-पूरे सात सौ हैं, बाबूजी ।

दयानाथ की आंखें फैलकर मस्तक तक पहुंच गईं–सात सौ । क्यों जी, यह तो सात सौ कहता है?

रमा ने टालने के इरादे से कहा-मुझे ठीक से मालूम नहीं। [ ८५ ] प्यादा-मालूम क्यों नहीं। पुरजी तो मेरे पास है। तब से कुछ दिया ही नहीं, कम कहां से हो गए।

रमा ने प्यादे को पुकारकर कहा-चलो तुम दुकान पर, मैं खुद आता हूं।

प्यादा-हम बिना कुछ लिए न जाएंगे, साहब ! आप यों ही टाल दिया करते हैं, और बातें हमको सुननी पड़ती हैं।

रमा सारी दुनिया के सामने जलील बन सकता था, किंतु पिता के सामने जलील बनना उसके लिए मौत से कम न था। जिस आदमी ने अपने जीवन में कभी हराम का एक पैसा न छुआ हो, जिसे किसी से उधार लेकर भोजन करने के बदले भूखों सो रहना मंजूर हो, उसका लड़का इतना बेशर्म और बेगैरत हो । रमा पिता की आत्मा का यह घोर अपमान न कर सकता था। वह उन पर यह बात प्रकट न होने देना चाहता था कि उनका पुत्र उनके नाम को बट्टा लगा रहा है। कर्कश स्वर में प्यादे से बोला-तुम अभी यहीं खड़े हो? हट जाओ, नहीं तो धक्के देकर निकाल दिए जाओगे।

प्यादा-हमारे रुपये दिलवाइए, हम चले जायं। हमें क्या आपके द्वार पर मिठाई मिलती है ।

रमानाथ- तुम न जाओगे | जाओ लाला से कह देना नालिश कर दें।

दयानाथ ने डांटकर कहा-क्या बेशर्मी की बातें करते हो जी। जब गिरह में रुपये न थे. तो चीज लाए ही क्यों? और लाए, तो जैसे बने वैसे रुपये अदा करो। कह दिया, नालिश कर दो। नालिश कर देगा, तो कितनी आबरू रह जायगी? इसका भी कुछ खयाल है । सारे शहर में उंगलियां उठेंगी; मगर तुम्हें इसकी क्या परवा। तुमको यह सूझी क्या कि एकबारगी इतनी बड़ी गठरी सिर पर लाद ली। कोई शादी-ब्याह का अवसर होता, तो एक बात भी थी। और वह औरत कैसी है जो पति को ऐसी बेहूदगी करते देखती है और मना नहीं करती। आख़िर तुमने क्या सोचकर यह कर्ज लिया? तुम्हारी ऐसी कुछ बडी आमदनी तो नहीं है।

रमा को पिता की यह डांट बहुत बुरी लग रही थी। उसके विचार में पिता को इस विषय में कुछ बोलने का अधिकार ही न था। नि:संकोच होकर बोला-आप नाही इतना बिगड़ रहे हैं, आपसे रुपये मांगने जाऊं तो कहिएगा। मैं अपने वेतन से थोड़ा-थोड़ा करके सब चुका देंगी। अपने मन में उसने कहा-यह तो आप ही की करनी का फल, है। आप ही के पाप का प्रायश्चित कर रहा हूं।

प्यादे ने पिता और पुत्र में वाद-विवाद होते देखा, तो चुपके से अपनी राह ली। मुंशीजी भुनभुनाते हुए स्नान करने चले गए। रमा ऊपर गया, तो उसके मुंह पर लज्जा और ग्लानि की फटकार बरस रही थी। जिस अपमान से बचने के लिए वह डाल-डाल, पात-पात भागता- फिरता था, वह हो ही गया। इस अपमान के सामने सरकारी रुपयों की फिक्र भी गायब हो गई। कर्ज लेने वाले बला के हिम्मती होते हैं। साधारण बुद्धि का मनुष्य ऐसी परिस्थितियों में पड़कर घबरा उठता है; पर बैठकबाजों के माथे पर बल तक हीं पड़ता। रमा अभी इस कला में दक्ष नहीं हुआ था। इस समय यदि यमदूत उसके प्राण हरने आता, तो वह आंखों से दौड़कर उसका स्वागत करता। कैसे क्या होगा, यह शब्द उसके एक-एक रोम से निकल रहा था। कैसे क्या होगा। इससे अधिक वह इस समस्या की और व्याख्या न कर सकता था। यही प्रश्न एक सर्वव्यापी पिच की भांति उसे घूरता दिखाई देता था। कैसे क्या होगा | यही शब्द अगणित [ ८६ ] बगूलों की भांति चारों ओर उठते नजर आते थे। वह इस पर विचार न कर सकता था। केवल उसकी ओर से आंखें बंद कर सकता था। उसका चित्त इतना खिन्न हुआ कि आंखें सजल हो गई।

जालपा ने पूछा-तुमने तो कहा था, इसके अब थोड़े ही रुपये बाकी हैं।

रमा ने सिर झुकाकर कहा-यह दुष्ट झूठ बोल रहा था, मैंने कुछ रुपये दिए हैं।

जालपा--दिए होते, तो कोई रुपयों का तकाजा क्यों करता? जब तुम्हारी आमदनी इतनी कम थी तो गहने लिए ही क्यों? मैंने तो कभी जिद् ने की थी। और मान लो, मैं दो-चार बार कहती भी, तुम्हें समझ-बूझकर काम करना चाहिए था। अपने साथ मुझे भी चार बातें सुनवा दीं। आदमी सारी दुनिया से परदा रखता है, लेकिन अपनी स्त्री से परदा नहीं रखता। तुम मुझसे भी परदा रखते हो। अगर मैं जानती, तुम्हारी आमदनी इतनी थोड़ी है, तो मुझे क्या ऐसा शौक चर्राया था कि मुहल्ले भर की स्त्रियों को तांगे पर बैठा-बैठाकर सैर कराने ले जाती। अधिक-से-अधिक यही तो होता, कि कभी-कभी चित्त दुखी हो जाता, पर यह तकाजे तो न सहने पड़ते। कहीं नालिश कर दे, तो सात सौ के एक हजार हो जाएं। मैं क्या जानती थी कि तुम मुझ से यह छल कर रहे हो। कोई वेश्या तो थी नहीं कि तुम्हें नोच-खसोटकर अपना घर भरना मेरा काम होता। मैं तो भले-बुरे दोनों ही की साथिन हूं। भले में तुम चाहे मेरी बात मत पूछो, बुरे में तो मैं तुम्हारे गले पड़ेगी ही।

रमा के मुख से एक शब्द न निकला। दफ्तर का समय आ गया था। भोजन करने का अवकाश न था। रमा ने कपड़े पहने, और दफ्तर चला। जागेश्वरी ने कहा-क्या बिना भोजन किए चले जाओगे?

रमा ने कोई जवाब न दिया, और घर से निकलना ही चाहता था कि जालपा झपटकर नीचे आई और उसे पुकारकर बोली-मेरे पास जो दो सौ रुपये हैं, उन्हें क्यों नहीं सराफ को दे देते?

रमा ने चलते वक्त ज्ञान-बूझकर जालपा से रुपये न मांगे थे। वह जानता था, जालपा मांगते ही दे देगी, लेकिन इतनी बातें सुनने के बाद अब रुपये के लिए उसके सामने हाथ फैलाते उसे संकोच ही नहीं, भय होता था। कहीं वह फिर न उपदेश देने बैठ जाए-इसकी अपेक्षा आने वाली विपत्तियां कहीं हल्की थीं। मगर जालपा ने उसे पुकारा, तो कुछ आशा बंधी। ठिठक गया और बोला—अच्छी बात है, लाओ दे दो।

वह बाहर के कमरे में बैठ गया। जालपा दौड़कर ऊपर से रुपये लाई और गिन-गिनकर उसकी थैली में डाल दिए। उसने समझा था, रमा रुपये पाकर फूला न समाएगा; पर उसकी आशा पूरी न हुई। अभी तीन सौ रुपये की फिक्र करनी थी। वह कहां से आएंगे? भूखा आदमी इच्छापूर्ण भोजन चाहता है, दो-चार फुलकों से उसकी तुष्टि नहीं होती।

सड़क पर आकर रमा ने एक तारा लिया और उससे जार्जटाउन चलने को कहा शायद रतन से भेंट हो जाए। वह चाहे तो तीन सौ रुपये का बड़ी आसानी से प्रबंध कर सकती है। रास्ते में वह सोचता जाता था, आज बिल्कुल संकोच न करूंगा। जरा देर में जार्जटाउन आ गया। रतन का बंगला भी आया। वह बरामदे में बैठी थी। रमा ने उसे देखकर हाथ उठाया, उसने भी हाथ उठाया; पर वहां उसका सारा संयम टूट गया। वह बंगले में न जा सका। तांगा सामने से निकल गया। रतन बुलाती, तो वह चला जाता। वह बरामदे में न बैठी होती तब भी शायद वह अंदर [ ८७ ]

जाता, पर उसे सामने बैठे देखकर वह संकोच में डूब गया।

जब तांगा गवर्नमेंट हाउस के पास पहुंचा, तो रमा ने चौंककर कहा- चुंगी के दफ्तर चलो। तांगे वाले ने घोड़ा फेर दिया। ग्यारह बजते-बजते रमा दफ्तर पहुंचा। उसका चेहरा उतरा हुआ था। छाती धड़क रही थी। बड़े बाबू ने जरूर पूछा होगा। जाते ही बुलाएंगे। दफ्तर में जरा भी रियायत नहीं करते। तांगे से उतरते ही उसने पहले अपने कमरे की तरफ निगाह डाली। देखा, कई आदमी खड़े उसकी राह देख रहे हैं। वह उधर न जाकर रमेश बाबू के कमरे की ओर गया।

रमेश बाबू ने पूछा- तुम अब तक कहां थे जी, खजांची साहब तुम्हें खोजते फिरते हैं? चपरासी मिला था?

रमा ने अटकते हुए कहा-मैं घर पर न था। जरा वकील साहब की तरफ चला गया था। एक बड़ी मुसीबत में फंस गया हूं।

रमेश-कैसी मुसीबत, घर पर तो कुशल है।

रमानाथ जी हां, घर पर तो कुशल है। कल शाम को यहां काम बहुत था, मैं उसमें ऐसा फंसा कि वक्त की कुछ खबर हो न रही। जब काम खत्म करके उठा, तो खजांची साहब चले गए थे। मेरे पास आमदनी के आठ सौ रुपये थे। सोचने लगा इसे कहां रक्खू। मेरे कमरे में कोई संदूक है न। यही निश्चय किया कि साथ लेता जाऊं। पांच सौ रुपये नकद थे, वह तो मैंने थैली में रक्खे तीन सौ रुपये के नोट जेब में रख लिए और घर चला। चौक में एक-दो चीजें लेनी थीं। उधर से होता हुआ घर पहुंचा तो नोट गायब थे।

रमेश बाबू ने आंखें फाड़कर कहा-तीन सौ के नोट गायब हो गए?

रमानाथ-जी हां, कोट के ऊपर की जेब में थे। किसी ने निकाल लिए?

रमेश-और तुमको मारकर थैली नहीं छीन ली?

रमानाथ-क्या बताऊं बाबूजी, तब से चित्त की जो दशा हो रही है, वह बयान नहीं कर सकता। तब से अब तक इसी फिक्र में दौड़ रहा हूं। कोई बंदोबस्त न हो सका।

रमेश-अपने पिता से तो कहा ही न होगा?

रमानाथ–उनका स्वभाव तो आप जानते हैं। रुपये तो न देते,उल्टा डांट सुनाते।

रमेश–तो फिर क्या फिक्र करोगे?

रमानाथ-आज शाम तक कोई न कोई फिक्र करूंगा ही।

रमेश ने कठोर भाव धारण करके कहा-तो फिर करो न | इतनी लापरवाही तुमसे हुई कैसे ! यह मेरी समझ में नहीं आता। मेरी जेब से तो आज तक एक पैसा न गिरा। आंखें बंद करके रास्ता चलते हो या नशे में थे? मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं आता। सच-सच बतला दो, कहीं अनाप-शनाप तो नहीं खर्च कर डाले? उस दिन तुमने मुझसे क्यों रुपये मांगे थे?

रमा का चेहरा पीला पड़ गया। कहीं कलई तो न खुल जाएगी। बात बनाकर बोला-क्या सरकारी रुपया खर्च कर डालूंगा? उस दिन तो आपसे रुपये इसलिए मांगे थे कि बाबूजी को एक जरूरत आ पड़ी थी। घर में रुपये न थे। आपका खत मैंने उन्हें सुना दिया था। बहुत हंसे; दूसरा इंतजाम कर लिया। इन नोटों के गायब होने का तो मुझे खुद ही आश्चर्य है।

रमेश-तुम्हें अपने पिताजी से मांगते संकोच होता हो, तो मैं खत लिखकर मंगवा लें।

रमा ने कानों पर हाथ रखकर कहा-नहीं बाबूजी, ईश्वर के लिए ऐसा न कीजिएगा। [ ८८ ]

ऐसी ही इच्छा हो, तो मुझे गोली मार दीजिए।

रमेश ने एक क्षण तक कुछ सोचकर कहा-तुम्हें विश्वास है, शाम तक रुपये मिल जाएंगे?

रमानाथ–हां, आशा तो है।

रमेश–तो इस थैली के रुपये जमा कर दो, मगर देखो भाई, मैं साफ-साफ कहे देता हूँ, अगर कल दस बजे रुपये न लाए तो मेरा दोष नहीं। कायदा तो यही कहता है कि मैं इसी वक्त तुम्हें पुलिस के हवाले करूं मगर तुम अभी लड़के हो, इसलिए क्षमा करता हूं। वरना तुम्हें मालूम है, मैं सरकारी काम में किसी प्रकार की मुरौवत नहीं करता। अगर तुम्हारी जगह मेरा भाई या बेटा होता, तो मैं उसके साथ भी यहीं सलूक करता, बल्कि शायद इससे सख्त। तुम्हारे साथ तो फिर भी बड़ी नर्मी कर रहा हूं। मेरे पास रुपये होते तो तुम्हें दे देता, लेकिन मेरी हालत तुम जानते हो। हां, किसी का कर्ज नहीं रखता। न किसी को कर्ज देता हूं, न किसी से लेता हूँ। कल रुपये न आए तो बुरा होगा। मेरी दोस्ती भी तुम्हें पुलिस के पंजे से न बचा सकेगी। मेरी दोस्ती ने आज अपना हक अदा कर दिया वरना इस वक्त तुम्हारे हाथों में हथकड़ियां होती।

हथकड़ियां ! यह शब्द तीर की भाँति रमा की छाती में लगा। वह सिर से पांव तक कांप उठा। उस विपत्ति की कल्पना करके उसकी आंखें डबडबा आईं। वह धीरे- धीरे सिर झुकाए, सजा पाए हुए कैदी की भांति जाकर अपनी कुर्सी पर बैठ गया; पर यह भयंकर शब्द बीच-बीच में उसके हृदय में गंज जाता था। आकाश पर काली घटाएं छाई थीं। सूर्य का कहीं पता न था, क्या वह भी उस पटारूपी कारागार में बंद है, क्या उसके हाथों में भी हथकड़ियां हैं?

बीस

रमा शाम को दफ्तर से चलने लगा, तो रमेश बाबू दौड़े हुए आए और कल रुपये लाने की ताकीद की । रमा मन में झुंझला उठा। आप बड़े ईमानदार की दुम बने हैं। ढोंगिया कहीं का । अगर अपनी जरूरत आ पड़े, तो दूसरों के तलवे सहलाते फिरेंगे: पर मेरा काम है, तो आप आदर्शवादी बन बैठे। यह सब दिखाने के दांत हैं, मरते समय इसके प्राण भी जल्दी नहीं निकलेंगे ।

कुछ दूर चलकर उसने सोचा, एक बार फिर रतन के पास चलें। और ऐसी कोई न था जिससे रुपये मिलने की आशा होती। वह जब उसके बंगले पर पहुंचा, तो वह अपने बगीचे में गोल चबूतरे पर बैठी हुई थी। उसके पास ही एक गुजराती जौहरी बैठा संदूक से सुंदर आभूषण निकाल-निकालकर दिखा रहा था। रमा को देखकर वह बहुत खुश हुई। ‘आइये बाबू साहब, देखिए सेठजी कैसी अच्छी-अच्छी चीजें लाए हैं। देखिए, हार कितना सुंदर है, इसके दाम बारह सौ रुपये बताते हैं।'

रमा ने हार को हाथ में लेकर देखा और कही-हां, चीज तो अच्छी मालूम होती है !

रतन-दाम बहुत कहते हैं।

जौहरी - बाईजी, ऐसा हार अगर कोई दो हजार में ला दे, तो जो जुर्माना कहिए, दूं। बारह