प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/सत्ताइस

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प्रेमचंद रचनावली ५  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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लिए भी बहुमत जितने रुपये मांगेगा, मिल जाएंगे। कुंजी बहुमत के हाथ में रहेगी, और अभी दस-पांच बरस चाहे न हो लेकिन आगे चलकर बहुमत किसानों और मजूरों ही का हो जाएगा।

देवीदीन ने मुस्कराकर कहा–भैया, तुम भी इन बातों को समझते हो। यही मैंने भी सोचा था। भगवान करें, कुछ दिन और जिऊं। मेरा पहला सवाल यह होगा कि बिलायती चीजों पर दुगुना महसूल लगया जाय और मोटरों पर चौगुन्ना। अच्छा अब भोजन बनाओ। सांझ को चलकर कपड़े दरजी को दे देंगे। मैं भी जब तक खा लें।

शाम को देवीदीन ने आकर कहा- चलो भैया, अब तो अंधेरा हो गया।

रमा सिर पर हाथ धरे बैठा हुआ था। मुख पर उदासी छाई हुई थी। बोला-दादा, मैं घर न जाऊंगा।

देवीदीन ने चकित होकर पूछा-क्यों क्या बात हुई?

रमा की आंखें सजल हो गईं। बोला—कौन-सा मुंह लेकर जाऊं, दादा ! मुझे तो डूब मरना चाहिए था।

यह कहते-कहते वह खुलकर रो पड़ा। वह वेदना जो अब तक मूर्छित पड़ी थी, शीतल जल के यह छींटे पाकर सचेत हो गई और उसके क्रंदन ने रमा के सारे अस्तित्व को जैसे छेद डाला। इसी क्रंदन के भय से वह उसे छेड़ता न था, उसे सचेत करने की चेष्टा न करता था। संयत विस्मृति से उसे अचेत ही रखना चाहता था, मानो कोई दु:खिनी माता अपने बालक को इसलिए जगाते डरती हो कि वह तुरंत खाने को मांगने लगेगा।

सत्ताईस

कई दिनों के बाद एक दिन कोई आठ बजे रमा पुस्तकालय से लौट रहा था कि मार्ग में उसे कई युवक शतरंज के किसी नक्शे की बातचीत करते मिले। यह नक्शा वहां के एक हिंदी दैनिक पत्र में छपा था और उसे हल करने वाले को पचास रुपये इनाम देने का वचन दिया गया था। नक्शा असाध्य-सा जान पड़ता था। कम-से-कम इन युवकों की बातचीत से ऐसा ही टपकता था। यह भी मालूम हुआ कि वहां के और भी कितने ही शतरंजबाजों ने उसे हल करने के लिए भरपूर जोर लगाया; पर कुछ पेश न गई। अब रमा को याद आया कि पुस्तकालय में एक पत्र पर बहुत- से आदमी झुके हुए थे और उस नक्शे की नकल कर रहे थे। जो आता था, दो-चार मिनट तक वह पत्र देख लेता था। अब मालूम हुआ, यह बात थी।

रमा को इनमें से किसी से भी परिचय न था; पर वह यह नक्शा देखने के लिए इतना उत्सुक हो रहा था कि उससे बिना पूछे न रहा गया। बोला-आप लोगों में किसी के पास यह नक्शा है?

युवकों ने एक कंबलपोश आदमी को नक्शे की बात पूछते सुना तो समझे कोई अताई होगा। एक ने रुखाई से कहा- हां, है तो, मगर तुम देखकर क्या करोगे, यहां अच्छे-अच्छे गोते खा रहे हैं। एक महाशय, जो शतरंज में अपना सानी नहीं रखते, उसे हल करने के लिए सौ रुपये अपने पास से देने को तैयार है। [ १२५ ]दूसरा युवक बोला–दिखा क्यों नहीं देते जीं, कौन जाने यही बेचारे हल कर लें, शायद इन्हीं की सूझ लड़ जाए।

इस प्रेरणा में सज्जनता नहीं व्यंग्य था, उसमें यह भाव छिपा था कि हमें दिखाने में कोई उज्र नहीं है, देखकर अपनी आंखों को तृप्त कर लो मगर तुम जैसे उल्लू उसे समझ ही नहीं सकते, हल क्या करेंगे।

जान-पहचान की एक दुकान में जाकर उन्होंने रमा को नक्शा दिखाया। रमा को तुरंत याद आ गया, यह नक्शा पहले भी कहीं देखा है। सोचने लगा, कहां देखा है?

एक युवक ने चुटकी ली-आपने तो हल कर लिया होगा।

दूसरा-अभी नहीं किया तो एक क्षण में किए लेते हैं।

तीसरा-जरा दो-एक चाल बताइए तो?

रमा ने उत्तेजित होकर कहा-यह मैं नहीं कहता कि मैं उसे हल कर ही लूंगा, मगर ऐसा नक्शे मैंने एक बार हल किया है, और संभव है, इसे भी हल कर लें। जरा कागज पेंसिल दीजिए तो नकल कर लें।

युवकों का अविश्वास कुछ कम हुआ। रमा को कागज-पेंसिल मिल गया। एक क्षण में उसने नक्शा नकल कर लिया और युवकों को धन्यवाद देकर चला। एकाएक उसने फिरकर पूछा-जवाब किसके पास भेजना होगा?

एक युवक ने कहा-'प्रजा-मित्र' के संपादक के पास।

रमा ने घर पहुंचकर उस नक्शो पर दिमाग लगाना शुरू किया, लेकिन मुहरों की चालें सोचने की जगह वह यही सोच रहा था कि यह नक्शा कहां देखा। शायद याद आते ही उसे नक्शे का हल भी सूझ जायगा। अन्य प्राणियों की तरह मस्तिष्क भी कार्य में तत्पर न होकर बहाने खोजता है। कोई आधार मिल जाने से वह मानो छुट्टी पी जाता है। रमा आधी रात तक नक्शा सामने खोले बैठा रहा। शतरंज की जो बड़ी-बड़ी मार्क की बाजियां खेली थीं, उन सबका नक्शा उसे याद था, पर यह नक्शा कहां देखा।

सहसा उसकी आंखों के सामने बिजली-सी कौंध गई। खोई हुई स्मृति मिल गई। अहा ! राजा साहब ने यह नक्शा दिया था। हां, ठीक है। लगातार तीन दिन दिमाग लड़ाने के बाद इसे उसने हल किया था। नक्शे को नकल भी कर लाया था। फिर तो उसे एक-एक चाल याद आ गई। एक क्षण में नक्शा हल हो गया | उसने उल्लास के नशे में जमीन पर दो-तीन कुलांचे लगाईं, मूछों पर ताव दिया, आईने में मुंह देखा और चारपाई पर लेट गया। इस तरह अगर महीने में एक नक्शा मिलता जाए, तो क्या पूछना। देवीदीन अभी आग सुलग रहा था कि रमा प्रसन्न मुख आकर बोला-दादी, जानते हो 'प्रजा-मित्र' अखबार का दफ्तर कहां है?

देवीदीन-जानता क्यों नहीं हैं। यहां कौन अखबार है, जिसका पता मुझे न मालूम हो। 'प्रजा-मित्र' का संपादक एक रंगीला युवक है, जो हरदम मुंह में पान भरे रहता है। मिलने जाओ, तो आंखों से बातें करता है, मगर है हिम्मत का धनी। दो बेर जेहल हो आया है।

रमा-आज जरा वहां तक जाओगे?

देवीदीन ने कातर भाव से कहा-मझे भेजकर क्या करोगे? मैं न जा सकूंगा। 'क्या बहुत दूर है?' [ १२६ ]
'नहीं, दूर नहीं है।

'फिर क्या बात है?'

देवीदीन ने अपराधियों के भाव से कहा-बात कुछ नहीं है, बुढ़िया बिगड़ती है। उसे बचन दे चुका हूं कि सुदेसी-बिदेसी के झगड़े में न पडूंग, न किसी अखबार के दफ्तर में जाऊंगा। उसका दियो खाता हूं, तो उसका हुकुम भी तो बजाना पड़ेगा।

रमा ने मुस्कराकर कहा-दादी, तुम तो दिल्लगी करते हो। मेरा एक बड़ा जरूरी काम है। उसने शतरंज की एक नक्शा छापा था, जिस पर पचास रुपया ईनाम है। मैंने वह नक्शा हल कर दिया है। आज छप जाय, तो मुझे यह इनाम मिल जाय। अखबारों के दफ्तर में अक्सर खुफिया पुलिस के आदमी आते-जाते रहते हैं। यही भय है। नहीं, मैं खुद चला जाती; लेकिन तुम नहीं जा रहे हो तो लाचार मुझे ही जाना पड़ेगा। बड़ी मेहनत से यह नक्शा हल किया है। सारी रात जागता रहा हूँ।

देवीदीन ने चिंतित स्वर में कही–तुम्हारा वहां जाना ठीक नहीं।

रमा ने हैरान होकर पूछा तो फिर? क्या डाक से भेज दूं?

देवीदीन ने एक क्षण सोचकर कहा-नहीं, डाक से क्या भेजोगे। सादा लिफाफा इधर-उधर हो जाय, तो तुम्हारी मेहनत अकारथ जाय। रजिस्ट्री कराओ, तो कहीं परसों पहुंचेगी। कल इतवार है। किसी और ने जवाब भेज दिया, तो इनाम वह मार ले जायगा। यह भी तो हो सकता है कि अखबार वाले धांधली कर बैठें और तुम्हारा जवाब अपने नाम से छापकर रुपया हजम कर लें।

रमा ने दुबिधे में पड़कर कहा-मैं ही चला जाऊंगा।

'तुम्हें मैं न जाने दूंगा। कहीं फंस जाओ तो बस ।'

'फसंना तो एक दिन है ही। कब तक छिपा रहूंगा?'

'तो भरने के पहले ही क्यों रोना-पीटना हो। जब फंसोगे, तब देखी जाएगी। लाओ, मैं चला जाऊं। बुढिया से कोई बहाना कर दूंगा। अभी भेंट भी हो जाएगी। दफ्तर ही में रहते भी हैं। फिर घूमने-घामने चल देंगे, तो दस बजे से पहले न लौटेंगे।'

रमा ने डरते-डरते कहा-तो दस बजे बाद जाना, क्या हरज है।

देवीदीन ने खड़े होकर कहा-तब तक कोई दूसरा काम आ गया, तो आज रह जाएगा। घंटे-भर में लौट आता हूं। अभी बुढ़िया देर में आएगी।

यह कहते हुए देवीदीन ने अपना काला कंबल ओढ़ा, रमा से लिफाफा लिया और चले दिया।

जग्गो साग-भाजी और फल लेने मंडी गई हुई थी। आध घंटे में सिर पर एक टोकरी रक्खे और एक बड़ा-सा एक मजूर के सिर पर रखवाए आई। पसीने से तर थी। आते ही बोलीं-कहां गए? जरा बोझा तो उतारो, गरदन टूट गई।

रमा ने आगे बढ़कर टोकरी उतरवा ली। इतनी भारी थी कि संभाले न संभलती थी।

जग्गो ने पूछा-वह कहां गए हैं?

रमा ने बहाना किया—मुझे तो नहीं मालूम, अभी इसी तरफ चले गए हैं।

बुढिया ने मजूर के सिर का टोकत उतरवाया और जमीन पर बैठकर एक टूटी-सी पखिया झलती हुई बोली-चरस की चाट लगी होगी और क्या, मैं मर-मर कमाऊं और यह [ १२७ ]
बैठे-बैठे मौज उड़ाएं और चरस पीएं।

रमा जानता था, देवीदीन चरस पीता है, पर बुढ़िया को शांत करने के लिए बोला-क्या चरस पीते हैं? मैंने तो नहीं देखा।

बुढिया ने पीठ की साड़ी हटाकर उसे पंखी की डंडी से खुजाते हुए कहा-इनसे कौन नसा छूटा है, चरस यह पीएं, गांजा यह पीएं, सराब इन्हें चाहिए, भांग इन्हें चाहिए, हां अभी तक अफीम नहीं खाई. या राम जाने खाते हों, मैं कौन हरदम देखती रहती हूं। मैं तो सोचती हूँ कौन जाने आगे क्या हो, हाथ में चार पैसे होंगे, तो पराए भी अपने हो जाएंगे, पर इस भले आदमी को रत्ती-भर चिंता नहीं सताती। कभी तीरथ है, कभी कुछ, कभी कुछ, मेरा तो (नाक पर उंगली रखकर) नाक में दम आ गया। भगवान् उठा ले जाते तो यह कुसंग तो छूट जाती। तब याद करेंगे लाला । तब जग्गो कहां मिलेगी, जो कमी-कमाकर गुलछरें उड़ाने को दिया करेगी। तब रकत के आंसू न रोएं, तो कह देना कोई कहता था। (मजूर से) कै पैसे हुए तेरे?

मजूर ने बीड़ी जलाते हुए कहा-बोझा देख लो दाई, गरदन टूट गई।

जग्गो ने निर्दय भाव से कहा-हां-हां, गरदन टूट गई । बड़ी सुकुमार है न? यह ले, कल फिर चले आना।

मजूर ने न राह तो बहुत कम है। मेरा पेट न भरेगा।

जग्गों ने दो पैसे और थोड़े से आलू देकर उसे विदा किया और दुकान सजाने लगी। सहसा उसे हिसाब को याद आ गई। रमा से बोली-भैया, जरा आज का ख़रचा तो टांके दो। बाजार में जैसे आग लग गई है।

बुढ़िया छबड़ियों में चीजें लगा-लगाकर रखती जाती थी और हिसाब भी लिख्याती जाती थी। आलू, टमाटर, कद्दू, केले, पालक, सेम, संतरे, गोभी, सब चीजों का तौल और दर उसे याद था। रमा से दोबारा पढ़वाकर उसने सुना तब उसे संतोष हुआ। इन सब कामों से छुट्टी पाकर उसने अपनी चिलम भरी और मोदे पर बैठकर पीने लगी, लेकिन उसके अंदाज से मालूम होता था कि वह तंबाकू का रस लेने के लिए नहीं, दिल को जलाने के लिए पी रही है। एक क्षण के बाद बोली-दुसरी औरत होती तो घड़ी भर इसके साथ निबाह न होता, घड़ीं भर। पहर रात से चक्की में जुत जाती हूं और दस बजे रात तक दुकान पर बैठी सती होती रहती हूं। खाते-पीते बारह बजते हैं तब जाकर चार पैसे दिखाई देते हैं, और जो कुछ कमाती हूं, यह से में बरबाद कर देता है। सात कोठरी में छिपा के रक्खू, पर इसकी निगाह पहुंच जाती है। निकाल लेती है। कभी एकाध चीज-बस्त बनवा लेती हूं तो वह आंखों में गड़ने लगती है। तानों से छेदने लगता है। भाग में लड़कों का सुख भोगना नहीं बदा था, तो क्या करूं! छाती फाड़ के मर जाऊँ? मांगे से मौत भी तो नहीं मिलती। सुख भोगना लिखा होता, तो जवान बेटे चल देते, और इस पियक्कड़ के हाथों मेरी यह सांसत होती । इसी ने सुदेसी के झगड़े में पड़कर मेरे लालों की जान ली। आओ, इस कोठरी में भैया, तुम्हें मुग्दर की जोड़ी दिखाऊं। दोनों इस जोड़ी से पांच-पांच सौ हाथ फेरते थे।

अंधेरी कोठरी में जाकर रमा ने मुग्दर की जोड़ी देखी। उस पर वार्निश थो, साफ-सुथरी मानो अभी किसी ने फेरकर रख दिया हो।

बुढ़िया ने सगर्व नेत्रों से देखकर कहा-लोग कहते थे कि यह जोड़ी महाब्राह्मन को दे दे, तुझे देख-देख कलक होगा। मैंने कहा-यह जोड़ी मेरे लालों की जुगल जोड़ी है। [ १२८ ]
यही मेरे दोनों लाल हैं।

बुढ़िया के प्रति आज रमा के हदय में असीम श्रद्धा जाग्रत हुई। कितना पावन धैर्य है,कितनी विशाल वत्सलता, जिसने लकड़ी के इन दो टुकड़ों को जीवन प्रदान कर दिया है। रमा ने जग्गो को माया और लोभ में डूबी हुई, पैसे पर जान देने वाली, कोमल भावों से सर्वथा विहीन समझ रखा था। आज उसे विदित हुआ कि उसका हृदय कितना स्नेहमय, कितना कोमल, कितना मनस्वी है। बुढिया ने उसके मुंह की ओर देखा, तो न जाने क्यों उसका मातृ-हृदय उसे गले लगाने के लिए अधीर हो उठा। दोनों के हृदय प्रेम के सूत्र में बंध गए। एक ओर पुत्र-स्नेह था, दूसरी ओर मातृ-भक्ति। वह मालिन्य जो अब तक गुप्त भाव से दोनों को पृथक्क किए हुए था, आज एकाएक दूर हो गया।

बुढिया ने कहा-मुंह-हाथ धो लिया है न बेटा। बड़े मीठे संतरे लाई हूँ, एक लेकर चखो तो।

रमा ने संतरी खाते हुए कहा-आज से मैं तुम्हें अम्मां कहा करूगा ।

बुढिया के शुष्क, ज्योतिहीन, ठंडे, कृपण नेत्रों से मोती के-से दो बिंदु निकल पड़े।

इतने में देवीदीन दबे पांव आकर खड़ा हो गया। बुढिया ने तड़पकर पूछा-यह इतने सबेरे किधर सवारी गई थी सरकार की?

देवी ने सरलता से मुस्कराकर कहा-कहीं नहीं, जरा एक काम से चला गया था।

'क्या काम था, जरा मैं भी तो सुनूं, यो मेरे सुनने लायक नहीं है?'

'पेट में दरद था, जरा वैदजी के पास चूरन लेने गया था।'

'झूठे हो तुम, उर्जा उससे जो तुम्हें जानता न हो। चरस की टोह में गए थे तुम।'

'नहीं, तेरे चरन छूकर कहता हूं। तू झूठ-मूठ मुझे बदनाम करती है।'

‘तो फिर कहां गए थे तुम?'

‘बता तो दिया। रात खाना दो कौर ज्यादा खा गया था, सो पेट फूल गया, और मीठा मीठा ।

'झूठ है, बिल्कुल झूठ ! तुम चाहे झूठ बोलो, तुम्हारा मुंह साफ कहे देता है, यह बहाना है, चरस, गांजा, इसी टोह में गए थे तुम। मैं एक ने मानेगी। तुम्हें इस बुढ़ापे में नसे की सझती है, यहां मेरी मरन हुई जाती है। सबेरे के गए-गए नौ बजे लौटे हैं, जानो यहां कोई इनकी लौंडी है।

देवीदीन ने एक झाडू लेकर दुकान में झाडू लगाना शुरू किया, पर बुढ़िया ने उसके हाथ से झाडू छीन लिया और पूछा-तुम अब तक थे कहां? जब तक यह न बताओगे, भीतर घुसने न देंगी।

देवीदीन ने सिटपिटाकर कहा-क्या करोगी पूछकर, एक अखबार के दफ्तर में तो गया थी। जो चाहे कर ले।

बुढ़िया ने माथा ठोंककर कहा--तुमने फिर वही लत पकड़ी? तुमने कान न पकड़ा था कि अब कभी अखबारों के नगीच न जाऊंगा। बोलो, यही मुंह थी कि कोई और।

'तू बात तो समझती नहीं, बस बिगड़ने लगती है।

'खूब समझती हूं। अखबार वाले दंगा मचाते हैं और गरीबों को जेहल ले जाते हैं। आज बीस साल से देख रही हूं। वहां जो आता-जाता है, पकड़ लिया जाता है। तलासी तो आए दिन हुआ करती है। क्या बुढ़ापे में जेहल की रोटियां तोड़ोगे?' [ १२९ ]देवीदीन ने एक लिफाफा रमानाथ को देकर कहा-यह रुपये हैं भैया, गिन लो। देख,यह रुपये वसूल करने गया था। जी न मानता हो, तो अधिक ले ले।

बुढिया ने आंखें फाड़कर कहा- अच्छा ! तो तुम अपने साथ इस बेचारे को भी डुबाना चाहते हो। तुम्हारे रुपये में आग लगा दूंगी। तुम रुपये मत लेना, भैया । जान से हाथ धोओगे। अब सेतमेंत आदमी नहीं मिलते, तो सब लालच दिखाकर लोगों को फंसाते हैं। बाजार में पहरा दिलावेंगे, अदालत में गवाही करावेंगे। फेंक दो उसके रुपये; जितने रुपये चाहो; मुझसे ले जाओ।

जब रमानाथ ने सारा वृत्तांत कहा, तो बुढ़िया का चित्त शांत हुआ। तनी हुई भवें ढीली पड़ गई, कठोर मुद्रा नर्म हो गई। मेघ-पट को हटाकर नीला आकाश हंस पड़ा। विनोद करके बोली-इसमें से मेरे लिए क्या लाओगे, बेटा?

रमा ने लिफाफा उसके सामने रखकर कहा-तुम्हारे तो सभी हैं, अम्मां । मैं रुपये लेकर क्या करूंगा?

'घर क्यों नहीं भेज देते। इतने दिन आए हो गए, कुछ भेजा नहीं।'

'मेरा घर यही है, अम्मां ! कोई दसरा घर नहीं है।'

बुढ़िया का भातृत्व वंचित हृदय गद्गद हो उठा। इस मातृ-भक्ति के लिए कितने दिनों से उसकी आत्मा तड़प रही थी। इस कृपण हृदय में जितना प्रेम सचित हो रहा था, वह सब माता के स्तन में एकत्र होने वाले दूध की भाति बाहर निकलने के लिए आतुर हो गया है ।

उसने नोटों को गिनकर कहा-पचास हैं, बेटा ! पचास मुझसे और ले लो। चाय का पतीला रखा हुआ है। चाय की दुकान खोल दो। यहीं एक तरफ चार-पांच मोढ़े और मेज रख लेना। दो-दो घंटे सांझ-सवेरे बैठ जाओगे तो गुजर भर को मिल जायगा। हमारे जितने गाहक आवेंगे, उनमें से कितने ही चाय भी पी लेंगे।

देवीदीन बोला—तब चरस के पैसे मैं इस दुकान से लिया करूंगा ।

बुढिया ने विहसत और पुलकित नेत्रों से देखकर कहा-कौड़ी-कौड़ी का हिसाब लूंगी। इस फेर में न रहना।

रमा अपने कमरे में गया, तो उसका मन बहुत प्रसन्न था। आज उसे कुछ वही आनंद मिल रहा था, जो अपने घर भी कभी न मिला था। घर पर जो स्नेह मिलता था, वह उसे मिलना ही चाहिए था। यहां जो स्नेह मिला, वह मानो आकाश से टपका था।

उसने स्नान किया, माथे पर तिलक लगाया और पूजा का स्वांग भरने बैठा कि बुढ़िया आकर बोली-बेटा, तुम्हें रसोई बनाने में बड़ी तकलीफ होती है। मैंने एक ब्राह्मनी ठीक कर दी है। बेचारी बड़ी गरीब है। तुम्हारा भोजन बना दिया करेगी। उसके हाथ का तो तुम खा लोगे? धरम-करम से रहती है बेटा, ऐसी बात नहीं है। मुझसे रुपये पैसे उधार ले जाती है। इसी से राजी हो गई है।

उन वृद्ध आंखों से प्रगाढ़, अखंड मातृत्व झलक रहीं था, कितना विशुद्ध, कितना पवित्र | ऊंच-नीच और जाति-मर्यादा का विचार आप ही आप मिट गया। बोला- जब तुम मेरी माता हो गई तो फिर काहे का छूत-विचार ! मैं तुम्हारे ही हाथ का खाऊंगा।

बुढ़िया ने जीभ दांतों से दबाकर कहा-अरे नहीं बेटा | मैं तुम्हारी धरम न लूंगी, कहां तुम ब्राह्मन और कहां हम खटिक। ऐसा कहीं हुआ है। [ १३० ]
'मैं तो तुम्हारी रसोई में खाऊंगा। जब मां-बाप खटिक हैं, तो बेटा भी खटिक है। जिसकी आत्मा बड़ी हो वही ब्राह्मण है।'

'और जो तुम्हारे घरवाले सुनें तो क्या कहें!'

'मुझे किसी के कहने-सुनने की चिंता नहीं है, अम्मां ! आदमी पाप से नीच होता है,खाने-पीने से नीच नहीं होता। प्रेम से जो भोजन मिलता है, वह पवित्र होता है। उसे तो देवताभी खाते हैं।'

बुढ़िया के हदय में भी जाति-गौरव का भाव उदय हुआ। बोली-बेटा, खटिक कोई नीच जात नहीं है। हम लोग बराम्हन के हाथ का भी नहीं खाते। कहार का पानी तक नहीं पीते। मांस-मछरी हाथ से नहीं छूते, कोई-कोई सराब पीते हैं, मुदा लुक-छिपकर। इसने किसी को नहीं छोडा, बेटा ! बड़े-बड़े तिलकधारी गटागट पीते हैं। लेकिन मेरी रोटियां तुम्हें अच्छी नहीं लगेंगी?

रमा ने मुस्कराकर कहा-प्रेम की रोटियों में अमृत रहता है, अम्मा चाहे गेहूं की हों यो बाजरे की।

बुढिया यहां से चली तो मानो अंचल में आनंद की निधि भरे हो।

अट्ठाईस

जब से रमा चला गया था, रतन को जालपा के विषय में चिंता हो गई थी। वह किसी बहाने से उसकी मदद करते रहना चाहती थी। इसके साथ ही यह भी चाहती थी कि जालपा किस तरह तोडने न पाए। अगर कुछ रुपया खर्च करके भी रमा का पता चल सकता, तो वह सहर्ष खर्च कर देती, और जालपा को वह रोती हुई आंखें देखकर उसका हृदय मसोस उठता था। वह उसे प्रसन्न-मुख देखना चाहती थी। अपने अंधेरे, रोने घर से ऊबकर वह जालपा के घर चली जाया करती थी। वहां घड़ी-भर हंस-बोल लेने से उसका चित्त प्रसन्न हो जाता था। अब वहां भी वही नहसत छा गई। यहां आकर उसे अनुभव होता था कि मैं भी संसार में हैं, उस संसार में जहां जीवन है, लालसा है, प्रेम है, विनोद है। उसका अपना जीवन व्रत की वेदी पर अर्पित हो गया था। वह तन-मन से उस व्रत का पालन करती थी, पर शिवलिंग के ऊपर रखे हुए घट में क्या वह प्रवाह है, तरंग है, नाद है, जो सरिता में है? वह शिव के मस्तक को शीतल करती रहे, यही उसका काम है, लेकिन क्या उसमें सरिता के प्रवाह और तरंग और नाद का लोप नहीं हो गया।

इसमें संदेह नहीं कि नगर के प्रतिष्ठित और संपन्न घरों से रतन का परिचय था, लेकिन जहां प्रतिष्ठा थी, वहां तकल्लुफ था, दिखावा था, ईर्ष्या थी, निंदा थी। क्लब के संसर्ग से भी उसे अरुचि हो गई थी। वहां विनोद अवश्य था, क्रीड़ा अवश्य थी; किंतु पुरुषों के आतुर नेत्र भी थे, विकल हृदय भी, उन्मत्त शब्द भी। जाला के घर अगर यह शान न थे तो वह दिखावा भी न था, वह ईष्र्या भी न थी। रमा जवान था, रूपवान था, चाहे रसिक भी हो;पर रतन को अभी तक इसके विषय में संदेह करने का कोई अवसर न मिला था, और जालपा