प्रेमसागर/१९ प्रलंबवध
उन्नीसवाँ अध्याय
इतनी कथा कह श्रीशुकदेव बोले―महाराज, अब मैं ऋतु बरनन करता हूँ कि जैसे श्रीकृष्णचंद ने तिनमें लीला करी सो चित दे सुनो। प्रथम ग्रीषम ऋतु आई, तिसने आतेही सब संसार का सुख ले लिया और धरती आकाश को तपाय अग्निसम किया, पर श्रीकृष्ण के प्रताप से बृंदावन में सदा बसंत ही रहै। जहाँ घनी घनी कुंजो के वृक्षों पर बेलें लहलहा रहीं, बरन बरन के फूल फूले हुए, तिनपर भौरो के झुंड के झुंड गूँज रहे, आँबो की डालियो पै कोयल कुहुक रही, ठंढी ठंढी छाहो में मोर नाच रहे, सुगंध लिये मीठी पवन बह रही और एक ओर बन के जमुना न्यारी ही सोभा दे रही थी। तहाँ कृष्ण बलराम गायें छोड़ सब सखा समेत आपस में अनूठे अनूठे खेल खेल रहे थे कि इतने में कंस का पठाया ग्वाल का रूप बनाय प्रलंब नाम राक्षस आया विसे देखते ही श्रीकृष्णचंद ने बलदेवजी को सैन से कहा।
अपनौ सखा नहीं बलबीर। कपट रूप यह असर शरीर।
याके वध कौ करो उपाय। ग्वाल रूप मास्थो नहिं जाय॥
जब यह रूप धरे आपनौ। तब तुम याहि ततक्षन हनौ।
इतनी बात बलदेवजी को जताय श्रीकृष्णजी ने प्रलंब को हँसकर पास बुलाय, हाथ पकड़के कहा―
सबते नीकौ भेष तिहारौ। भलो कपट बिन मित्र हमारौ॥
यो कह विसे साथ ले आधे ग्वाल बाल बाँट लिये, औ आधे बलरामजी को दे दो लड़को को बैठाय, लगे फल फूलों का नाम
पूछने औ बताने। इसमें बताते बताते श्रीकृष्ण हारे, बलदेवजी ने तब, श्रीकृष्ण की ओर वाले बलदेव के साथियों को कांधों पर चढ़ाय ले चले, तहाँ प्रलंब बलरामजी को सब से आगे ले भागा औ बन में जाय उसने अपनी देह बढ़ाई, तिस समै बिस काले काले पहाड़ से राक्षस पर बलदेवजी ऐसे सोभायमान थे, जैसे स्याम घदा पै चाँद, औ कुण्डल की दसक बिजली सी चमकती थी, पसीना मेह सा वरसता था। इतनी कथा कथ श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा-महाराज, कि जों अकेला पाय यह बलरामजी को मारने को हुआ तोहीं उन्होंने मारे घूँसों के विसे मार गिराया।