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प्रेमसागर/२१ वर्षा-शरद-वर्णन

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प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ६४ से – ६५ तक

 

इक्कीसवाँ अध्याय

श्रीशुकदेव मुनि बोले कि महाराज, श्रीधम की अति अनीति देख नृप पावस प्रचंड पृथ्वी के पशु पक्षी जीव जंतु की दया विचार चारो ओर दुल बादल साथ ले लड़ने को चढ़ आया। तिस समै घन जो गरजता था, सोई तो धौसा बाजता था और चरन बरन की घटा जो घिर आई थीं सोई सूर, बीर रावत थे। तिनके बीच बीच बिजली की दमक, शस्त्र की सी चमक थी। बगपाँत ठौर ठौर सेत ध्वजा सी फहराय रही थीं, दादुर मोर कड़खैतों की सी भाँति जस बखानते थे और बड़ी बड़ी बूँदों की झड़ी बानो की सी झड़ी लगी थी। इस धूम धाम से पावस को आत देख ग्रीषम खेत छोड़ अपना जीव ले भागा, तब मेघ पिया ने बरस पृथ्वी को सुख दिया। उसने जो आठ महीने पति के बियोग में जोग किया था, तिसका भोग भर लिया। कुच गिर सीतल हुए और गर्भ रहा, विसमें से अठारह भार पुत्र उपजे सो भी फल फूल भेद ले ले पिता को प्रनाम करने लगे। उस काल बृंदावन की भूमि ऐसी सुहाची लगती थी कि जैसे सिंगार किये कामनी और जहाँ तहाँ नदी नाले सरोबर भरे हुए, तिनपर हंस सारस सरस सोभा दे रहे। ऊँचे ऊँचे रूखों की डालियाँ झूम रहीं, उनमे पिक, चातक, कपोत, कीर, बैठे कोलाहल कर रहे थे औ ठाँव ठाँव सूहे कुसुंभे जोड़े पहरे, गोपी ग्वाल झूलो पै झूल झूल ऊँचे सुरों से मलारें गाते थे, विनके निकट जाय जाय श्रीकृष्ण बलराम भी बाललीला कर कर अधिक सुख दिखाते थे। इस आनंद से बरषा ऋतु बीती, तब श्रीकृष्ण बाल बालों से कहने लगे कि भैया, अब तो सुखदाई सरद ऋतु आई ।

सबको सुख भारी अब जान्यो, स्वाद सुगंध रूप पहिचान्यो ।
निसि नक्षत्र उज्जल आकाश, मानहु निर्गुन ब्रह्म प्रकाश ।।
चार मास जो बिरमे गेह, भये सरद तिन तजे सनेह् ।
अपने अपने काजनि धाये, भूप चढे तकि देस पराये ।।