प्रेमसागर/२९ वरुणलोकगमन

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[ ८६ ]श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, एक दिन नंदजी ने संयम कर एकादशी व्रत किया। दिन तो स्नान, ध्यान, भजन, जप, पूजा में काटा और रात्रि जागरन में बिताई। जब छ घड़ी रैन रही औ द्वादशी भई, तब उठके देह शुद्ध कर भोर हुआ जान धोती, अँगोछा, झारी, ले जमुना न्हान चले, तिनके पीछे कई एक ग्वाल भी हो लिये। तीर पर जाय प्रनाम कर कपड़े उतार नंद जी जो नीर में पैठे, तो बरुन के सेवक जो जल की चौकी देते थे कि कोई रात को न्हाने न पावे, विन्होने जा बरुन से कहा कि महाराज कोई इस समै जमुना में न्हाय रहा है, हमें क्या आज्ञा होती है। बरुन बोला―विसे अभी पकड़ लाओ। आज्ञा पातेही सेवक फिर वहाँ आए, जहाँ नंदजी स्नान कर जल में खड़े जप करते थे। आतही अचानक नागफाँस डाल नंदजी को बरुन के पास ले गये, तब नंदजी के साथ जो ग्वाल गये थे विन्होने आय श्रीकृष्ण से कहा कि महाराज, नंदरायजी को वरुन के गन जमुना तीर से पकड़ वरुनलोक को ले गये। इतनी बात के सुनते ही श्रीगोबिद क्रोध कर उठ धाये औ पल भर में वरुन के पास जा पहुँचे। इन्हें देखतेही वह उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़ विनती कर बोला―

सफल जन्म है आज हमारौ। पायो यदुपति दरस तुम्हारौ॥
कीजे दोष दूर सब मेरे। नंद पिता इस कारन• घेरे॥
तुमकौ सब के पिता बखानै। तुम्हरे पिता नहीं हम जाने॥

[ ८७ ]रात का न्हाते देख अनजाने, गन पकड़ लायें, भला इसी

मिस मैने दरसन आपके पाये। अब दया कीजे, मेरा दोष चित्त में न लीजे। ऐसे अति दीनता कर बहुतसी भेद लाय नंद औ श्रीकृष्ण के आगे धर, जद बरुन हाथ जोड़ सिर नाय सनमुख खड़ा हुआ, तद श्रीकृष्ण भेंट ले पिता को साथ कर वहाँ से चल बृंदावन आए। इनको देखते ही सब ब्रजबासी आय मिले। तिस समै बड़े बड़े गोपों ने नंदराय से पूछा कि तुम्हें बरुन के सेवक कहाँ ले गये थे। नंद जी बोले―सुनो, जो वे यहाँ से पकड़ मुझे बरुन के पास ले गये, तोही पीछे से श्रीकृष्ण पहुँचे, इन्हें देखते ही वह सिंहासन से उतर पाओ पर गिर अति बिनती कर कहने लगा—नाथ मेरा अपराध क्षमी कीजे, मुझसे अनजाने यह दोष हुआ सो चित्त में न लीजे। इतनी बात नंदजी के मुख से सुनतेही गोप अपिस में कहने लगे कि भाई, हमने तो यह तभी जाना था जब श्रीकृष्णचंद ने गोबर्द्धन धारन कर ब्रज की रक्षा करी, कि नंद महर के घर में आदि पुरुष ने आय औतार लिया है।

ऐसे आपस में बतराय फिर सब गोपों ने हाथ जोड़ श्रीकृष्ण से कहा कि महाराज, आपने हमें बहुत दिन भरमाया, पर अब सब भेद तुम्हारा पाया। तुम्हीं जगत के करता दुखहरता हो। त्रिलोकीनाथ, दया कर अब हमें बैकुंठ दिखाइये। इतना बचन सुन श्रीकृष्णजी ने छिन भर में बैकुंठ रच विन्हें ब्रजही में दिखाया। देखते ही ब्रजवासियो को ज्ञान हुआ तो कर जोड़ सिर झुकाय बोले―हे नाथ, तुम्हारी महिमा अपरंपार हैं, हम कुछ कह नहीं सकते, पर आपकी कृपा से आज हमने यह जाना कि [ ८८ ]
तुम नारायन हो, भूमि का भार उतारने को संसार में जन्म ले आए हो।

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जब ब्रजवासियों ने इतनी बात कही तभी श्रीकृष्णचंद ने सबको मोहित कर, जो बैकुंठ की रचना रची थी सो उठाय ली औ अपनी भाया फैलाय दी, तो सब गोपो ने सपना सा जाना और नंद ने भी माया के बस हो श्रीकृष्ण को अपना पुत्र ही कर माना।