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प्रेमसागर/४३ कंसस्वप्रदर्शन

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प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ १३४ से – १३७ तक

 

तैंतालिसवाँ अध्याय

श्री शुकदेवजी बोले कि पृथ्वीनाथ, माली की लगन देख मगन हो श्रीकृष्णचंद विसे भक्ति पदारथ दे, वहाँ से आगे जाय देखे तो सोही गली में एक कुबड़ी केसर चंदन से कटोरिया भरे थाली के बीच धरे लिए हाथ में खड़ी है। उससे हरि ने पूछा― तू कौन है औ यह कहाँ ले चली है। यह बोली―दीनदयाल मैं कंस की दासी हूँ, मेरा नाम है कुबजा, नित चंदन घिस कंस को लगाती हूँ, औ मन से तुम्हारे गुन गाती हूँ। तिसीके प्रताप से आज आपका दर्शन पाय जन्म सार्थक किया, औ नैनो का फल लिया। अब दासी का मनोरथ यह है कि जो प्रभु की आज्ञा पाऊँ तो चंदन अपने हाथो चढ़ाऊँ।

उसकी अति भक्ति देख हरि ने कहा―जो तेरी इसी में प्रसन्नता है तो लगाव। इतना वचन सुनतेही कुबजा ने बड़े राव चाव से चित्त लगाय जब राम कृष्ण को चंदन चरचा, तब श्रीकृष्णचंद ने उसके मन की लारा देख दया कर पाँव पर पाँव धर, दो उँगली ठोढ़ी के तले लगाय उचकाय विसे सीधा किया। हरि का हाथ लगतेही वह महा सुंदरी हुई औ निपट विनती कर प्रभु से कहने लगी कि कृपानाथ, जो अपने कृपा कर इस दासी की देह सूधी की, तोही दयाकर अब चलके घर पवित्र कीजै औ विश्राम ले दासी को सुख दीजे। यह सुन हरि उसका हाथ पकड़ मुस्कुराय के कहने लगे―

तै श्रम दूर हमारौ कियौ। मिल कै सीतल चंदन दियौ।
रूप सील गुन सुंदरि नीकी। तोसों प्रीति निरंतर जी की।
आय मिलौगो कंसहि भारि। यो कह आगे चले मुरारि।

औ कुबजा अपने घर जाय केसर चंदन से चौक पुराय, हरि के मिलने की आस मन में रख मंगलाचार करने लगी।

आवे तहाँ मथुरा की नारि। करैं अचंभौ कहैं निहारि॥
धनि धनि कुबजा तेरौ भाग। जाकौ बिधना दियौ सुहागर॥
ऐसा कहा कठिन तप कियौ। गोपीनाथ भेद भुज लियौ॥
हम नीके नहिं देखे हरी। तोको मिले प्रीति अति करी॥
ऐसे तहाँ कहत सब नारि। मथुरा देखत फिरत मुरारि॥

इस बीच नगर देखते देखते सब समेत प्रभु धनुष पौर पर जा पहुँचे। इन्हें अपने रंग राते माते आते देखतेही पौरिये रिसाय के वोले―इधर किधर चले आते हो गॅवार, दूर खड़े रहो, यह है राजद्वार। द्वारपालो की बात सुनी अनसुनी कर हरि सब समेत दुर्राने वहाँ चले गये, जहाँ तीन ताड़ लंबा अति मोटा भारी महादेव का धनुष धरा था। जातेही झट उठाय चढ़ाये सहज सुभावही खैंच यों तोड़ डाला कि जो हाथी गाडा तोड़ता है।

इसमें सब रखवाले जो कंस के बिठाये धनुष की चौकी देते थे सो चढ़ आए। प्रभु ने उन्हें भी मार गिराया। तिस समै पुरवासी तो यह चरित्र देख विचारकर निसंक हो आपस में यो कहने लगे कि देखो राजा ने घर बैठे अपनी मृत्यु आप बुलाई है, इन दोनों भाइयों के हाथ से अब जीता न बचेगा, और धनुष टूटने का अति शब्द सुन कंस भय खाय अपने लोगो से पूछने लगा, कि यह महाशब्द काहे को हुआ। इस बीच कितने एक लोग राजा के जो दूर खड़े देखते थे, वे मूड़ फिकार यो जो पुकारे कि महाराज की दुहाई, राम कृष्ण ने आय नगर में बड़ी धूम मचाई। शिव का धनुष तोड़ सच रखवालो को मार डाला। इतनी बात के सुनतेही कंस ने बहुत से जोधाओं को बुलाके कहा—तुम इनके साथ जाओ औं कृष्ण बलदेव को छल बल कर अभी मार आओ। इतना बचन कंस के मुख से निकलतेही ये अपने अपने अस्त्र शस्त्र ले वहाँ गये जहाँ वे दोनो भाई खड़े थे। इन्होने उन्हें ज्यो ललकारा, त्यो विन्होने इन सबको भी आय मार डाला। जद हरि ने देखा कि यहाँ कंस का सेवक अब कोई नहीं रहा, तद बलरामजी से कहा भाई, हमें आए बड़ी बेर हुई, डेरो पर चलना चाहिये क्योकि बाबा नंद हमारी बाट देख देख भावना करते होयँगे। यो कह सब ग्वालबालो को साथ ले प्रभु बलराम समेत चलकर वहाँ आए, जहाँ डेरे पड़े थे। आते ही नंदमहर से तो कहा कि पिता, हम नगर में जाय भला कुतूहल देख आए, औ गोपग्वालो को अपने बारे दिखलाए।

तब लखि नंद कहै समुझाय। कान्ह तुम्हारी टेव न जाय॥
ब्रज बन नहीं हमारौ गाँव। यह है कंस राय की ठाँव॥
ह्याँँ जिन कळू उपद्रव करौ। मेरी सौख पूत मने धरौ॥

जब नंदरायजी ऐसे समझाय चुके, तद नंदलाल बड़े लाड़ से बोले कि पिता, भूख लगी है जो हमारी माता ने खाने को साथ कर दिया है सो दीजिए। इतनी बात के सुनतेही उन्होंने जो पदारथ खाने को साथ आया था सो निकाल दिया। कृष्ण बलदेव ने ग्वालबालो के साथ मिलकर खाय लिया। इतनी कथा कह श्रीशुकदेव मुनि बोले कि महाराज इधर तो ये आय परमानंद से ब्यालू कर सोये औ उधर श्रीकृष्ण की बाते सुन सुनकर कंस के चित्त में अति चिंता हुई तो उसे न बैठे चैन था न खड़े, मन ही

ज्यो काठहि घुन खात है, कोउ न जाने पीर।
त्यो चिता चित में भये, बुद्धि बल घेत शरीर॥

निदान अति घबराया तब मंदिर में जाय सेज पर सोया, पर उसे मारे डर के नींद न आई।

तीन पहर निस जागत गई। लागी पलक नींद छिन भई
तब सपनौ देख्यौ मन मांह। फिरे सीस बिन धर की छाह॥
कबहूँ नगन रेत में न्हाय। धावै गदहा चढ़ विष खाय॥
बसे मसान भूत संग लिये। रक्त फूल की माला हिये॥
बरत रूप देखै चहुँ ओर। तिन पर बैठे बाल किशोर॥

महाराज, जब कंस ने ऐसा सपना देखा तब तो वह अति व्याकुल हो चौक पड़ा औ सोच विचार करता उठकर बाहर आया, अपते मंत्रियों को बुलाय बोला―तुम अभी जाओ रंगभूमि को झड़वाय छिड़कवाय सँवारों और नंद उपनंद समेत सब ब्रजबासियो को औ बसुदेव आदि यदुबंसियो को रंगभूमि में बुलाय बिठाओ, औ सब देस देस के जो राज आए हैं तिन्हें भी, इतने में मै भी आता हूँ।

कंस की आज्ञा पाय मंत्री रंगभूमि आए, उसे झड़वाय छिड़कवाय तहाँ पार्टवर छाय बिछाय, ध्वजा पताका तोरन बंदनवार बंधवाय, अनेक अनेक भांति के बाजे बजवाय, सबको बुलाय भेजा। वे आए औ अपने अपने मंच पर जाय जाये बैठे। इस बीच राजा कंस भी अति अभिमान भरा अपने मचान पर आय बैठा। उस काल देवता विमानों में बैठे आकाश से देखने लगे।

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