प्रेमसागर/४५ कंसासुरवध

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प्रेमसागर  (1922) 
द्वारा लल्लूलाल जी
[ १४२ ]
पैंतालीसवाँ अध्याय

श्रीशुकदेव मुनि बोले कि पृथ्वीनाथ, ऐसे कितनी एक बाते कर ताल ठोक चानूर तो श्रीकृष्ण के सोही हुआ, औ मुष्टक बलरामजी से आय भिड़ा। इनसे उनसे मल्ल युद्ध होने लगा।

सिर सो सिर भुज सो भुजा, दृष्ट दृष्ट सों जोरि।
चरन चरन गहि झपट कै, लपटत झपट झंकारि॥

उस काल सब लोग उन्हें इन्हें देख देख आपस में कहने लगे कि भाइयो, इस सभा में अति अनीति होती हैं, देखो कहाँ ये बालक रूपनिधान, कहाँ ये सबल मल्ल वज्र समान । जो बरजे तो कंस रिसाय, न बरजे तो धर्म जाय, इससे अब यहाँ रहना उचित नहीं, क्योकि हमारा कुछ बस नहीं चलता।

महाराज, इधर तो ये सब लोग यो कहते थे और उधर श्रीकृष्ण बलराम मल्लो से मल्लयुद्ध करते थे। निदान इन दोनो भाइयों ने उन दोनो मल्लो को पछाड़ मारा। विनके मरतेही सब मल्ल आय टूटे। प्रभु ने पल भर मे तिन्हे भी मार गिराया। तिस समै हरिभक्त तो प्रसन्न हो बाजन बजाय बजाय जैजैकार करने लगे औ देवता आकाश से अपने विमानो में बैठे कृष्णजस गाय गाय फूल बरसावने। औ कंस अति दुख पाय व्याकुल हो रिसाय अपने लोगो से कहने लग—अरे बाजे क्यो बजाते हो, तुम्हे क्या कृष्ण की जीत भाती है।

यो कह बोला―ये दोनों बालक बड़े चंचल हैं, इन्हें पकड़ बॉध सभा से बाहर ले जाओ और देवकी समेत उग्रसेन बसुदेव [ १४३ ]कपटी को पकड़ लाओ। पहले उन्हें मार पीछे इन दोनों को भी मार डालो। इतना बचन कंस के मुख से निकलतेही, भक्तों के हितकारी मुरारी सब असुरो को छिन भर में मार उछलके वहाँ जा चढ़े, जहाँ अति ऊँँचे मंच पर झिलम पहने, टोप दिये, फरी खाँड़ा लिये, बड़े ही अभिमान से कंस बैठा था। वह इनको काल समान निकट देखते ही भय खाय उठ खड़ा हुआ औ लगा थर थर काँपने।

मन से तो चाहा कि भागूँ, पर मारे लाज के भाग न सका। फरी खाँड़ा सँभाल लगा चोट चलाने। उस काल नंदलाल अपनी घात लगाये उसकी चोट बचाते थे औ सुर, नर, मुनि, गन्धर्व, यह महायुद्ध देख देख भयमान हो यो पुकारते थे―हे नाथ, हे नाथ, इस दुष्ट को बेग मारो। कितनी एक बेर तक मंच पर युद्ध रहा। निदान ग्रभु ने सबको दुखित जान उसके केस पकड़ मंच से नीचे पटका औं ऊपर से आप भी कूदे कि उसका जीव घटे से निकल सटका। तब सब सभा के लोग पुकारे–श्रीकृष्णचंद ने कंस को मारा। यह शब्द सुन सुर, नर मुनि सबको अनि आनंद हुआ।

करि अस्तुति पुनि पुनि हरष, बरख सुमन सुर बृंंद॥
मुदित बजावत दुन्दुभी, कहि जै जै नँदनंद॥
मथुरा पुर नर नारि, अति प्रफुलित सबकौ हियौ॥
मनहुँ कुमुद बन चारु, बिकसित हरि ससि मुख निरखि॥

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि धर्मावतार, कंस के मरतेही जो अति बलवान आठ भाई उसके थे सो लड़ने को चढ़ आए। प्रभु ने उन्हें भी मार गिराया। [ १४४ ]जब हरि ने देखा कि अब यहाँ राक्षस कोई नहीं रहा, तब कंस की लाथ को घसीट यमुना तीर पर ले आए, औ दोनों भाइयों ने बैठ विश्राम लिया। तिसी दिन से उस ठौर का नाम विश्रांत घाट हुआ।

आगे कंस का मरना सुन कंस की रानियाँ द्यौरानियो समेत अति व्याकुल हो रोती पीटती वहाँ आई, जहाँ यमुना के तीर दोनो बीर मृतक लिये बैठे थे, औ लगीं अपने पति का मुख निरख निरख, सुख सुमिर सुमिर, गुन गाय गाय, व्याकुल हो हो, पछाड़ खाय खाय मरने कि इस बीच करुनानिधान कान्ह करुनाकर उनके निकट जाय बोले।

माई सुनहु शोक नहि कीजै। मामा जू कौ पानी दीजै॥
सदा न को जीवत रहै। गूढ़ौ सो जो अपनौ कहै॥
मात-पिता सुत बंधु न कोई। जन्म मरन फिरही फिर होई॥
जौ लौ जालो सनमंद रही। तौही लौ भिलि कै सुख लहै॥

महाराज, जद श्रीकृष्णचंद ने रानियों को ऐसे समझाया तद विन्होने वहाँ से उठ धीरज धर यमुना तीर पै आ पति को पानी दिया औ आप प्रभु ने अपने हाथ कंस को आग दे उसकी गति की।


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(१) दोनों प्रतियो में माई शब्द है पर यह पद लल्लूलालजी ने श्रीमद् भागवत से ले लिया है जिसमें मामी शब्द है। यही शब्द यहाँ उपयुक्त भी है।