प्रेमसागर/४७ उद्धववृंदावनगमन

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[ १५८ ]यथायोग दंडवत, प्रणाम, आशीरवाद लिखा औ सब ब्रजयुवतियो को जोग को उपदेस लिख ऊधो के हाथ दी औ कहा―यह पाती तुमहीं पढ़ सुनाइयो, जैसे बने तैसे उन सब को समझाय शीघ्र अइयो।

इतना संदेसा कह प्रभु ने निज वस्त्र, आभूषन, मुकुट पहराय, अपने ही रथ पर बैठाय, ऊधो जी को बृंदाबन बिदा किया। ये रथ हांके कितनी एक बेर में मथुरा से चले चले बृंदाबन के निकट जा पहुँचे, तो वहाँ देखने क्या हैं कि सघन सघन कुंजो के पेड़ों पर भाँति भाँति के पक्षी मनभावन बोलियाँ बोल रहे हैं, औ जिधर तिधर धौली; पीली, भूरी, काली गाये घटा सी फिरती हैं, औ ठौर ठौर गोपी गोप ग्वाल बाल श्रीकृष्णजस गाय रहे हैं।

यह सोभा निरख रखते औं प्रभु का बिहारस्थल जान प्रनाम करते ऊधोजी जों गाँव के ग्वेडे गये, तो किसी ने दूर से हरि का रथ पहिचान पास आय इनका नाम पूछ नंदुमहर से जा कहा कि महाराज, श्रीकृष्ण का भेष किये उन्हीं का रथ लिये कोई ऊधो नाम मथुरा से आया है।

इतनी बात के सुनतेही नंदराय जैसे गोपमंडली के बीच अथाई पर बैठे थे, तैसेही उठ धाए, औ तुरंत ऊधोजी के निकट आए। रामकृष्ण का संगी जान अति हित कर मिले औ कुशल क्षेम पूछ बड़े आदर मान से घर लिवाय ले गये। पहले पाँव धुलवाय आसन बैठने को दिया, पीछे षट्रस भोजन बनवाय ऊधोजी की पहुनई की। जब वे रुच से भोजन कर चुके, तब एक सथरी उज्जल फेन सी सेज बिछवा दी, तिसपर पान खाय जाय [ १५९ ]उन्होने पौढ कर अति सुख पाया और मारग का श्रम सब गँवाया। कितनी एक बेर में जो ऊधोजी सोके उठे, तो नंदमहर उनके पास जा बैठे औ पूछने लगे कि कहो ऊधोजी, सूरसेन के पुत्र हमारे परम मित्र वसुदेवजी कुटुंब सहित आनंद से हैं, औं हमसे कैसी प्रीति रखते है, यो कह फिर बोले―

कुशल हमारे सुत की कहौ। जिनके संग सदा तुम रहौ॥
कबहूं वे सुधि करत हमारी। उन बिन दुख पावत हम भारी॥
सब ही सो आवन कह गये। बीती अवध बहुत दिन भये॥

नित उठ जसोदा दही बिलोय माखन निकाल हरि के लिये रखती है। उसकी औ ब्रजयुवतियों की, जो उनके प्रेम रंग में रँगी है सुरत कभू कान्ह करते हैं कै नहीं?

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेव जी ने राजा परीक्षित से कहा कि पृथीनाथ, इसी रीति से समाचार पूछते पूछते औ श्रीकृष्णचंद की पूर्व लीला गाते गाते, नंदराथजी तो प्रेम रस भीज, इतना कह, प्रभु को ध्यान धर अवाक हुए कि―

महाबली कंसादिक मारे। अब हम काहे कृष्ण बिसारे॥

इस बीच अति व्याकुल हो, सुध बुध देह की बिसारे, मन मारे, रोती जसोदा रानी ऊधोज के निकट आय रामकृष्ण की कुशल पूछ बोली―कहो ऊधोजी, हरि हम बिन वहाँ कैसे इतने दिन रहे औ क्या संदेसा भेजा है? कब आय दरसन देगे? इतनी बात के सुनते ही पहले तो ऊधोज ने नंद जसोदा को श्रीकृष्ण बलराम की पाती पढ़ सुनाई, पीछे समझा कर कहने लगे कि जिनके घर में भगवान ने जन्म लिया औ बाललीला कर सुख दिया, तिनकी महिमा कौन कह सके। तुस बड़े भगवान हो क्यौकि [ १६० ]जो आदिपुरुष अबिनासी, शिव बिरंच का करता, न जिसके माता, न पिता, न भाई, न बंधु, तिसे तुम अपनी पुत्र जान मानते हो, औ सदा उसीके ध्यान में मन लगाये रहते हो वह तुमसे कब दूर रह सकता है। कहा है―

सदा समीप प्रेमबस हरी। जन के हेतु देह जिव धरी॥
जाको बैरी मित्र न कोई। ऊँच नीच कोऊ किन होई॥
जोई भक्ति भजन मन धरै। सोई हरि सो मिल अनुसरै॥

जैसे भृंगी कीट को ले जाता है, औ अपने रूप बना देता है, और जैसे कँवल के फूल में भौरी मुँद जाती है, औ भौरा रात भर उसके ऊपर गूँजता रहता है, विसे छोड़ और कहीं नहीं जाता, तैसे ही जो हरि से हित करता है औ उनका ध्यान धरता है, तिसे वे भी आप सा बना लेते हैं औ सदा विसके पास ही रहते हैं।

यों कह फिर ऊधो जी बोले किं अब तुम हरि को पुत्र कर मत जानौ, ईश्वर कर मानौ। वे अंतरजामी भक्तहितकारी प्रभु आय दरसन दे तुम्हारा मनोरथ पूरा करंगे, तुम किसी बात की चिन्ता न करो।

महाराज, इसी रीति से अनेक अनेक प्रकार की बातें कहते कहते औ सुनते सुनते, जब सबै रात बितीत भई औ चार घड़ी पिछली रही, तब नंदरायजी से ऊधोजी ने कहा कि महाराज, अब दधि मथने की बिरियाँ हुई, जो आपकी आज्ञा पाऊँ तो यमुना स्नान करि आऊँ। नंदमहर बोले―बहुत अच्छा। इतना कह वे तो वहाँ बैठे सोच बिचार करते रहे और ऊधोजी उठ झट रथ में बैठे यमुना तीर पर आये। पहले वस्त्र उतार देह शुद्ध करी, पीछे नीर [ १६१ ]के निकट जाय, रज सिर चढ़ाय, हाथ जोड़, कालिन्दी की अति स्तुति गाय, आचमन कर जल में पैठे, है न्हाय धोय सन्ध्या पूजा तरपन से निश्चित हो लगे जप करने। उसी समै सब ब्रजयुवतियाँ भी उठीं, औ अपना अपना घर झाड़ बुहार लीप पोत धूप दीप कर लगीं दधि मथने।

दधि कौ मथन मेघ सौ गाजै। गावे नूपुर की धुनि बाजै॥

दधि मथि कै माखन लियौ, कियौ गेह कौ काम।
तब सब मिल पानी चलीं, सुन्दरि ब्रज की बाम॥

महाराज, वे गोपियाँ श्रीकृष्ण के वियोग-मद-मतियाँ उनका ही जस गातियाँ, अपने अपने झुंड लिये, प्रीतम का ध्यान दिये बाट में प्रभु की लीला गाने लगीं।

एक कहै मुहि मिले कन्हाई। एक कहै वे भजे लुकाई॥
पाछे ते पकरी मो बाँह। वे ठाढ़े हरि बद की छाँह॥
कहत एक गो दोहत देखे। बोली एक भोरही पेखें॥
एक कहै वे धेनु चरावे। सुनहु कान दै बेनु बजावें॥
या मारग हम जाँय न माई। दानि मांगिहै कुँवर कन्हाई॥
गागरि फोरि गाँठि छोरिहै। नेक चितै कै चित्त चोरिहै॥
है कहूँ, दुरे दौरि आयहै। तब हम कहाँ जान पायहैं॥
ऐसे कहते चली ब्रजनारी। कृष्ण बियोग बिकल तन भारी॥