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प्रेमसागर/५४ रुक्मिणीहरण

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प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ २०२ से – २११ तक

 
चौअनवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजा, श्रीकृष्णचंद ने ऐसे उस ब्राह्मन को ढाढ़स बँधाय फिर कहा―

जैसे घिसके काठ ते, काढ़हि ज्वाला जारि।
ऐसे सुँदरि ल्यायहौ, दुष्ट असुरदल मारि॥

इतना कह फिर सुथरे वस्त्र, आभूषन मनमानते पहन, राजा उग्रसेन के पास जाय प्रभु ने हाथ जोड़कर कहा―महाराज, कुण्डलपुर के राजा भीष्मक ने अपनी कन्या देने को पत्र लिख, पुरोहित के हाथ मुझे अकेला बुलाया है, जो आप आज्ञा दे तो जाऊँ औ उसकी बेटी ब्याह लाऊँ।

सुनकर उग्रसेन यो कहै। दूर देस कैसे मान रहै।
तहाँ अकेले जात मुरारि। मत काहू सी उपजे रारि॥

तब तुम्हारे समाचार हमें यहाँ कौन पहुँचावेगा। यो कह पुनि उग्रसेन बोले कि अच्छा जो तुम वहाँ जाया चाहते हो तो अपनी सब सेना साथ ले दोनो भाई जाओ औ ब्याह कर शीघ्र चले आओ। वहाँ किसीसे लड़ाई झगड़ा न करना, क्योंकि तुम चिरंजीव हो तो सुन्दरि बहुत आय रहैगी। आज्ञा पाते ही श्रीकृष्ण- चंद बोले कि महाराज, तुमने सच कहा पर मैं आगे चलता हूँ, अपि कटक समेत बलरामजी को पीछे से भेज दीजेगा।

ऐसे कह हरि उग्रसेन बसुदेव से बिदा हो, उस ब्राह्मन के निकट आये और रथ समेत अपने दारक सारथी को बुलवाया। वह प्रभु की आज्ञा पाते ही चार घोड़े का रथ तुरंत जोत लाया, तब श्रीकृष्णचंद उसपर चढ़े औ ब्राह्मन को पसि बिठाय द्वारका से कुण्डलपुर को चले। जो नगर के बाहर निकले तो देखते क्या है कि दहिनी ओर तो मृग के झुंड के झुंड चले जाते है औ सन- मुख से सिह सिहनी अपनी भक्ष लिये गरजते आते हैं। यह शुभ सगुन देख ब्राह्मन अपने जी में विचार कर बोला कि महाराज, इस समै इस शकुन के देखने से मेरे विचार में यह आता है कि जैसे ये अपना काज साधके आते है, तैसेही तुम भी अपना काज सिद्धकर आओगे। श्रीकृष्णचंद बोले―आपकी कृपा से। इतना कह हरि वहाँ से आगे बढ़े औ नये नये देस, नगर, गाँव देखते देखते कुण्डलपुर में जा पहुँचे, तो तहाँ देखा, कि ठौर ठौर व्याह, की सामा जो संजोय धरी है तिससे नगर की छवि कुछ और की और हो रही है।

झारे गली चौहटे छावे। चोआ चन्दन सो छिरकावे॥
पोय सुपारी झौरा किये। बिच बिच कनक नारियर दिये॥
हरे पात फ्ल फूल अपार। ऐसी घर घर बंदनवार॥
ध्वजा पत्ताका तोरन तने। सुदेब कलस कंचन के बने॥

और घर घर में आनन्द हो रहा है। महाराज, यह तो नगर की सोभा थी औ राजमंदिर में जो कुतूहल हो रहा था, उसका वरनन कोई क्या करे, वह देखते ही बन आवे। आगे श्रीकृष्णचंद्र ने सब नगर देख आ राजा भीष्भक की बाड़ी में डेरा किया औ शीतल छाँह में बैंठ ठंढे हो उस ब्राह्मन से कहा कि देवता तुम पहले हमारे आने की समाचार रुक्मिनीजी को जा सुनाओ, जो वे धीरज धर अपने मन का दुख हरे। पीछे वहाँ का भेद हमे आ बताओ, जो हम फिर उसका उपाय करे। ब्राह्मन
बोला कि कृपानाथ, आज व्याह का पहला दिन है, राजमन्दिर में बड़ी धूमधाम हो रही है, मैं जाता हूँ पर रुक्मिनीजी को अकेली पाय आपके आने का भेद कहूँगा। यो सुनाय ब्राह्मन वहाँ से चला। महाराज, इधर से हरि तो यो चुपचाप अकेले पहुँचे औ उधर से राजा सिसुपाल जरासन्ध समेत सच असुरदल लिये, इस धूम से आया कि जिसका वारापार नहीं औ इतनी भीड़ संग कर लाया कि जिसके बोझ से लगा सेसनाग डगमगाने औ पृथ्वी उथलने। उसके आने की सोध पाय राजा भीष्मक अपने मंत्री औ कुटुंब के लोगो समेत आगू बढ़ लेने गये और बड़े अदर मान से अगोनी कर सबको पह- रावनी पहराय रत्नजटित शस्त्र, आभूपन औ हाथी घोड़े दे उन्हें नगर में ले आए औ जनवासा दिया, फिर खाने पीने का सामान किया।

इतनी कथा सुनाये श्रीशुकदेव मुनि बोले, कि महाराज, अब मैं अंतर कथा कहता हूँ आप चित लगाय सुनिये कि जब श्रीकृष्ण- चंद द्वारका से चलें, तिसी समै सच यदुबंसियों ने जाय, राजा उग्रसेन से कहा कि महाराज, हमने सुना है जो कुंडलपुर में राजा सिसुपाल जरासंध समेत सब असुरदल ले ब्याहन आया है और हरि अकेले गये है, इससे हम जानते है कि वहाँ श्रीकृष्णजी से और उनसे युद्ध होगा। यह बात जानके भी हम अजान हो हरि को छोड़ यहाँ कैसे रहैं। हमारा मन तो मानता नहीं, आगे जो आप आज्ञा कीजे सो करे।

इस बात के सुनतेही राजा उग्रसेन ने अति भय खाय, घबराय बलरामजी को निकट बुलाय समझाय के कहा कि तुम हमारी सब सेना ले श्रीकृष्ण के न पहुँचते न पहुँचते शीघ्र कुंडल- पुर जाओ औ उन्हें अपने संग कर ले आओ। राजा की आज्ञा पाते ही बलदेवजी छप्पन करोड़ यादव जोड़ ले कुंडलपुर को चले। उस काल कटक के हाथी काले, धौले, धूमरे दलबादल से जनाते थे औ उनके स्वेत स्वेत दाँत बगपांति से। धौसा मेघसा गरजता था औ शस्त्र बिजली से चमकते थे। राते, पीले बागे पहने घुड़- चढ़ो के टोल के टोल जिधर तिधर दृष्ट आते थे, रथो के तातो के तातें झमझमाते चले जाते थे, तिनकी शोभा निरख निरख, हरप हरप देवता अति हित से अपने अपने बिमानो पर बैठे, आकाश से फूल बरसाय श्रीकृष्णचंद आनंदकंदकी जै मनाते थे। इस बीच सब दल लिये चले, चले, कुण्डलपुरमें हरि के पहुँचतेही, वलरामजी भी जा पहुँचे। यो सुनाय फिर श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, श्रीकृष्णचंद रूपसागर, जगतउजागर तो इस भाँति कुण्ड- लपुर पहुँच चुके थे, पर रुक्मिनी इनके आने का सजाचार न पाय

बिलख बदन चितवै चहुँ ओर। जैसे चंद मलिन भये भोर॥
अति चिन्ता सुन्दरि जिय बाढ़ी। देखे ऊँच अटा पर ठाढ़ी॥
चढ़ि चढ़ि उझकै खिरकी द्वार। नैननि ते छांड़े जलधार॥

बिलख बदन अति मलिन मन, लेत उसास निसास।
व्याकुल बरषा नैन जल, सोचत कहति उदास॥

कि अब तक क्यौ नहीं आए हरी, विनका तो नाम है अंतर जामी, ऐसी मुझ से क्या चूक पड़ी जो अब लग विन्होने मेरी सुध न ली, क्या ब्राह्मन वहाँ नही पहुँचा, कै हरि ने मुझे कुरूप जान मेरी प्रीति की प्रतीत न करी, कै जरासन्ध का आना सुन प्रभु न आए। कल व्याह का दिन है औं असुर आय पहुँचा।
जो वह कल मेरा कर गहेगा, तो यह पापी जीव हरि बिन कैसे रहैगा। जप, तप, नेम, धर्म कुछ आड़े न आया, अब क्या करूँ और किधर जाऊँ। अपनी बरात ले आया सिसुपाल, कैसे बिरमे प्रभु दीनदयाल।

इतनी बात जब रुक्मिनी के मुँह से निकली तब एक सखी ने तो कहा कि दूर देस बिन पिता बँधु की आज्ञा हरि कैसे आवेगे, औ दूसरी बोली कि जिनका नाम है अंतरजामी दीनदयाल, वे बिन आए न रहैगे, रुक्मिनी, तू धीरज धर, व्याकुल न हो। मेरा मन यह हामी भरता है कि अभी आय कोई यो कहता है कि हरि आए। महाराज, ऐसे वे दोनों आपस में बत कहाव कर रही थीं कि वैसे में ब्राह्मन ने जाय असीस दे कहा कि श्रीकृष्णचंदजी ने आय राजबाड़ी में डेरा किया औ सच दल लिये वलदेवजी पीछे से आते है। ब्राह्मन को देखते और इतनी बात के सुनते ही, रुक्मिनीजी के जी में जी आया, और उन्होंने उस काल ऐसा सुख माना कि जैसे तपी तप का फल पाय सुख माने।

आगे भीरुक्मिनीजी हाथ जोड़, सिर झुकाय, उस ब्राह्मन के सनमुख कहने लगीं कि आज तुमने आय हरि का आगमन सुनाय मुझे प्रानदान दिया। मैं इसके पलटे क्या दूँ। जो त्रिलोकी की माया दूँ तो भी तुम्हारे ऋन से उतरन न हूँ। ऐसे कह मन मार सुकचाय रहीं तद वह ब्राह्मन अति सन्तुष्ट हो आशीर्वाद कर वहाँ से उठ राजा भीष्मक के पास गया और उसने श्रीकृष्ण के आने का ब्यौरा सब समझाय के कहा। सुनते प्रमान राजा भीष्मक उठ धाया औ चला चला वहाँ आया, जहाँ बाड़ी में श्रीकृष्ण वलराम सुखधाम बिराजते थे। आतेही अष्टांग अनाम कर, सनमुख खड़े हो, हाथ जोड़के कहा राजा भीष्मक ने―

मेरे मन बच हे तुम हरी। कहा कहो जो दुष्टनि करी॥

अब मेरा मनोरथ घूरन हुआ जो अपने आय दरसन दिया। यों कह प्रभु के डेरे करवाय, राजा भीष्मक तो अपने घर आय चिन्ता कर ऐसे कहने लगा―

हरि चरित्र जाने सब कोई। का जाने अब कैसी होई॥

और जहाँ श्रीकृष्ण बलदेव थे तहँ नगरनिवासी क्या स्त्री क्या पुरुष, आय आय, सिर नाय नाय प्रभु का जस गाय गाय सराहि सराहि आपस में यो कहते थे कि रुक्मिनी जोग बर श्रीकृष्णही है, विधना करै यह जरी जुरै औ चिरंजीव रहै। इस बीच दोनों भाइयों के कुछ जो जी में आया तो नगर देखने चले। उप समैं ये दोनो भाई जिस हाट, बाट, चौहटे में हो जाते थे तही नर नारियो के ठट्ट के ठट्ठ लग जाते थे, औ वे इनके ऊपर चोआ, चंदन, गुलाबनीर, छिड़क छिड़क, फूल बरसाय बरसाय, हाथ बढ़ाय बढ़ाय प्रभु को आपस में यो कह कह बताते थे।

नीलांबर ओढ़े बलराम। पीतांबर पहने घनश्याम॥
कुण्डल चपल मुकुट सिर धरे। कँवलनयन चाहत मन हरे॥

औ ये देखते जाते थे। निदान सब नगर औ राजा सिसुपाल का कटक देख ये तो अपने दल में आए, औं इनके आने की समाचार सुन राजा भीष्मक का बड़ा बेटा अति क्रोध कर अपने पिता के निकट आय कहने लगा कि सच कही कृष्ण ह्यांं किसका कलाया आया, यह भेद मैने नहीं पाया, बिन बुलाए यह कैसे आया। व्याह कीज है सुख का धाम, इसमें इसका है क्या
काम। ये दोनो कपटी कुटिल जहाँ जाते हैं, तहाँ ही उतपात मचाते है। जो तुम अपना भला चाहो तो तुम मुझसे सत्य कहो, ये किसके बुलाए आए।

महाराज, रुक्म ऐसे पिता को धमकाय यहाँ से उठ सात पाँच करता वहाँ गया, जहाँ राजा सिसुपाल औ जरासन्ध अपनी सभा में बैठे थे औ उनसे कहा कि ह्याँ रामकृष्ण आए है तुम अपने सब लोगों को जता दो, जो सावधानी से रहें। इन दोनो भाइयो का नाम सुनतेही, राजा सिसुपोल तो हरिचरित्र का लख व्यवहार, जी हार, करने लगा मनहीं मृन विचार, औ जराजन्ध कहने कि सुनो जहाँ ये दोनो आवे है, तहाँ कुछ न कुछ उपद्रव मचावे हैं। ये महाबली औ कपटी है। इन्होने ब्रज में कंसादि बड़े बड़े राक्षस सहज सुभावही मारे, इन्हें तुम मत जानो बारे। ये कभी किसीसे लड़कर नहीं हारे, श्रीकृष्ण ने सत्रह बेर मेरो दल हना, जब मैं अठारवी बेर चढ़ आया, तब यह भाग पर्वत पै जो चढ़ा, जो मैने उसमें आग लगाई तो यह छलकर द्वारका को चला गया।

याकौ काहू भेद न पायौ। अब ह्याँ करन उपद्रव आयौ॥

है यह छली महा छल करै। कोहू पै नहिं जान्यो परै॥

इससे अब ऐसा कुछ उपाय कीजै, जिससे हम सबों की पत रहै। इतनी बात जब जरासंध ने कही तब रुक्म बोला कि वे क्या वस्तु हैं जिनके लिये तुम इतने भावित हो, विन्हें तो मै भली भाँति से जानता हूँ कि बन बन गाते, नाचते, बेनु बजाते, धेनु चराते, फिरते थे, वे बालक गंवार युद्धविद्या की रीति क्या जाने।
तुम किसी बात की चिन्ता अपने मन में मत करो, हम सब यदुबंसियों समेत कृष्ण बलराम को छिन भर में मार हटावेगे।

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, उस दिन रुक्म तो जरासंध औ सिसुपाल को समझाय बुझाय ढाढ़स बँधाय अपने घर आया औ उन्होंने सात पाँच कर रात गँवाई। भोर होते ही इधर राजा सिसुपाल औ जरासंध तो व्याह का दिन जान बराँत निकालने की धूमधाम में लगे और उधर राजा भीष्मक के यहाँ भी मंगलाचार होने लगे। इसमें रुक्मिनीजी ने उठते ही एक ब्राह्मन के हाथ श्रीकृष्णचंद से कहला भेजा कि कृपानिधान, आज ब्याह का दिन है, दो घड़ी दिन रहे नगर के पूरब देवी का मंदिर हैं जहाँ मैं पूजा करने जाऊँँगी। मेरी लाज तुम्हें है जिसमें रहै सो करियेगा।

आगे पहर एक दिन चढ़े सखी सहेली औ कुटुँब की स्त्रियाँ आईं, विन्होने आतेही पहले तो आँगन में गजमोतियो का चौक पुरवाय, कंचन की जड़ाऊ चौकी बिछवाय, तिसपर रुक्मिनी को बिठाय, सात सोहागिनो से तेल चढ़वाया। पीछे सुगंध उबटन लगाय न्हिलाय धुलाय उसे सोलह सिंगार करवाय बारह आभूषन पहराय ऊपर राता चोला उढ़ाय, बनी बनाये बिठाया। इतने में घढ़ी चार एक दिन पिछला रह गया। उस काल रुक्मिनी बाल, अपनी सब सखी सहेलियों को साथ ले बाजे गाजे से देवी की पूजा करने को चली, तो राजा भीष्मक ने अपने लोग रखवाली को उसके साथ कर दिये।

ये समाचार पाय कि राजकन्या नगर के बाहर देवी पूजने चली है, राजा सिसुपाल ने भी श्रीकृष्णचंद के डर से अपने बड़े बड़े रावत, सावंत, सूर, वीर, जोधाओं को बुलाय, सब भाँति ऊँच नीच समझाय बुझाय, रुक्मिनीजी की चौकसी को भेज दिया। वे भी आय अपने अपने अस्त्र शस्त्र सँभाले राजकन्या के संग हो लिये। उस बिरियाँ रुक्मिनीजी सब सिंगार किये, सख सहेलियों के झुंड के झुंड लिये, अंतरपट की ओट मे औ काले काले राक्षसो के कोट में जाते, ऐसी सोभायमान लगती थी कि जैसे स्याम घटा के बीच, तारामंडल समेत चंद। निदान कितनी एक बेर में चली चली देवी के मंदिर में पहुँची। वहाँ जाय हाथ पाँव धोय, आचमन कर, शुद्ध होय, राजकन्या ने पहले तो चंदन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य कर, श्रद्धा समेत बेद की विधि से देवी की पूजा की। पीछे ब्राह्मनियों को इच्छा भोजन करवाय, सुथरी तीयले पहराय, रोली को खौड़ का, अक्षत लगाय उन्हे दक्षना दी औ उनसे असीस ली।

आगे देवी की परिक्रमा दे, वह चंदूमुखी, चंपकबरनी, मृगनैनी, पिकबैनी, राजगौनी, सखियों को साथ ले हरि के मिलने की चिंता किये, जो वहाँ से निचित हो चलने को हुई तो श्रीकृष्णचंद भी अकेले रथ पर बैठे वहाँ पहुँचे, जहाँ रुक्मिनी के साथी सब जोधा अस्त्र शस्त्र से जकड़े थे। इतना कह श्रीशुकदेवजी बोले कि

पूजि गौर जबही चली, एक कहति अकुलाय।
सुन सुंदरि आए हरि, देखें ध्वजा फहराय॥

यह बात सखी से सुन औं प्रभु के रथ की बैरख देख, राजकन्या अति आनंद कर फूली अंग न समाती थी औं सखी के हाथ पर हाथ दिये मोहनी रूप किये, हरि के मिलने की आस लिये, कुछ कुछ मुसकराती ऐसे सबके बीच मंदगति जाती थी कि जिसकी शोभा कुछ बरनी नहीं जाती। आगे श्रीकृष्णचंद को देखते ही सब रखवाले भूले से खड़े हो रहे औ अंतरपट उनके हाथ से छूट पड़ा। इसमें मोहनी रूप से रुक्मिनीजी को जो उन्होंने देखा तो और भी मोहित हो ऐसे सिथल हुए कि जिन्हें अपने तन मन की भी सुध न थी।

भृकुटी धनुष चढ़ाय, अंजन बरुनी पनच कै।
लोचन बान चलाय, मारे पै जीवत रहे॥

महाराज, उस काल सब राक्षस तो चित्र के से कड़े खड़े देखते ही रहे औ श्रीकृष्णाचंद सबके बीच रुक्मिनी के पास रथ बढ़ाय जाय खड़े हुए। प्रानपति को देखतेही उसने सकुचकर मिलने को जो हाथ बढ़ाया, तो प्रभु ने बॉए हाथ से उठाय उसे रथ पर बैठायी।

कांपत गात सकुच मन भारी। छोड़ सबन हरि संग सिधारी॥
जो बैरागी छांडै गेह। कृष्ण चरन सो करै सनेह॥

महाराज, रुक्मिनीजी ने तो जप, तप, ब्रत, पुन्य किये को फल पाया औ पिछली दुख सब गँवाया। बैरी शस्त्र अस्त्र लिये खड़े मुख देखते रहे, प्रभु उनके बीच से रुक्मिनी को ले ऐसे चले कि―

जो बहु कुंडनि स्यार के, परै सिंह, बिच आय।
अपनौ भक्षन लइकै, चलें निडर घहराथ॥

आगे श्रीकृष्णचंद के चलतेही बलरामजी भी पीछे से धौंसा दे, सब दल साथ ले जा मिले।