प्रेमसागर/७४ राजाओ का मोक्ष

विकिस्रोत से
[ ३६१ ]
चौहत्तरवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, राजपाट पर बैठाय समझाय श्रीकृष्णचंदजी ने सहदेव से कहा कि राजा, अब तुम जाय उन राजाओ को ले आओ जिन्हें तुम्हारे पिता ने पहाड़ की कंदरा मे मूद रक्खा है। इतना बचन प्रभु के मुख से सुनतेही जरासंध का पुत्र सहदेव बहुत अच्छा कर कंदरा के निकट जाय, उसके मुख से सिला उठाय, आठ सौ बीस सहस्र राजाओ को निकाल हरि के सनमुख ले आया। आतेही हथकड़ियॉ बेड़ियाँ पहने, गले मे सांकल लोहे की डाले, नख केस बढ़ाये, तनछीन, मनमलीन, मैले भेष सब राजा प्रभु के सनमुख पांति पांति खड़े हो हाथ जोड़ बिनती कर बोले― हे कृपासिधु, दीनबंधु, आपने भले समे आय हमारी सुध ली, नहीं तो सब मर चुके थे। तुम्हारा दरसन पाया, हमारे जी में जी आया, पिछला दुख सब गॅवाया।

महाराज, इस बात के सुनतेही कृपासागर श्रीकृष्णचंद जी ने जो उनपर दृष्ट की, तो बात की बात मे सहदेव उनको ले जाय हथकड़ी बेड़ी कड़ी कटव्प्रय, क्षौर करवाय, न्हिलवाय, धुलवाय, षट रस भोजन खिलाय, वस्त्र आमूषन पहराय, अस्त्र शस्त्र बँधवाय, पुनि हरि के सोही लिवाय लाया। उस काल श्रीकृष्णचंदजी ने उन्हे चतुभुर्ज हो संख चक्र गदा पद्म धारन कर दरसन दिया। प्रभु का स्वरूप भूप देखतेही हाथ जोड़ बोले― नाथ, तुम संसार के कठिन बंधन से जीव को छुड़ाते हो, तुम्हे जरासंध की बंध से हमें छुड़ाना क्या कठिन था। जैसे आपने कृपा कर हमें इस [ ३६२ ] कठिन बंधन से छुड़ाया, तैसेही अब हमे गृह रूप कूप से निकाल काम, क्रोध, लोभ, मोह से छुड़ाइये, जो हम एकात बैठ आपका ध्यान करै औ भवसागर को तरै। श्रीशुकदेवजी बोले कि राजा, जब सब राजाओ ने ऐसे ज्ञान वैराग्य भरे बचन कहे, तब श्रीकृष्णचंदजी प्रसन्न हो बोले कि सुनौ जिनके मन में मेरी भक्ति है वे निःसंदेह भक्ति मुक्ति पावेगे। बंध मोक्ष मन ही का कारन है, जिसका मन स्थिर है तिन्हें घर औ बन समान है। तुम और किसी बात की चिता मत करो, आनंद से घर मे बैठ नीति सहित राज करो, प्रजा को पालो, गौ ब्राह्मण की सेवा में रहो, झूठ मत भाखो, काम, क्रोध, लोभ, अभिमान तजो, भाव भक्ति से हरि को भजो, तुम निःसंदेह परम पद पाओगे। संसार में आय जिसने अभिमान किया वह बहुत न जिया, देखो अभिमान ने किसे किसे न खो दिया।

सहसबाहु अति बली बखान्यौ। परसुराम ताकौ बल भान्यौं॥
बेनु भूप रावन हो भयौ। गर्व अपने सोऊ गयौ॥
भौमासुर वानासुर कंस। भये गर्व ते तें विध्वंस॥
श्रीमद गर्च करो जिन कोय। त्यागै गर्व सो निर्भय होय॥

इतना कह श्रीकृष्णचंदजी ने सब राजाओ से कहा कि अब तुम अपने घर जाओ, कुटुंब से मिल अपना राज पाट सँभाल, हमारे न पहुँचते न पहुँचते हस्तिनापुर में राजा युधिष्ठिर के यहॉ राजसूय यज्ञ में शीघ्र आओ। महाराज, इतना बचन श्रीकृष्णचंदजी के मुख से निकलतेही सहदेव ने सब राजाओ के जाने का सामान जितना चाहिये तितना बात की बात में ला उपस्थित किया। वे ले प्रभु से बिदा हो अपने अपने देसो को गए औ [ ३६३ ] श्रीकृष्णचंदजी भी सहदेव को साथ ले, भीम अर्जुन सहित वहॉ से चल; चले चले आनंदमंगल से हस्तिनापुर आए। आगे प्रभु ने राजा युधिष्ठिर के पास जाय, जरासंध के मारने के समाचार औ सब राजाओ के छुड़ाने के ब्यौरे समेत कह सुनाए।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, श्रीकृष्णचंद आनंदकंदजी के हस्तिनापुर पहुँचते पहुँचतेही वे सब राजा भी अपनी अपनी सेना ले भेट सहित आन पहुँचे औ राजा युधिष्ठिर से भेट कर भेट दे श्रीकृष्णचंदजी की आज्ञा ले हस्तिनापुर के चारों ओर जा उतरे औ यज्ञ की टहल में आ उपस्थित हुए।