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प्रेमसागर/७६ दुर्योधनमानमर्दन

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प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ३७० से – ३७१ तक

 
छिहत्तरवाँ अध्याय

राजा परीक्षिल बोले कि महाराज, राजसूय यज्ञ होने से सब कोई प्रसन्न हुए, एक दुर्योधन अप्रसन्न हुआ। इसका कारन क्या है, सो तुम मुझे समझायकै कहो जो मेरे मन का भ्रम जाय। श्रीशुकदेवजी बोले कि राजा, तुम्हारे पितामह बड़े ज्ञानी थे, जिन्होंने यज्ञ मे जिसे जैसा देखा तिसे तैसा काम दिया। भीम को भोजन करवाने का अधिकारी किया, पूजा पर सहदेव को रक्खा , धन लाने को नकुल रहे, सेवा करने पर अर्जुन ठहरे, श्रीकृष्णचंदजी ने पॉव धोने औ जूठी पत्तल उठाने का काम लिया, दुर्योधन को धन बाँटने का कार्य दिया और सब जितने राजा थे तिन्होने एक एक काज बॉट लिया। महाराज, सब तो निष्कपट यज्ञ की टहल करते थे, पर एक राजा दुर्योधन ही कपट सहित काम करता था, इससे वह एक की ठौर अनेक उठाता था, निज मन मे यह बात ठानके कि इनका भंडार टूटे तो अप्रतिष्ठा होय, पर भगवत कृपा से अप्रतिष्ठा न हो और जस होता था, इस लिये वह अप्रसन्न था और वह यह भी न जानता था कि मेरे हाथ में चक्र है एक रुपया दूंगा तो चार इक्टठे होगे।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि राजा, अब आगे कथा सुनिये। श्रीकृष्णचंद के पधारते ही राजा युधिष्ठिर ने सब राजाओं को खिलाय पिलाय, पहराय, अति शिष्टाचार कर बिदा किया। वे दल साज साज अपने अपने देस को सिधारे। आगे राजा युधिष्ठिर पांडव औ कौरवो को ले गंगास्नान को बाजे गाजे से गए। तीर पर जाय दंडवत कर रज लगाय आचमन कर स्त्री सहित नीर मे पैठे, उनके साथ सब ने स्नान किया। पुनि न्हाय धोय, सन्ध्या पूजन से निचिन्त होय वस्त्र आभूषन पहन सब को साथ लिये राजा युधिष्ठिर कहॉ आते हैं, कि जहाँ मय दैत्य ने मन्दिर अति सुन्दर सुवर्न के रतन जदित बनाए थे। महाराज, वहाँ जाय राजा युधिष्ठिर सिहासन पर विराजे, उस काल गन्धर्व गुन गाते थे, चारन बंदीजन जस बखानते थे, सभा के बीच पातर नृत्य करती थीं, घर बाहर में मंगली लोग गाय बजाय मंगलाचार करते थे और राजा युधिष्ठिर की सभा इन्द्र की सी सभा हो रही थी। इस बीच राजा युधिष्ठिर के अपने के समाचार पाय, राजा दुर्योधन भी कपट स्नेह किये वहाँ मिलने को बड़ी धूम धाम से आया।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, वहॉ भय ने चौक के बीच ऐसा काम किया था कि जो कोई जाता था तिसे थल मे जल का भ्रम होता था औ जल में थल का। महाराज, जो राजा दुर्योधन मंदिर में पैठा तों उसे थल देख जल का भ्रम हुआ, उसने वस्त्र समेट उठाय लिये। पुनि आगे बढ़ जल देख उसे थले का धोखा हुआ, जो पॉव बढ़ाया तो विसके कपड़े भींगे। यह चरित्र देख,सब सभा के लोग खिलखिल उठे। राजा युधिष्ठिर ने हँसी को रोक मुँह फेर लिया। महाराज सबके हँस पड़तेही राजा दुर्योधन अति लज्जित हो महा क्रोध कर उलटा फिर गया। सभा में बैठ कहने लगा कि कृष्ण का बल पाय युधिष्ठिर को अति अभिमान हुआ है। आज सभा मे बैठ मेरी हॉसी की, इसका पलटा मैं लूं औ उसका गर्व तोडू तो मेरा नाम दुर्योधन, नहीं तो नहीं।