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प्रेमसागर/८२ श्रीकृष्ण-बलराम की कुरुक्षेत्र-यात्रा

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वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ३९१ से – ३९७ तक

 
बयासीवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि राजा अब मै प्रभु के कुरक्षेत्र जाने की कथा कहता हूँ तुम चित दे सुनौ कि जैसे द्वारका से सब यदुबसियो को साथ ले श्रीकृष्णचंद औ बलरामजी सूर्यग्रहन न्हाने कुरक्षेत्र गए। राजा ने कहा-महाराज, आप कहिये मैं मन दे सुनता हूँँ। पुनि श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, एक समय सूर्यग्रहन के समाचार पाय श्रीकृष्णचंद और बलदेवजी ने राजा उग्रसेन के पास जायके कहा कि महाराज, बहुत दिन पीछे सूर्यग्रहन आया है जो इस पर्व को कुरक्षेत्र में चलकर कीजे तो बड़ा पुन्य होय, क्यौंकि शास्त्र में लिखा है कि कुरक्षेत्र में जो दान पुन्य करिये सो सहस्र गुना होय। इतनी बात के सुनते ही यदुबंसियों ने श्रीकृष्णचंदजी से पूछा कि महाराज, कुरक्षेत्र ऐसा तीर्थ कैसे हुआ सो कृपा कर हमें समझाके कहिये।

श्रीकृष्ण जी बोले कि सुनौ यमदग्नि ऋषि बड़े ज्ञानी ध्यानी तपस्वी तेजस्वी थे, तिनके तीन पुत्र हुए, उनमे सब से बड़े परशुराम, सो बैराग कर घर छोड़ चित्रकूट में जाय रहे और सदाशिव की तपस्या करने लगे। लड़को के होते ही यमदग्नि ऋषि गृहस्थाश्रम छोड़ बैराग कर स्त्री सहित बन में जाय तप करने लगे। उनकी स्त्री का नाम रेनुका, सो एक दिन अपनी बहन को नौतने गई। उसकी बहन राजा सहस्रार्जुन की स्त्री थी। नौता देते ही अहंकार कर राजा सहस्रार्जुन की रानी, रेनुका की बहन, हँसकर बोली की बहन, तुम हमें हमारे कटक समेत जिमाय सको तो नौता दो, नहीं तो न दो ।

महाराज, यह बात सुन रेनुका अपना सा मुँँह ले चुप चाप वहॉ से उठ अपने घर आई। इसे उदास देख यमदग्नि ऋषि ने पूछा कि आज क्या है जो तू अनमनी हो रही हैं। महाराज, बात के पूछते ही रेनुका ने रोकर सब जो की तो बात कही। सुनते ही यमदग्नि ऋषि ने स्त्री से कहा कि अच्छा तू जाय के अभी अपनी बहन को कटक समेत नौत आ। पति की आज्ञा पाय रेनुका बहन के घर जाय नौत आई। उसकी बहन ने अपने स्वामी से कहा कि कल्ह तुम्हें हमें दुल समेत यमदग्नि ऋषि के यहॉ भोजन करने जाना है। स्त्री की बात सुन अच्छी कह वह हँसकर चुप हो रहा। भोर होते ही यमदग्नि उठकर राजा इंद्र के पास गए औ कामधेनु मॉग लाए। पुनि जाय राजा सहस्रार्जुन को बुलाय लाए। वह कटक समेत आया, तिसे यमदग्निजी ने इच्छा भोजन खिलाया।

कुटक समेत भोजन कर राजा सहस्रार्जुन अति लज्जित हुआ औ मन ही मन कहने लगा, कि इसने इतने लोगों के खाने की सामग्री रात भर में कहॉ पाई औ कैसे बनाई, इसका भेद कुछ जाना नहीं जाता। इतना कह बिदा होय उसने घर जाय, यो कह एक ब्राह्मन को भेज दिया कि देवता तुम यमदग्नि के घर जाय इस बात का भेद लाओ कि उसने किसके बल से एक दिन के बीच मुझे कटक समेत नौत जिमाया। इतनी बात के सुनते ही ब्राह्मन ने झट जाय देख आय सहस्रार्जुन से कहा कि महाराज, उसके घर में कामधेनु है उसी के प्रभाव से उसने तुम्हें एक दिन में नौत जिभाया। यह समाचार सुन सहस्रार्जुन ने उसी ब्राह्मन से कहा कि देवता, तुम जाय हमारी ओर से यमदग्नि ऋषि से कहो कि सहस्रार्जुन ने कामधेनु माँगी है।

बात के सुनते ही वह ब्राह्मन संदेसा ले ऋषि के पास गया औ उसने सहस्रार्जुन की कही बात कही। ऋषि बोले कि यह गाय हमारी नहीं जो हम द। यह तो राजा इंद्र की है हम इसे दे नहीं सकते। तुम जाय अपने राजा से कहो। बात के कहते ही ब्राह्मन ने आय सहस्रार्जुन से कहा कि महाराज, ऋषि ने कहा है, कामधेनु हमारी नहीं यह तो राजा इंद्र की हैं, इसे हम दे नहीं सकते। इतनी बात ब्राह्मन के मुख से निकलते ही सहस्रार्जुन ने अपने कितने एक जोधाओ को बुलाय के कहा―अभी जाय यमदग्नि के घर से कामधेनु खोल लाओ।

स्वामी की आज्ञा पाय जोधा ऋषि के स्थान पर गए औ जो धेनु को खोल यमदग्नि के सनसुख हो चले, तो ऋषि ने दौड़कर बाट मे जाय कामधेनु को रोका। यह समाचार पाय, क्रोध कर सहस्रार्जुन ने आ, ऋषि का सिर काट डाला। कामधेनु भाग इंद्र के यहॉ गई, रेनुका आय पति के पास खड़ी भई।

सिर खसोट लोटत फिरै, बैठि रहै गहि पाय।
छाती पीटै रुदन करि, पिउ पिउ कहि बिललाय॥

उस काल रेनुका का बिलबिलाना औ रोना सुन दसों दिसा के दिग्पाल जाग उठे औ परशुरामजी का तप करते करते आसन ढिगा औ ध्यान छूटा। ध्यान के छूटते ही ज्ञान कर परशुरामजी अपना कुठार ले वहॉ आये जहॉ पिता की लोथ पड़ी थी औ माता छाती पीटती खड़ी थी। देखते ही परशुरामजी को महा क्रोध हुआ, इसमें रेनुका ने पति के मारे जाने का सब भेद पुत्र को कह सुनाया। बात के सुनते ही परशुरामजी इतना कह वहॉ गए, जहाँ सहस्रार्जुन अपनी सभा में बैठा था कि माता, पहले मैं अपने पिता के बैरी को मारि आऊँ तब आय पिता को उठाऊँगा। उसे देखते ही परशुरामजी कोप कर बोले―

अरे क्रूर, कायर, कुल द्रोही। तात मारि दुख दीनौं मोही॥

ऐसे कह जब फरसा ले परशुरामजी महा कोप में आये, तब वह भी धनुष बान ले इनके सोंही खड़ा हुआ। दोनों बली महायुद्ध करने लगे। निदान लड़ते लड़ते परशुरामजी ने चार घड़ी के बीच सहस्रार्जुन को मार गिराया, पुनि उसका कटक चढ़ि आया जिसे भी इन्होने उसी के पास काट डाला। फिर वहॉ से आय पिता की गति करी औ माता को समझाय पुनि उसी ठौर परशुरमिजी ने रुद्रयज्ञ किया, तभी से वह स्थान क्षेत्र कहकर प्रसिद्ध हुआ। वहॉ जाकर प्रहन में जो कोई दान स्नान तप यज्ञ करता है उसे सहस्रगुना फल होता है।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, इस प्रसंग के सुनते ही सब जदुबंसियो ने प्रसन्न हो श्रीकृष्णचंदजी से कहा कि महाराज, शीत्घ्र कुरुक्षेत्र को चलिये अब बिलम्ब न करिये, क्योंकि पर्व पर पहुँचा चाहिए। बात के सुनते ही श्रीकृष्णचंद औ बलरामजी ने राजा उग्रसेन से पूछा कि महाराज, सब कोई कुरक्षेत्र को चलेगा यहॉ पुरी की चौकसी को कौन रहेगा। राजा उग्रसेन ने कहा― अनिरुद्धजी को रख चलिये। राजा की आज्ञा पाय प्रभु ने अनिरुद्ध को बुलाय समझायकर कहा कि बेटा, तुम यहाँ रहो, गौ ब्राह्मन की रक्षा करो औ प्रजा को पालो। हम राजाजी के साथ सब जदुबंसियों समेत कुरक्षेत्र न्हाय आवे। अनिरुद्धजी ने कहा― जो आज्ञा। महाराज, एक अनिरुद्धजी को पुर की रखवाली के लिये छोड़ सूरसेन, बासुदेव, उद्धव, अक्रूर, कृतवर्मा आदि छोटे बड़े सब यदुबंसी अपनी अपनी स्त्रियों समेत राजा उग्रसेन के साथ कुरक्षेत्र चलने को उपस्थित हुए। जिस समैं कटक समेत राजा उग्रसेन ने पुरी के बाहर डेरा किया, उस काल सब जाय मिले। तिनके पीछे से श्रीकृष्णचंदजी भी भाई भौजाई को साथ ले, आठो पटरानी औ सोलह सहस्र आठ सौ रानी औ बेटों पोतो समेत जाय मिले। प्रभु के पहुँचते ही राजा उग्रसेन ने वहॉ से डेरा उठाया औ राजा इन्द्र की भॉति बड़ी धूमधाम से आगे को प्रस्थान किया।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, कितने एक दिनो में चले चले श्रीकृष्णचंद सत्र जदुबंसियो समेत आनंद मंगल से कुरक्षेत्र में पहुंचे। वहाँ जाय पर्व में सब ने स्नान किया औ यथाशक्ति हर एक ने हाथी घोड़ा रथ पालकी वस्त्र शस्त्र रत्न आभूषन अन्न धन दान दिया। पुनि वहॉ सबों ने डेरे डाले। महाराज, श्रीकृष्णचंद औं बलरामजी के कुरक्षेत्र जाने का स्माचार पाय, चहुँ ओर के राजा कुटुम्ब समेत अपनी अपनी सब सेना ले ले वहॉ आय श्रीकृष्णचंद औ बलरामजी को मिलें। पुनि सब कौरव पाण्डव भी अपना अपना दल ले सकुटुंब वहॉ आय मिले उस काल कुंती औ द्रौपदी जदुबंसियो के रनवास में जाये सबसे मिली। आगे कुंती ने भाई के सनमुख जाये कहा कि भाई, मैं बड़ी अभागी, जिस दिन से मॉगी, उसी दिन से दुख उठाती हूँ। तुमने जब से ब्याह दी तब से मेरी सुध कभी न ली औ राम कृष्ण जो सब के है सुखदाई, उनको भी मेरी दया कुछ न आई। महाराज, इस बात के सुनते ही करुना कर आँखे भर बसुदेवजी बोले कि बहन, तू मुझे क्या कहती है इसमे मेरा कुछ बस नहीं, कर्म की गति जानी नहीं जाती। हरि इच्छा प्रबल है, देखो कंस के हाथ से मैंने भी क्या क्या दुःख न पाया।

प्रभु अधीन सकल जग आय। कित दुख करौ देख जग भाय॥

महाराज, इतना कह बहन को समझाय बुझाय बसुदेवजी वहॉ गए जहॉ सत्र राजा उग्रसेन की सभा में बैठे थे औ राजा दुर्योधन आदि बड़े बड़े नृप औ पांडव उग्रसेन ही की बड़ाई करते थे कि राजा, तुम बड़भागी हो जो सदा श्रीकृष्णचंद का दरसन पाते हो औ जन्म का पाप गंवाते हो। जिन्हें शिव बिरंच आदि सब देवता खोजते फिरे सो प्रभु तुम्हारी सदा रक्षा करे। जिनका भेद जोगी जती मुनि ऋषि न पावे सो हरि तुम्हारी आज्ञा लेन आवे। जो है सब जग के ईस, वेई तुम्है निबावते हैं सीस।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, ऐसे सब राजा छाय आय राजा उग्रसेन की प्रसंसा करते थे औ वे यथायोग सबका समाधान। इसमें श्रीकृष्ण बलरामजी का आना सुन नंद उपनंद भी सकुटुंब, सब गोपी गोप ग्वाल बाल समेत आन पहुंचे। स्नान दान से सुचित हो नंदजी वहॉ गए जहॉ पुत्र सहित बसुदेव देवकी विराजते थे। इन्हें देखते ही बसुदेवजी उठकर मिले औ दोनो ने परस्पर प्रेम कर ऐसे सुख माना कि जैसे कोई गई बस्तु पाय सुख माने। आगे बसुदेवजी ने नंदरायजी से ब्रज को पिछली सब बात कह सुनाई, जैसे नंदरायजी ने श्रीकृष्ण बलराम जी को पाला था। महाराज, इस बात के सुनतेही नंदरायजी नयनों में नीर भर बासुदेवर्ज का मुख देख रहे। उस काले श्रीकृष्ण बलदेवजी प्रथम नंद जसोदाजी को यथायोग दंडवत प्रनाम कर पुनि ग्वाल बालो से जाय मिले। तहाँ गोपियों ने आय हरि का चंदमुख निरख अपने नयन चकोरों को सुख दिया औ जीवन का फल लिया। इतना कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, वसुदेव, देवकी, रोहिनी, श्रीकृष्ण, बलराम से मिल जो कुछ प्रेम नंद उपनद जसोदा गोपी ग्वाल बालो ने किया सो मुझसे कहा नहीं जाता, वह देखे ही बन आवै। निदान सब को स्नेह में निपट व्याकुल देख श्रीकृष्णचंदजी बोले कि सुनौ―

मेरी भक्ति जो प्रानी करै। भवसागर निर्भय सो तरै॥
तन मन धन तुम अर्पन कीन्हौ। नेह निरंतर कर मोहि चीन्हौ॥
तुम सम बड़भागी नहीं कोय। ब्रह्मा रुद्र इंद्र किन होय॥
जोगेश्वर के ध्यान न आयो। तुम संग रह नित प्रेम बढ़ायौ॥
हौ सब ही के घट घट रहो। अगम अगाध जुबानी कहौ॥

जैसे तेज जल अग्नि पृथ्वी आकाश का है देह में बास, तैसे सब घट में मेरा है प्रकाश श। श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जब श्रीकृष्णचंद ने यह सब भेद कह सुनाया, तब सब ब्रजवासियो को धीरज आया।