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प्रेमसागर/९० द्वारिकाविहारवर्णन

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प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ४२२ से – ४२४ तक

 
नब्बेवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, द्वारका पुरी में श्रीकृष्णचंद सदा बिराजें, रिद्धि सिद्धि सब जदुबंसियों के घर घर राजे, नर नारी बसन अभूषन ले नव भेष बनावें, चोआ चंदन चरच सुगंध लगावे। महाजन हाट बाट चौहटे झाड़ बुहार छिड़कावे, तहाँ देस देस के ब्यौपारी अनेक अनेक पदारथ बेचने को लावे। जिधर-तिधर पुरबासी कुतूहल करें, ठौर ठौर ब्राह्मन बेद उच्चरे घर घर में लोग कथा पुरान सुने सुनावे, साध संत आठो जाम हरिजस गावें। सारथी रथ घुड़ बहल जोत जोत राजद्वार पर लावे, रथी महारथी गजपति अश्वपति सूर बीर रावत जोधा यादव राजा को जुहार करने आवे। गुनी जन नाचें गावे बजावें रिझावे, बंदीजन चारन जस बखान कर कर हाथी घोड़े वस्त्र शस्त्र अन्न धन कंचन के रतनजटित आभूषन पावें।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा से कहा कि महाराज, उधर तो राजा उग्रसेन की राजधानी में इसी रीति से भॉति भाँति के कुतूहल हो रहे थे औ इधर श्रीकृष्णचंद आनंदकंद सोलह सहस्र एकसौ आठ युवतियों के साथ नित्य विहार करें। कभी युवतियाँ प्रेम में आसक्त हो प्रभु का भेष बनाव करे, कभी हरि आसक्त हो युवतियों को सिंगारे और जो परस्पर लीला क्रीड़ा करे सो अकथ है मुझसे कहीं नहीं जाती, वह देखे ही बनि आवे। इतना कह शुकदेवजी बोले कि महाराज एक दिन रात्र समैं श्रीकृष्णचंद सच युवतियों के साथ विहार करते थे औं प्रभु के नाना प्रकारके चरित्र देख किन्नर गंधई बीन पखावज भेर दुंदुभी बजाय गुन गाते थे और एक समा हो रहा था कि इसमें विहार करते करते जो कुछ प्रभु के मन में आया, तो सबको साथ ले सरोवर के तीर जाय नीर में पैठ जलक्रीड़ा करने लगे। आगे जलक्रीड़ा करते करते सब स्त्री श्रीकृष्णचंद के प्रेम में मगन हो तन मन की सुरत भुलाय एक चकवा चकवी को सरोवर के वार पार बैठे बोलते देख बोलीं–

हे चकई तू दुख क्यौं गोवै। पिया वियोग तें रैन न सोवै॥
अति ब्याकुल हैं पियहि पुकारै। हमलौं तू निज पियहि सम्हारै॥
हमतौ तिनकी चेरी भई। ऐसे कहि आगे कौं गई॥

पुनि समुद्र से कहने लगी कि हे समुद्र, तू जो लंबी सॉस लेता है औ रात दिन जागता है, सो क्या तुझे किसीका वियोग है, कि चौदह रत्न गए का सोग है। इतना कह फिर चंद्रमा को देख बोलीं―हे चंद्रमा, तू क्यो तनछीन मनमलीन हो रहा है, क्या तुझे राज रोग हुआ जो दिन दिन घटता बढ़ता है, कै कृष्णचंद, को देख जैसे हमारी गति मति भूलती है, तैसे तेरी भी भूली है।

इतनी कथा कह श्री शुकदेवजी ने राजा से कहा कि महाराज इसी भॉति सब युवतियों ने पवन, मेघ, कोकिल, पर्वत, नदी, हंस से अनेक अनेक बाते कहीं सो जान लीजै। आगे सब स्त्री श्रीकृष्णचंद के साथ विहार करे औ सदा सेवा में रहें, प्रभु कें गुन गावे औ मन वांछित फल पावे। प्रभु गृहस्थधर्म से गृहस्थाश्रम चलावे। महाराज, सोलह सहस्र एक सौ आठ श्रीकृष्णचंद की रानी जो प्रथम बखानी, तिनमें एक एक रानी के दस दस पुत्र औ एक एक कन्या थी औ उनकी संतान अनगिनत हुई सो मेरी सामर्थ नही जो विनका बखान करूँँ। पर मैं इतना जानता हूँ कि तीन करोड़ अट्ठासी सहस्र एक सौ चटसाल थीं, श्रीकृष्णचंद की संतान के पढ़ाने को, औ इतने ही पांड़े थे। आगे श्रीकृष्णचंदुजी के जितने बेटे पोते नाती हुए, रूप बल पराक्रम धन धर्म में कोई कम न था, एक से एक बढ़ कर था, उनका बरनन मै कहाँ तक करूँँ। इतना कह ऋषि बोले―महाराज, मैने ब्रज औं द्वारका की लीला गाई, यह है सबको सुखदाई। जो जन इसे प्रेम सहित गावेगा सो निस्संदेह भक्ति मुक्ति पदारथ पावेगा। जो फल होता है तप यज्ञ दान व्रत तीरथ स्नान करने से सो फल मिलता है हरि कथा सुनने सुनाने से।