प्रेमाश्रम/१

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद
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प्रेमाश्रम

सध्या हो गयी है। दिन भर के थके-मांँदे बैल खेत से,आ गये है। घरो से धुएंँ के काले बादल उठने लगे। लखनपुर मे आज परगने के हाकिम की परताल थी। गाँव के नेतागण दिन भर उनके घोडे के पीछे-पीछे दौड़ते रहे थे। इस समय वह अलाव के पास बैठे हुए नारियल पी रहे है और हाकिमो के चरित्र पर अपना-अपना मत प्रकट कर रहे है। लखनपुर बनारस नगर से बारह मील पर उत्तर की ओर एक बडा गाँव है। यहाँ अधिकाश कुर्मी और ठाकुरो की बस्ती है, दो-चार घर अन्य जातियो के भी है।

मनोहर ने कहा, भाई हाकिम तो अंँगरेज, अगर यह न होते तो इस देशवाले हाकिम हम लोगो को पीस कर पी जाते।

दुखरन भगत ने इस कथन का समर्थन किया--जैसा उनका अकबाल है, वैसा ही नारायण ने स्वभाव भी दिया है। न्याय करना यही जानते है, दूध का दूध और पानी का पानी, घूस-रिसवत से कुछ मतलब नहीं। आज छोटे साहब को देखो, मुंँह-अंधेरे घोडे पर सवार हो गये और दिन भर परताल की। तहसीलदार, पेसकार, कानूनगोय एक भी उनके साथ नहीं पहुंँचता था।

सुक्खू कुर्मी ने कहा--यह लोग अंँगरेजो की क्या बराबरी करेंगे? बस खाली गाली देना और इजलास पर गरजना जानते है। घर से तो निकलते ही नहीं। जो कुछ चपरासी या पटवारी ने कह दिया, वही मान गये। दिन भर पडे-पडे आलसी हो जाते हैं।

मनोहर--सुनते है अंँगरेज लोग घी नहीं खाते।

सुक्खू–-धी क्यो नही खाते? बिना घी-दूध के इतना बूता कहाँ से होगा वह मसक्कत करते हैं, इसी से उन्हे घी-दूध पच जाता है। हमारे देशी हाकिम खाते तो बहुत हैं पर खाट पर पड़े रहते है। इसी से उनका पेट बढ जाता है।

दुखरन भगत--तहसीलदार साहब तो ऐसे मालूम होते है जैसे कोहू। अभी पहले आये थे तो कैसे दुबले-पतले थे, लेकिन दो ही साल में उन्हे न जाने कहाँ की मोटाई लग गयी।

सुक्खू--रिसवत का पैसा देह फुला देता है।

मनोहर--यह कहने की बात है। तहसीलदार एक पैसा भी नहीं लेते।

सुक्खू--बिना हराम की कौडी खाये देह फूल ही नहीं सकती। [ १० ]

मनोहर ने हंस कर कहा--पटवारी की देह क्यो नही फूल जाती, चुचके आम बने हुए है।

सुक्खू-–पटवारी सैकडे-हजार की गठरी थोडे ही उड़ाता है। जब बहुत दांँव-पेच किया तो दो-चार रुपये मिल गये । उसकी तनकाह तो कानूनगोय ले लेते है । इसी छीनझपट पर निर्वाह करता है, तो देह कहाँ से फूलेगी? तकावी मे देखा नहीं, तहसीलदार माहब ने हजारो पर हाथ फेर दिया।

दुखरन--कहते हैं कि विद्या से आदमी की बुद्धि ठीक हो जाती है, पर यहाँ उलटा ही देखने में आता है। यह हाकिम और अमले तो पडे-लिखे विद्वान होते है, लेकिन किसी को दया-धर्म का विचार नहीं होता।

मुक्खू--जब देश के अभाग आते हैं तो सभी बाते उलटी हो जाती है। जब बीमार के मरने के दिन आ जाते है तो औषधि भी औगुन करती है।

मनोहर--हमी लोग तो रिसवत दे कर उनकी आदत बिगाड़ देते है। हम न दें तो वह कैसे पाये। बुरे तो हम हैं। लेने वाला मिलता हुआ धन थोडे ही छोड देगा? यहाँ तो आपस मे ही एक दूसरे को खाये जाते है। तुम हमे लूटने को तैयार, हम तुम्हे लूटने को तैयार! इसका और क्या फल होगा?

दुखरन--अरे तो हम मूरख, गँवार, अपढ़ है। वह लोग तो विद्यावान है। उन्हे न सोचना चाहिए कि यह गरीब लोग हमारे ही भाई बद है। हमे भगवान ने विद्या दी है, तो इन पर निगाह रखे। इन विद्यावानो से तो हम मूरख ही अच्छे। अन्याय सह लेना अन्याय करने से तो अच्छा है।

सुक्खू --यह विद्या का दोष नही, देश का अभाग है।

मनोहर-- विद्या का दोष है, न देश का अभाग; यह हमारी फूट का फल है। सब अपना दोष है। विद्या से और कुछ नहीं होता तो दूसरो का धन ऐठना तो आ जाता है । मूरख रहने से तो अपना धन गंँवाना पडता है।

सुक्खू --हाँ, तुमने यह ठीक कहा कि विद्या से दूसरो का धन लेना आ जाता है। हमारे बडे सरकार जब तक रहे दो साल की मालगुजारी बाकी पड़ जाती थी, तब भी डाँट-डपट कर छोड़ देते थे। छोटे सरकार जब से मालिक हुए है, देखते हो, कैमा उपद्रव कर रहे हैं। रात-दिन जाफा, बेदखली, अखराज की धूम मची हुई है !

दुखरन--कारिंदा साहब कल कहते थे कि अव की इस गांँव की बारी है, देखो क्या होता है?

मनोहर--होगा क्या, तुम हमारे खेत पर चढोगें, हम तुम्हारे खेत पर चढेगे, छोटे सरकार की चाँदी होगी। सरकार की आँखे तो तब खुलती जब कोई किसी के खेत पर दांँव न लगाता। सब कौल कर लेते। लेकिन यह कहाँ होनेवाला है। सव से पहले तो सुक्खू महतो दौडेंगे।

सुक्खू--कौन कहे कि मनोहर न दौड़ेगे।

मनोहर--मुझसे चाहे गगाजली उठवा लो, मैं खेत पर न जाऊँगा और जाऊँगा [ ११ ]कैसे, कुछ घर मे पूँजी भी तो हो। अभी रब्बी मे महीनो की देर है और घर में अनाज का दाना नहीं है। गुड एक सौ रुपये से कुछ ऊपर ही हुआ है, लेकिन बैल बैठाऊँ हो गया है, डेढ़ सौ लगेगे तब कही एक बैल आयेगा।

दुखरन--क्या जाने क्या हो गया कि अब खेती मे बरक्कत ही नहीं रही। पॉच बीघे रवी बोयी थी, लेकिन दस मन की भी आशा नही है और गुड का तुम जानते ही हो,जो हाल हुआ। कोल्हाडे मे ही बिसेसर साह ने तौला लिया। बाल-बच्चो के लिए शीरा तक न बचा। देखें भगवान कैसे पार लगाते है।

अभी यही बातें हो रही थी कि गिरधर महाराज आते हुए दिखायी दिये। लम्बा डील था, भरा हुमा बदन, तनी हुई छाती, सिर पर एक पगडी, वदन पर एक चुस्त मिरजई। मोटा-सा लट्ठ कधे पर रखे हुए थे। उन्हे देखते ही सब लोग माँचो से उतर कर जमीन पर बैठ गये। यह महाशय जमीदार के चपरासी थे। जवान से सबके दोस्त, दिल से सब के दुश्मन थे। जमीदार के सामने जमीदार की-सी कहते थे, असामियो के सामने असामियो की-सी। इसलिए उनके पीठ पीछे लोग चाहे उनकी कितनी ही बुराइयांँ करें, मुंँह पर कोई कुछ न कहता था।

सुक्खू ने पूछा--कहो महाराज किधर से?

गिरधर ने इस ढग से कहा, मानो वह जीवन से असतुष्ट है-- किधर से वतायें, ज्ञान बाबू के मारे नाको दम है ! अब हुकुम हुआ है कि असामियो को धी के लिए रुपये दे दो। रुपये सेर का भाव कटेगा। दिन भर दौडते हो गया।

मनोहर--कितने का घी मिला?

गिरधार--अभी तो खाली रुपया बांट रहे है। बड़े सरकार की बरसी होनेवाली है। उसी की तैयारी है। आज कोई ५० रुपये बाँटे है।

मनोहर--लेकिन बाजार-भाव तो दस छटांँक का है।

गिरधर--भाई, हम तो हुक्म के गुलाम है। बाजार मे छटांँक भर बिके, हमको तो सेर भर लेने का हुक्म है। इस गांँव मे भी ५० रुपये देने हैं। बोलो सुक्खू महतो, कितना लेते हो?

सुक्खू ने सिर नीचा करके कहा, जितना चाहे दे दो, तुम्हारी जमीन मै बसे हुए है, भाग के कहाँ जायेगे?

गिरधर--तुम बड़े असामी हो । भला दस रुपये तो लो और दुखरन भगत, तुम्हे कितना है?

दुखरन--हमे भी पांँच रुपये दे दो।

मनोहर--मेरे घर तो एक ही भैस लगती है, उसका दूध वाल-बच्चो मे उठ जाता है, घी होता ही नहीं। अगर गाँव मे कोई कह दे कि मैने एक पैसे का भी घी बेचा है तो ५० रुपये लेने पर तैयार हूँ।

गिरधर--अरे क्या ५ रुपये भी न लोगे। भला भगत के बराबर तो हो जाओ।

मनोहर--भगत के घर मे भैस लगती है, पी बिकता है, वह जितना चाहे ले लें। [ १२ ]मैं रुपये ले लूँ तो मुझे बाजार से दस छटॉक का मोल ले कर देना पड़ेगा।

गिरधर--जो चाहो करो, पर सरकार का हुक्म तो मानना ही पडेगा। लालगज में ३० रुपये दे आया हूँ। वहाँ गाँव मे एक भैस भी नहीं है। लोग बाजार से ही ले कर देगे। पडाव मे २० रुपये दिये है। वहाँ भी जानते हो किसी के भैस नही है।

मनोहर--भैस न होगी तो पास रुपये होगे। यहाँ तो गाँठ मे कौडी भी नहीं है।

गिरघर--जब जमीदार को जमीन जोतते हो तो उसके हुक्म के बाहर नहीं जा सकते।

मनोहर--जमीन कोई खैरात जोतते है। उसका लगान देते है। एक किस्त भी बाकी पड़ जाये तो नालिस होती है।

गिरधर--मनोहर, घी तो तुम दोगे दौडते हुए, पर चार बाते सुन कर। जमीदार के गाँव मे रहकर उससे हेकडी नही चल सकती। अभी कारिंदा साहबे बुलायेगे तो रुपये भी दोगे, हाथ-पैर भी पढोगे, मैं सीधे-सीधे कहता हूँ तो तेवर बदलते हो।

मनोहर ने गर्म हो कर कहा--कारिंदा कोई काटू है न जमीदार कोई हौवा है। यहाँ कोई दबेल नहीं है। जब कौडी-कौडी लगान चुकाते है तो धौस क्यो सहे? ।

गिरधर --सरकार को अभी जानते नहीं हो। बड़े सरकार का जमाना अब नही है। इनके चगुल मे एक बार आ जायोगे तो निकलते न बनेगा।

मनोहर की कोषाग्नि और भी प्रचड हुई। बोला, अच्छा जाओ, तोप पर उडवा देना। गिरधर महाराज उठ खडे हुए। सुक्खू और दुसरन ने अब मनोहर के साथ बैना उचित न समझा। वह भी गिरवर के साथ चले गये। मनोहर ने इन दोनो आदमियो को तीव्र दृष्टि से देखा और नारियल पीने लगा।