प्रेमाश्रम/२२

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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२२

एक पखवारा बीत गया। सन्ध्या समय था। शहर में बर्फ की दुकानों पर जमघट होने लगी था। हुक्के और सिगरेट से लोगों को अरुचि होती जाती थी। ज्वालासिंह लखनपुर में मौके की जाँच करके लौटे थे और कुर्सी पर बैठे ठंडा शर्बत पी रहे थे कि [ १५५ ]शीलमणि ने आ कर पूछा, दोपहर को कहाँ रह गये थे?

ज्वाला—बाबू प्रेमशंकर का मेहमान रहा। वह अभी देहात में ही हैं।

शील—अभी तक बीमारी का जोर कम नही हुआ?

ज्वाला—नहीं, अब कम हो रहा है। वह पूरे पन्द्रह दिन से देहातो मे दौरे कर रहे हैं। एक दिन भी आराम से नहीं बैठे। गाँव की जनता उनको पूजती है। बड़े-बड़े हाकिम का भी इतना सम्मान न होगा। न जाने इस तपन मे उनसे कैसे वहाँ रहा जाता है। न पंखा, न टट्टी, न शर्बत, न बर्फ। बस, पेड़ के नीचे एक झोपडे में पड़े रहते है। मुझसे तो वहाँ एक दिन भी न रहा जाय।

शील—परोपकारी पुरुष जान पड़ते हैं। क्या हुआ, तुमने मौका देखा?

ज्वाला—हाँ, खूब देखा। जिस बात का सन्देह था वही सच्ची निकली। ज्ञानशंकर का दावा बिल्कुल निस्मार है। उसके मुख्तार और चपरासियों ने मुझे बहुत कुछ चकमा देना चाहा, लेकिन मैं इन लोगो के हथकंडों को खूब जान गया हूं।बस हाकिमो को कोन्ना दे कर अपना मतलब निकाल लेते है। जरा इस भलमसाहब को देखो कि असामियों के तो जान के लाले पड़े हुए है और इन्हें अपने प्याले भर खून की धुन सवार हैं। इतना भी नही हो सकता कि जरा गांव में जा कर गरीबों की तसल्ली तो करते। इन्हीं का भाई है कि जमीदारी पर लात मार कर दीनो की निस्स्वार्थ सेवा कर रहा है, अपनी जान हथेली पर लिए फिरता है। और एक यह महापुरुष है कि दोनो की हत्या करने से भी नहीं हिचकते। मेरी निगाह में तो अब इनकी आधी इज्जत भी नहीं रही, खाली ढोल हैं।

शील—तुम जिनकी बुराई करने लगते हो, उसकी मिट्टी पलीद कर देते हो। मैं भी आदमी पहचानती हूँ। ज्ञानशंकर देवता नहीं, लेकिन जैसे सब आदमी होते हैं वैसे ही वह भी है। खामख्वाह दूसरो से बुरे नहीं।

ज्वाला—तुम उन्हें जो चाहो समझो, पर मैं तो उन्हे क्रूर और दुरात्मा समझता हूँ।

शील—तब तुम उनका दावा अवश्य ही खारिज कर दोगे?

ज्वाला—कदापि नही, मैं यह सब जानते हुए भी उन्ही की डिग्री करूंगा, चाहे अपील से मेरा फैसला मंसूख हो जाय।

शील—(प्रसन्न हो कर) हाँ, बस मैं भी यही चाहती हूँ, तुम अपनी-सी कर दो, जिसमे मेरी बात बनी रहे।

ज्वाला—लेकिन यह सोच लो कि तुम अपने ऊपर कितना बड़ा बौझ ले रही हो। लखनपुर में प्लेग का भयकर प्रकोप हो रहा है। लोग तबाह हुए जाते हैं, खेत काटने की भी किसी को फुरसत नहीं मिलती। कोई घर ऐसा नही, जहाँ से शोक-विलाप की आवाज न आ रही हो। घर के घर अंधेरे हो गये, कोई नाम लेनेवाला भी न रहा। उन गरीबो मै अब अपील करने की सामर्थ्य नही। ज्ञानशंकर डिग्री पाते ही जारी कर देंगे। किसी के बैल नीलाम होगे, किसी के घर बिकेंगे, किसी की फसल खेत में खड़ी-खडी कौडियो के मोल नीलाम हो जायगी। यह दीनो की हाय किस पर पड़ेगी? यह [ १५६ ]खून किस की गर्दन पर होगा? मैं बदनामी से नही डरता, लेकिन अन्याय और अनर्थ से मेरे प्राण कांपते हैं।

शीलमणि यह व्याख्यान सुन कर काँप उठी। उसने इस मामले को इतना महत्वपूर्ण न समझा था। उसका मौनव्रत टूट गया, बोली, यदि यह हाल है तो आप वही कीजिए जो न्याय और सत्य कहे। मैं गरीबों की आह नहीं लेना चाहती। मैं क्या जानती थी कि जरा-से दावे का यह भीषण परिणाम होगा?

ज्वालासिंह के हृदय पर से एक बोझ सा उतर गया। शीलमणि को अब तक वह न समझे थे। बोले, विद्यावती के सामने कौन-सा मुँह ले कर जाओगी?

शीलमणि-विद्यावती ऐसे क्षुद्र विचारों की स्त्री नहीं है, और अगर वह इस तरह मुझसे रूठ भी जाय तो मुझे चिन्ता नहीं। मैत्री के पीछे क्या गरीबों का गला काट लिया जाय? मैं तो समझती हूँ वह ज्ञानशंकर से चिढ़ती है। अब कभी उन्होंने मुझसे इन दावों की चर्चा की है वह मेरे पास से उठ कर चली गई हैं। उनकी माया-लिप्सा मुझे एक आँख नहीं भाती। दावा खारिज होने की खबर सुन कर वह मन में प्रसन्न होगी।

ज्वाला–उस पर आप का दावा है कि गायत्री के इलाके का प्रबन्ध करेंगे। उनकी इनसे एक दिन भी न निभेगी। वह बड़ी दयावती है।

शीलमणि—दावा खारिज करने पर वह अपील कर दें तो?

ज्वाला—हाँ, बहुत संभव हैं, अवश्य करेंगे।

शील—और वहा से इनका दावा बहाल हो सकता है?

ज्वाला—हाँ, हो सकता हैं।

शील—तब तो वह गरीब खेतिहरों को और भी पीस डालेंगे।

ज्वाला—हाँ, यह तो उनकी प्रकृति ही है।

शील—तुम खेतिहरों की कुछ मदद नहीं कर सकते?

ज्वाला—न, यह मेरे अख्तियार से बाहर हैं।

शील—किसानों को कहीं से धन की सहायता मिल जाय तब तो वह न हारेंगे?

ज्वाला—हार-जीत तो हाकिम के निश्चय पर निर्भर है। हाँ, उन्हें मदद मिल जाय तो वह अपने मुकदमे की पैरवी अच्छी तरह कर सकेंगे।

शील—तो तुम कुछ रुपये क्यों नहीं दे देते?

ज्वाला—वाह,जिस अन्याय से भागता हूँ, वही करू।

शील—प्रेमशंकर जी बड़े दयालु हैं। उनके पास रुपये हो तो वह खेतिहरो की मदद करें।

ज्वाला—मेरे विचार से वह इस न्याय के लिए अपने भाई से बैर न करें।

इतने मे बाहर कई मित्र आ गये। ग्वालियर का एक नामी जलतरगिया आया हुआ था। क्लब मे उसका गाना होनेवाला था। लोग क्लब चल दिये।

दूसरी तारीख पर ज्ञानशंकर का मुकदमा पेश हुआ। ज्वालासिंह ने फैसला सुना दिया। उनका दावा खारिज हो गया। ज्ञानशंकर उस दिन स्वयं कचहरी में मौजूद थे। [ १५७ ]यह फैसला सुना तो दाँत पीस कर रह गये। क्रोध में भरे हुए घर आये और विद्या पर जले दिल के फफोले फोडे । आज बहुत दिनो के बाद लाला प्रभाशकर के पास गये और उनसे भी इस असद्व्यवहार का रोना रो आये । एक सप्ताह तक यहीं क्रम चलना रहा। शहर में ऐसा कोई परिचित आदमी न था, जिससे उन्होने ज्वालासिह के कपट व्यवहार की शिकायत न की हो। यहाँ तक कि रिश्वत का दोषारोपण करने में भी सकोच न किया और उन्हें शब्दाघात से ही तस्कीन न हुई। कलम की तलवार से भी चोटे करनी शुरू की। कई दैनिक पत्रो में ज्वालासिंह की खबर ली। जिस पत्र में देखिए उसी में उनके विरुद्ध कालम के कालम भरे रहते थे। ऐग्लो-इण्डियन पत्रो को हिन्दुस्तानियों की अयोग्यता पर टिप्पणी करने का अच्छा अवसर हाथ आया। एक महीने तक यही रौला मचा रहा। ज्वालासिंह के जीवन का कोई अग कलक और अपवाद से न बचा। एक सपादक महाशय ने तो यहाँ तक लिख मारा कि उनका मकान शहर भर के रसिक जनो का अखाडा है। ज्ञानशकर के रचना कौशल ने उनके मनोमालिन्य के साथ मिल कर ज्वालासिंह को अत्याचार और अविचार का काला देव बना दिया। बेचारे लेखो को पढ़ते थे और मन ही मन ऐठ कर रह जाते थे। अपनी सफाई देने को अधिकार न था। कानून उनका मुँह बन्द किये हुए था। मित्रों में ऐसा कोई न था जो पक्ष में कलम उठाता। पत्रो की मिय्यावादितापर कुढ-कुढ़ कर रह जाते थे, जो सत्या-सत्य का निर्णय किये बिना अधिकारियों पर छीटे उड़ाने में ही अपना गौरव समझते थे। घर से निकलना मुश्किल हो गया। शहर में जहाँ देखिए यही चर्चा थी। लोग उन्हे आते-जाते देख कर खुले बन्दो उनका उपहास करते थे। अफसरों की निगाह भी बदल गयी। जिलाधीश से मिलने गये। उसने कहला भेजा मुझे फुरसत नही है। कमिश्नर एक बगाली सज्जन थे। उनके पास फरियाद करने गये। उन्होने सारा वृत्तात बड़ी सहानुभूति के साथ सुना, लेकिन चलते समय बोले, यह असम्भव है कि इस हल चल का आप पर कोई असर न हो। मुझे शका है कि कहीं यह प्रश्न व्यवस्थापक सभा में न उठ जाय। मैं यथा शक्ति आप पर ऑच न आने दूँगा। लेकिन आपको न्यायोचित समर्थन करने के लिए कुछ नुकसान उठाने पर तैयार रहना चाहिए, क्योकि सन्मार्ग फूलो की सेज नही है।

एक दिन ज्वालासिंह इन्हीं चिन्ताओ मे मग्न बैठे हुए थे कि प्रेमशकर आये। ज्वालासिंह दौड कर उनके गले लिपट गये। आँखे सजल हो गयी, मानो अपने किसी परम हितैषी से भेट हुई हो। कुशल समाचार के बाद पूछा, देहात से कब लौटे?

प्रेमशकर--आज ही आया हूँ। पूरे डेढ महीने लग गयें। दो तीन दिन का इरादा करके घर से चला था। हाजीगजवाले बार-बार बुलाने में जाते तो मैं जेठ भर वहाँ और रहता।

ज्वाला--बीमारी की क्या हालत है ?

प्रेमशकर--शान्त हो गयी है। यह कहिए, समाचार पत्रों में क्यों हरबोग मचा हुआ है? मैंने तो आज देखा। दुनिया में क्या हो रहा है इसकी कुछ खबर ही न थी। [ १५८ ]यह मंडली तो बेतरह आपके पीछे पड़ी हुई है।

ज्वाला—उनकी कृपा है और क्या कहूँ?

प्रेम—मैं तो देखते ही समझ गया कि यह ज्ञानशंकर के दावे को खारिज कर देने का फल है।

ज्वाला—बाबू ज्ञानशंकर से कभी ऐसी आशा न थी कि मुझे अपना कर्तव्य पालन करने का यह दण्ड दिया जायेगा। अगर वह केवल मेरी न्याय और अधिकार-संबंधी बातो पर आघात करते तब भी मुझे खेद न होता। मुझे अत्याचारी कहते, जुल्मी कहते, निरंकुस सिद्ध करते—हम इन आक्षेपों के आदी होते है। दुख इस बात का है कि मेरे चरित्र को कलंकित किया गया है। मुझे अगर किसी बात का घमण्ड है तो वह अपने आचरण का है। मेरे कितने ही रसिक मित्र मुझे वैरागी कहकर चिढ़ाते है। यहाँ मैं कभी थियेटर देखने नही गया, कभी मेला तमाशा तक नहीं देखा। बाबू ज्ञानशंकर इस बात से भली-भाँति परिचित है। लेकिन मुझे सारे शहर के छैलो का नेता बनाने में उन्हें लेश-मात्र सकोच न हुआ। इन आक्षेपों से मुझे इतना दुख हुआ है कि उसे प्रकट नहीं कर सकता। कई बार मेरी इच्छा हुई कि विष खा लूँ। आपसे मेरा परिचय बहुत थोडा हैं, लेकिन मालूम नहीं क्यो जी चाहता है कि आपके सामने हृदय निकाल कर रख दूँ। मैंने कई बार जहर खाने का इरादा किया, किन्तु यह सोच कर कि कदाचित् इससे इन आक्षेपों की पुष्टि हो जायगी, रुक गया। यह भय भी था कि शीलमणि रो-रो कर प्राण न त्याग दे। सच पूछिए, तो उसी के श्रद्धामय प्रेम ने अब तक मेरी प्राण-रक्षा की है, अगर वह एक क्षण के लिए भी मुझसे विमुख हो जाती तो मैं अवश्य ही आत्म-धात कर लेता। ज्ञानशंकर मेरे स्वभाव को जानते हैं। मैं और वह बरसों तक भाइयो की भाँति रहे हैं। उन्हें मालूम है कि मेरे हृदय में मर्मस्थान कहाँ है। इसी स्थान को उन्होंने अपनी कलम से बेघा और मेरी आत्मा की सदा के लिए निर्बल बना दिया।

प्रेम—मैं तो आपको यही सलाह दूंगा कि इन पत्रों पर मान-हानि का अभियोग चलाइए। इसके सिवा अपने को निर्दोष सिद्ध करने का कोई उपाय नही है। मुझे इनकी जरा भी परवाह नहीं कि ज्ञानशंकर पर इसका क्या असर पड़ेगा। उन्हें अपने कर्मो का दंड मिलना चाहिए। मैं स्वय सहिष्णुता का भक्त हूँ लेकिन यह असंभव है कि कोई चरित्र पर मिथ्या कलंक लगाये और मैं मौन धारण किये बैठा रहूँ। आप वकीलों से सलाह ले कर अवश्य मान-हानि का मुकदमा चलाइए।

ज्वालासिंह कुछ सोच कर बोले, और भी बदनामी होगी।

प्रेम—कदापि नही। आपको इन मिथ्याक्षेपी के प्रतिवाद करने का अवसर मिलेगा और जनता की दृष्टि में आपका सम्मान बढ़ जायेगा। ऐसी दशा में आपका चुप रह जाना अक्षम्य ही नहीं, दूषित है। यह न समझिए कि मुझे ज्ञानशंकर से द्वेष था अपवाद से प्रेम है। मैं इस मामले को केवल सिद्धांत की निष्पक्ष दृष्टि से देखता हूँ। मान-रक्षा हमारा धर्म हैं। [ १५९ ] ज्वाला-मैं नतीजे को सोच कर कातर हो जाता हूँ। बाबू ज्ञानशंकर का फँस जाना निश्चित है। मुमकिन हैं, जेल की नौबत आये। वह आत्मिक कष्ट मेरे लिए इससे कही असह्य होगा। जिसमें बरसों तक भ्रातृवत् प्रेम रहा, जिसमें दाँत काट रोटी थी उससे मैं इतना कठोर नहीं हो सकता। मैं तो इस विचार-मात्र ही से काँप उठता हूँ। इन आक्षेपों से मेरी केवल इतनी हानि होगी कि यहाँ से तबदील हो जाऊँगा या अधिक से अधिक पदच्युत हो जाऊँगा, परन्तु ज्ञानशंकर तबाह हो जायेगें। मैं अपने दुरावेशों को पूरा करने के लिए उनके परिवार का सर्वनाश नहीं कर सकता।

प्रेमशंकर ने ज्वालासिंह को श्रद्धापूर्ण नेत्रों से देखा। इस आत्मोत्सर्ग के मामने उनका सिर झुक गया, हृदय सदनुराग से परिपूर्ण हो गया। ज्वालासिंह के पैरों पर गिर पड़े और सजल नेत्र हो कर बोले, भाई जी, आपको परमात्मा ने देवस्वरुप बनाया है। मुझे अब तक न मालूम था कि आपके हृदय में ऐसे पवित्र और निर्मल भाव छिपे हुए हैं।

ज्वालासिंह झिझक कर पीछे हट गये और बोले, भैया, भैया, ईश्वर के लिए यह अन्याय न कीजिए। मैं तो अपने को इस योग्य भी नहीं पाता कि आपके चरणारबिद अपने माथे से लगाऊँ। आप मुझे काँटों में घसीट रहे हैं।

प्रेमशंकर---यदि आप की इच्छा हो तो मैं उन्हीं पत्रों में इन आक्षेप का प्रतिवाद कर दूँ।

ज्वालासिंह वास्तव में प्रतिवाद की आवश्यकता को स्वीकार करते थे, किन्तु इस भय है कि कहीं मेरी सम्मति मुझे उस उच्च पद से गिरा न दे, जो मैंने अभी प्राप्त किया हैं, इन्कार करना ही उचित जान पड़ा। बोले, जी नहीं, इसकी भी जरुरत नहीं।

प्रेमशंकर के चले जाने के बाद ज्वालासिंह को खेद हुआ कि प्रतिवाद का ऐसा उत्तम अवसर हाथ से निकल गया। अगर इनके नाम से प्रतिवाद निकलता तो यह सारा मिथ्या-जाल मकड़ी के जाल के सदृश कट जाता। पर अब तो जो हुआ सो हुआ। एक साधु पुरुष के हृदय में स्थान तो मिल गया।

प्रेमशंकर घर तक जाने का विचार करके हाजीपुर से चले थे। महीनों से घर का कुशल-समाचार न मिला था, लेकिन यहाँ से उठ तो नौ बज गये थे, जेठ की लू चलने लगी थी। घर से हाजीपुर लौट जाना दुस्तर था। इसलिए किसी दूसरे दिन का इरादा करके लौट पड़े।

लेकिन ज्ञानशंकर को चैन कहाँ। उन्हें ज्यों ही मालूम हुआ कि भैया देहात से लौट आये है, वह उनसे मिलने के लिए उत्सुक हो गये। ज्वालासिंह को उनकी नजरों में गिराना आवश्यक था। सन्ध्या समय था। प्रेमशंकर अपने झोपड़े के सामनेवाले गमलों में पानी दे रहे थे कि ज्ञानशंकर आ पहुँचे और बोले, क्या मजूर कहीं चला गया है क्या?

प्रेमशंकर–मैं भी तो मजूर ही हूँ। घर पर सब कुशल है न?

ज्ञान—जी हाँ, सब आपकी दया है। आपके यहाँ तो कई मजूर हलवाहे होंगे। [ १६० ]क्या वह इतना भी नहीं कर सकते कि इन गमलों को सीच दे? आपको व्यर्थ कष्ट उठाना पड़ता है।

प्रेम--मुझे उनसे काम लेने का कोई अधिकार नहीं है। वह मेरे निज के नौकर नहीं हैं। मैं तो केवल यहाँ का निरीक्षक हैं और फिर मैंने अमेरिका में तो हाथ से बर्तन धोये हैं, होटलों की मेजे साफ की है, सड़को पर झाड़ू दी है, यहाँ आ कर में कोई और तो नहीं हो गया। मैंने यहाँ कोई खिदमतगार नहीं रखा है। अपना सब काम कर लेता हूँ।

ज्ञान-तब तो आपने हद कर दी। क्या मैं पूछ सकता हूँ कि आप क्यों अपनी आत्मा को इतना कष्ट देते है।

प्रेम मुझे कोई कष्ट नहीं होता। हाँ, इसके विरुद्ध आचरण करने में अलवत्ता कष्ट होगा। मेरी आदत ही ऐसी पड़ गयी है।

ज्ञान--यह तो आप मानते हैं कि आत्मिक उन्नति की भिन्न-भिन्न कक्षाएँ होती है।

प्रेम–मैंने इस विषय में कभी विचार नहीं किया और न अपना कोई सिद्धान्त स्थिर कर सकता हूँ। उस मुकदमें की अपील अभी दायर की या नहीं?

ज्ञान-जी हाँ दायर कर दी। आपने ज्वालासिंह की सज्जनता देखी? यह महाशय मेरे बनाये हुए हैं। मैंने ही इन्हें रटा-रटा के किसी तरह बी० ए० कराया। अपना हर्ज करना था, पर पहले इनकी कठिनाइयों को दूर कर देता था। इस नेकी का इन्होंने यह बदला दिया। ऐसा कृतघ्न मनुष्य मैंने नहीं देखा।

प्रेम-पत्रों में उनके विरुद्ध जो लेख छपे थे। वह तुम्हीं ने लिखे थे?

ज्ञान—जी हाँ। जब वह मेरे साथ ऐसा व्यवहार करते है, तब मैं क्या उनसे रियायत करूँ?

प्रेम-तुम्हारा व्यवहार बिलकुल न्याय-विरुद्ध था। उन्होनें जो कुछ किया न्याय समझ कर किया। उनका उद्देश्य तुम्हें नुकसान पहुँचाना न था। तुमने केवल उनका अनिष्ट करने के लिए यह आक्षेप किया।

ज्ञान–जब आपस मे अदावत हो गयी तब सत्यता का विवेचन कौन करता है? धर्म-युद्ध का समय अब नहीं रहा।

प्रेम–नौ यह सब तुम्हारी मिथ्या कल्पना है?

ज्ञान---जी हाँ, आपके सामने, लेकिन दूसरों के सामने

प्रेम---(बात काट कर) वह मान हानि का दावा कर दें तो?

ज्ञान इसके लिए बड़ी हिम्मत चाहिए और उनमें हिम्मत का नाम नहीं। यह सब रोब-दाद दिखाने को ही हैं। अपील का फैसला मेरे अनुकूल हुआ, तो अभी उनकी और खबर लूंगा। जाते कहां हैं और कुछ न हुआ हो बदनामी के साथ तबदील तो हो ही जायँगे। अबकी तो आपने लखनपुर की खूब सैर की, असामियों ने मेरी खूब शिकायत की होगी?

प्रेम–हाँ, शिकायत सभी कर रहे हैं। [ १६१ ]

ज्ञान—लडाई-दंगे का तो कोई भय नहीं है?

प्रेम—मेरे विचार मै तो इसकी सम्भावना नहीं हैं।

ज्ञान—अगर उन्हें मालूम हो जाय कि इम विषय में हम लोगों के मतभेद हैं—और यह स्वाभाविक ही है, क्योकि आप अपने मनोगत भावो को छुपा नहीं सकते—तो वह और भी शेर हो जायेंगे।

प्रेम—(हँस कर) तो इससे हानि क्या होगी?

ज्ञान—आपके सिद्धान्त के अनुसार तो कोई हानि न होगी, पर मैं कहीं का न रहूँगा। इस समय मेरे हित के लिए यह अत्यावश्यक है कि आप उघर आना-जाना कम कर दें।

प्रम—क्या तुम्हे सन्देह है कि मैं असामियो को उभाड कर तुमसे लडाता हूँ? मुझे तुमसे कोई दुश्मनी है? मुझे लखनपुर के ही नही, सारे देश के कृषको से सहानुभूति है। लेकिन इसका यह आशय नही कि मुझे जमींदारों से कोई द्वेष है, हाँ, अगर तुम्हारी यही इच्छा है कि मैं उधर न जाऊँ तो यहीं सही। अब से कभी न जाऊँगा।

ज्ञानशंकर को इतमीनान तो हुआ, पर वह इसे प्रकट न कर सकने से लज्जित थे। अपने भाई की रजोवृत्ति के सामने उन्हें अपनी तमोवृत्ति बहुत ही निकृष्ट प्रतीत होती थी। वह कुछ देर तक कपास और मक्का के खेतों को देखते रहे, जो यहां बहुत पहले ही बो दिये गये थे। फिर घर चले आये। श्रद्धा के बारे में न प्रेमशंकर ने कुछ पूछा और न उन्होंने कुछ कहा। श्रद्धा अब उनकी प्रेयसी नही, उपास्य देवी थी।

दूसरे दिन दस वजे डाकिये ने उन्हें एक रजिस्टर्ड लिफाफा दिया। उन्होंने विस्मित हो कर लिफाफे को देखा। पता साफ लिखा हुआ था। खोला तो ५०० रु० का एक करेन्सी नोट निकला। एक पत्र भी था, जिसमे लिखा हुआ था—

'लखनपुरवालो की सहायता के लिए यह रुपये आपके पास भेजे जाते हैं। यह आप अपील की पैरवी करने के लिए उन्हें दे दे। इस कष्ट के लिए क्षमा कीजिएगा।'

प्रेमशंकर सोचने लगे, इसका भेजनेवाला कौन है? यहाँ मुझे कौन जानता है? कौन मेरे विचारों से अवगत है? किसे मुझ पर इतना विश्वास है? इन सव प्रश्न का उत्तर मिलता था, 'ज्वालासिंह' किन्तु मन इस उत्तर को स्वीकर न करता था।

अब उन्हें यह चिन्ता लगी कि यह रुपये क्योकर भेजूं? ज्ञानशंकर को मालूम हो गया तो वह समझेगे मैंने स्वय असामियो को सहायता दी है। उन्हें कभी विश्वास न आयेगा कि यह किसी अन्य व्यक्ति की अमानत है। यदि असामियो को न दूँ तो महान् विश्वासघात होगा। इसी हैस-वैस में शाम हो गयी और लाला प्रभाशंकर का शुभागमन हुआ।