प्रेमाश्रम/३०

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ २१२ ]

३०

इस मुकदमे ने सारे शहर में हलचल मचा दी। जहाँ देखिए, यही चर्चा थी। सभी लोग प्रेमशकर के आत्म बलिदान की प्रशंसा सौ-सौ मुँह से कर रहे थे।

यद्यपि प्रेमशकर ने स्पष्ट कह दिया था कि मेरे लिए किसी वकील की जरूरत नहीं है, पर लाला प्रभाशकर का जी न माना। उन्हें भय था कि वकील के बिना काम बिगड जायगा । नहीं, यह कदापि नहीं हो सकता । कही मामला बिगड़ गया तो लोग यही कहेंगे कि लोभ के मारे वकील नही किया, उसी का फल है। अपने मन में यही पछतावा होगा। अतएव वह सारे शहर के नामी वकीलो के पास गये । लेकिन कोई भी इस मुकदमे की पैरवी करने पर तैयार न हुआ। किसी ने कहा, मुझे अवकाश नहीं है, किसी ने कोई और ही वहाना करके टाल दिया । सबको विश्वास था कि अधिकारीवर्ग प्रेमशंकर से कुपित हो रहे है, उनकी वकालत करना स्वार्थ-नीति' के विरुद्ध है। प्रभाशंकर का यह प्रयास सफल न हुआ तो उन्होंने अन्य अभियुक्तों के लिए कोई प्रयत्न नही किया। उनकी सहानुभूति अपने परिवार तक ही सीमित थी।

अभियोग तैयार हो गया और मैजिस्ट्रेट के इजलास में पेशियाँ होने लगी। थानेदार का बयान हुआ, फैजू का बयान हुआ, तहसीलदार, चपरासियो और चौकीदारो के इजहार लिये गये । आठवें दिन ज्ञानशकर इजलास के सामने आ कर खड़े हुए । प्रभाशकर को ऐसा दुख हुआ कि वह कमरे के बाहर चले गये और एक वृक्ष के नीचे बैठ कर रोने लगे । सगे भाइयों में यह वैमनस्य । पुलिस का पक्ष सिद्ध करने के लिए एक भाई दूसरे भाई के विरुद्ध साक्षी बने । दर्शको को भी कौतूहल हो रहा था कि देखे इनका क्या बयान होता है। सब टकटकी लगाये उनकी ओर ताक रहे थे। पुलिस को विश्वास था कि इनको वयान प्रेमशकर के लिए ब्रह्मफॉस बन जायेगा, लेकिन उनको और उनसे अधिक दर्शको को कितना विस्मय हुआ जब ज्ञानशकर ने लखनपुरवालो पर अपने दिल का बुखार निकाला, प्रेमशकर का नाम तक न लिया।

सरकारी वकील ने पूछा, आपको मालूम है कि प्रेमशकर उस गाँव में अक्सर आया जाया करते थे।

ज्ञान--उनका उस गाँव में आधा हिस्सा है ।

वकील--आप जानते है कि जब इन्स्क्टपेर जेनरल पुलिस का दौरा हुआ था तब [ २१३ ]प्रेमशकर ने लखनपुरवालो की बेगार बन्द करने की कोशिश की थी और तहसीलदार से लड़ने पर आमादा हो गये थे ?

ज्ञान--मुझे इसकी खबर नहीं।

वकील--आप यह तो जानते है कि जब आपने बेशी लगान का दावा किया था तब प्रेमशकर ने गाँववालो को ५०० रु० मुकदमे की पैरवी करने के लिए दिये थे ?

ज्ञान--मुझे इस विषय में कुछ नहीं मालूम है।

ज्ञानशंकर की गवाही हो गयी । सरकारी वकील का मुँह लटक गया। लेकिन दर्शक गण एक स्वर से कहने लगे, भाई फिर भी भाई ही है, चाहे एक दूसरे के खून का प्यासा क्यों न हो।

इसके बाद मिस्टर ज्वालासिंह इजलास पर आये। उन्होंने कहा, मैं यहाँ कई साल तक हाकिम बना रहा। लखनपुर मेरे ही इलाके में था। कई बार वहाँ दौरा करने गया । याद नहीं आता कि वहाँ गाँववालो से रसद या बेगार के बारे में उससे ज्यादा झझट हुआ हो जितना दूसरे गाँव मे होता है। मेरे इजलास में एक बार बाबू ज्ञानशकर ने इजाफा लगान का दावा किया था, लेकिन मैंने उसे खारिज कर दिया था।

सरकारी वकील--आपको मालूम है कि उस मामले की पैरवी के लिए प्रेमशंकर ने लखनपुरवालों को ५०० रु० दिये थे।

ज्वालासिंह--मालूम है । लेकिन मैं समझता हूँ, उनको यह रुपये किसी दूसरे आदमी ने गाँववालो की मदद के लिए दिये थे।

वकील--आपको यह तो मालूम ही होगा कि प्रेमशकर की उस गाँव मे बहुत आमदरफ्त रहती थी ?

ज्वाला--हाँ, वह ताऊन या दूसरी बीमारियो के अवसर पर अक्सर वहाँ जाते थे।

यह गवाही भी पूरी हो गयी। सरकारी वकील के सभी प्रश्न व्यर्थ सिद्ध हुए।

तब बिसेसर साह इजलास पर आये । उनका बयान बहुत विस्तृत, क्रमबद्ध और सारगर्भित था, मानो किसी उपन्यासकार ने इस परिस्थिति की कल्पनापूर्ण रचना की हो। सबको आश्चर्य हो रहा था कि अपढ गॅवार में इतना वाक्य-चातुर्य कहाँ से आ गया ? उसके घटना प्रकाश में इतनी वास्तविकता का रग था कि उसपर विश्वास न करना कठिन था। गौस खाँ के साथ गाँववालो को शत्रुभाव, बेगार के अवसरों पर उनसे हुज्जत और तकरार, चरावर को रोक देने पर गाँववालो का उत्तेजित हो जाना, रात को सब आदमियों का मिल कर गौस खाँ का वध करने की तदवीरें सोचना, इन सब बातो की अत्यन्त विशद विवेचना की गयी थी। मुख्यत षड्यन्त्र-रचना का वर्णन ऐसा मूर्तिमान और मार्मिक था कि उस पर चाणक्य भी मुग्ध हो जाता । रात को नौ बजे मनोहर ने आ कर कादिर खाँ से कहा, बैठे क्या हो ? चरावर रोक दी गयी, चुप लगाने से काम न चलेगा, इसका उपाय करो। कादिर खाँ चौकी पर बैठे नमाज पढ़ने के लिए बजू कर रहे थे, बोले, बैठ जाओ, अकेले हम-तुम क्या बना लेगे ? जब [ २१४ ]मुसल्लम गाँव की राय हो तभी कुछ हो सकता है, नही तो इस तरह कारिन्दा हमको दवाता जायगा । एक दिन खेत से भी बेदखल कर देगा, जाके दुखरन भगत को बुला लाओ । मनोहर दुखरन के घर गये । मैं भी मनोहर के साथ गया । दुखरन ने कहा, मेरे पैर में काँटा लग गया है, मैं चल नहीं सकता। खाँ साहब को यही बुला लाओ । मैं जा कर कादिर खाँ को बुला लाया। मनोहर, डपटसिंह और कल्लू को बुला लायें । कादिर खाँ ने कहा, हम लोग गँवार हैं, अपने मन से कोई बातें करेगे तो न जाने चित पड़े या पट, चल कर बाबू प्रेमशंकर से सलाह लो। डपटसिंह बोले, उनके पास जाने की क्या जरूरत है ? मैं जा कर उन्हें बुला लाऊँगा। दूसरे दिन साँझ को बाबू प्रेमशकर एक्के पर सवार हो कर आये। मैं दूकान बढा रहा था । मनोहर ने आ कर कहा, चलो बाबू साहब आये है। मैं मनोहर के साथ कादिर के घर गया। प्रेमशकर ने कहा, ज्ञान बाबू मेरे भाई है तो क्या, ऐसे भाई की गर्दन काट लेनी चाहिए । कादिर ने कहा, हमारी उनसे कोई दुश्मनी नहीं है, हमारा वैर तो गौस खाँ से है। इस हत्यारे ने इस गाँव मे हम लोगों का रहना मुश्किल कर दिया है। अब आप बताइए, हम क्या करे ? मनोहर ने कहा, यह बेइज्जती नही सही जाती । प्रेमशकर बोले, मर्द हो कर के इतना अपमान क्यो सहते हो ? एक हाथ में तो काम तमाम होता है । कादिर खाँ ने कहा, कर तो डाले, पर सारा गाँव बँध जायगा । प्रेमशकर बोले, ऐसी नादानी क्यो करो? सब मिल कर नाम किसी एक आदमी का ले लो। अकेले आदमी का यह काम भी नही है। तीन-तीन प्यादे हैं। गौस खाँ खुद बलवान आदमी है । कादिर खाँ बोले, जो कही सारा गाँव फँस जाय तो ? प्रेमशकर ने कहा, ऐसा क्या अन्धेर है ? वकील लोग किस मरज की दवा है? इसी बीच में मैं खाने घर चला आया । प्रेमशकर भी रात को ही एक्के पर लौट गये । रात को १२-१ बजे मुझे कुछ खटका हुआ। घर के चारो ओर घूमने लगा कि इतने में कई आदमी जाते दिखायी दिये। मैं समझ गया कि हमारे ही साथी हैं। कादिर का नाम ले कर पुकारा । कादिर ने कहा, सामने से हट जाओ, टोक मत मारो, चुपके से जा कर पड़ रहो । कादिर खाँ से अब न रहा गया । विसेसर साह की ओर कठोर नेत्रो से देख कर कहा, विसेसर ऊपर अल्लाह है, कुछ उनका भी डर है?

सरकारी वकील ने कहा, चुप रहो, नही तो गवाह पर बेजा दबाव डालने का दूसरी दफा लग जायेगा।

सन्ध्या समय ये लोग हिरासत में बैठे हुए इधर-उधर की बाते कर रहे थे । मनोहर अलग एक कोठरी में रखा गया था। कादिर ने प्रेमशंकर से कहा, मालिक आप तो हकनाक इस अफित में फँसे । हम लोग ऐसे अभागे है कि जो हमारी मदद करता है उसपर भी आँच आ जाती है। इतनी उमिर गुजर गयी, सैकडो पढ़े-लिखे आदमियो को देखा, पर आपके सिवा और कोई ऐसा न मिला, जिसने हमारी गरदन पर छूरी न चलायी हो । विद्या की सारी दुनिया बडाई करती है। हमे तो ऐसा जान पडना है कि विद्या पढ़ कर आदमी और भी छली-कपटी हो जाता है । वह गरीब का [ २१५ ]गला रेतना सिखा देती है। आपको अल्लाह ने सच्ची विद्या दी थी। उसके पीछे लोग आपके भी दुश्मन हो गये ।

दुखरन--यह सब मनोहर की करनी है। गाँव भर को डुबा दिया।

बलराज--न जाने उनके सिर कौन सा भूत सवार हो गया ? गुस्सा हमें भी आया था, लेकिन उनको तो जैसे नशा चढ़ जाय ।

डपट--बराबर की विसात ही क्या थी। उसके पीछे यह तूफान !

कादिर--यारो ? ऐसी बातें न करो । बेचारे ने तुम लोगों के लिए, तुम्हारे हक की रक्षा करने के लिए यह सब कुछ किया । उसकी हिम्मत और जीवट की तारीफ तो नहीं करते और उसकी बुराई करते हो। हम सब के सब कायर हैं, वहीं एक मर्द है ।

कल्लू--विसेसर की मति ही उल्टी हो गयी।

दुखरन--बयान क्या देता है जैसे कोई तोता पढ़ रहा है।

डपट--क्या जाने किसके लिए इतना डरता है ? कोई आगे पीछे भी तो नहीं है।

कल्लू--अगर यहाँ से छूटा तो बच्चू के मुँह में कालिख लगा के गाँव भर में घुमाऊँगा।

डपट--ऐसा कंजूस है कि भिकमंगे को देखता है तो छछुन्दर की तरह घर में जाकर दवक जाता है ।

कल्लू--सहुआइन उसकी भी नानी हैं। बिसेसर तो चाहे एक कौड़ी फेंक भी दे, वह अकेली दुकान पर रहती हैं तो गालियाँ छोड़ और कुछ नहीं देती । पैसे का सौदा लेने जाओ तो घेले का देती है। ऐसी डाँडी़ मारती है कि कोई परख ही नहीं सकता ।

बलराज--क्यों कादिर दादा, कालेपानी जा कर लोग खेती-बारी करते हैं न ?

कादिर--सुना है वहाँ ऊख बहुत होती है।

बलराज--तब तो चाँदी हैं। खूब ऊख बोयेंगे ।

कल्लू-–लेकिन दादा, तुम चौदह वरस थोड़े ही जियोगे । तुम्हारी कबर कालेपानी में ही बनेगी।

कादिर--हम तो लौट आना चाहते हैं, जिसमें अपनी हड़ावर यहीं दफन हो । वहाँ तुम लोग न जाने मिट्टी की क्या गत करो।

दुखरन--भाई, मरने-जीने की बात मत करो । मनाओं कि भगवान सबको जीता-जागता फिर अपने बाले बच्चों में ले आये ।

बलराज--कहते हैं वहाँ पानी बहुत लगता है।

दुखरन--यह सब तुम्हारे बाप की करनी है। मारा, गाँव भर का सत्यानाश कर दिया।

अकस्मात् कमरे का द्वार खुला और जेल के दारोगा ने आ कर कहा, बाबू प्रेमशंकर, आपके ऊपर से सरकार ने मुकदमा उठा लिया । आप बरी हो गये । आपके घरवाले बाहर खड़े हैं।

प्रेमशंकर को ग्रामीणों के सरल वार्तालाप में बड़ा आनन्द आ रहा था । चौक पड़े । ज्ञानशंकर और ज्वालासिंह के बयान उनके अनुकूल हुए थे, लेकिन यह आशय [ २१६ ]न था कि वह इस आधार पर निर्दोष ठहराये जायेगे। वह तुरंत ताड़ गये कि यह चचा साहब की करामात है, और वास्तव मे था भी यही। प्रेमशंकर को जब वकीलों से कोई आशा न रही तो उन्होने कौशल से काम लिया और दो ढाई हजार रुपयों का बल्दिान करके यह वरदान पाया था। रिश्वत, खुशामद, मिष्ठालाप यह सभी उनको दृष्टि मे हिरासत से बचने के लिए क्षम्य था।

प्रेमशंकर ने जेलर से कहा, यदि नियमों के विरुद्ध न हो तो कम से कम मुझे रातभर और यहा रहने की आज्ञा दीजिए। जैलर ने विस्मित हो कर कहा, यह आप कया कहते हैं? आपका स्वागत करने के लिए सैकड़ो आदमी बाहर खड़े हैं।

प्रेमशंकर ने विचार किया, इन गरीबो को मेरे यहा रहने से कितना ढाढ़स था। कदाचित् उन्हें आशा थी कि इनके साथ हम लोग भी बरी हो जायेगे। मेरे चले जाने से यह सब निराश हो जायेगे। उन्हें तसल्ली देते हुए बोले, भाइयों, मुझे निराश हो कर तुम्हारा साथ छोड़ना पड़ रहा है, पर मेरा हृदय आपके ही साथ रहेगा। संभव है, बाहर आकार मैं आपकी कुछ सेवा कर सकूँ। मैं प्रति दिन आपसे मिलता रहूँगा।

साथियों से विदा हो कर ज्यों ही वह फाटक पर पहुंचे कि लाला प्रभाशंकर ने दौड़ कर उन्हे छाती से लगा लिया। जेल के चपरासियों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया और इनाम मांगने लगे। प्रभाशंकर ने हर एक को दो-दो रुपए दिये। बग्धी चलने ही वाली थी कि बाबू ज्वालासिंह अपनी मोटर साइकिल पर आ पहुँचे और प्रेमशंकर के गले लिपट गए प्रभाशंकर चाहते थे कि दोनों मित्रों को अपने घर ले जाएँ और उनकी दावत करे किन्तु प्रेमशंकर ने पहले हाजीपुर जा कर फिर लौटने का निश्चय किया। ज्योंही बग्धी बगीचे में पहुँची, हलवाहे और माली सब दौड़े और प्रेमशंकर के चारों और खड़े हो गये है।

प्रेम—क्यों जी दमड़ी, जुताई हो रही है न?

दमड़ी ने लज्ति हो कर कहा, मालिक, औरो को तो नहीं कहता, पर मेरा मन काम करने में जरा भी नहीं लगता था। यही चिन्ता लगी रहती थी कि साहब न जाने कैसे होंगे? (निकट आ कर) भोला एक टोकरी अमरूद तोड़ कर बैच लाया हैं।

भोला—दमड़ी तुमने सरकार के कान में कुछ कहा तो ठीक न होगा। मुझे जानते हो कि नहीं? यहाँ जेहल से नहीं डरते! जो कुछ कहना हो मुंह पर बुरा-भला कहो।

दमड़ी—तो तुम नाहक जामे से बाहर हो गये। तुम्हें कोई कुछ थोड़े ही कहता है।

भोला—तुमने कानाफूसी की क्यों? मेरी बात न कही होगी, किसी और की कही होगी। तुम कौन होते हो किसी की चुगली खानेवाले?

मस्ता कोरी ने समझाया—भोला तुम खमखा झगड़ा करने लगते हो। तुमसे क्या मतलब? जिसके जी मे आता है मालिक से कहता हैं। तुम्हें क्यो बुरा लगता है?

भोला—चुगली खाने चले है, कुछ काम करे न धंधा, सारे दिन नशा खाये पड़े रहते है इनका मुँह है कि दूसरों की शिकायत करे। [ २१७ ]

इतने में भवानीसिंह भी आ पहुँचे, जो मुखिया थे । यह विवाद सुना तो बोले--क्यों लड़े मरते हो यारो, क्या फिर दिन न मिलेगा ? मालिक से कुशल-क्षेम पूछना तो दूर रहा, कुछ सेवा-टहल तो हो न सकी, लगे आपस में तकरार करने ।

इस सामयिक चेतावनी ने सबको शान्त कर दिया। कोई दौड कर झोपडे में झाडू लगाने लगा, किसी ने पलँग डाल दिया, कोई मोढे निकाल लाया, कोई दौड कर पानी लाया, कोई लालटेन जलाने लगा । भवानीसिंह अपने घर से दूध लाये । जब तीनो सज्जन जलपान करके आराम से बैठे तो ज्वालासह ने कहा, इन आदमियो से आप क्योकर काम लेते हैं ? मुझे तो सभी निकम्मे जान पड़ते हैं ।

प्रेमशकर--जी नही, यह सब लड़ते हैं तो क्या, खूब मन लगा कर काम करते है। दिन भर के लिए जितना काम बता देता हूँ उतना दोपहर तक ही कर डालते है।

लीला प्रभाशकर जी से डर रहे थे कि कहीं प्रेमशकर अपने बरी हो जाने के विषय में कुछ पूछ न बैठे। वह इस रहस्य को गुप्त हीं रखना चाहते थे। इसलिए वह ज्वालासिंह से बातें करने लगे । जब से इनकी बदली हो गयी थीं, इन्हे शान्ति नसीब न हुई थीं। ऊपरवाले नाराज, नीचेवाले नाराज, जमीदार नाराज । बात-बात पर जवाब तलव होते थे। एक बार मुअत्तल भी होना पड़ा था। कितना ही चाहा कि यहाँ से कही और भेज दिया जाऊँ, पर सफल न हुए। नौकरी से तग आ गये थे और अब इस्तीफा देने का विचार कर रहे थे। प्रभाशकर ने कहा, भूल कर भी इस्तीफा देने का इरादा न करना, यह कोई मामूली ओहदा नही है। इसी ओहदे के लिए बड़े-बड़े रईसो और अमीरो के माथे घिमे जाते हैं, और फिर भी कामना नही पूरी होती । यह सम्मान और अधिकार आपको और कहाँ प्राप्त हो सकता है ?

ज्वाला--लेकिन इस सम्मान और अधिकार के लिए अपनी आत्मा का कितना हनन करना पड़ता है? अगर नि स्पृह भाव से अपना काम कीजिए तो बडे-बड़े लोग पीछे पड़ जाते हैं। अपने सिद्धान्तों का स्वाधीनता से पालन कीजिए तो हाकिम लोग त्यौरियाँ बदलते हैं। यहाँ उसको सफलता होती है जो खुशामदी और चलता हुआ है, जिसे सिद्धान्तो की परवाह नहीं। मैंने तो आज तक किसी सहृदय पुरुष को फलते-फूलते नहीं देखा। बस, शतरजवाजी की चाँदी है। मैंने अच्छी तरह आजमा कर देख लिया । यहाँ मेरा निर्वाह नहीं है। अब तो यही विचार है कि इस्तीफा दे कर इसी बगीचे मे आ बसूँ और बाबू प्रेमशकर के साथ जीवन व्यतीत करूँ, अगर इन्हें कोई आपत्ति न हो।

प्रेमशकर--आप शौक से आइए, लेकिन खूब दृढ हो कर आइएगा ।

ज्वालासिंह--अगर कुछ कोर-कसर होगी तो यहाँ पूरी हो जायगी ।

प्रेमशकर ने अपने आदमियो से खेती-बारी के सम्बन्ध में कुछ बातें की और ८ बजते-बजते लाला प्रभाकर के घर चले।