प्रेमाश्रम/६१

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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६१

होली का दिन था। शहर में चारो तरफ अबीर और गुलाल उड़ रही थी, फाग और चौताल की धूम थी, लेकिन लाला प्रभाशंकर के घर पर मातम छाया हुआ था। श्रद्धा अपने कमरे में बैठी हुई गायत्री देवी के गहने और कपड़े सहेज रही थी कि अब की ज्ञानाकर आयें तो यह अमानत सौप दूँ। विद्या के देहान्त और गायत्री के चले जाने के बाद से उसकी तबीयत अकेले बहुत घबराया करती थी। अक्सर दिन कै दिन बड़ी बहू के पास बैठी रहती, पर जब से दोनों लड़को की मृत्यु हुई उसका जी और भी उचटा रहता था। हाँ, कभी-कभी शीलमणि के आ जाने से जरा देर के लिए जी बहल जाता था। गायत्री के मरने की खबर यहाँ कल ही आयी थी। श्रद्धा उसे याद करके सारी रात रोती रही। इस वक्त भी गायत्री उसकी आँखों में फिर रही थी, उसकी मृदु, सरल, निष्कपट बातें याद आ रही थी। कितनी उदार, कितनी नम्र कितनी प्रेममयी रमणी थी। जरा भी अभिमान नही, पर हा शौक! कितना भीषण अन्त हुआ। इसी शोकावस्था में दोनो लड़को की ओर ध्यान जा पहुँचा। हा! दोनो। कैसे हँसमुख, कैसे होनहार, कैसे सुन्दर बालक थे! जिन्दगी का कोई भरोसा नहीं, [ ३८३ ]आदमी कैसे-कैसे इरादे करता है, कैसे-कैसे मनसूबै बाँधता है, किन्तु यमराज के आगे किसी की नही चलती। वह आन की आन में सारे मसूबों को भूल में मिला देता है। तीन महीने के अन्दर पाँच प्राणी चल दिये। इस तरह एक दिन मैं भी चल बसूँगी और मन की मन में ही रह जायेंगी! आठ साल से हम दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े है, न वह झुकते है, न मैं दबती हूँ। जब इतने दिनों तक उन्होने प्रायश्चित नहीं किया तब अब कदापि न करेगें। उनकी आत्मा अपने पुण्य कार्यों से सन्तुष्ट है, न इसकी जरूरत समझती है न महत्त्व, अब मुझी को दबना पड़ेगा। अब मैं ही किसी विद्वान पति से पूछे कि मेरे किसी अनुष्ठान से उनका प्रायश्चित्त हो सकता है या नहीं? क्या मेरी इतने दिनों की तपस्या, गंगास्नान, पूजा-पाठ, व्रत और नियम अकारथ हो जायेगें? माना, उन्होने विदेश में कितने ही काम अपने धर्म के विरुद्ध किये, लेकिन जब से यहाँ आये है तब से तो बराबर सत्कार्य ही कर रहे है। दीनों की सेवा और पतितो के उद्धार मे दत्तचित्त रहते है। अपनी जान की भी परवाह नहीं करते। कोई बड़ा से बड़ा धर्मात्मा भी परोपकार में इतना व्यस्त न रहता होगा। उन्होने अपने को बिल्कुल मिटा दिया है। धर्म के जितने लक्षण अन्थो में लिखे हुए है वे सब उनमें मौजूद है। जिस पुरुष ने अपने मन को, अपनी इन्द्रियो को, अपनी वासना को ज्ञान-बल से जीत लिया हो क्या उसके लिए भी प्रायश्चित की जरूरत है? क्या कर्मयोग का मूल्य प्रायश्चित के बराबर नहीं कोई पुस्तक नहीं मिलती जिसमें इस तपस्या की साफ-साफ व्यवस्था की गयी हो। कोई ऐसा विद्वान नहीं दिखायी देता जो मेरी शको का समाधान करे। भगवान्, मैं क्या करूं? इन्ही दुविधाओं में पड़ीं एक दिन मर जाऊँगी और उनकी सेवा करने की अभिलाषा मन में ही रह जायेंगी। उनके साथ रह कर मेरा जीवन सार्थक हो जाता, नहीं तो इस चहारदीवारी में पड़े जीवन वृथा गँवा रही हूँ।

श्रद्धा इन्हीं विचारों में मग्न थी कि अचानक उसे द्वार पर हलचल सी सुनायी दी। खिड़की से झाँका तो नीचे सैकड़ो आदमियों की भीड़ दिखायी दी। इतने में महरी ने आ कर कहा, बहू जी, लखनपुर के जितने आदमी कैद हुए थे वह सब छूट आये है और द्वार पर खड़े बाबू जी को आशीर्वाद दे रहे है। जरा सुनो, वह बुड्ढा दाढीवाला कह रहा है, अल्लाह बाबू प्रेमशंकर को कयामत तक सलामत रख इनके साथ एक बूढा साधु भी है। सुखदास नाम है। वह बाजार से यहाँ तक रुपये पैसे लुटाता आया है। जान पड़ता है कोई बड़ी घनी आदमी है।

इतने में मायाशंकर लपका हुआ आया और बोला- बड़ी अम्माँ, लखनपुर के सब आदमी छूट आये है। बाजार में उनका जलूस निकला था। डाक्टर इफनअली, बाबू ज्वालासिंह, डाक्टर प्रियनाथ, चाची साहब, चाचा दयाशंकर और शहर के और सैकडो छोटे-बड़े आदमी जलूस के साथ थे। लाओ, दीवानखाने की कुंजी दे दो। कमरा खोल कर सबको बैठाऊँ।

श्रद्धा ने कुजी निकाल कर दे दी और सोचने लगी, इन लोगों का क्या सत्कार [ ३८४ ]करूँ कि इतने मे जयकार को गगन-व्यापी नाद सुनायी दिया--बाबू प्रेमशकर की जय। लाला दयाशंकर की जय । लाला प्रभाशकर जी जय ।

मायाशंकर फिर दौडा हुआ आया और बोला--बड़ी अम्मा, जरा ढोल मजीरा निकलवा दो, बाबा सुखदास भजन गायेगे। वह देखो, वह दाढीवाला बुड्ढा, वही कादिरखाँ है। वह जो लम्बा तगडा आदमी है, वहीं बलराज है। इसी के बाप ने गौस खाँ को मारा था ।

श्रद्धा का चेहरा आत्मोल्लास से चमक रहा था। हृदय ऐसा पुलकित हो रहा था मानो द्वार पर बरात आयी हो। मन मे भाँति-भाँति की उमगे उठ रही थी। इन लोगो को आज यही ठहरा लूँ, सबकी दावत करूँ, खूब धूमधाम से सत्यनारायण की कथा हो। प्रेमशकर के प्रति श्रद्धा का ऐसा प्रबल आवेग हो रहा था कि इसी दम जा कर उनके चरणो में लिपट जाऊँ। तुरन्त ढोल और मजीरे निकाल कर मायाशकर को दिये।

सुखदास ने ढोल गले में डाला, औरों ने मजीरे लिए, मडल बाँधकर खड़े हो गये और यह भजन गाने लगे--

'सतगुरु ने मोरी गह लई बाँह नहीं है मैं तो जात बहा ।'

माया खुशी के मारे फूला न समाता था। आ कर बोला--कादिर मियाँ खूब गाते हैं।

श्रद्धा--इन लोगों की कुछ आव-भगत करनी चाहिए।

माया--मेरा तो जी चाहता है कि सब की दावत हो। तुम अपनी तरफ से कहला दो। जो सामान चाहिए वह मुझे लिखवा दो। जा कर आदमियो को लाने के लिए भेज दूँ। यह सब बेचारे इतने सीधे, गरीब है कि मुझे तो विश्वास नहीं आता कि इन्होंने गौस खाँ को मारा होगा। बलराज है तो पूरा पहलवान, लेकिन वह भी बहुत ही सीधा मालूम होता है ।

श्रद्धा--दावत मे बडी देर लगेगी। बाजार से चीजें आयेगी, बनाते-बनाते तीसरा पहर हो जायगा। इस वक्त एक बीस रुपए की मिठाई मँगाकर जलपान करा दी। रुपये है या दूँ?

माया--रुपये बहुत है। क्या कहूँ, मुझे पहले यह बात न सूझी।

दोपहर तक भजन होता रहा। शहर के हजारो आदमी इस आनन्दोत्सव में शरीक थे। प्रेमशकर ने सबको आदर से बिठाया। इतने में बाजार से मिठाइयाँ आ गयी, लोगो ने नाश्ता किया और प्रेमशकर का यश-गान करते हुए बिदा हुए, लेकिन लखन पुरवालो को छुट्टी न मिली। श्रद्धा ने कहला भेजा कि खा-पी कर शाम को जाना। यद्यपि सब के सब घर पहुँचने के लिए उत्सुक हो रहे थे, पर यह निमन्त्रण कैसे अस्वीकार करते। लाला प्रभाकर भोजन बनवाने लगे। अब तक उन्होने कैसे बड़े आदमियों को ही अपनी व्यंजन-कला से मुग्ध किया था। आज देहातियों को भ यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। लाला जी ऐसा स्वादयुक्त भोजन देना चाहते थे जो उन्हें तृप्त । [ ३८५ ]कर दे, जिसको वह सदैव याद करते रहे। भाँति-भाँति के पकवान बनने लगे। बहुत जल्दी की गयी, फिर भी खाते-खाते आठ बज गये। प्रियनाथ और इफनअली ने अपनी सवारियाँ भेज दी थी। उस पर बैठ कर लोग लखनपुर चले। सब ने मुक्त कंठ से आशीर्वाद दिये। अभी घरवाले बाकी थे, उनके खाने में दस बज गये। प्रेमशंकर हाजीपुर जाने को प्रस्तुत हुए तो महरी ने आ कर धीरे से कहा, बहू जी कहती है कि आज यही सो रहिए। रात बहुत हो गयी है। इस असाधारण कृपा-दृष्टि ने प्रेमशंकर को चकित कर दिया। वह इसका मर्म न समझ सके।

ज्वालासिंह ने महरी से हँसी की—हम लोग भी रहे या चले जायें?

महरी सतर्क थी। बोली-नहीं सरकार, आप भी रहे, माया भैया भी रहे, यहाँ किस चीज की कमी है।

ज्वाला---चल, बाते बनाती है।

महरी चली गयीं तो वह प्रेमशंकर से बोले-आज मालूम होता है आपके नक्षत्र बलवान हैं। अभी और विजय प्राप्त होनेवाली हैं।

प्रेमशंकर ने विरक्त भाव से कहा--कोई नया उपदेश सुनना पड़ेगा और क्या?

ज्वाला--जी नहीं, मेरा मन कहता है कि आज देवी आपको वरदान देगी। आपकी तपस्या सफल हो गयी।

प्रेम---मेरी देवी इतनी भक्तवत्सला नहीं है।

ज्वाला--अच्छा, कल आप ही ज्ञात हो जायेगा। हमे आज्ञा दीजिए।

प्रेम-क्यों, यही न सो रहिए।

ज्वाला--मेरी देवी और भी जल्द रूठती है।

यह कह कर वह मायाशंकर के साथ चले गये।

महरी ने प्रेमशंकर के लिए पलंग बिछा दिया था। वह लेटे तो अनिवार्यत मन मे जिज्ञासा होने लगी कि श्रद्धा आज क्या मुझपर इतनी सदय हुई हैं। कही यह महरी का कौशल तो नही है। नहीं, महरी ऐसी हँसोड तो नहीं जान पड़ती। कही वास्तव में उसने दिल्लगी की हो तो व्यर्थ लज्जित होना पड़े। श्रद्धा न जाने अपने मन में क्या सोचे। अन्त मे इन शंकाओं को शान्त करने के लिए उन्होने ज्ञानशंकर की आलमारी में से एक पुस्तक निकाल ली और उसे पढ़ने लगे।

ज्वालासिंह की भविप्यवाणी सत्य निकली। आज वास्तव में उनकी तपस्या पूरी हो गयी थी। उनकी सुकीर्ति ने श्रद्धा को वशीभूत कर लिया था। आज जब से उसने सैकड़ो आदमियों को द्वार पर खड़े प्रेमशंकर की जय-जयकार करते देखा था तभी से उसके मनमें यह समस्या उठ रही थी—क्या इतने अन्त करणों से निकली हुई शुभेच्छा का महत्त्व प्रायश्चित्त से कम है? कदापि नहीं। परोपकार की महिमा प्रायश्चित्त से किसी तरह कम नहीं हो सकती, बल्कि सच्चा प्रायश्चित्त तो परोपकार ही है। इतनी आशीषे किसी महान् पापी का भी उद्धार कर सकती है। कोरे प्रायश्चित्त को इनके सामने क्या महत्त्व हो सकता है और इन आशीषों का आज ही थोड़े ही अन्त हो

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[ ३८६ ]गया। जब यह सब घर पहुँचेगे तो इनके घरवाले और भी आशीष देंगे। जब तक दम मे दम रहेगा, उनके हृदय से नित्य यह सदिच्छाएँ निकलती रहेगी। ऐसे यशस्वी, ऐसे श्रद्धेय पुरुष को प्रायश्चित्त की कोई जरूरत नहीं। इस सुधा-वृष्टि ने उसे पवित्र कर दिया हैं।

ग्यारह बजे थे। श्रद्धा ऊपर से उतरी और सकुचाती हुई आ कर दीवानखाने के द्वार पर खड़ी हो गयी। लैम्प जल रहा था, प्रेमशंकर किताब देख रहे थे। श्रद्धा को उनके मुखमंडल पर आत्म-गौरव की एक दिव्य ज्योति झलकती हुई दिखायी दी। उसका हृदय वाँसो उछल रहा था और आँखे आनन्द के अभु-बिन्दुओं से भरी हुई थीं। आज चौदह वर्ष के बाद उसे अपने प्राणपति की सेवा का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। अब विरहिणी श्रद्धा न थी जिसकी सारी आकाक्षाएँ मिट चुकी हो। इस समय उसका हृदय अभिलाषाओं से आन्दोलित हो रहा था, किन्तु उसके नेत्रों में तृष्णा न थी, उसके अधरों पर मृदु मुस्कान न थी। वह इस तरह नहीं आयी थी जैसे कोई नववधू अपने पति के पास आती है, वह इस तरह आयी थीं जैसे कोई उपासिका अपने इष्टदेव के सामने आती हैं, श्रद्धा और अनुराग में डूबी हुई।

वह क्षण भर द्वार पर खड़ी रही। तब जा कर प्रेमशंकर के चरणों पर गिर पड़ी।