प्रेमाश्रम/६४
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लाला प्रभाशंकर को रुपये मिले तो वह रोये। गाँव तो बच गया, पर उसे कौन बिलसेगा? दयाशंकर का चित्त फिर घर से उचाट हो चला था। साधु-सन्तो के सत्सग के प्रेमी हो गये थे। दिन-दिन वैराग्य में रत होते जाते थे।
इधर मायाशंकर की यूरोप-यात्रा पर ज्ञानशंकर राजी न हुए। उनके विचारों में अभी यात्रा से माया को यथेप्ट लाभ न पहुँच सकता था। उससे यह कही उत्तम था कि वह अपने इलाको का दौरा करे। उसके बाद हिन्दुस्तान के मुख्य-मुख्य स्थानों को देखे, अतएव चैत के महीने में मायाशंकर गोरखपुर चला गया और दो महीने तक अपने इलाके की सैर करने के बाद लखनऊ जा पहुँचा। दो महीने तक वहाँ भी अपने गांवों का दौरा करता रहा। प्रतिदिन जो कुछ देखता अपनी डायरी में लिख लेता। कृषको की दशा का खूब अध्ययन किया। दोनो इलाकों के किसान उसके प्रजा-प्रेम, विनय और शिष्टता पर मुग्ध हो गये। उसने उनके दिलो में घर कर लिया। भय की जगह प्रेम का विकास हो गया। लोग उसे अपना उच्च हितैषी समझने लगे। उसके पास आ कर अपनी विपत्ति-कथा सुनाते। उसे उनकी वास्तविक दशा का ऐसा परिचय। किसी अन्य रीति से न मिले सकता था। चारो तरफ तबाही छायी हुई थी। ऐसा विरला ही कोई घर था जिसमे धातु के बर्तन दिखाई देते हो। कितने घरो में लोहे के तवे तक न थे। मिट्टी के बर्तनो को छोड़ कर झोपड़े में और कुछ दिखायी न देता था। न ओढ़ना, न बिछौना, यहाँ तक कि बहुत से घरो में खाटे तक न थी और वह घर ही क्या थे। एक-एक, दो-दो छोटी कोठरियों थी। एक मनुष्यों के लिए, एक पशुओं के लिए। उसी एक कोठरी में खाना, सोना, बैठना सब कुछ होता था। बस्तियाँ इतनी धनी थी कि गाँव में खुली हुई जगह दिखायी ही नही देती थी। किसी के द्वार पर सहन नही, हवा और प्रकाश को शहरो की घनी बस्तियों में भी इतना अभाव न होगा। जो किसान बहुत सम्पन्न समझे जाते थे उनके बदन पर साबित कपडे न थे, उन्हें भी एक जून चबेना पर ही काटना पड़ता था। वह भी ऋण के बोझ से दबे हुए थे। अच्छे जानवरो के देखने को आँखे तरस जाती थी। जहाँ देखो छोटे-छोटे मरियल, दुर्बल बैल दिखायी देते और खेत में रेगते और चरनियो पर औधते थे। कितने ही ऐसे गाँव थे जहाँ दूध तक न मयस्सर होता था। इस व्यापक दरिद्रता और दीनता को देख कर माया का कोमल हृदय तड़प जाता था। वह स्वभाव से ही भावुके था-बहुत नम्र, उदार और सहृदय। शिक्षा और संगीत ने इन भावो को और भी चमका दिया थी। प्रेमाश्रम में नित्य सेवा और प्रजा-हित की चर्चा रहती थी। माया का सरल हृदय उसी रंग में रंग गया। वह इन दृश्यों से दुखित हो कर प्रेमशंकर को बार-बार पत्र लिखता, अपनी अनुभूत घटनाओं का उल्लेख करता और इस कष्ट को निवारण करने का उपाय पूछता, किन्तु प्रेमशंकर या तो उनका कुछ उत्तर ही न देते या किसानों की। मूर्खता, आलस्य आदि दुस्वभावो की गाथा ले बैठते।
माया तो अपने इलाकों की सैर कर रहा था, इधर स्थानीय राजसभा के सदस्यों का चुनाव होने लगा। ज्ञानशंकर इस उम्मीन्य पद के पुराने अभिलाषी थे। बड़े उत्साह से मैदान में उतरे, यद्यपि यह ताल्लुकेदार सभा के मन्त्री थे, पर ताल्लुकेदारो की सहायता पर उन्हें भरोसा न था। कई बड़े-बड़े ताल्लुकेदार अपने गाँव के प्रतिनिधि बनने के लिए तत्पर थे। उनके सामने ज्ञानशंकर को अपनी सफलता की कोई आशा न थी। इसलिए उन्होने गोरखपुर के किसानों की ओर से खड़ा होने का निश्चय किया। वहीं साम इतना भीषण न था। उनके गोइन्दे देहात मे धूम-घूम कर उनका गुणगान करने लगे। बाबू साहब कितने दयालु, ईश्वरभक्त है, उन्हे चुन कर तुम कृतार्थ हो जाओगे। वह राजसभा में तुम्हारी उन्नति और उपकार के लिए जान लड़ा देगे, लगान घटवायेंगे, प्रत्येक गाँव में गोचर भूमि की व्यवस्था करेगें, नजराने उठवा देगे, इजाफा लगान का विरोध करेंगे और इखराज को समूल उखाड़ देगे। सारे प्रान्त में धूम मच हुई थी। जैसे सहालग के दिनों में ढोल और नगाड़ो का नाद गुंजने लगता है उसी भाँति इस समय जिधर देखिए जाति प्रेम की चर्चा सुनायी देती थी। डाक्टर इर्फानअली बनारस महाविद्यालय की तरफ से खड़े हुए। बाबू प्रियनाथ ने बनारस म्युनिसिपल्टी का दामन पकड़ा। ज्वालासिंह इटावे के रईस थे, उन्होने इटावे के कृषको को आश्रय लिया। सैयद ईजाद हुसेन को भी जोश आया। वह मुसलिम स्वत्व की रक्षा के लिए उठ खड़े हुए। प्रेमशंकर इस क्षेत्र में न आना चाहते थे, पर भवानीसिंह, बलराज और कादिर खाँ ने बनारस के कृषको पर उनका मन्त्र चलाना शुरू किया। तीन-चार महीनों तक बाजार खूव गर्म रहा, छापेखाने को ट्रैक्टो के छापने से सिर उठाने का अवकाश न मिलता था। कही दावतें होती थी, कही नाटक दिखाये जाते थे। प्रत्येक उम्मीदवार अपनी-अपनी ढोल पीट रहा था मानो संसार के कल्याण का उसी ने बीड़ा उठाया है।
अन्त में चुनाव का दिन आ पहुँचा। उस दिन नेताओं का सदुत्साह, उनकी तत्परता, उनकी शीलता और विनय दर्शनीय थी और राय देनेवालो का तो मानो सौभाग्य-सूर्य उदय हो गया था। गेहनभोग तथा मेवे खाते थे और मोटरो पर सैर करते थे। सुबह से पहर रात तक रायो की चिट्ठियाँ पढ़ी जाती रही।
इसके बाद के सात दिन वही बेचैनी के दिन थे। ज्यों-ज्यों करके कटे। आठवें दिन राजपत्र में नतीजे निकल गये। आज कितने ही घर मे घी के चिराग जले, कितनो ने मातम मनाया। ज्ञानशंकर ने मैदान मार लिया, लेकिन प्रेमाश्रम निवासियों को जो सफलता प्राप्त हुई वह आश्चर्यजनक थी, इस अखाड़े के सभी योद्धा विजय-पताको फहराते हुए निकले। सबसे बड़ी फतह प्रेमशंकर की थी। वह बिना उद्योग और इच्छा के इस उच्चासन पर पहुँच गये थे। ज्ञानशंकर ने यह खबर सुनी तो उनका उत्साह भंग हो गया। राजसभा में बैठने का इतना शौक न रहा। बहुधा वृक्षपुत्रों में सन्ध्या समय पक्षियों के कलरव से कान पड़ी आवाज नहीं सुनायी देती लेकिन ज्योही अंधेरा हो जाता है और चिडियाँ अपने-अपने घोसल में जा बैठती हैं वहीं नीरवत्ता छा जाती है, उसी भाँति जाति के प्रतिनिधि गण राजसभा के सुसज्जित सुविशाल भवन में पहुँच कर शान्ति में मग्न हो गये। वे लम्बे-चौड़े वादें, वे बड़ी-बड़ी बात सब भूल गयी। कोई मुवक्किलो के सेवा-सत्कार में लिप्त हुआ, कोई अपने बही-खाते की देख-भाल में, कोई अपने सैर और शिकार मैं। जाति-हित की वह उमग शान्त हो गयी। लोग मनोविनोद की रीति से राजसभा में आते और कुछ निरर्थक प्रश्न पूछ कर या अपने वाक्य-नैपुण्य का परिचय दै कर विदा हो जाते। वह कौन सी प्रेरक शक्ति थी जिन्होंने लोगों को इन अधिकार पर आसक्त कर रखा था। इसका निर्णय करना कठिन है, पर उनमे सेवाभाव का जरा भी लगाव न था---यह निम्नन्ति है। कारण और कार्य, साधन और फल दोनो उस अधिकार में विलीन हो गये।
किन्तु प्रेमाश्रम में वह शिथिलती न थी। यहाँ लोग पहले से ही सेवाधर्म के अनुगामी थे। अब उन्हें अपने कार्यक्षेत्र को और विस्तृत करने का सुअवसर मिला। ये लोग नये-नये सुधार के प्रस्ताव सोचते, राजकीय प्रस्तावों के गुण-दोष की मौमासा करते, सरकारी रिपोर्टों का निरीक्षण करते। प्रश्नो द्वारा अधिकारियों के अत्याचारों का पता देते, जहाँ कहीं न्याय का खून होते देखते, तुरंत सभा का ध्यान उसकी और आकर्षित करते और ये लोग केवल प्रश्नों से ही सन्तुष्ट न हो जाते थे, वरन् प्रस्तुत विषयों के मर्म तक पहुँचने की चेष्टा करने। विरोध के लिए विरोध न करते बल्कि शोध के लिए। इस सदुद्योग और कर्तव्यपरायणता ने शीघ्र ही राजसभा में इस मित्र-मडल का सिक्का जमा दिया। उनकी झुकाएँ, उनके प्रस्ताव, इनके प्रतिवाद आदर की दृष्टि से देखे जाते थे। अबकारी-वर्ग उनकी वालो को चुटकियों में न उड़ा सकते थे। यद्यपि डाक्टर इर्फानअली इस मण्डल के मुखपात्र थे, पर खुला हुआ भेद था कि प्रेमशंकर ही उसके कर्णधार हैं।
इस तरह दो साल बीत गये और यद्यपि मंत्री-मण्डल ने सभा को मुग्ध कर लिया था, पर अभी तक प्रेमशंकर को अपना वह प्रस्ताव सभा में पेश करने का साहस न हुआ जो बहुत दिनों से उनके मन में समाया हुआ था और जिसका उद्देश्य यह था कि जमीदारों से असामियों को बेदखल करने का अधिकार ले लिया जाय। वह स्वयं जमींदार घराने के थे, माया जिसे वह पुत्रवत् प्यार करते थे एक बड़ा ताल्लुकेदार हो गया था। ज्वालासिंह भी जमींदार थे। लाला प्रभाशंकर जिनको वह पिता तुल्य समझते थे अपने अधिकारों मे जी भर की कमी भी न सह सकते थे, इन कारणों से वह प्रस्ताव को सभा के सम्मुर लाते हुए सकुचाते थे। यद्यपि सभा मे भूपतियों की संख्या काफी थी और संख्या के देखते दबाव और भी ज्यादा था, पर प्रेमशंकर को सभी को इतना भय न था जितना अपने संबंधियों का, इसके साथ ही अपने कर्तव्य-मार्ग से विचलित होते हुए उनकी आत्मा को दुख होता था। एक दिन वह इसी दुविधा में बैठे हुए थे कि मायाशंकर एक पत्र लिये हुए आया और बोला-- देखिए, बाबू दीपक सिंह सभा में किनना घोर अनर्थ करने का प्रयत्न कर रहे है? वह सभा में इस आशय का प्रस्ताव लानेवाले है कि जमींदारो को असामियों से लगान वसूल करने के लिए ऐसे अधिकार मिलने चाहिए कि वे अपनी इच्छा से जिम असामी को चाहे बेदखल कर दें। उनके विचार में जमींदारो को यह अधिकार मिलने से रुपये वसूल करने में बड़ी सुविधा हो जायगी। प्रेमशकर ने उदासीन भाव से कहा- मैं यह पत्र देख चुका हूँ।
माया–पर आपने इसका कुछ उत्तर नहीं दिया?
प्रेमशकर ने आकाश की ओर ताकते हुए कहा- अभी तो नही दिया।
माया---आप समझते हैं कि सभा में प्रस्ताव स्वीकृत हो जायगा।
प्रेम–हाँ, सम्भव है।
माया–तब तो जमींदार लोग असामियों को कुचल ही डालेंगे।
प्रेम-हाँ, और क्या?
माया--अभी से इस आन्दोलन की जड़ काट देनी चाहिए। आप इस पत्र का जवाब दे दे तो बाबू दीपकसिंह को अपना प्रस्ताव सभा में पेश करने का साहस न हो।
प्रेम-ज्ञानाकर क्या कहेगे।
माया---मैं जहाँ तक समझता हूँ, वह इस प्रस्ताव का समर्थन न करेंगे।
प्रेम-हाँ, मुझे भी ऐसी आशा है।
मायाशंकर चचा की बातो से उनकी चित्त-वृत्ति को ताड़ गये।
वह जब से अपने इलाके का दौरा करके लौटा था, अक्मर कृषको की सुदशा के उपाय सोचा करता। इस विषय की कई किताबे पढ़ी थी और डाक्टर इर्फानअली से भी जिज्ञासा करता रहता था। प्रेमशंकर को असमंजस में देख कर उसे बहुत खेद हुआ। बहू उनसे तो और कुछ न कह सका, पर उन पत्र को प्रतिवाद करने के लिए उसका मन अधीर हो गया। आज तक उसने कभी समाचार-पत्रो के लिए कोई लेख न लिखा था। डरता था, लिखते बने या न बने, सम्पादक छापे या न छापे। दो-तीन दिन वह इसी आगा-पीछा में पड़ी रहा। अन्त में उसने उत्तर लिखा और कुछ सकुचाते, कुछ डरने डाक्टर इर्फानअली को दिखाने ले गया। डाक्टर महोदय ने लेख पढ़ा तो, चकित हो कर पूछा---यह सब तुम्ही ने लिखा है?
माया—जी हां, लिखा तो है, पर बना नहीं।
इर्फान-बाह इससे अच्छा तो मैं भी नहीं लिख सकता है यह सिफत तुम्हे बाबू ज्ञानशंकर से विरासत में मिली है।
माया- तो भेज दें, छप जायेगा?
इफन छपेगा क्यों नहीं? मैं खुद भेज देता हूँ।
प्रेमशंकर रोज पत्रों को ध्यान से देखते कि दीपकसिंह के पत्र का किसी ने उत्तर दिया या नहीं, पर आठ-दस दिन बीत गये और आशा न पूरी हुई। कई बार उनकी इच्छा हुई कि कल्पित नाम से इस लेख का उत्तर दें, लेकिन कुछ तो अवकाश न मिला, कुछ चित्त की दशा अनिश्चित रहीं, न लिख सके। बारहवें दिन उन्होंने पत्र खोला तो मायाशंकर का लेख नजर आया। आद्योपान्त पढ़ गये। हृदय में एक गौरवपूर्ण उल्लास का आवेग हुआ। तुरन्त श्रद्धा के पास गये और लेख पढ़ सुनाया। फिर इर्फानअली के पास गये। उन्होंने पूछा---कोई खबर है क्या?
प्रेम---आपने देखा नहीं, माय ने दीपकसिंह के पत्र का कैसा युक्तिपूर्ण उत्तर दिया है।
इफन-जी हाँ, देखा। मैं तो आपसे पूछने आ रहा था कि यह माया ने ही। लिखा है या आपने कुछ मदद की है?
प्रेम-मुझे तो खबर भी नहीं, उसी ने लिखा होगा।
इन–तो उसको मुबारकबाद देनी चाहिए, बुलाऊँ!
प्रेम-जी नहीं। उसके इस जोश को दबाने की जरूरत है। ज्ञानशंकर यह लेख देख कर रोयेंगे। सारा इलज़ाम मेरे अपर आयेगा। कहेंगे कि आपने लड़के को बहका दिया, पर मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि मैंने उसे यह पत्र लिखने के लिए इशारा तक नहीं किया। इसी बदनामी के डर से मैंने खुद नही लिखी।
इर्फान- आप यह इल्जाम मेरे सिर पर रख दीजिएगा। मैं बड़ी स्तुची से इसे ले लूँगा।
प्रेम–कल उनका कोप-पत्र आ जायगा। माया ने मेरे साथ अच्छा सलूक नहीं किया!
इर्फान---भाभी साहिबा का क्या ख्याल है?
प्रेम-उनकी कुछ न पूछिए। वह तो इस खुशी में दावत करना चाहती है।
प्रेमशंकर का अनुमान अक्षरश सत्य निकला तीसरे दिन ज्ञानशकर का कोप-पत्र आ पहुँचा। आशय भी यही था--मुझे आपसे ऐसी आशा न थी। साम्यवाद के पाठ पढ़ा कर अपने सरल बालक पर घोर अत्याचार किया है। उसका अठारहवाँ वर्ष पूरा हो रहा है। उसे शीघ्र ही अपने इलाके का शासनाधिकार मिलनेवाली हैं। मैं इस महीने के अन्त तक इन्ही तैयारियों के लिए आनेवाला हूँ। हिज़ एक्सलेन्सी गवर्नर महोदय स्वय राज्य तिलक देने के लिए पधारने वाले हैं। उस मृदु संगीत को इस बेसुरै राग ने चौपट कर दिया। आपको अपने प्रजावाद का बीज किसी और खेत में बोना चाहिए था। आपने अपने शिक्षाधिकार का खेदजनक दुरुपयोग किया है। अब मुझपर दया कर माया को मेरे पास भेज दीजिए। मैं नहीं चाहता कि अब वह एक क्षण भी वहाँ और रहे। अभिषेक तक मैं उसे अपने साथ रखूँगा। मुझे भय है कि वहाँ रह कर वह कोई और उपद्रव न कर बैठे. अस्तु।
सन्ध्या की गाड़ी से मायाशंकर ने लखनऊ को प्रस्थान किया। महाशय ज्ञानशंकर का भवन आज किसी कवि कल्पना की भाँति अलंकृत हो रहा है। आज वह दिन आ गया है जिसके इन्तजार में एक युग बीत गया। प्रभुत्व और ऐश्वर्य का मनोहर स्वप्न पूरा हो गया है। मायाशंकर के तिलकोत्सव का शुभमुहर्त को पहुंचा है। बंगले के सामने एक विशाल, प्रशस्त मंडप तना हुआ है। उसकी सजावट के लिए लखनऊ के चतुर फर्राश बुलाये गये हैं। मंच गंगाजमुनी कुर्सियो से जगमगा रहा है। चारो तरफ अनुपम शोभा है। गोरखपुर, लखनऊ और बनारस के मान्य पुरुष उपस्थित हैं। दीवानखाना, मकान, बंगला सब मेहमानों से भरा हुआ है। एक और फौजी बाबा है, दूसरी ओर बनारस के कुशल शहनाईवाले बैठे हैं। एक दूसरे शामियाने में नाटक खेलने की तैयारियां हो रही हैं। मित्र-भवन के छात्र अपना अभिनय कौशल दिखायेगे। डाक्टर प्रियनाथ का संगीत समाज अपने जौहर दिखायेंगे। लाला प्रभाशंकर मेहमानों के आदर-सत्कार में प्रवृत्त है। दोनो रियासतो के देहातो से सैकड़ो नम्बरदार और मुखिया आये हुए हैं। लखनपुर ने भी अपने प्रतिनिधि भेजे है। ये सब ग्रामीण सज्जन प्रेमशंकर के मेहमान हैं। कादिर खाँ, दुखरन भगत, डपटसिंह सब आज केशरिया बाना धारण किये हुए है। वे आज अपने कारावास जीवन पर नकल करेंगे। सैयद ईजाद हुसेन ने एक जोरदार कसीदा लिखा है। इत्तहादी यतीमखाने के लड़के हरी-हरी कडियाँ लिए मायाशंकर का स्वागत करने के लिए खड़े हैं। अँगरेज मेहमानों का स्थान अलग है। वे भी एक-एक करके आते-जाते हैं। उनके सेवा-सत्कार को भार डाक्टर इर्फानअली ने लिया है। उन लोगो के मनोरंजन के लिए प्रोफेसर रिचर्डसन कलकत्ते से बुलाये गये हैं जिनका गान विद्या में कोई सानी नहीं है। बाबू ज्ञानशंकर गवर्नर महोदय के स्वागत की तैयारियों में मग्न है।
सन्ध्या का समय था। बसन्त की शुभ्र, सुखदा समीर चल रही थी। लोग गवर्नर का स्वागत करने के लिए स्टेशन की तरफ चले। ज्ञानशंकर का हाथी सबसे आगे था। पीछे-पीछे बैंड बजता जा रहा था। स्टेशन पर पहले से ही फूलों की ढेर लगा दिया गया था। ज्यों ही गवर्नर की स्पेशल आयी और वह गाड़ी से उतरे, उन पर फूलों की वर्षा हुई। उन्हें एक सुसज्जित फिटन पर बिठाया गया। जलूस चला। आगे-आगे हाथियों की माली थी। उसके पीछे राजपूतो की एक रेजीमेंट थी। फौज के बाद गवर्नर महोदय की फिटन थी जिस पर कारचोबी का छत्र लगा हुआ था। फिटन के पीछे शहर के रईसो की सवारियों थी। उनके बाद पुलिस के सवारी की एक टोली थी। सबसे पीछे बाजे थे। यह जलूस नगर की मुख्य सड़को पर होता हुआ, चिराग जलते-जलते ज्ञानशंकर के मकान पर आ पहुँचा। हिज़ एक्सेलेन्सी महाराज गुरुदत्तराय चौधरी फिटन से उतरे और मंच पर आ कर अपनी निद्दिष्ट कुर्मी पर विराजमान हो गये। विद्युत के उज्ज्वल प्रकाश में उनकी विशाल प्रतिभासम्पन्न मूत्त, गंभीर, तेजमय ऐसी मालूम होती थीं मानो स्वर्ग से कोई दिव्य आत्मा उतर आयी हो। केसरिया
कार्यवाही आरम्भ हुई। मगलगान के बाद पंडित श्रीनिवास वेदाचार्य ने ईश्वरप्रार्थना की। तब सैयद ईजाद हुसेन ने अपना जौरदार कसीदा पढ़ा जिसकी श्रोता ने खूब प्रशंसा की। उनके बैठते ही यतीमखाने के बालको ने गवर्नर महोदय को गुणानुवाद गाया। उनके स्वर लालित्य पर लोग मुग्ध हो गये। तब बाबू ज्ञानशंकर उठे और अपना प्रभावशाली अभिनदन-पत्र पढ़ सुनाया। उसकी भाषा और भाव दोनों ही निर्दोष थे। डाक्टर इर्फानअली ने हिंदुस्तानी भाषा में उसका अनुवाद किया। तब महाराज साहब उसका उत्तर देने के लिए खड़े हुए। उन्होंने पहले ज्ञानशंकर और और अन्य रईसो को धन्यवाद दिया, दो-चार मार्मिक वाक्यो में ज्ञानशकर की कार्यपटुता और योग्यता की प्रशंसा की, राय कमालानद और रानी गायत्री के सुयश और सुकीर्ति, प्रजा-रंजन और आत्मोत्सर्ग का उल्लेख किया। तब माया शंकर को संबोधित करके उसके सौभाग्य पर हर्ष प्रकट किया। वक्तृता के शेष भाग भी मायाशंकर की कर्तव्य और सुनीति का उपदेश दिया, अन्त में आशा प्रकट की कि वह अपने देश, जाति और राज्य का भक्त और समाज का भूषण बनेगा।
तब मायाशंकर उत्तर देने के लिए उठा। उसके पैर काँप रहे थे और छाती में जोर की धड़कन हो रही थी। उसे भय होता था कि कही मैं घबरा कर बैठ न जाऊँ। उसका दिल बैठा जाता था। ज्ञानशंकर ने पहले से ही उसे तैयार कर रखा था। उसर लिख कर याद करा दिया था, पर मायाशंकर के मन में कुछ और ही भाव थे। उसने अपने विचारों का जो क्रम स्थिर कर रखा था वह छिन्न-भिन्न हो गया था। एक क्षण तक वह हतबुद्धि बना अपने विचारों को संभालता रहा, कैसे शुरू करू, क्या कहूँ? प्रेमशंकर सामने बैठे हुए उसके संकट पर अधीर हो रहे थे। सहसा मायाशंकर की निगाह उन पर पड़ गयी। इस निगाह ने उसपर वही काम किया जो रुकी हुई गाड़ी पर ललकार करती है। उसकी वाणी आग्रत हो गयी। ईश्वर-प्रार्थना और उपस्थित महानुभावों को धन्यवाद देने के बाद बोला -
महाराज साहब, मैं उन अमूल्य उपदेशो के लिए अन्त करण से आपका अनुगृहीत हैं जो आपने मेरे आनेवाले कर्तव्यों के विषय में प्रदान किये है। और आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं यथासाध्य उन्हे कार्य में परिणत करूंगा। महोदय ने कहा है कि ताल्लुकेदार अपनी प्रजा का मित्र, गुरु और सहायक है। मैं बड़ी विनय के साथ निवेदन करूंगा कि वह इतना ही नहीं, कुछ और भी है, वह अपने प्रजा का सेवक भी है। यही उसके अस्तित्व का उद्देश्य और हेतु है अन्यथा संसार में उसकी कोई जरूरत ने थी, उसके बिना समाज के सगठन में कोई बाधा न पड़ती। वह इसलिए नहीं है। कि प्रजा के पसीने की कमाई को विलास और विषय-भोग में उहायें, उनके टूटे-फूटे झोपडो के सामने अपना ऊँचा महल बड़ा करे, उनकी नम्रता को अपने रत्नजटित बस्त्रो से अपमानित करे, उनकी संतोषमय सरलता को अपने पार्थिव वैभव से लज्जित करें, अपनी स्वाद-लिप्स से उनकी क्षुधा-पीद्धा का उपहास करे। अपने स्वत्वो पर जान देता हो; पर अपने कर्तव्य से अनभिज्ञ हो। ऐसे निरङ्कुश प्राणियों से प्रजा की जितनी जल्द मुक्ति हो, उनका भार प्रज्ञा के सिर में जितनी ही जल्द दूर हो उतना ही अच्छा हो।
विज्ञ सज्जनो, मुझे यह मिथ्याभिमान नहीं है कि मैं इन इलाको का मालिक हूँ। पूर्व संस्कार और सौभाग्य ने मुझे ऐसी पवित्र, उन्नत, दिव्य आत्माओ की संत्सगति से उपकृत होने का अवसर दिया है कि अगर यह भ्रम, यह महत्त्व एक क्षण के लिए मेरे मन में आता तो मैं अपने को अघम और अक्षम्य समझता। भूमि या तो ईश्वर की है जिसने इसकी सृष्टि की या किसान की जो ईश्वरीय इच्छा के अनुसार इसका उपयोग करता है। राजा देश की रक्षा करता है इसलिए उसे किसानो से कर लेने का अधिकार है, चाहे प्रत्यक्ष रूप में ले या कोई इससे कम आपत्तिजनक व्यवस्था करे। अगर किसी अन्य वर्ग या श्रेणी को मीरास, मिल्कियत, जायदाद, अधिकार के नाम पर किसानों को अपना भौग्य-पदार्थ बनाने की स्वच्छन्दता दी जाती है तो इस प्रथा को वर्तमान समाज-व्यवस्था की झलक चिह्न समझना चाहिए।
ज्ञानशंकर के मुँह पर हवाइयां उड़ने लगी। गवर्नर साहब ने भी अनिच्छा भाव से पहलू बदला, रईसो इशारे होने लगे। लोग चकित थे कि इन बातों का अभिप्राय क्या है? प्रेमशंकर तो मारे शर्म के गड़े जाते थे। हाँ, डाक्टर इर्फानअली और ज्वालासिंह के चेहरे खिले पड़ते थे।
मायाशंकर ने जरा दम ले कर फिर कहा -
मुझे भय है कि मेरी बाते कही तो अनुपयुक्त और समय विरुद्ध और कही क्रांतिकारी और विद्रोहमय समझी जायेंगी, लेकिन यह भय मुझे उन विचारों के प्रकट करने से रोक नहीं सकता को मेरे अनुभव के फल हैं और जिन्हें कार्यरूप में लाने का मुझे सुअवसर मिला है। मेरी धारणा है कि मुझे किसानो की गर्दन पर अपनी जुआ रखने का कोई अधिकार नहीं है। यह मेरी नैतिक दुर्बलता और भीरुता होगी, अगर मैं अपने सिद्धांत का भोग-लिप्सा पर बलिदान कर दें। अपनी ही दृष्टि में पतित हो कर कौन जीना पसन्द करेगा? मैं आप सब सज्जनी के सम्मुख उन अधिकारी और स्वत्वो को त्याग करता हूँ जो प्रथा, नियम और समाज-व्यवस्था ने मुझे दिये हैं। मैं अपनी प्रजा को अपने अधिकारों के बन्धन से मुक्त करता हूँ। वह न मेरे असामी हैं, न मैं उनको ताल्लुकेदार हैं। वह सब सज्जन मेरे मित्र है। मेरे भाई है, आज से वह अपनी जोत के स्वयं जमींदार है। अब उन्हें मेरे कारिन्दों के अन्याय और मेरी स्वार्थ भक्ति की यन्त्रणाएँ न सहनी पड़ेगी। वह इजाफे, एखराज, बेगार की विडम्बनाओं से निवृत्त हो गये। यह न समझिए कि मैंने किसी आवेग के वशीभूत हो कर यह निश्चय किया है। नहीं, मैंने उसी समय यह संकल्प किया जब अपने इलाको का दौरा पूरा कर चुका। आपको मुक्त करके मैं स्वयं मुक्त हो गया। अब मैं अपना स्वामी हैं, मेरी आत्मा स्वच्छन्द है। अब मुझे किसी के सामने घुटने टेकने की जरूरत नहीं। इस दलाली की बदौलत मुझे अपनी आत्मा पर कितने अन्याय करने पड़ते, इसका मुझे कुछ थोड़ा अनुभव हो चुका है। मैं ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ कि उसने मुझे इस आत्म-पतन से बचा लिया। मेरा अपने समस्त भाइयों से निवेदन है कि वह एक महीने के अन्दर मेरे मुखतार के पास जा कर अपने अपने हिस्से का सरकारी लगान पूछ ले और वह रकम खजाने में जमा कर दे। मैं श्रद्धेय डाक्टर इर्फानअली से प्रार्थना करता हूँ कि वह इस विषय में मेरी सहायता करे और जाब्ते और कानून की जटिल समस्याओं को हल करने की व्यवस्था करें। मुझे आशा है कि मेरा समस्त भ्रातृवर्ग आपस में प्रेम से रहेगा और जरा-जरा सी बातो के लिए अदालत की शरण न लेंगे। परमात्मा आपके हृदय मे सहिष्णुता, सद्भाव और सुविचार उत्पन्न करे और आपको अपने नये कर्तव्यो का पालन करने की क्षमता प्रदान करें। हाँ, मैं यह जता देना चाहता हूँ कि आप अपनी जमीन असामियों को नफे पर न उठा सकेंगे। यदि आप ऐसा करेगे तो मेरे। साथ घोर अन्याय होगा, क्योंकि जिन बुराइयों को मिटाना चाहता हूँ, आप उन्ही का प्रचार करेंगे। आपको प्रतिज्ञा करनी पड़ेगी कि आप किसी दशा में भी इस व्यवहार से लाभ न उठायेगे, असामियों से नफा लेना हराम समझेंगे।
मायाशंकर ज्यो ही अपना कथन समाप्त करके अपनी जगह बैठा कि हजारो आदमी चारो तरफ से आ-आ कर उसके इर्द-गिर्द जमा हो गये। कोई उसके पैरों पर गिरा पड़ता था, कोई रोता था, कोई दुआएं देता था, कोई आनन्द से विह्वल हो कर उछल रहा था। आज उन्हें वह अमूल्य वस्तु मिल गयी थी जिसकी वह स्वप्न में भी कल्पना ने कर सकते थे। दीन किसान को जमींदार बनने का हौसला कहाँ? सैकडो आदमी गवर्नर महोदय के पैरों पर गिर पड़े, कितने ही लोग बाबू ज्ञानशंकर के पैरो से लिपट गये। शामियाने में हलचल मच गयी। लोग आपस में एक-दूसरे से गले मिलते थे। और अपने भाग्य को सराहते थे। प्रेमशंकर सिर झुकाये चुपचाप खड़े थे, मानो किसी गहरे विचार में डूबे हुए हो, लेकिन उनके अन्य मित्र खुशी से फूले न समाते थे। उनकी सगवं आँखे कह रही थी कि यह हमारी संगति और शिक्षा का फल है, हमको भी इसका कुछ श्रेय मिलना चाहिए। रईसो के प्राण संकट में पड़े हुए थे। आश्चर्य से एक दूसरे का मुँह ताकते थे, मानो अपने कानो और आँखो पर विश्वास न आता हो। कई विद्वान इस प्रश्न पर अपने विचार प्रकट करने के लिए आतुर हो रहे थे, पर यहाँ उसका अवसर न था।
गवर्नर महोदय बड़े असमंजस में पड़े हुए थे इस कथन का किन शब्दो में उत्तर दें? वह दिल मे मायाशंकर के महान् त्याग की प्रशंसा कर रहे थे, पर उसे प्रकट करते हुए उन्हे भय होता था कि अन्य ताल्लुकेदारो और रईसो को बुरा न लगे। इसके साथ ही नृप रहना मायाशंकर के इस महान् यश का अपमान करना था। उन्हें मायाशंकर से वह प्रेममय श्रद्धा हो गयी थी, जो पुनीत आत्माओं का भाग है। खडे हो कर मृदु स्वर में बोले
वाबू मायाशंकर। यद्यपि हममें से अधिकाश सज्जन उन सिद्धान्तो के कायल न होगे जिससे प्रेरित हो कर आपने यह अलौकिक संतोष व्रत धारण किया है, पर जो पुरुष सर्वथा हृदय-शून्य नहीं है वह अवश्य आते देव तुल्य समझेगा। सम्भव है कि जीवन-पर्यन्त सुख भोगने के बाद किसी को वैराग्य हो जाये, किन्तु जिस युवक ने अभी प्रभुत्व और वैभव के मनोहर, सुखद उपवन में प्रवेश किया उसका यह त्याग आश्चर्यजनक हैं। पर यदि बाबू साहब को बुरा न लगे तो मैं कहूँगा कि समाज की कोई व्यवस्था केवल सिद्धान्तों के आधार पर निर्दोष नहीं हो सकती, चाहे वे सिद्धान्त कितने ही उच्च और पवित्र हो। उसकी उन्नति मानव चरित्र के अधीन है। एकाधिपतियो में देवता हो गये हैं और प्रजावादियों में भयंकर राक्षस। आप जैसे उदार, विवेकशील, दयालु स्वामी की जात से प्रजा का कितना उपकार हो सकता था। आप उनके पथदर्शक बन सकते थे। अब वह प्रजा हित-साधनो से वंचित हो जायगी, लेकिन मैं इन कुत्सित विचारों से आपको भ्रम में नहीं डालना चाहता। शुभ कार्य सदैव ईश्वर की ओर से होते है। यह भी ईश्वरीय इच्छा है और हमें आशा करनी चाहिए कि इसका फल अनुकूल होगा। मैं परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ कि वह इन न जमीदारो का कल्याण करे और आपकी कीर्ति अमर हो।
इधर तो मित्र-भवन की महल नाटक खेल रही थी, मस्ताने की ताने और प्रियनाथ की सरोद-ध्वनि रग-भवन मे गूंज रही थी, उधर बाबू ज्ञानशंकर नैराश्य के उन्मत्त आवेश मे गंगातट की ओर लपके चले जाते थे जैसे कोई टूटी हुई नौका जल-तरगो में बहती चली जाती हो। आज प्रारब्ध ने उन्हें परास्त कर दिया। अब तक उन्होने सदैव प्रारब्ध पर विजय पायी थी। आज पासा पलट गया और ऐसा पला कि सँभलने की कोई आशा न थी। अभी एक क्षण पहले उनका भाग्य-भवन जगमगाते हुए दीपको से प्रदीप्त हो रहा था, पर वायु के एक प्रचंड झौके ने उन दीपको को बुझा दिया। अब उनके चारों तरफ गहरा, घना, भयावह अँधेरा था जहाँ कुछ न सूझता था।
वह सोचते चले जाते थे, क्या इसी उद्देश्य के लिए मैंने अपना जीवन समर्पण किया? क्या अपनी नाव इसी लिए बोझी थी कि वह जलमग्न हो जाय?
हा वैभव लालमा! तेरी बलि वेदी पर मैंने क्या नहीं चढ़ाया? अपना धर्म, अपनी आत्मा तक भेंट कर दी। हां! तेरे भाड़ में मैंने क्यों नहीं झोका? अपना मन, वचन, कर्म सब कुछ आहुति कर दी। क्या इसी लिए कि कालिमा के सिवा और कुछ हाथ न लगे।
मायाशंकर का कसूर नहीं, प्रेमशंकर को दोष नहीं, यह सब मेरे प्रारब्ध की कूटलीला है। मैं समझता था मैं स्वयं अपना विधाता हूँ। विद्वानो ने भी ऐसा ही कहा है, पर आज मालूम हुआ कि मैं इसके हाथो का खिलौना था। उसके इशारो पर नाचनेवाली कठपुतली था। जैसे बिल्लीं चूहे को खेलाती हैं, जैसे मछुआ मछली को खेलता है उसी भाँति इसने मुझे अभी तक खेलाया। कभी पंजे में धीरे से पकड़ लेता था, कभी छोड़ देता था। जरा देर के लिए उसके पंजे में छूट कर मैं सोचता था उस पर विजय पायी, पर आज उस खेल का अन्त हो गया, बिल्ली ने गर्दन दबा दी, मछुए में बसी खीच ली। मनुष्य कितना दीन, कितना परवश हैं। भावी कितनी प्रबल, कितनी कठोर।
जो तिमंजिला भवन मैंने एक युग में अविश्रान्त उद्योग से खड़ा किया वह क्षणमात्र में इस भाँति भूमिस्थ हो गया मानो उसका अस्तित्व न था, मका चिह्न तक नहीं दिखायी देता। क्या वह विशाल अट्टालिका भावी की केवल माया रचना थी?
हाँ। जीवन कितना निरर्थक सिद्ध हुआ। विषय-लिप्सा, तूने मुझे कहीं का न रहा। मैं आँख तेज करके तैरे पीछे-पीछे चला और तूने मुझे इस घातक अँधेर में डाल दिया।
मैं अब किसी को मुँह दिखाने योग्य नही रही। सम्पत्ति, मान, अधिकार किसी का शौक नहीं। इसके बिना भी आदमी मुली रह सकता है, बल्कि सच पूछो तो सुन्छ इनसे मुक्त रहने में ही है। लोक यह है कि मैं अल्पाश में भी इस यज्ञ का भागी नही बन सकता। लोग इसे मेरे विषय-प्रेम की यन्त्रणा समझेगें। कहेगे कि बेटे ने बाप का कैसा मान-मर्दन किया, कैसी फटकार बतायी? यह व्यंग, यह अपमान कौन सहेगा? हा! मुझे पहले से इन अन्त का ज्ञान हो जाता तो आज मैं पूज्य समझा जाता, त्यागी पुत्र का वर्मज्ञ पिता कहलाने का गौरव प्राप्त करता। प्रारब्ध ने कैसा गुप्ताघात किया। अब क्यों जिन्दा हूँ। इसलिए कि तू मेरी दुर्गति और उपहास पर खुश हो, मेरी प्राणपीड़ा पर तालियाँ बजाये! नही, अभी इतना लज्जाहीन, इतना बेहया नही हूँ।
हा! विद्या! मैंने तेरे साथ कितना अत्याचार किया। तू सती थी, मैंने तुझे पैरो तले रौंदा। मेरी बुद्धि कितनी भ्रष्ट हो गयी थी। देवी, इस पतित आत्मा पर दया कर।
इन्हीं दुःखमय भावो में डूबे हुए ज्ञानशंकर नदी के किनारे आ पहुँचे। घाटो पर इधर-उधर साँई बैठे हुए थे। नदी को मलिन, मध्यम स्वर नीरवता को और भी नीरव बना रहा था। ज्ञानशंकर ने नदी को कातर नेत्रो से देखा। उनका शरीर काँप उठा, वह रोने लगे। उनका दुख नदी से कही अपार था।
जीवन की घटनाएँ सिनेमा चित्रो के सदृश्य उनके सामने मूर्तिमान हो गयी। उनकी कुटिलताएँ आकाश के तारागण से भी उज्ज्वल थी। उनके मन ने प्रश्न किया, क्या मरने के सिवा और कोई उपाय नहीं है?
नैराश्य ने कहा, नही, कोई उपाय नहीं! वह घाट के एक पील पाये पर जा कर खड़े हो गये। दोनों हाथ तौले, जैसे चिडिया पर तौलती हैं, पर पैर न उठे।
मन ने कहा, तुम भी प्रेमाश्रम में क्यों नही चले जाते? ग्लानि ने जवाब दिया, कौन मुँह ले कर जाऊँ? मरना तो नहीं चाहता, पर जीऊँ कैसे? हाय मैं जबरन मारा जा रहा हूँ। यह सोच कर ज्ञानशंकर जोर से रो उठे। आँसू की झड़ी लग गयी। शोक और भी अथाह हो गया। चित्त की समस्त वृत्तियाँ इस अथाह शोक में निमग्न हो गयी। धरती और आकाश, जल और थल सब इसी शौक-सागर में समा गये।
वह एक अचेत, शून्य दशा में उठे और गंगा में कूद पड़े। शीतल जल ने हृदय को शान्त कर दिया।
उपसंहार
दो साल हो गये है। सन्ध्या का समय है। बाबू मायाशंकर घोड़े पर सवार लखनपुर में दाखिल हुए। उन्हें वहाँ बड़ी रौनक और सफाई दिखायी दी। प्राय सभी द्वारो पर सायबान थे। उनमें बड़े-बड़े तख्ते बिछे हुए थे। अधिकांश घरो पर सुफेदी हो गयी थी। फूस के झोपडे गायब हो गये थे। अब सब घरो पर खपरैल थे। द्वारो पर बैल के लिए पक्की घरनियाँ बनी हुई थी और कईं द्वारों पर घोडे बँधे हुए नजर आते थे। पुराने चौपाल में पाठशाली थी और उसके सामने एक पक्का कुँआ और धर्मशाला थी। मायाशंकर को देखते ही लोग अपने-अपने काम छोड़ कर दौड़े और एक क्षण में सैकड़ो आदमी जमा हो गये। मायाशंकर सुक्खू चौधरी के मन्दिर पर रुके। वहाँ इस वक्त बड़ी बहार थी। मन्दिर के सामने सहन ने भाँति-भाँति के फूल खिले हुए थे। चबूतरे पर चौघरी बैठे हुए रामायण पढ़ रहे थे और कई स्त्रियों बैठी हुई सुन रथी। मायाशंकर घोड़े से उतर कर चबूतरे पर जा बैठे।
सुखदास हुकबका कर खड़े हो गये और पूछा-सब कुशल है न? क्या अभी चले आ रहे हैं?
माया–हाँ, मैंने कहा चलू तुम लोगो से भेद-भाँट करता आऊँ।
सुख-बड़ी कृपा कीं। हमारे धन्य-भाग कि घर बैठे स्वामी के दर्शन होते है। यह कह कर वह लपके हुए घर में गये, एक ऊनी कालीन ला कर बिछा दी, कल्से में पानी खीच और शरबत घोलने लगे। मायाशंकर ने मुँह-हाथ धोया, शरबत पीया, घोड़े की लगाम उतार रहे थे कि कादिरखाँ ने ओ कर सलाम किया। माया ने कहा, कहिए खाँ साहब, मिजाज तो अच्छा है? कादिर-सब अल्लाताला का फजल है। तुम्हारे जान-माल की खैर मनाया करते हैं। आज वो रहना होगा न?
माया---यही इरादा करके तो चला हूँ।
थोड़ी देर में वहाँ गाँव के सब छोटे-बड़े आ पहुँचे। इधर-उधर की बातें होने लगी। कादिर ने पूछा-बेटा, आजकल कौसिल में क्या हो रहा है? असामियों पर कुछ निगाह होने की आशा है या नहीं?
माया-हाँ, है। चचा साहब और उनके मित्र लोग बड़ा जोर लगा रहे है। आशा है कि जल्दी ही कुछ न कुछ नतीजा निकलेगा।
कादिर—अल्लाह उनकी मेहनत सुफल करे। और क्या दुआ दे? रो-रो से तो दुआ निकल रहीं है। काश्तकारो की दशा बहुत कुछ सुधरी है। बेटा, मुझी को देखो। पहले वीस बीघे का काश्तकार था, १०० रु० लगान देना पड़ता था। दस-बीस रुपये साल नजराने में निकल जाते थे। अब जुमला २० रु० लगान है और नजराना नहीं लगता। पहले अनाज खलिहान से घर तक न आता था। आपके चपरासी-कारिन्दे वही गला दबा कर तुलवा लेते थे। अब अनाज घर मे भरते है और सुभीते से बेचते है। दो साल में कुछ नहीं तो तीन-चार सौ बचे होगे। डेढ सौ की एक जोडी बैल लायें, घर की मरम्मत करायी, सायवान डाला, हाँडियो की जगह तावे और पीतल के बर्तन लिए। और सबसे बड़ी बात यह है कि अब किसी की घौस नहीं। मालगुजारी दाखिल करके चुपके घर चले आते है। नहीं तो हर दम जान सूली पर चढी रहती थी। अब अल्लाह की इबादत में भी जी लगता है, नहीं तो नमाज भी बोझ मालूम होती थी।
माया-तुम्हारा क्या हाल है दुखरन भगत।
दुखरन–भैया, अब तुम्हारे अकवाल से सब कुशल है। अब जान पड़ता है। कि इम भी आदमी हैं, नही तो पहले बैलो से भी गये बीते थे। बैल तो हर से आता है तो आराम से भोजन करके सो जाता है। यहाँ हर से आकर बैल की फिकिर करनी पड़ती थी। उससे छुट्टी मिली तो कारिन्दै साहब की खुशामद करने जाते। वहाँ से दसग्यारह बजे लौटते, तो भोजन मिलता। १५ बीघे का काश्तकार था। १० बीघे मौल्स थे। उनके ५० रु० लगान देता था। ५ बीधे सिकमी जोतते थे। उनके ६० रु० देने पडते थे। अब १५ बीघे के कुल ३० रु० देने पड़ते हैं। हरी-बेगारी, गजर-नियाज़ सबसे गला छूटा। दो साल में तीन-चार सौ हाथ में हो गये। १०० ९७ की एक पछाही भैसे लाया हूँ। कुछ करना था, चुका दिया।
सुखदास-—और तबला-हारमोनियम लिया है, वह क्यों नहीं कहते? एक पक्का कुआँ बनवाया है उसे क्यो छिपाते हो? भैया, यह पहले ठाकुर जी के बड़े भगत थे। एक बार वेगार में पकड़े गये वो आकर ठाकुर जी पर क्रोध उतारा। उनकी प्रतिमा को तोड़-ताड कर फेंक दिया। अब फिर ठाकुर जी के चरणों में इनकी श्रद्धा हुई है। भजन-कीर्तन का सच सामान इन्होने मँगवाया है!
दुखरन--छिपा क्यों? मालिक से कौन परदा? यह सब उन्ही का अकवाल तो है। माया- यह बाते चचा जी सुनते, तो फुले न समाते।
कल्लू-भैया, जो सच पूछो तो चाँदी मेरी है। एक से राषा हो गया। पहले ६ बीघे का आसामी था, सब सिकमी, ७२ रु० लगान के देने पड़ते थे, उस पर हरदम गौसमियाँ की चिरौरी किया करता था कि कही खेत न छीन ले। ५० रु० खाली नजराना लगता था। पियादो की पूजा अलग करनी पड़ती थीं। अब कुल ९ रु० लगान देता हैं। दो साल में आदमी बन गयो। फूस के झोपड़े में रहता था, अब की मकान बनवा लया है। पहले हरदम घरका लगा रहता था कि कोई कारिन्दे से मेरी चुगली न कर आया हो। अब आनन्द से मीठी नींद सोता हैं और तुम्हारा जस गाता हूँ।
माया--(सुक्खू चौधरी से) तुम्हारी खेती तो सब मजदूरों से ही होती होगी। तुम्हे भजन-भाव से कहीं छुट्टी?
सुक्खू--(हँस कर) भैया, मुझे अब खेती-बारी करके क्या करना हैं। अब तो यही अभिलाषा है कि भगवत-भजन करते-करते यहाँ से सिधार जाऊँ। मैंने अपने चालीसो बीघे उन बेचारो को दे दिये है जिनके हिस्से में कुछ न पड़ा था। इस तरह सात-आठ घर जो पहले मजूरी करते थे और बेगार के मारे मजूरी भी न करने पाते थे, अब भले आदमी हो गये। मेरा अपना निर्वाह भिक्षा से हो जाता है। हाँ, इच्छापूर्ण भिक्षा यही मिल जाती है, किसी दूसरे गाँव में पेट के लिए नहीं जाना पड़ता। दो-चार साधु-संत नित्य ही आते रहते है। उसी भिक्षा में उनका सत्कार भी हो जाता है।
माया–आज बिसेसर साह नही दिखायी देते।
सुक्लू---किसी काम से गये होगें। वह भी अब पहले से मजे में है। दूकान बहुत बढ़ा दी है, लेन-देन कम करते है। पहले रुपये में आने से कम ब्याज न लेते थे। और करते क्या? कितने ही असामियों से कौड़ी वसूल न होती थी। रुपये मारे पड़ते थे। उसकी कसर ब्याज से निकालते थे। अब रुपये सैकड़े व्याज देते हैं। किसी के यहाँ रुपये डूबने का डर नहीं है। दुकान भी अच्छी चलती है। लश्करो मे पहले दिवाला निकल जाता था। अब एक तो गाँव का बल है, कोई रोब नहीं जमा सकता और जो कुछ थोड़ा बहुत घाटा हुआ भी तो गाँववाले पूरा कर देते हैं। इतने में बलराज रेशमी साफा बाँधे, मिर्जेई पहने, घोड़े पर सवार आता दिखायी दिया। मायाशंकर को देखते ही बेधड़क घोड़े पर से कूद पड़ी और उनके चरण स्पर्श किये। वह अब जिला-सभा का सदस्य था। उसी के जल्से से लौटा आ रहा था।
माया ने मुस्करा कर पूछा-कहिए मैम्बर साहब, क्या खबर है।
बलराज-हजूर की दुआ से अच्छी तरह हैं। आप तो मजे में है। बोर्ड के जल्से में गया था। बहस छिड़ गयी, वही चिराग जल गया।
माया-आज बोर्ड में क्या था?
बलराज बही वेगार का प्रश्न छिड़ा हुआ था। खूब गर्मागर्म बहस हुई। मेरा प्रस्ताव था कि जिले का कोई हाकिम देहात में जा कर गांववालों से किसी तरह की खिदमत का काम न ले, जैसे पानी भरना, घास छीलना, झाड़े लगाना। जो रसद दरकार हो वह गाँव के मुखिया से कह दी जाय और बाजार भाव है उसी दम दाम चुका दिया जाय। इस पर दोनों तहसीलदार और कई हुक्काम बहुत भन्नाये। कहने लगे, इससे सरकारी काम में बड़ा हर्ज होगा। मैंने भी जी तौल कर जो कुछ कहते बना, कहा। सरकारी काम प्रजा को कष्ट दे कर और उनका अपमान करके नहीं होना चाहिए। हर्ज होता है तो हो। दिल्लगी यह है कि कई जमीदार भी हुक्काम के पक्ष में थे। मैंने उन ठोगो की खूब खबर ली। अन्त में मेरा प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। देखे। जिलाधीश क्या फैसला करते है। मेरा एक प्रस्ताव यह भी पा कि निर्जनामा लिखने के लिए एक तब-कमेटी बनायी जाय जिसमें अधिकांश व्यापारी लोग हों। यह नहीं कि तहसीलदार ने कलम उठाया और मनमाना निर्ख लिख कर चलता किया। वह प्रस्ताव भी मंजूर हुआ है।
माया--मैं इन सफलताओ पर तुम्हे बघाई देता हूँ।
बलराज--यह सब आपका अकबाल है। यहाँ पहले कोई अखबार का नाम भी न जानता था। अब कई अच्छे अच्छे पत्र भी आते है। सबेरे आपको अपना वाचनालय दिखाऊँगा। गाँव के लोग यथायोग्य १ रु०, २ रु० मासिक चन्दा देते हैं, नही तो पहले हम लोग मिल कर पत्र मगावे थे तो सारा गाँव विदकता था। जब कोई अफसर दौरे पर आता, कारिन्दा साहब चट उससे भेरी शिकायत करते। अब आपकी दया से गाँव में रामराज है। आपको किसी दूसरे गाँव में पूसा और मुजफ्फरपुर का गेहूं न दिखायी देगा। हम लोगों ने अवनी मिल कर दोनों ठिकान है वीज मँगवाये और डेवढ़ी पैदावार होने की पूरी आया है। पहले यही डर के मारे कोई कपास चौता ही न था। मैंने अबकी मालवा और नागपुर से चीज मँगवाये और गांव में बाँट दिये। खूब कपास हुई। यह सव काम गरीब अशामियों के मान के नहीं हैं जिनको पेट भर भोजन तक नहीं मिलता, सारी पैदावार लगान और महाजन के भेद हो जाती है।
यहीं बाते करते-करते भोजन का समय आ पहुँचा। लौर भोजन करने गये। मायाशंकर ने भी पूरियाँ दूध में मल कर खायी, दुध पिया और वही लेटे। थोड़ी देर में लोग खा-पीकर आ गयें। गाने-बजाने की ठहरी। कल्लू ने गाया। कादिर खों में दौ-तीन पद सुनाये। रामायण का पाठ हुआ। सुखदास ने कबीरपन्थी भजन सुनायै। कल्लू ने एक नकल की। दो-तीन घटे खूब चहल-पहल रही। माया को बड़ा आनन्द आया। उसने भी कई अच्छी चीजें सुनायी। लोग उनके स्वर माधुर्यं पर मुग्ध हो गये।
सहसा बलराज ने कहा-बाबू जी आपने सुना नहीं? मिनी फैजुल्ला पर जो मुकदमा चल रहा था, उसका आज फैसला सुना दिया गया। अपनी पडौसिन बुढिया के घर में घुस कर चोरी की थी। तीन साल की सजा हो गयी।
डपटसिंह ने कहा----बहुत अच्छा। सौ बेत पड़ जाते तो और भी अच्छा होता। यह हम लोगों की आह पड़ी है।
माया--बिन्दा महाराज और कर्तासिंह का भी कहीं पता है?
बलराज जी हाँ निन्दा महाराज तो यही रहते हैं। उनके निर्वाह के लिए हम लोगों ने उन्हें यहाँ का बया बना दिया है। कर्तार पुलिस में भरती हो गये।
दस बजते-बजते लोग बिदा हुए। मायाशंकर ऐसे प्रसन्न थे मानो स्वर्ग में बैठे हुए हैं।
स्वार्थ-सेवी, माया के फन्दों में फँसे हुए मनुष्यों को यह शान्ति, यह सुख, यह आनन्द, यह आत्मोल्लास कहाँ नसीब!