प्रेम-द्वादशी/१० शतरंज के खिलाड़ी

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शतरंज के खिलाड़ी

वाजिदअलीशाह का समय था। लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था । छोटे-बड़े, अमीर-ग़रीब सभी विलासिता में डूबे हुए थे । कोई नृत्य और गान की मजलिस सजाता, तो कोई अफ़ीम की पीनक ही के मज़े लेता था । जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद-प्रमोद का प्राधान्य था । शासन-विभाग में, साहित्य-क्षेत्र में, सामाजिक व्यवस्था में, कला- कौशल में, उद्योग-धन्धों में, आहार-व्यवहार में, सर्वत्र विलासिता व्यात हो रही थी। राजकर्मचारी विषय-वासना में, कविगण प्रेम और विरह के वर्णन में, कारीगर कलाबत्तू और चिकन बनाने में, व्यवसायी सुरमे, इत्र मिस्सी और उबटन का रोज़गार करने में लिप्त थे। सभी की आँखों में विलासिता का मद छाया हुआ था । संसार में क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर न थी। बटेर लड़ रहे हैं । तीतरों की लड़ाई के लिए पाली बदी जा रही है । कहीं चौसर बिछी हुई है ; पौ बारह का शोर मचा हुआ है। कहीं शतरंज का घोर संग्राम छिड़ा हुआ है। राजा से लेकर रंक तक इसी धुन में मस्त थे । यहाँ तक कि फ़कीरों को पैसे मिलते, तो वे रोटियाँ न लेकर अफ़ीम खाते या मदक पीते । शतरंज, ताश, गंजीफा खेलने से बुद्धि तीव्र होती है, विचार-शक्ति का विकास होता है, पेचीदा मसलों को सुलझाने की आदत पड़ती है, ये दलीलें ज़ोर के साथ पेश को जाती थीं (इस सम्प्रदाय के लोगों से दुनिया अब भी नहीं खाली है) ; इसलिए अगर मिर्ज़ा सज्जादअली और मीर रौशनअली अपना अधिकांश समय बुद्धि तीव्र करने में व्यतीत करते थे, तो किसी विचारशील पुरुष को क्या आपत्ति हो सकती थी ? दोनों के पास मौरूसी जागीरें थीं, जीविका की कोई चिन्ता न थी, घर में बैठे चखौतियाँ करते थे । आखिर और करते ही क्या! प्रातःकाल दोनो मित्र नाश्ता करके बिसात बिछाकर बैठ जाते, मुहरे संज जाते, और लड़ाई के दाँव-पेंच होने लगते। फिर खबर न होती [ १४८ ]थी, कि कब दोपहर हुई, कब तीसरा पहर, कब शाम। घर के भीतर से बार-बार बुलावा आता—खाना तैयार है। यहाँ से जवाब मिलता—चलो, आते हैं; दस्तरख्वान बिछाओ। यहाँ तक कि बावरची विवश होकर क़मरे ही में खाना रख जाता था, और दोनो मित्र दोनो काम साथ-साथ करते थे। मिर्ज़ा सज्जादअली के घर में कोई बड़ा-बूढ़ा न था; इसलिए उन्हीं के दीवानखाने में बाज़ियाँ होती थीं; मगर यह बात न थी, कि मिर्ज़ा के घर के और लोग उनके इस व्यवहार से खुश हों। घरवालों का तो कहना ही क्या, महल्लेवाले, घर के नौकर-चाकर तक नित्य द्वेष-पूर्ण टिप्पणियाँ किया करते थे—बड़ा मनहूस खेल है। घर को तबाह कर देता है। खुदा न करे, किसी को इसकी चाट पड़े। आदमी दीन, दुनिया किसी के काम का नहीं रहता, न घर का न घाट का। बुरा रोग है। यहाँ तक कि मिर्ज़ा की बेगम साहब को इससे इतना द्वेष था, कि अवसर खोज-खोजकर पति को लताड़ती थीं; पर उन्हें इसका अवसर मुश्किल से मिलता था। वह सोती ही रहती थीं, तब तक उधर बाज़ी बिछ जाती थी, और रात को जब सो जाती थीं, तब कहीं मिर्ज़ाजी, भीतर आते थे। हाँ, नौकरों पर वह अपना गुस्सा उतारती रहती थीं—क्या पान माँगे हैं? कह दो, आकर ले जायँ। खाने की भी फ़ुरसत नहीं है? ले जाकर खाना सिर पर पटक दो, खायँ, चाहे कुत्ते को खिलावें; पर रूबरू वह भी कुछ न कर सकती थीं। उनको अपने पति से उतना मलाल न था, जितना मीरसाहब से। उन्होंने उनका नाम मीर बिगाड़ू रख छोड़ा था। शायद मिर्ज़ाजी अपनी सफाई देने के लिए सारा इल्ज़ाम मीर साहब ही के सिर थोप देते थे।

एक दिन बेगम साहबा के सिर में दर्द होने लगा। उन्होंने लौंडी से कहा, जाकर मिर्ज़ा साहब को बुला ला। किसी हकीम के यहाँ से दवा लावें। दौड़, जल्दी कर। लौंडी गई, तो मिर्जाजी ने कहा—चल, अभी आते हैं। बेगम साहब का मिज़ाज गरम था। इतनी ताब कहाँ कि उनके सिर में दर्द हो, और पति शतरंज खेलता रहे। चेहरा सुर्ख हो गया। लौंडी ने कहा—जाकर कह, अभी चलिये, नहीं तो वह आप ही हकीम के यहाँ चली जायँगी। मिर्ज़ाजी बड़ी दिलचस्प बाज़ी खेल रहे [ १४९ ]थे; दो ही किस्तों में मीरसाहब को मात हुई जाती थी। झुँझलाकर बोले—क्या ऐसा दम लबों पर है? ज़रा सब्र नहीं होता?

मीर—अरे तो जाकर सुन ही आइये न। औरतें नाजुक़-मिज़ाज होती ही हैं।

मिर्ज़ा—जी हाँ, चला क्यों न जाऊँ! दो किश्तों में आपको मात होती है।

मीर—जनाब, इस भरोसे न रहियेगा। वह चाल सोची है, कि आपके मुहरे धरे रहें, और मात हो जाय; पर जाइये, सुन आइये। क्यों ख्वाहमख्वाह उनका दिल दुखाइयेगा?

मिर्ज़ा—इसी बात पर मात ही करके जाऊँगा।

मीर—मैं खेलूँगा ही नहीं। आप जाकर सुन आइए।

मिर्ज़ा—अरे यार, जाना पड़ेगा हकीम के यहाँ, सिर दर्द खाक नहीं है; मुझे परेशान करने का बहाना है।

मीर—कुछ ही हो, उनकी खातिर तो करनी पड़ेगी।

मिर्ज़ा—अच्छा, एक चाल और चलूँ।

मीर—हर्ग़िज नहीं, जब तक आप सुन न आवेंगे, मैं मुहरे में हाथ ही न लगाऊँगा।

मिर्ज़ा साहब मज़बूर होकर अन्दर गये, तो बेगम साहब ने त्योरियाँ बदल कर; लेकिन कराहते हुए कहा—तुम्हें निगोड़ी शतरंज इतनी प्यारी है! चाहे कोई मर ही जाय; पर उठने का नाम नहीं लेते! नौज कोई तुम जैसा आदमी हो!

मिर्ज़ा—क्या कहूँ मीरसाहब मानते ही न थे। बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाकर आया हूँ।

बेगम—क्या जैसे वह खुद निखट्टू हैं, वैसे ही सबको समझते हैं? उनके भी तो बाल-बच्चे हैं, या सबका सफ़ाया कर डाला?

मिर्ज़ा—बड़ा लती आदमी है। जब आ जाता है, तब मजबूर होकर मुझे भी खेलना ही पड़ता है।

बेगम—दुतकार क्यों नहीं देते? [ १५० ]

मिर्ज़ा—बराबर के आदमी हैं, उम्र में, दर्जे में; मुझसे दो अंगुल ऊँचे। मुलाहिजा करना ही पड़ता है।

बेगम—तो मैं ही दुतकारे देती हूँ। नाराज़ हो जायँगे, हो जायँ। कौन किसी की रोटियाँ चला देता है। रानी रूठेगी, अपना सुहाग लेंगी। हिरिया, जा, बाहर से शतरंज उठा ला। मीर साहब से कहना मियाँ अब न खेलेंगे, आप तशरीफ़ ले जाइये।

मिर्ज़ा—हाँ हाँ, कहीं ऐसा ग़ज़ब भी न करना! ज़लील करना चाहती हो क्या! ठहर हिरिया, कहाँ जाती है?

बेगम—जाने क्यों नहीं देते? मेरा ही खून पिये, जो उसे रोके। अच्छा, उसे रोका; मुझे रोको, तो जानूँ!

यह कहकर बेगम साहब झल्लाई हुई दीवानखाने के तरफ़ चलीं। मिर्ज़ा बेचारे का रंग उड़ गया। बीबी की मिन्नतें करने लगे—खुदा के लिए, तुम्हें हज़रत हुसेन की कसम। मेरी ही मैयत देखे, जो उधर जाय; लेकिन बेग़म ने एक न मानी। दीवानखाने के द्वार तक गई; पर एकाएक पर पुरुष के सामने जाते हुए पाँव बँध-से गये। भीतर झाँका। संयोग से कमरा खाली था। मीर साहब ने दो-एक मुहरे इधर-उधर कर दिये थे, और अपनी सफाई जताने के लिए बाहर टहल रहे थे। फिर क्या था, बेग़म ने अन्दर पहुँचकर बाज़ी उलट दी; मुहरें कुछ तख्त के नीचे फेंक दिये, कुछ बाहर; और किवाड़े अन्दर से बन्द करके कुंडी लगा दी। मीर साहब दरवाज़े पर तो थे ही, मुहरें बाहर फेंके जाते देखे, चूड़ियों की झनक भी कान में पड़ी। फिर दरवाज़ा बन्द हुआ, तो समझ गये, बेगम साहबा बिगड़ गईं। चुपके से घर की राह ली!

मिर्जा ने कहा—तुमने ग़ज़ब किया!

बेग़म—अब मीर साहब इधर आये, तो खड़े-खड़े निकलवा दूँगी। इतनी लौ खुदा से लगाते, तो क्या ग़रीब हो जाते! आप तो शतरंज खेलें, और मैं यहाँ चूल्हे-चक्की की फिक्र में सिर खपाऊँ! ले जाते हो हकीम साहब के यहाँ, कि अब भी ताम्मुल है?

मिर्ज़ा घर से निकले, तो हकीम के घर जाने के बदले मीर साहब के [ १५१ ]घर पहुँचे, और सारा वृत्तांत कहा। मीर साहब बोले—मैंने तो जब मुहरे बाहर आते देखे, तभी ताड़ गया। फ़ौरन भागा। बड़ी गुस्सेवर मालूम होती हैं; मगर आपने उन्हें यों सिर चढ़ा रखा है। यह मुनासिब नहीं। उन्हें इससे क्या मतलब, कि आप बाहर क्या करते हैं। घर का इन्तज़ाम करना उनका काम है, दूसरी बातों से उन्हें क्या सरोकार?

मिर्ज़ा—खैर यह तो बताइये, अब कहाँ जमाव होगा?

मीर—इसका क्या ग़म। इतना बड़ा घर पड़ा हुआ है। बस, यहीं जमे।

मिर्ज़ा—लेकिन बेगम साहबा को कैसे मनाऊँगा। जब घर पर बैठा रहता था, तब तो वह इतना बिगड़ती थीं; यहाँ बैठक होगी, तो शायद ज़िंदा न छोड़ेंगी।

मीर—अजी, बकने भी दीजिये; दो-चार रोज़ में आप ही ठीक हो जायँगी। हाँ, आप इतना कीजिये, कि आध से ज़रा तन जाइये।

(२)

मीर साहब की बेग़म किसी अज्ञात कारण से उनका घर से दूर रहना ही उपयुक्त समझती थीं। इसलिए वह उनके शतरंज-प्रेम की कभी आलोचना न करती; बल्कि कभी-कभी मीर साहब को देर हो जाती, तो याद दिला देती थीं। इन कारणों से मीर साहब को भ्रम हो गया था, कि मेरी स्त्री अत्यन्त विनयशील और गंभीर है। लेकिन जब दीवानखाने में बिसात बिछने लगी, और मीर साहब दिन-भर घर में रहने लगे, तो उन्हें बड़ा कष्ट होने लगा। उनकी स्वाधीनता में बाधा पड़ गई। दिन-भर दरवाज़े पर झाँकने को तरस जातीं।

उधर नौकरों में भी काना-फूसी होने लगी। अब तक दिन-भर पड़े पड़े मक्खियाँ मारा करते थे। घर में चाहे कोई आवे, चाहे कोई जाय, उनसे कुछ मतलब न था! आठों पहर की धौंस हो गई। कभी पान लाने का हुक्म होता, कभी मिठाई का। और हुक्का तो किसी प्रेमी के हृदय की भाँति नित्य जलता ही रहता था। वे बेग़म साहबा से जा-जाकर कहते—हुजूर, मियाँ की शतरंज तो हमारे जी का जंजाल हो गई! दिन [ १५२ ]भर दौडते-दौड़ते पैरों में छाले पड़ गये। यह भी कोई खेल हैं, कि सुबह को बैठे, तो शाम ही कर दी! घड़ी-आध-घड़ी दिल-बहलाव के लिए खेल लेना बहुत है। खैर, हमें तो कोई शिकायत नहीं; हुजूर के गुलाम हैं, जो हुक्म होगा, बजा ही लावेंगे; मगर यह खेल मनहूस है। इसका खेलनेवाला कभी पनपता नहीं; घर पर कोई-न-कोई आफ़त ज़रूर आती है। यहाँ तक कि एक के पीछे महल्ले-के-महल्ले तबाह होते देखे गये हैं। सारे महल्ले में यही चर्चा होती रहती है। हुजूर का नमक खाते हैं, अपने आका की बुराई सुन-सुनकर रंज होता है; मगर क्या करें। इस पर बेग़म साहब कहतीं—मैं तो खुद इसको पसन्द नहीं करती; पर वह किसी की सुनते ही नहीं, तो क्या किया जाय।

महल्ले में भी जो दो-चार पुराने ज़माने के लोग थे, वे आपस में भाँति-भाँति के अमंगल की कल्पनाएँ करने लगे—अब खैरियत नहीं है। जब हमारे रईसों का यह हाल है, तो मुल्क का खुदा ही हाफ़िज़। यह बादशाहत शतरंज के हाथों तबाह होगी। आसार बुरे हैं।

राज्य में हाहाकार मचा हुआ था। प्रजा दिन-दहाड़े लूटी जाती थी। कोई फ़रियाद सुननेवाला न था। देहातों की सारी दौलत लखनऊ में खिंची चली आती थी, और वह वेश्याओं में, भाँड़ों में, और विलासिता के अन्य अङ्गों की पूर्ति में उड़ जाती थी। अँगरेज़-कम्पनी का ऋण दिन-दिन बढ़ता जाता था। कमली दिन-दिन भीगकर भारी होती जाती थी। देश में सुव्यवस्था न होने के कारण वार्षिक कर भी न वसूल होता था। रेजीडेंट बार-बार चेतावनी देता था; पर यहाँ तो लोग विलासिता के नशे में चूर थे; किसी के कानों पर जूँ न रेंगती थी।

खैर, मीर साहब के दीवानखाने में शतरंज होते कई महीने गुज़र गये। नये-नये नक्शे हल किये जाते; नये-नये किले बनाये जाते; नित नई व्यूह-रचना होती; कभी-कभी खेलते-खेलते झौड़ हो जाती; तू-तू मैं-मैं तक की नौबत आ जाती; पर शीघ्र ही दोनो मित्रों में मेल हो जाता। कभी-कभी ऐसा भी होता, कि बाज़ी उठा दी जाती; मिर्ज़ाजी रूठकर अपने घर चले आते; मीर साहब अपने घर में जा बैठते; पर [ १५३ ]रात-भर की निद्रा के साथ सारा मनोमालिन्य शांत हो जाता था। प्रातःकाल दोनो मित्र दीवानखाने में आ पहुँचते थे।

एक दिन दोनो मित्र बैठे शतरंज की दलदल में गोते खा रहे थे, कि इतने में घोड़े पर सवार एक बादशाही फौज का अफ़सर मीर साहब का नाम पूछता हुआ आ पहुँचा। मीरसाहब के होश उड़ गये! यह क्या बला सिर पर आई। यह तलबी किस लिए हुई! अब खैरियत नहीं नज़र आती। घर के दरवाजे बन्द कर लिये। नौकरों से बोले—कह दो, घर में नहीं हैं।

सवार—घर में नहीं, तो कहाँ हैं?

नौकर—यह मैं नहीं जानता। क्या काम है!

सवार–काम तुझे क्या बतलाऊँ? हुजूर में तलबी है—शायद फ़ौज़ के लिए कुछ सिपाही माँगे गये हैं। जागीरदार हैं कि दिल्लगी! मोरचे पर जाना पड़ेगा, तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायगा!

नौकर—अच्छा, तो जाइये, कह दिया जायगा।

सवार—कहने की बात नहीं है। मैं कल खुद आऊँगा! साथ ले जाने का हुक्म हुआ है।

सवार चला गया। मीर साहब की आत्मा काँप उठी। मिर्ज़ाजी से बोले—कहिये जनाब, अब क्या होगा?

मिर्ज़ा—बड़ी मुसीबत है, कहीं मेरी भी तलबी न हो।

मीर—कम्बख्त कल फिर आने को कह गया है!

मिर्ज़ा—आफ़त है और क्या! कहीं मोरचे पर जाना पड़ा, तो बेमौत मरे।

मीर—बस, यह एक तदबीर है, कि घर पर मिलो ही नहीं। कल से गोमती पर कहीं वीराने में नक्शा जमे। वहाँ किसे खबर होगी? हज़रत आकर आप लौट जायँगे।

मिर्ज़ा—वल्लाह, आपको खूब सूझी! इसके सिवा और कोई तदबीर ही नहीं है।

इधर मीर साहब की बेग़म उस सवार से कह रही थीं—तुमने खूब धता बताई। उसने जवाब दिया—ऐसे गावदियों को तो चुटकियों पर [ १५४ ]नचाता हूँ। इनकी सारी अक़्ल और हिम्मत, तो शतरंज ने चर ली। अब भूलकर भी घर पर न रहेंगे।

(३)

दूसरे दिन से दोनो मित्र मुँह-अँधेरे घर से निकल खड़े होते। बग़ल में एक छोटी-सी दरी दबाये, डिब्बे में गिलौरियाँ भरे गोमती-पार की एक पुरानी वीरान मसजिद में चले जाते, जिसे शायद नवाब आसिफ़ उद्दौला ने बनवाया था। रास्ते में तम्बाकू, चिलम और मदरिया ले लेते, और मसजिद में पहुँच, दरी बिछा, हुक्का भरकर शतरंज खेलने बैठ जाते थे। फिर उन्हें दीनदुनिया की फ़िक्र न रहती थी। 'किश्त', 'शह' आदि दो-एक शब्दों के सिवा उनके मुँह से और कोई वाक्य नहीं निकलता था। कोई योगी भी समाधि में इतना एकाग्र न होता होगा। दोपहर को जब भूख मालूम होती, तो दोनो मित्र किसी नानबाई की दूकान पर जाकर खाना खा आते, और एक चिलम हुक्का पीकर फिर संग्राम-क्षेत्र में डट जाते। कभी-कभी तो उन्हें भोजन का भी खयाल न रहता था।

इधर देश की राजनीतिक दशा भयंकर होती जा रही थी। कम्पनी की फौजें लखनऊ की तरफ़ बढ़ी चली आती थीं। शहर में हलचल मची हुई थी। लोग बाल-बच्चों को ले-लेकर देहातों में भाग रहे थे; पर हमारे दोनो खिलाड़ियों को इसकी ज़रा भी फ़िक्र न थी। वे घर से आते, तो गलियों में होकर। डर था कि कहीं किसी बादशाही मुलाज़िम की निगाह न पड़ जाय, जो बेगार में पकड़ जायँ। हज़ारों रुपए सालाना की जागीर मुफ़्क में ही हजम करना चाहते थे।

एक दिन दोनो मित्र मसजिद के खंडहर में बैठे हुए शतरंज खेल रहे थे। मीर साहब की बाज़ी कुछ कमज़ोर थी। मिर्ज़ा उन्हें किश्त-परकिश्त दे रहे थे। इतने में कम्पनी के सैनिक आते हुए दिखाई दिये। यह गोरों की फ़ौज थी, जो लखनऊ पर अधिकार जमाने के लिए आ रही थी।

मीर साहब बोले—अँगरेज़ी फ़ौज आ रही है; खुदा खैर करे।

मिर्ज़ा—आने दीजिये, किश्त बचाइये। लो यह किश्त! [ १५५ ]

मीर—ज़रा देखा चाहिये—यहीं आड़ में खड़े हो जायँ।

मिर्ज़ा—देख लीजियेगा, जल्दी क्या है, फिर किश्त!

मीर—तोपखाना भी है। कोई पाँच हज़ार आदमी होंगे। कैसे जवान हैं। लाल बन्दरों के-से मुँह हैं। सूरत देखकर खौफ़ मालूम होता है।

मिर्ज़ा—जनाब, हीले न कीजिये। ये चकमे किसी और को दीजियेगा—यह किश्त!

मीर—आप भी अजीब आदमी हैं। यहाँ तो शहर पर आफत आई हुई है, और आपको किश्त की सूझी है! कुछ इसकी खबर है, कि शहर घिर गया, तो घर कैसे चलेंगे?

मिर्ज़ा—जब घर चलने का वक्त आवेगा, तो देखी जायगी—यह किश्त! बस, अब की शह में मात है।

फ़ौज निकल गई। दस बजे का समय था, फिर बाजी छिड़ गई।

मिर्ज़ा बोले—आज खाने की कैसी ठहरेगी?

मीर—अजी, आज तो रोज़ा है। क्या आपको ज़्यादा भूख मालूम होती है?

मिर्ज़ा—जी नहीं। शहर में न जाने क्या हो रहा है।

मीर—शहर में कुछ न हो रहा होगा। लोग खाना खा-खाकर आराम से सो रहे होंगे। हुजूर नवाब साहब भी ऐशगाह में होंगे।

दोनो सज्जन फिर जो खेलने बैठे, तो तीन बज गये। अबकी मिर्ज़ाजी की बाजी कमजोर थी। चार का गजर बज रहा था, कि फ़ौज की वापसी की आहट मिली। नवाब वाजिदअली पकड़ लिये गये थे, और सेना उन्हें किसी अज्ञात स्थान को लिये जा रही थी। शहर में न कोई हलचल थी, न मार-काट। एक बूँद भी खून नहीं गिरा था। आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा की पराजय इतनी शान्ति से, इस तरह खून बहे बिना न हुई होगी। यह वह अहिंसा न थी, जिस पर देवगण प्रसन्न होते हैं। यह वह कायरपन था, जिस पर बड़े-से-बड़े कायर भी आँसू बहाते हैं। अवध के विशाल देश का नवाब बन्दी बना चला जाता था, [ १५६ ]और लखनऊ ऐश की नींद में मस्त था। यह राजतीतिक अधःपतन की चरम सीमा थी!

मिर्ज़ा ने कहा—हुजूर नवाब साहब को ज़ालिमों ने कैद कर लिया है।

मीर—होगा, यह लीजिये शह!

मिर्ज़ा—जनाब ज़रा ठहरिये। इस वक्त इधर तबीयत नहीं लगती।

बेचारे नवाब इस वक्त खून के आँसू रो रहे होंगे।

मीर—रोया ही चाहें। यह ऐश वहाँ कहाँ नसीब होगा—यह किश्त!

मिर्ज़ा—किसी के दिन बराबर नहीं जाते। कितनी दर्दनाक हालत है!

मीर—हाँ, सो तो है ही—यह लो, फिर किश्त! बस, अब की किश्त में मात है, बच नहीं सकते।

मिर्ज़ा—खुदा की कसम, आप बड़े बेदर्द हैं। इतना बड़ा हादसा देखकर भी आपको दुःख नहीं होता। हाय ग़रीब वाजिद अली शाह!

मीर—पहले अपने बादशाह को तो बचाइये, फिर नवाब साहब का मातम कीजियेगा। यह किश्त और मात। लाना हाथ।

बादशाह को लिये हुये सेना सामने से निकल गई। उनके जाते ही मिर्ज़ा ने फिर बाजी बिछा दी। हार की चोट बुरी होती है। मीर ने कहा—आइये, नवाब साहब के मातम में एक मरसिया कह डालें; लेकिन मिर्ज़ाजी की राजभक्ति अपनी हार के साथ लुप्त हो चुकी थी, वह हार का बदला चुकाने के लिए अधीर हो रहे थे।

(४)

शाम हो गई खँडहर में चमगादड़ों ने चीखना शुरू किया। अबाबीले आ-आकर अपने-अपने घोसलों में चिमटी; पर दोनो खिलाड़ी डटे हुए थे, मानो दो खून के प्यासे सूरमा आपस में लड़ रहे हों। मिर्ज़ाजी तीन बाजियाँ लगतार हार चुके थे; इस चौथी बाजी का रङ्ग अच्छा न था। वह बार-बार जीतने का दृढ़ निश्चय करके सँभलकर [ १५७ ]खेलते थे; लेकिन एक-न-एक चाल ऐसी बेढब आ पड़ती थी, ज़िससे बाज़ी खराब हो जाती थी। हर बार हार के साथ प्रतिकार की भावना और भी उग्र होती जाती थी; उधर मीर साहब मारे उमंग के ग़ज़लें गाते थे, चुटकियाँ लेते थे, मानो कोई गुप्त धन पा गये हों। मिर्ज़ाजी सुन-सुनकर झुँझलाते और हार की झेंप मिटाने के लिए उनकी दाद देते थे; पर ज्यों-ज्यों बाज़ी कमज़ोर पड़ती थी, धैर्य हाथ से निकलता जाता था। यहाँ तक कि वह बात-बात पर झुँझलाने लगे—जनाब, आप चाल न बदला कीजिये। यह क्या कि एक चाल चले, और फिर उसे बदल दिया। जो कुछ चलना हो, एक बार चल लीजिये। यह आप मुहरे पर ही हाथ क्यों रखे रहते हैं? मुहरे को छोड़ दीजिये। जब तक आपको चाल न सूझे मुहरा छूइये ही नहीं। आप एक-एक चाल आध-आध घंटे में चलते हैं। इसकी सनद नहीं। जिसे एक चाल चलने में पाँच मिनट से ज़्यादा लगे, उसकी मात समझी जाय। फिर आपने चाल बदली! चुपके से मुहरा वहीं रख दीजिये।

मीर साहब का फ़रजी पिटता था। बोले—मैंने चाल चली ही कब थी?

मिर्ज़ा—आप चाल चल चुके हैं। मुहरा वहीं रख दीजिये—उसी घर में।

मीर—उस घर में क्यों रखूँ? हाथ से मुहरा छोड़ा कब था?

मिर्ज़ा—मुहरा आप कयामत तक न छोड़ें, तो क्या चाल ही न होगी? फरज़ी पिटते देखा, तो धाँधली करने लगे!

मीर—धाँधली आप करते हैं। हार-जीत तक़दीर से होती है; धाँधली करने से कोई नहीं जीतता।

मिर्ज़ा—तो इस बाज़ी में आपको मात हो गई?

मीर—मुझे क्यों मात होने लगी।

मिर्ज़ा—तो आप मुहरा उसी घर में रख दीजिए, जहाँ पहले रखा था।

मीर—वहाँ क्यों रखूँ? नहीं रखता। [ १५८ ]

मिर्ज़ा—क्यों न रखियेगा? आपको रखना ही होगा।

तकरार बढ़ने लगी। दोनो अपनी-अपनी टेक पर अड़े थे। न यह दबता था, न वह! अप्रासंगिक बातें होने लगीं। मिर्ज़ा बोले—किसी ने खानदान में शतरंज खेली होती, तब तो इसके क़ायदे जानते। वे तो हमेशा घास छीला किये, आप शतरंज क्या खेलियेगा! रियासत और ही चीज़ है। जागीर मिल जाने ही से कोई रईस नहीं हो जाता।

मीर—क्या! घास आपके अब्बाजान छीलते होंगे! यहाँ तो पीढ़ियों से शतरंज खेलते चले आते हैं।

मिर्ज़ा—अजी जाइये भी, ग़ाज़िउद्दीन हैदर के यहाँ बावर्ची का काम करते-करते उम्र गुजर गई, आज रईस बनने चले हैं। रईस बनना कुछ दिल्लगी नहीं!

मीर—क्यों अपने बुजुर्गों के मुँह कालिख लगाते हो—वे ही बावर्ची का काम करते होंगे। यहाँ तो हमेशा बादशाह के दस्तरख़्वान पर खाना खाते चले आये हैं।

मिर्ज़ा—अरे चल चरकटे, बहुत बढ़-बढ़कर बातें न कर।

मीर—ज़बान सँभालिये, वर्ना बुरा होगा। मैं ऐसी बातें सुनने का आदी नहीं हूँ। यहाँ तो किसी ने आँखें दिखाईं, कि उसकी आँखें निकालीं। है हौसला?

मिर्ज़ा—आप मेरा हौसला देखना चाहते हैं, तो फिर आइये, आज दो-दो हाथ हो जायँ, इधर या उधर!

मीर—तो यहाँ तुमसे दबनेवाला कौन है?

दोनो दोस्तों ने कमर से तलवारें निकाल ली! नवाबी ज़माना था; सभी तलवार, पेशकब्ज़, कटार बग़ैरह बाँधते थे। दोनो विलासी थे; पर कायर न थे। उनमें राजनीतिक भावों का अधःपतन हो गया था—बादशाह के लिए, बादशाहत के लिए क्यों मरे? पर व्यक्तिगत वीरता का अभाव न था। दोनो ने पैतरे बदले, तलवारें चमकी, छपाछप की आवाज़ें आईं। दोनों जख्म खाकर गिरे, और दोनो ने वहीं तड़प-तड़पकर [ १५९ ]जानें दे दीं। अपने बादशाह के लिए जिनकी आँखों से एक बूँद आँसू न निकला, उन्होंने शतरंज के वज़ीर की रक्षा में प्राण दे दिये।

अँधेरा हो चला था। बाज़ी बिछी हुई थी। दोनो बादशाह अपने-अपने सिंहासनों पर बैठे मानो इन दोनो वीरों की मृत्यु पर रो रहे थे।

चारों तरफ़ सन्नाटा छाया हुआ था। खँडहर की टूटी हुई मेहराबें, गिरी हुई दीवारें और धूल-धूसरित मीनारें इन लाशों को देखती और सिर धुनती थीं।