प्रेम-द्वादशी

विकिस्रोत से
प्रेम-द्वादशी  (1938) 
द्वारा प्रेमचंद
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प्रेम-द्वादशी

 

सर्वोत्तम १२ गल्पों का संग्रह


 

लेखक
प्रेमचन्द


 

प्रकाशक
सरस्वती-प्रेस, बनारस कैंट।

 
आठवाँ
मूल्य
सन्
सस्ता संस्करण
आठ आने
१९३८
[ प्रकाशक ]

कॉपीराइट—सरस्वती-प्रेस, बनारस।
आठवाँ संस्करण, ११३८ ।
मूल्य )।










मुद्रक:
श्रीपतराय,
सरस्वती-प्रेस
बनारस।

[ भूमिका ]

भूमिका

हिन्दुस्तानी भाषाओं में कहानी का कोई इतिहास नहीं है। प्राचीन साहित्य में दृष्टान्तों और रूपकों ने प्रदेश का काम लिया जाता था। उस समय की वे ही गल्पें थीं। उनमें आध्यात्मिक विषयों का ही प्रतिपादन किया जाता था। महाभारत आदि ग्रन्थों में ऐसे कितने ही उपाख्यान और दृष्टान्त हैं, जो कुछ-कुछ वर्तमान समय की गल्लों से मिन्नते हैं । निइ मनवमी, बैतालपचीनी, कथासरित्सागर और इसी श्रेणी की अन्य कितनी ही पुस्तकें ऐसे ही दृष्टान्तों का संग्रह-मात्र हैं ; जिन्हें किसी एक सूत्र में पिरोकर मालाएँ तैयार कर दी गई हैं। योरप का प्राचीन साहित्य भी Short Story से यही काम लेता था । आज- कल जिम वस्तु को हम Short Story कहते हैं, वह उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तराई का आविष्कार है। भारतवर्ष में तो इसका प्रचार उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दिनों में ही हुआ है। उपन्यासों की भाँति आख्ता- यिकाओं का विकास भी पहले-पहल बँगला साहित्य में हुआ, और बंकिमचंद्र तथा रवीन्द्रनाथ ने कई उच्चकोटि की गल्में लिखीं। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से हिन्दी-भाषा में कहानियां लिखी जाने लगी, और तब से इसका प्रचार दिन-दिन बढ़ता जाता है।

प्राचीन गल्पमालाओं का उद्देश्य मुख्य करके कोई उपदेश करना होता था। कितनी ही मालाएँ तो केवल स्त्रियों के चरित्र-दोष दिखाने के लिए ही लिखी गई हैं। मुसलिम-साहित्य में अलिफ़ लैला गल्पों का एक बहुत ही अनूठा संग्रह है ; मगर उसका उद्देश्य उपदेश नहीं ; बल्कि मनोरंजन है। इस दूसरी श्रेणी की गल्में भारतीय साहित्य में नहीं हैं । वर्तमान आख्यायिका का मुख्य उद्देश्य साहित्य-रसास्वादन कराना है, और जो कहानी इस उद्देश्य से जितनी दूर जा गिरती है, उतनी ही दूषित समझी जाती है।

लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि वर्तमान गल्प-लेखक कोरी गल्पें लिखता है, जैसी बोस्ताने-खयाल या तिलस्मे-होशरुबा हैं। नहीं, उसका [  ]उद्देश्य चाहे संदेश करना न हो; पर गल्पों का अचार कोई-न-काई दार्शनिक तत्व या सामाजिक विवेचना अवश्य होता है। ऐसी कहानी जिसमें जीवन के किमी अंग पर प्रकाश न पड़ता हो, जो सामाजिक रूढ़ियों की तीन आलोचना न करती हो, जो मनुष्य में सद्भावों को दृढ़ न करे या जो मनुष्य में कुतुहल का भाव न जाग्रत करे, कहानी नहीं है।

योरप और भारतवर्ष की आत्मा में बहुत अन्तर है । योरप की दृष्टि सुन्दर पर पड़ती है ; पर भारत की सत्य पर । सम्पन्न योरप मनोरंजन के लिए गल्प लिखें; लेकिन भारतवर्ष कभी इस आदर्श को स्वीकार नहीं कर सकता । नीति और धर्म हमारे जीवन के प्राण हैं। हम पराधीन हैं; लेकिन हमारी सभ्यता पाश्चात्य सभ्यता से कहीं ऊँची है। यथार्थ पर निगाह रखनेवाला योरप, हम आदर्शवादियों से जीवन-संग्राम में बाजी क्यों न ले जाय ; पर हम अपने परंपरागत संस्कारों का आधार नहीं त्याग सकते। साहित्य में भी हमें अपनी आत्मा की रक्षा करनी ही होगी। हमने उपन्याम और मल्ल का कलेवर योरप से लिया है । लेकिन हमें इसका प्रयत्न करना होगा कि उस कलेवर में भारतीय आत्मा सुरक्षित रहे ।

इस संग्रह में जो कहानियाँ दी जा रही हैं, उनमें, इसी आदर्श का पालन करने की चेष्टा की गई है। मेरी कुल कहानियों की ख्या २०० अधिक हो गई है और आजकल किसी को इतनी फ़ुरसत कहाँ कि वह सब कहानियाँ पढ़े। मेरे कई मित्रों ने मुझसे अपनी कहानियों का ऐसा संग्रह करने के लिए आग्रह किया, जिनमें मेरी सभी तरह की कहानियों के नमूने आ जाय । यह संग्रह उसी आग्रह का फल है । इसमें कुछ कहानियाँ ऐसी हैं, जो अन्य संग्रहों से ली गई हैं। उनके प्रकाशकों को धन्यवाद देना मेरा कर्तव्य है । कुछ कहानियाँ ऐसी हैं, जो अभी तक किसी माला में नहीं निकलीं। इन कहानियों की आलोचना करना मेरा काम नहीं।हाँ, इतना मैं कह सकता हूँ कि मैंने नवीन कलेवर में भारतीय आत्मा को सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया है। [ विषय-सूची ]

विषय-सूची

१. शांति
२. बैंक का दिवाला १९
३. आत्माराम ४६
४. दुर्गा का मन्दिर ५५
५. बड़े घर की बेटी ६८
६. सत्याग्रह ७९
७. गृह-दाह ९६
८. डिक्री के रुपये ११७
९. मुक्ति-मार्ग १३४
१०. शतरंज के खिलाड़ी १४७
११. पंच परमेश्वर १६०
१२. शंखनाद १७३
 

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