प्रेम-द्वादशी/१२ शंखनाद

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प्रेम-द्वादशी  (1938)  द्वारा प्रेमचंद
१२. शंखनाद
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शंखनाद

भानु चौधरी अपने गाँव के मुखिया थे । गाँव में उनका बड़ा मान था । दारोग़ाजी उन्हें टाट बिना ज़मीन पर न बैठने देते। मुखिया साहब की ऐसी धाक बंधी हुई थी, कि उनकी मर्जी बिना गाँव़ में एक पत्ता भी नहीं हिल सकता था । कोई घटना, चाहे वह सास-बहू का विवाद हो, चाहे मेड़ या खेत का झगड़ा, चौधरी साहब के शासनाधिकार को पूर्ण रूप से सचेत करने के लिए काफ़ी थी। वह तुरन्त घटनास्थल पर जा पहुँचते, तहकीकात होने लगती, गवाह और सबूत के सिवा किसी अभि- योग को सफलता-सहित चलाने में जिन बातों की ज़रूरत होती है, उन सब पर विचार होता और चौधरीजी के दरबार से फैसला हो जाता। किसी को अदालत तक जादे की जरू त पड़ती। हाँ, इस कष्ट के लिए चौधरी साहब कुछ फ़ोल ज़रू: लेते थे । यदि किसी अवसर पर फ़ीस मिलने में असुविधा के कारण उन्हें घरज से काम लेना पड़ता तो गाँव में आफत मच जाती थी ; क्योंकि उनके धीरज और दारोग़ाजी के क्रोध में कोई घनिष्ठ सम्बन्ध था । सारांश यह, कि चौधरी से उनके दोस्त-दुश्मन सभी चौकन्ने रहते थे ।

( २ )

चौधरी महाशय के तीन सुयोग्य पुत्र थे। बड़े लड़के वितान एक सुशिक्षित मनुष्य थे । डाकिये के रजिस्टर पर दस्तखत कर लेते थे। बड़े अनुभवी, बड़े मर्मज्ञ, बड़े नीतिकुशल । मिर्जई की जगह कमीज पह- नते, कभी-कभी सिगरेट भी पीते, जिससे उनका गौरव बढ़ता था ।यद्यपि उनके ये दुर्व्यसन बूढ़े चौधरी को नापसन्द थे; पर बेचारे विवश थे; क्योंकि अदालत और कानून के मामले बितान के हाथों में थे । वह कानून का पुतला था । कानून की दफ़ाएँ जबान पर रखी रहती थीं गवाह गढ़ने में वह पूरा उस्ताद था । मझले लड़के शान चौधरी कृषि विभाग के अधि- कारी थे। बुद्धि के मन्दे , लेकिन शरीर से बड़े परिश्रमी । जहाँ घास न [ १७४ ]जमती हो, वहाँ केसर जमा दें । तीसरे लड़के का नाम गुमान था । वह बड़ा रसिक, साथ ही उद्दण्ड भी था । मुहर्रम में ढोल इतने जोरों से बजाता कि कान के पर्दे फट जाते । मछली फँसाने का बड़ा शौकीन था । बड़ा रँगीला जवान था । खजड़ी बजा बजाकर जब वह मीठे स्वर से खयाल गाता, तो रंग जम जाता। उसे दंगल का ऐसा शौक था, कि कोसों तक धावा मारता ; पर घरवाले कुछ ऐसे शुष्क थे, कि उनके इन व्यसनों से तनिक भी सहानुभूति न रखते थे। पिता और भाइयों ने तो उसे ऊसर खेत समझ रखा था। घुड़की-धमकी, शिक्षा और उपदेश, स्नेह और विनय, किसी का उस पर कुछ भी असर न हुआ । हाँ, भावजे अभी तक उसकी ओर से निराश न हुई थीं ; वे अभी तक उसे कड़वी दवाइयाँ पिलाये जाती थीं ; पर अालस्य वह राज-रोग है, जिसका रोगी कभी नहीं सँभलता। ऐसा कोई बिरला ही दिन जाता होगा, कि बाँके गुमान को भावजों के कटु वाक्य न सुनने पड़ते हों । ये विषैले शर कभी-कभी उसके कठोर हृदय में भी चुभ जाते ; किन्तु यह घाव रात-भर से अधिक न रहता। भोर होते ही थकान के साथ ही यह पीड़ा भी शान्त हो जाती ! तड़का हुआ ; उसने हाथ-मुँह धोया, बंशी उठाई और तालाब की ओर चल खड़ा हुआ । भावजे फूलों की वर्षा किया करतीं, बूढ़े चौधरी पैतरे बदलते रहते, और भाई लोग तीखी निगाह से देखा करते ; पर अपनी धुन का पूरा बाँका गुमान उन लोगों के बीच से इस तरह अकड़ता चला जाता, जैसे कोई मस्त हाथी कुत्तों के बीच से निकल जाता है। उसे सुमार्ग पर लाने के लिए क्या-क्या उपाय नहीं किये गये । बाप समझाता-बेटा, ऐसी राह चलो, जिसमें तुम्हें भी पैसे मिलें, और गृहस्थी का भी निबाह हो । भाइयों के भरोसे कब तक रहोगे ? मैं पका आम हूँ-अाज टपक पडूं या कल । फिर तुम्हारा निबाह कैसे होगा ? भाई बात भी न पूछेगे, भावजों का रंग देख ही रहे हो। तुम्हारे भी लड़के-बाले हैं, उनका भार कैसे संभालोगे ? खेती में जी न लगे, कहो काँस्टिबिली में भरती करा दूं। बाँका गुमान खड़ा-खड़ा यह सब सुनता; लेकिन पत्थर का देवता था—कभी न पसीजता । इन महाशय [ १७५ ]के अत्याचार का दंड उनकी स्त्री बेचारी को भोगना पड़ता था। कड़ी मेहनत के घर के जितने काम होते, वे उसी के सिर थोपे जाते । उपले पाथती, कुएँ से पानी लाती, आटा पीसती, और इतने पर भी जेठा- नियाँ सीधे मुँह बात न करतीं, वाक्य-वाणों से छेदा करतीं। एक बार जब वह पति से कई दिन रूठी रही, तो बाँके गुमान कुछ नर्म हुए ! बाप से जाकर बोले--मुझे कोई दूकान खोलवा दीजिये। चौधरी ने परमात्मा को धन्यवाद दिया । फूले न समाये । कई सौ रुपए लगाकर कपड़े को दूकान खुलवा दी । गुमान के भाग जगे | तनजेब के चुन्नटदार कुरते बनवाये, मलमल का साफा धानी रंग में रंगवाया। सौदा बिके या न बिके, उसे लाभ ही होता था ! दूकान खुलो हुई है, दस-पाँच गाढ़े मित्र जमे हुए हैं, चरस की दम और खयाल की तानें उड़ रही हैं-

'चल झटपट री, जमुना-तट री, खड़ो नटखट री'

इस तरह तीन महीने चैन से कटे । बाँके गुमान ने खूब दिल खोलकर अरमान निकाले ; यहाँ तक कि सारी लागत लाभ हो गई ! टाट के टुकड़े के सिवा और कुछ न बचा । बूढ़े चौधरी कुएँ में गिरने चले, भावजों ने घोर अान्दोलन मचाया-अरे राम ! हमारे बच्चे और हम चीथड़ों को तरसें, गाढ़े का एक कुरता भी नसीब न हो, और इतनी बड़ी दूकान इस निखट्ट का कफ़न बन गई। अब कौन मुँह दिखावेगा ? कौन मुँह लेकर घर में पैर रखेगा ; किन्तु बाँके गुमान के तेवर ज़रा भी मैले न हुए। वही मुँह लिये वह फिर घर श्राया और फिर वही पुरानी चाल चलने लगा। कानूनदाँ बितान उसके ये ठाट-बाट देखकर जल जाता । मैं सारे दिन पसीना बहाऊँ, मुझे नैनसुख का कुरता भी न मिले, यह अपाहिज सारे दिन चारपाई तोड़े, और यों बन-ठनकर निकले ? ऐसे वस्त्र तो शायद मुझे अपने ब्याह में भी न मिले होंगे। मीठे शान के हृदय में भी कुछ ऐसे ही विचार उठते थे । अन्त में जब यह जलन न सही गई, और अग्नि भड़की, तो एक दिन कानूनदाँ बितान को पत्नी गुमान के सारे कपड़े उठा लाई और उन पर मिट्टी का तेल उड़ेलकर आग लगा दी। ज्वाला उठी। सारे कपड़े देखते-देखते जल कर राख हो गये। गुमान [ १७६ ]रोते थे । दोनो भाई खड़े तमाशा देखते थे । बूढ़े चौधरी ने यह दृश्य देखा, और सिर पीट लिया। यह द्वेषाग्नि है। घर को जलाकर तब बुझेगी।

( ३ )

यह ज्वाला तो थोड़े देर में शांत हो गई ; परन्तु हृदय की आग ज्यों-की-त्यों दहकती रही । अन्त में एक दिन बूढ़े चौधरी ने घर के सब मेंबरों को एकत्र किया, और इस गूढ विषय पर विचार करने लगे, कि बेड़ा कैसे पार हो । बितान से बोले-बेटा, तुमने अाज देखा कि बात-की- बात में सैकड़ों रुपयों पर पानी फिर गया। अब इस तरह निर्वाह होना असम्भव है। तुम समझदार हो, मुकदमे-मामले करते हो, कोई ऐसी राह निकालो, कि घर डूबने से बचे । मैं तो यह चाहता था, कि जब तक चोला रहे, सबको समेटे रहूँ; मगर भगवान् के मन में कुछ और ही है।

बितान की नीतिकुशलता अपनी चतुर सहगामिनी के सामने लुप्त हो जाती थी । वह अभी इसका उत्तर सोच ही रहे थे, कि श्रीमतीजी बोल उठीं--दादाजी ! अब समझाने-बुझाने से काम न चलेगा; सहते- सहते हमारा कलेजा पक गया। बेटे की जितनी पीर बाप को होगी, भाइयों को उतनी क्या, उसकी आधी भी नहीं हो सकती। मैं तो साफ कहती हूँ--गुमान का तुम्हारी कमाई में हक्क है, उन्हें कंचन के कौर खिलाओ, और चाँदी के हिंडोले में मुलायो । हम में न इतना बूता है, न इतना कलेजा | हम अपनी झोपड़ी अलग बना लेंगे। हाँ, जो कुछ हमारा हो वह हमको मिलना चाहिये । बाँट-बखरा कर दीजिये । बला से चार आदमी हसेंगे, अब कहाँ तक दुनिया की लाज दोवें।

नीतिज्ञ बितान पर इस प्रबल वक्तृता का असर हुआ। वह उनके विकसित और प्रमुदित चेहरे से झलक रहा था। उनमें स्वयं इतना साहस न था, कि इस प्रस्ताव को इतनी स्पष्टता से व्यक्त कर सकते । नीतिज्ञ महाशय गम्भीरता से बोले-जायदाद मुश्तरका, मन्कूला या गैरमन्कूला, अापके हीन-हयात तकसीम की जा सकती है, इसकी नज़ीरें [ १७७ ]मौजूद हैं। ज़मींदार को सानितुल-मिल्कियत करने का कोई इस्तहक्काक नहीं है।

अब मंदबुद्धि शान की बारी आई ; पर बेचारा किसान, बैलों के पीछे आँखें बंद करके चलनेवाला, ऐसे गूढ विषय पर कैसे मुँह खोलता। दुबिधा में पड़ा हुआ था । तब उसकी सत्यवक्ता धर्मपत्नी ने अपनी जेठानी का अनुसरण कर यह कठिन कार्य संपन्न किया । बोली-बड़ी बहन ने जो कुछ कहा, उसके सिवा और दूसरा उपाय नहीं । कोई तो कलेजा तोड़-मोड़कर कमाये ; मगर पैसे-पैसे को तरसे, तन ढाकने को वस्त्र तक न मिले, और कोई सुख की नींद सोवे, हाथ बढ़ा-बढ़ा के खाय ! ऐसी अँधेरी नगरी में अब हमारा निबाह न होगा।

शान चौधरी ने भी इस प्रस्ताव का मुक्तकंठ से अनुमोदन किया । अब बूढ़े चौधरी गुमान से बोले-क्यों बेटा, तुम्हें भी यही मंजूर है ? अभी कुछ नहीं बिगड़ा । वह आग अब भी बुझ सकती है। काम सबको प्यारा है, चाम किसी को नहीं। बोलो, क्या कहते हो ? कुछ काम-धन्धा करोगे या अभी आँखें नहीं खुली !

गुमान में धैर्य की कमी न थी। बातों को इस कान सुनकर उस कान उड़ा देना उसका नित्य-कर्म था; किन्तु भाइयों की इस 'जन-मुरीदी' पर उसे क्रोध आ गया । बोला-भाइयों की जो इच्छा है, वही मेरे मन में भी लगी हुई है । मैं भी इस जंजाल से अब भागना चाहता हूँ, मुझसे न मजूरी हुई, न होगी। जिसके भाग्य में चक्की पीसना बदा हो, वह पीसे । मेरे भाग्य में तो चैन करना लिखा है, मैं क्यों अपना सिर अोखली में दूँ ? मैं तो किसी से काम करने को नहीं कहता ? आप लोग क्यों मेरे पीछे पड़े हुए हैं ! अपनी-अपनी फिक्र कीजिये, मुझे आध सेर आटे की कमी नहीं है।

इस तरह की सभाएँ कितनी ही बार हो चुकी थीं ; परन्तु इस देश की सामाजिक और राजनीतिक सभात्रों की तरह इससे भी कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता था । दो-तीन दिन गुमान ने घर पर खाना नहीं खाया । जतनसिंह ठाकुर शौकीन आदमी थे, उन्हीं की चौपाल में पड़ा रहता । [ १७८ ]अन्त में बूढ़े चौधरी गये, और मना के लाये। अब फिर वह पुरानी गाड़ी अड़ती, मचलती, हिलती चलने लगी।

( ३ )

पाँड़े के घर चूहों की तरह, चौधरी के घर में बच्चे भी सयाने थे। उनके लिए मिट्टी के घोड़े और लकड़ी की नावें, काग़ज़ की नावें थीं। फलों के विषय में उनका ज्ञान असीम था, गूलर और जंगली बेर के सिवा कोई ऐसा फल न था, जिसे वे बीमारियों का घर न समझते हों , लेकिन गुरदीन के खोंचे में ऐसा प्रबल अाकर्षण था, कि उसकी ललकार सुनते ही उनका सारा ज्ञान व्यर्थ हो जाता था। साधारण बच्चों की तरह यदि वे सोते भी हों, तो चौंक पड़ते थे। गुरदीन उस गाँव में साप्ताहिक फेरे लगाता था। उसके शुभागमन की प्रतीक्षा और आकांक्षा में कितने ही बालकों को बिना किंडरगार्टन की रंगीन गोलियों के ही, संख्याएँ और दिनों के नाम याद हो गये थे। गुरदीन बूढ़ा-सा मैला-कुचैला आदमी था; किन्तु आस-पास में उसका नाम उपद्रवी लड़कों के लिए हनुमान-मंत्र से कम न था । उसकी आवाज़ सुनते ही उसके खोचे पर बालकों का ऐसा धावा होता, कि मक्खियों की असंख्य सेना को भी रण-स्थल से भागना पड़ता था । और जहाँ बच्चों के लिए मिठाइयाँ थीं, वहाँ गुरदीन के पास माताओं के लिए इससे भी ज्यादा मीठी बातें थीं। माँ कितना ही मना करती रहे, बार-बार पैसे न रहने का बहाना करे ; पर गुरदीन चट-पट मिठाइयों का दोना बच्चों के हाथ में रख ही देता, और स्नेह-पूर्ण भाव से कहता-बहूजी पैसों की कुछ चिन्ता न करो, फिर मिल रहेंगे, कहीं भागे थोड़े ही जाते हैं । नारायण ने तुमको बच्चे दिये हैं, तो मुझे भी उनकी न्योछावर मिल जाती है, उन्हीं के बदौलत मेरे बाल-बच्चे भी जीते हैं। अभी क्या ; ईश्वर इनका मौर तो दिखावे, फिर देखना, कैसे ठनगन करता हूँ।

गुरदीन का यह व्यवहार चाहे वाणिज्य-नियमों के प्रतिकूल ही क्यों न हो, चाहे 'नौ नगद सही, तेरह उधार नहीं' वाली कहावत अनुभव- सिद्ध ही क्यों न हो ; किंतु मिष्ठभाषो गुरदीन को कभी अपने इस व्यव- हार पर पछताने या उसमें संशोधन करने की ज़रूरत नहीं हुई । [ १७९ ]मंगल का शुभ दिन था। बच्चे बड़ी बेचैनी से अपने दरवाज़ों पर खड़े गुरदीन की राह देख रहे थे ! कई उत्साही लड़के पेड़ों पर चढ़ गये, और कोई-कोई अनुराग से विवश होकर गाँव से बाहर निकल गये थे । सूर्य भगवान् अपना सुनहला थाल लिये पूरब से पश्चिम में जा पहुँचे थे, इतने ही में गुरदीन आता हुआ दिखाई दिया। लड़कों ने दौड़कर उसका दामन पकड़ा, और आपस में खींचातानी होने लगी। कोई कहता था, मेरे घर चलो ; कोई अपने घर का न्योता देता था । सब से पहले भानु- चौधरी का मकान । गुरदीन ने अपना खोंचा उतार दिया । मिटा- इयों की लूट शुरू होगई । बालकों और स्त्रियों का ठह लग गया। हर्ष और विषाद, संतोष, और लोभ, ईर्ष्या और लोभ, द्वेष और जलन की नाट्य- शाला सज गई। कानूनदाँ बितान की पत्नी अपने तीनो लड़कों को लिये हुए निकली। शान की पत्नी भी अपने दोनो लड़कों के साथ उपस्थित हुई। गुरदीन ने मीठी बातें करनी शुरू की। पैसे मोली में रखे, धेले की मिठाई दी और धेले-धेले का आशीर्वाद । लड़के दोने लिये उछलते-कूदते घर में दाखिल हुए। अगर सारे गाँव में कोई ऐसा बालक था, जिसने गुरदीन की उदारता से लाभ न उठाया हो, तो वह बाँके गुमान का लड़का धान था।

यह कठिन था, कि बालक धान अपने भाइयों-बहनों को हँस-हँस और उछल-उछलकर मिठाइयाँ खाते देखकर सब कर जाय । उस पर तुर्रा यह कि वे उसे मिठाइयाँ दिखा-दिखाकर ललचाते और चिढ़ाते थे। बेचारा धान चीखताऔर अपनी माता का आँचल पकड़-पकड़कर दरवाज़े की तरफ खींचता था; पर वह अबला क्या करे ? उसका हृदय बच्चे के लिए ऐंठ-ऐंठकर रह जाता था। उसके पास एक पैसा भी नहीं था। अपने दुर्भाग्य पर, जेठानियों की निष्ठुरता पर, और सब से ज़्यादा अपने पति के निखट्टपन पर कुढ़-कुढ़कर रह जाती थी। अपना आदमी ऐसा निकम्मा न होता, तो क्यों दूसरों का मुँह देखना पड़ता, क्यों दूसरों के धक्के खाने पड़ते ? उसने धान को गोद में उठा लिया, और प्यार से दिलासा देने लगी-बेटा, रोओ मत, अबकी गुरदीन आवेगा, तो मैं तुम्हें बहुत-सी मिठाई ले दूंगी, मैं इससे अच्छी मिठाई बाज़ार से मँगवा [ १८० ]दूंगी, तुम कितनी मिठाई खाओगे ? यह कहते-कहते उसकी आँखें भर आई । आह ! यह मनहूस मंगल आज ही फिर आवेगा, और फिर ये ही बहाने करने पड़ेंगे ! हाये अपना प्यारा बच्चा धेले की मिठाई को तरसे, और घर में किसी का पत्थर-सा कलेजा न पसीजे ! वह बेचारी तो इन चिंताओं में डूबी हुई थी, और धान किसी तरह चुप ही न होता था। जब कुछ वश न चला, तो माँ की गोद से ज़मीन पर उतर कर लोटने लगा और रो-रोकर दुनिया सिर पर उठा ली । मा ने बहुत बहलाया, फुसलाया यहाँ तक कि उसे बच्चे के इस हठ पर क्रोध भी आ गया । मानव-हृदय के रहस्य कभी समझ में नहीं आते । कहाँ तो बच्चे को प्यार से चिपटाती थी, कहाँ ऐसी झल्लाई, कि उसे दो-तीन थप्पड़ ज़ोर से लगाये और घुड़ककर बोली-चुप रह अभागे ! तेरा ही मुँह मिठाई खाने का है ! अपने दिन को नहीं रोता, मिठाई खाने चला है!

बाँका गुमान अपनी कोठरी के द्वार पर बैठा हुआ यह कौतुक बड़े ध्यान से देख रहा था । वह इस बच्चे को बहुत चाहता था । इस वक्त के थप्पड़ उसके हृदय में तेज़ भाले के समान लगे, और चुभ गये शायद उनका अभिप्राय भी यही था । धुनिया रूई को धुनकने के लिए ताँत पर चोट लगाता है।

जिस तरह पत्थर और पानी में आग छिपी रहती है, उसी तरह मनुष्य के हृदय में भी-चाहे वह कैसा ही क्रूर और कठोर क्यों न हो- उत्कृष्ट और कोमल भाव छिपे रहते हैं। गुमान की आँखें भर आई, आँसू की बूंदें बहुधा हम हृदय की मलिनता को उज्वल कर देती हैं । गुमान सचेत हो गया। उसने जाकर बच्चे को गोद में उठा लिया और अपनी पत्नी से करुणोत्पादक स्वर में बोला--बच्चे पर इतना क्रोध क्यों करती हो ? तुम्हारा दोषी मैं हूँ, मुझको जो दण्ड चाहे दो । परमात्मा ने चाहा तो कल से लोग इस घर में मेरा और मेरे बाल-बच्चों का भी आदर करेंगे। तुमने आज मुझे सदा के लिए इस तरह जगा दिया, मानों मेरे कानों में शंखनाद कर मुझे कर्म-पथ में प्रवेश करने का उपदेश दिया हो।