प्रेम-द्वादशी/१ शांति

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प्रेम-द्वादशी  (1938) 
द्वारा प्रेमचंद
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प्रेम-द्वादशी


शांति

जब मैं ससुराल आई, तो बिलकुल फूहड़ थी। न पहनने-ओढ़ने का सलीक़ा, न बातचीत करने का ढंग। सिर उठाकर किसी से बातचीत न कर सकती थी। आँखें अपने आप झपक जाती थीं। किसी के सामने जाते शर्म आती, स्त्रियों तक के सामने बिना घूँघट के झिझक होती थी। मैं कुछ हिन्दी पढ़ी हुई थी; पर उपन्यास, नाटक आदि के पढ़ने में आनन्द न आता था। फुर्सत मिलने पर रामायण पढ़ती। उसमें मेरा मन बहुत लगता था। मैं उसे मनुष्य कृत नहीं समझती थी। मुझे पूरा-पूरा विश्वास था, कि उसे किसी देवता ने स्वयं रचा होगा। मैं मनुष्यों को इतना बुद्धिमान् और सहृदय नहीं समझती थी। मैं दिन-भर घर का कोई न कोई काम करती रहती। और कोई काम न रहता, तो चर्खे पर सूत कातती। अपनी बूढ़ी सास से थरथर काँपती थी। एक दिन दाल में नमक अधिक हो गया। ससुरजी ने भोजन के समय सिर्फ इतना ही कहा—'नमक ज़रा अंदाज़ से डाला करो।' इतना सुनते ही हृदय काँपने लगा। मानो मुझे इससे अधिक कोई वेदना नहीं पहुँचाई जा सकती थी।

लेकिन मेरा यह फूहड़पन मेरे अबूजी (पतिदेव) को पसंद न आता था। वह वकील थे। उन्होंने शिक्षा की ऊँची-से-ऊँची डिगरियाँ पाई थीं। वह मुझपर प्रेम अवश्य करते थे; पर उस प्रेम में दया की मात्रा अधिक होती थी। स्त्रियों के रहन-सहन और शिक्षा के संबंध में उनके [  ]विचार बहुत ही उदार थे ! वह मुझे उन विचारों से बहुत नीचे देखकर कदाचित् मन-ही-मन खिन्न होते थे ; परंतु उस में मेरा कोई अपराध न देख कर हमारे रस्म-रिवाज पर मुँझलाते थे। उन्हें मेरे साथ बैठकर बातचीत करने में जरा भी आनन्द न आता । सने आते, तो कोई न कोई अँगरेज़ी पुस्तक साथ लाते, और नोंद न आने तक पढ़ा करते । जो कभी मैं वैठती, कि क्या पढ़ते हो, तो मेरी ओर करुण-दृष्टि से देखकर उत्तर देते--तुम्हें क्या बतलाऊँ, यह 'श्रासकर वाइल्ड' की सर्वश्रेष्ठ रचना है। मैं अपनी अयोग्यता पर बहुत लजित थी। अपने को धिक्कारती, मैं ऐसे विद्वान् पुरुष के योग्य नहीं हूँ। मुझे तो किसी उजड्ड के घर पड़ना था। बाबूजी मुझे निरादर की दृष्टि से नहीं देखते थे, यही मेरे लिये सौभाग्य की बात थी।

एक दिन संध्या समय मैं रामायण पढ़ रही थी। भरतजी रामचंद्रजी की खोज में निकले थे। उनका करुण विलाप पढ़कर मेरा हृदय गद्गद हो रहा था । नेत्रों से अश्रुधारा बह रही थी। हृदय उमड़ा आता था । सहमा बाबूजी कमरे में आये। मैंने पुस्तक तुरन्त बन्द कर दी। उनके मामने मैं अपने फूहड़ान को भरसक प्रकट न होने देती थी ; लेकिन उन्होंने पुस्तक देख ली, और पूछा-रामायन है न ?

मैंने अपराधियों की भाँति सिर झुकाकर कहा-हाँ, जरा देख रही थी।

बाबूजी--इसमें शक नहीं, कि पुस्तक बहुत ही अच्छी, भावों से भरी हुई है ; लेकिन इसमें मानव-चरित्र को वैसी खूबी से नहीं दिखाया गया, जैसा अँगरेज़ या फ्रांसीसी लेखक दिखलाते हैं। तुम्हारी समझ में तो न आवेगा; लेकिन कहने में क्या हरज है, योरप में अाजकल 'स्वाभाविकता' ( Realism) का ज़माना है । वे लोग मनोभावों के उत्थान और पतन का ऐसा वास्तविक वर्णन करते हैं, कि पढ़कर आश्चर्य होता है । हमारे यहाँ कवियों को पग-पग पर धर्म तथा नीति का ध्यान रखना पड़ता है, इसलिए कभी-कभी उनके भावों में अस्वाभाविकता आ जाती है; और यही त्रुटि तुलसीदास में भी है। [  ]मेरी समझ में उस समय कुछ भी न आया। बोली-मेरे लिए तो यही बहुत है, अंगरेजी पुस्तके कैसे समझूँ।।

बावुनी--कोई कठिन बात नहीं । एक घंटे भी रोज़ पड़ो, तो थोड़े ही समय में काफ़ी योग्यता प्राप्त कर सकती हो ; पर तुमने तो मानो मेरी बातें न मानने की सौगंध ही खा ली है। कितना समझाया, कि मुझसे शर्म करने की आवश्यता नहीं ; पर तुम्हारे ऊपर कुछ असर न पड़ा। कितना कहता हूँ, कि ज़रा सफ़ाई ने रहा करो ; परमात्मा सुन्दरता देता है, तो चाहता है, कि उसका श्रृंगार भी होता रहे ; लेकिन जान पड़ता है, तुम्हारी दृष्टि में उसका कुछ भी मूल्य नहीं या शायद तुम सम- झती हो कि मेरे-जैसे कुरूप मनुष्य के लिए तुम चाहे जैसे भी रहो, आवश्यकता से अधिक अच्छी हो । यह अत्याचार मेरे ऊपर है। तुम मुझे ठोक-पीटकर वैराग्य सिखाना चाहती हो । जब मैं दिन-रात मेहनत करके कमाता हूँ, तो स्वभावतः मेरी यह इच्छा होती है कि उस द्रव्य का सबसे उत्तम व्यय हो ; परन्तु तुम्हारा फूहड़पन और पुराने विचार, मेरे सारे परिश्रम पर पानी फेर देते हैं। स्त्रियाँ केवल भोजन बनाने, बच्चे पालने, पति की सेवा करने और एकादशी व्रत रख़ने के लिए नहीं हैं, उनके जीवन का लक्ष्य इमने बहुत ऊँचा है । वे मनुष्यों के समस्त सामाजिक और मानसिक विषयों में समान रूप से भाग लेने की अधिकारिणी हैं। उन्हें मनुष्यों की भांति स्वतंत्र रहने का भी अधिकार प्राप्त है। मुझे तुम्हारी यह बंदी-दशा देखकर बड़ा कष्ट होता है । स्त्री पुरुष की अर्द्धांगिनी मानी गई है ; लेकिन तुम मेरी मानसिक या सामा- जिक, किसी आवश्यकता को पूरा नहीं कर सकतीं। मेरा और तुम्हारा धर्म अलग, आचार-विचार अलग, आमोद-प्रमोद के विषय अलग। जीवन के किसी कार्य में मुझे तुमने किसी प्रकार की सहायता नहीं मिल सकती । तुम स्वयं विचार सकती हो, कि ऐसी दशा में मेरी ज़िन्दगी कैसी बुरी तरह कट रही है।

बाबूजी का कहना बिलकुल यथार्थं था। मैं उनके गले में एक जंजीर की भाँति पड़ी हुई थी। उस दिन से मैंने उन्हीं के कहे अनुसार [  ]चलने की दृढ़ प्रतिज्ञा कर ली ; अपने देवता को किस भाँति असप्रन्न करती?

( २ )

यह तो कैसे कहूँ, कि मुझे पहहने-ओढ़ने से प्रेम न था । था, और उतना ही था, जितना दुसरी स्त्रियों को होता है। जब बालक और वृद्ध तक शृङ्गर पसन्द करते हैं, तो मैं तो युवती ठहरी । मन भीतर-ही- भीतर मचलकर रह जाता था। मेरे मायके में मोटा खाने और मोटा पहनने की चाल थी। मेरी माँ और दादी हाथों से सूत कातती थीं, और जुलाहे से उसी मूत के कपड़े बुनवा लिये जाते थे। बाहर बहुत कपड़े आते थे। मैं कभी जरा महीन काड़ा पहनना चाहती या शृङ्गार की रुचि दिखाती, तो अम्मी कौरन टोकतों और समझाती, कि बहुत बनाव मैबार भले घर की लड़कियों को शोभा नहीं देता। ऐसी आदत अच्छी नहीं । यदि कभी वह मुझे, दर्पण के सामने देख लेतीं, तो झिड़- कने लगती : परन्तु अब बाबूजी की ज़िद से मेरी यह मिमक जाती रही। मेरी सास और ननदें मेरे बनाव-श्रृंगार पर नाक-भौं सिकोड़ती ; पर मुझे अब उनकी परवा न थी। बाबूजी की प्रेम-परिपूर्ण-दृष्टि के लिए मैं झिड़कियाँ भी सह सकती थी। अब उनके और मेरे विचारों में समा- नता पाती जाती थी। वह अधिक प्रसन्न-चित्त जान पड़ते थे । वह मेरे लिए फ़ैशनेबुल साड़ियाँ, सुन्दर जाकटें, चमकते हुए जूते और कामदार स्लीपर लाया करते ; पर मैं इन वस्तुओं को धारण कर किसी के सामने न निकलती, ये वस्त्र केवल बाबूजी के ही सामने पहनने के लिए रखे थे। मुझे इस प्रकार बनी-ठनी देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता होती थी। स्त्री अपने पति की प्रसन्नता के लिए क्या नहीं कर सकती ? अब घर के काम- काज में मेरा जी न लगता था। मेरा अधिक समय बनाव-शृंगार तथा पुस्तकावलोकन में ही बीतने लगा । पुस्तकों से मुझे प्रेम होने लगा था।

यद्यपि अभी तक मैं अपने सास-ससुर का लिहाज़ करती थी, उनके सामने बूट और गाउन पहनकर निकलने का मुझे साहस न होता था ; [  ]पर मुझे उनकी शिक्षा-पूर्ण बातें न भाती थीं। मैं सोचती, जब मेरा पति सैकड़ों रूपए महीना कमाता है, तो घर में चेरी बनकर क्यों रहूँ? यों अपनी इच्छा से चाहे जितना काम करूँ; पर ये लोग मुझे आज्ञा देनेवाले कौन होते हैं ? मुझमें अत्माभिमान की मात्रा बढ़ने लगी । यदि अम्मा मुझे कोई काम करने को कहतीं, तो मैं अदबदाकर उसे टाल जाती। एक दिन उन्होंने कहा--सबेरे के जलपान के लिए कुछ दालमोट बना लो। मैं बात अनसुनी कर गई । अम्माँ ने कुछ देर तक मेरी राह देखी ; पर जब मैं अपने कमरे से न निकली, तो उन्हें गुस्सा हो आया । वह बड़ी ही चिड़चिड़ी प्रकृति की थी! तनिक-सी बात पर टुनक जाती थीं। उन्हें अपनी प्रतिष्ठा का इतना अभिमान था,कि मुझे बिलकुल लौंडी ही सम- झती थीं। हाँ, अपनी पुत्रियों से सदैव नम्रता से पेश आती ; बल्कि मैं तो यह कहूँगी, कि उन्हें सिर चढ़ा रखा था। वह क्रोध में भरी हुई मेरे कमरे के द्वार पर आकर बोलीं-तुमसे मैंने दालमोट बनाने को कहा था, बनाया ? मैं कुछ रुष्ट होकर बोली-अभी फुर्सत नहीं मिली।

अम्माँ--तो तुम्हारी जान में दिन-भर पड़े रहना ही बड़ा काम है ? यह आजकल तुम्हें हो क्या गया है ? किस घमंड में हो ? क्या यह सोचती हो, कि मेरा पति कमाता है, तो मैं काम क्यों करूँ ? इस घमण्ड में न भूलना! तुम्हारा पति लाख कमाये ; लेकिन घर में राज मेरा ही रहेगा। आज वह चार पैसे कमाने लगा है, तो तुम्हें मालकिन बनने की हवस हो रही है; लेकिन उसे पालने-पोसने तुम नहीं आई थीं, मैंने ही उसे पढ़ा-लिखाकर इस योग्य बनाया है । वाह ! कल की छोकरी और अभी से यह गुमान!

मैं रोने लगी। मुह से एक बात न निकली। बाबूजी उस समय ऊपर कमरे में बैठे कुछ पढ़ रहे थे । ये सब बातें उन्होंने सुनीं। उन्हें बड़ा कष्ट हुआ। रात को जब वह घर आये तो बोले-देखा तुमने आज अम्माँ का क्रोध ? यही अत्याचार है, जिससे स्त्रियों को अपनी ज़िन्दगी पहाड़ मालूम होने लगती है। इन बातों से हृदय में कितनी वेदना होती है, इसका जानना असम्भव है। जीवन भार हो जाता है, हृदय जर्जर हो [  ]जाता है, और मनुष्य की आत्मोन्नति उसी प्रकार रुक जाती है, जैसे जल, प्रकाश और वायु के बिना पौदे सूख़ जाते हैं। हमारे घरों में यह बड़ा अन्वेर है। अब मैं तो उनका पुत्र ही ठहरा, उनके सामने मुँह नहीं खोल सकता । मेरे ऊपर उनका बहुत बड़ा अधिकार है ; अतएव उनके विरुद्ध एक शब्द भी कहना मेरे लिये लज्जा की बात होगी, और यही बन्धन तुम्हारे लिए भी है । यदि तुमने उनकी बातें चुपचाप न सुन ली होती, तो मुझे बहुत ही दुःख होता | कदाचित् मैं विष खा लेता । ऐसी दशा में दो ही बातें सम्भव हैं, या तो सदैव उनकी बुइकियों-मिड़कियों को सहे जानो, या अपने लिये कोई दूसरा रास्ता हूँढ़ो। अब इस बात की श्राशा करना, कि अम्माँ के स्वभाव में कोई परिवर्तन होगा, बिलकुल भ्रम है । बोलो, तुम्हें क्या स्वीकार है !

मैंने डरते-डरते कहा--आपकी जो आज्ञा हो, वह करूँ । अब कभी न पहूँ लिखूगी, और जो कुछ वह कहेंगी, वही करूँगी । यदि वह इसी में प्रसन्न हैं, तो यही सही-मुझे बढ़-लिखकर क्या करना है ?

बाबूजी--पर यह मैं नहीं चाहता। अम्माँ ने आज प्रारम्भ किया है। अब रोज बढ़ती ही जायँगी । मैं तुम्हें जितना ही सभ्य तथा विचारशील बनाने की चेष्टा करूँगा, उतना ही उन्हें बुरा लगेगा, और उनका गुस्सा तुम्हीं पर उतरेगा । उन्हें पता नहीं, कि जिस आवहवा में उन्होंने अपनी जिन्दगी बिताई है, वह अब नहीं रही। विचार-स्वातंत्र्य और समयानु कूलता उनकी दृष्टि में अधर्म से कम नहीं । मैंने यह उपाय सोचा है कि किसी दूसरे शहर में चलकर अपना अड्डा जमाऊँ । मेरी वकालत भी यहाँ नहीं चलती ; इसलिए किसी बहाने की भी आवश्यकता न पड़ेगी।

मैं इस तजवीज़ के विरुद्ध कुछ न बोली ; यद्यपि मुझे अकेले रहने से भय लगता था, तथापि वहाँ स्वतंत्र रहने कीपाशा ने मन को प्रफु बित कर दिया। बावजी-

(३)

उसी दिन से अम्माँ ने मुझसे बोलना छोड़ दिया। महरियों, पड़ो- सियों और ननदों के आगे मेरा परिहास किया करतीं। यह मुझे बहुत [  ]बुरा मालूम होता था । इसके बदले यदि वह कुछ भली-बुरी बातें कह लेती, तो मुझे स्वीकार था। मेरे हृदय से उनकी मान मर्यादा घटने लगी। किसी मनुष्य पर इस प्रकार कटाक्ष करना उसके हृदय से अपने आदर को मिटाने के समान है। मेरे ऊपर सबने गुरुतर दोषारोपण यह था, कि मैंने बाबूजी पर कोई नोइन-मंत्र क दिया है : वह मेरे इशारों पर चलते हैं ; पर यथार्थ में बात उल्टी ही थी

भाद्र मास था । जन्माष्टमी का त्योहार पाया। घर में सब लोगों ने व्रत रखा। मैंने नी सदैव की भांति व्रत रखा । ठाकुर जी का जन्म रात को बारह बजे होने वाला था, हम सब बैटी गाती बजती थी। बाबूजी इन असभ्य व्यवहारों के बिन कुन विरुद्ध थे। वह होली के दिन रंग भी न खेंलते, गाने-बजाने की तो बात ही अलग। रात को एक बजे जब मैं उनके कमरे में गई, तो मुझे समझने लगे-इस प्रकार शरीर को कष्ट देने से क्या ल भ ? कृष्णा महापुरुष अवश्य थे, और उनकी पूजा करना हमारा कर्तव्य है : पर इस गाने-बजाने से क्या फायदा ? इस दोंग का नाम धर्म नहीं है । धर्म का सम्बन्ध सचाई और ईमान से है, दिखावे से नहीं।

बाबूजी स्वयं इस मार्ग का अनुसरण करते थे । वह भगवद्गता की अत्यन्त प्रशंसा करते ; पर उसका पाठ कभी न करते थे। उपनिषदों की प्रशंसा में उनके मुख से मानो पुष्प-वृष्टि होने लगती थी ; पर मैंने उन्हें कभी कोई उपनिषद् पढ़ते नहीं देखा। वह हिन्दू धर्म के गूढ़ तत्व-ज्ञान पर लटू थे ; पर इसे समयानुकूल नहीं समझते थे। विशेषकर वेदान्त को तो भारत की अवनति का मूल कारण समझते थे ! वह कहा करते, कि इसी वेदान्त ने हमको चौरट कर दिया ; हम दुनिया के पदार्थों को तुच्छ समझने लगे, जिसका फल अब तक भुगत रहे हैं। अब उन्नति का समय है । चुपचाप बैठे रहने से निर्वाह नहीं । संतोष ने ही भारत को गारद कर दिया।

उस समय उनको उत्तर देने की शक्ति मुझमें कहाँ थी ? हाँ, अब जान पड़ता है, कि वह योरप-सभ्यता के चक्कर में पड़े हुए थे। अब

वह स्वयं ऐसी बातें नहीं करते, वह जोश अब ठंडा हो चला है । [  ]

( ४ )

इसके कुछ दिन बाद हम इलाहाबाद चले आये। बाबूजी ने पहले ही एक-दो मंजिला मकान ले रखा था-सब तरह से सजा-सजाया । हमारे यह पाँच नौकर ,-दो स्त्रियाँ, दो पुरुष और एक महराज । अब मैं घर के कुल काम-काज ने छुट्टी पा गई । कभी जी घबगता, कोई उपन्यास लेकर बढ़ने लगती।

यहाँ फूल और पीतन के वर्नन बहुत कम थे | चीनी की रक वियः और प्याले में प्रान्तमारियों में मजे रखे थे। भजन मेज पर अनाया! बाबूजी बड़े चाव में भोजन करने । ममें पद्दन्ने कुछ शर्म 'अन श्री : लेकिन धीरे-धीरे में भी मदद पर भोजन करने लगी! हमारे पास एक मुन्दर टमटम भी थी । अब हम पैदन्न बिन्नकल न चलने । किमी से मिलने दम पग भी जान ईना. तो गाड़ी तैयार कराई जाती । बाबूजी कहते--यही बैशन है।

बबृजी की आमदनी अभी बहुत कम थी। मनी-भाँति खर्च भी न चलता था । कभी-कभी मैं उन्हें चिन्त कुल देखती तो समझती कि जब आप इतनी कम है. ने व्यय इतना क्यों बढ़ा रखा है ? कोई छोटा- सा मकान ले लो। दो नौकरों से भी काम चल सकता है । लेकिन बाबू जी मेरी बातों पर हैन देते और कहते-मैं अपनी दरिद्रता का द्विदोरा अपने आप क्यों पीटू ? दरिद्रता प्रकट करना दरिद्र होने से अधिक दुःग्व- दायी होता है। भृन्न जाओ कि हम लोग निधन हैं, फिर लक्ष्मी हमारे पास श्राप दौड़ी श्रावेगी । खर्च बढ़ना, अवश्यकताओं का अधिक होना ही द्रव्योपार्जन की पहनी नदी है। इसमे हमारी गुत शक्तियाँ विक्रमित हो जाती हैं। और हम उन कष्टों को झेलते हुए आगे पग धरने के योग्य होते है । संतप दरिद्रता का इमरा नाम है ।

अस्तु,हम लोगों का खर्च दिन-दिन बढ़ता ही जाता था । हम लोग सप्ताह में तीन बार थियेटर ज़रूर देखने जाते । मताह में एक बार मित्रों को भोज अवश्य ही दिया जाता । अब मुझे सूझने लगा, कि जीवन का लक्ष्य सुख-भोग ही है। ईश्वर को हमारी उपासना की इच्छा नहीं। [  ]उसने हमको उत्तम-उत्तम वस्तुएँ भोगने के लिए ही दी हैं। उनको भोगना ही उसकी सर्वोत्तम आराधना है। एक ईसाई लेडी मुझे पढ़ाने तथा गाना सिखाने आने लगी । घर में एक पियानो भी आ गया। इन्हीं आनन्दों में फँसकर मैं रामायण और भक्तमाल को भूल गई । वे पुस्तकें मुझे अप्रिय मालूम होने लगीं । देयतों पर से विश्वास भी उठ गया ।

धीरे-धीरे यहाँ के बड़े लोगों से स्नेह और सम्बन्ध बढ़ने लगा। यह एक बिलकुल नई सोसाइटी थी । इसका रहन-सहन, आहार-व्यवहार और आचार-विचार मेरे लिए सर्वथा अनोखे थे। मैं इस सोसाइटी में ऐसी जान पड़ती, जैसे मोरों में कौया । इन लेडियों की बातचीत कभी थियेटर और घुड़दौड़ के विषय में होती, कभी टेनिस, समाचार-पत्रों और अच्छे- अच्छे लेखकों के लेखों पर । उनके चातुर्य, बुद्धि की तीव्रता, फुतीं और चपलता पर मुझे अचंभा होता। ऐसा मालूम होता, कि वे ज्ञान और प्रकाश की पुतलियाँ हैं । वे बिना यूँघट बाहर निकलतीं । मैं उनके साहस पर चकित रह जाती। वे मुझे भी कभी-कभी अपने साथ ले जाने की चेष्टा करती लेकिन मैं लजावश न जा सकती। मैं उन ले डियों को कभी उदास या चिन्तित न पाती। मिस्टर दास बहुत बीमार थे ;परन्तु मिसेज दास के माथे पर चिन्ता का चिह्न तक न था। मिस्टर बागड़ी नैनीताल में तपेदिक का इलाज करा रहे थे ; पर मिसेज़ बागड़ी नित्य टेनिस खेलने जाती थीं। इस अवस्था में मेरी क्या दशा होती, यह मैं ही जानती हूँ।

इन लेडियों की रीति-नीति में एक आकर्षण-शक्ति थी, जो मुझे खीचे लिये जाती थी। मैं उन्हें सदैव आमोद-प्रमोद के लिए उत्सुक देखती, और मेरा भी जी चाहता कि उन्हीं की भाँति मैं निस्संकोच हो जाती । उनका अँगरेजी वार्तालाप सुनकर मुझे मालूम होता कि वे देवियाँ हैं । मैं अपनी इन त्रुटियों की पूर्ति के लिए प्रयत्न किया करती थी।

इसी बीच में मुझे एक खेदजनक अनुभव होने लगा ; यद्यपि बाबूजी पहले से मेरर अधिक आदर करते, मुझे सदैव 'डियर-डार्लिंग' आदि कहकर पुकारते थे, तथापि मुझे उनकी बातों में एक प्रकार की बनावट [ १० ]मालूम होती थी। ऐसा प्रतीत होता, मानो ये बातें उनके हृदय से नहीं, केवल मुख से निकलती हैं। उनके स्नेह और प्यार में हार्दिक भावों की जगह अलंकार ज्यादा होता था; किन्तु और भी अचम्भे की बात तो यह थी, कि अब मुझे बाबूजी पर वह पहले की-सी श्रद्धा न रही थी। अब उनकी सिर की पीड़ा से मेरे हृदय में पीड़ा न होती थी। मुझमें आत्म-गौरव का आविर्भाव होने लगा था। अब मैं अपना बनाव-शृङ्गार इसलिए करती थी, कि संसार में यह भी मेरा एक कर्त्तव्य है ; इसलिए नहीं, कि मैं किसी एक पुरुष की व्रतधारिणी हूँ। अब मुझे भी अपनी सुन्दरता पर गर्व होने लगा था । मैं अब किसी दूसरे के लिए नहीं, अपने लिये जीती थी । त्याग तथा सेवा का भाव मेरे हृदय से लुप्त होने लगा था।

मैं अब भी परदा करती थी ; परन्तु हृदय अपनी सुन्दरता की सरा- हना सुनने के लिए व्याकुल रहता था। एक दिन मिस्टर दास तथा और भी अनेक सभ्यगण बाबूजी के साथ बैठे हुए थे । मेरे और उनके बीच में केवल एक परदे की आड़ थी । बाबूजी मेरी इस झिझक से बहुत ही लजित थे । इसे वह अपनी सभ्यता में काला धब्बा समझते थे । कदाचित् वह दिखाना चाहते थे कि मेरी स्त्री इसलिए परदे में नहीं है, कि वह रूप तथा वस्त्राभूषणों में किसी से कम है ; बल्कि इसलिए, कि अभी उसे लज्जा आती है । वह मुझे किसी बहाने से बारम्बार परदे के निकट बुलाते, जिसमें उनके मित्र मेरी सुन्दरता और वस्त्राभूषण देख लें । अन्त में कुछ दिन बाद मेरी झिझक गायब हो गई । इलाहाबाद आने के पूरे दो वर्ष बाद मैं बाबूजी के साथ बिना परदे के सैर करने लगी। सैर के बाद टेनिस की नौबत आई । अन्त को मैंने क्लब में जाकर दम लिया। पहले यह टेनिस और क्लब मुझे तमाशा-सा मालूम होता था, मानो वे लोग व्यायाम के लिए नहीं ; बल्कि फैशन के लिए टेनिस खेलने आते थे। वे कभी न भूलते थे, कि हम टेनिस खेल रहे हैं । उनके प्रत्येक काम में, झुकने में, दौड़ने में, उथकने में एक कृत्रिमता होती थी, जिससे यह प्रतीत होता था कि इस खेल का प्रयोजन कसरत नहीं, केवल दिखावा है । [ ११ ]क्लब में इससे भी विचित्र अवस्या थी। वह पूरा स्वाँग था, भद्दा और बेजोड़ । लोग अँगरेज़ी के चुने हुए शब्दों का प्रयोग करते थे, जिनमें कोई सार न होता था, नकली हँसी हँसते थे, जिसका कोई अव- सर न होता था, स्त्रियों की वह फूहड़ निर्लज्जता और पुरुषों की वह भावशून्य स्त्री-पूजा मुझे तनिक भी न भाती थी। चारों ओर अँगरेज़ी चाल-दाल की एक हास्यजनक नक्कल थी; परन्तु क्रमशः मैं भी वही रंग पकड़ने और उन्हीं का अनुकरण करने लगी। अब मुझे अनुभव हुआ, कि इस प्रदर्शन-लोलुपता में कितनी शक्ति है । मैं अब नित्य नये शृङ्गार करती, नित्य नया रूप भरती, केवल इसलिए कि क्लब में सबकी आँखों में चुभ जाऊँ ! अब मुझे बाबूजी की सेवा-सत्कार से अधिक अपने बनाव- शृङ्गार की धुन रहती थी। यहाँ तक कि यह शौक एक नशा-सा बन गया । इतना ही नहीं, लोगों से अपने सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर मुझे एक अभिमान-मिश्रित प्रानन्द का अनुभव होने लगा। मेरी लज्जाशीलता की सीमाएँ विस्तृत हो गई। वह दृष्टिपात, जो कभी मेरे शरीर के प्रत्येक रोएँ को खड़ा कर देता, और वह हास्य-कटाक्ष , जो कभी मुझे विष खा लेने को प्रस्तुत कर देता, उनसे अब मुझे एक उन्माद-पूर्ण हर्ष होता था ; परन्तु जब कभी मैं अपनी अवस्था पर आन्तरिक दृष्टि डालती, तो मुझे बड़ी घबराहट होती थी। यह नाव किस घाट लगेगी? कभी-कभी इरादा करती, कि क्लब न जाऊँगी ; परन्तु समय आते ही फिर तैयार हो जाती। मैं अपने वश में न थी। भेरी सत्कल्पनाएँ निर्बल हो गई थीं।

( ५ )

दो वर्ष और बीत गये, और अब बाबूजी के स्वभाव में एक विचित्र परिवर्तन होने लगा। वह उदास और चिंतित रहने लगे। मुझसे बहुत कम बोलते । ऐसा जान पड़ता, कि इन्हें कठिन चिन्ता ने घेर रखा है, या कोई बीमारी हो गई है। मुँह बिलकुल सूखा रहता था। तनिक-तनिक-सी बात पर नौकरों से झल्लाने लगते, और बाहर बहुत कम जाते। [ १२ ]अभी एक ही मास पहले वह सौ काम छोड़कर क्लब अवश्य जाते थे, वहाँ गये बिना उन्हें कल न पड़ती थी ; पर अब अधिकतर अपने कमरे में आरामकुर्सी पर लेटे हुए समाचार पत्र और पुस्तकें देखा करते थे। मेरी समझ में न आता, कि बात क्या है ?

एक दिन उन्हें बड़े ज़ोर का बुखार आया, दिन-भर बेहोश पड़े रहे ; परन्तु मुझे उनके पास बैठने में अनकुस-सा लगता था। मेरा जी एक उपन्यास में लगा हुआ था । उनके पास जाती और पल-भर में फिर लौट आती थी। टेनिस का समय आया, तो दुविधा में पड़ गई, कि जाऊँ या न जाऊँ । देर तक मन में यह संग्राम होता रहा । अन्त को मैंने यही निर्णय किया, कि मेरे यहाँ रहने से यह कुछ अच्छे तो हो नहीं जायँगे, इससे मेरा यहाँ बैठा रहना बिलकुल निरर्थक है । मैंने बढ़िया वस्त्र पहने, और रैकेट लेकर क्लब-घर जा पहुँची। वहाँ मैंने मिसेज़ दास और मिसेज़ बागची से बाबूजी की दशा बतलाई, और सजल नेत्र चुपचाप बैठी रही। जब सब लोग कोर्ट में जाने लगे, और मिस्टर दास ने मुझसे चलने को कहा, तो मैं एक ठंडी अाह भरकर कोर्ट में जा पहुंची और खेलने लगी।

आज से तीन वर्ष पूर्व बाबूजी को इसी प्रकार बुखार आ गया था, मैं रात-भर उन्हें पंखा झलती रही थी । हृदय व्याकुल था, और यही जी चाहता था, कि इनके बदले मुझे बुखार आ जाय ; परन्तु यह उठ बैठे ! पर अब हृदय तो स्नेह-शून्य हो गया था, दिखावा अधिक था । अकेले रोने की मुझमें क्षमता न रह गई थी। मैं सदैव की भाँति रात को नौ बजे लौटी। बाबूजी का जी कुछ अच्छा जान पड़ा । उन्होंने मुझे केवल दबी दृष्टि से देखा, और करवट बदल ली ; परन्तु मैं लेटी, तो मेरा ही हृदय मुझे अपनी स्वार्थपरता और प्रमोदासक्ति पर धिक्कारता रहा ।

मैं अब अँगरेजी उपन्यासों को समझने लगी थी। हमारी बात- चीत अधिक उत्कृष्ट और आलोचनात्मक होती थी।

हमारी सभ्यता का आदर्श अब बहुत ही उच्च हो गया था। हमको अब अपनी मित्र-मंडली से बाहर दूसरों से मिलने-जुलने में संकोच होता था । अब हम अपने से छोटी श्रेणी के लोगों से बोलने में अपना [ १३ ]अपमान समझते थे। नौकरों को अपना नौकर समझते थे, और बस, हमको उनके निजी मामलों से कुछ मतलब न था। हम उनसे अलग रहकर उनके ऊपर अपना रब जमाये रखना चाहते थे । हमारी इच्छा यह थी, कि वह हम लोगों को साहब समझे । हिन्दुस्तानी स्त्रियों को देखकर मुझे उनसे घृणा होती थी ; उनमें शिष्टता न थी। खैर ।

बाबूजी का जी दूसरे दिन भी न सँभला । मैं क्लब न गई ; परन्तु जब लगातार तीन दिन तक उन्हें बुखार आता गया, और मिसेज़ दास ने बारम्बार एक नर्स बुलाने का आदेश किया, तो मैं सहमत हो गई। उस दिन से रोगी की सेवा-शुश्रूषा से छुट्टी पाकर बड़ा हर्ष हुआ । यद्यपि दो दिन मैं क्लब न गई थी ; परन्तु मेरा जी वहीं लगा रहता था ; बल्कि अपने भीरुता पूर्ण त्याग पर क्रोध भी अाता था ।

एक दिन तीसरे पहर मैं कुर्सी पर लेटी हुई एक अँगरेज़ी पुस्तक पढ़ रही थी। अचानक मन में यह विचार उठा, कि बाबूजी का बुखार असाध्य हो जाय, तो ? परन्तु इस विचार से मुझे लेश-मात्र भी दुःख न हुआ । मैं इस शोकमय कल्पना का मन-ही-मन आनन्द उठाने लगी। मिसेज़ दास, मिसेज़ नायडू, मिसेज़ श्रीवास्तव, मिस खरे, मिसेज़ शरग़ा अवश्य ही मातमपुर्सी करने आवेगी। उन्हें देखते ही मैं सजल नेत्र हो उठूँगी, और कहूँगी--बहनो ! मैं लुट गई। हाय, मैं लुट गई ! अब मेरा जीवन अँधेरी रात के भयावह वन या श्मशान के दीपक के समान है ! परन्तु मेरी अवस्था पर दुःख न प्रकट करो । मुझपर जो पड़ेगी, उसे मैं उस महान् आत्मा की मोक्ष के विचार से सह लूँगी ।

मैंने इस प्रकार मन में एक शोक-पूर्ण व्याख्यान की रचना कर डाली । यहाँ तक कि अपने उस वस्त्र के विषय में भी निश्चय कर लिया जो मृतक के साथ श्मशान जाते समय पहनूंगी।

इस घटना की शहर-भर में चर्चा हो जायगी। सारे कैंटोन्मेंट के लोग मुझे समवेदना के पत्र भेजेंगे। तब मैं उनका उत्तर समाचार-पत्रों में प्रकाशित करा दूंगी कि मैं प्रत्येक शोक-पत्र का उत्तर देने में असमर्थ हूँ। हृदय के टुकड़े-टुकड़े हो गये हैं, उसे रोने के सिवा और किसी काम के हुआ। [ १४ ]लिए समय नहीं है । मैं इस हमदर्दी के लिए उन लोगों की कृतज्ञ हूँ, और उनसे विनय-पूर्वक निवेदन करती हूँ, कि वे मृतक की आत्मा की सद्गति के निमित्त ईश्वर से प्रार्थना करें।

मैं इन्हीं विचारों में डूबी हुई थी, कि नर्स ने आकर कहा--आपको साहब याद करते हैं। यह मेरे क्लब जाने का समय था । मुझे उनका बुलाना अखर गया ; लेकिन क्या करती, किसी तरह उनके पास गई । बाबूजी को बीमार हुए लगभग एक मास हो गया था। वह अत्यन्त दुर्बल हो रहे थे। उन्होंने मेरी ओर विनय-पूर्ण दृष्टि से देखा । उसमें आँसू भरे हुए थे। मुझे उन पर दया आई । बैठ गई, और ढाढ़स देते हुए बोली--क्या करूँ ? कोई दूसरा डाक्टर बुलाऊँ ?

बाबूजी आँखें नीची करके अत्यन्त करुणा-भाव से बोले--मैं यहाँ कभी नहीं अच्छा हो सकता, मुझे अम्माँ के पास पहुँचा दो।

मैने कहा-क्या आप समझते हैं, कि वहाँ आपकी चिकित्सा यहाँ से अच्छी होगी?

बाबूजी बोले--क्या जाने क्यों मेरा जी अम्माँ के दर्शनों को लाला यित हो रहा है । मुझे ऐसा मालूम होता है कि मैं वहाँ बिना दवा-दर्पन के भी अच्छा हो जाऊँगा।

मैने--यह आपका केवल विचार-मात्र है।

बाबूजी--शायद ऐसा ही हो ; लेकिन मेरी यह विनय स्वीकार करो । मैं इस रोग से नहीं, इस जीवन से ही दुःखित हूँ।

मैंने अचरज से उनकी ओर देखा ।

बाबूजी फिर बोले--हाँ, मैं इस ज़िंदग़ी से तंग आ गया हूँ। मैं अब समझ रहा हूँ, कि मैं जिस स्वच्छ, लहराते हुए निर्मल जल की ओर दौड़ा जा रहा था, वह मरु-भूमि है । मैं इस प्रकार के जीवन के बाहरी रूप पर लट्टू हो रहा था ; परन्तु अब मुझे उसकी आन्तरिक अवस्थाओं का बोध हो रहा है । इन चार वर्षों में मैंने इस उपवन में खूब भ्रमण किया, और उसे आदि से अन्त तक कंटकमय पाया । यहाँ न तो हृदय की शांति है, न आत्मिक आनन्द ! यह एक उन्मत्त, अशान्तिमय, स्वार्थ पूर्ण विलास[ १५ ]युक्त जीवन है । यहाँ न नीति है न धर्म, सहानुभूति न सहृदयता । परमात्मा के लिए मुझे इस अग्नि से बचायो । यदि और कोई उपाय न हो तो अम्माँ को एक पत्र ही लिख दो । वह अवश्य यहाँ आवेंगी। अपने अभागे पुत्र का दुःख उनसे न देखा जायगा । उन्हें इस सोसाइटी की हवा अभी नहीं लगी, वह आवेंगी। उनकी वह ममता-पूर्ण दृष्टि, वह स्नेह-पूर्ण सुश्रूषा मेरे लिए सौ औषधियों का काम करेगी । उनके मुख पर वह ज्योति प्रकाशमान होगी, जिसके लिए मेरे नेत्र तरस रहे हैं। उनके हृदय में स्नेह है, विश्वास है । यदि उनकी गोद में मैं मर भी जाऊँ तो मेरी आत्मा को शांति मिलेगी।

मैं समझी, कि यह बुखार की बकझक है । नर्सं से कहा--ज़रा इसका टेंपरेचर तो लो, मैं अभी डाक्टर के पास जाती हूँ। मेरा हृदय एक अज्ञात भव से काँपने लगा। नर्स ने थरमामीटर निकाला ; परन्तु ज्यों ही वह बाबूजी के समीप गई, उन्होंने उसके हाथ से वह यंत्र छीन- कर पृथ्वी पर पटक दिया। उसके टुकड़े-टुकड़े हो गये। फिर मेरी ओर एक अवहेलना-पूर्ण दृष्टि से देखकर कहा-साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहती हो कि मैं क्लब-घर जाती हूँ, जिसके लिये तुमने ये वस्त्र धारण किये हैं और गाउन पहनी है । खैर, उधर से घूमती हुई यदि डाक्टर के पास जाना, तो उनसे कह देना कि यहाँ टेंपरेचर उस बिन्दु पर आ पहुँचा है, जहाँ आग लग जाती है।

मैं और भी अधिक भयभीत हो गई । हृदय में एक करुण चिन्ता का संचार होने लगा । गला भर आया । बाबूजी ने नेत्र मूंद लिये थे, और उनकी साँस वेग से चल रही थी। मैं द्वार की ओर चली कि किसी को डाक्टर के पास भेजूँ । यइ फटकार सुनकर स्वयं कैसे जाती ? इतने में बाबूजी उठ बैठे और विनीत भाव से बोले--श्यामा, मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ । बात दो सप्ताह से मन में थी ; पर साहस न हुआ । आज मैंने निश्चय कर लिया है कि कह ही डालू । मैं अब फिर अपने घर जाकर वही पहले की-सी जिन्दगी बिताना चाहता हूँ। मुझे अब इस जीवन से घृणा हो गई है, और यही मेरी बीमारी का मुख्य कारण है । मुझे शारी[ १६ ]रिक नहीं, मानसिक कष्ट है । मैं फिर तुम्हें वही पहले की-सी सलज्ज, नीचा सिर करके चलनेवाली, पूजा करनेवाली, रामायण पढ़नेवाली, घर का काम-काज करनेवाली, चरखा कातनेवाली, ईश्वर से डरनेवाली,पति- श्रद्धा से परिपूर्ण स्त्री देखना चाहता हूँ | मैं विश्वास करता हूँ, तुम मुझे निराश न करोगी। तुमको सोल हो पाने अपनी बनाना और सोलहो पाने तुम्हारा बनना चाहता हूँ। मैं अब समझ गया, कि उसी सादे पवित्र जीवन में वास्तविक सुख है। बोलो, स्वीकार है ? तुमने सदैव भेरी आज्ञाओं का पालन किया है, इस समय निराश न करना ; नहीं तो इस कष्ट और शोक का न जाने कितना भयंकर परिणाम हो !

मैं सहसा कोई उत्तर न दे सकी। मन में सोचने लगी--इस स्वतन्त्र जीवन में कितना सुख था ? ये मजे वहाँ कहाँ ? क्या इतने दिन स्वतन्त्र वायु में विचरण करने के पश्चात् फिर उसी पिंजड़े में जाऊँ ? वही लौड़ी बनकर रहूँ ? क्यों इन्होंने मुझे वर्षों स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाया, वर्षों देवतों की, रामायण की, पूजा-पाठ की, व्रत-उपवास की बुराई की ; हँसी उड़ाई ? अब जब मैं उन बातों को भूल गई, उन्हें मिथ्या समझने लगी, तो फिर मुझे उसी अन्धकूप में ढकेलना चाहते हैं। मैं तो इन्हीं की इच्छा के अनुसार चलती हूँ, फिर मेरा अपराध क्या है ? लेकिन बाबूजी के मुख पर एक ऐसी दीनता पूर्ण विवशता थी, कि मैं प्रत्यक्ष अस्वीकार न कर सकी । बोली-आखिर आपको यहाँ क्या कष्ट है ?

मैं उनके विचारों की तह तक पहुँचना चाहती थी ।

बाबूजी फिर उठ बैठे, और मेरी ओर कठोर दृष्टि से देखकर बोले-- बहुत ही अच्छ होता,कि तुम इस प्रश्न को मुझसे पूछने के बदले अपने ही हृदय से पूछ लेती । क्या अब मैं तुम्हारे लिये वही हूँ, जो आज से तीन वर्ष पहले था ? जब मैं तुमसे अधिक शिक्षा प्राप्त, अधिक! बुद्धि- मान्, अधिक जानकार होकर तुम्हारे लिये वह नहीं रहा जो पहले था- तुमने चाहे इसका अनुभव न किया हो ; परन्तु मैं स्वयं कह रहा हूँ--तो मैं कैसे अनुमान करूँ, कि उन्हीं भावों ने तुम्हें स्खलित न किया होगा ? नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष चिह्न देख पड़ते हैं, कि तुम्हारे हृदय पर उन भावों [ १७ ]का और भी अधिक प्रभाव पड़ा है । तुमने अपने को ऊपरी बनाव-चुनाव और विलास के भँवर में डाल दिया है, और तुम्हें उसकी लेशमात्र भी सुध नहीं है । अब मुझे पूर्ण विश्वास हो गया, कि सभ्यता, स्वेच्छाचारिता का भूत स्त्रियों के कोमल हृदय पर बड़ी सुगमता से कब्जा कर सकता है। क्या अब से तीन वर्ष पूर्व भी तुम्हें यह साहस हो सकता था, कि मुझे इस दशा में छोड़कर किसी पड़ोसिन के यहाँ गाने-बजाने चली जातीं ? मैं बिछौने पर पड़ा रहता, और तुम किसी के घर जाकर कलोलें करती ? स्त्रियों का हृदय आधिक्य-प्रिय होता है ; परन्तु इस नवीन प्राधिक्य के बदले मुझे वह पुराना आधिक्य कहीं ज्यादा पसन्द है । उस आधिक्य का फल आत्मिक एवं शारीरिक अभ्युदय और हृदय की पवि- त्रता थी ; पर इस आधिक्य का परिणाम है छिछोरापन, निर्लज्जता, दिखावा और स्वेच्छाचार । उस समय यदि तुम इस प्रकार मिस्टर दास के सम्मुख हँसती-बोलतीं, तो मैं या तो तुम्हें मार डालता, या स्वयं विष-पान कर लेता ; परन्तु बेहयाई ऐसे जीवन का प्रधान तत्त्व है । मैं सब कुछ स्वयं देखता और सहता कदाचित् सहे भी जाता, यदि इस बीमारी ने मुझे सचेत न कर दिया होता । अब यदि तुम यहाँ बैठी भी रहो, तो मुझे सन्तोष न होगा ; क्योंकि मुझे यह विच दुखित करता रहेगा, कि तुम्हारा हृदय यहाँ नहीं है । मैंने अपने को उस इन्द्र- जाल से निकालने का यह निश्चय कर लिया है, जहाँ धन का नाम मान है,इन्द्रिय-लिप्सा का सभ्यता और भ्रष्टता का विचार-स्वातंत्र्य । बोलो, मेरा प्रस्ताव स्वीकार है ?

मेरे हृदय पर वज्रपात-सा हो गया । बाबूजी का अभिप्राय पूर्णतया हृदयंगम हो गया । अभी हृदय में कुछ पुरानी लज्जा बाकी थी। यह यंत्रणा असह्य हो गई । लज्जा पुनर्जीवित हो उठी । अन्तरात्मा ने कहा- अवश्य ! मैं अब वह नहीं हूँ, जो पहले थी। उस समय मैं इनको अपना इष्टदेव मानती थी, इनकी अाज्ञा शिरोधार्य थी ; पर अब वह मेरी दृष्टि में एक साधारण मनुष्य हैं। मिस्टर दास का चित्र मेरे नेत्रों के सामने खिंच गया। कल मेरे हृदय पर इस तरात्मा की बातों का कैमा नशा ला [ १८ ]गया था, यह सोचते ही नेत्र लज्जा से झुक गये । बाबूजी की आन्तरिक अवस्था उनके मुखड़े ही से प्रकाशमान हो रही थी। स्वार्थ और विलास- लिप्सा के विचार मेरे हृदय से दूर हो गये थे। उनके बदले ये शब्द ज्वलंत अक्षरों में लिखे हुए नजर आये--तूने फैशन और वस्त्राभूषणों में अवश्य उन्नति की है, तुझमें अपने स्वत्वों का ज्ञान हो पाया है, तुझमें जीवन के सुख भोगने की योग्यता अधिक हो गई है, तू अब अधिक गर्विणी, दृढ़ हृदय और शिक्षा-सम्पन्न भी हो गई ; लेकिन तेरे आत्मिक-बल का विनाश हो गया ; क्योंकि तू अपने कर्तव्य को भूल गई ।

मैं दोनों हाथ जोड़कर बाबूजी के चरणों पर गिर पड़ी। कंठ रुध गया, एक शब्द भी मुँह से न निकला, अश्रु-धारा बह चली ! अब मैं फिर अपने घर पर आ गई हूँ। अम्माँजी अब मेरा अधिक सम्मान करती हैं, बाबूजी सन्तुष्ट देख पड़ते हैं। वह अब स्वयं प्रतिदिन सन्ध्या- वन्दन करते है।

मिसेज़ दास के पत्र कभी-कभी पाते हैं। वह इलाहाबादी सोसाइटी के नवीन समाचारों से भरे होते हैं। मिस्टर दास और मिस भाटिया के सम्बन्ध में कलुषित बातें उड़ रही हैं। मैं इन पत्रों का उत्तर तो दे देती हूँ ; परन्तु चाहती हूँ कि वह अब न पाते, तो अच्छा होता । वह मुझे उन दिनों की याद दिलाते हैं, जिन्हें मैं भूल जाना चाहती हूँ।

कल बाबूजी ने बहुत-सी पुरानी पोथियाँ अग्निदेव को अर्पण की। उनमें आसकर वाइल्ड की कई पुस्तकें थीं। वह अब अँगरेज़ी-पुस्तकें बहुत कम पढ़ते हैं। उन्हें कार्लाइल, रस्किन और एमरसन के सिवा और कोई पुस्तक पढ़ते मैं नहीं देखती। मुझे तो अपनी रामायण और महाभारत में फिर वही आनन्द प्राप्त होने लगा है। चरखा अब पहले से अधिक चलाती हूँ ; क्योंकि इस बीच में चरखे ने खूब प्रचार पा लिया है ।

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