प्रेम-द्वादशी/४ दुर्गा का मन्दिर

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दुर्गा का मन्दिर

बाबू व्रजनाथ कानून पढ़ने में मग्न थे, और उनके दोनों बच्चे लड़ाई करने में। श्यामा चिल्लाती, कि मुन्नू मेरी गुड़िया नहीं देता। मुन्नू रोता था, कि श्यामा ने मेरी मिठाई खा ली।

व्रजनाथ ने क्रुद्ध होकर भामा से कहा—तुम इन दुष्टों को यहाँ से हटाती हो कि नहीं? नहीं तो मैं एक-एक की खबर लेता हूँ।

भामा चूल्हे में आग जला रही थी; बोली—अरे तो अब क्या सन्ध्या को भी पढ़ते ही रहोगे? ज़रा दम तो ले लो।

व्रज॰—उठा तो न जायगा; बैठी-बैठी वहीं से कानून बघारोगी! अभी एक-आध को पटक दूँगा, तो वहीं से गरजती हुई आओगी, कि हाय हाय! बच्चे को मार डाला!

भामा—तो मैं कुछ बैठी या सोई तो नहीं हूँ। ज़रा एक घड़ी तुम्हीं लड़कों को बहलाओगे, तो क्या होगा! कुछ मैंने ही तो उनकी नौकरी नहीं लिखाई।

व्रजनाथ से कोई जवाब न देते बन पड़ा। क्रोध पानी के समान बहाव का मार्ग न पाकर और भी प्रबल हो जाता है। यद्यपि व्रजनाथ नैतिक सिद्धान्तों के ज्ञाता थे; पर उनके पालन में इस समय कुशल न दिखाई दी। मुद्दई और मुद्दालेह, दोनों को एक ही लाठी हाँका, और दोनों को रोते-चिल्लाते छोड़ कानून का ग्रन्थ बगल में दबा कॉलेज-पार्क की राह ली।

(२)

सावन का महीना था। आज कई दिन के बाद बादल हटे थे। हरे-भरे वृक्ष सुनहरी चादरें ओढ़े खड़े थे। मृदु समीर सावन का राग गाता था, और बगले डालियों पर बैठे हिंडोले झूल रहे थे। ब्रजनाथ एक बेंच पर जा बैठे और किताब खोली; लेकिन इस ग्रन्थ की अपेक्षा प्रकृति ग्रन्थ [ ५६ ]का अवलोकन अधिक चित्ताकर्षक था। कभी आसमान को पढ़ते थे, कभी पत्तियों को, कभी छबिमयी हरियाली को, और कभी सामने मैदान में खेलते हुए लड़कों को।

एकाएक उन्हें सामने घास पर कागज़ की एक पुड़िया दिखाई दी। माया ने जिज्ञासा की—आड़ में चलो, देखें इस में क्या है?

बुद्धि ने कहा—तुमसे मतलब? पड़ी रहने दो।

लेकिन जिज्ञासा-रूपी माया की जीत हुई। व्रजनाथ ने उठकर पुड़िया उठा ली। कदाचित् किसी के पैसे पुड़िया में लिपटे गिर पड़े हैं। खोल कर देखा; सावरेन थे! गिना, पूरे आठ निकले। कुतूहल की सीमा न रही।

व्रजनाथ की छाती धड़कने लगी। आठो सावरेन हाथ में लिये सोचने लगे—इन्हें क्या करूँ? अगर यहीं रख दूँ, तो न जाने किसकी नज़र पड़े; न मालूम कौन उठा ले जाय! नहीं, यहाँ रहना उचित नहीं। चलूँ, थाने में इत्तला कर दूँ, और ये सावरेन थानेदार को सौंप दूँ। जिसके होंगे, वह आप ले जायगा या अगर उसको न भी मिलें, तो मुझ पर कोई दोष न रहेगा; मैं तो अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाऊँगा!

माया ने परदे की आड़ से मन्त्र मारना शुरू किया। वह थाने नहीं गये, सोचा—चलूँ भामा से एक दिल्लगी करूँ। भोजन तैयार होगा। कल इतमीनान से थाने जाऊँगा।

भामा ने सावरेन देखे, हृदय में एक गुदगुदी-सी हुई। पूछा—किसकी हैं?

व्रज॰—मेरी।

भामा—चलो, कहीं हों न!

व्रज॰—पड़ी मिली हैं।

भामा-झूठी बात। ऐसे ही भाग्य के बली हो, तो सच बताओ, कहाँ मिली? किसकी हैं?

व्रज॰—सच कहता हूँ, पड़ी मिली हैं।

भामा—मेरी क़सम? [ ५७ ] ब्रज॰—तुम्हारी क़सम।

भामा गिन्नियों को पति के हाथ से छीनने की चेष्टा करने लगी।

व्रजनाथ ने कहा—क्यों छीनती हो?

भामा—लाओ मैं अपने पास रख लूँ।

व्रज॰—रहने दो मैं इसकी इत्तला करने थाने जाता हूँ।

भामा का मुख मलिन हो गया। बोली—पड़े हुए धन की क्या इत्तला?

व्रज॰—हाँ, और क्या, इन आठ गिन्नियों के लिए ईमान बिगाड़ूँ?

भामा—अच्छा तो सवेरे चले जाना। इस समय जाओगे, तो थाने में देर होगी।

व्रजनाथ ने भी सोचा, यही अच्छा। थानेवाले रात को तो कोई कार्रवाई करेंगे नहीं। जब अशर्फ़ियों को पड़ा ही रहना है, तब जैसे थाना वैसे मेरा घर।

गिन्नियाँ सन्दूक में रख दीं। खा-पीकर लेटे, तो भामा ने हँसकर कहा—आया धन क्यों छोड़ते हो? लाओ, मैं अपने लिए एक गुलूबन्द बनवा लूँ, बहुत दिनों से जी तरस रहा है।

माया ने इन समय हास्य का रूप धारण किया।

व्रजनाथ ने तिरस्कार करके कहा—गुलूबन्द की लालता में गले में फाँसी लगाना चाहती हो क्या?

(३)

प्रातःकाल व्रजनाथ थाने जाने के लिए तैयार हुए। कानून का एक लेक्चर छूट जायगा, कोई हरज नहीं। वह इलाहाबाद की हाईकोर्ट में अनुवादक थे। नौकरी में उन्नति की आशा न देखकर साल-भर से वकालत की तैयारी में मग्न थे; लेकिन अभी कपड़े पहन ही रहे थे, कि उनके एक मित्र, मुन्शी गोरेलाल आकर बैठ गये, और अपनी पारिवारिक दुश्चिन्ताओं की विस्तृत राम-कहानी सुनाकर अत्यन्त विनीत भाव से बोले—भाई साहब, इस समय मैं इन झंझटों में ऐसा फँस गया हूँ, कि [ ५८ ]बुद्धि कुछ काम नहीं करती। तुम बड़े आदमी हो। इस समय कुछ सहायता करो। ज्यादह नहीं तीस रुपए दे दो। किसी-न-किसी तरह काम चला लूँगा। आज तीस तारीख है। कल शाम को तुम्हें रुपए मिल जायँगे।

व्रजनाथ बड़े आदमी तो न थे; किन्तु बड़प्पन की हवा बाँध रखी थी। यह मिथ्यभिमान उनके स्वभाव की एक दुर्बलता थी। केवल अपने वैभव का प्रभाव डालने के लिए ही वह बहुधा मित्रों की छोटी-मोटी आवश्यकताओं पर अपनी वास्तविक आवश्यकताओं को निछावर कर दिया करते थे। लेकिन भामा को इस विषय में उनसे सहानुभूति न थी इसीलिए जब व्रजनाथ पर इस प्रकार का संकट आ पड़ता था, तब थोड़ी देर के लिए उनकी पारवारिक शान्ति अवश्य नष्ट हो जाती थी। उनमें इनकार करने या टालने की हिम्मत न थी।

वइ कुछ सकुचते हुए भामा के पास गये, और बोले—तुम्हारे पास तीस रुपये तो न होंगे? मुन्शी गोरेलाल माँग रहे हैं।

भामा ने रुखाई से कहा—मेरे पास तो रुपए नहीं हैं।

व्रज॰—होंगे तो ज़रूर, बहाना करती हो।

भामा॰—अच्छा, बहाना ही सही।

ब्रज॰—तो मैं उनसे क्या कह दूँ?

भामा॰—कह दो, घर में रुपए नहीं हैं, तुमसे न कहते बने, तो मैं पर्दे की आड़ से कह दूँ।

ब्रज—कहने को तो मैं कह दूँ; लेकिन उन्हें विश्वास न आवेगा। समझेंगे बहाना कर रहे हैं।

भामा—समझेंगे, तो समझा करें।

व्रज॰—मुझसे तो ऐसी बेमुरौवती नहीं हो सकती। रात-दिन साथ ठहरा, कैसे इनकार करूँ?

भामा—अच्छा, तो जो मन में आवे, सो करो। मैं एक बार कह चुकी, मेरे पास रुपए नहीं हैं।

ब्रजनाथ मन में बहुत खिन्न हुए। उन्हें विश्वास था, कि भामा के [ ५९ ]पास रुपए हैं। लेकिन केवल मुझे लज्जित करने के लिए इनकार कर रही है। दुराग्रह ने संकल्प को दृढ़ कर दिया। सन्दूक से दो गिन्नियाँ निकालीं, और गोरेलाल को देकर बोले—भाई, कल शाम को कचहरी से आते ही रुपए दे जाना। ये एक आदमी की अमानत हैं। मैं इसी समय देने जा रहा था—यदि कल रुयए न पहुँचे, तो मुझे बहुत लज्जित होना पड़ेगा; कहीं मुँँह दिखाने योग्य न रहूँगा।

गोरेलाल ने मन में कहा—अमानत स्त्री के सिवा और किसकी होगी और मिन्नियाँ जेब में रखकर घर की राह ली।

(४)

आज पहली तारीख़ की संध्या है। व्रजनाथ दरवाजे पर बैठे गोरेलाल का इन्तज़ार कर रहे हैं।

पाँच बज गये, गोरेलाल अभी तक नहीं आये। ब्रजनाथ की आँखें रास्ते की तरफ़ लगी हुई थीं। हाथ में एक पत्र था; लेकिन पढ़ने में जी न लगता था। हर तीसरे मिनट रास्ते की ओर देखने लगते थे, लेकिन सोचते थे—आज वेतन मिलने का दिन है। इसी कारण आने में देर हो रही है; आते ही होंगे। छः बजे; गोरेलाल का पता नहीं। कचहरी के कर्मचारी एक-एक करके चले आ रहे थे। ब्रजनाथ को कई बार धोखा हुआ। वह आ रहे हैं। ज़रूर वही हैं। वैसी ही अचकन है। वैसी ही टोपी। चाल भी वही है। हाँ, वही हैं। इसी तरफ़ आ रहे हैं। अपने हृदय से एक बोझा-सा उतरता मालूम हुआ; लेकिन निकट आने पर ज्ञात हुआ, कि कोई और है। आशा की कल्पित मूर्ति दुराशा में बदल गई।

ब्रजनाथ का चित्त खिन्न होने लगा। वह एक बार कुरसी से उठे। बरामदे की चौखट पर खड़े हो, सड़क पर दोनों तरफ़ निगाह दौड़ाई। कहीं पता नहीं।

दो-तीन बार दूर से आते हुए इक्कों को देखकर गोरेलाल का भ्रम हुआ। आकांक्षा की प्रबलता!

सात बजे चिराग़ जल गये। सड़क पर अँधेरा छाने लगा। ब्रजनाथ [ ६० ]सड़क पर उद्विग्न भाव से टहलने लगे। इरादा हुआ, गोरेलाल के घर चलूँ। उधर कदम बढ़ाये; लेकिन हृदय काँप रहा था, कि कहीं वह रास्ते में आते हुए न मिल जायँ, तो समझे कि थोड़े-से रुपयों के लिए इतने व्याकुल हो गये। थोड़ी ही दूर गये, कि किसी को आते देखा। भ्रम हुआ गोरेलाल हैं। मुड़े, और सीधे बरामदे में आकर दम लिया; लेकिन फिर वही धोखा! फिर वही भ्रांति! तब सोचने लगे, कि इतनी देर क्यों हो रही है? क्या अभी तक वह कचहरी से न आये होंगे? ऐसा कदापि नहीं हो सकता। उनके दफ्तर वाले मुद्दत हुई, निकल गये। बस दो बातें हो सकती हैं, या तो उन्होंने कल पाने का निश्चय कर लिया, समझे होंगे रात को कौन जाय, या जान-बूझकर बैठ रहे होंगे, देना न चाहते होंगे, उस समय उनको ग़रज़ थी, इस समय मुझे ग़रज़ है। मैं ही किसी को क्यों न भेज दूँ? लेकिन किसे भेजूँ। मुन्नू जा सकता है। सड़क ही पर, मकान है। यह सोचकर कमरे में गये, लैंप जलाया और पत्र लिखने बैठे; मगर आँखें द्वार ही की ओर लगी हुई थीं। अकस्मात् किसी के पैरों की आहट सुनाई दी। तुरन्त पत्र को एक किताब के नीचे दबा लिया और बरामदे में चले आये। देखा, पड़ोस का एक कुँजड़ा तार पढ़ाने आया है। उससे बोले—भाई, इस समय फुरसत नहीं है; थोड़ी देर में आना। उसने कहा—बाबूजी घर-भर के आदमी घबराये हैं, ज़रा एक निगाह देख लीजिये। निदान ब्रजनाथ ने झुँझलाकर उसके हाथ से तार ले लिया, और सरसरी नज़र से देखकर बोले—कलकत्ते से आया है। माल नहीं पहुँचा। कुँजड़े ने डरते-डरते कहा—बाबूजी, इतना और देख लीजिये, किसने भेजा है। इस पर व्रजनाथ ने तार को फेंक दिया, और बोले—मुझे इस वक्त फुरसत नहीं है।

आठ बज गये। ब्रजनाथ को निराशा होने लगी। मुन्नू इतनी रात बीते नहीं जा सकता। मन में निश्चय किया, आप ही जाना चाहिये, बला से बुरा मानेंगे। इनकी कहाँ तक चिन्ता करूँ? स्पष्ट कह दूँगा, मेरे रुपए दे दो। भलमनसी भलेमानसों से निभाई जा सकती है। ऐसे धूर्त्तों के साथ भलमनसी का व्यवहार करना मूर्खता है। अचकन पहनी, घर में [ ६१ ]जाकर भामा से कहा—ज़रा एक काम से बाहर जाता हूँ, किवाड़े बन्द कर लो।

चलने को तो चले; लेकिन पग-पग पर रुकते जाते थे। गोरेलाल का घर दूर से दिखाई दिया; लैंप जल रहा था। ठिठक गये और सोचने लगे—चलकर क्या कहूँगा? कहीं उन्होंने जाते-जाते रुपए निकालकर दे दिये, और देर के लिए क्षमा माँगी, तो मुझे बढ़ी झेंप होगी। वह मुझे क्षुद्र, ओछा, धैर्य-हीन समझेंगे। नहीं, रुपयों की बातचीत करूँ ही क्यों? कहूँगा—भाई, घर में बड़ी देर से पेट दर्द कर रहा है। तुम्हारे पास पुराना तेज़ सिरका तो नहीं है? मगर नहीं, यह बहाना कुछ भद्दासा प्रतीत होता है। साफ़ क़लई खुल जायगी। उँह! इस झंझट की ज़रूरत ही क्या है। वह मुझे देखकर आपही समझ जायँगे। इस विषय में बातचीत की कुछ नौबत ही न आवेगी। व्रजनाथ इसी उधेड़ बुन में आगे बढ़ते चले जाते थे, जैसे नदी की लहरें चाहे किसी ओर चलें, धारा अपना मार्ग नहीं छोड़ती।

गोरेलाल का घर आ गया। द्वार बन्द था। व्रजनाथ को उन्हें पुकारने का साहस न हुआ। समझे, खाना खा रहे होंगे। दरवाजे के सामने से निकले, और धीरे-धीरे टहलते हुए एक मील तक चले गये। नौ बजने की आवाज़ कान में आई। गोरेलाल भोजन कर चुके होंगे, यह सोचकर लौट पड़े; लेकिन द्वार पर पहुँचे, तो अँधेरा था। वह आशारूपी दीपक बुझ गया था। एक मिनट तक दुविधा में खड़े रहे। क्या करूँ? अभी बहुत सवेरा है। इतनी जल्दी थोड़े ही सो गये होंगे। दबे पाँव बरामदे पर चढ़े। द्वार पर कान लगाकर सुना, चारों ओर ताक रहे थे; कि कहीं कोई देख न ले। कुछ बातचीत की भनक कान में पड़ी। ध्यान से सुना। स्त्री कह रही थी—रुपए तो सब उठ गये, व्रजनाथ को कहाँ से दोगे? गोरेलाल ने उत्तर दिया—ऐसी कौन-सी उतावली है, फिर दे देंगे। आज दरख्वास्त दे दी है, कल मंजूर ही हो जायगी। तीन महीने के बाद लौटेंगे, तब देखा जायगा।

व्रजनाथ को ऐसा जान पड़ा, मानो मुँह पर किसी ने तमाचा मार [ ६२ ]दिया। क्रोध और नैराश्य से भरे हुए बरामदे से उतर आये। घर चले, तो सीधे कदम न पड़ते थे, जैसे कोई दिन-भर का थका-माँदा पथिक हो।

(५)

व्रजनाथ रात-भर करवटें बदलते रहे। कभी गोरेलाल की धूर्त्तता पर क्रोध आता था, कभी अपनी सरलता पर। मालूम नहीं, किसी ग़रीब के रुपए हैं! उस पर क्या बीती होगी! लेकिन अब क्रोध या खेद से क्या लाभ? सोचने लगे—रुपए कहाँ से आवेंगे, भामा पहले ही इनकार कर चुकी है; वेतन में इतनी गुंजायश नहीं। दस-पाँच रुपए की बात होती, तो कोई कतर-ब्योंत करता। तो क्या करूँ? किसी से उधार लूँ? मगर मुझे कौन देगा? आज तक किसी से माँगने का संयोग नहीं पड़ा, और अपना कोई ऐसा मित्र है भी तो नहीं! जो लोग हैं, वे मुझी को सताया करते हैं; मुझे क्या देंगे। हाँ, यदि कुछ दिन क़ानून छोड़कर अनुवाद करने में परिश्रम करूँ, तो रुपए मिल सकते हैं। कम-से-कम एक मास का कठिन परिश्रम है। सस्ते अनुवादकों के मारे दर भी तो गिर गई है। हा निर्दयी? तूने बड़ी दग़ा की। न जाने किस जन्म का वैर चुकाया। कहीं का न रखा!

दूसरे दिन से व्रजनाथ को रुपयों की धुन सवार हुई। सवेरे कानून के लेक्चर में सम्मिलित होते, संध्या को कचहरी से तजवीज़ों का पुलिंदा घर लाते, और आधी रात तक बैठे अनुवाद किया करते। सिर उठाने की मुहलत न मिलती। कभी एक-दो भी बज जाते। जब मस्तिष्क बिलकुल शिथिल हो जाता, तब विवश होकर चारपाई पर पड़ रहते।

लेकिन इतने परिश्रम का अभ्यास न होने के कारण कभी-कभी सिर में दर्द होने लगता। कभी पाचन-क्रिया में विघ्न पड़ जाता, कभी ज्वर चढ़ आता। तिस पर भी वह मशीन की तरह काम में लगे रहते। भामा कभी-कभी झुँझलाकर कहती—अजी लेट भी रहो; बड़े धर्मात्मा बने हो। तुम्हारे-जैसे दस-पाँच आदमी और होते, तो संसार का काम ही बन्द हो जाता। व्रजनाथ इस बाधाकारी व्यंग्य का उत्तर न देते; दिन निकलते ही फिर वही चरख़ा ले बैठते। [ ६३ ]

यहाँ तक कि तीन सप्ताह बीत गये, और पचीस रुपए हाथ आ गये। व्रजनाथ सोचते थे—दो-तीन दिन में बेड़ा पार है; लेकिन इक्कीसवें दिन उन्हें प्रचण्ड ज्वर चढ़ आया और तीन दिन तक न उतरा। छुट्टी लेनी पड़ी। शय्या-सेवी बन गये। भादों का महीना था। भामा ने समझा, पित्त का प्रकोप है; लेकिन जब एक सप्ताह तक डॉक्टर की औषधि-सेवन करने पर भी ज्वर न उतरा, तब वह घबराई। व्रजनाथ प्रायः ज्वर में बक-झक भी करने लगते। भामा सुनकर डर के मारे कमरे में से भाग जाती। बच्चों को पकड़कर दूसरे कमरे में बन्द कर देती। अब उसे शंका होने लगती थी कि कहीं यह कष्ट उन्हीं रुपयों के कारण तो नहीं भोगना पड़ रहा है। कौन जाने, रुपएवाले ने कुछ कर-धर दिया हो! जरूर यही बात है, नहीं तो औषधि से लाभ क्यों नहीं होता।

संकट पड़ने पर हम धर्मभीरु हो जाते हैं, औषधियों से निराश होकर देवतों की शरण लेते हैं। भामा ने भी देवतों की शरण ली। वह जन्माष्टमी, शिवरात्रि और तीज के सिवा और कोई व्रत न रखती थी। इस बार उसने नवरात्र का कठिन व्रत शुरू किया।

आठ दिन पूरे हो गये। अन्तिम दिन आया। प्रभात का समय था। भामा ने व्रजनाथ को दवा पिलाई और दोनों बालकों को लेकर दुर्गाजी की पूजा करने मन्दिर में चली। उसका हृदय आराध्य देवी के प्रति श्रद्धा से परिपूर्ण था। मन्दिर के आँगन में पहुँची। उपासक आसनों पर बैठे हुए दुर्गापाठ कर रहे थे। धूप और अगर की सुगन्ध उड़ रही थी। उसने मन्दिर में प्रवेश किया। सामने दुर्गा की विशाल प्रतिमा शोभायमान थी। उसके मुखारविन्द पर एक विलक्षण दीप्ति झलक रही थी। बड़े उज्ज्वल नेत्रों से प्रभा की किरणें छिटक रही थीं। पवित्रता का एक समा-सा छाया हुआ था। भामा इस दीप्तिवर्ण मूर्ति के सम्मुख सीधी आँखों से ताक न सकी। उस के अन्तःकरण में एक निर्मल विशुद्ध, भाव-पूर्ण भय का उदय हो आया। उसने आँखें बन्द कर लीं। घुटनों के बल बैठ गई, और हाथ जोड़कर करुण स्वर से बोली—माता, मुझ पर दया करो। [ ६४ ]

उसे ऐसा ज्ञात हुआ, मानो देवी मुसकिराई। उसे उन दिव्य नेत्रों से एक ज्योति-सी निकलकर अपने हृदय में आती हुई मालूम हुई। उसके कानों में देवी के मुँह से निकले ये शब्द सुनाई दिये—पराया धन लौटा दे, तेरा भला होगा।

भामा उठ बैठी। उसकी आँखों में निर्मल भक्ति का आभास झलक रहा था। मुख-मण्डल से पवित्र प्रेम बरसा पड़ता था। देवी ने कदाचित् उसे अपनी प्रभा के रंग में डुबा दिया था।

इतने में दूसरी एक स्त्री आई। उसके उज्ज्वल केश बिखरे और मुरझाये हुए चेहरे के दोनों ओर लटक रहे थे। शरीर पर केवल एक श्वेत साड़ी थी। हाथ में चूड़ियों के सिवा और कोई आभूषण न था। शोक और नैराश्य की साक्षात् मूर्ति मालूम होती थी। उसने भी देवी के सामने सिर झुकाया और दोनों हाथों से आँचल फैलाकर बोली—देवी, जिसने मेरा धन लिया हो, उसका सर्वनाश करो।

जैसे सितार मिजराब की चोट खाकर थरथरा उठता है, उसी प्रकार भामा का हृदय अनिष्ट के भय से थरथरा उठा। ये शब्द तीव्र शर के समान उसके कलेजे में चुभ गये। उसने देवी की ओर कातर नेत्रों से देखा। उनका ज्योतिर्मय स्वरूप भयंकर था, नेत्रों से भीषण ज्वाला निकल रही थी। भामा के अन्तःकरण में सर्वत्र आकाश से, मन्दिर के सामनेवाले वृक्षों से, मन्दिर के स्तम्भों से, सिंहासन के ऊपर जलते हुए दीपक से और देवी के विकराल मुँह से ये शब्द निकलकर गूँजने लगे—पराया धन लौटा दे, नहीं तो तेरा सर्वनाश हो जायगा।

भामा खड़ी हो गई और उस वृद्धा से बोली—क्यों माता, तुम्हारा धन किसी ने ले लिया है?

वृद्धा ने इस प्रकार उसकी ओर देखा, मानो डूबते को तिनके का सहारा मिला। बोली—हाँ बेटी।

भामा—कितने दिन हुए?

वृद्धा—कोई डेढ़ महीना।

भामा—कितने रुपये थे? [ ६५ ]

वृद्धा—पूरे एक सौ बीस।

भामा—कैसे खोये?

वृद्धा—क्या जाने कहीं गिर गये। मेरे स्वामी पलटन में नौकर थे। आज कई बरस हुए, वह परलोक सिधारे। अब मुझे सरकार से साठ रुपए साल पेंशन मिलती है। अबकी दो साल की पेंशन एक साथ ही मिली थी। खज़ाने से रुपए लेकर आ रही थी। मालूम नहीं, कब और कहाँ गिर पड़े। आठ गिन्नियाँ थीं।

भामा—अगर वे तुम्हें मिल जायँ, तो क्या दोगी?

वृद्धा—अधिक नहीं, उसमें से पचास रुपए दे दूँगी।

भामा—रुपए क्या होंगे, कोई उससे अच्छी चीज़ दो।

वृद्धा—बेटी, और क्या दूँ, जब तक जीऊँगी, तुम्हारा यश गाऊँगी।

भामा—नहीं, इसकी मुझे आवश्यकता नहीं।

वृद्धा—बेटी, इसके सिवा मेरे पास क्या है?

भामा—मुझे आशीर्वाद दो। मेरे पति बीमार हैं, वह अच्छे हो जायँ।

वृद्धा—क्या उन्हीं को रुपए मिले हैं?

भामा—हाँ, वह उसी दिन से तुम्हें खोज रहे हैं।

वृद्धा घुटनों के बल से बैठ गई, और आँचल फैलाकर कम्पित स्वर से बोली—देवी! इनका कल्याण करो।

भामा ने फिर देवी की ओर सशंक दृष्टि से देखा। उनके दिव्य रूप पर प्रेम का प्रकाश था। आँखों में दया की आनंददायिनी झलक थी। उस समय भामा के अन्तःकरण में कहीं स्वर्गलोक से यह ध्वनि सुनाई दी—जा तेरा कल्याण होगा।

(६)

सन्ध्या का समय है। भामा ब्रजनाथ के साथ इक्के पर बैठ तुलसी के घर उसकी थाती लौटाने जा रही है। ब्रजनाथ के बड़े परिश्रम की कमाई तो डॉक्टर की भेंट हो चुकी है। लेकिन भामा ने एक पड़ोसी के हाथ अपने कानों के झुमके बेचकर रुपए जुटाये हैं। जिस समय झुमके [ ६६ ]बनकर आये थे, भामा बहुत प्रसन्न हुई थी। आज उन्हें बेचकर वह उससे भी अधिक प्रसन्न है।

जब ब्रजनाथ ने आठों गिन्नियाँ उसे दिखाई थीं, उसके हृदय में एक गुदगुदी-सी हुई थी, लेकिन यह हर्ष मुख पर आने का साहस न कर सका था। आज उन गिन्नियों को हाथ से जाते समय उसका हार्दिक आनन्द आँखों में चमक रहा है, ओठों पर नाच रहा है, कपोलों को रँग रहा है और अंगों पर किलोल कर रहा है। वह इन्द्रियों का आनन्द था, यह आत्मा का आनन्द है; वह आनन्द लज्जा के भीतर छिपा हुआ था, यह आनन्द गर्व से बाहर निकला पड़ता है।

तुलसी का आशीर्वाद सफल हुआ। आज पूरे तीन सप्ताह के बाद व्रजनाथ तकिये के सहारे बैठे थे। वह बार-बार भामा को प्रेम-पूर्ण नेत्रों से देखते थे। वह आज उन्हें देवी मालूम होती थी। अब तक उन्होंने उस के बाह्य सौंदर्य की शोभा देखी थी, आज वह उसका आत्मिक सौंदर्य देख रहे हैं।

तुलसी का घर एक गली में था। इक्का सड़क पर जाकर ठहर गया। व्रजनाथ इक्के पर से उतरे, और अपनी छड़ी टेकते हुए भामा के हाथों के सहारे तुलसी के घर पहुँचे। तुलसी ने रुपए लिये और दोनों हाथ फैलाकर आशीर्वाद दिया—दुर्गाजी तुम्हारा कल्याण करें!

तुलसी का वर्णहीन मुख वैसे ही खिल गया, जैसे वर्षा के पीछे वृक्षों की पत्तियाँ खिल जाती है। सिमटा हुआ अंग फैल गया, गालों की झुर्रियाँ मिटती देख पड़ीं। ऐसा मालूम होता था, मानो उसका कायाकल्प हो गया।

वहाँ से आकर ब्रजनाथ अपने द्वार पर बैठे हुए थे, कि गोरेलाल आकर बैठ गये। ब्रजनाथ ने मुँह फेर लिया।

गोरेलाल बोला—भाई साहब, कैसी तबीयत है।

ब्रजनाथ—बहुत अच्छी तरह हूँ।

गोरेलाल—मुझे क्षमा कीजियेगा। मुझे इसका बहुत खेद है, कि आपके रुपए देने में इतना विलम्ब हुआ। पहली तारीख ही को घर से एक [ ६७ ]आवश्यक पत्र आ गया, और मैं किसी तरह तीन महीने की छुट्टी लेकर घर भागा। वहाँ की विपत्ति-कथा कहूँ, तो समाप्त न हो; लेकिन आपकी बीमारी का शोक-समाचार सुनकर आज भागा चला आ रहा हूँ। ये लीजिये, रुपए हाज़िर हैं। इस विलम्ब के लिए अत्यन्त लज्जित हूँ।

ब्रजनाथ का क्रोध शान्त हो गया। विनय में कितनी शक्ति है! बोले—जी हाँ, बीमार तो था; लेकिन अब अच्छा हो गया हूँ। आपको मेरे कारण व्यर्थ कष्ट उठाना पड़ा। यदि इस समय आपको असुविधा हो, तो रुपये फिर दे दीजियेगा। मैं अब उऋण हो गया हूँ। कोई जल्दी नहीं है।

गोरेलाल विदा हो गये, तो व्रजनाथ रुपए लिये हुए भीतर आये, और भामा से बोले—ये लो अपने रुपये; गोरेलाल दे गये।

भामा ने कहा—ये मेरे रुपए, नहीं, तुलसी के हैं; एक बार पराया धन लेकर सीख गई।

व्रज॰—लेकिन तुलसी के तो पूरे रुपये दे दिये गये?

भामा—दे दिये गये, तो क्या हुआ? ये उसके आशीर्वाद की न्योछावर हैं।

व्रज॰—कान के झुमके कहाँ से आवेंगे?

भामा—झुमके न रहेंगे न सही, सदा के लिए 'कान' तो हो गये।