बिखरे मोती/ग्रामीण

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बिखरे मोती  (1932) 
द्वारा सुभद्रा कुमारी चौहान
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ग्रामीण

[ १ ]


पंडित रामधन तिवारी को परमात्मा ने सब कुछ दिया था; किन्तु सन्तान के बिना उनका घर सूना था । धन-धान्य से भरा-पूरा घर उन्हें जंगल की तरह जान पड़ता । संतान की लालसा से उन्होंने न जाने कितने जप-तप और विधान करवाए; और अन्त में उनकी ढलती उमर में पुत्र तो नहीं, पर एक पुत्री का जन्म हुआ। इस समय तिवारी जी ने ख़ूब खुले हाथों खर्च किया। सारे गाँव को प्रीति-भोज दिया। महीनों घर में ढोलक ठनकती रही। कन्या ही सही पर
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इसके जन्म ने तिवारी जी के निप्पुत्र होने के कलंक को वो दिया था । कन्या का रंग गोरा चिट्टा, आखें बड़ी-बड़ी; चौड़ा माथा और सुन्दर सी नासिका थी। उसके बाल घने, काले और असंख्य नन्हे-नन्हे छल्लों की भाँति सिर पर बड़े ही मुहावने लगते थे । उसका नाम रखा गया सोना । सोना का लालन-पालन बड़े लाड़-प्यार से होने लगा ।

जब सोना सात साल की हुई तो घर ही में एक मास्टर लगा कर तिवारी जी ने सोना को हिन्दी पढ़वाना प्रारंभ किया; और थोड़े ही समय में सोना ने रामायण, महाभारत इत्यादि धार्मिक पुस्तकें पढ़नी सीख लिया । गाँव के सभी लोगों ने मन की कुशाग्र बुद्धि की तारीफ की। इसके आगे, अधिक पढ़ाकर तिवारी जी को कन्या से कुछ नौकरी तो करवानी न थी; इसलिए सोना का पढ़ना वन्द करवा दिया गया ।

"अब सोना नौ साल की सुकुमार सुन्दर .वालिका थी ? उसकी सुन्दरता और मुकुमारता को देखकर, गाँव बोले कहते——"तिवारी जी ! तुम्हारी लड़की तो देहात के लायक नहीं है। इसकी विवाह तो भाई ! कहीं शहर में ही करना ! सुनते हैं, शहर में बड़ा आराम रहता है ।" [ १७१ ]इधर तिवारी जी की वहिन जानको, जिसका विवाह हुआ तो गाँव में ही था, किन्तु कुछ दिन से शहर में जाकर रहने लगी थी,जब कभी शहर से चौढ़े किनार की सफ़ेद सारी, आधी वाँह का लेस लगा हुआ जाकेट, टिकली की जगह माथे पर लाल ईंगुर की विन्दी और पैरों में काले-काले स्लीपर पहिन के आती, तो सारे गाँच की स्त्रियाँ-उसे देखने के लिए दौड़ आतीं । गाँव के तरुण- जीवन में उसका आदर था और बूढ़ों की आँखों में यह खटकती थी; किन्तु फिर भी वह सच के लिए एक नई चीज थी; जानकी के पति नारायण ने भी मिल में नौकरी कर ली थी। उसे २०] माहवार मिलते थे । वह अब देहाती न था; सोलह आने, शहर का धायू बन गया था ! धोती की गह ढीला पाजामा, कुरते की जगह कमीज़, वास्कट, और कोट पहिनता; पेगड़ी की जगह काली टोपी और पैरों में पम्प शू.पहिनता था । जो कभी गाँव में जाती कान में इत्र को फाया, जरूर रहता; कभी हिना कभी, खरी, की मस्ते , खुशबू से बेचारे देहाती हैरान हो जाते । इन्हें अपने जीवन से शहर का जीवन बड़ी हो. सुखमय और शान्तिदायक, भालूम होता। [ १७२ ]इन सब बातों को देखकर और सोना की सुकुमारता को देखते हुए सोना की मां नन्दो ने निश्चय कर लिया था कि मैं अपनी सोना का विवाह शहर में ही करूंगी। मेरी सोना भी पैरों में पतले-पतले लच्छे और काले-काले स्लीपर पहिनेगी। चौढ़े किनार की सफ़ेद सारी और लेस लगा हुआ जाकेट पहिन कर वह कितनी सुन्दूर लगेगी, इसकी कल्पना मात्र में ही नन्दो हर्ष से विह्वल हो जाती। किन्तु सोना को कुछ ज्ञान न था; वह तो अपने देहाती जीवन में ही मस्त थी। वह दिन भर मधुबाला की तरह स्वच्छन्द फिर करती। कभी-कभी वह समय पर खाना खाने आ जाती और कभी-कभी तो खेल में खाना भी भूल जाती। सुन्दर चीजें इकट्ठी करने और उन्हें देखने का उसे व्यसन सर था। गांव में अपनी जोड़ की कोई लड़की उसे न मिलती; इसलिए किसी लड़की से उसकी अधिक मेल-जोल न था। नन्दो को सोना की यह स्वच्छन्द्-प्रियता पसन्द न थी। किन्तु वह सोना को दुबा भी न सकती थी। वह जब कभी सोना को इसके लिए कुछ कहती तो तिवारी जी उमें आड़े हाथों लेते, कहते―“लड़की है, पराए घर तो उसे [ १७३ ]
जाना ही पड़ेगा; क्यों. उसके पीछे पड़ी रहती हो ? जितने दिन है, खेल-खा लेने दो। कुछ तुम्हारे घर जन्म- भर थोड़े बनी रहेगी ।” लाचार नन्दो चुप हो जाती ।

धीरे-धीरे सोना ने बारह वर्ष पूरे करके तेरहवें में पैर रखा । किन्तु तिवारी जी को इस तरफ ध्यान ही न था। एक दिन नन्दी ने उन्हें छेड़ा--“सोना के विवाह की भी कुछ फिकर है ?”

तिवारी जी चौंक-से उठे, बोले-सोना का विवाह ? अभी वह है कै साल की ?

किन्तु यह कितने दिनों तक चल सकता था। लड़की का विवाह तो करना ही पड़तः । वैसे तो गाँव में ही कई ऐसे लड़के थे जिससे सोना का विवाह हो सकता था। किन्तु नन्दो और तिवारी जी दोनों ही सोना का विवाह शहर में करना चाहते थे । शहर के जीवन का सुनहला सुपना रह-रह के उनको आंखों में छा जाता था। इन्होंने जानकी र नारायण से शहर में कोई योग्य घर तलाश करने के लिए कहा।

इधर सोना बारह साल की हो जाने पर भी निरी बालिका ही थी, अब भी । वही राजा-रानी का खेल खेला
[ १७४ ]जाता। सुन्दर फूल-पत्तियां अब भी इकट्ठी की जातीं और तितलियों के पीछे अब भी उसी प्रकार दौड़ लगती। सोना के अंग-प्रत्यंग में धीरे-धीरे यौवन का प्रवेश प्रारम्भ, हो चुका था; किन्तु सोना को इसका ज्ञान न था। उसके स्वभाव में अब भी वहीं लापरवाही, वही अल्हड़पन और भोलापन था जो आठ साल की बालिका के स्वभाव में, मिलेगा।

[३]

सोना का विवाह तै हो गया। वर की आयु २२ या २३ साल की थी। वह सुन्दर, स्वस्थ और चरित्रवान नवयुवक थे। एक प्रेस में नौकरी करते थे; ७५) माहवार तनख्वाह पाते थे। घर में एक बृढ़ी मां को छोड़कर और कोई न था। बिहार के रहने वाले थें। कुछ ही दिनों से यू० पी० में आए थे। परदा के बड़े पक्षपाती और पुरानी रुढ़ियों के कायल थे। नाम या विश्व मोहन। जब तिवारी जी ने विश्व मोहन और उनके घर को देखा तो इनकी खुशी का ठिकाना न रहा। विश्वमोहन, बाबू क्या, पूरे साहब देख पड़ते थे। उनके घर में खिड़की और दरवाज़ों पर चिकें पड़ी हुई थीं। जमीन पर एक [ १७५ ] चड़ी दरी पड़ी थी जिसके बीच में एक गोल मेज थी । मेज़ के आसपास कई कुर्सियां पड़ी थी । जव विश्व- मोहन ने तिवारी जी से चाय पीने का आग्रह किया और तिवारी जी को उनके आग्रह से चाय पीनी ही पड़ी तो वहां को साज-सामान देखकर तिवारी जी चकित हो गये । हप से उनकी अखेिं चमक उठीं । सुन्दर-सुन्दर प्यालों में मेज़ पर चाय पीने का तिवारी जी के जीवन में पहिला ही अवसर था। चाय पीने के बाद तिवारी जी ने दो गिन्नी वरीक्षा में देकर शादी पक्की कर ली। रास्ते में नारायण वोला--कहो तिवारी जो, है न लड़का हजारों में एक ? हैं। कोई तुम्हारे गांव में ऐसा ? जचे कपड़े पहन कर हैट लगा कर निकलता है तब कोई नहीं कह सकता कि साहब नहीं हैं। सब लोग झुक के सलाम करते हैं। घर में देखा है कितना परदा है। सव खिड़की-दरवाज्ञों पर चिकें पड़ी हैं। इनकी माँ बूढ़ी हो गई हैं । पर क्या मजाल कि कोई परछाई भी देख ले। दोनों समय चाय पीते हैं, कुर्सियों पर बैठते हैं।

तिवारी जी ने हर्पोन्मत्त होकर कहा-भाई नारायण, हम तुम्हारे इस उपकार के सदा अभारी रहेंगे । हमारे ढूंढे तो ऐसा घर-वर कभी न मिलता । हम देहात के [ १७६ ] रहने वाले शहर का हाल-चाल क्या जाने ? पर तुमने मेरी सोना को अपनी लड़की सरीखी समझ कर जो उसके लिए इतनी दौड़-धूप की है और ऐसा अच्छा जोड़ मिला दिया है, इस उपकार का फल तुम्हें ईश्वर देगा ।

नारायण-अच्छा तिवारी जी अब जाकर विवाह की तैयारी करो । देखना इन्हें खाने-पीने का कुछ कष्ट न होने पावे । शहर के आदमी हैं; सब तकलीफें सह लेंगे, पर भूख नहीं सह सकेंगे । खाते भी अच्छी हैं, देहात की मिठाई उन्हें अच्छी न लगेगी; कोई शहर का ही हलवाई ले जाकर मिठाई बनवा लेना, समझे ।

तिवारी जी खुशी-खुशी घर लौटे । घर आकर जब उन्होंने नन्दी के सामने वर के रूप और गुण का बखान किंवा तो नन्दो फूली न समाई। वह जैसा घर-वर सोना के लिए चाहती थी, ईश्वर ने उसकी साध पूरी कर दी। इस कृपा के लिए उसने परमात्मा को शतशः धन्यवाद दिए और नारायण को उसने कोटि-कोटि मन से आशीर्वाद दिया, जिसने इतनी दौड़-धूप करके मन-चाहा घर और वर सोना के लिए खोज दिया था।

सोना ने जब सुना कि उसका विवाह हो रहा है तब , वह ढो़ड़ कर आई; उसने मां से पूछा-
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"मां ! विवाह कैसा होता है और क्यों होता है" ?

मां के सामने यह बड़ा जटिल प्रश्न था; वह समझ ही न की कि इसका क्या उत्तर दे; किन्तु चतुर जानकी ने तुरंत बात बना ली; बोली-“सोना ! विवाह हो जाने पर अच्छे-अच्छे गहने-कपड़े मिलते हैं। इसीलिए विवाह होता है।

सोना-बुआ जी फिर क्या होता है ?

जानको–फिर सास के घर जाना पड़ता है; सो मैं तुझे अपने साथ ले चलेंगी।

-“सो तो मैं पहले ही से जानती थी बुआ जी, कि विवाह करने पर सास के घर जाना पड़ता है। पर मैं न कहीं जाऊँगी; अभी से कहे देती हैं; विवाह करो चाहे न करो, कहती हुई सोना खेलने चली गई। नन्दो का मातृप्रेम आँखों में आँसू बन कर उमड़ आया; बोलो-"अभी बचपना है; बड़ी होगी तब सब समझेगी ।”

जानकी-“फिर तो ससुराल से एक-दो दिन के लिए भी मायके आना कठिन हो जायगा भौजी ! देखो न मैं ही चार-छै दिन के लिए आती हूँ तो रात-दिन वहीं
[ १७८ ]की फिकर लगी रहती है। जहाँ गृहस्थी का झंझट सिर पर पड़ा सब खेलना-कूदना भूल जाता है । जब तक विवाह नहीं होता तभी तक का खेलना-खाना समझो ।

नन्दो-"जानकी दीदी ! तुम लोगों की कृपा से मेरी सोना सुखी रहे। जैसे उसका नाम सोना है। उसके जीवन में सोना ही वरसता रहे।

[४]

सोना का विवाह हो गया । रामवन तिवारी की लड़की का विवाह गांँव भर में एक नई बात थी ! इस विवाह में मंगलामुखी के स्थान पर आगरे से भजन-मंडली आई थी जो उपदेश के अच्छे-अच्छे भजन गा के सुनाया करती थी। गहने-कपड़े सब नए फैशन के थे। लंहगों का स्थान साङियो ने ले लिया था । जूते थे, मोजे थे, रूमाल थे, पाउडर की डिब्बी, सुगंधित तेल और भी न जाने क्या-क्या था; जिनकी नन्दो और जानकी ने कभी कल्पना तक न की थी । गाँव की औरतों को नन्दो बड़ी खुशी-खुशी सब चीजें दिखाया करती । देखने-वाली सोना के सौभाग्य की सराहना करती हुई लौट जातीं । [ १७९ ] उनकी आंँखों में आज सोना से अधिक सौभाग्यवती कोई न थी। जिस दिन सोना को ससुराल के सच गहने-कपड़े पहिनाकर नन्दो ने पुत्री का सौंदर्य निहारा तो उसका रोम- रोम पुलकित हो उठा । किसी की नजर न लग जाय, इस डर से उसने छिपाकर बोलों के नीचे एक काजल का टीका लगा दिया । जिसने सोना को देखा, वही क्षण भर तक उसे देखता रहा। सोना सचमुच में सोना ही थी ।

विदा का समय आया । मां-बेटी खूब रोई । जब सोना तिवारी जी की कमर से लिपट कर रोने लगी तो तिवारी जी का भी धैर्य जाता रहा; वे भी जोर से रो पड़े। सोना की विदा हो गई। विदा के बाद तिवारी जी को पुत्री के विछोह, का. दुःख भी था; साथ ही, साथ. आत्मसोष भी कि-पुत्री अच्छे घर व्याही गई है; सुख में . रहेगी ।

सोना ससुराल पहुँची; 'रास्ते भर तो जैसे-तैसे; किन्तु घर पहुँचने पर जब वह एक कोठरी में बंद कर दी गई,और बाहर की साफ़ हवा उसे दुर्लभ हो गई । तो उसे ससुराल का जीवन बड़ा ही कष्टमय मालूम हुआ है. अब उसे गहने-कपड़े न सुहाते थे। रह-रह कर कोठरी से बाहर
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निकलकर साफ़ हवा में आने के लिए उसका जी तड़पने लगा । स्वछन्द हवा में विचरने वाली बुलबुल की जो दशा पिंजरे में बंद होने के बाद होती है, वही दशा सोना की थी ! चार ही छै दिन में उसके गुलाबी गाल पीले पड़ गये; आंखें भारी रहने लगीं । एक दिन विश्वमोहन आफ़िस चले गये थे; सास सो रही थीं; सोना आंगन के बाहर के दरवाजे के पास चली आई। चिक को ज़रा हटा कर बाहर देखा। यहां देहात की सुन्दरता : तो न थी; फिर भी साफ़ हवा अवश्य थी। इतने दिनों के बाद क्षण भर के ही लिए क्यों न हो बाहर की हवा लगते ही सोना का चित्त प्रफुल्लित हो गया है किन्तु उसी समय एक बुढ़िया उधर से निकली। सोना को उसने चिक के पास देख लिया। आकर विश्वमोहन की मां से उसने कहा-"बहू को ज़रा सम्हाल के रखा करो । न साल, न छै महीने अभी से खड़ा हो के बाहर झांकती है। यह लच्छन कुलीन घर की बहू बेटियों को शोभा नहीं देते। विस्सु की अम्मा ! तुम्हारी इतनी उमर हो गई, आज तक किसी ने परछाई तक न देखी और तुम्हारी ही बहू के ये लच्छन ! कलजुग इसी को कहते हैं। बुढि़या तो उपदेश देकर चली गई, पर सोना को उस दिन बड़ी डांट पड़ी। [ १८१ ] उसको समझ में ही न आता था कि चिक के पास जाकर उसने कौन-सा अपराध कर डाला । फिर भी बेचारी ने नतमस्तक सभी झिड़कियाँ सहलीं। और दूसरा चारा ही क्या था ? इसी बीच जब तिवारी जी सोना को लेने आए तो उसे ऐसा जान पड़ा जैसे किसी ने डूबते से उबार लिया हो । पिता को देखकर वह बड़ी खुश हुई । उसने मन ही मन प्रतिज्ञा की कि अब के जाऊँगी तो फिर यहाँ कभी न आऊँगी ।

[ ५ ]

लेकिन शहरवाले बहू को मायके में ज्यादः रहने ही कब देते हैं ? सोना को मायके आए अभी १५ दिन भी न हुए थे कि विश्वमोहन सोना को लेने के लिए आ गए। वे जब आ रहे थे, सोना उन्हें रास्ते में ही विही के पेड़ पर चढ़ी हुई मिली। उसके साथ और भी बहुत से लड़के- लड़कियां थीं। सोना का सर खुला था और वह विही तोड़-तोड़ कर खा रही थी, और अपनी जूठी विहीं खींच-खींच कर मारती भी जा रही थी और ऊपर बैठी-बैठी हंस रही थी । सोना को विश्वमोहन ने देखा; किन्तु सोना उन्हें न देख सकी। पत्नी को चाल-
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दाल विश्वमोहन को न सुहाई, उनकी आंत्रों में खून उतर आवा; पर वे चुपचाप अपने क्रोध को पी गए । किन्तु उसी समय उन्होंने मन ही मन प्रतिज्ञा की कि अर्व ३ सोना को मायके कभी न भेजें। वे जाकर चापाल में मोढ़ पर बैठे ही थे कि अपने बालसन्ना और सहेलियों के साथ नोना भी पहुँची । विश्वमोइन को देखते ही उसने हाथ की विहीं फेंक दी और सिर ढंक कर अन्दर_भाग गई। फिर ससुराल जाना पड़ेगा, इस भावना. मात्र से ही उसका हृद्ये व्याकुल हो उठा।

सोना फिर ससुराल आई । अबकी बार अाने के साथ ही घर का सार भरि सेना को सौंप कर सोना की सास ने घर-गृहस्थी से छुट्टी ले ली। कभी घर का काम करने का अभ्यास न होने के कारण सोना * घर के काम करने में बड़ी दिक्कत होती, इके लिए उसे रोज़ वास की | मिडकियां सनी पड़ती है सोना ने तो खेलना, नाना, और तितली की तरह उड़ना ही सीखा था | गृहस्थी की शादी में उसे भी कभी जुतना पड़ेगा वह तो उसने कभी सोचा ही न था। किन्तु यह कठिनता नहीने पन्द्रह दिन की ही थी । अभ्यास हो जाने पर फिर सोना को काम करने में कुछ कठिनाई न पड़ती।
[ १८३ ] घर में रात दिन बंद रहने की उसकी आदत न थी । बाहर जाने के लिए उसका जी सदा. व्याकुल रहता । यदि कभी खिलौने वालों की आवाज सुनती या “चनाजोर गरम" की आवाज़ उसके कान में पड़ती तव वह तड़प-सी जाती । अपना यह कैदखाने का जीवन उसे बड़ा ही कष्ट- कर मालूम पड़ता है किन्तु सोना चहुत दिनों तक अपने को न रोक सकी। वह सास और पति की आंँख वचा कर गृह-कार्य के पश्चात् कभी खिड़की, कभी दरवाजे के पास, जव जैसा मौका मिलता जाकर खड़ी हो जाती; बाहर का दृश्य, हरे-हरे पेड़ और पत्तियां देखकर उसे कुछ शान्ति मिलती। बाहर ठंडी हवा को स्पर्श करके उसमें जैसे कुछ जीवन आ जाता । वह जानती थी कि खिड़की, या दरवाजे के पास वह कभी किसी बुरे उद्देश्य से नहीं जाती, फिर भी पति नाराज होंगे, सास झिड़कियां लगायेंगी; इसलिए वह सदा उनकी नज़र बचा कर ही यह काम करती । मुहल्ले वालों को यह बात सहन ने हुई। कल की आई हुई वहू, बड़े घर की बहू, सदा खिड़की-दरवाज़ों से लगी रहे। अवश्य ही यह आचरण- भ्रष्ट है । धीरे-धीरे आस-पास के लोगों में सोना के आचरण की चर्चा होने लगी। पुराने विचार वाले,
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पर्दा के पक्षिपातियों को सोना की हरएक हरक़त में बुराई छोड़ भलाई नजर ही न अती थीं । मुहल्ले के बिगड़े दिल शोहदे, सोना के दरवाज़े पर से दिन में कई बार चक्कर लगाते और आवाज़ें कसते ।

किन्तु न तो सोना का इस तरफ ध्यान होता और न उसे इसकी कुछ परवाह थी। वह तो प्रकृति की पुजारिन थी । खिड़की-दरवाजों के पास वह प्रकृति की शोभा देखती थी; लोगों की बातों की ओर तो उसका ध्यान भी न जाता था।

इसी बीच में, किसी काम से सोना की सास को कुछ दिन के लिए गाँव पर जाना पड़ा। अव पति के आफिस जाने के बाद से उसे पूरी स्वतंत्रता थी। उनके आफिस जाने के बाद वह स्वच्छन्द हिरनी की तरह फिरा करती थी । कोई रोक-टोक करने वाला तो था ही नहीं; अव कभी-कभी वह चिक के बाहर भी चली जाया करती । आस-पास को कई औरतों से जान-पहिचान भी हो गई । वे लोग सोना के घर आने-जाने लगीं। सोना भी कभी- अभी लुक-छिप के दोपहर के सन्नाटे में उनके घर हो आती। सोना के बारे में, उसके आचरण के विषय में
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लोग क्या चकते हैं, सोना न जानती थी । वह तो उन्हें अपना हितैषी और मित्र समझती थी । वही लोग, जो सोना से घुल-मिलकर घंटों चतिचीत किया करते, बाहर जाकर न जाने क्या-क्या वक्रते। धीरे-धीरे इसकी चर्चा विश्वमोहन के भी कानों तक पहुँची। इन सब बातों को रोकने के लिए उन्होंने अपनी माँ को उपस्थिति आवश्यक समझी । इसलिए माँ को बुलवा भेजा ( साथ ही सोना को भी समझा दिया कि वह बहुत सम्हल कर रहा करे । सासके आने पर सोनी के ऊपर फिर से पहरो वैठ गया; किन्तु वह तो गाँव की लड़की थी साफ़ हवा में विचर चुकी थी। उसके लिए सख्त परदे में, बिलकुल बन्द होकर रहना बड़ा कठिन था। इसलिए उसका जीवन बड़ा दुखी था। उससे घर के भीतर बैठा ही न जाता था। जरा भौका पाते ही चाहर साफ़ हवा में जाने के लिए उसका जी सचल उठतो; और वह अपने आप को रोक न सकती । विश्वमोहन ने एकान्त में उसे कई वार समझाया कि सोना के इस आचरण से उनकी बहुत चंदनामी हो रही है, इसलिए वह खिड़की-दरवाजों के पास न जाया करे; बाहर न निकला करे। एक दो दिन तक तो सोना को उनकी बातें याद रहतीं; किन्तु वह फिर भूल
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जाती और वही हाल फिर हो जाता । फिर खिड़की- दरवाजों के पास जाती; फिर वाहर की साफ़ हवा में जाने के लिए, प्रकृति के सुन्दर दृश्यों को देखने के लिए उसकी आँखें मचल उठतीं ।

एक दिन विश्वमोहन को किसी काम से शहर के बाहर जाना था। सोना ने पति का सामान ठीक कर उन्हें स्टेशन रवाना किया। सास खोना खा चुकने के बाद लेट गई । सोना ने अपनी गृहस्थी के काम-धंधे समाप्त करके, कंघी चोटी की; कपड़े बदले; पान बना के खाया; फिर एक पुस्तक लेकर पढ़ने के लिए खाट पर लेट गई । पुस्तक कई बार की पढ़ी हुई थी; दो चार पेज उलट-पलट कर देखे; जी ने लगा उसी समय ठेले वाले ने आवाज़ दी “दो पैसे वाला”, “दो पैसे वाला”, सब चीजें दो-दो पैसे में लो ।” किताब फेंक कर सोना दरवाज़े की तरफ दौड़ी ठेले वाला दूर निकल गया था; दूर तक नजर दौड़ाई; कहीं भी न देख पड़ा; निरास होकर लौटने ही वाली थी कि पड़ोस ही में रहने वाला बनिए का लड़का फैज़ू दौड़ा हुआ आया बोला-भौजी ! सुई-तागा हो तो जरा मेरे कुर्ते में बटन टाँक दो; मैं कुश्ती देखने जाता हूँ ।

सोना ने पूछा-कुश्ती देखने जाते हो कि लड़ने ? [ १८७ ] फैजू ने मुस्कुरा कर कहा-दोनों काम करने भौजी ! पर पहिले बटनें तो टाँक दो; नहीं तो देरी हो जायगी ।।

सोना सुई-तागा लाकर बटन टाँकने लगी। फैजू वहीं फर्श पर सोना से जरा दूर हटकर बैठ गया है।

[ ६ ]'

गाड़ी तीन घंटे लेट थी। विश्वमोहन ने सोचा यहाँ बैठे-बैठे क्या करेंगे? चले जब तक घर में हो वैठकर आराग करेंगे । सामान स्टेशन पर ही छोड़कर, स्टेशन मास्टर की साइकिल लेकर विश्वमोहन घर पहुँचे । बैठक में फैजू को सोना के पास बैठा देखकर उनके बदन में आग- सी लग गई। वे क्षण भर चहीं खड़े रहे । परन्तु इस द़ृश्य को वे गवारा न कर सके। अपने गुस्से को चुपचाप पीकर अन्दर, आए; माता के पास बैठ गए ! सोना से पति की नाराजी छिपी . न रही । ज्यों-त्यों किसी प्रकार वटन टाँक कर कुरता फ़ैजू को देकर वह अन्दर आई । सोना ने स्वप्न में भी न सोचा था कि यह जरा- सी बात यहां तक बढ़ ज्ञायगी । पति का चेहरा देख कर चह सहम-सो गई। उनकी त्योरियाँ चढ़ी हुई, चेहरा स्याह, और अखें कुछ गीली थीं। सीना अन्दर आई। [ १८८ ] विश्व मोहन ने उसकी तरफ़ आँख उठाकर भी न देखा । उसने डरने-डरते पति से पूछा-कैसे लौट आए ?

विश्वमोहन ने रूखाई से दो शब्दों में उत्तर दिया- गाड़ी लेट है।

सोना ने फिर छेड़ा-अब कब जाओगे।

विश्वमोहन के एक तीव्र दृष्टि पत्नी पर डाली और कठोर स्वर में बोले—गाड़ी तीन घंटे बाद नाचगी; तत्र चला जाऊंगा ।।

सोना फिर नम्रता से बोली-तो इस प्रकार बैठे कब तक रहोगे ? मैं खाट बिछाए देती हैं; आराम से लेट जाओ ।

“तुम्हें कष्ट करने की आवश्यकता नहीं; मैं बहुत अच्छी तरह हूँ” विश्वमोहन ने कड़े स्वर में रुखाई से कहा। सोना के बहुत आग्रह करने पर विश्वमोहन ने कमरे में पैर रखा; न वे कुछ बोले और न खाट पर ही लेटे; कुसी पर बैठ गए । एक पुस्तक उठाकर उसके पन्ने उलटने लगे ! पढ़ने के नाम से कदाचित् एक अक्षर भी न पढ़ सके हों; किन्तु इस प्रकार वे अपनी अन्तर वेदना को चुपचाप लहू की घूँट की तरह पी रहे थे । सोना का आचरण उन्हें हार[ १८९ ] हजार बिच्छुओं के दंशन की तरह पीड़ा पहुँचा रहा था। पति की आंतरिक वेदना सोना से छिपी न थी । वह ज़रा खिसक कर उनके पास बैठ गई। धीरे से उसने अपना सिर विश्वमोहन के पैरों पर थर दिया, बोली-

“इस बार मुझे माफ़ करो; अब तुम जो कुछ कहोगे मैं वही करूँगी; मुझ से नाराज़ न होओ ।”

विश्वमोहन के पैरों पर जैसे किसी ने जलती हुई आग धर दी हो; जल्दी से उन्होंने अपने पैर समेट लिए और तिरस्कार के स्वर से चोले—यह बात आज क्या तुम पहिली ही बार कह रही हो? यह मौखिक प्रतिज्ञा है हार्दिक नहीं । मैं सब जानता हूँ। तुम्हारे कारण तो मैं शहर में सिर उठाने लायक नहीं रहा । जिधर जाओ । उधर ही लोग तुम्हारी चर्चा करते हुए देख पड़ते हैं। मेरे तुम्हारे मुँह पर कोई कुछ नहीं कहता तो क्या हुआ ? बाद में तो कानाफूसी करते हैं। तुम्हारे ऊपर तो जैसे इसका कुछ असर ही नहीं पड़ता । जो जी में आता है, करती हो । भला, वह शोहदा तुम्हारे पास बटन टँकवाने क्यों आया ? क्या तुम इन्कार न कर सकती थी ? तुम यदि शह न दो तो कैसे कोई तुम्हारे पास आवे।” [ १९० ]
सोना ने भय-कातर दृष्टि से पति की ओर देखते हुए कहा-जरा सा तो काम था। पड़ोसी-धर्म के नाते, मैंने सोचा कि कर ही देना चाहिये। नहीं तो इन्कार क्यों नहीं कर नकदी थी ?

"इसी प्रकार ज़रा-ज़रा सी बातों से बढ़ी-बड़ी बातें भी हो जाया करती हैं । निभाया कर पड़ोसी-धर्म; मेरी ईज्जत का ख्याल मत करना,” कहने हुए विश्वमोहन बाहर चले गए । साईकिल उठाई और स्टेशन चल दिए।

आहत-अपमान से सोना तड़प उठी। वह कटे हुए वृक्ष की भाँति खाट पर गिर पड़ी और खुब रोई । रो लेने के बाद उसका जी कुछ हल्का हुअा। उसे अपने गांव का स्वच्छन्द जीवन याद अाते लगा । देहाती जीवन की सुखद स्मृतियाँ एक-एक नुकवि की सुन्दर कल्पना की भाँति उसके दिमाग में आने लगीं । उसके बाद याद छाया किस प्रकार जाड़े के दिनों में अलाव के पास न जाने कितनी रात तक , बूढ़े, जवान, बुनियाँ और बच्चे सब एक साथ बैठकर आग तापते हुए पहलियाँ बुझाते और किन्ने कहानियाँ कहा करते थे। किसी के साथ किसी प्रकार का बन्धन न था । नदी पर व भर की बहू-बेटियाँ मे स्नान करने को जाती थी; शेर नि सत्र के साथ गाती
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मतिराम, विसमर्थ जीवन या यह । चने के जीवन का यम चने की भाजी तोड़ कर सब एक साथ ही से प्रकार खाया करते थे; और कभी-कभी छीना-झपटी भी हो जाया करती थी । हँसी-मजाक भी खूब होता था; किन्तु वहाँ किसी को कुछ शिकायत न थी । अपने पोसी कुंदन के लिए वह माँ से लड़-भिंड़ कर भी मिठाई ले जाया फरती थी । नदी पर नहाने के बाद कभी-कभी कुंदन उसकी धोती भी तो धो दिया करता था; किन्तु वहाँ तो इसकी कभी चर्चा भी नहीं हुई । कोशिये से एक सुन्दर सा पोत का बटु वनों कर सबके सामने है? तो उसने कुंदन को दिया था। जो अ६ तक उसके पास रखा होगा; पर वहाँ तो इस पर किसी को भी बुरा न लगा था। वहाँ काम लोगों को सब से बोलने, वात करने की स्वतंत्रता थी। कुंदन की भाभी नई-ही-नई तो विवाह के आई थी, पर हम लोगों के साथ ही रोज़ नदी नहाने जाया करती थी, और साथ चैठकर झूजा भी फूला करतो थी; अलाव के पास भी बैठ करती थी। फिर मैंने,कौन सा ऐसा पाप कर डाला, जिसके कारण इन्हें शहर में सर उठाने की जगह नहीं रही। यदि किसी का कुछ काम कर देना, बोलना, या बातचीत करना ही पाप है, तो कदाचित यह
[ १९२ ]पाप जाने अनजाने मुझसे होता ही रहेगा। मेरे कारण उन्हें पद-पद पर लाँछित होना पड़े, तो मेरे इस जीवन का मूल्य ही क्या है? ऐसे जीवन से तो मर जाना ही अच्छा है। मैं घर के अंदर परदे में नहीं बैठ सकती, यही तो मेरा अपराध है न? इसी के कारण तो लोग मेरे आचरण तक में धब्बे लगाते हैं? मैं लोगों से अच्छी तरह बोलती हूँ, प्रेम का व्यवहार रखती हूँ; यही तो मुझमें बुराई है न? आज उन्हें मुझ पर क्रोध आया; उन्होंने तिरस्कार के साथ मुझे झिड़क दिया। इसमें उनका कोई क़सूर नहीं है। पत्थर के पाट पर भी रस्सी के रोज़-रोज़ के घिसने से निशान पड़ ही जाते हैं, फिर ये तो देव तुल्य पुरुष हैं। उनका हृदय तो कोमल हैं, इन अपवादों का असर कैसे न पड़ता? रामचन्द्र जी सरीखे महापुरुप ने भी तो ज़रा सी ही बात पर गर्भवती सीता को वनवास दे दिया था; फिर ये तो साधारण मनुष्य ही हैं। इन्होंने तो जो कुछ कहा, ठीक ही कहा। पर इसमें मेरा भी कौन सो दोष है? किन्तु जब उन्हीं के हृदय में सन्देह ने घर कर लिया तो मैं तो जीती हुई भी मरी से गई बीती हूँ। इसी प्रकार अनेक तरह के संकल्प-विकल्प सोना के मस्तिष्क में आए और चले गए। [ १९३ ]

तीन दिन बाद विश्वमोहत लौटे। जाने से पहले उनमें और सोना में जो कुछ बातचीत हुई थी, वे उसे प्राय: भूल से गए थे। सोना के लिए एक अच्छी-सी साड़ी, स्‍लीपर और कुछ हेयर क्लिप लिए हुए ये घर आए, किंतु सामने ही चबूतरे पर उन्हें फैजू बैठा हुआ मिला। विश्वमोहन उसे देखते ही तिलमिला उठे। सारी बातें ज्यों की त्यों ताजा हो गईं। चेहरा फिर गंभीर हो गया। घर आकर वे सोना से एक बात भी न कर पाए। माँ से एक दो बातें कर बिना भोजन किए ही ऑफिस चले गए। सोना से यह उपेक्षा सही न गई। पिछले तीन दिनों से वह खिड़की-दरवाज़े के पास भी न गई थी और उसने यह निश्चय कर लिया था कि अब वह कभी खिड़की दरवाज़ों के पास नहीं जाएगी। विश्वमोहन के व्यवहार ने उसे अधिक खिन्‍न कर दिया। अपने जीवन को समाप्त करने का उसे और कोई साधन न मिला। आँगन में लगे धतूरे के पेड़ से उसने दो-तीन फल तोड़ लिए और उन्हें पीसकर पी गई। कुछ ही क्षण बाद सोना के हाथ-पैर अकड़ने लगे। उसकी ज़बान ऐंठ गई और चेहरा काला पड़ गया। वह देख रही थी, किंतु बोल नहीं सकती थी। इसी समय तिवारी जी सोना को विदा करवाने आ पहुँचे। सोना पिता को देखकर बहुत रोई। देखते-ही-देखते सोना के प्राण-पखेरु उड़ गए। सोना सदा के लिए शांति की नींद सो गई। अपवाद की विषैली वायु उसे छू भी न सकती थी। घर भर में कोहराम मच गया। शाम छह बजे विश्वमोहन जी ऑफिस से लौटे। घर में रोने की आवाज़ सुनकर उनका हृदय किसी अज्ञात आशंका से काँप उठा। घर आकर देखा कि तिवारी जी कन्या की लाश को गोद में लेकर दहाड़ें मारकर रो रहे थे। इस बीच तिवारी जी कई बार कन्या को लेने आ चुके थे, किंतु विश्वमोहन ने विदा नहीं किया था। विश्वमोहन व तिवारी में कोई खास बातचीत न हुई। अंतिम संस्कार के बाद जब विश्वमोहन लौटे तो मेज पर उन्हें सोना का पत्र प्राप्त हुआ।

"मेरे देवता! मैं मर रही हूँ। मरनेवाला झूठ नहीं बोला करता। आज तो अंतिम बार विश्वास कर लेना, मैं निर्दोष थी। मुझे लगता है या तो यह दुनिया मेरे लायक नहीं, या मैं इस दुनिया के लायक नहीं। इस छल-कपट से परिपूर्ण संसार में मुझे भेजकर विधाता ने उचित नहीं किया। आप मेरी एक कठिनाई नहीं समझ सके। एक वातावरण से दूसरे वातावरण में पहुँचकर मैं अपने को शीघ्र ही अनुकूल नहीं बना पाई। अपने मरने का मुझे कोई अफ़सोस नहीं है, दुख है तो केवल इस बात का कि मैं आपको सुखी न कर सकी।"

—अभागिनी सोना