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बिखरे मोती/भग्नावशेष

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बिखरे मोती
सुभद्रा कुमारी चौहान

जबलपुर: उद्योग मंदिर, पृष्ठ भग्नावशेष से – ९ तक

 




भग्नावशेष


था, परंतु स्टेशन पर खाने-पीने की सामग्री ठीक न मिलती थी; इसलिए मुझे शहर जाना पड़ा। बाज़ार में पहुँचते ही मैंने देखा कि जगह-जगह पर बड़े-बड़े पोस्टर्स चिपके हुए थे जिनमें एक वृहत् कवि-सम्मेलन की सूचना थी, और कुछ खास-खास कवियों के नाम भी दिए हुए थे। मेरे लिए तो कवि-सम्मेलन का ही आकर्षण पर्याप्त था, कवियों की नामावलि को देखकर मेरी उत्कंठा और भी अधिक बढ़ गई।

[ २ ]

दूसरी ट्रेन से जाने का निश्चय कर, जब मैं सम्मेलन के स्थान पर पहुँचा तो उस समय कविता पाठ प्रारम्भ हो चुका था; और उर्दू के एक शायर अपनी जोशीली कविता मजलिस के सामने पेश कर रहे थे। ‘दाद’ भी इतने ज़ोरों से दी जा रही थी कि कविता को सुनना ही कठिन हो गया था। ख़ैर, मैं भी एक तरफ चुपचाप बैठ गया, परन्तु चेष्टा करने पर भी आँखें स्थिर न रहती थीं; किसी की खोज में वे बार-बार विह्वल-सी हो उठती थीं। कई कवियों ने अपनी-अपनी सुन्दर रचनाएँ सुनाईं। सब के बाद एक श्रीमती जी भी धीरे-धीरे मंच की ओर अग्रसर
होती दीख पड़ीं। उनकी चाल-ढाल तथा रूप-रेखा से ही असीम लज्जा एवं संकोच का यथेष्ट परिचय मिल रहा था। किसी प्रकार उन्होंने भी अपनी कविता शुरू की। अक्षर-अक्षर में इतनी वेदना भरी थी कि श्रोतागण मंत्र-मुग्ध-से होकर उस कविता को सुन रहे थे। वाह-वाह और ख़ूब-ख़ूब की तो बात ही क्या, लोगों ने जैसे सांस लेना तक बन्द कर दिया था; मेरा रोम-रोम उस कविता का स्वागत करने के लिए उत्सुक हो रहा था।

एक बार इस मूर्तिमती प्रतिभा का परिचय प्राप्त किए बिना उस नगर से चले जाना अब मेरे लिये असम्भव-सा हो गया। अतः इस निश्चय के अनुसार मैंने अपना जाना फिर कुछ समय के लिये टाल दिया।

[ ३ ]

उनका पता लगा कर, दूसरे ही दिन, लगभग आठ बजे सवेरे मैं उनके निवास-स्थान पर जा पहुँचा और अपना ‘विजिटिंग कार्ड' भिजवा दिया। कार्ड पाते ही एक अधेड़ सज्जन बाहर आए, और मैंने उनसे उत्सुकता से पूछा “क्या श्रीमती......जी घर पर हैं?” "जी हाँ। आइए बैठिए"।

आदर प्रदर्शित करते हुए मैंने कहा—"कल के सम्मेलन में उनकी कविता मुझे बहुत पसन्द आई; क्या एक साहित्य-प्रेमी के नाते मैं उनसे मिल सकता हूँ?"

एक कुर्सी पर बैठालते हुए वह बोले—“वह मेरी लड़की है, मैं अभी उसे बुलवाये देता हूँ।”

उन्होंने तुरन्त नौकर से भीतर सूचना भेजी और उसके कुछ ही क्षण बाद वे बाहर आती हुई दीख पड़ीं।

परिचय के पश्चात बड़ी देर तक अनेक साहित्यिक विषयों पर उनसे बड़ी ही रुचिकर बातें होती रहीं। चलने का प्रस्ताव करते ही, उन्होंने संध्या-समय भोजन के लिए निमंत्रण दे डाला। इसे अस्वीकृत करना भी मेरी शक्ति के बाहर था। अत: दिन भर वहीं उनके साथ रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ। और इन थोड़े-से घंटों में ही उनकी असाधारण प्रतिभा देखकर मैं चकित हो गया। अब तक का मेरा आकर्षण सहसा भक्तियुक्त आदर में परिणत हो गया। भोजन के उपरान्त मुझे अपनी यात्रा प्रारंभ करनी ही पड़ी। परन्तु मार्ग भर मैं कुछ
ऐसा अनुभव करता रहा जैसे कहीं मेरी कोई वस्तु छूट-सी गई

[ ४ ]

घर लौट कर मैंने उन्हें दो-एक पत्र लिखे, पर उत्तर एक का भी न मिला। विवश था; चुप ही रहना पड़ा। किन्तु उनकी कविताओं की खोज निरन्तर ही किया करता था।

इधर कई महीनों से उनकी कविता भी देखने को नहीं मिली । न जाने क्यों, एक अज्ञात आशङ्का रह-रह कर मुझे भयभीत बनाने लगी। अन्त में एक दिन उसे मिलने की ठान कर, घर से चल ही तो पड़ा। चलने के साथ ही बाईं आँख फड़की, और बिल्ली रास्ता काट गई । इन अपशकुनों ने मेरी अनिश्चित आशंका को जैसे किसी भावी अमंगल का निश्चित रूप-सा दे दिया । वहाँ पहुँच कर देखा, मकान में ताला पड़ा है। हृदय धक से हो गया। पता लगाने पर ज्ञात हुआ कि कई महीने हुए उनके पिता का देहान्त हो गया है, उनके मामा आकर उन्हें अपने साथ लिवा ले गये। बहुत खोज करने पर भी मैं उनके मामा के घर का पता न पा सका। इस
प्रकार वे, एक हवा के झोंके की तरह, मेरे जीवन में आई और चली भी गई; मैं उनके विषय में कुछ भी न जान सका।

[ ५ ]

दस वर्ष बाद-

एक दिन फिर मैं कहीं सफर में जा रहा था। बीच में एक बड़े जंक्शन पर गाड़ी बदलती थी। वहाँ पर दो लाइनों के लिये ट्रेन बदलती थी। मैं अपने कम्पार्टमेन्ट से उतरा, ठीक मेरे पास के ही, पर थर्ड-क्लास के एक डिब्बे से एक स्त्री उतरी। उसका चेहरा सुन्दर, पर मुरझाया हुआ था; आँखें बड़ी-बड़ी, किन्तु दृष्टि बड़ी ही कातर थी। कपड़े साधारण और कुछ मैले-से थे। गोद में एक साल-भर का बच्चा था, आस-पास और भी दो-तीन बच्चे थे। मैंने ध्यान से देखा यह वे ही थीं। मैं झपटकर उनके पास गया। अचानक मुँह से निकल गया "आप! यहाँ इस वेश में!!"

उन्होंने मेरी तरफ देखा, उनके मुँह से एक हल्की-सी चीख निकल गई, बोलीं—"क्या! आप हैं?" मैंने कहा, "हां, हूं तो मैं ही, पर आपने कविता लिखना क्यों छोड़ दिया है?"

अब उनके संयम का बाँध टूट गया। उनकी आँखों से न जाने कितने बड़े-बड़े मोती बिखर गये। उन्होंने रुंधे हुए कंठ से कहा, “लिखने पढ़ने की बाबत अब आप मुझसे कुछ न पूछें।”

इतने ही में एक तरफ से एक अधेड़ पुरुष आए। और आते ही शायद, उनके पास का मेरा खड़ा रहना उन सज्जन को न सुहाया; इसीलिए उन्हें बहुत बुरी तरह से झिड़क कर बोले——“यहाँ खड़ी-खड़ी बातें कर रही हो; कुछ ख़याल भी है?"

वे बोलीं—"ये मेरे पिता जी के........." वह अपना वाक्य पूरा भी न कर पाई थीं कि वे महापुरुष कड़क उठे—"चलो भी; परिचय फिर हो लेगा।"

उन्होंने मेरी तरफ एक बड़ी ही बेधक दृष्टि से देखा; उस दृष्टि में न जाने कितनी करुणा, कितनी विवशता, और कितनी कातरता भरी थी। वे अपने पति के पीछे-पीछे चली गईं।

प्लेटफार्म पर खड़ा मैं सोचता हूँ कि ये वही हैं या उनका भग्नावशेष!

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