बिखरे मोती/मंझली रानी

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मंझली रानी

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वे मेरे कौन थे ? मैं क्या बताऊँ ? वैसे देखा जाय तो वे मेरे कोई भी न होते थे। होते भी तो कैसे? मैं ब्राह्मण, वे क्षत्रिय; मैं स्त्री, वे पुरुष; फिर न तो रिश्तेदार हो सकते थे और न मित्र । आह ! यह क्या कह डाला मैने ! मित्र ? भला किसी स्त्री का कोई पुरुष भी मित्र हो सकता है ? और यदि हो भी तो क्या इसे समाज बर्दाश्त करेगा ? यहाँ तो किसी पुरुष का किसी स्त्री से मिलना-जुलना या किसी प्रकार का व्यवहार रखना भी पाप है। और यदि कोई स्त्री किसी पुरुष से किसी‌
[ २९ ]प्रकार का व्यवहार रखती है, प्रेम से बातचीत करती है। तो वह स्त्री भ्रष्टा है, चरित्र-हीना है, नहीं तो पर पुरुष से मिलने-जुलने का और मतलब ही क्या हो सकता है ? खैर, ने तो मुझे समाज से कुछ लेना-देना है, न समाज से कुछ सरोकार । समाज ने तो मुझे दूध की मक्खी की तरह निकाल कर दूर फेंक दिया है। फिर मैं ही क्यों समाज की परवाह करूँ ?

मेरे माता-पिता साधारण स्थिति के आदमी थे । परिवार में माता पिता के अतिरिक्त मुझसे बड़े मेरे तीन भाई और थे। मैं सब से छोटी थी । छोटी होने के कारण घर में मेरा लालन-पालन बड़े लाड़ प्यार में हुआ था । मेरे दो भाई बनारस हिन्दू-युनीवर्सिटी में पढ़ते थे और दोनों से छोटा राजन मैट्रिक में पढ़ रहा था। मेरे पिता जी संस्कृत के पूरे पंडित थे और पुरानी रूढ़ियों के कट्टर पक्षपाती । यहां तक कि वे मेरा विवाह नौ साल की ही उमर में करके गौरीदान के अक्षय पुण्य के भागी बनना चाहते थे। कई लोगों के और विशेषकर मेरे भाइयों के विरोध के कारण ही वे ऐसा न कर सके थे।

जब मैं पाँचवीं अँगरेज़ी में पढ़ रही थी और मेरी [ ३० ]
आयु चौदह साल के लगभग थी, तब मेरे माता-पिता को मेर विवाह की चिन्ता हुई। वे योग्य वर की खोज में थे ही कि संयोग से ललितपुर के तालुकेदार राजा राममोहन हमारे कस्बे में शिकार खेलने के लिए आए। कस्बे से लगा हुआ ही एक बड़ा जंगल था, नहीं शिकार खेलने का अच्छा मौक़ा था। उनका खेमा लंगल से बाहर कस्बे के पास ही था। कस्बेवालों के लिए यह एक खासा तमाशा-सा हो गया था। उनके टेन्ट में कभी ग्रामोफोन वजता और कभी नाच-गाना होता । लोग बिना पैसे के तमाशा देखने को झुन्ड-के-झुन्ड जमा हो जाते । एक दिन मैं भी राजन और पिता जी के साथ राजा साहब के डेरे पर गई । मेरे पिता जी की राजा साहब से जान पहि- चान हो ही गई थी। हम लोग उन्हीं के पास जाकर कुर्सियों पर बैठ गए। राजा साहब ने हमारा बड़ा सम्मान किया। लौटते समय उन्होंने हम लोगों को अपनी ही सवारी पर भेजा और साथ में बहुत से फल, मेवा और मिठाई इत्यादि भी रखवा दी ! कस्बे की कई लड़कियों और लड़कों ने मुझे राजा साहब की सवारी पर लौटते हुए उत्सुक नेत्रों से देखा । उस सवारी पर पेटकर मैं अनुभव कर रही थी कि जैसे भी कहीं भी पाप‌
[ ३१ ] की रानी हूँ । मैंने उनकी ओर आखँ उठाकर भी न देखा ।

दूसरे दिन राजा साहेब ने स्वयं पिता जी को बुलावा भेजा और उनसे मिलकर दो-तीन घंटे बाद जब पिता जी लौटे, तो इतने प्रसन्न थे कि उनके पैर धरती पर पड़ते ही न थे। ऐसा मालूम होता था कि वे सारे संसार को जीतकर आ रहे हैं । आते ही उन्होंने मेरी पीठ ठोंकी और वें मां से बोले,—लो, इससे अच्छा और क्या हो सकता था ? तारा का विवाह राजा साहब के मंझले लड़के से तै हो गया ।माता-पिता दोनों ही इस सम्बन्ध से बड़े प्रसन्न हुए ।

[ २ ]

मेरे भाइयों ने जब सुना कि तारा का विवाह, एक तालुकेदार के विलासी लड़के से, जो मामूली हिन्दी पढ़ा- लिखा हे, तै हुआ है, तो उन्होंने इसका बहुत विरोध किया । किन्तु उनके विरोध को कौन सुनता था । पिता जी तो अपनी हठ पकड़े थे, उनकी समझ में इससे अच्छा घर और वर मेरे लिए कहीं मिल ही न सकता था । सबसे अधिक आकर्षक बात तो उनके लिए थी वह कि वर बहुत बड़े खानदान, वीस बिस्वे कनबजियों के घर का लड़का था।
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फिर राजा से रिश्तेदारी करक शास्त्र में उनकी इशत बढ़ न जायगी क्या ? इसके अतिरिक्त, विवाह का प्रस्ताव भी तो स्वयं राजा साहब ने ही किया था। नहीं तो भला मामूली हैसियत के मेरे पिता जी यह प्रस्ताव कैसे ला सकते थे? सबसे बढ़कर बात तो यह थी कि दहेज के नाम से कुछ न देकर भी लड़की इतने बड़े घर में व्याही जाती थी; फिर भला इन बड़े-बड़े आकर्षणों के होते हुए भी पिता जी इस प्रस्ताय को कैसे टाल देते ?

पिता जी मेरी किस्मत की सराहना करके कहते, मेरी तारा तो रानी बनेगी । रानी बनने की खुशी में मैं फूली- फली फिरती थी। भाइयों का विरोध करना, मुझे अच्छा न लगता, किन्तु मैं उसके सामने कुछ कह न सकती थी। खैर, भाइयों के बहुत विरोध करने पर भी मेरा विवाह मंझले राजा मनमोहन के साथ हो हो गया।

फूलों से सजी हुई मोटर पर बैठकर, मैं ससुराल के लिए रवाना हुई। हमारे कस्बे और ललितपुर के बीच में केवल २७ मील का अन्तर श्रा; इसलिए बरात मोटरों से ही आई और गई थी। जीवन में पहिली ही बार मोटर पर बैठी थी। मुझे ऐसा मालूम होता कि [ ३३ ]
जैसे मैं हवा में उड़ी जा रही हैं। सत्ताइस मील तक मोटर पर बैठने के बाद भी जी न भरा था। यही चाहती थी कि रास्ता लम्बा होता जाय और मैं मोटर पर घूमा करूं । किन्तु यह क्या संभव था ? आखिर को एक बड़े भारी महल के ज़नाने दरवाजे पर मोटर जाकर खड़ी हो गई। सास तो थी ही नहीं, इसलिए मेरी जिठानी बड़ी रानी जी परछन करके मुझे उतार ले गईं । मुझे एक बड़े भारी सजे हुए कमरे में बिठाल दिया गया, और स्त्रियां बारी-बारी से मेरा मुँह खोल-खोल के देखने लगीं । कोई रुपया, कोई छोटे-मोटे जेवर या कपड़े मेरी मुँह-दिखाई में दे-देकर जाने लगीं। मेरी जिठानी बड़ी रानी ने भी मेरा मुँह देखा; कुछ बोली नहीं; ‘उँह' करके मेरी अँगुली में एक अँगूठी पहिना दी। मैंने सुना कि वे पास ही के किसी कमरे में किसी से कह रही थी-देखा बहू को ? क्या तारीफ़ के पुल बंध रहे थे ? ससुर जी के कहने से तो बस यही मालूम होता था कि इन्द्र की अप्सरा ही होगी ? पर न रूप, न रंग, न जाने क्यों सुन्दर कह-कह के कंगले की बेटी व्याह के अपनी इज्ज़त हलकी की । रोटी-बेटी का व्यवहार तो अपनी बराबरी वालों ही में होता है, बिरजू की माँ! पर ससुर जी तो इसके रूप पर बिलकुल लट्टू ही हो गये थे। मैं [ ३४ ]
सुन्दर नहीं हूँ तो क्या मुझे सुन्दरता की परख भी नहीं है? न जाने कितनी सुन्दरियां देखीं है, यह तो उनके पैरों की धूल के बराबर भी न होगी । मालूम होता है, उमर के साथ-साथ ससुर जी की आँखें भी सठिया गई हैं; मंझले राजा को डुबो दिया ।

बिरजू की माँ उनकी हाँ में हाँ मिलाती हुई बोलीं--- सुन्दर तो है रानी जी ! जैसी आप लोग हैं वैसी ही है; पर अभी बच्चा है; जवान होगी तो रूप और निखर आयेगा।

बड़ी रानी तिलमिला उठी और बोलीं-रूप निस्त्ररेगा पत्थर; ‘होनहार विरवान के होत चीकने पात' । निखरने वाला रूप सामने ही दीखता है। फिर वे जरा विरक्ति के भाव से बोलीं-उँह, जानें भी दो; अच्छा हो या बुरा, हमें करना ही क्या है ? ।

जब मैं वहाँ अकेली रह गई, सब औरतें चली गई, तो मेरी माँ के घर की खवासन ने, सूना कमरा देखकर, मेरा मुँँह खोल दिया । शीशा उठाकर मैंने एक बार अपना मुँह ध्यान से देखा, फिर रख दिया; ढुँढने से भी मुझे अपने रूप-रंग में कोई ऐब न मिला । [ ३५ ]

[ ३ ]

पहिली बार केवल ५ दिन ससुराल रहकर मैं अपने पिता के साथ मायके आ गई। ससुराल के ५ दिन मुझे ५ वर्ष की तरह मालूम हुए । मैंने जो रानीपने का सुनहला सपना देखा था, वह दूर हो चुका था । ससुराल से लौट कर मैंने तो कुछ नहीं कहा, किन्तु खवासन ने वहाँ के सब हाल-चाल बतलाए । माँ ने कहा— तो क्या रानी केवल कहने ही के लिये होती हैं; भीतर का हाल हमारे घरों से भी गया-बीता होता है?

मैं अपनी माँ के साथ मुश्किल से महीना, सवा महीना ही रह पाई थी कि मुझे बुलाने के लिये ससुराल से सन्देसा आया । राजाओं की इच्छा के विरुद्ध तिलभर भी मेरे पिता जी कैसे जाते ? न चाहते हुए भी, उन्हें मेरी बिदाई करनी ही पड़ी। इतनी जल्दी ससुराल जाना मुझे जरा भी अच्छा न लगा; परन्तु क्या करती, लाचार थी । सावन में जब कि सब लड़कियाँ ससुराल से मायके आती हैं, मैं ससुराल रूपी कैदखाने में बन्द होने चली ।देवर के साथ फिर मोटर पर बैठी। इस बार मैंने अपना छोटा-सा हारमोनियम भी साथ रख लिया था। [ ३६ ]फिर ससुराल पहुँची । पहिली बार तो मेरे साथ माँ के घर की खवासन थी; इस बार, उस हारमोनियम और थोड़ी-सी पुस्तकों को छोड़कर, कोई न था। मेरा जी एक कमरे में चुपचाप बैठे-बैठे बड़ा घबराया करता। घर में कोई ऐसा न था जिससे घंटे दो घंटे बातचीत करके जा बहलाती । केवल छोटा राजा, मेरे देवर की बातें मुझे अच्छी लगती थीं; किन्तु वेभी मेरे पास कभी-कभी, और अधिकतर बड़ी रानी की नजर बचाकर ही आते थे। मैं सारे दिन पुस्तकें पढ़ा करती; पर पुस्तके थी ही कितनी ? आठ - दस दिन में सब पढ़ डाली । यहाँ तक कि एक-एक पुस्तक दो -दो , तीन-तीन बार पढी गई। छोटे राजा कभी-कभी मुझे अखबार भी ला दिया करते थे; किन्तु सबकी आँख बचाकर।


घर में सब काम के लिये नौकर-चाकर और दास- दासियाँ थीं । मुझे घर में कोई काम न करना पड़ता था। मेरी सेवा में भी दो दासियाँ सदा बनी रहती थी; पर मुझे तो ऐसी मालूम होता था कि मैं उनके बीच में कैद हूँ । क्योंकि मेरी राई-रत्ती भी बड़ी रानी के पास लगा दी जाती थी । उन दासियों में से यदि मैं किसी को किसी काम से कहीं भेजना चाहती, तो वे मेरे कहने मात्र से ही [ ३७ ]
कहीं न जा सकती थीं; उन्हें बड़ी रानी से हुक्म लेना पड़ता था । यदि उधर से स्वीकृति मिल जाती तो मेरा काम होता, अन्यथा नहीं। इसी प्रकार हर माह मुझे.१५०) खज़ाने से हाथ-खर्च के लिये मिलते थे; किन्तु क्या मजाल कि उसमें से एक पाई भी महाराजा से पूँछे बिना खर्च कर दूँ । भीतर के शासन की बागडोर बड़ी रानी के हाथ में थी, और बाहर की महाराजा मेरे ससुर के हाथ में । मेरे पति मंझले राजा, बड़े ही विलास-प्रिय, मदिरा-सेवी, शिकार के शौकीन और न जाने क्या क्या थे, मैं क्या बताऊँ ? वे बहुत सुन्दर भी थे। किन्तु उनके दर्शन मुझे दुर्लभ थे। चार छः दिन में कभी घंटे, आध घंटे के लिए, वे मेरे कमरे में आ जाते तो मेरा अहो भाग्य समझो । उनकी रूप-माधुरी को एक बार जी-भर के पीने के लिए मेरी आँँखे आज तक प्यासी हैं; किन्तु मेरे जीवन में वह अवसर कभी न आया ।

इस दिखावटी वैभव के अन्दर मैं किसी प्रकार अपने जीवन को घसीटे जा रही थी। इसी समय मेरे अंधकार पूर्ण जीवन में प्रकाश की एक सुनहली किरण का आगमन हुआ ।

छोटे राजा की उमर १७,१८ साल की थी। वे बड़े [ ३८ ]
नेक और होनहार युवक थे। घर में पढ़ने-लिखने का शौक केवल उन्हीं को था । छोटे राजा मैट्रिक की तैयारी कर रहे थे, और एक मास्टर बाबू उन्हें पढ़ाया करते थे । घर में आने-जाने की उन्हें पूर्ण स्वतंत्रता थी । घर में स्त्रियों की आवश्यक वस्तुएँ बाहर से मँगवा देना भी मास्टर बाबू के ही जिम्मे था । इसलिये वे घर में सबसे और भी ज्यादः परिचित थे।

विवाह के बाद से ही बड़ी रानी मुझ में नाराज़, थीं। उन्हें मेरी चाल-ढाल, रहन-सहन जर भी न सुहाती । हर बात में मेरी ऐब हीं ढूंढ निकालने की फिराक़ में रहतीं । तिल का ताड़ बना कर, मेरी जरा-जरा-सी बात को वे परिचित या अपरिचित, जो कोई भी आता उससे कहती । शायद वे मेरी सुन्दरता को मेरे ऐबों से ढंक देना चाहती थीं । वही बात उन्होंने मास्टर बाबू के साथ भी की। वे तो घर में रोज ही आते थे। और रोज उनसे मेरी शिकायत होने लगीं । किन्तु इसका असर ही उल्टा हुआ; मैंने देखा, तिरस्कार की जगह मास्टर बाबू का व्यवहार मेरे प्रति अधिक मधुर और अदर-पूर्ण होने लगा ।

[ ४ ]

छोटे राजा को मेरा गाना बहुत अच्छा लगता; वे बहुधा [ ३९ ]
मुझ से गाने के लिये आग्रह करते । मुझे तो अब गाने- बजाने की ओर कोई विशेष रुचि न रह गई थी; किन्तु छोटे राजा के आग्रह से मैं अब भी, कभी-कभी गा दिया करती थी । एक दिन की बात है। जाड़े के दिन थे; किन्तु आकाश बादलों से फिर भी ढका था । मैं अपने कमरे में बैठी एक मासिक पत्रिका के पन्ने उलट रही थी; इतने में छोटे राजा आए; मुझ से बोले, मंझली भाभी कुछ गा कर सुनाओ ।

मैंने बहुत टाल-मटोल की; किन्तु छोटे राजा न माने; बाजा उठाकर सामने रख ही तो दिया। मैंने हारमोनियम पर गीत गोविन्द का यह पद छेड़ा-

         '"बिहरत हरिरिह सरस बसन्ते ।
    नृत्यति युवति जनेन् समं सखि विरहि जनस्य दुरन्ते
    ललित लवंग लता परिशीलन कोमल मलय समीरे ।
   मधुकर निकर करम्वित कोकिल कूजत कुंज कुटीरे॥”

मास्टर बाबू भी, न जाने कैसे और कहाँ से, आए और पीछे चुपचाप खड़े हो गये । छोटे राजा की मुस्कुराहट से मैं भाँप गई; पीछे फिर कर जो उन्हें देखा तो हारमोनियम [ ४० ]
सरका कर मैं चुपचाप बैठ गई । वे भी हँसकर वहीं बैठ गये, बोले, “मंझली रानी ! आप इतना अच्छा गा सकती हैं, मैंने आज ही जाना ।


छोटे राजा-अच्छा न गाती होतीं तो क्या में मूर्ख था, जो इनके गाने के पीछे अपना समय नष्ट करता है?


इधर यह बातें हो ही रहीं थीं कि दूसरी तरफ से पैर पटकती हुई बड़ी रानी कमरे में आई, क्रोध से बोली- यह घर तो अब भले आदमी का घर कहने लायक रह ही नहीं गया हैं । लाज-शरम तो सब जैसे धो के पी ली हो । बाप रे बाप ! हद हो गई। जैसे हल्के घर की है, वैसी ही हल्की बातें यहाँ भी करती हैं । पास-पड़ोस वाले सुनते होंंगे तो क्या कहते होंगे ? यही न, कि मंझले राजा की रानी रंडियों की तरह गा रही हैं। बाबा ! इस कुल में तो ऐसा कभी नहीं हुआ। कुल को तो न लजवाओ देवी ! बाप के घर जाना तो भीतर क्या, चाहे सड़क पर गाती फिरन' ! किन्तु यहाँ यह सब न होने पावेगा। तुम्हें क्या ? घर के भीतर बैठी-बैठी चाहे जो कुछ करो, वहाँ आदमीयों की तो नाक कटती है। [ ४१ ]एक सांस में इतनी सब बातें कहके बड़ी रानी चली गई।


मैने सोचा, शराब पीकर रंडियों की बांह में बांह डाल कर टहलने में नाक नहीं कटती । गरीवों पर मनमाने जुल्म करने पर नाक नहीं करती। नाक कटती है मेरे गाने से, सो अब मैं बाजे को कभी हाथ ही न लगाऊँगी। उस दिन से फिर मैंने वाजे को कभी नहीं छुआ; और न छोटे राजा ने ही कभी मुझसे गाने का आग्रह किया। यदि वे आग्रह करते, तब भी मुझ में बाजा छूने का साहस न था।


इस घटना के कई दिन बाद एक दिन मास्टर बाबू छोटे राजा को पढ़ा कर ऊपर से नीचे उतर रहे थे, और मैं नीचे से ऊपर जा रही थी । आखिरी सीढ़ी पर ही मेरी उनसे भेंट हो गई; वे ठिठक गये, बोले-


'कैसी हो मंझली रानी ?'


'जीती हूँ।'


'खुश रहा करो; इस प्रकार रहने से आखिर कुछ लाभ ?' [ ४२ ]'जी को कैसे समझाऊँ, मास्टर बाबू ?'

‘अच्छी-अच्छी पुस्तकें पढ़ा करो; उनसे अच्छा साथी संसार में तुम्हें कोई न मिलेगा।'

‘पर मैं अच्छी-अच्छी पुस्तकें लाऊ कहाँ से ?'

'लाने का जिम्मा मेरा !'

'यदि आप अच्छी पुस्तकें ला दिया करें तो इससे अच्छी और बात ही क्या हो सकती है ?'

'यह कौन बड़ी बात है मंझली रानी ! मेरे पास बहुत-सी पुस्तकें रखी हैं। उनमें से कुछ मैं तुम्हें ला दूँँगा।'


इस कृपा के लिये उन्हें धन्यवाद देती हुई मैं ऊपर चली और वे बाहर चले गये। मैंने ऊपर आँख उठा कर देखा तो बड़ी रानी खड़ी हुई, तीव्र दृष्टि से मेरी ओर देख रही थीं। मै कुछ भी न बोलकर नीची निगाह किए हुए अपने कमरे में चली गई।

[ ५ ]

दूसरे दिन मास्टर बाबू समय से कुछ पहले ही आए। उनके हाथ में कुछ पुस्तकें थीं । वे छोटे राजा के कमरे में न जाकर सीधे मेरे कमरे में आए; [ ४३ ]
और बाहर से ही आवाज दी; किन्तु दोनों दासियों में से इस समय एक भी हाजिर न थी। इसलिये मैंने ही उनसे कहा--आइए मास्टर बाबू ! वे आकर बैठ गये । किताबों और लेखक के नाम बतला कर वे मुझे किताबें देने लगे।ये महात्मा गांधी की 'आत्मकथा' के दोनों भाग हैं। यह है बाबू प्रेमचन्द्र जी की 'रंग-भूमि'; इसके भी दो भाग हैं। यह मैथली बाबू का'साकेत' और यह पंत जी का 'पल्लव’। इसके अतिरिक्त और भी बहुत- सी पुस्तकें हैं। इन्हें तुम पढ़ लोगी, तब मैं तुम्हें और ला दूंँगा ।

इसके बाद वे 'साकेत' उठाकर, उर्मिला से लक्ष्मण की बिदी का जो सुन्दर चित्र मैथली बाबू ने अंकित किया है, मुझे पढ़ कर सुनाने लगे । इतने ही में मुझे वहाँ बड़ी रानी की झलक दीख पड़ी और उसके साथ मेरे कमरे के दोनों दरवाजे फटाफट बन्द हो गये । मास्टर बाबू ने एक बार मेरी तरफ़ फिर, दरवाजे की तरफ देखा; फिर वे बोले- भाई, यह दरवाजा किसने बन्द कर दिया है ? खोल दी ।

जब कोई भी उत्तर न मिला तो मुझे क्रोध आ गया । [ ४४ ]
मैने तीव्र स्वर में कहा-यह दरवाजा किसने बन्द किया है ? खोलो; क्या, मालूम नहीं है कि हम लोग भीतर बैठे है ।


‘बड़ी रानी की कर्कश आवाज़ सुनाई दी-'ठहरो, अभी खोल दिया जायगा । तुम लोग भीतर हो, यह दिखाने के लिए तो दरवाजा बन्द किया गया है। पर देखने वाले भी तो जरा आ जाँय | यह नारकीय लीला अब ज्यादः दिन न चल सकेगी ।

‘नारकीय लीला' ! मेरा माथा ठनका, हे भगवान! क्या पुस्तक पढ़ना भी 'नारकीय लीला है ? इस प्रकार लगभग १५ मिनट हम लोग बन्द रहे। गुस्से में मास्टर बाबू का चेहरा लाल हो रहा था । उधर बाहर बड़े राजा,मंझले राजा और महाराजा जी की आवाज़ मुझे सुनाई दी; और उसके साथ ही कमरे का दरवाजा खुल गया ।


बड़ी रानी बोली--मेरी बातों पर तो कोई विश्वास ही नहीं करता था। अब अपनी अपनी आँँखो देखो। आखें धोखा तो नहीं खा रही हैं ?

आज तक मैने मंझले राजा की विलासी मूर्ति देखी [ ४५ ]
थी। आज मैंने उनका रुद्र रूप भी देखा । क्रोध से पैर पटकते हुए वे बोले- किरणाकुमार, इस कमरे में तुम किसके हुक्म से आए ? मास्टर बाबू भी उसी स्वर में बोले-मुझे किस कमरे में जाने का हुक्म नहीं है ?


बड़े राजा–मास्टर बाबू, अब यहाँ से चले जाओ, इसी में तुम्हारी कुशल है ।


वे-मुझे ऐसी कुशल नहीं चाहिए। मैं पापी नहीं हूँ जो कायर की तरह भाग जाऊँगा । जाने से पहिले मैं आप को बतला देना चाहता हूँ कि मैं और मंझली रानी दोनों ही पवित्र और निर्दोष हैं। यह हरक़त ईर्ष्या और जलन के ही कारण की गई है।

बड़ी रानी गरज उठीं-“उलटा चोर कोतवाल को डाटे; चोरी की चोरी, उस पर भी सीना जोरी । मैं ! मैं ईर्ष्या करूगी तुमसे ? तुम हो किस खेत की मूली ? मैं तुम्हें समझती क्या हूँ ? तुम हो एक अदना से नौकर और वह है कल की छोकरी; सो भी किसी रईस के घर की नहीं । ईर्ष्या तो उससे की जाती है जो अपनी बराबरी का हो । फिर बड़े राजा की तरफ़ मुड़कर बोलीं-तुम इसे ठोकर मार के निकलवा [ ४६ ]
क्यों नहीं देते ? तुम्हारे सामने ही खडा़-खडा़ जवान लड़ा रहा है, और तुम सुन रहे हो;पहले ही कहा था कि नौकर-चाकर की ज्यादः मुँह न लगाया करो ।


महाराज बड़े गुस्से से बोले–किरण कुमार चले जाओ।


इसी समय न जाने कहाँ से छोटे राजा आपढ़े और मास्टर बाबू को जबरदस्ती पकड़कर अपने साथ लिवा ले गये। वे चले गये। मुझपर क्या बीती होगी, कहने की आवश्यकता नहीं, समझ लेने की बात है। नतीजा सब का यह हुआ कि उसी दिन एक चिट्ठी के साथ सदा के लिये में विदा कर दी गई । एक इक्के पर बैठाला कर चपरासी मुझे मां के घर पहुँचाने गया । चिट्टी मेरे पिता जी के नाम थी, जिसमें लिखा था कि " आपकी पुत्री भ्रष्टा है। इसने हमारे कुल में दाग लगा दिया है। इसके लिए अब हमारे घर में जगह नहीं है।" बात की बात में सारे मुहल्ले भर में मेरे भ्रष्टाचरण की बात फैल गई। यहाँ तक कि मेरे पिता के घर पहुँचने से पहले ही यह

बात पिता जी के घर तक भी पहुँच गई थी। [ ४७ ]

[ ६ ]

जब मैं पिता जी के घर पहुँची, शाम हो चुकी थी । इस बीच माता जी का देहान्त हो चुका था। भाई भी तीनों, कालेज में थे। घर पर मुझे केवल पिता जी मिले; उन्होंने मुझे अन्दर न जाने दिया; बाहर दालान में ही बैठाला। चिट्ठी पढ़ने के बाद वे तड़प उठे, बोले-जब यह भ्रष्ट हो चुकी है तो इसे यहाँ क्यों लाए ? रास्ते में कोई खाई, खन्दक न मिला, जहाँ ढकेल देते ? इसे मैं अपने घर रक्खूँँगा ? जाय, कहीं भी मरे । मुझे क्या करना है ? मैं पिता जी के पैरों पर लोट गई; रोती-रोतो बोली--पिता, जी, मैं निर्दोष हूँ। पिता जी दो कदम पीछे हट गये । और कड़क कर बोले, “दूर रह चांडालिन; निर्दोष ही तू होती तो इतना यह बवंडर ही क्यों उठता ? उन्हें क्या पागल कुत्ते ने काटा था जो बैठे-बैठाए अपनी बदनामी करवाते ? जा, जहाँ जगह मिले, समा जा । मेरे घर में तेरे लिए जगह नहीं है। क्या करू, अंगरेजी राज्य न होता तो बोटी-बोटी काट के फेंक देता ।"

इस होहल्ला में समाज के कई ऊँची नाक वाले अगुआ और कई पास-पड़ोस वाले भी जमा हो गये । सबने [ ४८ ]मेरे भ्रष्ट्राचरण की बात सुनी और घृणा में मुँँह विच- काया। एक बोला 'नहीं भाई, अब तो वह घर में रखने लायक नहीं । जब ससुरालवालो ने ही निकाल दिया तो क्या पंडित रामभजन अपने घर रख कर जात में अपना हुक्का-पानी बन्द करवायेंगे।' दुसरे ने पिता जी पर पानी चढाया 'अरे भाई! घर में रक्खें तो रहने दो, उनकी लड़की है; पर हम तो पंडित जी के दरवाजे पर पैर न देंगे।'

मै फिर एक बार भीतर जाने के लिए दरवाजे की तरफ झुकी; किन्तु पिता जी ने एक झटके के साथ मुझे दरवाजे से कई हाथ दूर फेंक दिया। कुल में दाग तो मैने लगा ही दिया था, वे मुझे घर में रख कर क्या जात बाहर भी हो जाते ? मैं दूर जा गिरी और गिर कर बेहोश हो गई । मुझे जब होश आया तब मेरे घर का दरवाजा बन्द हो चुका था, और मुहल्ले भर में सन्नाटा छाया था। केवल कभी-कभी एक-दो कुत्तों के भूकने का शब्द सुन पड़ता था। मैं उठी; बहुत कुछ सोचने के बाद स्टेशन की तरफ चली। एक कुत्ता भूँँक उठा, जैसे कह रहा हो कि अब इस मुहल्ले में तुम्हारे लिये जगह नहीं है। जब मैं स्टेशन पहुँची एक गाड़ी तैयार खडी़
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थी । बिना कुछ सोचे-विचारे मैं गाड़ी के एक जनाने डिब्बे में बैठ गई। गाड़ी कितनी देर तक चलती रही,कहाँ-कहाँ खड़ी हुई, कौन-कौन से स्टेशन बीच में आए, मुझे कुछ पता नहीं; किन्तु सवेरे जब ट्रेन कानपूर पहुँच कर रुक गई और एक किसी रेलवे कर्मचीरी ने आकर मुझे उतरने को कहा तो मैं जैसे चौंकसी पड़ी । मैंने देखा, सारी ट्रेन यात्रियों से खाली हो गई है, स्टेशन पर भी यात्री बहुत कम थे। ट्रेन पर से उतर कर मेरी समझ में ही न आता था कि कहाँ जाऊँ । कल इस समय तक जो एक महल की रानी थी, आज उसके लिये खड़े होने के लिए भी स्थान न था। बहुत देर बाद मुझे एकाएक ख्याल आया कि सत्याग्रह-संग्राम तो छिड़ा ही हुआ है। क्यों न मैं भी चलकर स्वयं-सेविका बन जाऊँ और देश-सेवा में जीवन बिता दूँ। पूँछती हुई मैं किसी प्रकार कांग्रेस-दफ़तर पहुँची । वहाँ पर दो-तीन व्यक्ति बैंठे थे, उन्होंने मुझसे पूछा कि मेरे पास किसी कांग्रेस कमेटी का प्रमाण-पत्र है ? जब मैंने कहा 'नहीं।' तब उन्होंने मुझे स्वयं-सेविका’ बनाने से इन्कार कर दिया । इसके बाद इसी प्रकार मैं कई संस्थाओं और सुधारकों के दरवाजे-<br [ ५० ]
दरवाजे भटकी किन्तु मुझे कहीं भी आश्रय न मिला । विवश होकर मैं भूख-प्यासी चल पड़ी, किन्तु जाती कहाँ ? थक कर एक पेड़ के नीचे बैठ गई। मैंने अपनी अवस्था पर विचार किया ! मैं आज रानी से पथ की भिखारिणी हो चुकी थी; मेरे सामने अब भिक्षावृत्ति को छोड़ कर दूसरा उपाय ही क्या था ? इसी समय न जाने कहाँ से एक भिखारिणी बुढि़या भी उस पेड़ के नीचे कई छोटी- छोटी पोटलियाँ लिए हुए आकर बैठ गई । बडे़ इतमीनान के साथ अपने दिनभर के माँगे हुए आटे, दाल, चावल को अपने चीथड़े में अच्छी तरह बाँध कर बुढ़िया ने मेरी तरफ देखा । मैंने भी उसकी ओर देखा । दुःख में भी एक प्रकार का आकर्षण होता है जिसने क्षण भर में ही हम दोनों को एक कर दिया । भिखारिणी बहुत बुढी थी, उसे आँख से भी कम दिख पड़ता था। भिक्षा-वृत्ति करने के लिए अब उसे किसी साथी या सहारे की जरुरत थी। मैं उसी के साथ रहने लगी ।

कई बार मैंने आत्म-हत्या करना चाही किन्तु उस तरफ से मालूम होता कि जैसे कोई हाथ पकड़ लेता हो कि अब इगत भी न कर सकी । लगातार एक साल हैं। जब मै स्टेशन
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तक भिखारिणी के साथ रह कर भी मुझे भीख मांगना ना आया । आता भी तो कैसे ? अतएव मैं बुढ़िया का हाथ पकड़ कर उसे सहारा देती हुई चलती, और भीख वही मांगा करती । मैं जवान थी, सुन्दर थी, फटे-चीथड़े और मैले-कुचैले वेष में भी,मैं अपना रूप न छिपा सकती और मेरा रूप ही हर जगह मेरा दुश्मन हो जाता । अपने सतीत्व की रक्षा के लिए मुझे बहुत सचेत रहना पड़ता था और इसीलिए मुझे जल्दी-जल्दी स्थान बदलना पड़ता था।


मेरे बदन की साड़ी फट कर तार-तार हो गई थी; वदन ढकने के लिए साबित कपड़ा भी न था। प्रयाग में माघी अमावस्या के दिन बड़ा भारी मेला लगता हैं। बुढ़िया ने कहा वहाँ, चलने पर हमें ३,४ महीने भर के खाने को मिल जायेगा और कपड़ों के लिए पैसे भी मिल जायगे । मैं बूढ़ी के साथ पैदल ही प्रयाग के लिए चल पड़ी।


माँगते-खाते कई दिनों में हम लोग प्रयाग पहुँचे । यहाँ पूरे महीने भर मेला रहता है । दूर-दूर के बहुत से यात्री आते हैं। हम लोग रोज सड़क के किनारे एक कपड़ा बिछाकर बैठ जाते; दिन भर भिक्षा माँगकर शाम को एक पेड़ के नीचे अलाव जलाकर सो जाते । [ ५२ ]
एक दिन इसी प्रकार शाम को जब हम दिन भर की भिझा-वृत्ति के बाद लौट रहे थे तब एक वग्घी निकलीं जिसमें कुछ स्त्रियाँ थीं। बुढ़िया एक पैसे के लिए हाथ फैलाकर गाड़ी के पीछे-पीछे दौड़ी। कुछ देर के बाद गाड़ी के अन्दर से एक पैसा फेंका गया । शाम के धुँँधले प्रकाश में बुढ़िया जल्दी पैसा न देख सकी; वह पैसा देखने के लिए कुछ देर तक झुकी रही। उसी समय, एक मोटर पीछे से और एक सामने से आ गई। बुढ़िया ने बहुत बचना चाहा, मोटर वाले ने भी बहुत बचाया, पर बुढ़िया मोटर की चपेट में आही गई; उसे गहरी चोट लगी और उसे बचाने की चेष्टा में, मुझे भी काफी चोट आई । जिस मोटर की चपेट हम लोगों को लगी थी, उस मोटर वाले ने पीछे मुड़़कर देखा भी नहीं, किन्तु दूसरी मोटरवाले रुक गये । उसमें से दो व्यक्ति उतरे। मेरे मुँह से सहसा एक चीख निकल गई

[ ७ ]

कई दिनों तक लगातार बुखार के बाद जिस दिन मुझे होश आया, मैंने अपने आपके एक ज़नाने अस्पताल के परदावार्ड के कमरे में पाया। एक खाट पर मैं पड़ी थी, [ ५३ ]
मेरे पास ही दूसरी खाट पर भिखारिणी भी मरणासन्न अवस्था में पड़ी थी। मैं खाट से उठकर बैठने लगी, मास्टर बाबु पास ही कुर्सी पर बैठे कुछ पढ़ रहे थे। मुझे उठते देखकर पास आकर बोले, अभी आप न उठें। बिना डाँँक्टर की अनुमति के आपको खाट पर से नहीं उठना है"।

'क्यों ? मैं पथ की भिखारिणी, मुझे ये साफ-सुथरे कपड़े, ये नरम-नरम बिछौने क्यों चाहिये ? कल से तो मुझे फिर वही गली-गली की ठोकर खानी पड़ेगी न’ ?

उनकी बड़ी-बड़ी आँखें सजल हो गईं। वे बड़े ही करुणा स्वर में बोले–मँझली रानी ! क्या तुम मुझे क्षमा न करोगी ? तुम्हारा अपराधी तो मैं ही हूँ न ? मेरे ही कारण तो आज तुम राजरानी से पथ की भिखारिणी वन गई हो।

जब मुझे उन्होंने 'मंँझली रानी' कह कर बुलाया तो मैं चौंक-सी पड़ी। सहसा मेरे मुँह से निकल गया "मास्टर बाबू !”

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दो तीन दिन में मैं पूर्ण स्वस्थ हो गई। परन्तु भिखा-
[ ५४ ]रिणी की हालत न सुधर सकीं; और एकदिन उसने अपनी जीवन-लीला समाप्त कर दी । उसके अन्तिम सस्कारों से निवृत्त होकर में मास्टर बाबू के साथ उनके बंगले में रहने लगी। किन्तु में अभी तक नहीं जान सकी कि वे मेरे कौन हैं? वे मुझ पर माता की तरह ममता, पिता की तरह प्यार करते हैं, भाई की तरह सहायता और मित्र को तरह नेक सलाह देते हैं। पति की तरह रक्षा और पुत्र की तरह आदर करते हैं; कुछ न होते हुए भी वे मेरे सब कुछ हैं; अऔर सब कुछ होते हुए भी वे मेरे कुछ नहीं हैं।