बिरजा/४

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बिरजा  (1891) 
द्वारा राधाचरण गोस्वामी

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चतुर्थाध्याय।

गोविन्द की पत्नी भवतारिणी का पितालय कोननगर में था। यह लिखना पढ़ना जानती थी और अवकाशानुसार बिरजा या नवीनमणि को शिक्षा भी दिया करती थी। चार पांच वत्सर में उन दोनों ने एक प्रकार का लिखना पढ़ना सीख लिया, परन्तु बिरजा कुछ अधिक सीख गई थी। वह गृहिणी के पास बैठकर रामायण या महाभारत का पाठ किया करती थी और ग्राम को अनेक प्राचीना आय कर सुना करती थी।

बिरजा को अवस्था इस समय पञ्चदश वर्ष अतिक्रम कर गई थी और नवीन को भी यही वयम हो गई थी। बिरजा गौरांगी थी, नवीन श्यामांगी थी। गौरांगी होने से ही कोई रूपवती नहीं होती, और श्यामांगी होने सेही कोई कुत्सिता नहीं होती, परन्तु यह दोनों ही रूपवती थीं। तथापि बिरजा का रूप लावण्य चमत्कार वा, नवीन [ १९ ] का रूप लावण्य साधारण था। बिरजा दीर्घकाया थी नवीन खर्वकाया थी। बिरजा की नासिका ने भू युगल को मध्यस्थल में जितना स्थान चाहिये उतना स्थान अधिकार कर लिया था, और उतनी ही उच्च थी, किन्तु नवीन की नासिका कुछ अधिक उच्च थी। बिरजा के दोनों नेत्र वृहद दीर्घाकार थे, नवीन के दोनों नेत्र और भी बड़े थे, किन्तु कलकत्ते की काली प्रतिमा की चक्षु की न्याय प्रायः कर्ण पर्यन्त विस्तृत थे। यदि इन्हीं को कवि लोग आकर्णवि चान्त चक्षु कहते हों, तो हम इसमें कुछ सौन्दर्य नहीं देखते। बिरजा का कपाल समतल था, किन्तु नवीन का उच्च था। बिरजा का ग्रीवादेश दीर्घ था, जिसे हंसग्रीवा कहते हैं, किन्तु नवीन का ग्रीवादेश हस्व था। अन्यान्य विषयों में दोनों का रूप समानही था। दोनों के केशदाम नितम्बचुम्बित, दोनों की बाँह मृणाल सनिभ, दोनों की अँगुली सुकोमल पद्मकलिका सदृशी, और दोनोंही की देह में नवयौवन का संपूर्ण आविर्भाव था, किन्तु स्वभाव के विषय वैलक्षण्य था। दोनों एकत्र वास करती थीं, अ- कृत्रिम प्रणय था, पर स्वभाव दोनों का एकसा नहीं था। बिरजा मिष्टभाषिणी थी, नवीन भी मिष्टभाषिणी थी किन्तु जिस स्थल पर उचित बात कहने से दूसरे के मन में कष्ट होता हो बिरजा उस स्थान पर कोई बात नहीं कहती थी [ २० ] चुप रहती थी, परन्तु नवीन से यह नहीं हो सका था। दूसरे के मन में चाहे कष्ट हों, वा न हो, वह सब समय में उचित बातही कहती थी। यद्यपि सत्य और उचित बात कहने में कुछ क्षति नहीं है परन्तु कहने से यदि दूसरे के मन में कष्ट होता हो तो उसकी अपेक्षा मौनावलम्बन करनाही अच्छा है। नवीन चाहे यह न जानती हो, चाहे न समझती हो। गंगाधर के संग नवीन के सुप्रणय न होने का यही एक प्रधान कारण था। गंगाधर समस्त दिन ताम्र पीटता, घर में आतेही एकान्त पाय कर नवीन उसक भर्त्सना करती, अकपट चित्त से उसके दोष की वार्ता उल्लेख करती। गङ्गाधर के मङ्गस्त साधनोद्देश्य से ही नवीन ऐसा करती थी किन्तु गङ्गाधर यह नहीं समझता था, वह मन में जानता था कि स्त्री स्वामी के अधीन होती है इसे स्वामी के दोष उल्लेख करने में उसका अधिकार नहीं है।

जो लोग स्त्री को घर की सामिग्री विशेष जानते हैं वे अवश्य गंगाधर के संग एक मत होंगे, और स्त्री के मुख से अपना दोषोल्लेख सुनकर विरक्त होंगे, परन्तु हम ऐसे महात्मा लोगों को बतलाये देते हैं कि स्त्री लोग अपने स्वामी को गृह की वस्तु विशेष नहीं समझती है। वह अपने को स्वामी के सुख में सुखी, दुख में दुखी, स्वामी को बन्धु, स्वामी को सुपरामर्शदाता मन्त्री, अधिक क्या [ २१ ] वह अपने को संसाररूप तरणी की बल्ली जानती हैं। किन्तु नवीन जिस प्रकार दोषी स्वामी के प्रति आरक्त नयन से सदा दृष्टि करती थी, हम उस प्रकार करने का किसी सुन्दरी को परामर्श नहीं देते। वरञ्च मिष्ट वाक्य और सप्रेम व्यवहार से स्वामी को सन्तुष्ट करें, और पीछे स्वामी के असद व्यवहार से आप दुःखित होकर दुःख के सहित कोमल नयन युगल वाष्पवारिपरिपूर्ण करके स्वामी को भर्त्सना करें, तब देखें कि स्वामी सुपथ में आता है वया नहीं?

इसी कारण से गङ्गाधर नवीन को दर्शन नहीं देता था, इससे नवीन का और भी अनिष्ट होने लगा। गंगाधर विरजा पर आशत हुआ। बिरजा का सहास्य वदन, बिरजा के मधुर वाक्य, बिरजा के अनुराग का भाव, वह सदाही ध्यान किया करता था। बिरजा प्रथम यह नहीं जान सकी अन्त में गंगाधर का भावर्वलक्षण्य पाया। पर नवीन से नहीं कहा। कहने से कदाचित् नवीन के संग विच्छेद होता यही समझकर नहीं कहा। नवीन का बिरजा पर अविचलित विश्वास और प्रेम था इसलिये उसको भी उसका सन्देह नहीं हुआ। बिरजा ने और भी विचारा कि यदि यह बात नवीन से कहूँगी तो वह गंगाधर के प्रति हतप्रभ हो जायगी। बिरजा ने नवीन को स्वामी [ २२ ]के संग मधुर व्यवहार करने वा स्वामी का मन लेकर चलने का परामर्श दिया। नवीन ने बिरजा के परामर्श से उस प्रकार की चेष्टा की, परन्तु हो नहीं सका। जो जिसके स्वभाव के विपरीति है वह भला कैसे हो सकता है? बिरजा ने सोचा था कि यदि गंगाधर का अनुराग नवीन से दृढ़ हो जायगा तो वह मुझ पर अनुरत न रहेगा पर वह कल्पना सिद्ध नहीं हुई। नवीन गंगाधर को बस न कर सकी। गंगाधर का अनुराग बिरजा पर दिन दिन बढ़ने लगा। एक दिन गंगाधर ने बिरजा से कहा "तुम कलकत्ते चलो यहां दासीभाव में कितने दिन रहोगी? कलकत्ते में विधवाविवाह होता है, मैं तुम से विवाह कर के वहां रहँगा"। बिरजा "ऐसी बात न कहा करो" यह कहकर गंगाधर के आगे से विद्युत् की नाई चली गई। गंगाधर अबोध या, मन में समझा कि विरना भी मेरे प्रति अनुरागिणी है।