सामग्री पर जाएँ

बिरजा

विकिस्रोत से
बिरजा  (1891) 
राधाचरण गोस्वामी
    स्क्रिप्ट त्रुटि: "interprojetPart" फंक्शन मौजूद नहीं है।

पृष्ठ मुखपृष्ठ से – ८ तक

 

बिरजा ।

(उपन्यास)

श्रीराधाचरण गोस्वामी

द्वारा

बङ्गभाषा से अनुवादित।

_____

प्रियमम्या मः मुरादाशिचकम्गाम्।
बगन्यूमानानाम शबानां स्त्रोसी यथा॥

(श्रीमद्भागवतम्)

(भारतेन्दु)

विविधविषय विभूषित मासिकपत्र।

[५][अंक ७, ८, ९, १०, ११, १२

तारीख १ जुलाई, अगस्त, सिप्टम्बर, आक्टोबर,
नोवेम्बर, डिसेम्बर सन् १८९१ ई॰)

ग्रन्थकार की मुद्रा व्यतीत पुस्तकें चोरी की हैं

_______

काशी

भारतजीवन यन्त्रालय बाबू रामकृष्णवर्म्मा अधिर

______

सन् १८९१ ई॰।

प्रिय पाठक

हम आये तो हैं, पर मुंह छिपाये हुये! क्यों शर्म के मारे। हम झूँठे, झूँठे, महाझूँठे। पर पेशादारी की झूँठ माफ़! दर्जी, सुनार, लोहार, प्रेमवाले, पर इनकी झूठ सच से बढ़कर है। हमने मुंह जरूर छिपाया पर ज़रा मुंह खोल कर तो देखिये। अब की हम वकवाद न करके एक उत्तम उपन्यास आपके लिए लाये है कहिए देर क्यों? हम बहुत छोटे हैं, वर्षा बूंदों के भय से घर में बैठे रहे अब शरद आते ही हमारा प्रकाश हो गया। हमने सोचा, बार बार किसी के घर जाना अच्छा नहीं एक बार ही जो हो, फैसला कर देंगे। अब हम आपके आगे हैं जो चाहे सो हमारा कर लीजिये। खैर, यह १ वर्ष तो जैसे तैसे काटकर पूरा किया, आप से अनृण हुये। आगे "गढ़ भाव्यं तद् भविष्यति"।

आपका चिरवाधि
चिर अपराधी
भारतेन्दु

बिरजा
(उपन्यास)

श्रीराधाचरण गोस्वामि कर्तृक अनुवादित।

प्रथमाध्याय।

आषाढ़ मास है; समय एक पहर भर मात्र दिन शेष है, आकाश के उत्तर पूर्व कोण में एक खण्ड वृहत् नील मेघ सज रहा है, उसके इतस्ततः कई एक क्षुद्र वारिदखण्ड छूट रहे हैं। भगवान् कमलिनीपति ज्यों ज्यों अस्ताचल शिखरावलम्बी होने लगे, वृहत् वारिदखण्ड भी त्यों त्यों वृहत होने लगा। ग्राम में जैसे किसी के बलवान और क्षमताशाली होने से पांच जन उसके शरणागत हो जाते हैं उसी प्रकार क्षुद्रकाय वारिदखण्ड समूह भी देखते देखते वृहत वारिदखण्ड के संग मिल गये। सूर्य्य-किरणों से मेघ समूह का पश्चिम प्रान्त रक्तवर्ण हो गया। झड़ वृष्टि के आगमन का पूर्व लक्षण देखकर गगनविहारी बिहङ्गम धीरे २ निम्न गमन करने लगे। दो एक श्वेतकाय पक्षी वारिदखण्ड को विद्रूप करने के छल से उसके इधर उधर फिरने लगे। नदी और पतिव्रता नारी का एक ही स्वभाव है। जैसे स्वामी का मुख विषण्ण देखने से पत्नी का बदनकमल भी विपन्न हो जाता है, वैसे ही वारिद खण्ड को कृष्णकाय देखकर पतितपावनी भागीरथी भी कृष्णकाय हो गईं।

इस समय एक नौका गङ्गा में होकर नवद्वीप से कलकत्ते के अभिमुख जाती थी। वह नौका आषाढ़ मास की गङ्गा के तीक्ष्ण स्रोत के वेग में पूर्व पर होकर द्रुत गमन से जा रही थी, आरोही लोग छप्पर के भीतर थे और अति असमय में आहार करके सो रहे थे। आकाश में जो निविड़ कृष्णवर्ण मेघ छा रहा है यह उनलोगों ने नहीं देखा जिस स्थान में होकर नौका जाती थी, वह स्थान ऐमे विपद् के समय नौका ठहरने के उपयुक्त नहीं थी। आकाश में जो कृष्णकाय मेघ उपस्थित हो रहा था उसे नौका के केवल एक प्रधान माझी ने देखा और देखते ही बड़ा भयभीत हुआ उपयुक्त स्थान पाने से वह उसी क्षण नौका ठहरा देता, परन्तु स्थान नहीं था। इसी समय जो लोग नौका की सन्मुख दिशा में बैठकर बल्ली चला रहे थे, उनमें से एक जन ने अनुच्चैःस्वर से माझी से सम्बोधन करके कहा कि "दादा क्या अनुमान करते हो?" माझी ने कहा "और क्या अनुमान करूँगा देखते नहीं हो कि सब पक्षी नाच रहे हैं?" पश्चात् भाग से आरोही लोग कहीं न सुन लें और सुन करके भीत न हों इस निमित्त उन्होंने अनुच्चैः स्वर से बात चीत की, परन्तु वह उनलोगों के निकट अव्यक्त नहीं रही।

नौका में सभी सो रहे थे केवल एक बालिका जागती थी। आकाश में क्या हो रहा है यह कुछ उसने नहीं देखा, परन्तु गङ्गा का जल अत्यन्त कृष्णवर्ण देखकर वह चमत्कृत और भीत हो गई। अब वह मांझियों की बात चीत सुनकर आपही आप कहने लगी कि "गङ्गा का जल ऐसा क्यों हो गया? ज्ञात होता है आकाश में बादल हुआ है"। उसकी बात एक जन युवक आरोही के कान में पड़ी वह आकाश में बादल होने की बात सुनतेही चौंक कर उठ बैठा। नाव का आवरण (पर्दा) खोलकर देखा तो पूर्व और उत्तर दिशा में भयानक बादल हो रहा है। वह भृत्य को तम्बाकू भरने की आज्ञा देकर छप्पर पर चढ़ गया। वहां वैठकर सोचने लगा। युवक बड़ा भीत हो गया था। यदि वह इस समय एकाकी इस नौका में होता, तो इतना भीत न होता पर उसके संग में दो स्त्रियें थीं।

भृत्य ने हुक्का बाबू के हाथ में दिया। बाबू हुक्का पीते पीते मांझी से बोले "जहां कहीं हो एक ठौर नौका ठहरा दो"। मांझी ने कहा "महाराज! इस पार नौका रखने की ठौर नहीं है, और यहां से दो कोस और आगे चलने पर भी इस पार नौका ठहराने का स्थान नहीं पावेंगे, यदि आज्ञा हो तो उस पार जाकर नौका खड़ी कर दें"। बाबू ने कहा "पार चलने का अब समय नहीं है पार चलते २ बीच मेंही जल झड़ आय कर गिर सकती है इससे इस पारही नौका ठहरा दो"। नौका में एक मनुष्य पूर्व बङ्गाल अञ्चल का मुसलमान था। वह बाबू की बात से विरक्त होकर कहने लगा कि "इस पार क्या जान खुवाने के लिये नाव ठहराओगे? अल्लाह वेली है उस पार नाव ले चलो जो नसीब में होगा आप से आप हो रहैगा" इसकी बात सुनकर बाबू को क्रोध आया और कहने लगे कि "मांझी! इसकी बात मत सुनो क्योंकि नौका डूबने से इनलोगों को तो कुछ भय हैही नहीं यह लोग तो जल जन्तु होते हैं'। बसरुद्दीन, बाबू की बात सुनकर बड़े क्रोध से कहने लगा "बाबू! बात कहो गाली क्यों देते हो? और जो मैं कुसूर करूँ मुझे गाली दो देश के लोगों को क्यों गाली देते हो? हमें गाली दो हम सह सकते हैं, देश के लोगों को गाली देने से हमारे दिल में चोट लगती है"।

मांझी ने बसरुद्दीन को दो एक मिन्ट भर्त्सना करके चुप किया। अनन्तर बाबू से कहा कि "बाबू पूर्व में पवन है, देखते देखते पार पहुँच जायँगे डर नहीं है"। मांझी आप डरता था तथापि बाबू से कहा कि "डर नहीं है"। मनुष्य का यह स्वभावही है कि आप विषद सागर में गिर कर और से कहता है कि "डर नहीं है"। बाबू ने मांझी की बात सुनकर कुछ उत्तर नहीं दिया पर मांझी उनका मौनभाव सम्मति लक्षण जानकर पार ले चला। वह मुसल्मान लोग पाल खोलकर खड़े हो गये, और "अल्लाह अल्लाह" कहकर नौका से जल गेरने लगे।

नौका के अभ्यन्तर स्त्रियों में एक बालिका और एक मध्य वयस की थी। बालिका ने उस स्त्री से पूछा कि "जीजी! तुम तैरना जानती हो?" उसने कहा "यद्यपि मेरा जन्म वक्रेश्वर नदी के तीर का है किन्तु मैं तैरना कुछ नहीं जानती।" बालिका ने फिर पूछा "यदि नौका डूबै तो क्या करोगी?" उसने कहा "ऐसी बात न कहना चाहिये स्थिर होकर बैठी रहो"।

ऐसे समय पूर्व दिशा में प्रबल वेग से वायु चलने लगी और उन्के मंगहों संग वही २ बूंदों से वृष्टि आई। गङ्गाजल के ऊपर 'चड़ चड़' शब्द से और नौका के छप्पर के ऊपर 'चटाम् चटास' शब्द से जल पड़ने लगा।

पाल में दमका वायु लगने से नाव डगमगाने लगी और उसमें बिस्तर जल भर गया। मध्या भय से कांपती थी, और त्राहि रव से गङ्गाजी को पुकारने लगी। एक जन मुसलमान ने नौका के जल गेरने का प्रारम्भ किया और सब पाल की डोरी पकड़कर खड़े रहे।

बाबू हुक्का हाथ में लेकर नीचे उतरे और नौका डूबने के समय जिस प्रकार सहज में बाहर जा पहुँचें ऐसे स्थान में खड़े रहे, बाबू की यह दशा देखकर बसरुद्दीन निकट आय कर कहने लगा "बाबू! तुम्हें डर लगता है? डरो मत, यदि नाव डूबै, तो हमारे रहते नहीं मरोगे"।

चारों ओर अन्धकार करके भयानक झड़ वृष्टि होने लगी। नदी का कूल नहीं दृष्ट होता था। विपद निश्चित जानकर सब ईश्वर का नाम लेने लगे। युवक नास्तिक था, परन्तु इस समय उसने भी विपदबान्धव ईश्वर के ऊपर आत्मसमर्पण किया। इति मध्य में पुनर्वार दमका वायु ने आकर नौका जलमग्न कर दीं।


यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।