बिरजा/८

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बिरजा  (1891) 
द्वारा राधाचरण गोस्वामी

[ ४२ ]

अष्टमाध्याय।

आशा के आश्वास मात्र पर जो मिलन इतने दिनों से बिलम्बित था, वह दम्पती का मिलन बहुत दिन पीछे युगान्त में गंभीर निशीथ में कैसे सुख की सामग्री है। शिवनाथ बाबू के द्वितल हर्म्य में आज वह गंभीर आनन्दमय मिलन है। बिरजा बिपिनविहारी के पदप्रान्त में रो रही है, और निशीथिनी लाख लाख आँख खोलकर वही देख रही है, विपिनबिहारी उदासीन की भांति स्पन्दरहित, स्वरहित, दण्डायमान हैं। जिसने पूर्ण चरितार्थता लाभ की है, वह उदासीन है। पूर्णता में आज विपिनविहारी उदासीन हैं।

सहृदय शिवनाथ बाबू निरर्थक शब्द करके एक घर से दूसरे घर में चले गये, तब विपिन और बिरजा को बोध हुआ, और समझा कि इस संसार में इस प्रकार का मिलन अनन्त काल स्थायी नहीं है, और क्रम से यह भी नाना कि एक बार दोनों को दोनों का परिचय लेना आवश्यक है।

बिरजा प्रथम बोली कि "आपने किस प्रकार जाना कि मैं यहां हूँ?" यह कहकर इतने क्षण पीछे उसने आंख पोंछने की चेष्टा की, परन्तु फिर वेग से जल भर आया और मन मन में कहने लगी कि 'हाय! क्या मेरे कपाल [ ४३ ] में यह भी लिखा था कि इस प्रीतिपूरित हृदय के सम्बोधन में प्राणेश्वर से इस प्रकार सम्भाषण करना होगा।

विपिनबिहारी अब भी नीरव थे, उन्होंने विरजा का पत्र बिरजा को दे दिया।

बिरजा ने जिज्ञासा की, "यह पत्र क्या आपको भव तारिणी जीजी ने दिया?" विपिन ने कहा "नहीं" एक बात के पीछे दस बात कहना सहज है। अब विपिन ने पूछा 'भवतारिणी, वह कौन है? तुम उनके घर कितने दिन रही थी? तुम वहां से उनमे बिना कहे कहां चली गई थी? मैं पत्र की सब बातें नहीं समझ सका"।

बिरजा यह सुनकर फिर अश्रु सम्वरण नहीं कर सकी, रोते रोते कहा "मैं अभागी एक संसार मझाय आई हूँ मेरे दुरदृष्टवशत: एक संसार हत सी हो गया, भवतारिणी जीजी के देवर ने मुझे कलुषित चक्षु से देखा था"। बिरजा एक क्षण भर निस्तब्ध हो गई, विपिनबिहारी एक पार्श्वस्थ चौकी पर बैठ गये।

बिरजा कहने लगी "मैं उसकी पत्नी नवीन को प्राण के समान चाहती थी, और भवतारिणी जीजी मुझे अपनी छोटी बहन के समान चाहती थीं मैं नवीनमणि के स्वामी की असत् अभिसन्धि जान कर सर्वदा सशङि्कत रहती थी। उसने अपनी असत् पथ से कण्टक दूर करने के अभिप्राय [ ४४ ] से रात्रि के संयोग में नवीनमणि को मार डाला। मैं उसी रात्रि को वहां से भाग आई। वह हतभाग कुछ दिन पीछे घर से निरुद्देश हो गया, और "पागल" की भांति देश देश में घूमता रहा, परिशेष में वह कलकत्ते को अन्यान्य रोगियों के आश्रय में सब के सामने अपना पाप स्वीकार करके इस संसार से अपसृत हो गया। मैंने अपने आश्रयदाता शिवनाथ बाबू के मुंह से यह सब सुनकर भवतारिणी जीजी को चिट्ठी लिखी, उस घर में मैं अब इस जन्म में मुंह नहीं दिखा सकी हूँ। यदि मैं उस घर में आश्रय ग्रहण न करती तो नवीनमणि इतने दिन स्वामिसौभाग्य से उस संसार की शोभावर्ध्दन करती और वर्षीय सी गृहिणी भी पुत्रशोक से प्राण विसर्जन न करती जब मैंने देखा था कि इस हतभाग्य के हृदय में कामाग्नि बलती है तब मैं न जाने किस लिये उस घर से स्थानान्तर में न चली गई? मैे उस गंभीर रात्रि में पथचारिणी हुई थी, यदि कुछ दिन पहिले ऐसा करती तो आज तुम्हारे आगे अंनुशोचना न करनी पड़ती।

इस समय बिरजा के हृदय का भार अत्यन्त लघु हो गया था। वह मुख खोल कर रोने लगी इतने काल विपिनबिहारी भी प्राय: नीरवही रह आये थे। इस समय उन्होंने प्रकृत पुरुष के समान खड़े होकर रोरुद्यमाना [ ४५ ] बिरजा को हृदय प्रान्त में खींचकर लगा लिया और कहा "साध्वि! तुम क्यों अनुशीचना करती हो? पवित्रहृदया अबला प्रदीप्त पावकशिखा होती है। जो प्रेम की अवमानना करके पतंग के समान उसमें कूदकर गिरैगा वह उसी भांति जल कर मर जायगा। और नवीन की सारल्यमयी प्रतिमूर्ति जो तुम्हारे चित्त में चिर दिन अंकित रहेगी और वह जो अनेक समयही तुम्हें दग्ध करैगी यह मैं विलक्षण जान सक्ता हूँ। अबला कोमलप्राणा कुसुमकोमला है, इसी में अबला का सुख और इसी के अबला का दुःख और इसी में अबला का गौरव और इसी में अबला की यन्त्रणा है'।

समाप्त।