बिल्लेसुर बकरिहा/१५

विकिस्रोत से
बिल्लेसुर बकरिहा  (1941) 
द्वारा सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

[ ४९ ]

(१५)

कातिक की चाँदनी छिटक रही थी। गुलाबी जाड़ा पड़ रहा था। सवन-जाति की चिड़ियाँ कहीं से उड़कर जाड़े भर इमली की फुनगी पर बसेरा लेने लगी थीं; उनका कलरव उठ रहा था। बिल्लेसुर रात को चबूतरे की बुर्जी पर बैठें देखते थे, पहले शाम को आसमान में हिरनी-हिरन जहाँ दिखते थे अब वहाँ नहीं हैं। बिल्लेसुर [ ५० ]कहते थे, जब जहाँ चरने को चारा होता है, ये चले जाते हैं। शाम से ओस पड़ने लगी थी, इसलिये देर तक बाहर का बैठना बन्द होता जा रहा था। लोग जल्द-जल्द खा-पीकर लेट रहते थे। बिल्लेसुर घर आये। मन्नी की सास ने रोज़ की तरह रोटी तैयार कर रक्खी थी। इधर बिल्लेसुर कुछ दिनों से मन्नी की सास की पकाई रोटी खाते हुए चिकने हो चले थे। पैर धोकर चौके के भीतर गये। मन्नी की सास ने परोस कर थाली बढ़ा दी। सास को दिखाने के लिये बिल्लेसुर रोज़ अगरासन निकालते थे। भोजन करके उठते वक़्त हाथ में ले लेते थे और रखकर हाथ मुँह धोकर कुल्ले करके बकरी के बच्चे को खिला देते थे। अगरासन निकालने से पहले लोटे से पानी लेकर तीन दफ़े थाली के बाहर से चुवाते हुए घुमाते थे। अगरासन निकाल कर ठुनकियाँ देते हुए लोटा बजाते थे और आँखें बन्द कर लेते थे। वह कृत्य आज भी किया।

जब भोजन करने लगे तब सास जी बड़ी दीनता से खीसें काढ़कर बोलीं, "बच्चा, अब अगहन लगनेवाला है, कहो तो अब चलूँ।" फिर खाँसकर बोलीं, "वह काम भी तो अपना ही है।"

कौर निगलकर गम्भीर होते हुए, मोटे गले से बिल्लेसुर ने कहा, "हाँ वह काम तो देखना ही है।"

"वही कह रही थी," कुछ आगे खिसककर सासजी ने कहा, "कुछ रुपये अभी दे दो, कुछ वाद को, ब्याह के दो-तीन रोज़ पहले दे देना।"

रुपये के नाम से बिल्लेसुर कुनमुनाये। लेकिन बिना रुपये दिये ब्याह न होगा, यह समझते हुए एक पख लगाकर ब्याह पक्का करने [ ५१ ]लगे। कहा, "अभी तो अम्मा, किसी पण्डित से विचरवाया भी नहीं गया, न बने, तो?"

"बच्चे की बात" पूरे विश्वास से सर उठाकर मन्नी की सास ने कहा, "उसमें जब कोई दोख नहीं है तब ब्याह बनेगा कैसे नहीं? बच्चे, वह पूरी गऊ हैं। और उसका ब्याह? वह अब तक होने को रहता? रामखेलावन आये, परदेश से, उल्टे पाँव लौट जाना चाहते थे, हाथ जोड़ने लगे,––चाची, ब्याह करा दो, जितना रुपया कहो, देंगे। अच्छा भाई, लड़की की अम्मा को मनाकर कुण्डली लेकर बिचरवाने गये, फट से बन गया। लड़की की अम्मा को तीन सौ नगद दे रहे थे। पर सिस्टा की बात; लड़की की अम्मा ने कहा, मेरी बिटिया को परदेश ले जायँगे, फिर कभी इधर झाँकेंगे नहीं; बिमारी-अरामी बूँद भर पानी को तरसूँगी; रुपये लेकर मैं क्या करूँगी? बना-बनाया ब्याह उखड़ गया। फिर चुकन्दरपुर के जिमींदार रामनेवाज आये। उनसे भी ब्याह बन गया। फलदान चढ़ने का दिन आया तब लड़की की अम्मा को उनके गाँव के किसी पट्टीदार ने भड़काया कि रामनेवाज अपने बाप का है ही नहीं, बस ब्याह रुक गया। कितने ब्याह आये सब बन गये, लेकिन कोई न हो पाया।"

बिल्लेसुर को निश्चय हो गया कि लड़की के खून में कोई ख़राबी नहीं। उन्होंने सन्तोष की साँस छोड़ी। मन्नी की सास का भावावेश तब तक मन्द न पड़ा था, बङ्गालिन की तरह चटककर बोलीं, "अब तुमसे कहती हूँ, हमारे अपने हो, सैकड़ों सच्ची झूठी बातें न गढ़ती तो वह रॉड़ तुम्हारे लिये राजी न होती।"

बिगड़कर बिल्लेसुर बोले, "तुम तो कहती थीं, बड़ी भलेमानुस है?" [ ५२ ]

"कहने के लिये, बच्चा ए, भलेमानुस सबको कहते हैं; लेकिन, कैसा भी भलामानुस हो, अपनी चित कौड़ी को पट होते देखता है? फिर वह दस विस्वेवाली तुम्हारे यहाँ कैसे लड़की ब्याह देती? उसको समझाया कि दुरगादास के सुकुल हैं, परदेस कमा के आये हैं, कहो कि एक साथ गिन दें तो ऐसा न होगा; धीरे-धीरे देंगे। आख़िर कहाँ जाती, मान गई। तुमस इसीलिये कहा, ३०) ब्याह से पहले दो, फिर धीरे-धीरे मदद करते रहो।" सासजी टकटकी बाँधे बिल्लेसुर को देखती रहीं। इतने कम पर राज़ी न होना मूर्खता है, समझकर बिल्लेसुर ने कहा, "अच्छा, कल कुण्डली और एक रुपया लेकर चलो, तीन-चार दिन में मैं पण्डित से आकर पूछूँगा कि कैसा बनता है।"

"एक दफे नहीं, बच्चा, दस दफे। लेकिन जब आना तब पन्द्रह रुपये लेते आना कम-से-कम।"

गम्भीर होकर बिल्लेसुर उठे और हाथ-मुँह धोने लगे। मन को समझाती हुई सासजी भोजन करने बैठीं। भोजन के बाद दोनों लेटे और अपनी-अपनी गुत्थी सुलझाते रहे। किसी ने किसी से बातचीत न की। फिर सब सो गये। पौ फटने से पहले जब आकाश में तारे थे, मन्नी की सास जगीं और बिल्लेसुर को जगाने के इरादे से राम-राम जपने लगीं।

बिल्लेसुर उठकर बैठे और आँखें मलकर, स्नेह सूचित करते हुए पूछा, "अम्मा, क्या सबेरे-सबेरे निकल जाने का इरादा है?"

मन्नी की सास ने आँखों में आँसू भरे। कहा, "बच्चा, अब देर करना ठीक नहीं। पिछले पहर चलूँगी तो रात होगी, काम न होगा।" [ ५३ ]

बिल्लेसुर ने अँधेरे में टटोलकर सन्दूक़ में रक्खी कुण्डली निकाली और सासजी को देते हुए कहा, "देखियेगा, कहीं खो न जाय।"

"नहीं, बच्चा, खो क्या जायगी?" कहकर सासजी ने आग्रह से कुण्डली ली। बिल्लेसुर ने टेंट से एक रुपया निकाला; सासजी के हाथ में रखकर पैर छुए; कहा, "यह तुम्हें कुछ दे नहीं रहा हूँ।"

"क्या मैं कुछ कहती हूँ, बच्चा?" असन्तोष को दबाकर मन्नी की सास घर के बाहर निकलीं, रास्ते पर पाकर एक साँस छोड़ी और अपने गाँव का रास्ता पकड़ा। अब तक सबेरा हो चुका था।