बिल्लेसुर बकरिहा/७

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बिल्लेसुर बकरिहा  (1941) 
द्वारा सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

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(७)

बिल्लेसुर ने लम्बे पतले बाँस के लग्गे में हँसिया बाँधा, बढ़ाकर गूलड़-पीपल-पाकर आदि पेड़ों की टहनियाँ छाँटकर बकरियों को चराने के लिये। तैयारी करते दिन चढ़ आया। बिल्लेसुर गाँव के रास्ते बकरियों को लेकर निकले। रामदीन मिले, कहा, "ब्राह्मण होकर बकरी पालोगे? लेकिन हैं बड़ी अच्छी बकरियाँ, खूब दूध देंगी, अब दो साल में बकरी-बकरों से घर भर जायगा, आमदनी काफ़ी होगी।" कहकर लोभी निगाह से बकरियों को देखते रहे। रास्ते पर जवाब देना बिल्लेसुर को वैसा आवश्यक नहीं मालूम दिया। साँस रोके चले गये। मन में कहा, "जब ज़रूरत पर ब्राह्मण को हल की मूठ पकड़नी पड़ी है, जूते की दुकान खोलनी पड़ी है, तब बकरी पालना कौन बुरा काम है?" ललई कुम्हार अपना चाक चला रहे थे, बकरियों को देखकर एक कामरेड के स्वर से बिल्लेसुर का उत्साह बढ़ाया। बिल्लेसुर प्रसन्न होकर आगे बढ़े। आगे मन्दिर था। भीतर महादेव जी, बाहर पीछे की तरफ़ महावीर जी प्रतिष्ठित थे। जब भी बिल्लेसुर गुरुमन्त्र छोड़ चुके थे, फिर भी बकरियों की भेड़िये से कल्याण-कामना किये बिना नहीं [ २३ ]रहा गया––मन्दिर में गये। उन्हें महादेव जी से महावीर जी अधिक शक्ति वाले मालूम दिये। यह भी हो सकता है कि बाहर महावीर जी के पास जाने से वे गलियारे से जाती हुई बकरियों को भी देख सकते थे। अस्तु महावीर जी के पैर छू कर, मन-ही-मन उन्होंने कुछ कहा और फिर अपनी बकरियों का पीछा पकड़ा। खेत की हरियाली की तरफ़ लपकती बकरी को हटककर सामने लक्ष्य स्थिर करके बढ़े। मन्नू का पक्का कुआ आया। गलियारे में ही खड़े खड़े लग्गा बढ़ाकर गलियारे पर आती पीपल की निचली डाल से टहनियाँ छाँटने लगे। टहनियों के गिरते ही बकरियाँ पत्तियों से जुट गईं। ज़रूरत भर लच्छियाँ छाँटकर लग्गा डाल के सहारे खड़ा कर बिल्लेसुर कुए की जगत पर चढ़कर बैठे बकरियों को देखते हुए। सामने पड़ती ज़मीन थी। बग़ल से एक बरसाती नाला निकला था। चरवाहे लड़के वहीं ढोर लिये इधर उधर खड़े थे। बिल्लेसुर को देखा। उनकी बकरियों को देखा। भगाने की सूझी। सयाने लड़कों ने सलाह की। बात तै हो गई कि खेदकर नाले में कर दिया जाय। बिल्लेसुर परेशान होंगे, खोजेंगे। मिलेंगी, मिलेंगी; न मिलेंगी, बला से। एक ने कहा, पासियों को ख़बर कर दी जाय तो नाले में मारकर निकोलेंगे, कुछ मास हमें भी मिलेगा। दूसरे ने कहा, गाभिन हैं, किस काम का मास। फिर भी बकरियों को भगाने का लोभ लड़कों से न रोका गया। सलाह करके कुछ बाहर तके रहे, कुछ बिल्लेसुर के पास गये। एक ने कहा, "काका, आओ, कुछ खेला जाय।" बिल्लेसुर मुस्कराये। कहा, "अपने बाप को बुला लाओ, तुम क्या हमारे साथ खेलोगे?" फिर सतर्क दृष्टि से बकरियों को देखते रहे। [ २४ ]दूसरे ने कहा, "अच्छा काका न खेलो; परदेस गये थे वहाँ के कुछ हाल सुनाओ।" बिल्लेसुर ने कहा, "बिना अपने मरे कोई सरग नहीं देखता। बड़े होकर परदेस जाओगे तब मालूम कर लोगे कि कैसा है।" एक तीसरे ने कहा, "यहाँ हमलोग हैं, भेड़िये का डर नहीं; वह ऊँचे हार में लगता है।" बिल्लेसुर ने कहा, "इधर भी आता है, लेकिन आदमी का भेस बदल कर।"

यह कहकर बिल्लेसुर उठे। बकरियाँ एक एक पत्ती टूँग चुकी थीं। झपाटे से बढ़कर लग्गा उठाया और हाँककर दूसरी तरफ़ ले चले। पड़ती ज़मीन से ऊँचे, बाग़ की तरफ़ चलते हुए कुछ रियाँ की लच्छियाँ छाँटीं। दीनानाथ गाँव जाते हुए मिले। लोभी निगाह से बकरियों को देखते हुए पूछा, "कितने की ख़रीदीं?" बिल्लेसुर ने निगाह ताड़ते हुए कहा, अधियाँ की मिली हैं।" बिल्लेसर के जगे भाग से दीना की चोटी खड़ी हो गई––ऐसा तअज्जुब हुआ। पूछा––"तीनों?" बिल्लेसुर ने अपनी खास मुस्कराहट के साथ जवाब दिया, "नहीं तो क्या––एक?" दीना ने अरथाकर पूछा, "यानी बकरी तुम्हारी, दूध तुम्हारा; मर जाय, उसकी; बच्चे, आधे आधे?" बिल्लेसुर ने कहा, "हाँ।" बिल्लेसुर के असम्भावित लाभ के बोझ से जैसे दीना की कमर टेढ़ी हो गई। दबा हुआ बोला, "हाँ, गुसैयाँ जिसको दे।" मन में ईर्ष्या हुई। बिल्लेसुर अकेले मज़ा लेंगे? दीना नहीं अगर बकरियों को पेट में न डाला। बिल्लेसुर ने देखा, दीना के माथे पर बल पड़े हुए थे,आँखों में इरादा ज़ाहिर था। बिल्लेसुर को ज़िन्दगी के रास्ते रोज़ ऐसी ठोकर लगी है, कभी बचे हैं, कभी चूके हैं। अब बहुत सँभले रहते हैं। हमेशा निगाह सामने रहती है। वहाँ से बढ़ते हुए गूलड़ [ २५ ]के पेड़ के तले गये। कुछ पत्ते काटे और उनका बोझ बनाकर बाँध लिया घर में बकरियों को खिलाने के इरादे। जब बकरियों का पेट भर गया तब बोझ सर पर रखकर दूसरे रास्ते से बकरियों को लिए हुए घर लौटे।