बिहारी-रत्नाकर

विकिस्रोत से
बिहारी-रत्नाकर  (1926) 
द्वारा बिहारी
[  ]

सुकवि-माधुरी-माला—प्रथम पुष्प

 

बिहारी-रत्नाकर

 

संपादक

श्रीदुलारेलाल भार्गव

(माधुरी-संपादक)

[  ]विहारी-रत्नाकर

श्रीमहाराज जयसिंह (मिर्जा राजा जयशाह), आमेर SK. Press, Lucknow [  ]

बिहारी-रत्नाकर

अर्थात्

बिहारी-सतसई पर रत्नाकरी टीका

प्रणेता

श्रीजगन्नाथदास “रत्नाकर' बी० ए०


सतसैया के दोहरे ज्यौ नावक के तीर ;

देखत मै छोटे लगे, घाव करैं गंभीर ।

प्रकाशक

गंगा-पुस्तकमाला-कार्यालय

२९-३०, अमीनाबाद-पार्क।

लखनऊ


प्रथम संस्करण

श्रावण, संवत् १९८३

मूल्य ५)

[  ]




प्रकाशक

श्री छोटेलाल भार्गव बी० एस्-सी०, एल-एल० बी

गंगा-पुस्तकमाला-कार्यालय

लखनऊ

मुद्रक

श्रीकेशरीसदास सेठ

नवलकिशोर-प्रेस

लखनऊ

[ १० ]

संपादकीय निवेदन

प्रचलित भारतीय भाषाओं में हमारी मातृभाषा हिंदी का प्राचीन कविता-भांडार जितना भरापुरा है, उतना कदाचित् ही और किसी का हो। हिंदी-माता का यही साहित्य-भांडार अन्यान्य बहनों के सामने उसका मस्तक ऊँचा किए हुए है। किंतु अथाह रत्नाकर के समान हमारे इस सुविस्तृत साहित्य के भी अधिकांश रमणीय रत्नों का परमोज्ज्वल प्रकाश काव्यरत्न-प्रेमियों का नेत्ररंजन और मनोरंजन नहीं कर रहा है। समुद्र की अँधेरी, अज्ञात और अगम्य गुफाओं में जैसे असंख्य, मंजुल, मनोमोहक और मूल्यवान् मणियाँ भरी पड़ी हैं, वैसे ही हमारे भी बहुतेरे उत्कृष्ट, उज्ज्वल और उपयोगी ग्रंथ, हस्तलिखित रूप में, प्राचीन प्रकार के बस्तों में बँधे, बक्सों में बंद पड़े सड़ रहे हैं; मानो साहित्य-संसार से उनका कोई संबंध ही नहीं। इसमें संदेह नहीं कि कुछ साहित्यिक ग़ोताख़ोरों ने बस्तों की कंदराओं से निकालकर अनेक ग्रंथ-रत्नों का मुद्रण-उद्धार अवश्य किया है। परंतु वे भी प्रकाशन के उस प्राचीन परिच्छद में प्रकट हुए हैं, जो इस समय बिलकुल प्रचलित नहीं। इसके अतिरिक्त ये ग्रंथ-रत्न जिस रूप में प्राप्त हुए हैं, उसी में प्रायः प्रकाशित भी कर दिए गए हैं। उनका समुचित संशोधन और संस्करण करके—भूमिका, टिप्पणी आदि की ओप तथा डाँक देकर, सुंदर, सुसज्जित स्वरूप में, साहित्य-संसार को समर्पित करने का पर्याप्त प्रयत्न प्रायः किया ही नहीं गया है। इसलिये इन दोनों ही स्थितियों—बस्तों में बँधने की हस्तलिखित स्थिति और प्राचीन प्रकार से छपने की मुद्रित स्थिति—का परिणाम प्रायः एक ही हो रहा है। इन दोनों ही ढंगों के ग्रंथों से वर्तमान हिंदी-कविता-प्रेमी यथेष्ट लाभ नहीं उठा रहे हैं—या यों कहिए कि उठा ही नहीं सकते। क्या यह शोक की बात नहीं कि सूर, बिहारी, देव, मतिराम, कबीर, सेनापति, पद्माकर, हरिश्चंद्र आदि बड़े-बड़े कवियों तक की कमनीय कृतियाँ, जिनका जगत् की किसी भी भाषा को गर्व हो सकता था, सर्वांग-सुंदर संस्करणों में सुलभ नहीं! मातृभाषा का यह भारी अभाव हमारे हृदय में, सुदीर्घ काल से, काँटे की तरह खटक रहा था।

हर्ष की बात है, इधर जब से कुछ समालोचक-जौहरियों ने प्राचीन काव्य-रत्नों को परि[ ११ ]________________ ६ विहारी-रत्नाकर

श्रम-पूर्वक परखकर साहित्य-संसार को उनके वास्तविक सुंदर, स्निग्ध और शीतल प्रकाश का परिचय कराना और संपादक-रूपी गुण-ग्राहकों ने अपने पत्र-भांडारों में इन प्राचीन या प्राचीन ढंग की कविता-मणियों को सादर और सस्नेह स्थान देना शुरू कर दिया है, तब से इन पुराने जवाहरातों के दिव्य दर्शनों के लिये प्रेमियों की प्यास बढ़ती ही जा रही है- उनका यह अनुराग धीरे-धीरे प्रगाढ़ और व्यापक होता जा रहा है। परंतु परिताप का विषय है कि प्रेमी पाठकों की इस परम पुनीत लालसा की पूर्ति के लिये कोई पूरा प्रयत्न नहीं हो रहा है। आशा थी, सभी साहित्यिक संस्थाओं की मुकुटमणि काशी-नागरीप्रचारिणी सभा इस कार्य को तीव्र गति से करेगी। इस उद्देश्य को दृष्टि में रखकर अब तक उसी ने सबसे अधिक सराहनीय सेवा की भी है। किंतु अपने अन्यान्य अनेक उद्देश्यों की पूर्ति में लगे रहने के कारण इस ओर उसकी चाल इतनी मंद है, और कार्य का परिमाण इतना स्वल्प कि उसके द्वारा प्राचीन कविता-मणियों के पूर्ण प्रकाश का कठिन कार्य शीघ्र संपन्न होते नहीं दिखलाई पड़ता । प्रयाग के हिंदी-साहित्य-सम्मेलन से भी इस संबंध में समुचित सेवा संभाव्य थी। किंतु जिस उदासीन भाव से वह इस मार्ग में बढ़ रहा है, उससे भी प्राचीन कविता-प्रेमियों को पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं प्राप्त हो रहा है । अतएव ऐसी परिस्थिति पर पूर्णतः विचार करके-प्राचीन हिंदी-कविता के ग्रंथों के समुचित प्रकाशन का अत्यंत शिथिल प्रयत्न देखकर-यदि हमारे दृदय में भय का उदय हो, तो उचित ही है । कारण, समुद्र की तरंग-मालाएँ किसी अवसर-विशेष पर ही तट की ओर उमड़ चलती हैं। हिंदी-संसार में इस समय प्राचीन हिंदी-कविता के प्रति जो प्रेम प्रस्फुटित हुआ है, उसे देखते हुए हमें उस साहित्य के उद्धार का यही उपयुक्त समय प्रतीत होता है । अवसर बार-बार नहीं आता । अनेक बहुमूल्य ग्रंथ-रत्न बस्तों में बँधे नष्ट हो गए, अनेक नष्टप्राय हैं। पर कुछ प्रेमियों की सतर्कता से अब भी सुरक्षित हैं। जिन सज्जनों ने साहित्य-रक्षा के सुकार्य में इस प्रकार सहायता पहुँचाई है, उनकी सत्कीर्ति साहित्य के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगी। किंतु अब उनसे इस रखवाली का काम लेते रहना ठीक नहीं । अब तो इन ग्रंथ-रत्नों को बाहर लाना ही पड़ेगा-उनके सर्वांगसुन्दर प्रकाशन का प्रबंध करना ही पड़ेगा, जिसमें उनकी जगमग ज्योति से काव्य-जगत् जगमगा उठे ।।

जिन प्रेस तथा प्रकाशकों ने प्रतिकूल काल में भी अनेक पुस्तकों का प्रकाशन करके उन्हें नष्ट नहीं होने दिया, उनमें कदाचित् लखनउ के नवलकिशेर-प्रेस का नाम ही अग्रगण्य है। सैकड़ों सुंदर काव्यों का उद्धार करके उन्हें साहित्य-रसिकों को समर्पित करने का श्रेय उसे है । उसके अनंतर काशी-नागरीप्रचारिणी सभा के अतिरिक्त (जिसको हम ऊपर उल्लेख कर पाए हैं ) काशी के भारत-जीवन और लाइट-प्रेस, बंबई के वेंकटेश्वर -प्रेस, बाँकीपुर के [ १२ ]________________

खङ्गविलास-प्रेस आदि का नंबर आता है। इन सभी संस्थाओं के उपकार का भार हिंदीभाषा-भाषी-मात्र के सिर पर है। परंतु उपकार-मात्र मान लेने ही से इनके प्रति हमारी कृतज्ञता का पर्याप्त प्रदर्शन न हो सकेगा । यह तो प्रकट ही है कि जिस उच्च उद्देश्य से उत्साहित होकर उनके संचालकों ने इन ग्रंथों को छपवाया था, उसकी सिद्धि अब उन ग्रंथों से, उनके प्राचीन परिच्छद में होने के कारण, नहीं हो रही है । अतएव हमें चाहिए कि उनके उस उच्च उद्देश्य की पूर्ति करके ही उन्हें अपनी हार्दिक कृतज्ञता की भेंट अर्पित करें। अर्थात् उनके प्रकाशित किए हुए पंथ-रत्नों के, वर्तमान रुचि और साधनों के अनुकूल, सुलभ, सरल और सर्वांग-सुंदर संस्करण निकालें । यह काम कम कठिन नहीं । विद्या, बुद्धि, समय, परिश्रम और लक्ष्मी, सभी के सहयोग विना इसमें सफलता की कुछ भी आग नहीं । किंतु प्राचीन काव्यों के उद्धार का कार्य अनिश्चित समय के लिये स्थगित भी नहीं किया जा सकता। अतएव इन सब पहलुओं पर विचार करके अब हम ही प्राचीन हिंदी-काव्य के प्रकाशन का भार, अपने अनेक मित्रों और कृपालुओं की सहायता के बल पर, अपने दुर्बल कंधों पर लेने को तैयार हो गए हैं, और तत्संबंधी विशाल आयोजन बड़े उत्साह और आनंद के साथ प्रेमी पाठकों के निकट प्रकट करते हैं । |हमारा विचार है, सुकवि-माधुरी-माला के नाम से एक पुस्तकमाला के प्रकाशन का प्रारंभ किया जाय । उसमें हिंदी के सभी मुख्य कवियों के काव्य छपें । सबका संपादन सुचारु रूप से सर्वांग-सुंदर हो । सभी मुद्रित और अमुद्रित प्राप्य प्रतियों से मिलाकर पुस्तकों में पाठशुद्ध तो की ही जाय, साथ ही आलोचनात्मक तथा तुलनात्मक भूमिका, आवश्यक टीकाटिप्पणी, अवतरण, शब्दार्थ, पाठांतर आदि का भी उनमें समावेश रहे। जो काव्य-मर्मज्ञ विद्वान् जिन कवियों की कविता के मर्मज्ञ हों, उनसे उन्हीं के काव्य का संपादन कराया जाय । संपादन-कार्य के लिये एक संपादक-समिति निर्मित की जाय । दो-तीन संपादक विशेष रूप से इसी कार्य के लिये नियुक्त किए जायँ । हम लोग यह कार्य आर्थिक लाभ की दृष्टि से नहीं करना चाहते-प्राचीन काव्य-सुमनों की सुगंध से साहित्य-संसार को सुवासित कर देना ही हमारा इष्ट है । अतएव हम चाहते हैं कि धनी-मानी सजन इस माला को अपनाकर, विद्वान् काव्य-मर्मज्ञ इसके संपादन में सहायता पहुँचाकर, जिन महानुभावों के पास हस्त-लिखित पुस्तकें हों, वे उन्हें देकर, तथा सर्वसाधारण इस माला के ग्राहक बनकर हमारे इस कार्य में समुचित सहायता पहुँचावें । पुस्तकों की छपाई आदि बाहरी वेष-भूषा के संबंध में हमें कुछ नहीं करना । कारण, हमारी गंगा-पुस्तकमाला, महिला-माला और बाल-विनोद-वाटिका हिंदी-संसार में इस संबंध में पर्याप्त प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी हैं । और, यह तो कहना ही व्यर्थ है कि इस [ १३ ]माला की पुस्तकें भी वेष-भूषा में उसी प्रकार की होंगी। हाँ, यह सूचित कर देना ज़रूरी है कि इस माला की पुस्तकें भी आवश्यकतानुसार चार चित्रों से सुसज्जित की जायँगी।

संपादन तथा प्रकाशन-क्रम में सबसे ज़्यादा ख़याल काव्योत्कर्ष का रक्खा जायगा, अर्थात् उच्च कोटि के कवियों के ग्रंथ पहले और उनसे नीची श्रेणी के कवियों के ग्रंथ बाद को छापे जायँगे। साथ ही इस बात का भी ध्यान रहेगा कि सबसे पहले उन ग्रंथों में हाथ लगाया जाय, जो अभी तक कहीं भी नहीं छपे; उसके बाद उन ग्रंथों में, जिन्हें मुद्रण-सौभाग्य तो प्राप्त हुआ है, किंतु जिनका संपादन बिलकुल ही नहीं अथवा सम्यक् प्रकार से नहीं हुआ। स्थूल रूप से यही हमारा क्रम रहेगा; किंतु विशेष कारणों से इस क्रम में परिवर्तन भी हो सकेगा। इस माला में जिन प्रधान कवियों के ग्रंथ निकालने का निश्चय किया गया है, उनके नाम नीचे दिए जाते हैं—

(१) चंद
(२) जगनिक
(३) विद्यापति
(४) कबीरदास
(५) गुरु नानकजी
(६) सूरदास
(७) नंददास
(८) हितहरिवंश
(९) कृपाराम
(१०) मलिक मुहम्मद जायसी
(११) मीराबाई
(१२) नरोत्तमदास
(१३) हरिदास
(१४) तुलसीदास
(१५) केशव
(१६) रहीम
(१७) गंग
(१८) बीरबल
(१९) बलभद्र
(२०) मुबारक

(२१) रसखान
(२२) दादूदयाल
(२३) सेनापति
(२४) सुंदर
(२५) बिहारी
(२६) चिंतामणि
(२७) भूषण
(२८) मतिराम
(२९) कुलपति मिश्र
(३०) जसवंतसिंह
(३१) नरहरि
(३२) कवींद्र
(३३) सुंदर
(३४) सुखदेव मिश्र
(३५) कालिदास
(३६) रामजी
(३७) नेवाज
(३८) वृंद
(३९) प्रवीनराय
(४०) आलम

[ १४ ]

(४१) लाल
(४२) घनानंद
(४३) देव
(४४) श्रीपति
(४५) बैताल
(४६) उदयनाथ
(४७) रसलीन
(४८) घाघ
(४९) रसनिधि
(५०) नागरीदास
(५१) चरनदास
(५२) तोष
(५३) रघुनाथ
(५४) गुमान
(५५) दास
(५६) दूलह
(५७) गिरिधर
(५८) सूदन
(५९) सीतल
(६०) दयाबाई
(६१) सहजो
(६२) ठाकुर
(६३) बोधा
(६४) धेनु
(६५) श्रीधर
(६६) सूरति मिश्र
(६७) कृष्ण
(६८) गंजन
(६९) बख़्शी हंसराज

(७०) भूपति
(७१) दलपतिराय-बंसीधर
(७२) सोमनाथ
(७३) चाचा वृंदावनदास
(७४) शिव
(७५) कुमारमणि भट्ट
(७६) रघुनाथ
(७७) हरचरणदास
(७८) बैरीसाल
(७९) किशोर
(८०) दत्त
(८१) रतन
(८२) गोकुलनाथ
(८३) गोपीनाथ
(८४) मणिदेव
(८५) शिवनाथ
(८६) लाल कलानिधि
(८७) रामचंद्र
(८८) चंदन
(८९) सबलसिंह
(९०) मधुसूदनदास
(९१) ब्रजवासीदास
(९२) देवकीनंदन
(९३) गुरुदत्त
(९४) घासीराम
(९५) हठी
(९६) वान
(९७) बेनी
(९८) भौन

[ १५ ]________________

बिहारी-रत्नाकर ( ११ ) बेनीप्रबीन (१०८.) द्विजदेव ( १०० ) जसवंतसिंह ( १०१ ) लेखराज ( १०१ ) पद्माकर ( ११० ) प्रतापनारायण ( १०२ ) ग्वाल ( १११ ) महाराज रघुराजासंह ( १०३ ) चंद्रशेखर ( ११२ ) द्विजराज ( १०४ ) प्रतापसिंह ( ११३ ) ब्रजराज ( १०५ ) दीनदयालु मिश्र ( ११५ ) हनुमान ( १०६ ) सेवक ( ११५ ) ललिताप्रसाद त्रिवेदी ( १०७ ) हरिश्चंद्र ( ११६ ) पूर्ण संपादन-कार्य में हमें जिन विद्वान् सज्जनों से सहायता मिलने की आशा है, उनमें से कुछ लोगों के नाम ये हैं( १ ) पं० महावीरप्रसाद द्विवेदी ( १४ ) पं० कृष्णविहारी मिश्र (२) बाबू जगन्नाथदास "रत्नाकर ( १५ ) पं० लोचनप्रसाद पांडेय ( ३ ) पं० श्रीधर पाठक ( १६ ) बाबू मैथिलीशरण गुप्त ( ४ ) पं० नाथूराम-शंकर शर्मा ( १७ ) पं० रूपनारायण पांडेय ( ५ ) बाबू श्यामसुंदरदास ( १८ ) पं० गयाप्रसाद शुक्ल “सनेही ( ६ ) पं० किशोरीलाल गोस्वामी ( १९ ) पं० रामनरेश त्रिपाठी ( ७ ) श्रीमान् मिश्र-बंधु . ( २० ) श्रीमान् याज्ञिक-त्रय ( ८ ) पं० पद्मसिंह शर्मा ( २१ ) पं० शिवाधार पांडेय ( १ ) पं० अयोध्यासिंह उपाध्याय ( २२ ) पं० बदरीनाथ भट्ट ( १० ) पं० जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी ( २३ ) श्रीयुत धीरेंद्र वर्मा ( ११ ) पं० रामचंद्र शुक्ल ( २४ ) श्रीयुत वियोगी हरि ( १२ ) पं० शालग्राम शास्त्री ( २५ ) ठाकुर लक्ष्मणसिंह ( १३ ) पं० आयादत्त जी ( २६ ) पं० हर्षदेव ओली माला को सफल बनाने में हम अपनी ओर से कोई कोर-कसर ने रक्खेंगे; परंतु प्रेमी पाठकों से भी प्रार्थना है कि यदि वे मातृभाषा-मंदिर के दिव्य दीपकों की उज्ज्वल आभा से अपनी आँखों की परितृप्ति चाहते हैं, तो अविलंब हमारा करावलंब करें, जिसमें हम शीघ्र ही भगवती भारती को सुकवि-माधुरी-माला पहनाने में कृतकार्य हों ।। इस माला के लिये कई कृतविय अवियों की कृतियों को सुचारु रूप से संपादन हो चुका [ १७ ]बिहारी-रत्नाकर

बाबू जगन्नाथदास "रत्नाकर" बी० ए०
[ १८ ]________________

संपादकीय निवेदन हे । सर्वप्रथम सुपरिचित, सहृदय सुकवि बिहारीदास की सुप्रसिद्ध सतसई का सुंदर, सटीक और संशोधित संस्करण ही साहित्य-संसार की सेवा में समुपस्थित किया जाता है । गोस्वामी तुलसीदासजी के रामचरितमानस के बाद शायद सतसई ही समस्त सुशिक्षित-समाज में सबसे अधिक समादृत हुई है। जितना श्रृंगार-रस-वाटिका के इस सुविकसित और सुगंधित सुमन का सौंदर्य सहृदयों के चित्त में चुभा और आँखों में खुदा है, उतना औरों का नहीं । अन्यान्य अनेक कवियों की कविता-कामिनियाँ भी कमनीयता में कम नहीं है किंतु सतसईसुंदरी की-सी सुंदरता उनमें कहाँ ? इस सुंदरी की सरस सक्ति-चितवन के विषय में तो मानो स्वयं कवि ने ही कह दिया है अनियारे दीरघ हुगनि किती न तरुनि समान ; वह चितवनि औरै कडू, जिहि बस होत सुजान । सतसई के सुविस्तृत सम्मान के प्रमाण में इतना कह देना ही पर्याप्त होगा कि इस पर पचासों टीकाएँ बन जाने पर भी यह क्रम अभी तक जारी है। ‘बिहारी-रत्नाकर' अंतिम मैर, हमारी राय में, सर्वोत्कृष्ट टीका है। | शृंगारी कवियों में बिहारी का स्थान बहुत ऊँचा है । नीति, भक्ति, वैराग्य आदि के दोहे भी उन्होंने अवश्य लिखे हैं; किंतु सतसई में प्रधानता श्रृंगार-रस ही की है। प्रत्येक पक्ष उनकी प्रशस्त प्रतिभा का परिचायक है । उच्च कोटि की काव्य-कला, व्याकरण-विशुद्ध, परम परिमार्जित भाषा र वाक्य-लाधव ( Brevity ) में बिहारी अपना जोड़ नहीं रखते । ऐसे श्रेष्ठ कवि की कविता का समुचित रूप से संशोधन करके उसके गृढ़ तथा सूक्ष्म भाव समझना और स्पष्ट रूप से प्रकाशित कर देना कुछ हँसी-खेल नहीं । इस कठिन कार्य के लिये विशेष विद्या-बुद्धि, काव्य-मर्मज्ञता, सुचिंतन और परिश्रम अपेक्षित हैं । ये सब गुण ‘बिहारी-रत्नाकर' टीका के कर्ता में पूर्ण रूप से विद्यमान हैं । तुलसी, सूर, बिहारी, मतिराम, चंद, धनानंद, पाकर आदि कवियों का जितना अध्ययन इन्होंने किया है, उतना हिंदीसाहित्य के शायद ही अन्य किसी विद्वान् ने किया हो। बिहारी-सतसई पर तो आपने विशेष रूप से परिश्रम किया है । अतएव उस पर टीका लिखने के आप सर्वथा अधिकारी हैं। आप और कोई नहीं, हिंदी-साहित्प-मंदिर के सुइ स्तंभ बाबू जगन्नाथास "रत्नाकर' बी० ए० हैं। रत्नाकरजी का जन्म संवत् ११२३ में, ऋषि-पंचमी के दिन, काशी में, हुआ था । अापके पिता का नाम बाबू पुरुषोत्तमदास था । वह दिल्लीवाल अग्रवाल वैश्य थे । इनके पूर्वजों का आदि निवासस्थान सोदों ( सर्पदमन ), जिला पानीपत में था । पानीपत की दूसरी लड़ाई के अनंतर वे अकबर के दरबार में आए, और मुगल-साम्राज्य में ऊँचे-ऊँचे [ १९ ]________________

१२ विहारी-रत्नाकर पद सुशोभित करते रहे । फिर मुगल-राज्य के नष्टप्राय हो जाने पर जहाँदारशाह के साथ काशी चले आए, और वहीं बस गए। | बाबू पुरुषोत्तमदासजी फ़ारसी के पूरे पंडित थे । हिंदी कविता के प्रति भी उन्हें प्रगाढ़ प्रेम था। अनेक अच्छे-अच्छे कवि उनके मकान पर आया करते थे । जो बाहर से आते, वे उन्हीं के पास ठहरते । भारतेंदु बाबु हरिश्चंद्र उनके मित्र और संबंधी थे । अतः वह भी उनके पास प्रायः आते थे । बालक रत्नाकरजी इस गोष्ठी में अक्सर बैठते थे, और कभी-कभी कुछ बोल भी उठते थे । एक दिन इसी प्रकार आपके कुछ कहने पर भारतेंदुजी ने कहा-“यह लड़का कभी अच्छा कवि हागा । भारतेंदुजी की यह भविष्यद्वाणी सोलहो अाने ठीक उतरी । रत्नाकरजी पर इस सत्संगति का इतना प्रभाव पड़ा कि वह भी उर्दू और फिर हिंदी में कविता करने लगे । जगन्नाथदासजी की सारी शिक्षा काशी में ही हुई । कॉलेज में आपकी द्वितीय भाषा फ़ारसी थी । फ़ारसी लेकर ही उन्होंने सन् १८९१ में बी० ए० पास किया, और एम० ए० में भी फ़ारसी पढ़ी। किंतु किसी कारण परीक्षा न दे सके । सन् १९०० के लगभग आवागढ़-राज्य में आप प्रधान कर्मचारी नियुक्त हुए, और वहाँ दो वर्ष तक योग्यता के साथ काम किया। किंतु वहाँ की आब-हवा अनुकूल नहीं हुई--आप अस्वस्थ रहने लगे। इसालये उक्त पद का त्याग करके काशी लौट आए । फिर वहाँ से अपने समय के अनन्य हिंदी-प्रेमी रईस, अयोध्या-नरेश स्वर्गीय महामहोपाध्याय महाराजा सर प्रतापनारायणसिंह बहादुर के० सी० आई० ई० ने आपको, सन् १९०२ में, बुलाकर अपना प्राइवेट सेक्रेटरी बना लिया, और आपकी योग्यता और कार्यदक्षता से प्रसन्न होकर थोड़े ही दिन बाद आपको चीफ़ सेक्रेटरी के उच्च पद पर आसीन किया। सन् १९०६ के अंत में, महाराज के अकाल में कालकवालत हो जाने पर, श्रीमती महारानी अवधेश्वरी ने आपको अपना निज मंत्री ( प्राइवेट सेक्रेटरी ) नियत कर लिया । तब से आप इसी पद पर रहकर रियासत का काम कुशलता के साथ कर रहे हैं । काठन अभियागा आदि में राज्य को इन्होंने बड़ी मदद पहुँचाई है। राजकाज के झंझटों में पड़े रहने के कारण इन्हें एक सुदीर्घ समय तक साहित्य-सेवा से वंचित रहना पड़ा। हर्ष की बात है, इधर ३-४ वर्षों से मित्रों के साग्रह अनुरोध से आप साहित्य-मंदिर में आकर सरस्वतीदेवी की आराधना करने लगे हैं। प्रेजुएट होने पर भी रत्नाकरजी सनातनधर्म के पक्के अनुयायी हैं, और हिंदू-सभ्यता के पूरे समर्थक । आपको प्रसिद्धि की परवा नहीं है । यही कारण है कि आपकी वास्तविक योग्यता से, थोड़े दिन पहले, बहुत कम लोग परिचित थे। आप बड़े हँसमुख और जिंदादिल आदमी हैं। [ २० ]________________

संपादकीय निवेदन आपकी मडली में बैठकर न हँसना कठिन काम है। आपकी बातचीत में बड़ा मज़ा आता है । स्वभाव आपका बहुत ही मृदुल है। स्मरण-शक्ति बहुत तीव्र है। बचपन ही से आप व्यायाम-प्रिय हैं, और अपना जीवन बड़े संयम के साथ व्यतीत करते हैं। इसीलिये आप इस समय, ६० वर्ष की अवस्था में भी, ४५ वर्ष से अधिक के नहीं हुँचते । वैद्यक का आपको बहुत शौक है । | रत्नाकरजी इस समय व्रज-भाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि और ज्ञाता समझे जाते हैं। आपकी कविताई बड़ी सरस और सुंदर होती हैं । आपके कवित्त देव, पद्माकर आदि के कवित्तों का ध्यान दिला देते हैं। हमारी राय में आपकी-जैसी सरस, मधुर, विशुद्ध और परिमार्जित भाषा लिखने में व्रजभाषा के बहुत कम कवि समर्थ हुए हैं । प्राकृत का भी आपको अच्छा अभ्यास है । शिलालेख आदि पढ़ने और प्राचीन शोध के कार्य में आपको विशेष रुचि है। कानपुर के प्रथम अखिल भारतीय हिंदी-कवि-सम्मेलन का सभापति-पद आप विभूषित कर चुके हैं । हिंडोला, हरिश्चंद्र, समालोचनादर्श, घनाक्षरी-नियम-रत्नाकर आदि कई काव्य-पुस्तकें अपने लिखा हैं, जो प्रकाशित भी हो चुकी हैं। अन्यान्य गुणों के साथ आपमें एक अवगुण भी है । वह यह कि आप बड़े आलसी हैं । आपसे कुछ लिखवा लेना आसान नहीं । सख़्त तक़ाज़े कीजिए, तब जाकर कहीं कुछ लिखेंगे । गंगावतरण, कलकाशी, अष्टक-रत्नाकर और ऊधव-शतक, ये चार काव्य-ग्रंथ इधर अपने और लिखे हैं, जो शीघ्र ही प्रकाशित होंगे । अाशा है, रत्नाकर जी भविष्य में भी भाषा-भांडार को अनेक भव्य और नव्य रत्नों से भरते रहेंगे। अस्तु, ‘बिहारी-रत्नाकर' प्रेमी पाठकों के कर-कमलों में इस आशा के साथ सहर्ष अर्पित किया जाता है कि वे इसका उचित आदर करके इसे स्थायी साहित्य में चिरस्थायी स्थान प्रदान करेंगे । | लखनऊ; ? दुलारेलाल भार्गव १ । ८ । २६ ,

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।