बिहारी-रत्नाकर/१

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बिहारी-रत्नाकर  (1926) 
द्वारा बिहारी

[ ४३ ] बिहारी-रत्नाकर


महाकवि श्रीबिहारीदास
[ ४४ ]

॥ श्रीगणेशाय नमः ॥

दोहा

मेरी भव-बाधा हरौ राधा नागरि सोइ ।।

जा तन की झाँईँ परैँ स्यामु हरित-दुति होइ ॥ १ ॥

॥ श्रीगोपीजनवल्लभाय नमः ॥

टीकाकार का मंगलाचरण

कृपा-कौमुदी कौ करौ श्रीब्रजचंद प्रकास ।

उमगै रतनाकर-हियैँ बानी-बिमलबिलास ।।

भव= संसार । बाधा= रुकावट, विघ्न । भव-बाधा=संसार के विप्न अर्थात् दुःख, दारिद्र तथा अनेक प्रकार की चिंताएँ इत्यादि, जो बाधा-रूप में उपस्थित हो कर संसार के मनुर्यों को किसी उत्तम अभीष्ट का एकाग्रता-पूर्वक साधन नहीं करने देतीं । स्मरण रहे कि कवि-परिपाटी में दुःख-दारिद्रादि का रंग काला माना जाता है ।‘भव-बाधा' का अर्थ टीकाकारों ने बहुधा जन्म-मरण का दुःख लिखा है । वह भी ठीक है। पर यहां यह शब्द ग्रंथ के मंगलाचरण में आया है । अतः यहाँ कवि की यही प्रार्थना विशेष संगत है कि हमारे अनेक प्रकार के चिंतादि-जनित विप्न का निवारण कीजिए, जिसमें ग्रंथ के पूर्ण होने में विघ्न न हो ॥ झॉई—इस शब्द के यहाँ तीन अर्थ लिए गए हैं—( १ ) परछाँहाँ, आभा । ( २ ) झाँकी, झलक । ( ३ ) ध्यान । प्राकृत-व्याकरण के ‘‘ध्ययोर्कः', इस सूत्र के अनुसार ‘ध्य' के स्थान में ‘झ' हो कर ‘ध्यान' शब्द से ‘झाँई बन जाता है । त्रिविक्रम ने अपने प्राकृत-व्याकरण में 'ध्यान' शब्द का झाण' रूप लिखा भी है। 'न' के स्थान में बहुधा ‘इँ' भाषा के शब्दों में देखा जाता है, जैसे 'दाहिने' के स्थान पर ‘दायें । हेमचंद्र ने अपने प्राकृत-व्याकरण में जो निम्नलिखित छंद अपभ्रंश के उदाहरण में रक्खा है, उसमें ध्यात्वा का अपभ्रंश रूप झाइवि’ प्रयुक्त हुआ है बहमुहु भुवण-भयंकरु तोसिअ-संकरु णिग्गउ रह-वरि चडिअउ । चउमुहु छंमुहु झाइवि एकहिँ लाइव णावह दइवें घडिअउ । [ ४५ ]________________

बिहारी-रत्नाकर परै'=पड़ने से । इस शब्द के भी निम्नलिखित तीन भावार्थ 'भाई' के तीन अर्थों से यथाक्रम अन्वित होते हैं—( १ ) तन पर पड़ने से । ( २ ) दृष्टि में पड़ने से । ( ३ ) हृदय में पड़ने से । स्यामु ( श्याम )--यह शब्द भी यहाँ तीन अथों में प्रयुक्त हुया है--( १ ) श्याम वर्ण वाले श्रीकृष्णचंद्र । ( २ ) श्रीकृष्ण चंद्र । ( ३ ) काले रंग वाला पदार्थ अर्थात् कल्मष, पातक, दुःख, दारिद्रादि, जिनका रंग कवि-परिपाटी मैं काला नियत है । उपादान लक्षणा शक्ति से ‘श्याम' का अर्थ श्याम रंग का पदार्थ होता है, जैसे ‘सुरंग दौड़ता ह' वाक्य * *मुरंग' शब्द का अर्थ सुरंग घोड़ा होता है । फिर साहित्य की परिपाटी के अनुसार काले पदार्थ से पातक, कल्मष इत्यादि का ग्रहण हो जाता है । हरित-दुाने ( हरित-द्युति )—इस शब्द के भी इस दोह में तीन अर्थ ग्रहण किए गए हैं--( १ ) हरे रंग वाला । ( २ ) हराभरा, डहडहा अर्थात् प्रसन्न-वदन । ( ३ ) हृतद्युति, गतद्युति, हतप्रभ अर्थात् तेज-हीन, प्रभा-शून्य, अथवा भयंकरता-रहित । द्युति का अर्थ नाटक में भयंकर चेष्टा भी होता है । इस अर्थ में 'हरित' शब्द हृत का अपभ्रंश है ॥ ( अवतरण )--अपनी सतसई की निर्विघ्न समाप्ति की कामना से कवि, इस मंगला चरण-रूप दोहे में, श्रीराधिकाजी से सांसारिक बाधा दूर करने की प्रार्थना करता है । सतसई ६ यद्यपि और रस के भी दोहे हैं, तथापि प्रधानता श्रृंगार ही रस की है । इसके अतिरिक्र श्रृंगार रस मैं सब रस की स्थायियाँ संचारी हो कर संचरित होती हैं, जिसके कारण वह रसराज कहलाता है । अतः सतसई में शृंगार रस के मुख्य प्रवर्तक श्रीराधाकृष्ण ही का मंगलाचरण रहना समीचीन है । श्रीराधा तथा श्रीकृष्ण मैं भी, श्रृंगार रस मैं, प्रधानता श्रीराधिकाजी ही की है, और कवि जिस संप्रदाय का अनुयायी था, उसमें भी श्रीराधिकाजी ही प्रधान मानी जाती हैं । अतः उसने श्रीराधिकाजी ही से अपनी ‘भव-बाधा' हरने की प्रार्थना की है ( अर्थ )-जिसके तन की झाँई पड़ने से श्याम हरित-द्युति हो जाता है, “राधा नागरि सोइ' (हे वही राधा नागरी, अथवा वही राधा नागरी ) मेरी भव-बाधा हरो (तुम हरो, अथवा हरें ) ॥ इस दोहे मैं ‘राधा नागरि' पद संबोधन भी माना जा सकता है, और प्रथमपुरुष-वाची भी, क्याँकि ‘हरो' क्रिया का अन्वय, प्रार्थनात्मक वाक्य मैं, मध्यम पुरुष से भी हो सकता है, और प्रथम पुरुष से भी । फिर मंगलाचरण में, आराध्य देवता से, मध्यम पुरुष तथा प्रथम पुरुष, दोन ही रूप में प्रार्थना करने की प्रणाली प्रशस्त है ॥ यह दोहा बिहारी की प्रतिभा का अत्युत्कृष्ट उदाहरण है । इसमें कवि ने 'झाँई','स्याम' तथा ‘हरित-दुति' शब्द के तीन तीन अर्थ रख कर एक ही वाक्य से तीन भाव निकाले हैं, जो तीन ही उसके इष्टार्थ के साधक हैं। पहला अर्थ तो इस दोहे का यह हुआ: हे व राधा नागरी, जिसके तन की परछाँही अर्थात् आभा पड़ने से श्याम वर्ण वाले श्रीकृष्णचंद्र हरे रंग की चुत वाले हो जाते हैं , मेरी भव-बाधा हो । | इस अर्थ से कवि श्रीराधिकाजी के शरीर की गुराई की प्रशंसा करता है कि वह ऐसे सुनहरे रंग की है कि उसकी आभा पड़ने से श्रीकृष्ण चंद्र का श्याम रंग हरा हो जाता है । पीले तथा नीले रंग के मेल से हरे रंग का बनना लोक-प्रसिद्ध ही है । इसी भाव को कवि ने अपने "नित प्रति एकत [ ४६ ]________________

बिहारी-रत्नाकर ही इत्यादि दोहे में भी कहा है, और माघ का एक श्लोक भी गौर तथा श्याम छविय के, पारस्परिक आभा से, हरी हो जाने के वर्णन मैं है, जो कि नित प्रति एकत ही इत्यादि दोहे की टीका में उद्धृत किया गया है। इस भाँति उनके रूप की प्रशंसा कर के कवि उनसे अपनी भत्र-बाधा दूर करने की बिनती करता है ॥ अब दूसरा अर्थ नीचे लिखा जाता है| हे वहीं राधा नागरी, जिसके तन की झाँकी अर्थात् झलक [ आँखाँ में ] पड़ने से ( दिखाई देने से ) श्रीकृष्णचंद्र हरेभरे अर्थात् प्रसन्न-वदन हो जाते हैं, मेरी भव-बाधा हरो ॥ इस अर्थ से कवि, श्रीराधिकाजी के श्रीकृष्णचंद्र की अत्यंत प्रेमपाश्री होने की प्रशंसा करता हुआ, उनसे अपनी भव-बाधा निवारण करने की प्रार्थना करता है। ऊपर कहे हुए दोन अथ” से कवि, श्रीराधिकाजी के रूप तथा प्रियतम-प्रियता की प्रशंसा करता हुआ, निम्नलिखित तीसरे अर्थ से उनमें भव-बाधा हरने का सामर्थ्य सिद्ध कर के, उनको अपनी भवबाधा हरने पर उयत करता है । इस सामर्थ्य के सिद्ध करने से कवि का यह तात्पर्य है कि, अपने सामर्थ्य का स्मरण कर के, वह शीघ्र ही उसकी भव-बाधा हरने के लिए उत्साहित हो जायँ ॥ वह तीसरा अर्थ यह है हे वही राधा नागरी, जिसके तन ( रूप ) का ध्यान पड़ने से (भक्त के हृदय में आने से) काले रंग वाला [ पदार्थ अर्थात् कल्मष, पातक इत्यादि ] हृतद्युति ( गतद्युति अर्थात् अपनी कल्मषता से राहत ) हो जाता है ( अर्थात् अपना दुःखद प्रभाव छोड़ देता है ), मेरी भव-बाधा ( सांसारिक दुःख, दारिद्र, चिंता इत्यादि, जिनका रंग कवि-परिपाटी में काला माना जाता है ) हरो ॥ ऊपर के तीन अर्थों में 'राधा नागरि’ पद संबोधन माना गया है । उसे प्रथमपुरुष-वाची मान कर भी इस दोहे के यही तीन अर्थ हो सकते हैं। हमारी पाँच प्राचीन पुस्तक में से चार मैं “मेरी भव-बाधा', यही पाठ है, और तीसरे अंक की पुस्तक आदि मैं खंडित है। कृष्ण काव की टीका के अनुसार भी यही पाठ ठीक ठहरता है । कृष्ण कवि ने, अपनी टीका मैं, प्रत्येक दोहे की जाति का नाम तथा उसके गुरु और लघु अक्षरों की संख्या लिख दी है। इस दोहे को उन्हाँने 'करभ' लिखा है, जिसमें ३२ अक्षर, अर्थात् १६ गुरु और १६ लघु, होते हैं। यह संख्या ‘भव-बाधा' ही पाठ मानने से चरितार्थ होती है, अथवा 'भौ-बाधा हरहु' पाठ रखने से । पर 'इरहु’ पाठ किसी पुस्तक मैं नहीं मिलता । एक पुरानी लिखी हुई पुस्तक, जिसमें दो का क्रम पुरुषोत्तमदासजी के बाँधे हुए क्रम के अनुसार है, हमको वृंदावन में मिली है। उसमैं ‘भौ-बाधा' पाठ तो है, पर हरहु' पाठ उसमें भी नहीं है। अतः यदि 'भौ-बाधा' पाठ शुद्ध माना जाय, तो यह दोहा करभ जाति का नहीं रहता, जैसा कि कृष्ण कवि ने इसको लिखा है । कृष्ण कवि ने अपनी टीका संवत् १७८२ में समाप्त की थी । अतः यह बात स्पष्ट है कि उस समय, जब कि बिहारी को मरे बहुत दिन नहीं बीते थे, ‘भवबाधा' ही पाठ प्रसिद्ध था । पर विचारने की बात यह है कि मंगलाचरण के दोहे के आदि मैं बिहारी ने 'मेरी भव-बाधा' कैसे रक्खा होगा; क्योंकि इस पाठ के आदि मैं त-गण भरता है, जो कि अशुभ माना जाता है। इसी को यदि वह ‘मेरी भौ-बाधा' कर देते, तो [ ४७ ]________________

बिहारी-रत्नाकर अदि मैं शुभ गण म-गण पड़ जाता, और छंद मैं भी कोई त्रुटि न पड़ती। यह कहना तो असंगत ही होगा कि बिहारी गण-विचार नहीं जानते थे ; कि यह तो ऐसी सामान्य बात है कि इसको थोड़ा पदे हुए लोग भी जानते हैं। इसके अतिरिक्त ‘भव-बाधा’ को ‘भौ-बाधा' कर देने में कोई कठिनाई भी न थी । फिर बिहारी ने, मंगलाचरण के दोहे के आदि मैं, ‘भवबाधा' क्यों लिखा ? इसके दो कारण हो सकते हैं—पहला त यः कि बिहारी के दोहे बहुधा, उनके मुख से सुन कर, राजसभा के लेखक अथवा बिहारी के शिष्य लिख लिया करते थे, अतः संभव है कि यह पाठ लिखने वाल के प्रमाद से प्रचलित हो गया हो; दूसरा यह कि बिहारी ने इस दोहे को मंगलाचरण में रखने के अभिप्राय से न बनाया हो, पर, सतसई संकलित करते समय, इसको इस योग्य देख कर, मंगलाचरण मैं रख दिया हो, और इसके अादि के गण पर ध्यान न दिया हो । जो हो, हमारी समझ में, ‘मेरी भौ-बाधा हौ' पाठ होता, तो अच्छा होता । पर प्राचीन पुस्तक में 'मेरी भव-बाधा हरौ' ही पाठ होने के कारण यही पाठ इस संस्करण में रखा गया है ॥

अपने अँग के जानि के जोबन-नृपति प्रबीन ।
स्तन, मन, नैन, नितंब कौ बड़ौ इजाफा कीन ॥ २ ॥

अपने अंग के ( अपने अंग के )-राजा के प्रधान, अमात्य, सेनापति तथा सेना इत्यादि राजा के अंग अर्थात् सहायक कहलाते हैं । अतः अंग का अर्थ यहाँ सहायक अथवा पक्षी होता है । अपने अँग के' का अर्थ अपने पक्षियों के दल मैं हुया । इजाफा( इज़ाफ़ा )-अरबी भाषा में इजाफ्रा बढ़ती अर्थात् वृद्धि को कहते हैं। जब कोई बादशाह, अपने किसी सरदार अथवा कर्मचारी को अपना शुभचिंतक समझ कर, अथवा उसके किसी अच्छे काम से प्रसन्न हो कर, उसकी जागीर अथवा वेतनादि मैं वृद्धि कर देता है, तो यह वृद्धि इज़ाफ़ा कहलाती है । ( अवतरण )-नायक नवयौवना मुग्धा के शरीर तथा उत्साह में वृद्धि देख, रीझ कर, उसकी प्रशंसा करता हुअा, अपने मन में कहता है ( अर्थ )-यौवन-रूपी प्रवन ( दान, दंड इत्यादि उपायों में निपुण ) नृपति ( राजा ) ने, [उनके ] अन अंग का ( दल का, पक्ष का ) समझ कर, स्तनों (कुचों), मन, नयन, [ और ] नितंब का वड़ा इज़ाफ़ा कर दिया है ॥ | टीकाकारों ने प्रायः ऐसे दोहों को सखी का वचन सखी से, नायक से, अथवा स्वयं नायिका से माना है । पर हमारी समझ में ऐसे दोहाँ को, सखी का वचन मानने की अपेक्षा, नायक का वचन मानने में विरोर रस है; क्याँके कि पी गुण-ग्राहक की प्रशंसा से किसी वस्तु के गुण की जैसी वास्तविकता प्रकट होती है, वैसी किसी अभिप्राय से प्रशंसा करने वाले की प्रशंसा से नहीं हो सकती। इसलिए ऐसे दोहाँ मैं हमने प्रायः नायक का स्वगत वचन माना है ॥

अर तैं टरत न घर-परे, दई मरक मनु मैन ।
होड़ाहोड़ी बढ़ि चले चितु, चतुराई, नैन ।। ३ ।।

१. * ( २ ) । २. होड़ीहोड़ा ( २, ४) । [ ४८ ]________________

बिहारी-रत्नाकर |अर ( अँड़ )= किसी बात के निमित्त हठ-पूर्वक डट जाना । यहाँ ‘अर' का अर्थ अपने गौरव के निमित्त हठ करना है । बर:परे–‘बर' का अर्थ बल है। यहाँ इसका अर्थ उत्साह, उमंग है। अतः ‘बर-परे' का अर्थ उभंग से भरे हुए होता है ॥ मरक= बढ़ावा, चाँटी ॥ होड़ाहोड़ी-होड़ बराबरी करने की स्पृहा–लागडाँट-को कहते हैं। ‘होड़ाहोड़ी' का अर्थ परस्पर की लागडाँट होता है । ( अवतरण )-नवयौवना नायिका की शोभा से रीझ कर नायक, उसकी प्रशंसा करता हुआ, अपने मन मैं कहता है ( अर्थ )-[ अहा ! इस स्त्री के शरीर में यौवनागमन के कारण ] उमंग से भरे हुए चित्त, चतुराई और नयन [ अपने अपने ] हठ से नहीं हटते, [ श्रीर] होड़ाहोड़ी (परस्पर लाडॉट कर के ) बढ़ चले हैं, मानो मदन ने [ इन्हें ] बढ़ावा दे रक्खा है ॥

औरै-ओप कनीनिकनु गनी घनी-सिरताज ।।
मनीँ धनी के नेह की बनीँ छनीँ पट लाज ।। ४ ।।

औरै-ओप= कुछ और ही ओप वाली । यह समस्त पद ‘कनीनिकनु' का विशेषण है ॥ कनीनिकनु -कनीनिका आँख की पुतली को कहते हैं। 'कनीनिकनु' कनानिका शब्द के संबंधकारक का बहुवचनांत रूप होता है । इसके पश्चात् की तृतीया की विभक्ति का लोप है, अतः इसका अर्थ कनीनिका से,.अर्थात् कनीनिका के कारण, हुया । गनी= गिनी गई है, मानी गई है । घनी-सिरताज-घनी का अर्थ अनेक होता है। यहाँ इसका अर्थ अनेक सपत्नी है । ‘सिरताज' फ़ारसी समस्त शव्द ‘सरताज' का रूपांतर इसका अर्थ शिरोमणि अर्थात् श्रेष्ठतम होता है । इसलिए ‘घनी-सिरताज' का अर्थ अनेक संपनियों में शिरोमणि अर्थात् श्रेष्ठतम पत्नी हुआ ॥ मन (मणि ) - हीरा, नीलम इत्यादि, अथवा सर्प इत्यादि से निकली हुई मणियाँ । मणिय मैं अनेक प्रकार के प्रभाव माने जाते हैं। किसी मणि के पहनने से लक्ष्मी की प्राप्ति, किसी से अन्य मनुष्य का सम्मोहन इत्यादि माना जाता है । धनी = प्रभु, स्वामी अर्थात पति ॥ मनी धनी के नेह की—इसका अर्थ पति के स्नेह को प्राकर्षित करने वाली मणियाँ होता है । छन = अाच्छादित, छिपी हुई । मणि, मंत्र इत्यादि का प्रभान छिपे रहने पर विशेष होता और खुल जाने पर जाता रहता है । इसी प्रकार लल्ला से आच्छादित नेत्र में भी अाकर्षण-शक्ति विशेष होती है । इसी लिए कवि ने कनानिका को मणि बना कर लजा-रूपी पट से ढाँप रक्खा है ।। |

( अवतरण )-नवयौवना मुग्धा की आँखों की पुतलियाँ मैं यौवनागमन के कारण कुछ विलक्षण प्रभा तथा लज्जा का संचार हो गया है । उसी की प्रशंसा सखी, उसके हृदय में उत्साह बढ़ाने के निमित्त, करती है|

( अर्थ )--[ अब तू अपनी ] और ही ओप ( प्रभा ) वाली कनीनिकाओं के कारण अनेक [ सपत्नियों ] में शिरोमणि गिनी गई है, [ क्योंकि ये तेरी कदीनिकाएँ] लज्जा-रूपी पट में छिपी हुई ( लिपटी हुई ) पति के स्नेह की ( पति के स्नेह को तेरी ओर आकर्षित करने वाली ) मणियाँ बन गई हैं ॥ १. सनी ( १, ४, ५) ।। [ ४९ ]________________

बिहारी-रत्नाकर सनि-कज्जलं चख-झव-लगन उपज्यौ सुदिन सनेहु ।। क्य न नृपति है भोगवै लहि सुदेसु सबु देहु ॥ ५ ॥ सनि ( शनि )= शनैश्चर नामक ग्रह । इस ग्रह का रंग काला माना जाता है, और वस्तुतः भी इस तारे का रंग देखने में श्याम प्रतीत होता है । सनि-कजना= जिसमें कजल शनि है ऐसी । यह समस्त पद ‘चख-झख-लगन’ का विशेषण है। इसमें बडुत्रीहि समास है। चख (चक्षु )= आँख । झख ( झष )= मछली ॥ लगन (लग्न)इस शब्द का धात्वर्थ लगा रहना, मि ला रहना है । येतित्र की परिभाषा में क्रांतिवृत्त के क्षितिज मैं लगे रहने को लग्न कहते हैं। भारतीय ज्योतिषाचार्यों के अनुसार सूर्य पृथ्वी की परिकमा करता है । उस परिक्रमा-पथ को क्रांतिवृत कहते हैं, जे स्वयं भी, प्रह वायु-द्वारा चलायमान हो कर, पृथ्वी के चारों ओर घूमा करता है । यह क्रांतिवृत बारह सभ भाग में विभक्त माना गया है। एक एक भाग एक एक राशि के नाम से ख्यात है। उन बारह राशि के नाम ये हैं-नेत्र, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन । जो राशि जितने काल तक पूर्व क्षितिज से सम्मिलित रहती है, उतने काल तक उस राशि की लग्न मानी जाती है । जैसे यदि सूर्योदय के समय क्रांतिवृत्त की मीन राशि तितिज से सम्मिलित हो, तो उस समय मीन लग्न मानी जार श्रीर जब तक, क्रांतिवृत के भ्रमण के कारण, वह राशि घूम कर क्षितिज-रेखा का उल्लंघन न कर जायगी, और मेष लग्न उस रेखा पर न पहुंच जायगा, तब तक मीन लग्न का मान रहेगा । उसके पश्चात् मेष लग्न का मान आरंभ होगा । जन्म-कुंडली के संबंध में लग्न उस लग्न को कहते हैं, जो किसी के जन्म के समय होती है। जैसे यदि किसी लग्न हो, ती मीन लग्न कहने से उसके जन्म-काल की लग्न समझी जायगी । यदि उस मनुष्य के जन्म के समय मीन लग्न हो, योर शनि ग्रह भी उस समय मीन राशि ही में हो, तो उस मनुष्य की लग्न मैं मीन राशि के शनि का होना कहा जायगा। ऐसा मनुष्य ज्योतिष शास्त्र के अनुसार राजा होता है, यथा तुलाकोदर इमीनस्थो लग्नस्थोऽपि शनैश्चरः ।। करोति भूपतेर्जन्म वंशे च नृपतिर्भवेत् ॥ ( जातक-संग्रहः, राजयोग-प्रकरण, श्लोक १३ ) ‘लगन' शब्द इस दोहे मैं श्लिष्ट है । इसका एक अर्थ तो वहीं है, जो ऊपर लिखा गया है, और दूसरा लगना, अथवा मिलना, है ॥ सुदिन = अच्छा दिन अर्थात् ऐसा समय, जो कि ग्रहों की स्थिति के कारण राजयोग के अनुकूल हो । यद्यपि शनि का मन लग्न में होना मनुष्य को राजा बनाता है, तथापि केवल एक यही योग इस कार्य के लिए पर्याप्त नहीं है । शोर भी ग्रहों का यथेष्ट स्थानों मैं होना आवश्यक है, अर्थात् और प्रकार से भी वह समय सानुकूल होना चाहिए । यही सानुकूलता विहारी ने ‘सुदिन' कह कर व्यंजित की है। नेत्रों से देखने के विषय में सुदिनना का यह भाव है कि नायिका के नायक को क जल-कलित नेत्रों से देखने के समय ऐसा सुअवसर था कि वह अांखें भर कर उसकी ग्रोर देख सकी । सनेहु ( स्नेह ) = स्नेहरूपी बालक । इस दोहे में, ‘उपव्या', 'लगन' इत्यादि शन्द के पड़ने के कारण, अर्थ-बल से बालक शब्द का ग्रहण हो जाता है । भगवै = भागे, भोग करे ॥ सुदेसु = सुंदर देश । देश का सौष्ठव उसका धनधान्य तथा सानुकुल प्रजा से संपन्न होना इत्यादि है, और देह का सौष्ठव सुंदर, युवा तथा स्निग्ध होना है ॥ | ( अवतरण )-किसी सुअवसर पर नायिका के कज्जल-कलित नेत्रों से देखने से नायक के हृदय में स्नेह उत्पन हुआ, जिपने उसके सवंग पर अधिकार जमा लिया । उसकी इसी दशा का वर्णन सखी, बेरी गरी से नायिका-प्रति कर के, उसको नायक से मिलाया चाहती है १. कबलु ( १ )। [ ५० ]________________

बिहारी-राकर ( अर्थ )-जिसमें कजल-रूपी शनि [ स्थित ] है, ऐसी चख-रूपी मीन लग्न में, (१. पृथ्वी तथा सूर्य की विशेष स्थिति के समय । २. आँखों के आँखों से मिलने के समय ) शुभ दिन [ नायक के हृदय में ] उत्पन्न स्नेह-रूपी बालक सव देह-रूपी सुदेश (देह-रूपी सुदेश को सार्वभौमि : राज्य) पा कर, राजा बन कर क्यों न [ उस पर ] भोग करे (पूर्ण अधिकार जमावे ) ॥ इस दोहे में सखी नायक के स्नेह की व्यवस्था का वर्णन करती हुई, वाक्यचः तुरी-द्वारा, ‘सुदेस' शब्द के प्रयोग से उसका सुंदर, युवा इत्यादि होना तथा सब' शब्द के प्रयोग से उसके सवंग पर स्नेह का अधिपत्य हो जाना व्यंजित कर के, नायिका के हृदय में रुचि उपजाया चाहती है। सालति है नटसाल सी, क्यौं हूँ निकसति नाँहि ।। मनमथ-नेजा-नोक सी खुभी खुभी जिरी माँहि ॥ ६ ॥ सालति है = चुभ कर पीड़ा देती है ॥ नटसाल ( नष्ट शल्य )= बछ, बाण इत्यादि की अथवा काँटे की नोक, जो टूट कर घाव के भीतर रह जाती है । मनमथ नेजा नोक = कामदेव के भाले की नोक । कई एक टीकाका ने, यह कह कर कि कामदेव के आयुध बाण प्रसिद्ध हैं, अतः ‘मनमथ-नेजा' का अर्थ कामदेव का भाला करने में प्रसिद्धि-विरुद्ध दूषण पड़ता है, ‘मनमथ' का अर्थ मन को मथने वाला अर्थात् पीड़ा देने वाला किया है । पर शृंगार रस के दोहे में ‘मनमथ-नेजा-नोक' का अर्थ कामदेव के भाले की नोक ही करना विशेष सरस है । यद्यपि कामदेव के मुख्य आयुध तो अवश्य बाण ही माने जाते हैं, पर उसके और आयुर्थी–खड्ग, कुंतादि का भी वर्णन कवि करते हैं। अतः उसके भाले का वर्णन दुषित नहीं समझा जा सकता ॥ खुभी= कान मैं पहनने का एक भूषण, जो भाले के फल के आकार का होता है । खुभी= चुभी हुई, धंसी हुई ।। ( अवतरण )-भी पर रीझे हुए नाय के का, नायिका की किसी सखी अथवा दूती से, मिलनोत्कंठा-व्यंजक वचन ( अर्थ )-[ उसकी ] कामदेव के भाले की नोक सी खुभी [ मेरे ] जी में धंसी हुई नटसाल सी सालती ( खटकती ) है, [और] किसी प्रकार निकलती नहीं ॥ जुवति जोन्ह मैं मिलि गई, नैंक न होति लखाइ । सौंधे कैं डोरें लगी अली चली सँग जाइ ॥ ७ ॥ जोन्ह ( ज्योत्स्ना )= चाँदनी ॥ लखाइ = लक्षित ॥ सांधे= सुगंध ।। डोरै = डोरे मैं। जिस प्रकार दीपक की किरणें तार की भाँति चारों ओर फैलती हैं, उसी प्रकार सुगंधित वस्तु की सुगंध के तार बायु के बहाव की ओर प्रसरित होते हैं। इन्हीं तारौं को डोरे कहते हैं ॥ अली= सखी । यदि यह शब्द यहाँ श्लिष्ट माना जाय, तो चमत्कार बढ़ जाता है। एक अर्थ सखी और दूसरा अर्थ भ्रमर करने से इसका अर्थ भ्रमर सी सखी हो जाता है । १. मन ( २ ), हिय ( ४ ) । २. चली अली ( १ )। [ ५१ ]________________

विहारी-रत्नाकर ( अवतरण )-शुक्राभिसारिका नायिका की अंतरंगिनी सखियाँ उसके शरीर की गुराई तथाः सुगंध का वर्णन करती हैं ( अर्थ )-[ देखो, यह ] युवती [ अपनी गौर द्युति के कारण ] चाँदनी में [ कैसी ] मिल गई है [ कि ] किंचिन्मात्र भी लक्षित नहीं होती । अतः उसको दृष्टि द्वारा लक्षित कर के उसके संग चलना असंभव है, पर ] अली ( भ्रमर सी सखी ) [ उसके शरीर की ] सुगंध के डेरे से लगी हुई ( डोरे के सहारे पर ) [ उसके ] संग चली जा रही है ॥


---- हौं रीझी, लखि रीझिहौ छबिहिँ छबीले लाल।

सोनजुही सी होति दुति-मिलंत मालती माल ॥ ८ ॥ दुति-मिलत= द्युति अर्थात् श्राभा से मिलते ही । यह पद समस्त है ।। ( अवतरण )--नायिका की सखी अथवा दूती नायिका के शरीर की सुनहरी आभा की प्रशंसा कर के नायक के हृदय मैं उसके देखने की उत्कंठा उत्पन्न किया चाहती है ( अर्थ )--- म [ तो उस पर ] रीझ गई, [ और तुम भी, ] हे [ अपने को } छबीले [ समझने वाले ] लाल, [ उसकी ] छवि देख कर रीझ जाओगे । [ उसकी गुराई ऐसे पीत वर्ण की है कि उसकी ] आभा से मिलते ही [ उसकी ] माला में [ लगी हुई ] मालती सोनजुही सी [ सुनहरी ] हो जाती है । बहके, सय जिये की कहत, ठौरु कुठौरु लग्नैं न । छिर्न औरै , छिर्न और से, ए छबि छाके नैन ॥ ९ ॥ | बहके= अपने वश से बाहर हुए । छवि-छाके = छांव-रूपी मदिरा से छके हुए । छकना पीने को कहते हैं। पंजाब में अभी तक लोग ‘जल छक लो' का जल पी लो के अर्थ में बोलते हैं। जैसे पियक्कड़ का अर्थ बहुत मदिरा पीने वाला होता है, वैसे ही 'छाके' का अर्थ मांदरा पा कर मतवाल होता है । अतः ‘छाब-छाके' का अर्थ छवि-रूपा मदिरा पी कर मतवाल हुया ।। ( अवतरण )-सखी नायिका से कहती है कि तुझे अपना अनुराग छिपाए रखना चाहिए; इस तरह प्रेमोन्मत्त देव कर लोग तुझे क्या कहँगे । उसकी यह शिक्षा सुन कर पूर्वानुरागिनी नायिका उससे कहती है-- ( अर्थ )--[ मैं क्या करूँ, ] ये छवि-रूपी मदिरा पी कर मतवाले, बहके, [ और इसी कारण ] क्षण क्षण पर और ही और प्रकार के होने वाले नयन जी की सव [ छिपी हुई बाते ] कह देते है ( प्रकाशित कर देते है ), [ और ] ठौर कुठौर (अवसर अनवसर) नहीं देखत ( समझत) ॥ यह बात प्रसिद्ध ही है कि मदिरा पान करने पर मनुष्य अपने जो की सब बातें कह देता है। इसी लिए घोर से उसकी चोरी कहला लेने के लिए उसको प्रायः मदिरा पिला दी जाती है ॥ १. मिलिति ( ५ ) । २. बहके ( २ ) । ३. जी ( ४ ) । ४. छिनु ( १,५)। [ ५२ ]________________

६ बिहारी-रत्नाकर फिरि फिरि चितु उत हीं रहतु, टुटी लाज की लाव | अंग-अंग-छवि-झर मैं भयौ भौंर की नाव ॥ १० ॥ लाव= रस्सी, नाव बॉधने की लहासी ।। लाज की लाव= लज्जा-कृत लाव, लज्जा से बनी हुई लाव अर्थात् लला-रूपी लाव॥ छबि= छवि-रूपी नद । यहाँ अारोप्यमान नद का अथोंपक्षेपण है। झार—यह शब्द झूमर का रूपांतर है। किसी वस्तु के झूमते हुए गोलाकृति समूह को झूमर अथवा झीर कहते हैं। हेमचंद्र की देशी नाममाला में यही शब्द ‘झॉडलिया' के रूप में मिलता है। उसका अर्थ रास के सदृश एक नाच है, जिसमें अनेक व्यक्ति मंडल बाँध कर नाचते हैं ॥ | ( अवतरण )--पूर्वानुरागिनी नायिका अंतरंगिनी सखी से अपनी स्नेह-दशा कहती है: ( अर्थ )-[ नायक के ] अंग अंग की छवि के झूमर में [ फंस कर मेरा ] चित्त, भंवर की (आँवर में पड़ी हुई ) नाव बना हुआ, फिर फिर कर ( घूम फिर कर ), उसी ओर ( नायक ही की ओर ) रहता है, [ और किसी ओर नहीं जाता, क्योंकि उसको नायक की ओर से खींचने वाली ] लज्जा-रूपी रस्सी टूट गई है ॥ नीकी दई अनाकनी फीकी परी गुहारि । तज्यौ मनौ तारन-बिरदु बारक बारनु तारि ॥ ११ ॥ अनाकनी =अनसुनी। आनाकानी देना=बात को सुनकर भी न सुनना । फोकी=प्रभाव-रहित ॥ गुहारि= पुकार ॥ विरदु= प्रशंसा, प्रशस्ति । तारन-बिरदु= तारने वाले होने की विख्याति ।। बारक= एक बार ही, सर्वथा ॥ चारनु=हाथी ॥ ( अवतरण )--भक़ का उलाहना भगवान् से ( अर्थ )--[ हे नाथ ! अपने तो ] अच्छी आनाकानी दी, [ हमारी ] पुकार फीकी पड़ गई ; मानो हाथी को तार कर [ अपने ] एक बार ही [ अपना ] तारन-विरद ( तारने वाले कहलाना ) छोड़ दिया ॥ चितई ललचौहैं चखनु डेटि हूँघट-पट माँह । छल स चली छुवाइ कै छिनकु छबीली छाँह ॥ १२ ॥ चितई—इस शब्द का प्रयोग बिहारी ने सब ठौर अकर्मक ही किया है । १४४, ३१९, ४१३ तथा ६२३ अंक के दोहाँ मैं इस शब्द का प्रयोग हुआ है, और सबमैं अकर्मक हो प्रयोग है ॥ | ( अवतरण )–नायक को देख कर नायिका ने जो अनुरागोत्पादक तथा अनुराग-व्यंजक चेष्टाएँ की हैं. उन पर रीझ कर नायक स्वगत, अथवा उसकी सखो से, कहता है ( अर्थ )-घूघट के पट में” से [ पहिल तो उसने ] डट कर (स्थिरत-पूर्वक, आँखा से आँखें भली भाँति मिलाकर) [ मुझे ] ललचाते हुए चक्षुओं से देखा, [ और फिर | १. तुटी ( २, ५ )। २. नीकै ( २ ) । ३. दुरि ( ४) । [ ५३ ]________________

१६ विहारी-रत्नाकर किसी ] व्याज मे [व] छबीली [ मुझ को अपनः ] छाया क्षण मात्र छु। कर (छाती हुई ) चली ॥ ‘छबीली' शब्द को ‘छांह' का विशेषण भी मान सकते हैं। छःथा पृथ्वी पर पड़ती है। ‘छुवाद' शब्द से छाया के अंतिम भाग मात्र का स्पर्श और उससे नायिका का अपने सिर की छाया से नायक के पाव का स्पर्श करना, अर्थात् नायक को प्रणाम करने का भाव, व्याजत होता है । छाया छुअाने से यह भी सूचित होता है कि नायक उस को ऐसा प्रिय लगा कि यद्यपि वे उस को अपना शरीर ल जावरा न कु अः स की, तथापि अपनी छाया ही को उसके शरीर से छा कर उसने स्पर्शाभास का मुख प्राप्त किया ॥ जग-जुगति सिखए सबै भनौ महामुनि मैन । चाहत पिय अद्वैतता काननु सेवन नैन ॥ १३ ॥ | जग-जुगति ( योग युक्ति )—योग शब्द यहां श्लिष्ट है । इसके दो अर्थ हैं--( १ ) नायक को मिलाप । ( २ ) नित-वृत्तियों के निरोध द्वारा जीवात्मा का परमात्मा में लीन करना । जुगनि = उपाय । जोगनुगति =( १ ) प्रियतम-गंग की प्राप्ति के उपाय । २ ) योग-क्रिया करने के विधान ॥ पिय–इस शब्द के भी यहां दा भावार्थ हैं- १ ) प्रियतम, नायक । ( २ ) परमप्रेमास्पद परमात्मा | अद्वैतता=अमिनता । नायक पक्ष में इसका अर्थ अपने सामने से अलग न होने देना है, और ब्रह्म पक्ष में ब्रह्म तथा जीव का ऐक्य-भाव ।। काननु -इस शब्द के भी यहां दो अर्थ हैं-( १ ) कान को । इस अर्थ मैं यह शब्द कान शब्द के संबंधकारक का बहुव वन रूप है, जो कि कर्मकारक व प्रयुक्त हुआ है । ( २ ) वन । इस अर्थ मैं यह शब्द कानन शब्द के कर्मकारक का एकवचन रूप है । नैन ( नयन )—यह शब्द भी यहाँ श्लिष्ट है । इसका पहिला यर्थ नेत्र है, और दुसरा उचित प्राचार तथा संयम रखने वाले अर्थात् योगी । इन दोन अर्थों के संयोग से 'नैन' शब्द में श्लिष्टपद-भूलक रूपक हुग्रा ।। | ( अनतरण )-नवयौवना मुग्धा के नेत्र के सौंदर्य तथा बदावे को देख कर सखियाँ, उनकी प्रशंसा करती हुई, उससे परिहासात्मक तथा उत्साह-वर्द्धक वाक्य कहती हैं | ( अर्थ ) --[ अव तेरे ] नयन-रूपी योगी 'काननु' (श्रवण-रूपी धन ) का सेवन करने लगे हैं, मान मदन-रूपी महा योगी के द्वारा योग ( १. संयोग। २. योग-क्रियाओं) की सब युक्तियाँ सिखाए हुए (ये ] प्रिय-अद्वैतता ( १. प्रियतम से अलग न होना। २. परमात्मा से एकता ) चाहते हैं [एवं इनकी शोभा पर रीझ कर नायक सदैव तेरे सामने उपस्थित रहेगा ] ॥ यह सखियाँ का परिहास उसी प्रकार का है, जैसा सम-वयस्क युवतियाँ आपस में किया करती है कि अब तो तेरे मन में अार ही चाव चढ़ने लगे हैं, और तेरा प्रियतम तुझ पर मोहित हो रहा है। खरी पातरी कान की, कौने बहाऊ बानि । आक-कली न रली करै अली, अली, जिय जामि ॥ १४ ॥ १. सेवति काननि ( ४ ), सेवत कानन ( ५ ) । २. कौनु ( १ ), कौनि ( २ )। [ ५४ ]________________

बिहारी-रत्नाकर खरी= बहुत, बड़ी, अत्यंत ।। पातरी= पतली, सुकुमार अर्थात् जिस पर किसी बात का प्रभाव शीघ्र पड़े । ‘पातरी कान की' = कान की पतली अर्थात् किसी बात को सुन कर, विना विचारे, उस पर शीघ्र विश्वास कर लेने वाली । इस विशेषण से नायिका का अप्रौढ़ता व्यंजित होती है । बहाऊ= बहा देने के योग्य, अथवा बहा देने वाली, अर्थात् नष्ट करने वाली ॥ अक ( अर्क )= मदार ।। रली= आनंद, विहार, सुख ॥ | ( अ इतर )—सध्या नायिका ने, नायक को अन्यत्रो रत सुन कर, मान किया है। सखी उसको समझाती है ( अर्थ ) -[ तू ] कान की बड़ी पतली है। [ यह तेरी ] कौन (किस अर्थ की अर्थात् बहुत निकम्मी ) वहाऊ( बहा देने के योग्य अथवा तुझको नष्ट करने वाली ) वान (प्रकृति) है [ कि तु विना विचार किए सबकी बातों पर विश्वास कर लेती है ] । हे अली ( सखी), [ तू अपने] जी मैं [ यह बात ] जान ले ( निश्चित कर ले ) [ कि ] अली ! भ्रमर) मदार की कली से रली ( विहार ) नहीं करता ।। पिय-विठुरन कौ दुसहु दुखु, हरषु जात प्यौसार ।। दुरंजोधन लें। देखियेति तर्जत प्रान हैं हि बार ॥ १५॥ प्यौसार ( पितृशाला ) = बाप के घर, नैहर ॥ दुरजोधन ( दुर्योधन ) = कौरवपति धृतराष्ट्र का पुत्र । उसको शाप था कि जब उसको हर्ष तथा शोक, दोनों एक साथ ही ब्यापें गे, तब उसकी मृत्यु होगी । एक ऐसे ही अवसर पर उसके प्राण छूटे थे । देखियति = देखी जाती है । इह वार= इस बार अर्थात् अन की बार नैहर जाते समय ।। ( अवतरण )पहिले तो नायिका मुग्धा थी, अतः उसे नैहर जाते समय नायक-वियोग का दुःख नहीं होता था । पर अब वह मध्यावस्था को प्राप्त हो रही है, अतएव इस बार उसको नैहर जाने के हर्ष के साथ ही स थ नायक के विछोह का दुःख भी व्याप्त हो रहा है, अर्थात् उसको हर्ष तथा दुःख एक साथ ही हुए हैं, जिससे उसके प्रण बढ़ संकष्ट में पड़े हुए हैं। उसकी इसी दशा का वर्णन सख सखी से करती है ( अर्थ )-नैहर जाते [ समय एक तो इसको नैहर वालों की दर्शन संभावना का ] हर्ष है, [ और दूसरे ] प्रियतम से बिछुड़ने का दुःसह दुःख है । [ अतः ] इस बार [ की जवाई में यह ] दुर्योधन की भाँति प्राण तजते समय की दशा में देखी जाती है । झीनै पट मैं झुलेमुली झर्लकति ओप अपार । सुरतरु की मँनु सिंधु मैं लसात सपल्लव डार ॥ १६ ॥ कुलमुली–इस शब्द का अर्थ, कृष्ण कवि को छोड़ कर, सभी टीकाकारों ने कर्ण-भूषण विशेष, जिसको १. दुञ्जधन ( २ ), दुजोंधन ( ५ ) । २. देखियत ( २ ), देखिए ( ५ ) । ३. तजति ( ४, ५ )। ४. जिहि (२ ), एहि (४) । ५. झलमली (५)। ६. झलकत (४) । ७. जनु (२ )। ८. लसी (१,४), लस (५ )। [ ५५ ]________________

१२ बिहारी-रत्नाकर भाखा अथवा पीपलपत्ता कहते हैं, लिखा है, और इसी अर्थ के अनुसार दोहे का भी अर्थ किया है । कृष्ण कवि ने इसका अर्थ और कोई भूषण-कदाचित् उरबसी-माना है । ईसवी खाँ ने इसका अर्थ उरबसी किया है, और यह भी लिखा है कि “जो नायिका को कहँ झीने पट में ऐसी झलमलै है, तो भी हो सके है । हमारी समझ में ‘झलमुली' का अर्थ झुलमुलाती हुई, अर्थात् झीने पट से ढेपे रहने के कारण कभी झलकती और कभी छिप जाती हुई कर के इसको ‘ओप' शब्द का विशषण मानना चाहिए । १८६ तथा ५३८ अंक के दोहा मैं जो ‘झलमले' शब्द क्रिया रूप से पड़ा है, उसी शब्द से यह ‘कुलमुली' शब्द विशेषण बना है । झलमलाना, झिलमिलाना तथा झुलमुलाना, ये तीनों शब्द वस्तुतः एक हो शब्द के रूपांतर मात्र है, और थोड़ थोड़े अर्थ-भेद से प्रयुक्त होते हैं ॥ लसति = विलास करती है, अर्थात् मंद मंद हिलती हुई सुशोभित होती है । ( अवतरण )-झोने पट में से फूट कर निकलती हुई नायिका के शरीर की झलक पर रीझ कर मायक स्वगत कहता है ( अर्थ )-[ अहा ! इसकी ] झुलमुली (झुलमुलाती हुई ) अपार ओप झीने पट में से [ऐसी ] झलकती है, मानो कल्पवृक्ष की पल्लवसहित डार समुद्र में विलास कर रही है ॥ ‘सपल्लव डार' इसलिए कहा है कि हाथ, पाव, ओठ तथा कान की उपमा पल्लव से दी जाती है । डारे ठोड़ी-गाड़, गहि नैन-बटोही, मारि । चिजक-चैध मैं रूप-ठग, हाँसी-फाँसी डारि ॥ १७ ॥ ठोड़ी-गाड़ = द्वी का गड़हा ॥ बटोही= बाट चलने वाले, पथिक । चिलक= चमक । चौध-पथिकों को जो कि किसी रात को, अधिक रात्रि रहने पर भी, तारों इत्यादि के प्रकाश के कारण, सबेरा होता सा प्रतीत होने लगता है, और जिससे चा धिया कर, अथर धोखा खा कर, वे उसी समय मार्ग चल पड़ते हैं, उस धोखा देने वाले प्रकाश का चांधा अथवा चाध, अथान् चमक से ग्राखा’ का अंध करने वाला, भ्रम में डालने वाला, कहते हैं। इसी का नाम फ़ारसी भाषा म’ ‘सुबह काज़िब' है । ऐसे चाध से धोखा खा कर जब पथिक अधिक रात्रि रहन पर भी बल पड़ते हैं, ना ठगा की वन ग्राती है । वे उनको फाँना डाल कर मार डालते और किसी गड़हे में डाल देते हैं । ( अवतरण )-नायक के नेत्र नायिका के शरीर शोभा देखते देखते मोहित हो कर उसकी डी के गबहे मैं पड़ गए हैं, और अब वहाँ से शोभाधिक्य के कारण नहीं टल पात । अपने नयन की यह व्यवस्था नायक, नायिका की शोभा का वर्णन करता हुआ, स्वगत कहता है-- | ( अर्थ )-[ उसके ] सौंदर्य-रूपी ठग ने चिलक-रूपी चौध में [ मेरे ] नयन-रूपी पथिकों को घेर कर, हँसी रूपी फाँसी डाल, मार कर ठोड़ी के गड़हे में डाल दिया [ एवं वे बेचारे अब वह पड़े हुए हैं ] ॥ इस दोहे के भाव से २६ अंक के दोहे का भाव बहुत मिलता है । कीनैं हूँ कोरिक जतन अब कहि काढ़े कौनु । भो मन मोहन-रू] मिलि पानी मैं कौ लौनु ॥ १८ ॥ मन = मानस । यह शब्द यहां श्लिष्ट है । इसका पहिला अर्थ मन और दुसरा अर्थ मान१. ऊ (४, ५) । २. रूप ( १, २, ४, ५ ) । [ ५६ ]________________

बिहारी-रत्नाकर सरोवर है । इस श्लेष के कारण ‘मन’ शब्द में श्लेष-मूलक रूपक है । अतः मन का अर्थ यहाँ मन-रूपी मानसरोवर हुआ । १५० अंक के दोहे में भी ‘मन’ शब्द का ऐसा ही प्रयोग है ।। ( अवतरण )-सखी की शिक्षा सुन कर नायिका कहती है कि अब मेरे मन से मोहन का लावण्यमय रूप किसी उपाय से निकल नहीं सकता । तेरा शिक्षा देना वृथा है ( अर्थ )-मोहन का [ लावण्यमय ] रूप [ मेरे ] मन-रूपी मानसरोवर में मिल कर पानी में का ( पानी में घुला हुआ ) लवण हो गया है। अब [१] कह ( बतला ) [ तो सही कि ] कोटिक यत्न करने पर भी [ उसको उसमें से ] कौन निकाले ( निकाल सकता है ) ॥ प्रायः टीकाकारों ने 'मन' को कत और मोहन-रूप को अधिकरण मान कर अर्थ किया है। वह भी बुरा नहीं है। इस अर्थ मैं ‘मन’ को उकारांत, तथा 'मोहन-रूपु' को अकारांत मानना होगा । लग्यो सुमनु है है सफलु, आतैप-रोसु निवारि । बारी बारी अपनी सींचि सुहृदता-बारि ॥ १९ ॥ सुमनु=(१) सो मन । ( २ ) पुष्प ॥ सफलु =(१) प्राप्ताभीष्ट, प्राप्तकामना । ( २ ) फलयुत ॥ आतपरोसु ( तप-रोष )=(१) ताप देने वाला अर्थात् दुःख देने वाला रोष । (२) तप अर्थात् घाम का रोष अर्थात् तीक्ष्णता, प्रचंडता । बारी=( १ ) बालिका अर्थात् अनुभव-रहित स्त्री । ( २ ) माली, उद्यान का रक्षक । वाट का अर्थ उद्यान है । अतः वाटी का अर्थ उद्यान-संबंधी मनुष्य अर्थात् माली हुआ । इसी शब्द से, ‘ट' को 'र' आदेश हो कर, बारी शब्द बना है, जो कि इस समय एक जाति विशेष का वाचक है । इस समय बारियाँ का मुख्य काम पत्तल, दोना बनाना है । यह काम पहिले उपवन-रक्षक ही का था ॥ बारी =(१) पारी अर्थात् अपने यहाँ नायक के आने की पारी । (२) वाटिका ॥ सुहृदता=(१) मैत्री, प्रेम । (२) सात्म्य, उपयोगिता ।। बारि (वारि )=(१) वाक्, सरस्वती । यहाँ इसका अर्थ वचन लेना चाहिए। ( २ ) जल ।। सुहृदता-वारि=( १ ) मित्रता के वचन । ( २ ) सुहृदता का जल, सात्म अर्थात् सानुकूल जल अर्थात् ऐसा जल, जो बारी को यथेष्ट लाभदायी हो । जिस प्रकार सुहृदता के वारि (वचन) का अर्थ ऐसा वचन, जिसमें मित्रता की सरसता हो, होता है, उसी प्रकार सुहृदता के वारि ( जल ) का अर्थ ऐसा जल होता है, जिसमें सानुकूलता के गुण हों, अर्थात स्वच्छ, शीतल तथा मधुर जल, जो बारी के निमित्त हितकारी होता है ॥ वि, इस पूरे दोहे में श्लेष-बल से दो अर्थ रख कर, नायिका से उसके इष्ट की गुप्त बात, सखीद्वारा, माली तथा बहिरंगिनी सखिय के सामने ही, कहला देता है; पर उन लोगों का ध्यान, दूसरे ही अर्थ में उलझ कर, मुख्य अभिप्राय की ओर नहीं जाने पाता ॥ (अवतरण )-आज इस नायिका के घर नायक के पधारने की पारी है, पर अभी तक वह आया नहीं है। नायिका का मन उसी में लगा हुआ है, और विलंब के कारण कुछ रुष्ट सी हो कर वह, जी बहलाने के निमित्त, वाटिका में भ्रमण कर रही है, जहाँ माली तथा कुछ बहिरंगिनी सखियाँ भी उपस्थित हैं। इतने में उसकी अंतरंगिनी सखी, जे नायक के पास गई थी, आ कर यह दोहा ऐसी चातुरी से पड़ती है कि नायिका तो अपना इष्टार्थ समझ ले, पर माली तथा बहिरांगनी सखियाँ समझे कि वह यह वाक्य माली से कइ रही है। नायिका-प्रति तो वह यह कहती है १. सुफल (४,५ ) । २. शातपु-रोस ( १, २ ), तप-रोस (४,५ )। [ ५७ ]________________

विहारी-रत्नाकर | ( अर्थ १ )-हे बारी( भोली स्त्री), [तेरा]मन [जो ] लगा है, सो सफल (प्राप्ताभीष्ट) होगा । [ तु इस ] दुखदायी रोष को निवारित कर के अपनी बारी ( पारी ) सुहृदा (मैत्री) के वारि ( वाक्य ) से सींच ( सरस कर ) ।। पर अन्य व्यक्रिय की जान मैं व मःली से यह कहती है ( अर्थ २ )-हे यारी ( माली ), [ तेरी वाटिका में ] लगा हुआ सुमन ( फूल) सफल ( फलयुत ) होगा। [ तू ] अपनी वारी (वाटिका) सुहृदता के वारि ( सानुकूल जल ) से सींच कर घाम के रोप ( प्रचंड प्रभाव ) को निवारित कर ॥ हरिचरणदास ने लिखा है कि यह दोहा बिहारी का नहीं है। यह उनका शुद्ध भ्रम है। एक तो यह दोहा सर्व प्राचीन पस्त हूँ मैं तथा हरिचरणदास के पूर्व की टीका में मिलता है, और दूसरे ऐसी उच्च कोटि का है कि बिहारी के अतिरिक्त कोई बिरला ही इसका रचयिता हो सकता है। इसमें उन्हौंने जो क्रमभंग दोष बतलाया है, वह उनको अर्थ न समझने के कारण भासित हुआ है ॥ अज तस्यौना ही रह्यौ श्रुति सेवत ईक-रंगे । नाक-घास बेसरि लह्यौ बसि मुतनु कै संग ॥ २० ॥ अजाँ ( अद्यापि )= ग्राज तक भी, अब तक भी ॥ तस्यौना-यह शब्द श्लिष्ट है । इसका एक अर्थ अधावत है और दूसरा कर्ण-भूषण विशेष, जिसको तालपर्ण तथा ताटंक भी कहते हैं, शोर भाषा में उसी को तरकी कहते हैं । श्रुति=( १ ) वेद की श्रुति । ( २ ) कान ॥ इकरंग-एक रीति पर, अविच्छिन्न रूप से ।। नाक-बास= (१) स्वर्ग-निवास । (२) नासिका का निवास ।। बेसरि=( १ ) नासिका-भूषण विशेष । (२) वेसरी,खच्चरी, अर्थात् महा अधम प्राणी । वेसर संस्कृत में खच्चर को कहते हैं। उसी से वेसरी, स्त्रीलिंग रूप, बनता है । यहाँ यह रूप अत्यंत तिरस्कार तथा लघुता का व्यंजक है । लक्षणा शक्ति से 'बेसरि' का अर्थ यहाँ वेसरी-सदृश महा अधम प्राणी होता है ।। मुकुतनु =( १ ) जीवन-मुक्त सज्जनों । ( २ ) मुक्ताओं ॥ ( अवतरण )-इस दोहे मैं कवि बेसर का वर्णन करता हुआ रलेष-बत्न से सत्संग की प्रशंसा करता है। बेसर पक्ष मैं इस दोहे का अर्थ यह होता है ( अर्थ १ )-आज तक तस्यौना ( कर्ण-भूषण ) एक ढंग से (ज्यों का त्यों ) कानों का सेवन करता हुआ (अधोवर्ती अर्थात् अमुख्यस्थान-स्थित ) तस्यौना ही रहा, [और] खेसर ने मोतियों का संग पा कर नाक-बास ( १. नासिक का वास । २. उच्च पद) प्राप्त किया ॥ कान की स्थिति पाश्र्व भाग में होने के कारण कवि ने उसे अमुख्य स्थान मान कर तथौने को अमुख्यस्थान-स्थित वर्णित किया है, और नाक शब्द का अर्थ लक्षणा शक्ति से प्रधान, मुख्य, श्रेष्ठ इत्यादि लिया है। जैसे ऐसे वक्र्यों में होता है-यह देश सब देश की नाक है ॥' सत्संग पक्ष में इस दोहे का यह अर्थ होता है१. अज्य ( १, ४) । २. तना ( ५ ) । ३. ई ( १, ५ ) । ४. एक ( ४ ) । ५. अंग ( ५ ) । ६. बेशर (५) । ७. मुफ़न ( २ ), मुक्तनि ( ५ ) । [ ५८ ]________________

बिहारी-रत्नाकर ( अर्थ २)-अविच्छिन्न रूप से श्रुति (वेद) का सेवन करता हुआ [मनुष्य] आज तक भी तयौना ( अधोवर्ती ) ही [ बना ] रहा, [ और ! वेसरी (महा अधम प्राणी ) ने [ भी ] सुक्नों (जीवन-मुक्न सजनों ) के संग वस कर नाक-वास ( स्वर्ग निवास ) राप्त किया ॥ टीकाकारों ने, प्रायः सत्संगति-प्रशंसा के पक्ष में, ‘तस्यौनाह' का अर्थ 'तरा नहीं किया है। वह अथे भी इस प्रकार जग सकता है | एक रूप से श्रुति का सेवन करता हुआ [ मनुष्य ] अाज तक भी विना तर ही रहा, [ और ] बेसरी ( महा अधम प्राणी ) ने मुक़ ( जीवन-मुक़ सजन ) के संग चस कर स्वर्ग-निवास प्राप्त किया ॥ जम-करि-मुँह-तरहरि पखौ, इहिँ धरहरि चित लोउ।। विषय-तृषा परिहरि अर्जी नरहरि के गुन गाँउ ।। २१ ॥ तरहरि = नीचे ।। धरहरि= निश्चय ।। नरहरि=( १ ) नरसिंह भगवान् । ( २ ) कवि के दीक्षा-गुरु नरहरिदास । इनके विषय में विशेष जानने के लिये, भूमिका में, बिहारी की जीवनी द्रष्टव्य है ॥ ( अवतरण )—कवि की उक्कि अपने मन से ( अर्थ )-[१] यम-रूपी हाथी के मुंह के नीचे पड़ा हुआ है, इस निश्चय पर चित्त लगा, [ और ] अब भी विषय-तृष्णा छोड़ कर नरहरि के गुणों का गान कर ॥ पलनु पीक, अंजनु अधर, धरे महावरु भाल । आज मिले, सु भली करी; भले बने हौ लाल ॥ २२ ॥ महावरु- पहिली तथा दूसरी प्रतियों के अनुसार यह शब्द उकारांत ठहरता है, और चौथी तथा पाँचव प्रतियों के अनुसार अकारांत । हमने पहिली तथा दूसरी प्रतियों का अनुसरण कर के इसका उकारांत रक्खा है। 'आजु' ( अद्य )-अव्यय होने के कारण यद्यपि इस शब्द के उकारांत होने की कोई आवश्यकता नहीं है, पर व्रजभाषा के कवियों ने इसको प्रायः उकारांत ही लिखा है । सतसई में यह शब्द छः दोहों में आया है, और छवों स्थानों पर बिहारी ने इसको उकारांत ही लिखा है ॥ ( अवतरण )—प्रौढ़ा-धीरा-खंडिता नायिका की उक्ति नायक से ( अर्थ )-पलकों में [ पान का ] पीक, अधर पर अंजन, [ तथा ] भाल पर महावर धारण किए हुए (अर्थात् पलकों में अधर रँगने वाली वस्तु, अधर पर पलकों में देने वाली वस्तु एवं भाल पर पैरों में लगाने वाली वस्तु धारण किए हुए) आज [ जो तुम ] मिले हो, सो अच्छी बात की; [ वाहजी वाह !] अच्छे बने हो ॥ | इस दोहे मैं ‘भली' तथा 'भले' शब्द व्यंग्यात्मक हैं॥ १. तरिहरि ( १ ) । २. लाव (४) । ३. गाव ( ४ ) । ४. आज ( ५ )। [ ५९ ]________________

बिहारी-रत्नाकर लाज-गरब-आलस-उमग-भरे नैन मुसकात । राति-रमी रति देति कहि औरै प्रभा प्रभात ॥ २३ ॥ ( अवतरण )-प्रातःकाल सखी, नायिका के नेत्र की कुछ विलक्षण ही शोभा से रात्रि में रमी हुई रति के विधान को, अर्थात् विपरीत रति को, लक्षित कर के, कहती है ( अर्थ )-लाज, गर्व, आलस्य और उमंग से भरे हुए [ तेरे ] नेत्र मुसकिराते हैं, [ जिससे तेरी कुछ ] और ही [ प्रकार की बनी हुई ] शोभा रात्रि की रमी हुई रति [ के प्रकार को ] प्रातःकाले कहे देती है ( तेरा विपरीत रति का करना प्रकट किए देती है ) ॥ लज्जा, गर्व तथा आलस्य, उमंग, इन विरुद्ध भार्थों का संघट्टन, यही इस दोहे मैं विलक्षणता है । गर्व तथा उमंग से विपरीत रति लक्षित होती है, और लजा तथा आलस्य से प्रमाणित होता है कि उक्र गर्व तथा उमंग रति ही के कारण हैं ।


- --- पति रति की बतियाँ कहाँ, सखी लखी मुसकाइ ।

कै कै सबै टलाटलीं, अल चलीं सुख पाइ ।। २४ ।। टलाटल = टालमटोल, व्याज, मिष ।। ( अवतरण )-नायक और नायिका रंगमहल में बैठे विनोद कर रहे थे। वहाँ सखियाँ भी उपस्थित थी। उसी समय नायक ने बात ही बात मैं रति की इच्छा प्रकट की । नायिका ने यह सुन कर अपनी मुसकिराहट से प्रसन्नता लक्षित कराते हुए अंतरंगिनी सखी की ओर इस भाव से देखा कि अब उक्त कार्य का अवसर हो जाना चाहिए । यह लक्षित करके सब सखियाँ वहाँ से एक एक कर के, किसी न किसी मिप से, टलने लर्ग । सखी का वचन सखी से | ( अर्थ )-पति ने रति की बात कहाँ ( बातों में रति की इच्छा प्रकट की), [ जिसको सुन कर नायिका ने ] मुसकिरा कर [ अपनी मुख्य ] सखी को देखा । [ यह देख ] सव सखियाँ सुख पा कर, टलाटली ( अनेक प्रकार के व्याज ) कर कर के, [ वहाँ से ] चल ( हटने लग ) ॥ | सखी तथा अली ( अलि ) शब्द यद्यपि भाषा मैं प्रायः एक ही अर्थ मैं प्रयुक्त होते हैं, पर बिहारी ने इस दोहे मैं 'सखी' शब्द मैं ‘अली' की अपेक्षा कुछ मुख्यता रक्खी है ॥ तो पर वारौं उरबसी, सुनि, राधिके सुजान । तु मोहन कैं उर बसी है उरबसी-समान ॥ २५ ॥ उरवसी = उर्वशी अप्सरा । उरबसी = हृदय पर पहनने का भूषण विशेष ।। ( अवतरण )-राधिकाजी ने श्रीकृष्णचंद्र को अन्य-रत सुन कर मान किया है। सखी मान छुडाने के निमित्त कहती है १. मुसिकात ( १, २ ), मुसुक्यात ( ५ ) । २. देत ( ४, ५ ) । ३. मुसुकाइ ( ४ ) । ४. टलाटली (२, ४, ५) । ५. अली ( २, ४, ५ ) । ६. चली ( २, ४, ५)। [ ६० ]________________

बिहारी-रत्नाकर ( अर्थ )-हे प्रवीण राधे !सुन, [ तू तो ऐसी सुंदर है कि और की कौन कहे, इंद्र की अप्सरा] उर्वशी को [ भी ] में तुझ पर वार हूँ । तू [ तो मोहन के उर में उरबसी [ भूषण ] के समान हो कर बसी है [ फिर दूसरी उनके उर में कैसे बस सकती है ] ॥ कुच-गिरि चढ़ि, अति थकित है, चली डीठि मुँह-चाड़। फिरि न टर, पैरियै रही, गिरी चिबुक की गाड़ ॥ २६ ॥ चाड़=लालच । यह शब्द चाट का रूपांतर है; जैसे शाटी का साड़ी, कीट का कीड़ा इत्यादि । चिबुक = अधर के नीचे का भाग ॥ ( अवतरण )-नायिका की शोभा का निरीक्षण केरता हुआ तथा चिबुक के गहे पर अत्यंत रीझा हुआ नायक स्वगत कहता है ( अर्थ )-[ मेरी ] दृष्टि कुच-रूपी पहाड़ पर चढ़ कर, अति थकित (शोभा से मुग्ध) हो कर [ भी ], मुख की चाड़ ( बाट, लालच ) से [ उधर ] चली । [ पर ] चिबुक की गाड़ ( गर्त, गढ़े, खाड़ी ) में गिर गई, [ श्रीर] फिर [ वहाँ से, अत्यंत थकित होने के कारण, ] टली नहीं, [ वहीं ] पड़ी ही रही । बेधक अनियारे नयन, बेधत केरि न निषेधु । बरबट बेधतु मो हियौ तो नासा की बेधु ॥ २७ ॥ अनियारे=अनी वाले, नुकीले ।। निषेधु=वह कार्य जो अपने लिए वर्जित हो, अनुचित कार्य । बरबट ( बलवत् )= बल-पूर्वक, बरबस ।। वेधुछिद्र ।।। ( अवतरण )-नायिका के सर्वांग-सौंदर्य पर रीझा हुआ नायक कहता है ( अर्थ )-[तेरे ] नुकीले नयन [ तो ] वेधक [ है ही, अतः वे कोई ] निषेध (अपने निमित्त निषिद्ध अर्थात् वर्जित काम ) कर के [ मेरे हृदय को ] नहीं बैधत ( अर्थात् वे मेरा हृदय बेधने में कोई अपने कर्तव्य के विरुद्ध काम नहीं करते )। तेरा [ तो ] नासा को बेध [ भी, जो कि स्वयं बेधा हुआ है, और जिसका काम बंधना नहीं है ] बरबट (बर बस, अपने लिए अविहित काम कर के ) मेरे हृदय को बेधता है [ भावार्थ यह हुआ कि तेरे सब अंग की शोभा हृदय को बेधती है, यहाँ तक कि तेरी नासा का छिट्स भी ] ॥ लौनै मुहुँ दाँठि न लँगै, यौं कहि दीनौ ईठि।। दुनी है लागन लगी, दियँ दिठौना, दीठि ।। २८ ॥ दीठि = कुदृष्टि ।। दीनौ-इस शब्द को कवि लोग प्रायः दीन्यो अथवा दीन्यौ बोलते और लिखते हैं। पर हमारी प्राचीन पुस्तकों के अनुसार 'दीन' ही पाठ ठीक ठहरता है । ' तसई में और कहाँ यह शब्द १. दीठे ( १ ) । २. मुख ( २ ) । ३. अरीय ( ५ ) । ४. परी ( १, ४, ५ ) । ५. कर ( ४, ५)। ६. तीनै ( १ ), लॉने ( २, ३, ५ ), जौने (४) । ७. डीठि ( २, ४, ५)। . लगौ ( १ )। [ ६१ ]________________

१६ बिहारी-रत्नाकर नहीं आया है, अतः और दोहीं से इसके यथार्थ रूप का पता नहीं चलता । “लीनौ' शब्द अवश्य ४४३वें दोहे में आया है। उसका पाठ भी लीनौ' ही ठहरता है । इसलिए यहाँ ‘दीनौ' ही पाठ रक्खा गया है । ईठि–इष्ट शब्द से ईठ बनता है, जिसका अर्थ मित्र है । उसी का स्त्रीलिंग-रूप 'ईठि' है । इसका अर्थ हितकारिणी, अर्थात् सखी, है ।। दिठौना= काजल इत्यादि की काली टाकी, जो मुख पर इस अभिप्राय से लगा दी जाती है कि कुदृष्टि न लगे ।। ( अवतरण )-दिठौना के कारण नायिक! के मुख पर अधिक शोभा हो जाने का वर्णन नायक, परिहासात्मक वाक्य में, उससे करता है ( अर्थ )-[ तेरी ] सखी ने [ तो तुझे दिठौना ] यों कह कर ( यह विचार कर ) दिया [ कि तेरे ] सलोने ( लावण्यमय ) मुख पर दृष्टि ( कुदृष्टि ) न लगे, [ पर इस ] दिठौना देने से [ तो तेरे मुख की ऐसी शोभा बढ़ गई कि उस पर ] दृष्टि (आँख ) दूनी हो कर ( और भी अधिक ) लगने लगी ( जमने लगी ) ॥ चितवनि रूखे दृगनु की, हाँसी-बिनु मुसकानि । मानु जनायौ मानिनी, जानि लियौ पिय, जानि॥ २९ ॥ हाँसी-बिनु= विना किसी हँसी की बात की ।। ( अवतरण )-मानिनी नायिका की चेष्टा से उसके मान को समझ कर खिसियाए हुए नायक की व्यवस्था सखी सखी से कहती है ( अर्थ )-[ नायिका की ] रूख दृगों की चितवन, [ और नायक की ] विना किसी हँसी की बात ही की मुसकिराहट ( अर्थात् खिसियानपने की मुसकिराहट) से [१] समझ ले कि मानिनी ने [ तो ] मान जनाया, [ और ] प्रियतम ने [ उसका यह मान जनाना ] जान लिया ( समझ लिया ) ॥ | सब ही त्यौं समुहात छिनु, चलति सबनु है पीठि।। वाही त्यँ ठहराति यह, कविलनैवी लौं, दीठि ॥ ३० ॥ त्य = श्रोर ॥ समुहाति=सामने होती है । कविलनवी-- पाँचो प्राचीन पुस्तकों के अनुसार इस शब्द का पाठ यही अर्थात् 'कविलनवी' ठीक ठहरता है। बिहारी के सबसे पहिले टीकाकार मानसिंह ने इसका अर्थ यह लिखा है-“कविलनवी, कठपुतरी श्रीसीताजी की मूर्ति श्रीराम चित्र-पट मैं देखि पीठि फेरै । कृष्ण कवि का पाठ तो निश्चित रूप से नहीं ज्ञात होता, पर उन्होंने इस शब्द का अर्थ मंत्र की कटोरी' किया है। जब किसी की कोई वस्तु चोरी जाती है, तो उसका पता लगाने के लिए वे लोग, जिन पर संदेह होता है, मंडल बाँध कर बैठा दिए जाते हैं, और उनके बीच में एक कटोरी जल भर कर रख दी जाती है । तांत्रिक के मंत्र पदने पर वह कटोरी चलायमान होती है, और सबकी ओर जा जा कर लौट आती है । पर जो उनमें से चोर होता है, उसके सामने ठहर जाती है । यह क्रिया अब भी कोई कोई करते हैं । इसको कटोरी चलाना कहते हैं। १. मुसुकानि ( १ ) । २. सौं ( २ )। ३. कवलनबी ( ४ ), कवलनवी ( ५ )। [ ६२ ]________________

बिहारी-रत्नाकर कृष्ण कवि की अभिप्राय इसी कटोरी से है । यह शब्द और कहाँ देखने में नहीं आया, अतः इसके मूल रूप तथा अर्थ के विषय में निश्चय-पूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता । परंतु यह अर्थ यहाँ लगता बहुत अच्छा है। यदि कृष्ण कवि का अर्थ ठीक माना जाय, तो इसका 'कौल' शब्द से, जो कि एक तांत्रिक संप्रदाय का वाचक है, अथवा ‘कवल' शब्द से, जो कटोरा-वाचक है, किसी प्रकार बनना संभव है । प्रतीत होता है कि बिहारी के समय मैं भी यह शब्द, एक क्रिया विशेष से संबंध रखने के कारण, सर्वसाधारण में प्रचलित नहीं था । अतः कृष्ण कवि को तो यद्यपि इसका ठीक अर्थ ज्ञात था; किंतु अनवर-चंद्रिकाकारों को इस शब्द के अर्थ मैं भ्रम हुश्रा, और उन्होंने इसका पाठ ‘कविलनुमा' कर लिया । बाद को और टीकाकारों ने भी वैसा ही किया । फारसी भाषा में 'क्रिब्लःमा' दिक्प्रदर्शक यंत्र को कहते हैं । यह ‘कविलनुमा उसी 'क़िब्लःनुमा' का अपभ्रंश है। यद्यपि 'कविलनुमा' पाठ से भी इस दोहे का अर्थ अच्छा लग जाता है, तथापि यहाँ मंत्र की कटोरी का भाव विशेष संगत ज्ञात होता है । अतः हमने, अपनी प्राचीन पुस्तकों के अनुसार, 'कविलनवी' ही पाठ रख कर उसका अर्थ मंत्र की कटोरी किया है ॥ ( अवतरण )--परकीया नायिका की दृष्टि इधर-उधर से घूम फिर कर उपपति ही की ओर जा ठहरती है, जिससे सखी उसका प्रेम बक्षित कर के कहती है | ( अर्थ )-[ तेरी ] यह दृष्टि क्षण मात्र सभी की ओर समुहाती ( सामने जाती ) है, [ पर फिर ] सबको पीठ दे कर चलती है (सबकी ओर से लौट पड़ती है), [एक ] उसी [ नायक ] की ओर [ जा कर ] कविलनवी ( मंत्र की कटोरी ) की भाँति ठहरती है [ जिससे लक्षित होता है कि तेरा चितचोर वही है ] ॥ कौन भाँति रहिहै बिरदु अब देखिवी, मुरारि । बीधे मोसौं अइि कै गीधे गीधहिँ तारि ॥ ३१ ॥ बिरलु= प्रशस्ति, किसी उत्तम कार्य करने से प्रसिद्ध नाम ॥ देखिवी= देखने के योग्य है, देखना है ॥ बीधे= बिद्ध हुए, उलझे ॥ गीधे=ललचाए हुए, परचे हुए ॥ गीधहिँ = गिद्ध को, संपाति गिद्ध को । ( अवतरण )-कवि अथवा किसी भक्त का वचन भगवान् से ( अर्थ )-हे मुरारि ! अब देखना है [ कि अापका तारन-] विरद किस प्रकार रहेगा; [ क्योंकि आप एक सामान्य पापी ] गिद्ध ( संयाति ) को तार कर परचे हुए मुझ [महा पापी ] से आ उलझे हैं ।। कहत,नटत,रीझत,खिझतमिलत,खिलत,लजियत । भरे भौन मैं करेत हैं नैननु हाँ सँध बात ॥ ३२ ॥ मिलत= मेल कर लेते हैं ॥ खिलत= खिल उठते हैं, प्रसन्नता प्रकट करते हैं। ( अवतरण )-नायक और नायिका के चातुरी से, आँख की चेष्टा ही के द्वारा, हृदय के सब भी से परस्पर प्रकट कर देने का वर्णन सखी सखी से करती है . १. जानवी ( २ ), देखवी ( ४, ५) । २. प्रानि ( १ ) । ३. खिजत (४, ५ ) । ४. लजि जात ( २ )। ५. कहत ( १ ) । ६. स ( २ ) ।। [ ६३ ]________________

बिहारी-रत्नाकर | ( अर्थ )-[देखे, कैसी चातुरी से ये दोनों गुरुजन से भरे हुए भवन में आँखों ही में सब [ अपने अभीष्ट की ] बात कर लेते है ( अपने अभिप्राय परस्पर प्रकट कर देते हैं )। कभी कुछ | कहते ह, [कभी ] नटत हो ( निषेध करते हैं ), [कभी ]रीझते हैं, [कभी ] खीझत हो, [ कभी किर] मल कर लेते हैं, [कभर ] खिलते हं ( प्रफुल्लित होते हैं ), [ और कभी ] लजात हें ॥ अथवा पूर्वार्ध का अर्थ ये किया जाय-- | [ नायक कुछ ] कहता है ( रति की प्रार्थना करता है ), [जिस पर नायिका “मन में भावै, मुड़ी हिलावें न्याय स ] नटती है ( निषेध करती है )। [ नायक उसकी इस निषेध करने की चेष्टा पर ] रीझता है, [ तब नायिका उसकी रीझने की चेष्टा पर बनावट से ] खीझती है। फिर दोना ] मेल कर लेते हैं, जिस पर नायक, नायिका के चटपट खीझ छोड़ देने पर,]हँस देता है, [और नायिका उसके हँस देने पर ] लजित हो जाती है।


------ वाही की चित चटपटी, धरत अटपटे पाइ ।

लपट वुझावत विरह की कपट-भरेङ आइ ॥ ३३ ॥ चटपटी= उत्कट अभिलाषा के कारण कोई काम करने में यातुरता ॥ अटपटे = कहीं के कहीं, लड़खड़ाते हुए । लपट = ज्वाला ।। ( अवतरण )-उत्तम। खंडता की उक्रि नायक से ( अर्थ )-[जिसके यहाँ रात भर रहे हो.] उसी [ से फिर मिलने ] की [ तुम्हारे ] चित्त में [ तुरता है, [ इसी लिए तुम ] अटपटे पाँव रखते हो। [ पर तो भी मुझे कुछ दुःख नहीं है, क्याकि तुम ता] कप:-भरे भी आ कर [ मेरी ] विरह-ज्वाला बुझात हो [ तात्पर्य यह है कि सपत्नी का दुःख मुझे तुम्हारे दर्शन-सुख के आगे भूल जाता है ] ॥ लखि गुरुजन-बिच कमल सौं सीसु छुवायौ स्याम । हरि-सनमुख करि आरसी हियँ लगाई बाम ॥ ३४ ॥ ( अवतरण )-नायक और नायिका की चेष्टा सखी सखी से कहती है ( अर्थ १. ) -[ नायिका का ] गुरुजनों के बीच में देख कर श्याम ने [ अपना ] सिर कमल से छुचाया ( पाँव पड़ने की चेष्टा कर के अपना अनुराग प्रकट किया )। बाम (वामा अर्थात् नायिका ) ने [ वह भाव समझ कर अपनी ] आरसी, हरि ( नायक ) के सामने कर के, हृदय में लगा ली ( आरसी में नायक का प्रतिबिंव ले कर उसे हृदय में लगाने से यह सूचित किया कि म तुमको अपने हृदय में बसाती हैं)॥ अथवा य अर्थ किया जाय ( अर्थ २ ) [नायिका को] गुरुजनों के बीच में देख कर श्यामने [अपना] सिर कमल से छुपाया पाँव पड़ने की चेष्टा कर के मिलने की प्रार्थनासूचित की ) । बाम ( वामा अर्थात् १. भरे उर ( २ ) । २. छिरायो ( २ ) ।। [ ६४ ]________________

बिहारी-रत्नाकर नायिका ) ने [ वह भाव समझ कर अपनी] आरसी, हरि (सूर्य) के सामने कर के, हृदय मैं लगा ली ( आरसी में सूर्य का प्रतिबिंब ले कर कुच-रूपी पहाड़ों के बीच में लगाने से यह सूचित किया कि सूर्य के अस्ताचल में छिपने पर, अर्थात् रात्रि को, मिलेंगी ) ॥ पाइ महावर ने क नाइनि बैठी आइ । फिरि फिरि,जानि महावरी,एड़ी मीड़ेति जाइ ॥ ३५ ॥ | महावरी–महावर के गादे रंग में रुई को भली भाँति भिगो कर नाइने गोली मी बना लेती हैं, और पाँव में महावर लगाते समय वे इसे ही मल मल कर रंग निचोड़ती और लगाती जाती हैं। इसी रुई की गोली को महावरी ( महावर-वटी ) कहते हैं। मीड़ति जाइ=मलती जाती है, मसलती जाती है । | ( अवतरण )-सखियाँ नाइन का परिहास करती हुई नायिका की एड़ी की ललाई की आपस मैं प्रशंसा करती हैं ( अर्थ )-पाँव में महावर देने को नाइन आ कर बैठी । [ पर नायिका की एड़ी का रंग पेसा लाल है कि उसको उंसमें तथा महावर की गोली में कुछ भेद नहीं प्रतीत होता, अतः भ्रम के कारण वह ] एड़ी को फिर फिर, महावर की गोली समझ कर, मीड़ती जाती है ॥ तोह, निरमोही, लग्यौ मो ही ईंहैं सुभाउ । अन आधै नहीं, आएँ आवते, अउ ।। ३६ ॥ ( अवतरण )-उपपति नायक को नायिका की उलाहने से भरी हुई पच्ची ( अर्थ )-हे निरमोही, मेरा हृदय तुझी से इस स्वभाव ( रीति ) से लगा है। [ कि तेरे ] न आने से [ वह भी मेरे पास ] नहीं आता ( मेरा चित्त ठिकाने नहीं रहता ), [ और तेरे ] आने से आता है। ( अतः निवेदन है कि तू] ( पधार ) ॥ नेहु न नैननु क कछु उपजी बड़ी बलाई । नीर-भरे नितप्रति रहैं, तऊ न प्यास बुझाइ ॥ ३७॥ नेह ( स्नेह )-यह शब्द यहाँ श्लिष्ट है । इसके दो अर्थ प्रेम तथा तेल हैं। अतएव इसमें श्लेष-मूलक रूपक है, जिससे इसका अर्थ यहाँ प्रेम-रूपी तेल हुआ ॥ बलाइ ( फ़ा० बला )= विपत्ति, आपत्ति ॥ | ( अवतरण )-पूर्वानुरागिनी नायिका अपने नेत्रों की व्यवस्था अंतरंगिनी सखी से बहती है ( अर्थ )-[यह ] प्रेम-रूपी तेल नहीं है, [ प्रत्युस मेरे ] नयना के निमित्त कोई बड़ी बलाय उपजी है। [क्योंकि यद्यपि मेरे नयन ] नित्यप्रति मीर ( आँसू) से भरे हुए रहते हैं, तथापि [इनकी ] प्यास ( दर्शन की तृषा ) नहीं बुझती ॥ १. देन (४, ५) । २. मोजत ( ४ ) । ३. यहै ( १, २, ५ ), इहे ( ४ ) । ४. अनायौ ( १ )। ५. श्रावति (१, २, ५)। [ ६५ ]________________

२३ बिहारी-रत्नाकर शरीर-शुद्धि के निमित्त वैयक मैं जो पंचकर्म बतलाए गए हैं, उनमें एक स्नेहन भी है। इस रोगी को तेल अथवा घृत इत्यादि पिलाया जाता है। यदि स्नेह-पान मैं कुछ व्यतिक्रम पड़ जाता है, तो रोगी को बहुत तृषा लगती है। पानी से उसका पेट भर जाता है, पर तृषा बनी ही रहती है । इसी बात को नायिका ने अपने नेत्र पर घटा कर कहा है ॥ नहिँ परागु, नहिँ मधुर मधु, नहिँ बिकासु इहिँ काल । अली, कली ही स बँध्यौ, आमैं कौन हवाल ॥ ३८ ॥ बिकासु=खिलावट ॥ हवाल= दशा । यह अरबी शब्द हाल के बहुवचन अहवाल का अपभ्रंश है। ( अवतरण )-इस दोहे मैं, भ्रमर के व्याज से, कोई किसी मुग्धासक़ को शिक्षा देता है ( अर्थ )-न [ तो इसमें ] अभी पराग ( पुष्प-रज अर्थात् जवानी की रंगत ), न मधुर मधु (मीठा मकरंद अर्थात् सरसता), [ और] न विकास ( खिलावट अर्थात् यौवन के कारण अंगों में प्रफुल्लता ) [ ही ] है। हे भ्रमर, [ तू ऐसी कंज की ] कली ही से बँधा है। ( अपने सब कर्तव्य छोड़ कर उसी में लवलीन हो रहा है ), [ तो ] आगे [ चल कर जब उसमें पराग, मकरंद तथा विकास का आगमन होगा, तो फिर तेरी ] क्या दशा होगी ॥ लाल, तुम्हारे बिरह की अगनि अनूप, अपार । सरसै बरसैं नीर हूँ, झर हैं मिटै न झार ॥ ३९ ॥ अगनि = अग्नि । अनुप= जिसकी उपमा न हो, अद्भुत, विलक्षण ।। अपार= जिसका पार न पाया जाय, जो समाप्त न हो, बहुत ॥ सरसै = बढ़ती है ॥ झर-इस शब्द का अर्थ अन्य टीकाकारों ने मेघ का झड़ी बाँध कर लगातार बरसना किया है, पर यहाँ इसका यह अर्थ नहीं है। यहाँ इसका अर्थ है ताप अर्थात् ग्रीष्म का प्रचंड ताप अथवा लूछ । बिहारी ने इस शब्द का प्रयोग इस दोहे के अतिरिक्त और पाँच दोहों में छः बार किया है, जिनमें से तीन बार ( देखो दोहे ४०२, ५७०, ६४६ ) इसका प्रयोग पावक-लपट के अर्थ में हुआ है, एक बार ( देखो दोहा ६८ ) विरह-ताप के अर्थ में, और दो बार ( देखे। दोहे ४०२, ४८४ ) मेह की झड़ी के अर्थ में ॥ झार= जलन ।। ( अवतरण )-सखी अथवा दूसी नायक से नायिका का विरह निवेदन करती है| ( अर्थ )-हे लाल, तुम्हारे विरह की अग्नि विलक्षण [ तथा ] अपार है। [इसकी ] झार (जलन) नीर बरसने से भी बढ़ती है, [ और ] झर ( प्रीम के ताप ) से भी नहीं मिटती ॥ पानी से उसकी जलन का बदला तो विराग्नि की विलक्षणता है, और ताप से उसकी अलग का ५ मिटना उसकी अपारता । यदि कोई अंग थोड़ा बहुस जल जाता है, तो सँक देने से उसकी जबन मिट जाती है। पर पदि बहुत जख जाता है, तो सेंकने से कोई लाभ नहीं होता, प्रत्युत रानि ही होती है। १. अागि ( २ ), अगिनि ( ४ )। [ ६६ ]________________

बिहारी-रत्नाकर देह दुलहिया की बडै ज्यौं ज्यौं जोबन-जोति । त्य त्यौं लखि सौत्यै सबै बर्दैन मलिन दुति होति॥ ४० ॥ सौमैं = सौतों को । यह पद सौति शब्द के संग्रदानकारक का बहुवचन-रूप है ॥ ( अवतरण)-नवयौवना मुग्धा की सखियाँ आपस मैं सहर्ष कहती हैं ( अर्थ )-[ इस ] दुलहिन की देह में ज्यौं ज्यों यौवन की ज्योति बढ़ती है, त्यों यौं [ इसको ] देख कर [ इसकी ] सब ही सौतों को बदन में इति मलिन होती है। जगतु जनायौ जिहिँ सकलु, सो हरि जान्यौ नाँहि । ज्य आँखिनु सबु देखियै, आँखि न देखी जाँहि ॥ ४१ ।। जि=जिसके द्वारा ।। देखियै = देखा जाता है । ( अवतरण )-किसी आत्मज्ञानी की उक्ति स्वगत अथवा शिष्य से-- ( अर्थ )-जिस चिन्मय परमात्मा के द्वारा ( जिसके हृदय में स्थित होने के कारण ) सकल जगत् [ तुझसे ] जाना गया, वह हरि [ तूने ] नहीं जाना । जैसे आँखों के द्वारा सब [कुछ] देखा जाता है, [ पर ] आँखें [ स्वयं ] नहीं देखी जातीं ॥ ॐ सोरठा % मंगलु बिंदु सुरंगु, मुख ससि, केसरि-आड़ गुरु । इक नारी लहि संगु रसमय किय लोचन-जगत ॥ ४२ ॥ सुरंगु= सुंदर रंग वाला । यहाँ इसका अर्थ लाल है ॥ आड़ = अड़ा तिलक ॥ नारी—यह शब्द यहाँ श्लिष्ट है-( १ ) नारी, स्त्री । ( २ ) चंडा, समीरा इत्यादि सात नाड़ियों में से कोई नाड़ी । वर्षाज्ञान के निमित्त ज्योतिष में सात नाड़ियाँ मानी जाती हैं। इनमें से प्रत्येक की गति चार चार नक्षत्रों में सर्पाकार होता है । जब चंद्रमा, मंगल तथा बृहस्पति ग्रहों की स्थिति ऐसी होती है कि वे एक ही नाड़ी के चारों नक्षत्रों में से किसी पर होते हैं-चाहे चारों नक्षत्रों में से किसी एक ही पर, अथवा भिन्न भिन्न पर-- तो जगद्वथापिनी वृष्टि होती है, यथा--- एकनाड़ीसमारूढौ चंद्रमाधरणीसुतौ । यदि तत्र भवेज्जीवस्तदेकार्णविता मही ।। ( नरपतिजयचर्या, अध्याय ३, श्लो० २९ ) रस-यह शब्द भी श्लिष्ट है—( १ ) अनुराग, श्रृंगार-रस । ( २ ) जल । इसमें भी श्लिष्टपदमूलक रूपक है, और इसका अर्थ अनुराग-रूपी जल है ॥ किय–यह रूप कियौ के स्थान पर बिहारी ने २१२ संख्यक दोहे में भी प्रयुक्त किया है । अन्य कवियों तथा गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी इस अर्थ में इस रूप का प्रयोग बहुत किया है ॥ लोचन-जगत= लोचन-रूपी जगत् ।। | १. चदै ( १ ) । २. सोते ( ४ ), सोय ( ५ ) । ३. मलिन बदन, इति ( २ ) । ४. जगु ( २ ) । ५. केसर (४, ५ )। [ ६७ ]________________

विहारी-रत्नाकर ( अवतरण )-नायिका के मुख पर लाल बिंदु तथा केसर की पली आड़ देख कर नायक की आँखें अनुरागमय हो रही हैं। अपनी यही दशा वह स्वगत, अथवा नायिका की किसी अंतरंगिनी सखी से, कहता है | ( अर्थ )-लालबिंदु-रूपी मंगल, मुख-रूपी चंद्र, [एवं ] केसर की [ पीली ] आड़-रूपी बृहस्पति [इन तीनों ग्रहों ] को एक [ ही ] नारी (स्त्री-रूपी नाड़ी) ने साथ ही प्राप्त कर के [मेरे ] लोचन-रूपी जगत् को रसमय ( १. अनुरागमय । २. जलमय ) कर दिया। मंगल ग्रह का रंग लाल नथा बृस्पति का पीला माना जाता है, और मुख का उपमान चंद्र प्रसिद्ध ही है । दोहा पिय तिय सौं” हँसि कै कयौ, लखें दिठौना दीन । चंदमुग्वी, मुखचंदु हैं भैलौ चंद-समु कीने ॥ ४३ ।। भलो = पूर्ण रूप से, पूरा पूरा ।।। ( अवतरण )- सखी का वचन सखी से--- ( अ )- प्रियतम ने नायिका से, [ यह ] देखने पर [ कि उसने ] दिठौना दिया है, हँस कर कहा [ कि ] हे चंद्रमुखी, तूने [ अपने ] मुखचंद्र को [ इस दिठौने के द्वारा ] भला ( पूरा पूरा ) चंद्र के समान कर दिया। | कई टीकाकार ने अनेक शंका-समाधान कर के इस दोहे के अर्थ को बहुत घुमाया फिराया है। पर हमारी समझ में या अर्थ सीधा और कहर सी एड़ीनु की लाली देखि सुभाइ । पाइ महावरु देई को, आपु भई बे-पाइ ।। ४४ ॥ की हर ( कटुफल ) =इंद्रायन का फल ।। वे-पाइ = विना पांव की अर्थात् मति-पंगु, स्तब्ध ।। ( अवतरण )—सखी-सचन सखी से ( अर्थ )-इंद्रायन के फल सी एड़ियों की स्वाभाविक लाली देख कर [ नाइन ] स्वयं बेपाइ ( विना हाथपैर की अर्थात् मति-पंगु) हो गई । [ फिर भला ] पाँव में महावर [ दे, तो ] कौन दे ॥ खेलन सिखए, अलि, भलै चतुर अहेरी मार। कानन-चारी नैन-मृग नागर नरनु सिकार ।। ४५॥ भलै =भली भाँति । यहाँ इसका अर्थ बड़ी विलक्षणता से होता है । अहेरी=शिकारी ।। कामनचारी-( १ ) कान तक विचरने वाले अर्थात् दीर्घ । ( २ ) जंगल में विचरने वाले । प्राचीन परिपाटी तथा १. दीन्ह ( ४ ) । २. भले ( ४ ) । ३. कीन्ह ( ४ ) । ४. देन को ( ५ ) । [ ६८ ]________________

विहारी-रत्नाकर बिहारी की लेख-प्रणाली के अनुसार पहिले अर्थ के निमित्त 'कानन' शब्द को उकारांत, अर्थात् 'काननु', होना चाहिए । पर बिहारी के समय ही में ऐसे शब्दों को अकारांत लिखने की प्रथा प्रचलित हो चली थी, और यद्यपि बिहारी इस प्रथा का अनुकरण स्वतंत्रता-पूर्वक तो नहीं करते थे, पर इस दोहे में, श्लेष के निर्वाहार्थ, उन्होंने उक्त प्रचार से लाभ उठा कर, कान के बहुवचन काननु को भी अकारांत ही मान लिया, क्योंकि दूसरे अर्थ के निमित्त 'कामन-चारी' समस्त पद का ‘कानन' ( जंगल ) शब्द उकारांत नहीं हो सकता । श्लेषालंकार में ऐसे प्रयोगों का निर्वाह माना भी जाता है ।। ( अवतरण )-नायिका की अंतरंगिनी सखी उसके नेत्र-द्वारा नायक के घायल होने का वृत्तांत उससे, परिहासात्मक वाक्य मैं, कहती है । वह चातुरी से नायक का नाम नहीं लेती, प्रत्युत घायल होने वाले के निमित्त बहुवचन ‘नागर नरनु’ पद प्रयुक़ कर के सामान्यतः कहती है कि तेरे नेत्र से प्रवीण नरों का शिकार होता है। वह सोचती है कि यह सुन कर जब मायिका पूछेगी कि मेरे नै ने किसका शिकार किया है, तब नायक का नाम बतला देंगी | ( अर्थ ) हे अली ! कामदेव-रूपी चतुर अहेरी ने [ तेरे ]कानद-चारी ( कानों तक जाने वाले, वन-चारी ) नयन-रूपी मृगों को भली भाँति ( बड़ी विलक्षण रीति से) मगर निवासी ( सुधर ) नरों का शिकार करना सिखलाया है ॥ | मृर्गों का आखेट करना तो नगर-निवास न को सामान्यतः अहेरी सिखलाते ही हैं। पर कामदेव-रूपी अहेरी ने यह विलक्षण चातुरी की है कि कानन-चारी नयन-रूपी मृग को नगर-निवासी ( सुघर ) नरों का आखेट करना सिखलाया है। रससिँगार-मंजनु किए, कंजनु भंजनु वैन । अंजनु रंजनु हूँ थिना खंजनु गंजनु, नैन ॥ ४६॥ रससिँगार-मंजनु किए= श्रृंगार-रसोचित हाव, भाव, कटाक्षादि में निमग्न, अथवा उनको माँजे हुए अर्थात् उनमें दक्ष ॥ कंजनु= कंजों को ।। भेजनुमान-भंग, पराजय ॥ अंजनु रंजनु हैं बिना= अंजन रँगने ( लगाने ) के विना भी ॥ खंजनु-भाषा में खंजन तथा खंज, दोनों रूप खंजन के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं । 'खंजनु' पद यहाँ खंज शब्द का बहुवचन है । इसके पश्चात् के संप्रदानार्थक क का लोप है, अतः यह पद यहाँ संप्रदानकारक-वत् प्रयुक्त हुआ है । इसका अर्थ यहाँ खंजों को होता है । गंजनु= तिरस्कार । यह पद यहाँ कर्मकारक-रूप से प्रयुक्त हुआ है । इसके पश्चात् 'दैन’ को अध्याहार होता है, और उसी “दैन' पद का यह कर्म है । ( अवतरण )-नायिका के नेत्र की प्रशंसा नायक अथवा सखी-द्वारा ( अर्थ )-शृंगार-रस में मज्जन किए हुए (शृंगार-रसोचित हाव, भाव, कटाक्षादि से परिष्कृत-पानी दिए हुए, अथवा उनमें निमग्न ) [ये तेरे ] नयन [अपनी स्वच्छता से] कंजों को [ जो कि सदैव जल में मञ्जित रहने के कारण स्वच्छ रहते हैं ] भंजन ( मानमर्दन, पराजय ) देने वाले हैं, [ और अपनी स्वाभाविक श्यामता से ] अंजन लगाने के विना भी बंजों को तिरस्कार [ देने वाले ]॥ [ ६९ ]________________

२६ बिहारी-रत्नाकर साजे मोहन-मोह कौं, मोहीं करत कुचैन । कहा करौं, उलटे परे टोने लोने नैन ।। ४७ ॥ साजे = किसी कार्य विशेष के उपयुक्त बनाए । कुचैन = विकल ।। टोने =जादू । विशेषतः दृष्टिद्वारा किसी पर प्रभाव डालने की क्रिया, अथवा उस डाले हुए प्रभाव, को टोना कहते हैं । लोने= लुनाए हुए, लवण दिए हुए, लवण-द्वारा तुष्ट किए हुए, नायक के लावण्य-द्वारा उसके पक्ष में किए हुए । जब किसी पर टोने अथवा कुदृष्टि का प्रभाव प्रतीत होता है, तो लवण शोर राई अथवा केवल लवण उस पर से वार कर टोने के निमित्त फेंक अथवा अग्नि में डाल दिया जाता है । इस क्रिया को स्त्रियां राई-नोन करना अथवा लोनाना | इस लोनाने से टोना लोट जाता है, ग्रोर जो प्रभाव टोना करने वाला किसी पर डालना चाहता है, वही स्वयं करने वाले पर, उसकी ग्रोर से, पड़ जाता है । यही टोने का उलटना कहलाता है ॥ ( अवतरण ) -पुर्वानुरागिनी नायिका का वचन अंतरंगिनो सखी से-- ( अर्थ )-[मं ने तो अपने नयन ] मोहन के मोहने को [ उपयुक्त उपस्करणों, अंजन, तिलाछ आदि, से] सुसज्जित किए, [पर ये तो मोहन को मोहने के पलटे] मुझी को [मोहन पर मोहित कर के ] विकल किए डालते हैं। [ अब मैं ] क्या करू, [ मोहन के लावण्य से] लोने हुए (लोनाए जा कर) [ मेरे ] नयन उलटे टोने [ हो कर मुझी पर ] पड़े ॥ याकै उर औरै कछु लगी बिरह की लाइ । | पजरै नीर गुलाब कैं, पिय की बात बुझाइ ॥ ४८ ॥ औरै कळू=कुछ विलक्षण प्रकार की ।। लाइ = लवर, अग्नि । पजरै= प्रज्वलित होती है । वात= (1) वार्ता । (२) वायु ।। ( अवतरण )-विरहिनो नायिका की व्यवस्था सखियाँ प्रापस मैं कहती हैं ( अर्थ )-इसके हृदय में विरह की कुछ विलक्षण आग लगी है, [ जो ] गुलाव-जल [ छिड़कने ] से [ ते ] प्रज्वलित होती है, [ और ] प्रियतम की वात ( चर्चा-रूपी वायु ) से बुझती है ॥ विलक्षणता यह है कि सामान्य अग्नि तो जल से बुझती र वायु से प्रज्वलित होती है, पर यह अग्नि जल से प्रज्वलित होनी एवं वात ( वायु ) से तुझती है ॥ - कहा लेगे खेल दें, तजौ अटपटी बात । नैंक हँसही हैं भई मैं हैं, सॉहैं खात ॥ ४९ ॥ खेल १-१' यहां करणकारकार्थक है । 'खेल पें' का अर्थ खेल से होता है । अटपटी = कुढंगी । ( अवतरण ) -नायिका ने मान किया था । सखी बड़ी कठिनता से, शपथ खा खा कर, उसको कुछ दंग पर जा रही थी । इतने मैं मायक ने उसी स्त्री का नाम ले लिया, जिसकी ईर्षा से मान हुआ। था । सखी, यह सोच कर कि कहीं मान फिर न बढ़ जाय, वो वाक्यचातुरी से, नायक के उस नाम १. करी ( २ ) । २. टौने ( २, ५ ) । ३. लौने ( २, ५)। [ ७० ]________________

बिहारी-रत्नाकर लेने को उसका खिलवाड़ ठहरा कर, इधर तो नायिका के रोष को उभरने नहीं देती और उधर नायक को सचेत करती है (अर्थ)-[ तुम ] खेल से क्या लोगे ( इस खेल में क्या पाओगे ) ! [ यह ] कुढंगी बात ( अर्थात् खिलवाड़ के निमित्त अन्य स्त्री का नाम ले कर नायिका को चिढ़ाना ) छोड़ दो । [ देखो, बड़ी कठिनता से, ] शपथ खाते खाते [ नायिका की सरोष ] भैहैं कुछ हँसौं हाँ ( हास्योन्मुखी ) हुई हैं [ ऐसा न हो कि वे कहाँ फिर चढ़ जायँ ] ॥ । इस दोहे की व्याख्या श्रीयुत पंडित पद्मसिंजा शर्मा ने बहुत अच्छी की है। नायक के अन्य स्त्री का नाम लेने का एक कारण यह भी हो सकता है कि उसे नायिका की मान-चेष्टा बहुत अच्छी लगी, अतः वह फिर वही चेष्टा देखने के निमित्त, खिलवाड़ मैं, अन्य स्त्री का नाम ले कर उसको रुष्ट करना चाहता है । इस प्रकार का भाव इस कवित्त मैं भी है-“घरी द्वैक परम सुजान पिय प्यारी रीझि मान न मनायौ, मानिनी को मान देखि रह्यौ ।' डोरी सारी नील की ओट अचूक, चुकें न । मो मन-भृगु करबर गहें अहे ! अहेरी नैन ॥ ५० ॥ डारी= वृक्ष की पतली साखा, टहनी ॥ नील की =नीली । करबर ( कर्वर )= चीते । इस शब्द में सारोपा लक्षणा है । यहाँ वर्षमान नयन की अप्रकृत कर्वर के साथ तादात्म प्रतीति है ॥ अहे—इस शब्द का प्रयोग किसी को संबोधित करने में होता है, विशेषतः आश्चर्य से संबोधित करने में ॥ ( अवतरण )-नायक-वचन नायिका से ( अर्थ )-हे [ प्यारी, तेरे ] कर्वर ( चीते ) [ अर्थात् ] अहेरी नयन नीली साड़ीरूपी डारी ( डाल-पत्तों ) की अचूक ( कभी व्यर्थ न होने वाली ) श्रओट में मेरे मन-रूपी मृग को पकड़ लेते हैं, चुकते नहीं ॥ चीता जब मृग को पकड़ना चाहता है, तो डाल-पत्त तथा झाड़ियाँ की ओट मैं छिप छिप कर उसके अत्यंत समीप पहुँच जाता है, और फिर एकाएकी झपट कर उसको छोप लेता है। दीरघ साँस न लेहि दुख, सुख साई हिँ न भूलि । दई दई क्यौं करैतु है, दुई दई सु कबूलि ।। ५१ ॥ दरिघ साँस= लंबी साँस, जैसी दुःख में मनुष्य लेता है । साईं हिं= स्वामी को ।। कबूलि = अंगीकृत कर ॥ | ( अवतरण )-किसी विपत्ति-ग्रस्त को उसका गुरु अथवा कोई मित्र धैर्य देता है ( अर्थ )-[तु इस विपत्ति में ] दई दई ( हा दैव ! हा दैव!) क्यों कर रहा है, [जो विपत्ति] देव ने दी है, उसको [ धैर्य धर कर] अंगीकृत कर ( अर्थात् सहन कर )। [१] दुःख में लंबी साँस न ले, [ और ] सुख में स्वामी को न भूल ॥ १. सारी-डारी ( २, ४) । २. साईं नहिं ( २, ४) । ३. करत ( ४ ) । [ ७१ ]________________

२० बिहारी-रत्नाकर वैठि रही अति सघन बन, पैठि सदन-तन मॉहै । देखि दुपहरी जेठ की छाँह चाहति छाँह ॥ ५२ ॥ सदन-तन= घर का पिंड ॥ ( अवतरण )-स्वयंदूतिका नायिका का वचन नायक से ( अर्थ )-[ ऐसी प्रचंड घाम के समय तुम कहाँ जा रहे हो? आओ, इस घर में धाम का निवारण कर लो । देखो, ] जेठ की दुपहरी देख कर छाया भी छाया (आच्छादन) [ के नीचे छिपना ] चाहती है। [ वह इस समय ] अति सघन वन में बैठ रही है (विश्राम ले रही है ), [ अथवा ] घर के तन (पिंड ) के भीतर पैठ रही है ( घुस रही है, अर्थात् बृक्षों के घेर की मिति के तथा घरों की भित्तियों के बाहर नहीं दिखलाई देती ) ॥ जेठ के दिन मैं मध्याह्न के समय सृर्य ठीक सिर पर आ जाता है, अतः वृक्ष की छाया उनके घेरे के बाहर नहीं आती, और घरों की छाया भी छत के नीचे ही रहती है, भित्तिर्यों के बाहर नहीं पड़ती ॥ हा हा ! बदनु उघारि, दृग सर्फल कैरै सबु कोईं। रोज सरोजनु नैं परै, हँसी ससी की होई ॥ ५३॥ हा हा !—यह ब्रजभाषा में किसी को सविनय संबोधन करने में प्रयुक्त होता है ॥ वदनु ( वदन )= मुख । यहाँ इसका अर्थ मुख-रूपी चंद्र है ॥ रोज ( फारसी रोज ) = दिन । उर्दू में रोज़ पड़ना एवं भाषा में दिन पड़ना विपत्ति तथा काठिन्य पड़ने के अर्थ में बोला जाता हैं ॥ सरोजनु कै = कमलों के निमित्त | सरोज शब्द का अर्थ यहाँ गौणी साध्यवसाना लक्षणा से नयन-रूपी सरोज होता है । ससी ( शशि ) = चंद्रमा । ‘ससी' को अर्थ भी यहां गौणी साध्यवसाना लक्षणा से मुख-रूपी शशि होता है ।। ( अवतरण )-खंडिता नायिका ने नायक को देख कर, अपनी उदासीनता प्रकट करने के लिये, पूँघट काढ़ लिया है। सखी, यह सोच कर कि चार अखें हाँ तो शील से मान छूट ज अाँखें हाँ तो शील से मान छूट जाय, उससे पूँघट हटाने की प्रार्थना करती है । वह उसी प्रार्थना-वाक्य मैं, चातुरी से, नायिका के प्रभाव तथा सौंदर्य की प्रशंसा भी, उसकी प्रसन्नता के निमित्त, करती है, और अपनी प्रार्थना का निमित्त अपनी मंडली की सखिर्यों के नेत्र के सफल, नायक को सजित एवं सपत्नी को उपहास-पात्री बनाने की अभिलाषा ठहराती है ( अर्थ )—हा हा ! [ सखी, पूँघट हटा कर अपना ] मुख खोल, [ जिसमें हम ] सब [ सखी ] जन [ अपने ] डग सफल करें ( तेरे मुख का सौंदर्य, अपने पति पर तेरा प्रभाव एवं तेरी सपत्नी के सौंदर्य का उपहास देख कर हम सब आँखें पाने का फल पावें),[ नायक के ] नेत्र-रूपी सरोजों पर काठिन्य पड़े (वे तुझे सरोष देख कर झेप जायँ), [ और उसकी दृष्टि में तेरी सपत्नी के ] मुख-रूपी चंद्र की हँसी हो ( अर्थात् वह उपहास-पात्र जान पड़ने लगे ) ॥ । कई एक टीकाकारों ने, इस दोहे का कुछ और ही अर्थ समझ कर, अनेक शंकाएँ तथा उनका समा१. मन ( २ ) । २. माँहि ( २, ५ )। ३. छाँहि ( २, ५ ) । ४. सुफल (४) । ५. करौ ( १, ४)। ६. कोउ (१)। ७. परौ (१)। प. होउ (१) ।। [ ७२ ]बिहारीरवाकर २ वाम करने के स्य प्रयास किए हैं। पर अपर जो अर्थ लिखा गया है, उसमें न किसी शंका का अवसर है, और न समाधान की आवश्यकता ॥ -858 होमति मुखकरि कामना तुमतेिं मिलन की, लाल । उबालमुखी सी जरति लखि लगनिअगनि की ज्वाल ॥ ५४ ॥ हमति = हवन करती है, आहुती देती है ॥ ज्वालमुखी = ज्वालामुखी ॥ लगनि = चित्त की लगावट, अनुराग ॥ अगनि = अग्नि ॥ ( अवतरण )—पूर्वानुरागिनी नायिका की सखी अथवा दूती नायक से विरह निवेदन करती है ( अर्थ )हे लाल[इ] अनुरागरूपी अग्नि की ज्वालामुखी सी ज्वाला को प्रज्वलित देख करतुमसे मिलने की कामना कर के, [अपने ] पुख को [उस ज्वाला में होमती है । ज्वालामुखी में लोग अनेक प्रन कार की कामनाएँ कर के तमोत्तम शाकल्य की आहुतियाँ देते हैं। सार्यक कसम सार्थक नयन, रग विविध रग गात । झखौ बिलवि कॅरि जात जल) लाकि जनजात लजात ॥ ५५ ॥ सायक—इस शब्द का अर्थ अन्य टीकाकारों ने बाण किया है । पर बाण से झष के छिपने तथा जलजात के संकुचित होने का वर्णन विशेष संगत नहीं है, और न बाण के तीन रंग ही प्रसिद्ध हैं। हमारी समझ में यहाँ सायक का अर्थ सायंकाल करना उचित है। । 'साय' शब्द का अर्थ सायंकाल होता है । 'सायक' शब्द को उसी में स्वार्थिक ‘क’ लग कर बना हुया समझना चाहिए। अथवा 'सायक' शब्द को शायक का अपभ्रंश रूप मान कर उसका अर्थ सुलाने वाला समयअर्थात् सायंकाल, करना चाहिए । कवि सायंकाल की लाली से नेत्रों की लाली की उपमा देते भी हैं। स्वयं बिहारी में भी ४१० अंक के दोहे में ऐसा किया है । मायक = माया करने वाले नेत्रों के पक्ष में इसका अर्थ अनेक प्रकार के हावभावादि करने वाले, और सायंकाल के पक्ष में अनेक प्रकार के रंग बदलने में निपुण होता है । सायंकाल को 'मायक' इस कारण भी कहा जा सकता है कि उस समय मायावी जन माया विशेषतः फैलाते हैं, और वह समय सुहवना भी होता है । निबिध ढंग = तीन प्रकार के रंग अर्थात् श्वेत, श्याम एवं अरुण । नेत्रों में यह तीनों रंग वर्णित होते हैं, और सायंकाल के समय भी ये तीनों रंग आकाश में दिखलाई देते हैं ॥ अखौ = झाष भी ॥ बिलाल = दुखी हो कर ॥ दुरि जात जल = जल में छिप जाते हैं। मछलियाँ दिन को आहार की खोज में इधर उधर विचरती और जलतल पर आती जाती रहती हैं, पर सायंकाल को जल के भीतर पृवी परआश्रय लेती हैं. खजात = संकुचित होते हैं। संध्या समय कमल का संकुचित होना प्रसिद्ध ही है । ( श्रवतरण ) —बूती नायिका को किसी जलाशय के तट पर, संकेतस्थल में, बैठा कर और नायक के पास जा कर, उससे नायिका के नेन्नों की प्रशसा करती हुई, उसके उक्त स्थान में स्थित होने का प्रांत व्यंजित करती है ( अर्थ ): -सायंकाल के समान मायावी, [ तथा ] तीन रंगों से रंगे हुए गाव वाले १: साहुक ( १ ) । २. पाइक ( 4 ), नायक (५)। ३ जल जात दुरि (२ ) । [ ७३ ][ उसके ] नेत्र देख कर [ उस जलाशय के ] कमल लजाते हैं,f और ] झष भी दुखित हो कर जल में छिप जाते हैं । मरी डरी कि टरी बिथा, कंहा बरी, चलि चाहि । रही करहि करहि आति, अब ठंह आदि न आाहि ॥ ५६ ॥ कराहि कराहि दुःखाधिक्य से हाय हाय कर के ॥ ( अवतरण ) -प्रोपितपतिका नायिका की ज इता-दशा का वर्णन सखी सखी से करती है ( अर्थ )-[ हे सखीतू यहाँ ] खड़ी क्या कर रही है, चल कर देख [ तो कि वह ] मरी पड़ी है अथवा [ उसकी ] व्यथा टल गई है । [ वह ] बहुत कराह कराह कर [ एका एकी ]रह गई ( चुप हो गई )। अब L तो उसके ] मुह में आह [ भी ] नहीं है । कहा भयौ, जौ बीबुरे, मों मनु तोमनसाथ । उड़ी जाँड कित हूँ, तऊ गुड़ी उड़ाईक-हाथ ॥ ५७ ॥ गुड़ी मुडी, पतंग ॥ उड़ाइक = उड़ाने वाला ॥ ( अवतरण )- गणिका नायिका गाने बजाने के लिए कई परदेश गई है । वहाँ से अपने प्रेमी वैशिक नायक को उसने पत्र मैं यह दोहा लिखा है ( अर्थ ) यदि [ हम लोग इस समय ] बिछुड़े हैं, तो क्या हु आ [कोई विशेष चिंता तथा घबराने की बात नहीं है, क्यों कि ] मेरा मन [ तो ] आपके मन के साथ [ धंधा हुआ ] है । [ जय श्रापका मन चाहे, मुझे आकर्षित कर सकता है, जैसे ] ड्री ( पतंग ) किसी ओर ( चाहे कहीं) उड़ती हुई चली जाय, तो भी [ वह ] उड़ाने वाले के हाथ में है ( वश में रहती है ) ॥ ¥€ 53 - लवि, लोने लोन के कोइ, होइ न था । कौतु गरीब निवाजिबौ, कित तूयौ रतिराज ॥ ५८ ॥ लोने= लावण्ययुत ॥ लोइनउ = लोचन. ॥ कोइनु= कोयाँ से । ऑाँख की श्याम पुतली के दोनों ओर जो श्वेत भाग होते हैं, वे रुख के कोए कहलाते हैं ॥ गरीख (ग़रीब )-यह शब्द अरबी माषा का है । इसका अर्थ नयाग्रात इत्यादि है । फ़ारसी तथा उर्दू में यह शब्द निर्धन तथा वश-हीन के अर्थ में प्रयुक्त होता है । इसी अर्थ में बिहारी ने भी इसको, इस दोहे में, लिखा है ॥ निवाजिबौ– निवाज़ शब्द फारसी का है, जिसका अर्थ कृपा करना, पालना है । उसी से निवाजिब बना लिया गया है ॥ तूठयौ= तुष्ट हुआ है । रतिराजु = कामदेव ॥ होइनलखि’ का श्रन्वय 'होद' रो है । 'लखि होई' का अर्थ है लक्षित होता है, देख पड़ता है । १. खरी कहा (२)। २. मुख (२, ४ )। ३. जाहु ( २ ), जात (४ )। ४. कितऊ (५)।५. गुट्टो तहूं । २)। ६ . उझाथ ( ५ ) । ७. लोयन ( ४ ) । [ ७४ ]बिहारीरताकर ३१ ( अबतरण )कुलटा नायिता के कोयाँ मैं कामदेव की झलक तथा उपपति से मिलने का चाव लक्षित कर के सखी परिहासपूर्वक कहती है ( अर्थ ) आज [ तेरे] लोने लोचनों के कोयों से [ यद्यपि नायक से मिलने का चाव तो प्रकट होता है, पर यह ] नह" लक्षित होता कि किस बेचारे ( दया पात्र ) पर तु' कृषा करनी है, [ और किस पर कामदेव प्रसन्न हुआ है । - ‘8-8 सीतलता मुबास कौ घंटे में महिमामूरु। पीनस वाऐं जौ तज्य सो जानि कपूरु ॥ ५६ ॥ मूरु ( मूल )=जड़, मूलधन ॥ पीनस वारें =पीनस रोग वाले ने । पीनस एक नासारोग विशेष है, जिससे रोगी को गंध का अनुभव होना रुक जाता है ॥ सोरा ( शोरा ) : भट्टी में से निकाला हुया एक खारा पदार्थ ॥ ( अवतरण /कवि की प्रास्ताविक उकि है कि गुण के न जानने वाले के निरादर से गुण्णी के गुण की महिमा नहीं घटती ( अर्थ ) यदि पीनस रोग वाले ने कपूर को शोरा समझ कर तज दिया है ( प्रहण नहीं किया है ), [ तो उसकी ] सीतलता और सुगंध की महिमा का मूल नक्ष घटता ॥ काँगद पर लिखत न बनत, कहत संद लजात। कहिहै सडु ते हिय मेरे हिय की बात ॥ ६० ॥ ( अवतरण ) प्रोषितबंतिका नायिका ने पत्र में अपने विरह का कुछ वृत्तांत निवेदित कर के, यह बात जताने के लिए के जो कुछ लिखा गया है, उससे विरहवयथा की पूर्ण व्यवस्था विदित नहीं हो सकती, अंत मैं यह दोहा लिख दिया ( अर्थ )-[ कंप, स्वेद, आभू इत्यादि के कारण ] काग़ज़ पर [ तो विरहवृत्तांत ] लिखते नहीं बनता[ और ] संदेश [ रूप से उस वृत्तांत को ] कहते ( अर्थात् किसी को दूतरूप से तेरे पास भेजने के निमित्त उससे अपनी मार्मिक दशा कहते ) [ हृदय ] लजाता है। [ अतः में यही लिख कर संतोष करती हूं कि यदि तू विचार करेगा, तो ] तेरा हृदय मेरे हृदय की सब बातें" [ तुझसे ] कह देगा ( अर्थात् अपने हृदय की व्यथा से तुझको मेरे हृदय की सच्ची दशा का अनुमान हो जायगा ) ॥ --28 बंधु भए का दीन के) को तारथौ, रघुराइ । तूठे तूठे फिरत हौ झूठे बिरद कह ॥ ६१ ॥ ( अवतरण )-—भ का वक्र वचन भगवान् से १ की ६५)। २. ज्य (२ )। ३: कागर (१)।४. बनै (४, ५ ) ५. जूठे (२ )। ६ जुलाई (२ )। [ ७५ ]विशारीरवाकर ( अर्थ )–हे रघुरारू ( रघुकुलतिलक रामचंद्र ), [ तुम ] किस दीन के बंधु हुए[ और तुमने किस [ पतित] T तागरा । [ दीनबंधु तथा पतिततारणये ] ठे झूठे विरद कहला कर [ तुम ] तूठे तूठे ( प्रसन्न हुए ) फिरते हो ॥ अभिप्राय यह है कि जिनके आप बंधे हुए, वे वास्तव में दीन और दुखी नहीं थे, पूरा दीन दुखी तो मैं हूँ, तथा जिन को आपने तारा, वे पूर्ण पतित नहीं थे, सच्चा पतित सो में हैं। अतः ऐसे लोगौं के बंधु हो कर दीन-तथा ऐसे लोगौं को तार कर पतिततारण कहलाना, और ऐसे कार्यों पर इन विर से तुष्ट होना तो झूठी प्रशंसा से फूल उटन के समान है । सच तो यह है कि ये विरद आप पर तब फलेंजब आप मुझ मढ़ा दीन के बंधु बचें और मुझ घोर पापी को ताएँ ॥ जब जय वे सृषि कीजिये, तर्ष त .सय पुधि जाँदि । ऑखिड ऑविख लगी रेहैं, आँखें लागति नहि ॥ ६२ ॥ वे =वे नाश्क ॥ सुधि कीजिये स्मरण किए जाते हैं ॥ सुधि= चेतनाएँ ॥ ( अवतरण )—वियोगिनी नायिका अपनी दशा सखी से कहती है। ( अर्थ ) जय जब वे [ नायक ] स्मरण किए जाते हैं, तब तब सब चेतनाएँ जाती रहती हैं । [ उनकी ] आँखों [ के ध्यान ] में [ मेरे हृदय की ] औनें लगी रह जाती हैं। [ और ] आंखें नहीं लगत" ( नींद नहींआती )॥ यह विरही नायक का वचन स्वगत अथवा अपने अंतरंग सख से भी हो सकता है ॥ -08 कौन सुनेकास कहीं, सुरति बिसारी नाह । बदायदी ज़्यौ लेत हैं ऐ बदरा बदराह ॥ ६३ ॥ बदाबदी= कह बद कर, खुख मखुल्ला ॥ बदाह—यह फ़ारसी का समस्त पद है । इसका अर्थ कुमारी गामी, दुर्भुत , गदमआशरा है। यहाँ इसका अर्थ डाकू है । ( घबतरण )—प्रोषित पतिका नायिका का वचन सखी से- ( अर्थ ) [ हे सस्त्री, ] नाह ( नाथ, प्राणनाथ ) ने [ तो अपनी थाती अर्थात् मेरे प्राण ] की सुरति ( स्मृति ) विस्त कर दी, [ और ] ये बदराह बालूल बाबदी [ बेहद ] प्राण [ लटे] लेते हैं । [ ऐसी दशा में उस थाती को बचाने के लिए में ] किसे पुकारें [ और उसका स्वामी तो यहाँ है ही नहींअतएव मेरी पुकार ] कौन सुने ॥ --83-- मैं हो जान्यौ, लोइन जुरत बाड़िहै जोति । को हो जान’ दीटि’ कीं दीटि किरकिटी होति ॥ ६५ ॥ किरकिटी किरकरीजो आँख में पड़ कर पीड़ा देती है । • त सनै (२ )। २. रहै (१)। वे जिग (४ ) ४. ये (४)।५. डीतुि (२ )1 ई. करण्टी (५)। [ ७६ ]बिहारीराकर ( अवतरण ) -पूर्वानुर।ग में नायक अथवा नायिका का वचन स्वगत अथवा सखा या सखी से ( अर्थ )मैंने [ तो ] जाना था कि गाँवों के मिलने से ( दो और दो चार हो जाने से ) ज्योति बढ़ेगी ( प्रसन्नता होगी )। [ यह ] कौन जानता था [ कि ] दृष्टि के निमित्त दृष्टि किरकिटी हो जाती है ( अर्थात् मैं ने तो समझा था कि उसके देखने से आनंद होगा, पर आंख से आंख लग जाने से अब तो दुःख से आंसू बहा करता है, जैसे किर- किटी पड़ जाने से आंखों से पानी बहता है )॥ गहकि, गाँछ औरै गहे, रहे अधकहे बैन । देखि खिसाँ हैं fपेय-नयन किए रिसर्ण हैं नैन ॥ ६५ ॥ गहकि = उमग कर ॥ गाँड ( ग्रास ) = पकड़ । किसी की योर से, उसके अपराध के कारण, चित्त में पड़ी हुई आँट ॥ खि* = अपराध से संकुचित ॥ रिसैं।” ( रोषोन्मुख )=रिसाए हुए से ॥ ( अवतरण )--नायक प्रातःकाल नायिका के घर आया। नायिका पहिले तो उमंग के साथ अपनी प्रेमकहानी कहने लगीकिंतु शीघ्र ही नायक के नेत्र खिसियाए हुए देख कर, और उनसे उसका रात को अन्य स्त्री के यहाँ रहना निश्चित कर के, उसने आँखें चढ़ा लीं । इसी लिए दूसरा ही भाव उदय हो जाने के कारण उस के वचन अध कहे ही रह गए । सखीवचन सखी से ( अर्थ ) [ नायिका के ] वचन उग कर , और ही गाँस से गढ़े हुए, अधकहे [ ही ]रह गए ।[ उसने] प्रियतम के नयन खिसैं।हें देख कर [ अपने ] नयन रिसोंहें कर लिए 6/2 में तासा केवा कचयौ, तू जिन इन्हें पत्पाइ । लगालगी करि लोइन उर मैं लाई लाइ ॥ ६६ ॥ कैवा= के बार ॥ जिन = गत ॥ पस्याइ = विश्वास कर ॥ लगालगी = लगाव-बझाव, मेलजोल ॥ लाइड लाग, घर में चोरी के पहुंचने की घात 1 और टीकाकारों ने इसका अर्थ अग्नि किया है । पर यहाँ 'पत्पाद’ तथा ‘लगालगी’ शब्दों पर ध्यान देने से इसका अर्थ लाग ही करना उचित प्रतीत होता है । ( अवतरण )-पूर्वानुराग में विकल नायिका से सखी कहती है- ( अर्थ )ों ने तुझसे के बार कहा [ कि ] तू इन [ लोचनों ] का विश्वास मत कर ( यह विश्वास मत कर कि ये नयन मेरे अंग हैं, किसी से मिल कर मुझे हानि न पहुँचा चेगे ), [ पर तूने नहीं मानाऔर इनको नायक से मिलने जुलने दिया, जिसका परिणाम अंत को यह हुआ कि 1 लोचन ने [ उस चितचोर से ] लगालगी ( मिलाप ) कर के [ तेरे] उर में [ उसके पैठने के लिए 1 लाइ ( लाग ) लगा दी [ जिससे तेरे नित्त की चोरी हो गई ]। -8 १२ बयन( ) । [ ७७ ]३४ बिहारीरवाकर बर जीते सर मैन के, ऐसे देखे हैं न । हरिनी के नैना हैं, हरि, नीके ए नैन ॥ ६७ ॥ ( अवतरण ) सखी नायक से नायिका के नेत्रों की प्रशंसा करती है ( अर्थ )--हे हरि, ये नयन ( इस नायिका के नयन ) [ तो ] हरिणी के नयनों से [ भी ] अच्छे हैं । [ इन्होंने तो ] मदन के बाणों को [ भी ] बरबस जीत लिया है । मैंने [ तो ] ऐसे [ नयन कभी ] नहीं देखे : थोड़े ” ही गुन रीझतेबिसराई वह बानि । तुम, काह, मन भए आजकालिह के दानि ॥ ६८ ॥ ( अवतरण )-वि, इस दोहे में, श्रीकृष्ण चंद्र को अपने पर न रीझने का उलाह न देता हुआ, यही चातुरी से, आपने समय के दानियाँ की अण प्राह देता तथा अपना गुणधिक्य व्यंजित करता ६ ( अर्थ )—हे , [ पहिले तो तुम ] थोड़े ही गुण पर रीझ जाते थे, [ पर अब तुमने ] वह बान प्रति ) विसरा दी ( भुला दी ), मानो तुम [ परम उदार हो कर ] भी आजकल के [ कृपण ] दानी हो गए हो ॥ ‘थोरे वी गुन झते’ तथा भए प्राजकालिट्टे के नि’, इन खंडवाक् से ड्यंजित होता है कि पहिले तो तुम थोड़े ही गुण पर रीझ जाते थे, पर अब यद्यपि मुझे बहुत गुण है, तथापि उस पर तुम नहीं रहते, जैसे कि आजकल के दानी कितना ही गुण हो पर उसका आादर नहीं करते ॥

अंगअंगनग जगमगत दीपसिखा सी देह । दिया बढ़ाएँहूँ रहै बड़ौ उडंया गेह ॥ ६९ ॥

यढ़ापे -बुझाने पर । दीपक बढ़ाना दीपक बुझाने के अर्थ में शिष्ट प्रयोग है । ( अवतरण )—सखी नायक से नायिका की छवि की प्रशंसा करती है। ( अर्थ ) [ उसके ] अंग अंग के [ आभूषणों के ] नग [ उसकी ] दीपसिखा सी देश से जगमगारी हैं । [ अतः ] दीपक बुझा देने पर भी घर में बड़ा उजाला ( प्रकाश ) रहता है । । जिस घर गें बहुत से दर्पण लगे रहते हैं, उसमें एक ही दीपक रखने से, सब दर्पण मैं उसका प्रतिबिंब पढ़ने के कारण, बहुत प्रfाश हो जाता है ।

कुटी न सिडता की झलक, झलयौ जोब अंग । दीपति देह दुह मिलि दिपंति ताफतारंग ॥ ७० : दीपति ( दीप्ति ) = चम, झलक। यह पद ‘दिपति’ क्रिया का कर्ता है ॥ देह= देह में ॥ दुहलु =दोन १ से २ ), ये (४ )। २. सेंग जगति (१ )। ३. उजारी (२, ५)। ४. की (५)।५. होत (५ )। [ ७८ ]बिहारीराकर से ॥ ताफतारंग = ताफ़्ते के रंग वाली, अथवा ताकता की भाँति ताक़ता एक प्रकार का रेशमी कपड़ा होता है, जिसका ताना और रंग का तथा बाना और रंग का होता है । दोनों रंगों के मेल से उसमें दोनों रंग की झलक लहराती है । यह शब्द फ़ारसी भाषा का है । भारती भाषा में इसको धूपछाँह कहते हैं । ( अवतरण )नायिका की वयःसंधि का वर्णन सखीद्वारा नायक से, अथवा नायकद्वारा स्वगत ( अर्थ ) [ अभी उसके शरीर में से 1 शिशुता ( लड़कपन ) की झलक नहीं छूटी है ( लड़कपन तो चला गया है, पर उसकी आभा रह गई है ), [ और ]जोबन अंग में झलक आया है ( जोबन आया तो नहीं है, पर आभा देने लगा है )। दोनों [ झलकों ] से मिल कर [ उसकी ] देश में ताकत के रंग की दीप्ति दपिती ( चमकती ) है । कब कौ टेरतु दीन रखें, होत न स्याम सहाइ । तुम लागी जगतगुरुजगनाइक, जगवाइ ॥ ७१ ॥ जगयाइ—संसार की वायुअर्थात् संसार का बुरा प्रभाव ॥ ( अवतरण )- इस दोहे में भी बिहारी ने श्रीकृष्णचंद्र को उलाहना देते हुए जगत् के रंग- पर कटाक्ष किया है ( अर्थ )-डे श्याम [मैं ] कब का ( बहुत समय से ) दीन रट ( दीनता से भरी हुई रट ) से [ तुमको 1 टेर ( पुकार) रहा हूँ, [ पर तुम ] सहाय नहीं होते। [ शात होता है। कि ] तुमको भी, हे जगढ़हरु ! जगन्नायक ! जगत् की हवा ( प्रभाव ) लग गई है [ अर्थात् निर्दय संसारनिवासियों का प्रभाव तुम पर भी पड़ गया है, यद्यपि यह बात न होनी चाहिए थी। क्योंकि गुरु तथा नायक का प्रभाव शिष्यों तथा सामान्य जनों पर पड़ना चाहिए, पर यह उलटी बात हुई कि उनका प्रभाव तुम, जगदुरु तथा जगन्नायक, पर पड़ा ] ॥ सकुचि न रहिं, स्याममुनि ए संतरौहैं बैन । वेत रच चित कहे नेहनर्धाँहैं नैन ॥ ७२ ॥ सतरौहै = तनेने, , रोषमरे ॥ रचौह =रचने पर माया हुआा, अनुराग की ओर ढला हुथा ॥ नेहृहै = स्नेह से चंचल हुएस्नेहभाव उदय होने के कारण एकटक पृथ्वी की ओर देखना छोड़ कर चंचलता से, बीच बीच में , नायक की ओर जाते हुए ॥ ( अवतरण ). मानिनी नायिका को मनाते मनाते नायक कुछ दुखी सा हो गया है । सखी, यह सोच कर कि वह कहीं विशेष दुखी हो कर चला न जाय, उसका उस्साह बढ़ाने तथा नायिका को हंस देने के निमित्र यह परीक्षा कहती है। , रूस कर मुंह फुलाए हुए बैठे मनुष्य से, उसे हँसा देने के लिए लोभ प्रायः कहते हैं कि यह देखोअब नाक पर हँसी आई, और ऐसे वाकाँ से वह बहुध हैं भी देता है। ( अर्थ ) के घनश्याम, [ आप इसके ] ये स त: वचन सुन कर संकुचित न हो रहिए ( निराश हो कर मनाना छोड़ न बैठिए )। [ देखिएअब उसके ] नेह से नचौहें ९रत (४ ) ।२० नायक (४, ५ )। ३. रिसरौहै" (२ ) । [ ७९ ]३६ बिहारीरताकर [हुए ] नयन [ उसके ] चित्त का रचेहाँ होना कहे ( प्रकाशित किए ) देते हैं । [ तात्पर्य यह है कि कुछ देर और मनइए, तो यह अवश्य मान जायगी ] ॥ पत्रा हाँ तिथि पाये वे घर के चहुं पास । नितप्रति पून्यौहैं ऐहै आनन-प-उजास ॥ ७३ ॥ ५षा = तिथिपत्र ॥ चर्वी पास चारों ओर पूर्शपूर्णिमा ॥ ( अवतरण )--नायिका के मुख की प्रशंसा सखी नायक से करती है, अथवा नायक स्वगत कहता है [ तिथि के जानने के दो साधन हैं –पक तो तिथिपत्रऔर दूसरा चंद्रमा के उजास होने का समय । पर ] उस [ नायिका ] के घर के आसपस [ केवल ] पने ही से तिथि पाई ( जानी ) जाती है, [ क्योंकि वहाँ तो ] मुख की चमक के उजाले से निस्यप्रति पूर्णिमा की रहती है ( रात भर चाँदनी का सा प्रकाश रहता है, ) [जिससे किस समय चाँदनी का उजाला प्रारंभ हुआ, यह लक्षित नहीं होता ] ॥ यसि सकोचदसबदनबससाँड दिखावति बाल । सियलौं सोधति तिय तनहूिँ तगनि-आगनि की ज्वाल ॥ ७४ ॥ सकोच ( संकोच ) = लध्जा, कुलकानि का विचार ॥ दसबदन ( दशवदन ) = दस घंह वाला, श्री रावण | यहां रावण का और नाम न रख कर ‘दसबदनइसलिए रखखा गया है कि संकोच दस दिशा से, अर्थात् दस मुख वाला हो करनायिका को अपने वश में किए हुए हैं । उसको नायक से मिलने नहीं देता ॥ सिय = रीता ॥ सोधति तपा कर शुद्ध प्रमाणित करता है । ( वतरण ) -पूर्वानुरागिनी नायिका की दशा सखी नायक से कहती है कि अब तक तो वह संकोच के वश मैं पड़े रहने के कारण आपसे मिल न सकी और अपने अनुराग को छिपाए रही, पर अब शनैः शनै: प्रेम के बढ़ जाने के कारण संकोच उसको दबा नहीं सकता, और उसका विरहाग्नि से संतप्त होना प्रकट हो गया है, जिससे प्रमाणित होता है कि श्राप पर उसका प्रेम पूर्ण तथा सचा है ( अर्थ )[ इतने दिनों तक ] संकोचरूपी दशवदन के वश में बस कर,[ और आप से मिलने में तथा अपना प्रेम-परिचय देने में असमर्थ रह कर, अब वह ] बाला [ अपने प्रेम का ] सच्चापन दिख लाती हैं, [ क्योंकि शव वह ] ली [ संकोच के वश के बाहर हो कर अपने ] शरीर को विरहाग्नि की ज्वाला से, सीताजी की भाँति, सोधती है (तपाती है, अर्थात् संकोच के वश में रहने का प्रायश्चित करती है ) ॥ १ • पाइंतु ( ५ )। २. या (२ )। ३. प्रह (४ )। ४. रहें ( १ ), रहति (२ )।५, ज्यों (२ ) । [ ८० ]बिहारीलाकर ३७ जौ न गतिपिय मिलन की भूरि मुकंतितुंह न । जौ लहिये ढंग सजनतौ धरक नरक हूँ की न ॥ ७५ ॥ जुगति ( युक्ति )= उपाय ॥ सजन ( सज्जन अथवा स्वजन )=अपना प्यारा ॥ धरक = डर ॥ ( अवतरण )उद्ध वजी से गोपियों का वचन- ( अर्थ )- यदि [ मुक् ि] प्रियतन-प्राप्ति की युक्ति नहीं है ( अर्थात् प्रियतम-प्राप्ति की युक्ति के अतिरिक्त कोई और वस्तु है ), [ तो हमने ऐसी ] मुक्ति के मुंह में धूल झोंकी ( अर्थात् ऐली मुक्ति से हम बाज़ आई ): [ और ] यदि प्रियतम संता में प्राप्त हो, तो [ हमको ] नरक की भी धड़क नहीं है । चमक, तमक) हसी, ससक, मसक झपट, लानि। ए जिटेिं रति, सो रति मुकेति; और मुति पुति हानि ॥ ७६ ॥ चमक =चौंकें, अंगों को एकाएकी, शीघ्रता से, चंचल करना ॥ तमक = उत्तेजित होना ॥ खसक = सिसकी ॥ मसक= अंगाँ को दबाना, मर्दन करना ॥ ( अवतरण )–कोई कामी रत्ति की प्रशंसा करता है. ( अर्थ ) जिस रति में चमक, तमक इत्यादि [ भाव ] हों, वह रति [ ही ] मुक्ति ( परमानंददायिनी ) है । आपर मुक्ति [ तो ] आति हानि ( पूर्ण विनाश ) [ मा] है। - मोड़ साँ तजि मोड, दृग चले लागि उहैिं गैल । छिनई बाइ छबि -गुरंडरी छले छबी झेल ॥ ७७ ॥ गैल मार्ग । इसका प्रयोग साथ के अर्थ में भी होता है ॥ गुरडरी = गुड़ की डली ॥ ( अवतरण )-पूर्वानुरागिनी नायिका का वचन सखी से ( अर्थ )–क्षण मात्र छधि-पी गुड़ की डली बुझा कर [ उस ] छबील जेल के द्वारा जुले ( ठगे ) गए [ मेरे] दृगमुझसे भी मोह छोड़उसी की गैल ( साथ) लग कर चले ॥ एक वशीकरणप्रयोग में गुड़ की डली अभिमंत्रित कर के काम में लाई जाती है । यह जिसको खिका अथवा बुझा दी जाती है, वह खिलाने अथवा छआने वाले के वशीभूत हो कर उसके संग हो वेता है । यह प्रयोग प्राय: ठग लोग करते हैं । कं-नयमि मंजनु किए, बैठी ब्यौरति बार । कचछंगुरीविच दीटिं है, चिरैवति नंदकुमार ॥ ७८ ॥ मंजडु =स्नान ॥ ब्यौरति = सुलझाती है ॥ कच = बाल ॥ १- जुर्मति ( ४ )। २. मुक्कृति (४ ) । ३. रति (४ ) । ४. गरुड़ की (५ )। ५. छरे (२ ) । ६ . मंज करि खंजन नयनि ( २ )। ७. चितवत (२, ४, ५ )। [ ८१ ]३८ बिहारी-राकर ( अवतरण ) - नायिका की क्रियाविवश्धता का वर्णन सही सत्र से करती है ( अर्थ )[ देखायह ]कंज-नयनी स्नान किएबैठी [ अपने ]बाल सुलझा रही है, [ और इसी ब्याज से अपने] बालों तथा ढंगलियों के बीच से दृष्टि दे ( डाल ) कर नंदकुमार को देख रही है । -->8858 पावक सो ' नयनैनु ल जावकु लाग्य भाल । मुर्सी रु होहुगे नेंके मैं , मुकुर बिलोकौ, लास ॥७९ ॥ पावक = अग्नि ॥ जावक = महावर ॥ मुकुरु =मुकरने वाले ॥ मुकुरु = दर्पण ॥ ( अवतरण )--खडिता नायिका नायक के भाल मैं महावर लगा देख कर कहती है- ( अर्थ ) –हे लाल[ तुम्हारे ] भाल में लगा हुआ महावर [ मेरे]नयनों में पाठक सा लगता है । [तुम अभी ] दर्पण देख लो, [ नहाँ तो] बैंक में ( थोड़ी देर में , जब यह मिट जायगा तो ) मुकर जाओगे ( कहने लगोगे कि मेरे भाल में महावर लगा ही नहीं था ) ॥ रह ति न रन, जय साहिमुख लवि, लालू की फौज। जाँचि निरवर च' लै लाख की मौज ॥ ८० ॥ लाख—यह शब्द इस दोहे में दो बार चाया है, और दोनों ही स्थानों पर टीकाकारों ने इसे संख्यावाचक लाख का बहुवचन माना है । हमारी समझ में, दोहे के पूर्वार्द्ध में, यह किसी का नाम है, जिस- की सेना जयशाह की सेना देख कर भागी थी, और उत्तरार्द्ध में यह संख्यावाचक लाख का बहुवचन है । दोनों स्थानों में इस संख्यावाचक मानने से दोहे में एक प्रकार का पुनरुक्ति दोष आ जाता है । अब रह गई। यह बात कि ‘लाख' कौन व्यक्ति था, इसका संतोषजनक पता नहीं मिलता । संभवतः वह कोई सामान्य राजा, श्रथवा किसी राजा का सेनापति, था । इसी लिए उसके नाम का पता इतिहास से नहीं चलता । । मथासिरुल उमर' से एक लक्खी जादो का पता लगता है, जो दक्खिन में दौलताबाद सरकार के संदखेर का देशमुख, ऑौर नि ामशादी राज्य का एक बड़ा मंसबदार था । यही लक्खी जादो छत्रपति महाराज शिवाजी का नाना था । शाह जहाँ के राज्यकाल के आरंभ में मिर्जा राजा जयशाह खानजहाँ लोदी के साथ दक्खिन में थे । संभव है, उस समय उनसे और लक्खी जादो से सामना हुआ हो । इसके अतिरिक्त उन्हीं दिन, आगरे के निकट, महवन के जाटों ने बहुत सिर उठाया था और मिर्जा राजा जयशाह, दक्खिन से लौटने पर, कासिम त्राँ के साथ उनका दमन करने के निमित्त भेजे गए थे । यह भी बहुत संभव है कि उन जार्टी के किसी सरदार का नाम लाखनुसिंह रहा हो ॥ निराखर ( निरक्षर ) विना पढ़ालिखा अर्थात् मूर्स ॥ मौज मौज आरबी भाषा में तरंग तथा लहर को कहते हैं । भाषा में इसका प्रयोग उमंग अथवा उत्साह के अर्थ में होता है । श्रीर, उमंग से दिए हुए दान के अर्थ में भी कवि इसका प्रयोग करते हैं । इस दोहे में यह इस पिछले ही अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । १ से ( ४ ), सम ( ५ )। २. लोचन (४ )। ३. लसे (४ )। ४. मुकरू (१ ), मुकर (२ )।५. विलो राहु (४)। ६ लाखुन ( ५ ) । ७. हू (४ ) [ ८२ ]विक्रवार ३ ( अवतरण ) -इस दोहे में कवि जा जयशाह की युद्धवीरता तथा दानवीरता दोनों की शरद करती हैं ( मर्थ )-जयशाह का मुख देख कर लाखच की सेना रणभूमि में नहीं रहती ( नहीं ठहरती, अर्थात् भाग जाती है ), [ और जयशाह से ] जाँच कर ( माँग कर ) [ पंडितों और गुणियों की कौन कहे, ] सूख भी लाखों [ रुपयों ] का दान ले कर चलता है ( घर लौटता है ) ॥ दियौ, ठ ससि चढ़ाइ लै आछी भाँति आएरि । जधे मुख चाहेतु लियौ, ताके दुखहैिं न केरि ॥ ८१ ॥ थाछी भाँति = अच्छी रीति से, प्रसव्रतापूर्वक ॥ अपरि= अंगीकार कर के ॥ ( अवतरण )किसी विपत्तिपस्त को दुखी देख कर कोई समझाता है- ( अर्थ )[ ईश्वर ने जो दुःख अथवा सुख तुझको ] दिया है, उसे अच्छी भाँति अंगीकार कर के, सीस चढ़ा ले ( सिर माथों पर धर )। जिससे [ तू] सुख लेना चाहता है, उसके [ दिए हुए ] दुःख को फेर मत ( अस्वीकृत मत कर ) ॥ - -93 तरिवनकनऊ कपोलदुति विधे बीच हीं बिकान । लाल लाल चमकठिं चुन चौका-ची-समान ॥ ८२ ॥ तरियम = तरौना, ताठक, तालपर्ण ॥ चौका—आगे के चार दाँतों को चौका कहते हैं ॥ चीन्द्र ( चिढ ) निशान ॥ ( अवतरण )—अम्बसंभोग-विता नायिका, नायक के पास से लौट कर आई हुई दूती के कपाक पर दाँताँ का चित्र देख कर, चातुरी से, व्यंग्यवचन-द्वारा, कहती है कि ये तरौन की चुस्कियाँ दाँत के चित्र के समान चमक रही हैं, वास्तव में ये दाँत के चिह्न नहीं हैं। जो कहो कि तरौने तो हैं ही नहीं, फिर ये खुशियाँ कहाँ से , तो इसका समाधान यह है कि तरौन का सोना तो बीच बीच में से सुनहले कपोलाँ की चमक में समा गया है, अतः केवल चुस्कियाँ की देख पड़ती हैं। यह दोहा लक्षिता नायिका से सखी का व्यंग्यवचन भी हो सकता है ( अर्थ )ई तेरे ]तरौने का सोना [ तो सुनहले ] कपोल की युति में बीच बीच ही ले बिक गया ( लुप्त हो गया है ) । [ पर तने में जड़ी हुई 1 युन्नियाँ दाँतों के चित्र के समान लाल लाल चमक रही हैं । मोहि दयौ, मे भयौ, रहतु छ मिलि जिय साथ। सो मठ बाँधि न सैपि, पिय, सौतिम हाथ ॥ ८३ १ . जापे चाहत सुख लहे (४ ) । २. चाहै (२ )। ३० लयो ( ५ ) । ४. बिच बिच हीर ( ५ )। ५. चिन्ह (२, ५ )। [ ८३ ]बिहारीरवाकर ( अवतरण ) -सपत्नी पर नायक की प्रीति होते देख कर नायिका विनय करती है। ( अर्थ )-मुझको दिया हुआ [ तथा ] भरा हो चुका हुआ [मन ] जो [मेरे] जी के साथ मिल कर रहता है, अथवा जो मिल कर ( जिसके मिलने के कारण ) [ मेरा ] जी [ मेरे ] साथ रहता है, उस मन को बाँध कर ( बरबस ), हे प्रियतम, सपनी के थ में मत किए [ क्योंकि मेरा जी उससे ऐसा मिल गया है कि उसके साथ वह भी चला जायगr] ॥ कुंज-भव तजि भवन को चलिी नंब किसोर। फूलति कली गुलाब की, चटकाहट चहुं ओोर ॥ ८४ ॥ )—उधपति ने परकीया के साथ रात भर कुंजभवन में विहार किया है, और सबेरा होने पर भी वह प्रमाधिक्य के कारण उसको अंक में भरे हुए है । नायिका कुलकान के भय से नायक का ध्यान प्रातः ाद्ध होने पर दिला कर घर चलने का प्रस्ताव करती है । ( शर्थ )- नंदकिशोर,[ अव] ज-भवन को छोड़ कर भवन को चलिए [देखिए] गुल।त्र की कली फूल रही है, [ और उसकी ] चारों ओर चटकाहट [ हो रही है ] ॥ गुलाब प्रातःकाल फूलता है, और फूलने के समय कलियों के चटकने से चटचट शब्द होता है । इस चटकाहट का वर्णन बहुत से कवियों ने किया है । कह त्ति न देवर की कुवैत कुलतिय कलह डति । पंजरगत मंजारढिग सुक क्यों मुकति जाँति ॥ ८५ ॥ कुबत = बात, खुटाई ॥ जरगत ८ पिंजड़े में पड़े हुए ॥ मजारढिग = बिल्ले के समीप स्थित ॥ ( अवतरण )--देवर अपनी भौजाई से अनुचित प्रेम करना चाहें ता है । । पर भौजाई पतित्रत। तथा सुशीला है, अतः बड़ी चिंतित है। । यदि व ई देवर की खुटाई नहीं कहती, तो उसे भय है कि कहींअवसर पर कर, वह उसको आलिंगन इत्यादि न कर ले, और यदि कहती है, तो भाई भाई में तथा देवर देवरानी में कल द होता है। । इसी अंचल में पड़ी हुई वह सूखती जाती है । उसकी इस शव का वर्णन सखी सखी से करती है। ( अर्थ )-[ वह ] कुलवधू ( सुशीला, पतिव्रता ) कलह से डरती हुई देवर की खोटी बात नहीं कहती ( बिदित नहीं करती ), [ और 1 विल्ले के पास स्थित पिंजरे में बंद चुग्गे की भाँति [ दिन दिन ] सूख जाती है । औरै भाँति अi sथ ए चौसरुचंदलु, चंदु । पति-आति पारतु वि पति मारतु मारुतु मंटु ॥ ८६ ॥ १ कुमति ( ४ ) २. कुलाह ( २, ४ )। ३. लजाइ (४ )। ४. ल ( ५ )। ५. जाई (५)। ६. नए ( २) [ ८४ ]बिहारीरगाकर ४१ ब = अब ॥ चौसर= मोतियों अथवा पूर्वी का चौलड़ा हार ॥ पातु = डलता है । । ( अवतरण )—विरह-ताप से पीड़ित नायिका का ताप सखी फूलाँ के गजरेचंदन, चाँदनी एवं व पवन से जुड़ाया चाहती है, क्योंकि इन पदाथो” से उसको संयोगावस्था में परम सुख मिलता था। उससे नायिका कहती है ( अर्थ ) [ के , ] अब [ तो ] ये चौसरचंदन[ तथा] चंद और ही थैति के हो गए हैं (सुखदायी न रद्द कर दुखदायी हो गए हैं ), [ और ] पति के विना (विरह में ) आति विपत्ति डालत हुआ ( आति उद्दीपन करता हुआ ) मंद मारुत [ तो ] मारे [ ही ]डालता है । चलन न पाव निगमम जणुउपज्यौ अति त्रा । कुचउतंगगिरिबर ग। मैना मैनु मवायु ॥ ८७ ॥ निगममणु =( १ ) वेदमग अर्थात् धर्मपथ ॥ (२ ) वाणिक्नपथ ॥ श्राड = भयडर ॥ मैना। राजपूताने के जंगलों में एक जाति के मनुष्य रहते हैं, जो कि मैना अथवा मीना कहलाते हैं। उनका काम प्राय: डाका डालना घर लूटना है ॥ मवढ = दृढ़ निवास ॥ ( अवतरण )- नायिका के कुओं की अति कामोदीपिनी शोभा का वर्णन नायक स्वगत करता है ( अर्थ ) कुवरूपी उतंग (ऊँचे ) गिरिवर ( पक्षाढ़ ) पर मदनरूपी मैना ने [ अपना ] दृढ़ स्थान जमाया है । [ अतः 1 बड़ा भय उत्पन्न हो रहा है, [ और ] जगद धर्मपथ-रूपी वणिक्नपथ नहीं चलने पाता ॥ त्रिपली, नाभि दिखाइकथूसिर ढकि, सकुचिसमाहि। रौली, अली की ओोट के, चली भली विधि चाहि ॥ ८८ ॥ सकुचि—यहाँ इसका अर्थ संकोच का मिष कर के होता है ॥ कर सिर ढकि हाथ को सिर ढाँकने के निमित्त उठा कर ॥ समाहि= सामना कर के । इसका अर्थ टीकाकारों ने प्रायः 'समा कर किया है, जो ठीक नहीं है ॥ अली की ओट के= सखी की आँखों की प्रोट, अर्थात् बचाव, कर के ॥ ( अवतरण ) नायक को देख कर नायिका ने जो मनोहारिणी तथा अपना अनुराग प्रकट करने घाणी चेष्टा की, उसका स्मरण अथवा वर्णन नायक स्वगत करता है ( अर्थ ) -[ वह मेरा ] सामना करसंकुचित हो ( संकुचित होने का ब्याज कर), हाथ से सिर ढाँक ( सिर ढाँकने के निमित्त हाथ उठा ), [ और इस क्रिया से अपनी ] त्रिबली, [ तथा ] नाभी दिखलासखी की छूट कर के ( सखी की आँखें बचा कर ) [ मु ] भली भाँति ( आँखें भर के ) देख कर गली में चली ॥ इस दोहे का अन्वय कुछ कठिन है । इसका भावार्थ यह है कि मेरा सामना होने पर उसने, १. मनु ( १.) । २. गहे (४ ), गहैं (५ ) । ३. करि ( २, ४) । ४. अली गली (५ )। ५. है (४, ५ ) [ ८५ ]बिहा-राफर । संकोच के कारण ‘घट करने के मिथ से, हाथ उठा अपनी मनोहर त्रिवली तथा नाभी मु विखलाई, और फिर सली की आंख बचा, मेरी ओर आंख भर के देख कर गली में चली मई ॥ इस दोहे के भाव से ४२४ अंक के दोहे का भाव मिलता है ॥ देखत बुरे कपूर क्य उपे जाइ जिन, लाल । छिन छिन जाति परी खरी छीन छबीली बाल ॥ ८९ ॥ खुरै = उरा कर । किसी वस्तु के धीरे धीरे व्यय होते होते समाप्त हो जाने को बुराना, उराना अथवा घोराना कहते हैं । यह शब्द संस्कृत शब्द ‘वर से बना है, जिसका अर्थ रोक, ठहराव इत्यादि है । लेखकों तथा टीकाकारों ने इस शब्द के, न समझने के कारण अनेक पाठांतर कर लिए हैं, पर दो प्राचीन पुस्तकों में इसका यही शुद्ध पाठ मिला है ॥ उपे जा =उड़ जाय, लुप्त हो जाय ॥ बाल = बाला ॥ ( अवतरण ) सखी नायिका के विरह में क्षीण होने का वर्णन नायक से करती है ( अर्थ )–हे लाल[ वह ] छबीली बाला क्षण क्षण में अत्यंत क्षीण ( दुबली ) होती जाती है । [ इसलिए डर है कि कहीं ] देखते देखते कपूर की भाँति उरा कर उड़ न जाय ( सर्वथा लुप्त न हो जाय ) ॥ १ सि) उतारि हि हैं, दई तुम ऊँ तिहैिं दिन, लाल । राखति प्रान कर दें। है चुछुटिनीमाल ॥ १० ॥ चुछुटिनी —यह शब्द यहाँ श्लिष्ट है । इसका एक अर्थ चुंघची और दूसरा अर्थ पकड़ने वाली है । दूसरा अर्थ पहिले अर्थ का विशेषण हो कर इस शब्द को साभिप्राय बना देता है, यर्थात् इसका अर्थ पकड़ रखने वाली मुंघची कर देता है । इसी प्रकार का प्रयोग बिहारी ने ६६० अंक के दोहे में भी किया है । ( अक्तरण )-—सखी वचन नायक से- ( अर्थ )–हे लाल, तुमने जो उस विन हंस कर[ और अपने ] उर से उतार कर दी थी, वही एंटिनी ( पकड़ रखने वाली मुंघची ) की माला [ उसके ] मार्गों को कपूर की भाँति रखती है (रक्षित किए रहती है, अर्थात् उछूने नहीं देती ) ॥ कपूर के डब्बे में बहुत लोग धंधची, काली मिर्च अथवा लवंग रख देते हैं, कि इन वस्तुओं के रख देने से कपूर शीघ्र नहीं उठता ॥ -eted कोऊ कोरिक संग्रह, कोऊ लाख हजार । मो संपति जदुपति सदा बिपतिबिदारनहार ॥ ११ ॥ कोरिक ( कोटिक ) = करोड़ के अनुमान ॥ संग्रहो = बटोरो, जोड़ो 7 लाख हजार दस करोड़ ॥ १. द्रे ( २ ), नूर ( ४ ) । २० लो ( ५ ) । ३. उर (४ )। ४, जो (४ ) । ५. ता(४ ) । ६. बिन ( ४ )। ७. लॉ ( ५ ) । ८. जुहटनी (२ ), गुंजा की (४ ), चिहुटनी (५ ) । [ ८६ ]Cकर .श ( अवतरण ) किसी संतोषी अक्ल का वचन स्थमता अथवा किसी मित्र से ( अर्थ ) [ चाहे ] कोई करोड़ [ की संपत्ति ]संग्रह करै[चाहे ] कोई दस करोड़ [ की ], मेरी संपत्ति [ तो ] सदा विपत्ति के विचारण करने वाले यदुपति ( श्रीकृष्ण भगवान ) हैं [ मुझे और किसी संपत्ति की कुछ आकांक्षा नहीं है ]। वैजसुधादीधितिंकला वह लावि, दीठि’ लगा । मनौ अकांसअगस्तिया एके कली सवाइ ॥ है२.in सुधा दीघिति = चंद्रमा ॥ दीठि लगाइ =दृष्टि लगा कर अर्थात् ध्यान दे कर ॥ आगस्सिया ( अगस्तिका ) अगस्ति वृक्ष, जो कि शरदगम में कालियाना आरंभ करता है । ( अवतरण )-नायक र नायिका ने शरदागम के शुक्र पक्ष की द्वितीया को, चंद्रास्त के समय, किसी अगस्य के वृक्ष के पास मिलने का संकेत बंद रक्खा है । आज वही दिन है। चंदमा दर्शन दे कर अस्ताचल को जा रहा है । नायक की दूती नायिका के पास आ, और उसको गुरुजनाँ मैं बैठी , हैज का चंद्रमा दिखलाने के ब्याज से, उसको नियत दिन का ध्यान दिलाती है, और चंद्रमा की डपमा अगस्य की कली से दे कर संकेतस्थल का स्मरण कराती है ( अर्थ ) दृष्टि लगा कर [ तू] वह क्रूज के चंद्रमा की कला देख[ जो ऐसी शोभित है ] मानो आकाश-रूपी अगस्य के वृक्ष में एक ही कलीं दिखलाई देती है। अगस्त्य शरखागम के आरंभ में फूलता है । वह समय बड़ा सुखब माना जाता है । ‘अगरूप मैं मानो एक ही कली दिखलाई देती है," यह कह कर दूती बयंजित करती है कि यह अवसर तेरे लिए .वैसा ही सुखद है, जैसा अगस्त्य में कली आना आरंभ होने का समय होता है। इसी उपेक्षा से वह शरद शतु के प्रथम शुक्ल पक्ष का होना भी दिखलाती है । -& हु8 --- गदराने तन गोरटी, ऐपन-लिलार । कुव्य है, इठलाइ, इग करै रॉचारि सुवर ॥ ३ ॥ गदराने = पकने पर छाए , जवानी पर आए हुए ॥ गोटी= गोरे शरीर वाली’॥ पेपन = चावल और हलदी को पानी में पीस कर बनाया हुआ एक प्रकार का अवलेपन ॥ इठयौ वार नियाँ जब इठलाती अथवा किसी को बिराती हैं, तो दोन हाथों को मुट्ठी बाँध कर कटिस्थल पर रख लेती हैं। इस क्रिया को झूठा देना कहते हैं ॥ वार = चोट, आक्रमण ॥ ( अवतरण ) किसी गंवार स्त्री को इठलाते देख कर नायक स्वगत कहता है ( अर्थ ) [ यह ] गदाए हुए तन वाली गोरी सँवारीजिसके ललाट पर घेपन का आड़ा तिलक लगा हुआ है, ऐंठा के, इठला कर ढगों से [ कैसी ]ख( सबीअन्नूक ) वारकरती है । १ डीवि ( २, ४ )। २. अगास (५ )। ३० मार (२, ४ ) [ ८७ ]बिहारी-रवाकर - तंत्रनाद, कबिसरस, सरस रागरतिरंग । अनबूड़े बूड़े, त ' जे बूढ़े सब अंग ॥ १४ ॥ तंत्रीनाद =वीणा इत्यादि का मधुर स्वर ॥ कबिलरस = काव्य का स्वाद ॥ सरस राग = रसला स्नेह अथवा रसीला गाना ॥ रति-रंग =प्रीति का अथवा स्त्री-संग का आनंद ॥ अनबूड़े-इस शब्द का अर्थ यहाँ श्रधबूत है । बूढ़े सब अंगपद के विरोध से अनबूड़े में श्रन' का प्रयोग ईषद् अर्थ में मानना चाहिए । विरोधा मास प्रकार के निमित्त विहारी ने ‘ग्रधड़े बूड़ेन रख कर घनबूड़े बूढ़ेरक्खा है । अनबूढ़ेका अर्थ होता है। ऐसे लोग, जो कि तंत्रीनाद इत्यादि में हाथ तो डालते हैं , पर उसमें डूब नहीं हैं 7 बूढ़े = , नष्ट हुए ॥ तरे = बन गए, श्रेष्ठ हो गए ॥ बूड़े निमग्न हो गए, लिप्त हो गए ॥ सब अंग = सर्वागपूर्ण रीति से ॥ ( अवतरण )--कवि की प्रास्ताविक डाक् है ( अर्थ )--नाद, कबिसरस, सरस राग तथा रति-रंग में [ जI अधबूड़े [ हैं, वे तो ] बड़े ( नष्ट हो गए ), [ पर ] जो पूर्ण रीति से बड़े ( प्रविष्ट हुए ), [ वे ] तरे ( प्राप्ताभीष्ट हुएसुधर गए ) [ कधि का तात्पर्य यह है कि तंत्र नाद इत्यादि पदार्थ ऐसे हैं, जिनमें विना पूर्ण रीति से प्रविष्ट हुए कोई आनंद नहीं मिलता । यदि इनमें पड़ना हो, तो पूर्णतया पहोनहीं तो इनसे दूर ही रहो]। सहज साकिन, स्यामरुचि, सुचि, सुगंधसुकुमार । गनतु न मनु पशु अपथ, लारि विद्यु, सुथरे बार ॥ १५ ॥ सहज सचिक्कन = स्वभाव ही से चिकने, विना फुलेल इत्यादि लगाए ही चिकने ॥ स्याम-रुचि = श्याम रंग वाले ॥ सुधि ( शुचि ) अमल ॥ सुकुमार कोमल ॥ गनतु न= नहीं गिनता, नहाँ विचा रता ॥ पड= अच्छा रास्ता ॥ अपथ= बुरा पथ ॥ बिथुरे =फेल , छिटके हुए ॥ सुथरे सुंदर ॥ ( अवतरण )-नायिका के बालों पर रीझा हुआा नायक अपना नियकर्तव्य भूल कर उन्हीं के यान में तथा नायिका से मि लने की चिंता में निमग्न रद्द ता है । यह वृत्तांत जान कर उसका कोई अंत- रंग मित्र उसे समझाता है कि यह मार्ग तुम्हारे लिए अच्छा नहीं है, तुम्हें अपनी कुल-ीति पर चलना चाहिए। नायक उसे उत्तर देता है ( अर्थ )[ उसके ] स्वभाव ही से चिकने, कालेअमलमनोहर गंध वाले, कोमल बिधूरे[ और ] सुथरे बालों को देख कर [ मेरा] मन [ ऐसा मोहित हो गया है कि ] पथ [ और ] अपथ कुछ नहीं गिनता ॥ मुखति दुईि दुरंति नहैिं, प्रगट करांति रति-रूप । पक, औरें उठी लाली आठ अनूप ॥ ३६ ॥ प्रगट करति रतरूप =रति का रूप श्रत् चिह्न प्रकट करती हुई । यह खंडवाक्य 'लाली' का विशेषण है। । १. तिरे (४, ५ )। २. सुरति (२, ४ )। ३. दुराए (४ )। ४. ना दुराति (४ )। ५. होत (४ ) । [ ८८ ]बिहारी-रलाकर ४५ - ( अवतरण )-नायक ने नायिका का अधरपान किया था, जिससे उसमें लाली आ गई । नायिका ने वह लाली पान के रंग से छिपा रक्खी थी । पर पीक के छूट जाने पर वह वाली प्रकट हो गई। इससे सखी उसकी रत्ति लक्षित कर के कहती है ( अर्थ ) सुंदर शुति छिपाए नहीं छिपती ( यद्यपि तूने पान के रंग से अधर की चुंबनकृत लाली छिपा रखखी थी, पर भला वह कहीं छिप सकती है )। [ देख, अब ] पीक छूटने पर [तेरे ] अधर में, रति का चिह्न प्रकट करती हुईऔर ही प्रकार की ( अधर की स्वाभाविक लाली से भिन्न प्रकार की ) अनूप लाली उठी है ( निकल आई है ) ॥ यह दोहा अन्यसंभोगदुविता नायिका का वचन दूती से भी हो सकता है। ऐसी अवस्था में ’ का प्रयोग व्यंग्यारमक होगा ॥ वेई गड़ेि गार्ड परी, उपथौ हारु हिटें न । आन्यौ मोरि मतंगु सतु मारि गुरेरठ मैन ॥ ९७ ॥ गा।= गड़हे ॥ उपयौ—किसी कोमल वस्तु पर किसी कड़ी वस्तु के दबने या लगने के कारण चिह्न पड़ जाने को उपटना कहते हैं ॥ गुरेर =गुल से । गुले अथवा गुलेल ( गुरेर ) उन छोटी छोटी गोलियों को कहते हैं, जो एक प्रकार के धनुष के द्वारा चलाई जाती हैं । उस धनुष विशेष को भी गुलेला अथवा गुलेल कहते हैं ( अवतरण )—नायक के हृदय पर मोतियों के हार का चिह्न उपटा हुआ देख कर खडिता नायिका कहती है ( अर्थ )[ आप संकुचित क्यों होते हैं, यह जो आपके हृदय पर चिह्न है, वह ] इद्वय पर हार नहीं उपटा हुआ है, [ प्रत्युत आप ऐसे ] मतंग ( मातंग, बड़े हाथी ) को मानो मदन गुलेलों से मार कर फेर लाया है, [ सो ] वे दी [ शुल्क ] गड़ कर [ ये ] गाहें पड़ गई हैं ( अर्थात् आप इस समय मदन से पीड़ित हो कर यहाँ आए हैं, क्योंकि दिन में परकीया की प्राप्ति कठिन है । नहीं तो भला आपके दर्शन कहाँ मिलते, आप तो निरंकुश हाथी के समान इधर उधर घूम करते हैं ) ॥ नैक न करंसी बिरह-झर नेह-लता कुम्हिलौति। नितें नित होति हरीहरी) खरी झालरति जति ॥ ९८ ॥ आरसी = जली ॥ और = लपट, ताप, ज्वाला ॥ झालरति जाति= नए नए डाल और पाँ से संपन्न होती जाती है । ( अवतरण )-सखी नायक से नायिका के , अथवा नायिका से नायक के, प्रेम के प्रति दिन बढ़ने का वर्णन करती है। १. मन (४, ५ )। २. आरसी (४ )। ३. कुम्हिलाई (२ )। ४ खिन खिन (४ ), छिन छिन (५ )। ५ जाह (२ )। [ ८९ ]४६ विदौरा कर ( अर्थ )विरह की ज्वाला से वलसी हुई [ उसकी ] स्नेह-लता किंचिन्मा भी कुम्हिलाती नहीं: [प्रत्युत . नित्यप्रति हरी [ ही ] हरी होती [ और] भली भांति भारत रती जाती है । -9॰8--- हेरि हिंडो गगन हैं परी परी सी टूटि। धरी धाइ पिय बीच हीं, करी खरी रस लुटि ॥ ३१ ॥ हिंडोरे गगन ने हिंडोलेरूपी नाकाश से ॥ परी सी= श्रप्सरा सी करी खरी= खड़ी कर दी । ( अवतरण ) नवोढ़ा नायिका सखियों के साथ हिंडोला झूल रही थी । इतने ही मैं नायक भी वहाँ आ पहुँचा । उसको देख कर नायिका हिंडोले पर से भागने के निमित्त कूद पड़ी । प्रियतम ने फुर्ती से उसे बीच ही में लोक लिया, पृथ्वी पर गिरने नहीं दिया, और आलिंगन का रस लूट कर खी कर दिया । सखी का वचन सखी से ( अर्थ ) [ प्रियतम को ]देख कर [ वह ] हिंडेले-आकाश से [मारे शीघ्रता के ] परी सी ट्रट पड़ी ( भागने के निमित्त कूद पड़ी ) । [ यह देख ] प्रियतम ने दौड़ कर बीच ( औषधर ) ही में [उसे ] लोक लिया" गिरने नहीं दिया, और.] रस लूट कर ( आलिंगनादि का सुख ले कर ) [ उसको पृथ्वी पर ] सदी कर दिया ॥ by ) नैक सौं” बानि ता, लख्यी परतु मुर्सी नीठि । चौका-चमकनि-चौंध में परति चैंधि सी डीठि' ॥ १००॥ चौका = भागे के चार दाँत ॥ चौंध= खर्यों में बँधेरी छा देने वाली तड़प ॥ परति चौंधि सी= चैंधिया सी जाती है, अर्थात् तड़प के कारण बँधेरी छाई हुई सी हो जाती है । ( अवतरण ) -नायक पर अपराधी होने की शंका कर के नायिका मुसाकिराहटबारा कुछ मान सूचित करती है, जिससे नायक की आंखें संकुचित हो जाती हैं। यह देख कर सखीबड़ी चतुरी से, इस बोहे के द्वारा, नायक पर तो यह प्रकट कर के कि नायिका का स्वभाव ही मुसाफिराते रहने का है, उसका संकोच छुपाया चाहती है, जिसमें उसके संकोच से उसके सिर अपराध सिद्ध न हो जाय, और नायिका से नायक के सामने न देख सकने का कारण उसके बाँत की चमक बतलाती है, जिसमें यह उसको संकोच के कारण अपराधी न निर्धारित कर ले ( अर्थ )–[ के सखीतू अपनी ] हँसई ( हंसते रहने की ) बान ( प्रकृति ) बैंक छोड़ दे। [ इस प्रकृति के कारण तेरा ]मुख नीठि ( कठिनता से ) दिखलाई देता है? [ क्योंकि तेरे ] चौके की चमक की चकाचौंध में आंखें चौं धिया सी जाती हैं । प्रगट भए ब्रिजराजकुल, मुबस बसे ब्रज आाहू । मेरे हरी कस सव, केसेब केसंवरार ॥१०१ ॥ १. दीठि (१ )। २. केसौ ( १, २ )।