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बिहारी-रत्नाकर/३

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बिहारी-रत्नाकर
बिहारी, संपादक जगन्नाथ दास रत्नाकर 'बी.ए.'

अमीनाबाद पार्क लखनऊ: गंगा-पुस्तकमाला कार्यालय, पृष्ठ ८६ से – १२७ तक

 

- बिहारी-रत्नाकर तजि तीरथ, हरि-राधिका-तन-दुति करि अनुरागु ।। जिहिँ ब्रज-केलि-निकुंज-मग पग पग होतु प्रयागु ॥ २०१॥ ( अवतरण )-कवि की उक्ति अपने मन से, अथवा किसी व्रजवासी भक्त की उक्ति शिष्य से ( अर्थ )-[ तु] तीथो को छोड़ [ और ] श्रीकृष्णचंद्र [ तथा ] श्रीराधिकाजी की तन-द्यति ( शरीर की कांति ) मैं [ अपन] अनुराग कर ( लगा ), जिससे ( जिस अनुराग के लगाने से ) व्रज के विहार-निकुंजों के मार्ग में पग पग पर प्रयाग ( तीर्थराज ) हो जाता है ( प्रकट हो जाता है ) ॥ | भाव यह है कि श्रीकृष्णचंद्र तथा श्रीराधिका जी की श्याम तथा गौर छविय से यमुना तथा गंगा तो वहाँ उपस्थित हैं ही, उनमें अनुराग के लगने से सरस्वती भी मिल जाती हैं। अतः वहाँ गंगा, यमुना तथा सरस्वती, तीन का संगम हो जाता है, और फिर इस संगम के कारण कुंज के प्रति पग पर प्रयाग प्रकट होता है । तात्पर्य यह कि श्रीराधा और श्रीकृष्ण के ध्यान में अनुराग करने से व्रज के कंज के प्रति पग पर प्रयागराज का फल प्राप्त होता है, अतः तीर्थाटन का श्रम उठाना व्यर्थ है । इसके अतिरिक्त किसी तीर्थ में जाने से उस एक ही तीर्थ का फल मिल सकता है। पर उक़ विधि से, एक सामान्य तीथै की कौन कहे, अनंत तीर्थराज के फल सुलभ हैं। खिन खिन मैं खटकति सु हिय, खरी भीर मैं जात । कहि जु चली, अनहींचितै, ओठनु ह बिच बात ॥ २०२ ॥ खटकति =कसकती है, पीड़ा देती है ।। अनहॉचितै = विना देखे ही ।। ( अवतरण )-नायिका ने बड़ी भीड़ में जाते हुए, नायक की ओर विना देखे ही, ओठ के बीच ही मैं, कुछ कहा। नायके पर उसका जो प्रभाव पड़ा, उसे वह सखी अथवा दूती से कहता है ( अर्थ )--बड़ी भीड़ में जाते समय [ लोगों द्वारा लक्षित किए जाने के भय से ] विना [ मेरी ओर ] देखे ही [ वह ] ठों के बीच ही में जो बात [ इस विचार से कि उसके ओठों के चलने की विशेषता से उसका अभिप्राय समझ लूगा ] कह कर चली गई, वह क्षण क्षण में [ मेरे ] हृदय में खटक उठती है ॥ | खटकने के दो कारण संभावित हैं । एक तो यह कि नायक उसका अभिप्राय भली भाँति नहीं समझा, अतः उसके हृदय में रह रह कर यह खटक होती है कि उसने क्या कहा, और दूसरे यह कि उसने कदाचित् कोई ऐसी बात कही अर्थात् उराहना इत्यादि दिया, जो रह रह कर उसको दुःख देता है। अज न आए सहज रँग विरह-दूबरें गात । अब हीं कहा चलाइयति, ललन, चलन की बात ॥ २०३ ॥ ( अवतरण )-नायक अभी थोड़े ही दिन हुए विदेश से आया है, और अब फिर जाना चाहता है। सखी उसका चलना रोकने के अभिप्राय से कहती है ________________

बिहारी-रत्नाकर ( अर्थ )-अभी तक [ तो पहिले के ] वियोग से कृषित [ तुम दोनों के ] अंगों में सहज ( स्वाभाविक ) रंग [ तक ] नहीं आए हैं । [ फिर भला ] हे ललन, अभी चलने की बात क्या चलाई जाती है ॥ | ---- --- अपनै कर गुहि, आपु हठि हिय पहिराई लाल । नौल सिरी औरै चढ़ी बौलसिरी की माल । २०४ ॥ नौल ( नवल )= नई । सिरी ( श्री )= शोभा । वौलसिरी ( बकुलश्री ) = वकुल वृक्ष की शोभा अर्थात् फूल, मौलापरी ॥ | ( अवतरण )-वन-विहार में नायक ने नायिका को मौलसिरी की माला, अपने हाथ से गुंथ कर, पहनाई है। नायिका के शरीर मैं इसी गर्व से विलक्षण शोभा आ गई है। उसी का वर्णन सखी सखी से करती है ( अर्थ )--अपने हाथ से गूंथ कर हठ-पूर्वक स्वयं ( अपने ही हाथ से ) लाल ने [ नायिका के ] हृदय पर [ यह माला ] पहनाई । [ अतः इस ] मौलसिरी की माला से [ उसके शरीर पर कुछ ] और ही नई शोभा चढ़ गई ( अ गई ) ॥ नायक को हठ इसलिये करना पड़ा कि नायिका उर खुलने की लजा से उसके हाथ से माला पहनना स्वीकृत नहीं करती थीं ॥ नई लगनि, कुल की सकुच विकल भई अकुलाइ । दुहुँ ओर ऐची फिरति, फिरकी लौं दिनु जाइ । २०५॥ | बिकल= बेचैन, अस्थिर । अकुलाइ = उद्विग्न होती है । फिरकी-किसी काठ अथवा मोटे कागज के गोल टुकड़े में दो छेद कर के उनमें डोरा पिरो देते हैं । डोरे को कभी इधर और कभी उधर खींचने से वह टुकड़ा भन्न भन्न शब्द करता हुआ घूमता है । इसी को फिरकी कहते हैं । ( अवतरण )-पूर्वानुरागिनी नायिका की दशा सखी सखी से अथवा नायक से कहती है ( अर्थ )-[ नायिका ] नई लगन ( नवीन अनुराग ) [ तथा ] कुल की लज्जा [ इन दोनों ] से विकल हुई अकुलाती ( उद्विग्न, अस्थिर ) है, [ और ] दोनों ओर खिंची हुई फिरती है। [ उसका ] दिन फिरकी की भाँति जाता ( व्यतीत होता ) है ।। 'नई लगनि' तथा 'कुल की सकुच' का साम्य फिरकी की दोनों ओर की डोरी से किया गया है। |: इत हैं उत, उत हैं इतै, छिनु न कहू ठहरोति । जक न परति, चकरी भई, फिरि अधिति फिरि जोति ॥ २०६ ।। जक= कल, स्थिरता । चकरी= चकई । काठ का एक छोटा, चक्राकाते खिलौना, जो डोरा बांध कर १. फिरे (४)। २. ठहराइ ( १ ) । ३. जाइ ( १ )। ६६ बिहारी-रत्नाकर फिराया जाता है । फिरि--इस शब्द का प्रयोग कवि ने बड़ी चातुरी से किया है । 'फिरि आवति, फिरि जाति' का अर्थ होता है, नायिका के पक्ष में पुनः पुनः आती जाती है, और चकई के संबंध में घूम घूम कर आती जाती है, क्यॉक चकई घूमती हुई चलती है । ( अवतरण )- पूर्वानुरागिनी नायिका की दशा सखियाँ आपस मैं कहती हैं ( अर्थ )-[ वह नायक के दर्शनार्थ ऐसी उत्सुक हो रही है कि उसको ] जक (कल) नहीं पड़ती । चकई बनी हुई इधर से उधर [ और ] उधर से इधर, घूम घूम कर, आती जाती है, क्षण मात्र [ भी ] कहाँ ठहरती नहीं ॥ इस दोहे का भाव १९४-संख्यक दोहे के भाव से बहुत मिलता है। निसि अँधियारी, नील पटु पहिरि, चली पिय-गेह । कहौ, दुराई क्यों दुरै दीप-सिखा सी देह ॥ २०७॥ दीप-सिखा= दीपक की लौ ।।। ( अवतरण )-नायिका ने अँधेरी रात मैं, सखी से भी छिप कर, अभिसार किया है। पर सख उसको मार्ग में पहचान कर कहती है ( अर्थ )-[ तुम अपना अभिसार छिपाने के लिये ] अँधेरी रात में”, नीला वस्त्र पहन कर [ तो ], प्रियतम के घर चली हो। [ पर यह तो ] कहो [ कि यह ] दीपक की शिवा सी देह छिपाई कैसे छिप सकती है ॥ रह्यो ढीठ ढाढ़स गहुँ, ससहरि गयौ न सूरु ।। मुरल्यौ न मनु मुरबानु चर्भि, भौ चूरनु चपि चूरु ॥ २०८॥ ससहरि गयौ = डर गया । चभि = दररे खा कर, कुचल कर ॥ चूरनु = पैर के चूड़ों से ।। ( अवतरण )-नायक नायिका के पैरों के गढ़ तथा उन पर झनकार करते हुए चूड़ के सौंदर्य पर मोहित हो कर सखी अथवा तूती से कहता है ( अर्थ )-[ मेरा] मन गट्टी पर [चूड़ों का ] देरेरा खा कर लौटानहाँ, [प्रत्युत वह] ढीठ सूर धैर्य धरे रहा, [और] डर नहीं गया, [ यहाँ तक कि उन] चूड़ों से चप कर ( दब कर अर्थात् दबते दवते ) चूर चूर हो गया । सोहंत अँगुठा पाइ कै अनवटु जरैयौ जराइ । जीत्यौ तरिर्वन-दुति, सु ढरि परयौ तरंनि मनु पाइ ॥ २० ॥ | अनवटु= पैर के अंगूठे में पहनने का एक भूषण, जो गोल आकृति का होता है ॥ जय जराइ= नगों के जड़ाव से जड़ा हुआ ॥ तरिवन = ताटंक ॥ ढरि= झुक कर, दीन हो कर ॥ तरनि= सूर्य । १. गुहे ( ४, ५ ) । २. ससिहरि ( ४ ), ससिहर ( ५ ) । ३. चुभि ( ४, ५ ), चदि ( ५ )। ४. सोभित ( ४ ) । ५. जरे ( ४ ) । ६. तरुनी (५) । ७. तरुन ( ५ )। ________________

बिहारी-रत्नाकर ( अवतरण )-नायिका के अनवट की शोभा का वर्णन नायक स्वगत करता है ( अर्थ )-[ इसके पैर का ] अँगूठा पा कर जड़ाव से जड़ा हुआ अनवट [ ऐसा ] शोभित हो रहा है, मानो [ इसके ] ताटंक की युति ने [ सूर्य को ) जीत लिया है, इसलिए ढल कर ( नीचा हो कर ) [ वह ] सूर्य [ इसके ] पैर पर पड़ा है। | ---- --- जंघ जुगल लोइन निरे करे मनौ बिधि मैन । केलि-तरुनु दुखदैन ?, केलि तरुन-सुखदैन ।। २१०।। जुगल =दोन ॥ निरे= निराले, विना किसी अन्य वस्तु के मेल के ॥ केलि-तरुनु= केले के वृक्ष अर्थात् खंभों को ।। तरुन ( तरुण )= युवावस्था का मनुष्य ।। ( अवतरण )-नायिका की मनोहर जाँध की प्रशंसा नायक स्वगत करता है ( अथ )-[ इसके ] दोनों जंघ [ ऐसे सुंदर हैं ] मानो मदन-रूपी ब्रह्मा ने निरे लावण्य [ ही ] किए ( बनाए ) हैं। ये कदली के वृक्षा को तुःख देने वाले, [ एवं ] फेलि ( काम-क्रीड़ा ) में तरुण [ पुरुष ] को सुख देने वाले हैं । कदली के वृक्ष का दुःख देने वाले इसलिये कहा है कि उनकी गुलाई तथा चिकनाई देख कर कदली के खंभ को अपने वैसे न होने का दुःख होता है ॥ रही पकरि पाटी सै रिस भैरे भौंह, चितु, नैन । लखि सपनें तियान-रत, जगतहु लगत हियँन । २११ ॥ तियान-रत = अन्य स्त्री से अनुरक्त ॥ ( अवतरण )-नायिका ने स्वभ मैं अपने पति को अन्य स्त्री से अनुरफ़ देख कर रोष किया है। उसी का वर्णन सखी सखा : *री है ( अर्थ )—वह [ स्त्री ] सपने में [ पति के ] अन्य स्त्री से अनुरक्त देख कर, जागते हुए भी [ उसके ] हृदय से न लगते हुए ( न लग कर ), भौंहों, चित्त [ तथा ] नयनों को रिस से भरे हुए [पर्यंक की एक ओर की ] पाटी पकड़ कर [ नायक की ओर पीठ कर के]रही है ( स्थित है ) ।। किय हाइलु चित-चाइ लगि, बजि पाइल तुव पाइ । पुनि सुनि सुनि मुहँ-मधुरधुनिक्यौं न लालु ललचाइ ॥ २१२ ॥ किय=किया । 'किय’ का प्रयोग कियौ' के अर्थ में ४२-संख्यक दोहे में भी हुआ है । हाइलु = किसी वस्तु की प्राप्ति के निमित्त बड़ी लालसा रखने वाला ।। चित-चाइ लगि =चित्त की उमंग पर अपना प्रभाव डाल कर ॥ बजि पाइल तुध पाइ=पायल ने तेरे पैर मैं बज कर, अर्थात् तेरे पैर के पायल ने अपने बजने से ।। १. को ( ५ )| २. कल ( १ ), कला ( ४ ) । ३. सा रिस ( ४ ), सरस ( ५ ) । ४. भैरै ( १ )।

बिहारी-रत्नाकर ( अवतरण )--नायक ने कहीं नायिका की पायल की ध्वनि सुनी है, जिससे वित्त मैं उमंग उत्पन्न होने के कारण वह बड़ा लालसायुत हो रहा है। सखी उसका यह वृत्तांत बतला कर नायिका से कहती है कि केवल पायल की ध्वनि पर मोहित होने वाला नायक वास्तव में बड़ा गुणग्राही है, अतः वह तेरे मुख की मधुर वाणी सुन कर कैसे न ललचायगा, और तुझसे क्यों न प्रेम करेगा ! अतः तुझको अब उससे बातचीत करनी चाहिए | ( अर्थ )-तेरे पैर की पायल [ ही ] ने बज कर, [ और नायक के ] चित्त के चाव (उत्साह) पर लग कर (प्रभाव डाल कर ), [जब उसको ] हायल ( लालसायुत) कर दिया है, [ ते ] फिर [ तेरे ] मुख की मधुर ध्वनि सुन सुन कर लाल क्यों न ललचायगा ( अर्थात् अवश्य ललचायगा और तुझसे बड़ा प्रेम करेगा ) ॥ लनैं हूँ साहस सहसु, कीर्ने जतन हजारु । लोइन लोइन-सिंधु तन पैर न पावत पारु ।। २१३ ॥ ( अवतरण )—पूर्वानुरागिनी नायिका का वचन सखी से | ( अर्थ ) हज़ार साहस धारण करने पर भी, [ तथा ] हज़ार यत्न करने पर [ भी मेरे ] लोचन [ नायक के ] तन-रूपी लावण्य-समुद्र में पैर कर पार नहीं पाते ॥ यहाँ लोचन को पैराक बनाया है। साहस धारण करना इसलिए कहा है कि जिस प्रकार समुद्र में वैरने वालों के लिए, अनेक जल-जंतु के कारण, बड़ा साहस आवश्यक होता है, उसी प्रकार सवाइन इत्यादि की शंका से नायि का भी बहुत साहस कर के नायक की ओर देखती है । यत्न करना इस कारण कहा है कि जैसे जल-जंतु तथा डूबने से बचने के निमित्त समुद्र मैं पैरने वाल को बडे-बडे यत्न करने पड़ते हैं, वैसे ही नायिका को भी चवाइन की दृष्टि तथा लोकापवाद से बचने के लिये, नायक के देखने के निमित्त, अनेक उपयुक्त उपाय करने पड़ रहे हैं । 'खोइन-सिंधु' का प्रयोग बड़ा समीचीन है. क्योंकि समुद्र का जल भी लवणमय होता है, और शरीर की शोभा भी लावण्य कहलाती है। नायिका का अभिप्राय यह है कि यद्यपि मैं बड़ा साहस कर के और अनेक यत्न से इधर उधर से झाँक साक लगा कर नायक की शोभा दखती हूँ, तथापि भली भाँति देख कर तृप्त नहीं हो पाती ॥ पट की ढिग कत ढाँपियति, सोभित सुभग सुबेष । हद रदछद छवि देति' यह सद रद-छद की रेख ।। २१४ ॥ ढिग = किनारा, छोर । इस शब्द का प्रयोग अब पास के अर्थ में होता है, और इसी अर्थ में बिहारी ने भी प्रायः इसका प्रयोग किया है । पर यहाँ इसका अर्थ छोर ही है । हद-यह अरबी शब्द 'हद्द' को विकृत रूप है । इसका अर्थ सीमा है । 'हद छबि देति' का अर्थ है, हद्द की छवि, अर्थात् परम छवि देती हुई ॥ रदछ = ओठ ॥ रद-छ३ = दाँतों का क्षत अर्थात् घाव ।। १. देखिपत (४), देत इह ( ५ )। ________________

बिहारी रत्नाकर ( अवतरण )-नायिका के ओठ पर नायक के दाँत का चिह्न लगा हुआ है । उसे वह, अंचल को किसी व्याज से ओठ पर ला कर, छिपाती है, पर सखी उस चिह्न को लक्षित कर के, परिहास करती हुई, कहती है | ( अर्थ )-रदच्छद ( ओठ ) पर हद्द की ( परम ) छवि देती हुई यह 'सद' ( सद्यः, टटकी ) दाँतों के घाव की रेखा पट की ढिग ( छोर, किनार ) से क्यों छिपाई जाती है । ( यह तो ] सुभग [ तथा ] सुंदर रूप से शोभित है ॥ नाह गरज नाहरगरज, बोलु सुनायौ टेरि ।। हँसी फौज मैं बंदि-बिच हँसी मबनु तनु हेरि ॥ २१५ ॥ नाहर-गरज=सिंह के गर्जन ॥ बोलु =शब्द, बोली ॥ टेरिबललकार कर ॥ ( अवतरण )--यह दोहा रुक्मिणी-हरण के समय का है । रुक्मिणीजी सेना के बीच मैं भी भाँति रक्षित हैं। इतने ही मैं श्रीकृष्णचंद्र ने आ कर और सिंह की भाँति गरज कर अपना बोल सुनाया । उसे सुन कर रुक्मिणीजी ने सब की ओर देख कर उपहास किया कि देखें, अब ये लोग मुझे क्याँकर बचाते हैं । ( अर्थ )–नाह ( नाथ, स्वामी अर्थात् श्रीकृष्णचंद्र ) ने सिंह की ( सिंह की सी ) गरज गरज कर । अपना ] बोल टेर ( ललकार ) कर सुनाया । [ उसे सुन कर श्रीकृष्णचंद्र को पहुँच जाना जान] सेना में बंद ( कैद, घेरे ) के बीच फंसी हुई (विवश ) [ रुक्मिणीजी ] सब की ओर देख कर [ व्यंग्य से ] हँस पड़ीं ॥ बाल-बेलि सूखी सुखद इहिँ रूखीरुख-घाम ।। फेरि डहडही कीजियै सुरस सचि, घनस्याम ।। २१६ ॥ रुख = चेष्टा । इस शब्द के लिंग इत्यादि के विषय में २४३ अंक के दोहे की टीका द्रष्टव्य है ॥ ( अवतरण )-कलहांतरिता नायिका की सखी की उक्ति मानी नायक से ( अर्थ )- आपकी ] इस रूखी चेष्टा-रूपी घाम से [ वह ] बाला-रुपी सुखद वेल सूख गई है ( १. क्षीण तथा हतप्रभ हो गई है। २. शुष्क हो गई है )[ अतः ] हे घनश्याम, ( १. श्रीकृष्णचंद्र । २. काले बादल ) [उसे ] सुरस ( १. सुंदर प्रीति अथवा अपनी प्रीति । २. सुंदर जल अथवा अपने जल ) से सींच कर फिर डहडही ( १. प्रसन्न । २. हरीभरी) कीजिए । आँधाई सीसी, सु लखि बिरह-बरनि विललात । बिच हीं सूखि गुलाबु गौ, छीट छैई न गात ।। २१७ ॥ .: १. तिनु ( १ ) १२. कीजिऐ (२), कीजियतु (४) । ३. विमल (४), जनन ( ५ ) । ४. विचि ही ( ५ )। ५. बीटा (५) । ६. झाय ( ५ ) । २ बिहारी-रत्नाकर बरनि = जलन, तपन । बिललात= विकलता से दीन स्वर में बोलते ॥ गुलाबु=गुलाब-जल ॥ ( अवतरण )-नायिका के विरह-ताप का वर्णन सखी नायक से करती है ( अर्थ )-उसको विरह की जलन से बिललात देख कर [ हम लोगों ने ठंढक पचाने के निमित्त गुलाब-जल की भरी] शीशी [उस पर] आधा दी (ढोली नहीं, प्रत्युत एकाएक उलट दी, जिसमें सब गुलाव-जल एक साथ ही उस पर पड़ जाय, और उसकी ज्वाला वुझे )। [ पर ज्वाला क्या बुझती । वहाँ तो उस गुलाब जल की एक ] छाँट भी [ उसके ] गात्र में नहीं छुई ( एक छाँट भी उसके गात्र तक न पहुँच ). [ सय का सब ] गुलाब-जल [ उसकी विरह-ज्वाला से ] बीच ही में सूख गया ।। तजी संक, सकुचति न चित बोलत वाकु कुवाकु । दिनछिर्नदा छाकी रहति, छुटैतु न छिनु छवि-छाकु ॥ २१८ ॥ योलत = बोलते हुए, बोलते समय ।। बाकु कुबाकु= अकबक, अंडबंड, अर्थात् कुछ का कुछ वचन ।। छिनदा ( क्षणदा ) =रात्रि । छाकी = पिए हुई । छकना वास्तव में पीने को कहते हैं। जैसे उसने जल छक लिया' । पर छकना तथा पीना, दोनों भय पीने के अर्थ में भी प्रयुक्त होते हैं। छाक = पिलाई अर्थात् मद्य-पान । यहाँ इसका अर्थ भय-पान का प्रभाव अर्थात् नशा है । ( अवतरण )—पूर्वानुराग मैं नायिका की जो दशा हो रही है, उसका वर्णन सखियाँ आपस मैं करती हैं । ( अर्थ )-[ देखो, इसने अब गुरुजनों की ] शंका [ भी ] छोड़ दी है, [ और ] बाक कुबाक ( अंडबंड वचन ) बोलते चित्त में सकुचाती नहीं । दिनरात छकी ( नशे में चूर) रहती है, क्षण मात्र [ भी इसका ] छवि-छाक ( सौंदर्य का नशा अर्थात् नायक का सौंदर्य देख कर जो प्रेम का नशा चढ़ गया है, वह ) छुटता नहीं ॥ फिरि फिरि बूझति, कहि कहा कह्यौ साँवरे गात । कहा करत देखे, कहाँ; अली, चली क्या बात ॥ २१ ॥ ( अवतरण )-नायिका नायक का वृत्तांत तूती से बड़ी उत्सुकता-पूर्वक पूछती है। उसके वाक्य से उसकी अत्यंत अभिलाषा लक्षित कर के कोई सखी किसी अन्य सखी से कहती है ( अर्थ )-[ वह ] फिर फिर ( वारंवार ) [ दूती से ] पूछती है कि कह, श्यामगात ( श्रीकृष्णचंद्र ) ने [ तुझसे ] क्या कहा, [ तूने उनको ] क्या करते [ तथा ] कहाँ देखा, [ और] हे सखी, [ मेरी ] वात ( चर्चा ) किस प्रकार चली ( निकली ) ॥ नव नागरितन-मुलुकु लहि जोबन-आमिर-जौर । घटि बढ़ि हैं यढ़ि घटि रकम करीं और की और ॥ २२० ॥ १. बोलति ( ४ ) । २. छनदा ( ४ ) । ३. छटतु ( १ ), खरो बिषम ( ५ )। ________________

विहारी-रत्नाकर आमिर ( अरबी शब्द ) = हुक्म चलाने वाला, हाकिम ॥ जौर ( फ़ारसी शब्द )=अत्याचार ॥ घटि बाढ़ = घटी बढ़ी, छोटी बड़ी ।। रकम ( अरबी रक़म ) =अंक ।। | ( अवतरण )-नवयौवनाभूषिता नायिका के शरीर में जिन वस्तु अर्थात् उर, नितंब इत्यादि मैं घटी अर्थात् लघुता थी, उनमें यौवनागम के कारण बढी अथात् गुरुता, और जिन वस्तु अर्थात् कटि, चंचलता इत्यादि मैं बड़ी अर्थात् अधिकता थी, उनमें घटी अथात् न्यूनता आ गई है। इसी विषय को सखी नायक से, नायिका के शरीर को देश, यौवन को नया आया हुआ हाकिम, और उक्न परिवर्तन का हाकिम के अत्याचार-द्वारा हाना कह कर, वर्णित करती है. ( अर्थ )-[ उस ] नागरी का तन-रूपी नया मुल्क पा कर यौवन-रूपी हाकिम के अत्याचार ने [ उसमें की ] रक़में छोटी से बड़ी [ और ] बडी से छोटी, [ अर्थात् ] और की और ( अदलबदल ), कर डाली है । जब कोई राजा किसी नए देश पर अधिकार कर लेता है, तो उस देश के पुराने कर्मचारिय से उसकी जमाबंदी ले कर वहाँ किसी अपने हाकिम को बंदोबस्त करने के निमित्त, भेजता है। वह हाकिम बहुधा घूस ले कर यह अत्याचार करता है कि जिनके नाम पर जो कर लिखा रहता है, उसका परिमाण घटा देता है, और जिन लोग से घूस नहीं पाता, उनके कर का परिमाण, जमाबंदी की पूरी जमा को कम न होने देने के अभिप्राय से, बढ़ा देता है ॥ कीजै चित सोई, तरे जिहिँ पतितनु के साथ । मेरे गुन-ौगुन-गननु गनौ न, गोपीनाथ ।। २२१ ॥ साथ= संघ, समूह ॥ ( अवतरण )-कोई भक्त भगवान् से कहता है ( अर्थ ) हे गोपीनाथ, मेरे गुणअवगुणों के गणों ( समूहों ) का मत गिनिए ( यह हिसाब मत लगाइए कि मेरे गुण अधिक हैं अथवा अवगुण ) [ क्योंकि यदि आपने ऐसा किया, तब तो मैं तर चुका ] । [ बस अपने ] चित्त मे [ आप ] सोई ( वही वस्तु अर्थात् दया ) कीजिए ( धारण कीजिए ), जिससे ( जिस दया से ) पतितों के साथ ( समूह) तरे हैं ।। | -- - - मृगनैनी दृग की फरक, उर-उछाह, तन-फूल ।। बिन हीं पिय-आगम उमगि, पलटन लगी दुकूल ।। २२२ ।। फूल = उभार ॥ आगम= आगमन ।। दुकूल = साड़ी इत्यादि । ( अवतरण )-आगमिष्यत्पतिका नायिका ने प्रियतम की अधाई का शुभ शकुन अनुमान कर के अपने भूषण, वसन का बदलना प्रारंभ कर दिया है । सखी-वचन सखी से | ( अ )-[ देखो, यह ]मृगनयनी ( मृग' के से नयनों से चारों ओर देखती हुई) . १. जिन ( ५ ) । -- -

बिहारी-रत्नाकर अपने [ बाएँ ] दृग की फड़क, उर के [ अकारण ] उत्साह, [ तथा ] तन के [ अचानक ] उभार से [ प्रियतम की अवाई का अनुमान कर के ] विना प्रियतम के आए ही उमग कर [उनसे मिलने के चाव से ] साड़ी इत्यादि बदलने लगी है। रहे बरोठे मैं मिलत पिउ प्राननु के ईसु ।। आवत आवत की भई बिधि की घरी घरी सु ॥ २२३ ॥ बरोठा ( प्रकोष्ठ ) = द्वार पर का दाल। ।। बिधि = ब्रह्मा । घरी सु= सो घड़ी अर्थात् उतना समय, जितना प्रियतम को अपने गुरुजन तथा इष्टमित्रों से मिलने में लगा ॥ | ( अवतरण )--- नायक परदेश से आ कर द्वार पर के दालान में गुरुजन तथा इष्टमित्र से मिल रहा है। इस कारण नायिका के पास पहुँचने मैं उसको कुछ विलंब हुआ । नायिका को मिलनोत्सुकता के कारण उतना विलंब भी बहुत ज्ञात हो रहा है। सखियाँ आपस मैं उसकी इस तीव्र उत्सुकता का वर्णन करती हैं | ( अर्थ )-[ इसके ] प्राणों का ईश प्रियतम बरोठे में [ गुरुजनों तथा इष्टमित्रों से] मिलता हुअा रह गया है ( किंचित् ठहर गया है ), [ सो इसके निमित्त ] वह आते आते की घड़ी ( आने की प्रतीक्षा की घड़ी ) ब्रह्मा की घड़ी हो रही है ॥ | इस दोहे के पूवर्धा के अंत मैं जो ‘ईसु' शब्द है, उसका उकारांत होना आवश्यक है ; क्र्योंकि उत्तरार्ध के अंत मैं ‘घरी सु' आया है, जिसमें 'सु' सो का लघु रूप मात्र है। पर उकारांत 'ईसु' ईश शब्द के कर्ता अथवा कर्मकारक का एकवचनांत रूप होता है, और यहाँ 'ईस' की क्रिया तथा विशेषण अर्थात् ‘रहे मिलत' तथा 'प्राननु के', ये दोन ही बहुवचन हैं। अतः इस पाठ मैं एकवचन कर्ता की क्रिया तथा संबंधकारक-रूप विशेषण, दोन बहुवचन हैं, जो व्याकरण के नियम के विरुद्ध है । यद्यपि एक व्यक्ति के निमित्त भी प्रतिष्ठार्थ बहुवचन का प्रयोग होता है, पर ऐसी दशा में कर्ता, क्रिया इत्यादि सब बहुवचनांत प्रयुक्त होते हैं। एकवचन कर्ता के निमित्त प्रतिष्ठार्थ बहुवचन क्रिया का प्रयोग कदाचित् कोई कोई कर भी लेते हैं, पर सतसई मैं इस दोहे के अतिरिक़ और कहीं ऐसा प्रयोग देखने में नहीं आया कि कर्ता तो एकवचनांत हो, और क्रिया तथा विशेषण दोन बहुवचनांत । अतः इस दोहे के पूर्वार्ध के पाठ में कुछ गड़बड़ अवश्य है । अनवर-चंद्रिका तथा श्रीप्रभुदयालु पाँडे की टीका मैं इस दोहे के पूर्वार्ध के पाठ ये मिलते हैं ( अनवर-चंद्रिका ) --"रह्यौ बरोठे मैं मिलत पिय प्राननि को ईसु ।” ( प्रभुदयालु पाँडे-कृत टीका )-रह्यौ बरोठे में मिलत पिय प्रानन को इसु ।' इन पार्टी के अनुसार तथा जो परिपाटी सतसई के इस संस्करण मैं रक्खी गई है, उस पर विचार कर के शुद्ध पाठ यह ठहरता है “रह्यौ बरोठे मैं मिलतु पिउ प्राननु को ईसु ।” और, यह पाठ उचित भी ज्ञात होता है, क्याँकि इसमें कर्ता, क्रिया तथा संबंधकारक-रूप विशेपण सब एकवचनांत हैं, पर जिन पाँच प्राचीन पुस्तक के आधार पर इस ग्रंथ मैं पाठ शुद्ध किए गए हैं, उनमें से तीन पुस्तक अर्थात् पहिली, चौथी तथा पाँचवीं के मिलान से वही पाठ ठीक ठहरता है, जो मूख दोहे में रखा गया है, और दूसरी तथा तीसरी पुस्तक के खंडित होने के कारण यह दोहा उनमें ________________

विहारी-रत्नाकर मिलता ही नहीं। अतः मूल मैं तो वही पाठ रक्खा गया है, पर अर्थ करने मैं अनवर-चंद्रिकादि के अनुसार जो पाठ ठहरता है, वह ग्रहण किया गया है । रबि बंदी कर जोरि, ए सुनत स्याम के बैन । भए हँसँहैं सबनु के अति अनखौंहें नैन ।। २२४ ॥ ( अवतरण )—यह दोहा चीर-हरण के प्रसंग का है । एक समय गोपियाँ नंगी हो कर यमुना मैं नहाती थीं । श्रीकृष्णचंद्र उनके वस्त्र ले कर एक कदंब के वृक्ष पर जा बैठे। उनके बहुत बिनती करने तथा क्रोध दिखान पर, श्रीकृष्ण चंद्र ने कहा कि अच्छा तुम लोग हाथ जोड़ कर सूर्य भगवान् की वंदना करो, तो हम तुम्हारे वस्त्र दे दें । इस बात से उनका यह नटखटपन समझ कर कि यह हमको नग्न देखना चाहते हैं, वे सब मुसकरा पड़ । इसी का वर्णन कवि करता है-. | ( अर्थ )-श्रीकृष्णचंद्र के ये वचन सुनते [ ही कि तुम ] हाथ जोड़ कर सूर्य की वंदना करो [ जिसमें उनके हाथ कुचों पर से हट जायँ ], सभों के ( सब गोपियों के ) अति अनखौहें (रोष से बहुत भरे हुए ) नयन हसाँहें ( हास्योन्मुख ) हो गए ॥ हौं हीं बौरी बिरह-बस, कै बौरी सबु गाउँ । कहा जानि ए कहत हैं ससिहिँ सीतकर-नाउँ॥ २२५ ॥ सीतकर ( शीतकर ) = शीतल किरणों वाला ॥ ( अवतरण )-पूर्वानुराग मैं नायिका का चंद्र की किरणें ताप देती हैं, अतः वह अपने मन में सोचती है कि लोग ने चंद्रमा का नाम शीतकर क्या समझ कर रक्खा है ( अर्थ )-मैं ही विरह-वश (विरह के कारण ) बौरी ( बावली) हो रही हैं [ जिससे मुझे चंद्रमा की शीतल किरणें तप्त झात होती हैं ] अथवा सब ग्राम ही ( ग्राम निवासी समुह ही ) बौरा गया है, [ जिससे उनको ताप देने वाले चंद्रमा की किरणें शीतल लगती हैं । ज्ञात नहीं होता कि ] ये [ लोग ] शशि को [ जो कि संतापित करता है ] क्या जान कर ( किस निमित्त ) शीतकर नाम वाला कहते हैं ॥ अनी बड़ी उमड़ी लखें असिबाहक, भट भूप ।। मंगल करि मान्यौ हियँ, भो मुँहु मंगल रूप ॥ २२६ ॥ असिबाहक = कृपाण धारण करने वाला, तलवरिया ।। भट = योद्धा ।। मंगलु= शुम ॥ मंगलु= मंगल तारा, जिसका रंग हलका लाल माना जाता है ।। ( अवतरण )-कवि मिर्जा राजा जयशाह की शूरता का वर्णन करता है| ( अर्थ )-असिवाहक, वीर राजा ने [ शत्रु की ] वड़ी अनी ( सेना ) उमड़ी ( चढ़ आई ) देख कर [ अपने ] हृदय में [ इस घटना को, यह सोच कर कि तलवार चलाने का

बिहारी-रत्नाकर अच्छा अवसर मिला, ] मंगन ( शुभ ) कर के माना, [ और उसका ] मुख [ उत्साह से ] रूप में मंगल [ सा गुलाबी ] हो गया ॥ सोवत, जागत, सुपन-बस, रसे, रिस, चैन, कुचैन । सुरति स्यामघन की, सु रति बिसरें हैं बिसरै न । २२७ ॥ ( अवतरण )-प्रोषितपतिका नायिका अपनी स्मृति-दशा सखी से कहती है ( अर्थ )-सोते, जागते. स्वप्न देखते, रस में ( सरसता से कोई काम करते ), रिस में (रोष से कुछ कहते या करते ), चैन करते, विकल होते [ इन सब दशाओं में से किसी में भी] घनश्याम की [जो ] स्मृति [ है ], सो भूलने से भी (भुलाने से भी) रत्ती भर नहीं भूलती ॥ संगति सुमति न पावहीं परे कुमति कैं धंध ।। राखौ मेलि कपूर मैं, हींग न होई सुगंध ॥ २२८ ।। (अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्रि है-- | ( अर्थ )-कुमति के धंधे ( झंझट ) में पड़े हुए [ लोग अच्छी ] संगति से सुमति नहीं पाते । हाँग को [ कितना ही ] कपूर में मिला कर रक्खो, [ पर वह ] सुगंध (अच्छी गंध वाली ) नहीं होती ॥ बड़े कहावत आप सौं, गरुवे गोपीनाथ । ती बदिहौं, जौ राखिहौ हाथनु लग्वि मनु हाथ ।। २२९ ॥ गरुवे =भारीभरकम, गंभीर, धैर्यवान् ॥ गोपीनाथ = गोपियों के स्वामी । इस शब्द से दूती यह भ्यंजित करती है कि यद्यपि तुम अनेक गोपियों के स्वामी हो, तथापि में जिस नायिका का वर्णन करती हैं, वह कुछ और ही वस्तु है। उसे देख कर तुमको ये सब गोपियाँ भूल जायँगी, और मन अपने वश से निकल जायगा ।। बहिौं = सही समझेगी, तुम्हारा बड़ापन ठीक मानूंगी ।। | ( अवतरण )-सखा अथवा दूत नायिका के हत्थे का सौंदर्य कह कर नायक के चित्त में रुचि उपजाती है ( अर्थ )-हे गरुवे गोपीनाथ, [ तुम ] अपसे ( अपने मन से ) बड़े कहलाते हो। [ पर मैं तो तुम्हारी बड़ाई ] तब मानूंगी, जब [ तुम उसके ] हाथों को देख कर [ अपना ] मन [ अपने ] हाथ में ( वश म ) रक्खोगे [ अर्थात् उसके हाथ ऐसे सुंदर हैं। कि उनको देख कर तुम्हारा मन तुम्हारे हाथ से निकल कर उनमें चला जायगा ] ॥ | 26 सोरठा । कौड़ -बूंद, कसि संकर बरुनी सजल । कीने बदन निमूद, दृग-मलिंग डारे रहत ॥ २३० ॥ १. में ( ४ ) । २. वासर करि अति चेन ( ४ ) । ३. कबहूँ चित बिसरे न (४) । ४. होत ( ५ )। ५. गरए ( ५ ) । ६. मनु लखि ( १ ) । ७. कोरा ( १, २ ) । ६. मलंग (४)। ________________

१९ बिहारी-रत्नाकर कौड़ा ( कपर्द )= बड़ी बड़ी कौड़ियाँ ॥ कसि= जकड़ कर । निर्मंद= मुद्रित, बंद । इसका अर्थ अन्य टीकाकारों ने विना मुँदे हुए, अर्थात् खुले हुए, किया है । यद्यपि यह अर्थ भी यहाँ हो सकता है, क्यॉक कोई कोई मलंग मौन धारण न कर के हक़ हक़' की रट लगाए रहते हैं, जिससे उनके मुँह खुले रहते हैं, पर हमारी समझ में इस दोहे में निर्मूद' का अर्थ बंद ही करना समीचीन है, क्योंकि ‘बरुनी' के विषय में जो ‘कसि' शब्द का प्रयोग कवि ने किया है, उससे आँखों का बंद कहना ही उसका इष्टार्थ प्रतीत होता है । मलिंग–एक संप्रदाय के मुसलमान फ़क़ीर मलिंग अथवा मलंग कहलाते हैं। ये हिंदुओं के औघड़ तथा अलखियों की भाँत कौ की लड़ों तथा लोहे की साँकड़ों से अपने शरीर कसे रहते हैं, और किसी एकांत स्थल में मौनावलंबन किए, ईश्वर के ध्यान में निमग्न, पड़े रहते हैं। | ( अवतरण )-पूर्वानुरागिनी नायिका आँख बंद किए हुए नायक के ध्यान में निमग्न है, और उसकी आँख की कोर में आँसू भरे हुए हैं। सखी नायक से उसकी यह दशा कह कर और उसकी आँखों को मलंग ठहरा कर व्यंग्य से उससे दर्शन-भिक्षा देने की प्रार्थनः करती है | ( अर्थ )[ उसके ] इग-रूपी मलिंग, अश्रुविंदु-रूपी कौड़ों [ तथा ] सजल बरुनीरुप साँकड़ों को [ अपने शरीर पर ] कस कर, मुंह बंद किए, [ अपने के ] डाले रहते हैं ( पड़ा रखते हैं ) ॥ । दोहा उयौ सरद-का-ससी, करति क्यों न चित चेतु। मनौ मदन छितिपाल को छाँहगीरु छबि देतु ॥ २३१ ॥ उयौ= उदय हुआ ।। राका= पूर्णिमा ॥ चतु= ज्ञान, विचार, स्मृति ॥ छितिपाल ( क्षितिपाल ) = राजा ॥ छाँहगीरु-फारसी में साथःगीर उस छोटे चॅदवे को कहते हैं, जो राज की गद्दी पर लगाया जाता है । सायः शब्द का हिंदी-भाषांतर छाँह कर के छाँहगीर शब्द बना लिया गया है । यहाँ इसका अर्थ छत्र है ॥ ( अवतरण )-मानिनी नायिका का मान छुड़ाने के लिये सखी उससे कहती है ( अर्थ )-[ वह देख, ] शरद-पूर्णिमा का चंमा उग आया। [ इस पर भी तु] चित्त में विचार क्यों नहीं करती। [ यह ] मानो मदन महाराज का छत्र छवि दे रहा है [अतः तुझे विचारना चाहिए कि उक्त महाराज के दरबार की जब तैयारी हो रही है, और वे शीघ्र ही चित्त-मंडल पर अपना अधिकार किया चाहते हैं, तो फिर मानिनियों की क्या दशा होगी ] ॥ ढरे ढार, तेहीं ढरत; दू ढार ढरौं न । क्य आनन अनि स नैना लागत नै न ।। २३२ ॥ ढरे= झुके, ढलके, रोझे ।। दार = ढुलकाव, ढुलकने की दिशा ॥ नै= झुक कर ।। ( अवतरण )-नायक किसी नायिका पर रीझा हुअा है। उसके अंतरंग सखा उसे समझाते हैं कि उसका प्राप्त होना बड़ा कठिन है, अतः तू किसी अन्य और चित्त लगा । नायक उनको उत्तर देता है १. करत ( ४, ५ )।

बिहारी-रत्नाकर | ( अर्थ )-[ मेरे नयन जिस ] ढार पर ( जिस दुलकाव की ओर, अर्थात् जिस ओर) ढरे हैं ( रीझे हैं ), उसी पर ढरते हैं ; दूसरे द्वार पर (दूसरी ओर ) नहाँ ढरते (रीझते )। किसी प्रकार भी अन्य आनन ( मुख ) से [ मेरे ] नयन 'नै' कर ( झुक कर, रीझ कर ) नहीं लगते ॥ सोवत लखि मन मानु धरि, ढिग सोयौ प्यौ आइ ।। रही, सुपेन की मिलनि मिलिं, तिय हिय सलपटाइ ।। २३३ ।। ( अवतरण )–नायक यह देख कर कि नायिका मान ठान कर सो गई है, स्वयं भी उसके पास सो रहा । उद्दीपन होने के कारण नायिका नायक से लिपट गई । पर अपनी बात रखने के निमित्त वह इस भाँति तिपटी कि नायक उसे, नंद मैं लिपटते हुए जान, जगा कर मना ले । सखी-वचन सखी से (अर्थ)-[ उसका ] मन में मान धारण कर के सोते देख प्रियतम आ कर [ उसके ] पास सो रहा । [ तब वह ] स्त्री नींद के मिलन की भाँति मिल कर [ प्रियतम के ] हृदय से लिपट रही ॥ जोन्ह नहीं यह, तमु वहै, किए जु जगत निकेतु । होत उदै ससि के भयौ मानहु सँसहर सेतु ॥ २३४ ॥ ( अवतरण )-प्रोपितपतिका नायिका को वियोग मैं जगत् अंधकारमय दिखलाई देता है। चाँदनी भी उसको अंधकार ही का रूपांतर प्रतीत होता है । अतः वह सखी से कहती है ( अर्थ ) ---यह चाँदनी नहीं है, [प्रत्युत] वही अंधकार है, जिसने जगत् में अपना] निकेतन ( घर ) कर रक्खा है । [यह जो श्वेत जान पड़ता है, सो ] मानो चंद्रमा के उदित होते [ ही वह अंधकार ] डर कर श्वेत हो गया है [ यह श्वेतता कुछ चंद्रिका की नहीं है, क्योंकि यदि चंद्रिका होता, तो मेरी ताप हरती ] ॥ -- ---- जात जात बितु होतु है ज्यौं जिय मैं संतोषु ।। होत होत जौ होइ, तो होइ घरी मैं मोषु ॥ २३५ ॥ ( अवतरण )-धन-लोभी मनुष्य से कवि की प्रास्ताविक उक्ति है ( अर्थ )-जिस प्रकार वित्त ( धन ) जाते जाते ( नष्ट होते होते ) चित्त में संतोष होता जाता है [ कि ईश्वर की जः इच्छा है, वही होता है, हमारा क्या वश है ], [उसी प्रकार ] जो [ उसके ] होते होते ( संवित होने के समय ) [ संतोष ] हो [ कि १. सपन ( १, २, ४ ) । २. पिय ( १, ३, ४) । ३. उदो ( १, २ ) । ४. ससिहर (५)। ५. मॅहि ( १, २ )। ________________

बिहारी-रत्नाकर जो ईश्वर की इच्छा होगी, वही मिलेगा, हम वृथा क्यों” सुमार्ग तथा कुमार्ग से धन संचित करने का उद्योग करें ], तो घड़ी भर में ( अति शीघ्र ) मोक्ष हो जाय ।। तन भूषन, अंजन दृगनु, पर्गनु महावरे-रंगें । नहिँ सोभा क साजियतु, कहियँ हाँ कौं अंगे ।। २१६ ॥ ( अवतरण )-सखी नायक से नायिका की स्वाभाविक शोभा का वर्णन करती है ( अर्थ )-[ वह स्वभावतः ऐसी सुंदर है कि उसके ] तन को भूषण से, आँखों को अंजन से, [ तथा ] पाँवों को महावर के रंग से शोभा के निमित्त नहीं साजा जाता, [ प्रत्युत सव, अर्थात् भूषण, अंजन, तथा महावर का रंग, ] कहने मात्र को [ उसके ] अंग में हैं। [ भावार्थ यह है कि ये सब उसके शरीर में ऐसे मिल जाते हैं कि उसकी शोभा बढ़ाने में कुछ उपकारी नहीं होते, केवल कहने से उनकी उपस्थिति जानी जाती है, क्योंकि उसका तन तो भूषणों के विना ही सुशोभित तथा कंचन-दणे, आँखें अंजन के विना ही आँजी हुई सी एवं पार्वं महावर के विना ही लाल हैं ] ॥ पाइ तरुनिकुच-उच्चपदु चिरम ठग्यौ सबु गाउँ । छुटै ठौरु रहिहै वहै। जु हो मोलु, छवि, नाउँ ॥ २३७ ॥ चिरम = गुंजा, पुँघुची ।। ( अवतरण )—किसी कुपात्र मनुष्य को किसी राजा ने उच्च पद दे रक्खा है, अतः वह बहुत वेतच पाता है, लोग उसका उत्तम व्यक्ति समझते हैं, एवं बड़ी बड़ी उपाधिर्यों के साथ उसका नाम लिया जाता है। उसी की व्यवस्था कवि हुँघुची पर अन्योकि कर के कहता है ( अर्थ )-[ देखो, ] तरुणी-कुच-रूपी उच्च पद को पा कर विरम ने सब गाँव (ग्राम-निवासियों ) को ठग लिया है ( अपने किसी बहुमूल्य, अत्यंत शोभा से संपन्न एवं शुभनामधारी रत्न होने का धोखा दे रक्खा है ) । [ पर इस ] ठौर के छुटने पर ( इस पद से च्युत होने पर ) [ उसका ] मोल, शोभा, [तथा ] नाम वही रह जायगा, जो [उसके इस पद पर आने के पूर्व ] था ॥ नितप्रति एकत .हीं रहत, बैस-बरन-मन-एक । चहियत जुगलकिसोर लखि लोचन-जुगल अनेक ॥ २३८ ॥ नितप्रति एकत ही रहत=नित्यप्रति एकत्र ही रहते हुए अर्थात् सदा एकत्र रहने वाले । यह खंड-वाक्य 'जुगलकिसोर' पद का विशेषण है ॥ बैस-बरन-मन-एक = जो वैस ( वयक्रम ), बरन ( वर्ण, १. अंजनु ( १, ५) । २. पगनि ( ४ ), पगन (५)। ३. महावर ( १ ) । ४. रंगु ( १, २, ४) । ५. को ( ४ ), काँ (५) । ६. साजिये ( ५ ) । ७. ए ग क ( १ ), वे ही को (४), ए हो को ( ५ ) । ८. अंगु ( १, ४) । ६. तन ( १, २ )।

१०० बिहारी-रत्नाकर रंग ) तथा मन, इन तीनों में एक ही हो रहे हैं, ऐसे । यह समस्त पद भी ‘जुगलकिसोर' का विशेषण है ॥ चहियत = चाहे जाते हैं, अभिलषित होते हैं । जुगलकिसोर ( युगलकिशोर )= श्रीराधिका तथा श्रीकृष्णचंद्र ॥ लोचन-जुगल = लोचनों के जोड़े ।।। ( अवतरण )-किसी युगल-उपासक ब्रजवासी भक़ की उक्रि है ( अर्थ )–नित्यप्रति एकत्र ही रहने वाले, [ तथा ] वयक्रम, रंग एवं मन से एक [ ही हो रहे ] युगलकिशोर को [ लोचनों के एक जोड़े से ] देख कर [ तृप्ति नहीं होती, प्रत्युत उनकी शोभा देखने के लिए ] लोचना के अनेक जोड़े चाहे जाते हैं ( अभिलषित होते हैं, अर्थात् यह अभिलाषा होती है कि हमको लोचनों के अनेक जोड़े मिलें, जिसमें हम इनकी छवि भली भाँति देख सके ) ॥ | दोर्मों का एकरंग होना इसलिए कहा है कि दोनों पारस्परिक आभा से हर रहते हैं, जैसा कि विहारी ने श्रीकृष्णचंद्र के विषय मैं अपने प्रथम दाहे मैं कहा है, तथा माघ ने नारद मुनि एवं श्रीकृष्णचंद्र के मिलने पर दोनों को एक वर्ण हो जाना वर्णित किया है प्रफुल्लतापिच्छनिभैरभीषुभिः शुभैश्च सप्तच्छदपांशुपाण्डुभिः । परस्परेणच्छुरितामलच्छवी तदैकवणाविव तौ बभूवतुः ॥ एकमन इस अभिप्राय से कहा है कि दोनों के मन एक से प्रेममय हो रहे हैं। इस दोहे मैं चमत्कार यह है कि दृश्य पदार्थ तो यद्यपि दो के स्थान पर एक ही रह गया है, तथापि देखने वाली इंद्रियाँ दा होने पर भी देखने वाले को तृप्त नहीं कर सकत, प्रत्युत तृप्ति के निमित्त आँखों के अनेक जोड़े अभिलषित होते हैं। इससे शोभाधिक्य व्यंजित होता है ।। मन न धरति मेरी कह्यौ हूँ पर्ने सयान । अहे, परनि परि प्रेम की परहथ पारि न प्रान ।। २३९ ॥ परनि = पड़न, धावा, लूट, अाक्रमण । बटपरा शब्द में भी परा' का अर्थ पड़ने वाला अर्थात् अक्रमण करने वाला होता है । ( अवतरण )-नायिका को सखी शिक्षा देती है ( अर्थ )-तू अपने सयान ( सयानपने के अभिमान ) के कारण मेरा कहा [ अपने] मन में नहीं धरती । अहे ( अरी, में तुझे चैतन्य किए देती हूँ। देख ), प्रेम की ‘परनि' (आक्रमण, डाके) में पड़ कर [तू अपने ] प्राण ‘परहथ' (दूसरे के हाथ, अर्थात् वश, में) मत डाल ॥ - ८ -- नग्व-रेखा सोहैं नई, अलमॉहैं सब गात । सैहैं होत न नैन ए, तुम मैं हैं कत खात ॥ २४० ॥ ( अवतरण )-खंडिता नायिका का वचन नायक से १. घरत (४, ५) । ________________

विहारी-रत्नाकर | ( अर्थ )-[ तुम्हारे शरीर में ] नई (टटकी लगी हुई ) नख-रेखाएँ शोभित हैं, [ और तुम्हारे ] सब गात आलस्य-युक्त हैं, [ जिसकी लज़ा से तुम्हारे ] ये नेत्र सामने नहीं होते । [ इन सब लक्षणों से तुम्हारा अपराध पूर्णतया निर्धारित हो रहा है। उसके छिपाने के निमित्त ] तुम [ झूठी ] स ( शपथे ) क्यों खा रहे हो [ कि हम अन्य स्त्री के यहाँ नहीं गए थे ] ॥ हरि, कीजति बिनती यहै तुम सौं बार हजार ।। जिहँ तिहिँ भाँति डखौ रह्यौ पर रहौं दरबार ॥ २४१ ।। ( अवतरण )-सेवा तथा दर्शन-सुख के अभिलाषी भक़ की प्रार्थना श्रीटंदावन-विहारी से ( अर्थ )-हे हरि, तुमसे हज़ार बार यही विनती (नम्रत-पूर्वक प्रार्थना ) की जाती है [ कि मैं तुम्हारे ] दरवार (राजसभा) में जिस प्रकार हो सके, उसी प्रकार ( अच्छी अथवा बुरी जिस दशा में संभव हो, उसी में ) डला हुआ ( लुढ़कता पुढ़कता ) पड़ा रहूँ [ भावार्थ यह है कि मैं तुम्हारे दरबार से निकाल दिया जाना नहीं चाहता, अर्थात् मुक्ति नहीं चाहता, प्रत्युत तुम्हारी सेवा में, चाहे जिस दशा में हो, रहना चाहता हूँ ] ॥ | भक़ि-मार्ग के अनुयायी वैष्णव मुक्किं कदापि नहीं चाहते। उनका सिद्धांत यह है कि मुकि मैं रक्खा ही क्या है ? जो कुछ आनंद है, वह तो युगल-स्वरूप के दर्शन तथा सेवा में है । मुक्ति हो जाने पर तो अपनपा ही जाता रहता है, अतः सेवा तथा दर्शन का आनंद नहीं प्राप्त हो सकता ॥ भौंह उँचै, आँचरु उलटि, मौरि' मोरि , मुहु मोरि । नीठि नीठि भीतर गई, दीठि दीठि सौं जोरि ।। २४२ ।। मौरि ( मौलि ) = शिर ॥ मोरि–प्रथम मोरि' का अर्थ घुमा कर अर्थात् मटका कर अथवा बिदा करने का इंगित कर के, और द्वितीय का अर्थ फेर कर, अर्थात् मेरी और से घर की ओर कर के, है ॥ ( अवतरण )-नायिका ने अपने द्वार पर से नायक को देख कर जो चेष्टाएँ कीं, उन पर नायक रीम गया है, और अपने अंतरंग सखा अथवा नायिका की सखी से उनका वर्णन करता है ( अर्थ )-भांहें ऊँची कर के ( सानंद देखने का भाव कर के ), आँचल [ किसी व्याज मे] उलट कर ( हटा कर) [ जिसमें सुंदर त्रिवली इत्यादि दिखाई दे जायँ ], सिर घुमा कर ( मटका कर), [ और फिर ] मुंह मोड़ कर ( पीछे फिर कर ) [ मेरी ] दृष्टि से दृष्टि मिला कर, कठिनता से ( अपनी इच्छा के विरुद्ध, लोकापवाद के भय से) [ वह ] भीतर चली गई ॥ रस की सी रुख, ससिंमुखी, हँस हँसि बोलत वैन । गूढ़ मानु मन क्य रहै। भए बूढ़-रंग नैन ।। २४३ ॥ |. १. तुम स इहै विनती (५) । २. परे रहो, डटे रहो (४), डरपो रहूँ, परौ हूँ ( ५ ) । ३. मारि मोरि (४, ५) । ४. डीठि ( ५ )।

१०२ बिहारी-रत्नाकर रुख ( रुख )—यह फ़ारसी भाषा का शब्द है । इसका अर्थ मुख है। उर्दू में इसका अर्थ चेष्टा, दिशा इत्यादि भी होता है। उक्त भाषा में इसका प्रयोग पुलिंग-रूप से होता है, पर भाषा में स्त्रीलिंग तथा पुलिंग, दोन रूप में दिखाई देता है । बिहारी ने इसका प्रयोग चार दोहों में किया है, और चारों में इसको स्त्रीलिंग ही माना है । देखो दोहे २१६, ३६४, ४१५ ॥ बुढ़ = बीरबहूटी । ब्रज में बीरबहूटी को सावन की बूढ़ी अथवा डोकरी अब भी कहते हैं । ( अवतरण )-खंडिता धीरा नायिका से नायक-वचन ( अर्थ ) -हे शशिमुखी, रस की सी रुख ( प्रेम की चेष्टा की सी चेष्टा ) से हँस हँस कर वचन बोलते ( बोलने से ) मन में [ तेरा] मान गुढ़ ( छिपा हुआ ) कैसे रह सकता है, [ क्योंकि ] तेरे नयन वीरबहूटी के रंग के हो गए हैं ॥ जिहिँ निदाघ-दुपहर रहै भई मांघ की राति । तिहि उसीर की रावटी खरी अावटी जाति ॥ २४४ ॥ ( अवतरण )-दूती नायक से नायिका के विरह-ताप का वर्णन करती है| ( अर्थ )- जिस [ उशीर की रावटी अर्थात् खस की बनी हुई रावटी ] मैं [ ऐसी ठंढक है कि उसमें बैठने वाले को ] ग्रीष्म की दुपहर माघ की रात हुई रहती है ( जान पड़ती है ), उस उशीर की रावटी में [ भी वह विरह-ताप के कारण ] खरी ( अत्यंत ) उबली जाती है ॥ रही दहेड़ी ढिग धरी, भरी मथानिया बारि ।। फेरति करि उलटी रई नई बिलोवैनहारि ॥ २४५ ॥ मथनिया = मथने का पात्र, वह बड़ी हाँड़ी जिसमें दही तथा जल मिला कर मथा जाता है । ( अवतरण )-नायिका दही मथने के लिए बैठी है। इतने ही मैं नायक वहाँ आ गया। उसको देख कर नायिका मोह से उखटी पुलटी क्रिया करने लगी । कोई सखी दूसरी सखी से उसकी दशा कहती है ( अर्थ )-दहेड़ी ( दही की हाँड़ी ) [ तो इसके ] पास [ ज्यों की त्यों ] रक्खी [ ही ] रह गई, [ केवल ] जल से भरी हुई मथनिया में [ विना दही डाले ही ] यह नई ( अनोखी ) बिलोने वाली ( मथने वाली ) रई ( दही मथने का काट का यंत्र ) उलटी कर के फेर रही है ( घुमा रही है ) ॥ । देवर-फूल-हने जु, सु सु उठे हरषि अँग फूलि ।। हँसी करति औषधि सखिनु देह-ददोरनु भूलि ॥ २४६ ॥ १. माह (४, ५ ) । २. सो ( ५ ) । ३. निलोवानि ( १, ४) । ४. रािस (४) । ५. औषदि (१); ओषदि (४), औषद (५ ________________

बिहारी-रत्नाकर १०३ ददोरनु = ददोरौं की । मच्छड़ इत्यादि के काटने से अथवा और किसी कारण जो फूलन शरीर में, रस्थान स्थान पर, हो आती है, उसी को ददोरा कहते हैं । ( अवतरण )-नायिका का अपने देवर के साथ गुप्त प्रेम है। देवर ने नायिका पर फूल कँके । जिन अंग पर वे फूल लगे, वे सब हर्ष से फूल आए । सखियाँ उन फूलन को ददरे समझ कर कुछ औषधि करने लगी । इस पर नायिका उनके भ्रम पर हँस पड़ी । कोई चतुर सखी ये सब बातें समझ कर किसी दूसरी सखी से कहती है ( अर्थ )-देवर द्वारा फूल से मारे हुए जो जे अंग हैं, से सो [ तो ] हर्षित हो कर फूल उठे हैं [ किसी व्याधि से नहीं फूले हैं, जो उनमें औषधि की आवश्यकता हो ]। [ अतः वह ] देह के ददोरों की भूल कर औषधि करती हुई सखियों पर हँसी ॥ फूले फदकत लै फरी पल, कटाच्छ-करवार । करत बचावत विय-नयन-पाईक घाइ हजार ॥ २४७ ॥ फूले = (१) प्रसन्नता से उमगे हुए । (२ ) प्रतिद्वंद्वी को देख कर शरीर फुलाए हुए ॥ फदकत= ( १ ) चपलता के साथ इधर उधर देखते हुए । ( २ ) कूद कूद कर पैंतरा बदलते हुए ॥ करवार ( करपाल ) = तलवार ।। बिय= दोनों । इस शब्द को बिहारी ने द्वितीय अर्थात् अन्य के अर्थ में भी प्रयुक्त किया है । देखो दोहा नं० १२२ ॥ घाइ (घात ) = घाव, चोट ॥ | ( अवतरण )-गुरुजन मैं उपस्थित नायिका और नायक आपस मैं, नयन के द्वारा, अनेक प्रकार के हावभाव कर रहे हैं। कोई सखी यह लक्षित कर और उनके नयन का रूपक प्याद से कर के दूसरी सखी से कहती है ( अर्थ )—दोनों के नयन-रूपी पायक ( पैदल सिपाही ), पलक-रूपी ढाल [ तथा ] कटाक्ष-रुपी तलवार ले कर, फूले हुए फदकते, हज़ारों [ प्रकारों की ] चोटें करते [ और ] बचाते हैं । चोर्दै करने तथा बचाने का यह भाव है कि जब नायक के नयन कोई प्रार्थनात्मक इंगित करते हैं, तो नायिका के नयन उसको अनदेखा कर के टाल जाते हैं। तब नायक के नयन नायिका के नयन के उस अनदेखे का अनदेखा कर के फिर वही घात लगाते हैं। पहुला-हारु हियँ लँसै, सन की बँदी भाल ।। राखति खेत खरे खैरे खरे-उरोजनु बाल ॥ २४८ ॥ पहुला–इस शब्द का अर्थ हरिप्रकाश-टीका में फूल विशेष लिख कर छोड़ दिया गया है । लालचंद्रिका में इसका अर्थ ‘कुन्ज पुष्प' लिखा है । पंडित हरिप्रसाद ने इसका पाठ ‘प्रफुला' कर के अपनी आर्या में इसका अर्थ कुमुदिनी रक्खा है, और कदाचित् उन्हीं की देखादेखी श्रीदेवकीनंदन की एवं पंडित परमानंद की टीका में भी इसका पाठ ‘प्रफुला' रखा गया है। पं० प्रभुदयालु पांडे ने इसका अर्थ रुई की माला समझा है । हमारी एक १. करिवार ( १, ४)। २. पायक ( १ ) । २. पभुला (१), प्रफुलित { ४) । ४. लसत (४) । ५. सरी ( १, २ ) । ६. खरी ( ५ ) । १०४ बिहारी-रत्नाकर अंक वाली पुस्तक में इसका पाठ ‘पभुजा' है। उसका भी अर्थ स्पष्ट निर्धारित नहीं होता । हमारे मित्र पं० कृष्णविहारीजी मिश्र का कथन है कि देहात में पहूल' कोइँ अर्थात् कुमुदिनी के फूल को कहते हैं। अतः पहुला शब्द को 'पफूल' अथवा 'प्रफुला' का अपभ्रंश-रूप मानने में कोई बाधा नहीं प्रतीत होती । अथवा 'पहुला' शब्द को 'पाथला' शब्द का रूपांतर मानना चाहिए । पोथ काच के छोटे छोटे दानों को कहते हैं, जिनको गूंथ कर ग्रामीण स्त्रियाँ पहनती हैं । ‘पोथ' से 'थिला' और 'पोथला' से 'पोहला' अथवा 'पुहला' क्रमशः बन कर फिर उसी का स्वरों के व्यत्यय से ‘पहुला' हो जाना संभव है । सन की बेंदी-इसका अर्थ किसी ने सन के फूल की बेंदी, तथा किसी ने सन के बीज की बेंदी किया है । उक्त मिश्रजी महाशय का यह भी कथन है कि देहात में सनई के फूल की पंखड़ियों की बंदियों लड़कियाँ लगा लिया करती हैं, और सनई के फूल तथा कोइँ के फूल होते भी एक ही ऋतु में हैं । अतः इसका अर्थ सनई के फूल ही की बेंदी करना उचित है। अथवा 'सन की वेदी का अर्थ 'सनकेरवा' की वेदी करना चाहिए । 'गोरी गदकारी' इत्यादि दाहे में बिहारी ने 'सनकिरवा की आड़ लिखा है । आड़ लेने तथा आई तिलक को कहते हैं । इस दोहे में ‘सन की बेंदी' को उसी ‘सनकिरवा' की गोल टिकुली के अर्थ में मानना चाहिए । सनकिरवा का अर्थ ७०८-संख्पके दोहे की टीका में द्रष्टव्य है ॥ ( अवतरण )-नायक किसी गॅवारी स्त्री को खेत खाते देख कर उसकी स्वाभाविक शोभा पर रीझा है, और स्वगत कहता है ( अर्थ ) -[इसके ] हृदय पर [ केवल ] 'पहुला'-हार शोभित है, [तथा] भाल पर सन की बेंदी ।[यह] बाला खड़े उरोजों से (१. खड़े उरोजों वाली । २. खड़े उरोजों के प्रभाघ से) खरे खरे ( १. खड़े खड़े, खड़े रह कर । २. खरे खरे अर्थात् अच्छे अच्छे लोगों को ) खेत 'रास्वति' (१.खेत रखाती, खेत रक्षित रखती। २. मार गिराती अर्थात् मोहित करती ) है ॥


-- लई सह सी सुनन की, तजि मुरली, धुनि आन।

किए रहति नितं रातिदिनु कानन-लागे कान ॥ २४९ ।। ( अवतरण )-नायिका के अनुराग की दशा सखी नायक से कहती है ( अर्थ )-[ जब से उसने आपकी मुरली सुन ली है, तब से ] मुरली [ की ध्वनि को छोड़ कर अन्य ध्वनि ( शब्द, अर्थात् हम लोगों की बातचीत इत्यादि ) सुनने की शपथ सी ले ली है ( अन्य ध्वनि न सुनने को पूर्ण प्रण सा कर लिया है, अर्थात् किसी की कुछ नहीं सुनती ); नित्य दिनरात (निरंतर) कानों को कानन-लगे ( वन की ओर लगे हुए ) किए रहती है (वन की ओर कान लगाए रहती है ) ॥ हूँ मति मानै मुकतई कियें कपट चिर्त कोटि । जौ गुनही, तौ राखियै आँखिनु माँझ अगोटि ॥ २५० ॥ मुकतई= छुटकारा । गुनही= अपराधी । यह शब्द फारसी शब्द 'गुनाह' अथवा 'गुनह' से बना है। अगोटि = बंद कर के, कैद कर के ।। १. दिन ( ५ ) । २. जाने ( २ ) । ३. नुकतई ( १ ) । ४. नित ( १ ), वित ( ५) । ५. ज्यौं ( २ )। ६. यों ( २ ) । ________________

बिहारी-रत्नाकर | ( अवतरण )-राठ गायक खंडिता नायिका से, अपना अपराध छिपाने के निमित्त, अनेक प्रकार की कपट-भरी बातें कहता है। इसी पर उसमें तथा नायिका मैं परस्पर बातचीत हुई है ( अर्थ )-[ नायिका कहती है कि ] तु कोटि ( अनेक प्रकार के) कपट करने से [अपने] चित्त में छुटकारा मत मान ( मत समझ,, अर्थात् यह मत जान कि कपट से मेरा अपराध छिप गया, मैं तेरी बातें भली भाँति जानती हैं)। [ नायक उत्तर देता है। कि] यदि [ में अापकी दृष्टि में अंततेागत्वा ] अपराधी [ ही ठहरता हूँ], ते [ मुझ को ] आँखों में अगोट (कैद ) कर के रखिए (अर्थात् मुझे नित्यप्रति आँखा ही में-आँखा के सामने ही रक्खा कीजिए ) ॥ गिरि हैं ऊँचे रसिक-मन बुड़े जहाँ हजारु । वहै' सदा पसु नरनु को प्रेम-पयोधि पगारु ।। २५१ ॥ सिक= भगवत्-लीला का स्वाद लेने वाले भक्त । स्वामी हरिदासजी की संप्रदाय रसिक-संप्रदाय अटलाती है, और उसके अनुयायी वैश्णव रसिक कहे जाते हैं । कि शव्द से यहाँ कवि का तात्पर्य भगवद्रस-रसिक ही जान पड़ता है । जहाँ=जिसमैं ॥ हजारु=सहस्र, अनंत ॥ पसु= पशुवृतिधारी, अर्थात् भगवत्-प्रेम के भावों से रहित, अरसिक ।। प्रेम-प्रेम से यहाँ कवि का तात्पर्य लौकिक प्रेम नहीं है, प्रत्युत भगवतुप्रेम है ॥ पगारु=खाई, गड़हा, अथवा पाव से हल कर पार उतर जाने के योग्य ॥ | ( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्रि है ( अर्थ )-जहाँ (जिस प्रेम-रूपी पयोधि में ) पहाड़ से [ भी ] ऊँचे रसिक जनों के हज़ार मन डूब गए [ पर उसकी थाह न पा सके ], वही प्रेम-रूपी समुद्र मर-पशुओं (अरसिक जनों, पशुवृत्तिधारी मनुष्यों) के निमित्त सदा [एक ] खाई [ मात्र है, अथवा सुगमता से हल कर पार उतर जाने योग्य है ]॥ | भाव यह है कि प्रेम का स्वाद जानने वाले तो उसमें ऐसे मग्न हो जाते हैं कि उससे फिर न तो निकल ही सकते हैं, और न तृप्त ही होते हैं। परंतु पशुवृत्ति मनुष्य समझते हैं कि प्रेम कोई गंभीर वस्तु नहीं है, अतएव हम उससे सहज ही मैं तृप्त तथा उत्तीर्ण हो सकते हैं। भावैकु उभौंह भयौ, कछुकु परयौ भरुझाइ । सी-हरा कै मिसि हियो निसिदिन हेरत जाइ ।। २५२॥ भावकु= एक भाव मात्र ॥ पस्यौ भरुआई =भारी हो आया हुआ ॥ सीप==तालों तथा नदियाँ के किनारों पर छोटी-छोटी, बड़ी चमकदार सीपियाँ होती हैं, जिनको लड़के लड़कियाँ चुन लाते हैं, और गुथ न्थ कर सुंदर सुंदर हार अथवा अन्य ग्राभूषण बना कर पहन लेते हैं । ( अवतरण )-ज्ञातयौवना नायिका के चेष्टा का वर्णन सखी अन्य सखी से अथवा नायक से करती है १ (३ ), उहे (५) । २. के ( ५ ) । ३. भाउकु ( १ ), भावक ( ३, ५), मउ (Y)! ४. सीपि (१)। ५. मिस (१)। ६. निसु (४), निस ( ५ ) | ७. हेरति ( ३, ५ )।

बिहारी-रत्नाकर ( अर्थ )--[ उसको ] रातदिन (सव समय) सीपियों के हार [ के देखने ] के बहाने से “भाव उभर्राह भयो” ( एक भाव मात्र उभार पर अाया हुआ ), [ तथा ] कुछ एक भारी हो पड़ा हुआ [ अपना ] हृदय देखते (देखने में ) जाता है। [ भावार्थ यह है कि यिका के हृदय पर छातियों का कुछ उभार सा हो आया है, जिसको वह निरंतर देखा करती है; पर ज्ञातयौवना होने के कारण उसे प्रत्यक्ष नहीं देखती, प्रत्युत सीपियों का हार देखने के व्याज से ] ॥ इस दोहे का पूर्वाध ‘हियो' का विशेषण मात्र है, स्वतंत्र वाक्य नहीं ॥ गली अँधेरी, सकरी भी भटभेर अनि । परे पिछाने परसपर दोऊ परस-पिछानि । २५३ ॥ भटभेरा= वास्तव में 'भटभेरा दो प्रतिद्वंद्वी सेनायों के भटे, के, अथवा दो प्रतिभटों के, भिड़ जाने को कहते हैं। पर इसका प्रयोग शरीर से शरीर भिल जाने, सामना होने इत्यादि के अर्थ में होता हैं । परस-बिछानि= स्पर्श की विधता की पहचान से, अर्थात् दोनों के शरीर-स्पर्श में जो विशेषता है, उसके अनुभव से ।। ( अवतरण )--नायक नायिका ने, अँधेरे मैं, स्पर्श मात्र से एक दूसरे को पहचान लिया है। यही वृत्तांत सखी सखी से कहती है ( अर्थ )-अँधेरी [ तथा ] संकरी गली में आ कर [ दोनों का ] भटभेरा ( अंग से अंग का स्पर्श ) हो गया। स्पश की पहचान ले दोन परस्पर पचाने पड़ गए ( दोनों ने एक दूसरे को पहचान लिया ) । [ सखी यह जित करती है कि स्पर्श मात्र से परस्पर पहचान लेने से यह बात होता है कि ये दोनों इसके पूर्व भी एक दूसरे का आलिंगनसुख अनुभूत कर चुके हैं, अतः दान” की गुत प्रति लक्षित होती है ] ॥ कहि पठई जिद-भावती रिय वन की बात । फूल अंगन मैं फिर, अ. न अ समात ॥ २५१ ।। ( अवतरण )-प्रागमिष्प-पतिका नायिका पात के आने का संदेश पा कर हर्ष से फूली फूली फिरती है। सखी-वचन सखी से - ( अ ) -जी को सुख देने वाला [ अर] प्राने की बात प्रियतम ने ! किसी के द्वार। उस ] ५५ ५ ५ । । । । । । । । * कि हैं [ सके | अग अग में ।। । । । As के 5, ४ ।। उ उ । ।, ।। ५.३.४ नं ले. इते हैं उसके अंग अग में म समाते । यह ले . है ॥ १. भरभर. ( ३, ५ ) । २. प. ( २ ) | ३. मन ( २ ) । ४. अंग ( २ ) । ________________

बिहारी-रत्नाकर जिन दिन देखे वे कुसुम, गई सु थीति यहार । अब, अलि, रही गुलाब मैं अपत, कँटीली हार ।। २५५ ॥ बहार = वसंत ऋतु ।। अपत= पत्र-रहित ।। | ( अवतरण )-किसी गलित-यौना खी, नष्ट संपत्ति मनुष्य, विगत सुख राज्य इत्यादि पर यह अन्योक्रि है | ( अ ) --हे भ्रमर, जिन दिनो [ तुने | व | सुदर तथा सुगंधित ] पुष्प देखे थे, वह बहार ( व संत ऋतु ) ! तो ] बीत गई । अव [ ता] गुलाब के वृक्ष में विनः पत्ते को [ तथा ] कंकित डल ( शाखा ) रह गई है [ अब इससे दुःख छे. सुख की भ.घना नहीं है ] ॥ मैं दर्जी के यार हुँ', इन कित ति करौट। | पंखुरी लंगै गुलाब की रेहगात खरंट ।। २५६ ।। पैखुरं = पंखड़ी, पत्ती ।। ( अवतरण )--विश्रब्धनवोढ़ा नायिका नायक ती ओर से मुंह फेर कर सोती है । तथ सखो उसे डर दिखा कर तथा उसके गात की कोमलता की प्रशंसा कर के नायक की और उसका मुंह कराना चाहती है| ( अर्थ )-मैंने तुझको कै बार वरजा । [ पर तू नहीं मानती । देख सँभल, ] इस ओर कहाँ करवट ले रही है । [ एरा मत कर, नहीं तो शय्या के किनारे लगाई गई इन गुलाब की पंखड़ियों में से किसी 1 गुलाब की पंखड़ी के लग जाने से [ तेरे कोमल ] गात्र में खरोट पड़ जायगी ॥ नीची नीची निट दीठे कुही लौं देर । उठे ऊचें, नीच दया मनु कुलगु कपि, झार ।। २५७ ॥ कुही= एक प्रकार का छोटा बाज । यह जब किमी चिड़िया का शिकार करता है तो पाहेल कुछ देर तक उसके नीचे नीचे उड़ा करता है, और फिर एकाएकी ऊपर उठ कर उस पर टूट पड़ता और उसको छोप लेता है। फिर उसको झकझोर कर, जिसमें वह बदम हो जाय, नीचे का श्रार झा क से उतरता है । नोची क्षियों के नीचे की ओर झाक से उतरने का नाचा देना कहते हैं। इसी का गाना भी बोलते हैं। कुलिंग = एक प्रकार की चिड़िया, जिसका भृग तथा फिंगा भी कहते हैं । झपि - झाँप कर, छोप कर ।। झरि=झकझोर कर ।। ( अवतरण )-नायिका की दृष्टि, नायक की ओर, नीची ही नीची आ कर और एकाएक ऊपर . १. सो (४) । २. तें ( २, ४) । ३. कर ( १, २ ) । ४. गंई ( २ ) । ५. परहें ( ३ ) । ६. नीचीए ( १, ४, ५ ), नीची ही ( २ ) । ७. नीचे ( ४) । ८. कुलंगु ( १ ), कुलंग ( २, ४)। १. भकझोर (४) ।  विहारी-रत्नाकर उठ कर फिर नीची हो गई। यही वृत्तति वह सखी से कह कर नायिका के प्रति अपना अनुराग प्रक करता है ( अ )-[ उसका ] हांधू ने सर्वथा कुडी की भाँति नीची ही नीची दौड़ कर, [एकाएकी ] ऊपर उठ, [ मरे ] मन रूपी कुलिंग को झाँप कर [ तथा ] झकझोर कर नीचा दिया ( नीचे की अंर गति लिया, अर्थात् शीघ्रता से फिर नीची हो गई ) ॥ सूर उदित हूँ मुदिन-मन, मुख सुन्धमा की ओर । चितै रहत चहुँ अार हैं, निहल चखनु, चकोर ।। २५८ ।। ओर–पहिले 'ग्रार' का अर्थ अवधि छ । 'मुख सुखमा की ओर' का अर्थ है, मुख जो कि सुखमा की अवाध है। दूसरे ‘प्रार' शव्द का अर्थ दिशा है ।। ( अवतरण ) - सखी नायक से नायिका के सुख की प्रशंसा करती है ( अर्थ ) -सुर्य के उादेत होने पर भी चकोर निश्चल आँखा से ( टकटकी बाँध कर ) उसके मुख का, जो कि सुखमा को अवाध है, चारों ओर से मुदित-मन देखा करते हैं ।। स्वेद-साललु, रोमांच-कुसु गहि दुलही अरु नाथ ।। दिया हियो संग हाथ के हथलेयँ हाँ हाथ ॥ २५ ॥ इथलेयं = यह हथले या अर्थात् पाणिग्रहण का सप्तम्यंत रूप है ।। हाथ=दूसरे हाथ शन्द का प्रयोग सप्तम्यंत है । ( अवतरण )--दुलह तथा दुलहिन विवाह के समय, पाणिग्रहण करते ही, परस्पर अनुरक्त हो गए हैं। यही वृत्तांत सखा सख़ी से कहती है ( अर्थ )-[ विवाह के समय ] हथलेए ही ( पाणिग्रहण ही ) में दुलहिन और नाथ ने. स्वेद-रूपी जल [ तथा ] रोमांच-रूपी कुश ग्रहण कर के, [ परस्पर अपना अपना] दृश्य हाथ के साथ हो [ दूरे के ] हाथ म दे दिया। लोकिक जल तथा कुश ग्रहण करने की बारी आने के पहले ही-विवाह के निमित्त जो संकल्पादि होते हैं, उनके पूर्व हीथोमा मानसिक संकल्प से एक दूसरे के हो गए ] ॥ दच्छिन पेिय, लै बाम-बस, बिसई तिय आन । एकै बाषरि ॐ विरह लागी बरष बिहान ॥ २६० ।। दच्छिन ( दक्षिण ) = चतुर । यह साहित्य का पारिभाषिक शब्द है। अनेक स्त्रियों से समान प्रीति रखने वाले नायक को दक्षिण नायक कहते हैं । बाम ( वामा ) = ( १ ) स्त्री । ( २ ) टेदी, कुटिला, दुष्टा । बाषरि= पर, घर की दीवार । हमारी पांचों प्राचीन पुस्तकों में यही पाठ है । पर अनवरचंद्रिका तथा १. हियो दियो ( २, ४)। २. हाथ लए ही (४), हाथ लिये ही (५) । ३. बिसराई ( २, ३, ४, ५ )। ________________

विहारी-रत्नाकर 123४४१ १०६ कृष्ण काव की टीका को छोड़ कर अन्य सब प्राचीन का में ‘बासर' पाठ मिलता है, और प्रभुदयालु पाँडे की का में ‘बाखरि’ पाठ है । हमारी समझ में 'बासर' पाठ रखने से अर्थ बहुत स्पष्ट होता है । पर पॉचे प्राचीन पस्तकों में ‘बाषरि' पाठ होने के कारण यही पाठ इस संस्करण में रखा गया है । लाग—बिहारी ने वर्ष शब्द का यहाँ स्त्रीलिंग-प्रयोग किया है,। ब्रज में ऐसा प्रयोग बोलचाल में सुनने में भी आता है । पर कविता में इसका प्रयोग प्रायः पुलिंग ही रूप से देखने में आता है । सतसैया भर में ‘बरष' शब्द और कहीं नहीं आया है. जिसस इसका मिलान हो सकता । हमारी पाँच प्राचीन पुस्तकों में यही पाठ है, पर अमरचंद्रिका में इसृका पाठ ‘लागो' एवं देवकीनंदन की टीका में ‘बीतो' मिलता है । अन्य सब टीकाकारों ने इसका पाठ लागे रक्खा है ॥ विहान=-यतीत होने ॥ इस पाठ के अनुसार अवतरण और अर्थ-- ( अवतरण १ )-दक्षिण नायक, जिसकी कई पत्नियाँ हैं, किसी स्वतंत्र पड़ोसिन पर ऐसा अनुरझ हो गया है कि उसी के घर पड़ा रहता है, और अपनी पत्नियाँ के यहाँ कई कई दिन न आता। अतः वे सब आपस मैं कहती हैं | ( अर्थ १ )--दक्षिण [ होकर भी हमारे ] पति ने [ उस ] 'वाम' (दुष्ट स्त्री) के चश में हो अन्य स्त्रियाँ भुला दौं। [ हम लोगों को तो अब ] एक ही घर के [ अंतर के ] विरह में वर्ष बीतने लगा ( अर्थात् यद्यपि नायक परदेश नहीं गया है, एक ही घर के अंतर पर है, तथापि हम लोगों के उसका दर्शन वर्ष वर्ष भर तक, अर्थात् बहुत बहुत दिनों तक, नहीं होता ) ॥ ‘बासर' पाठ रखने से यह अवतरण और अर्थ होता है-- ( अवतरण २ )-दुती नायिका से कहती है कि हे वामा, यद्यपि वह नायक दक्षिण अर्थात् अनेक सियों का वल्लभ है, तथापि तेरी वामता के वश में पड़ कर उसका सारा दक्षिणपन जाता रहा हैअन्य स्त्रियाँ उसने भुला दी हैं, और तेरे विरह में उसका एक दिन भी वर्ष के समान बीतता है ( अर्थ २ )-[ उस ] दक्षिण नायक ने [ तुझ ] 'वाम' के वश में हो कर अन्य स्त्रि भुला दी है । [उनको तेरे ] एक ही दिन के विरह मैं [ एक ] वर्ष बीतने लगा है ॥ इस पाठ तथा अर्थ मैं ‘बाम का अर्थ संदरी करना चाहिए । | सोरठा मोहूँ दीजै मोषु, ज्याँ अनेक अधमनु दियौ । जौ बाँधै ही तोषु, तौ बाँधौ अपनै गुननु । २६१ ॥ मोषु ( मोक्ष )=भव बंधन से छुटकारा । यह शब्द भाषा में स्त्रीलिंग माना जाता है, पर बिहारी ने इसका संस्कृत के अनुसार पुलिंग-प्रयोग किया है । गुननु=गुणों से । ‘गुननु' शब्द का प्रयोग ‘बाँधौ' शब्द के साथ भट्टा ही उपयुक्त है, क्योंकि गुण शब्द का अर्थ रस्सी भी है ।। ( अवतरण )-किसी भक्त का वचन श्रीभगवान् से ( अर्थ )-[ हे अधमोद्धारण, 3 जिस प्रकार [ करुणा कर के अपने ] अनेक अधम के मोक्ष दी है [ उसी प्रकार अर्थात् अपनी करुणा से ] मुझे भी दीजिए । [ पर ] यदि { आपको मुझे ] बाँधने ही मैं ( बंधन में रखने ही में ) तोप ( सतोष ) हो, बिहारी-रत्नाकर तो. [ फिर ] अपने गुण से बाँध रखिए ( अपने सगुण स्वरूप की उपासना में लगा लिए ) ॥ चितुतरसतु,मिलत न बनतु बसिपरोस * बास । छाती फाटी जाति सुनि टाटी-मोट उसास ॥ २६२॥ उसास ( उच्छ्रास )=ऊंची साँस । संस्कृत में उन्क्वास शब्द पुल्लिंग मना जाता है। पर भाषा में लोग ‘उसास' शब्द का प्रयोग पुलिंग तथा स्त्रीलिंग, दोनों प्रकार से करते हैं। बिहारी ने भी इसका प्रयोग दोनों लिंगों में किया है । सतया में 'उसास' शब्द का प्रयोग नव दोहों में हुआ है। उनमें से ५५३ अंक के दोहे में तो उसका लिंग संदिग्ध रह जाता है, पर तं। भी उसमें उसका पुलिंग मानना अच्छा है। शेष श्राठ दाहाँ में से १३८, ३३४, ४तथा ५०७ अंकों के दाहों में उसका पुलिग-प्रयोग हुअा है, और ४४९, ५३४, तथा ६६• अंकों के दोहों में स्त्रीलिंग-प्रयाग । इस दोहे में ‘उसास' शब्द स्त्रीलिंग एकवचन, अथवा पुलिंग बहुवचन, दोनों माना जा सकता है । ५०७ ग्रंक के दोहे में वह ‘उसॉस' रूप से आया है। ( अवतरण )-नायक तथा नायिका दोन पड़ोसी हैं। पूर्वानुराग में उनको मिलने की अत्यंत अभिलाषा है। पर मिलने का कोई बानक नहीं बनता, यद्यपि दोनों के घरों में केवल एक टट्टी मात्र का अंतर है, जिसकी ओट से उच्झास सुनाई देता है । उच्छास को सुन सुन कर उनकी विकलता और भी बढ़ती है। इसी विकलता के बनने का वृत्तांत नायिका अपनी अतरंगिनी सखी से अथवा नायक दूती से कहता है ( अर्थ )-चित्त तरसता रहता है, [और ऐसे ] पड़ोस के वास में [कि दोनों घरों के बीच केवल एक टट्टी मात्र का अंतर है ] बस कर [ भी ] मिलते नहीं बनता! टट्टी की ओट से [ उसकी ] ऊँची साँस ( मिलने की अभिलाषा तथा न मिलने के दुःख से ली जाती हुई ऊँची साँसों का शब्द ) सुन सुन कर [ और भी कष्ट बढ़ता है, अतः ] छाती फटी जाती हैं॥ यह बात स्वाभाविक है कि जब कोई किसी से मिलने का अभिजारी होता है तो, यह ज्ञात होने पर कि उसका प्रेमपत्र भी उससे न मिलने के कारण दुखी है, उसकी अभिजात्रा और भी तीव्र तथा दुःखदायिनी हो जाती है। जालरंध्र-मग अँगनु को कछु उजास सौ पाइ । पीठ दिऐ जगत्य रंयौ, डीठि झरेग्वै लाइ ।। २६३ ॥ जालरंध=घर में प्रकाश आने के निमित्त झराख मैं जो जाली लगी रहती है, उसके छिद्र ॥ उजास=उजाला, प्रकाश, यति ॥ जगत्यौ=जागता हुआ ।। ( अबतरण )---नायक नायिका पड़ोसी है । नायिका के झरोखे ( छोटी खिड़की ) से नायक की छत दिखाई देती है । उस झरोखे का पट जाबीवार है। नायक ने नायिका की झलक कहीं उसो ली में से देख च । से, इस अशा से कि कदाचित् वह जाली खोज कर झोके, वह रात भर, झरोख १. जग स ( २ ), जग सो ( ३, ४, ५) । २. रहे ( २ ) । ३. झरोखा ( २, ३, ४ )। ________________

बिहारी-रत्नाकर १११ पर दृष्टि लगाए और बिछने पर पीठ दिइ, जागता ही रह गया । यही वृत्तांत दूती नायिका से, उसके हृदय में प्रेम उपजाने के निमित्त, कहती है | ( अर्थ )-[ नेरे झरोखे की ] जाली के छेद के मार्ग से | तेरे ] अंगों का कुछ उजाला सा पा कर ( तुझे अपूर्ण रीति से देख कर ) [ वह रात भर ] झरखे पर हुष्टि लगा कर, [ विछौने पर ] पीठ दिए (टेके ), [ जिसमें कोई यह न समझे कि वह जागता है ] जागता रह गया [ तेरी झलक मात्र से वह तुझ पर ऐसा अलक़ हो गया है ] ॥ । परतिय-दोषु पुरान सुनि लखि मुलकी सुखदानि । केसु करि राखी भित्र हूँ मुहँ-ई सुसनि ॥ २६४ ।। परतिय-दोषु =परीगमन का दोष ।। मुलकी= मुँह बन कर मुसकिराई ।। कतु =वल ।।। ( श्रवतरण )-पौराण जी का सः परस्त्री से प्रेम था। वह बैठे किस दिन पुराण बाँच रहे थे। श्रोताओं में वह स्त्री भी थी । पुराण में किसी प्रसंग-वश परस्त्रमन का दोष निकला । उसे सुन कर वह स्त्री पौराणिकजी की अोर देख कर व्यंग्य से हँसी । इस पर पौराणिकजी को भी खी श्रा गई, पर उन्होने उस बल-पूर्वक रोक लिया, जिसमें अन्य श्रोता पर उनका मर्म भकट न होने पावे । इसी दृत्तांत को लक्षित कर के कोई किसी से कहता है, अथवा यह कवि की उक्ति है | ( अर्थ)--परस्त्री [ के गमन ] का दोष पुराण में सुः कर [ वह परराणिकजी को] सुख देने वाली [ उनकी ओर ] देख बार 'मुलकी' । [ उधर ] भिश्न ( पौराणिकज ) ने भी [ अपने ] मुख पर आई हुई लकिराहट को कस ( बल ) कर के रोका ॥ सहित सनेह, संकोच, सुख, स्वेद, कंप, मुसकाने । प्रान पानि करि श्रापर्ने, पोन धरे म पनि ॥ २६५ ॥ ( अवतरण )-नायक नायिका के द्वार पर किसी कार्यवश गया था। नायिका शिष्टाचार करने के निमित्त उस को पान देने श्राई । पान देत समय की नायिका की चेष्टा देख कर नायक रांझ गया । वही वृत्तांत वह अपने अंतरंग सखे। अथवा दूती से कहता है| ( अर्थ )-[ उस स्त्री ने ] स्नेह, संकोच ( लज्जा ), सुख ( हर्ष ), स्वेद ( पसीने ), कंप [ तथा ] मुसकिराहट [ इन सव भाव ] के साथ [ मेरे ] प्राणों को अपने हाथ (वश) में कर के मेरे हाथ पर पान धरे ( रखे ) ॥ - - -- -- स* जतननु लिमिर-रितु सहि विरईनि-तन-लापु । बसिरे के प्रभ- दिनु पथ परोसिन पु !॥ २६६ ।। १. हँसी मुलांके ( १ ), लखी मुलक ( २ ), लखो सुबाल ( ४ ) । २. असि ( ३, ५ ) । ३, मुसिकानि ( १, ४) । ४. मुसिकानि ( १, ४) । ५. पानि ( ५ ) । ६. बिरहनि ( २, ३ ), विरहन ( ५ )। ७. परासन ( ५ )। विहारी रत्नाकर सीरें = ठंडे, शीतल ॥ ( अवतरण १ )-प्रोपितपातका नायिका की दूती नायक से विरह-निवेदन करती है ( अर्थ १ )-[ उसके शरीर से विरह की ज्वाला ऐसी कराल उठती है कि उसके ताप से पड़ोसिन भी जली जाती है। अतः] शिशिर ऋतु में [अनेक] शीतलोपचारों [ के सहारे 1 से [ किसी न किसी प्रकार उस ] विरहिणी के तन का ताप सह कर [ अब ] ग्रीष्म के दिनों में पड़ोसिन पर [ उसके पड़ोस में ] बसने के निमित्त पाप ( मानो किसी पाप का परिणाम ) पड़ा है। इस दोह का यही सामान्य भावार्थ प्रायः सभी टीकाकारों ने किया है। परंतु 'पस्यौ परोसिनि जप' इस खंड-वाक्य से एक और गूढ़ भावार्थ की झलक भी दिखलाई देती है। अतः वह अर्थ भी लिखा आशा है ॥ | ( अवतरण २)-नायक का पड़ोसिन से प्रेम था, जिसके कारण नायक नायिका में बहुधा काल हा करता था। इससे दुखी हो कर नायक परदेश चला गया। अब नायिका विरह से अत्यंत संतप्त हो रही है। अतः उसकी दूती नायक के पास जा कर कहती है (अर्थ २)–शिशिर ऋतु में सीरे यत्नों से [ उस ] विरहिणी का तन ताप सह कर । अब 1 ग्रीष्म के दिनों में [ उस ] पड़ोसिन पर [ जो कि इस विरह का मूल कारण है, उसके पड़ोस में ] बसने के निमित्त [ इस विछोह कराने की कारण होने के ] पाप [ का फल ] पड़ा है ॥ | इस अर्थ में यद्याप चतुर दूती पड़ोसिन पर रोष प्रकट करती है, पर उसका अभिप्राय यह भी व्यजित होता है कि अब अापकी प्यारी पडोसिम को भी महा कष्ट हो रहा है । अतः यदि उस नायिका से रुष्ट होने के कारण नहीं चलते हैं, तो उस पड़ोसिन ही को दुःख से बचाने के निमित्त पधारिए । सोहतु सं] समान साँ, यहै केहै सब लोगु । पान-पीक औठनु बनै, काजर नैननु जोगु ॥ २६७ ॥ जोगु= साथ, मेल ।। ( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्ति, अथवा नायक के ओठ पर अंजन और आँखों में पीकलोक देख कर खंडिता की उक्ति-- ( अर्थ )[ प्रत्येक मनुष्य अथवा पदार्थ का ] संग [ अपने] समान [ मनुष्य अथवा पदार्थ ] स सुशोभित होता है, यही [ बात ] सव संसार कहता है [ कुछ मैं ही नह” 1। न की पीक स [ और ] श्रीठा से. ( एवं ] काजल से [ौर ] नयना से 'जोगु’ ( संयोग अर्थात् साथ ) बनता है ( शोभित होता है ), [ क्याकि पान की पोक और ओठ, दोन लाल हैं तथा काजल और नयन, दोनों श्याम ] ॥ १. अंग ( ३ )। २. सयानो ( ४ ) । ________________

बिहारी-रत्नाकर हूँ रहि, हाँ हाँ, सखि, लख; चढ़ि न अटा, बलि, बाल। सबहिनु बिनु हाँ ससि-उदै दीजतु अरघु अकाल ॥ २६८॥ ( अवतरण )-नायिका ने गणेशचतुर्थी का व्रत किया है। चंद्रमा देखने को वह बार बार अटारी पर चढ़नी है। सखी उसका श्रम बचाने के निमित्त उसको फिर चढ़ने से रोकती है, किंतु यह कह कर नहीं , तुझे, निराहार रहने के कारण, श्रम होगा । क्याँक यदि वह यह कह कर रोकती, तो नायिका कदाचित् यह कह देती कि नहीं, मुझे श्रम नहीं होगा, फिर तू भी तो निराहार ही है। वह नायिका के रूप की प्रशंसा करती हुई यह कह कर रोकती है कि तेरे अटा पर चढ़ने से अन्य स्त्रिय अकाल अर्घ दे देती हैं, अतः तुझको भी दोष-भागिनी होना पड़ता है-- | ( अर्थ ):-हे सखी, तू [ यहाँ ] रह, मैं ही [ चंद्रमा ] देख आऊँ । हे बाला, मैं तेरी बलिहारी जाती हैं, [ 1 ] अटा पर मत चढ़ ।[क्योंकि तेरा मुख चंद्रमा के समान प्रकाश मान है, अतः तेरे अटा पर चढ़ने से चंद्रोदय का भ्रम हो जाता है, जिससे ] शशि के उदय दिना ही सभों से अकाल अर्घ दे दिया जाता है [ जो कि दूषित है ]॥ दियौ अरघु, नीचें चलौ, संकटु भर्ने जाइ । सुचिती है औरी सबै ससिहँ बिलो आइ ॥ २६९ ॥ ( अवतरण )—यह दोहा भी गणेशचतुर्थी के व्रत के अवसर का है। नायिका चंद्रमा को अर्घ दे कर अटारी पर ठहर गई है । सखी उसको शीघ्र नीचे ला कर भोजन कराना चाहती है, क्यकि वह दिन भर की भूखो है। पर नायिका से यह बात कहते समय वह, उसके रूप की प्रशंसा करती हुई, अन्य बिर्यों पर अनुग्रह करने का अनुरोध करती है, जिसमें कि वह शीघ्र उतर चले । वह संकट तोड़ने वालियाँ मैं अपने को तथा अन्य सखियाँ को भी मिला लेती है, जिसमें कि नायिको उनके कष्ट का भी विचार करे (अर्थ) - अर्घ [ तो ] दिया जा चुका, [ अव ] नीचे चलो, [ जिसमें वहाँ ] चल कर [ हम लोग ] संकष्ट [ चौथ का व्रत ] तोड़े ( पूरा करें, अर्थात् कुछ खाएँ पिएँ), [ एवं ] और सब [ स्त्रियाँ ] भी सुचत्ती ( द्विविधा-रहित ) हो [ अपनी अपनी अटारी पर ] कर चंद्र-दर्शन करें। [ भावार्थ यह है कि जब तक तु अटारी पर रहेगी, तब तक अन्य स्त्रियों को दो चंद्र दिखाई देंगे, अतः उनके मन में द्विविधा रहेगी ] ॥ ‘संकटु भानै जाइ' का अर्थ यह भी हो सकता है कि हम लोग चल कर दिन भर के व्रत का कष्ट निवारित करें । ललित स्थाम लीला, ललन, बढ़ी चिबुक छबि दून। मधु-छाक्यौ मधुकरु पखौ मनौ गुलाब-प्रसून ॥ २७० ॥ १. ससि ( २ ), सिसि ( ५ ) । २. लखें ( २ ) । ३. भान ( २ ). भाँजो ( ३, ५ ) । ४. औरहि ( ३ ), और ही (५) । ५. विलोकी ( १ ) । ११४ बिहारी-रत्नाकर लीला=नीले रंग का गोदना ॥ दून = दुनी ॥ ( अवतरण )-सखी नायक से नायिका के चिबुक के गोदने की शोभा कहती है ( अर्थ )-हे ललन ! सुंदर श्याम गोदने पर [ उसके उज्ज्वल, गुलावी ] चिनुक [ के प्रभाव ] से दूनी शोभा बढ़ गई है। [ ऐसा प्रतीत होता है ] मानो मधु ( मकरंद ) से छका हुआ ( मस्त ) भ्रमर गुलाब के फूल पर पड़ा है ॥ सबै सुहाएई लगै बमैं सुहाएँ ठाम ।। गोरें मुंह बेदी लैसँ अरुन, पीत, सित, स्याम ॥ २७१ ॥ ( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्रि है ( अर्थ )-सुहाए स्थान पर बसने से सभी सुहाए ही लगते हैं , [ जैसे ] गोरे ( सुंदर ) मुख पर अरुण, पीत, श्वेत [ तथा ] श्याम [ सय रंगों की ] बँदियाँ लसती हैं। ( सुशोभित होती हैं ) ॥ भए घटाऊ नेहु तजि, बादि बकति बेकाज । अब, अलि देत उराहन अँति उपजति उर लाज ॥ २७२ ॥ बटाऊ=पाथिक ॥ बादि=वृथा, विना कुछ प्रभाव डाले ॥ बेकाज = विना किसी लाभ की आशा के ॥ ( अवतरण )-नायक कुछ दिन से घर मैं बहुत कम देर ठहरता है, अन्य स्त्रियाँ के यहाँ विशेष रहता है। सखी उसको उलाहना देती है । तब नायिका नायक को सुना कर सखी से कहती है ( अर्थ ) हे अलि, [ अब तो ये ] स्नेह को छोड़ कर बटाऊ हो गए हैं ( जैसे पथिक कहाँ थोड़ी देर विश्राम के लिए ठहरता है, वैसे ही ये मेरे यहाँ रहत हैं ) । [ तु तो इनसे ] वृथा [ तथा ] वेकाज ववाद करती है [ इतने दिनों तक बकने से क्या लाभ हुआ, जो तू अब फिर बक रही है ] । अव [ ता इनको ] उलाहना देते [ भी ] उर में अत्यंत लज्जा उपजती है [ क्योंकि जिस पर कहने सुनने का कुछ प्रभाव न पड़े, उससे बकना निर्लज्जता ही है ] । --: - मानु करत बरजति न ह, उलट दिवावति सह । करी रिसह जाहिगी सहज हँस हाँ भौंह ॥ २७३ ॥ ( अवतरण ) नायिका नायक से मान करना चाहती है, पर सखी चाहती है कि वह ऐसा न करे । अतः वह सीधे सीधे मना न कर के एसी बात कहती है, जिससे नायिका स्वयं समझ जाय और अपनी बाई से प्रसन्न हो कर मान न करे १. सुहाइयें ( ५ ) । २. लसे ( २ ), लगति ( ३, ५ ) । ३. सबै ( २, ५), सबै ( ३ ) । ४. लसांत ( ३, ५ ) । ५. बकत ( २, ५ ) । ६. उर उपजात अति ला न ( ३, ५) । ७. जाइगी ( ३, ५)। ________________

बिहारी-रत्नाकर ११५ ( अर्थ )-मैं [ तुझको ] मान करते ( मान करने से ) बरजती नहीं, [प्रत्युत] उलट कर (बरजने के बदल ) शपथ दिलाती हैं [ कि तू अवश्य मान कर ] [ पर क्या तुझसे अपनी ये ] सहज हँसौंह ( स्वभाव ही से हँसती हुई ) भौंहे रिसाहीं (रोष से भरी हुई सी ) की जायँगी ॥ | सखी के कहने का अभिप्राय यह है कि यद्यपि तु मान करने पर उधत है, तथापि तु अपनी सहज हमहीं भौंहें रोष से भरी हुई सी न बना सकेगी. और तेरा मान मिथ्या ठहरेगा । अतएव उसका करना वृथा है। साथ ही यह भी अभिप्राय है कि तू सहज ही सुशीला है, वास्तव मैं तो तुझे रोष है नहीं, फिर भला बनाने में कहीं भौंह रिसॉहीं बन सकती हैं। यह कहना वैसा ही है, जसे किसी मनुष्य को किसी अन्य मनुष्य पर रुष्ट हो कर उसे हानि पहुंचाने की चेष्टा करते देख कर कोई उससे कहे कि कहीं आप ऐसे सजन भी भला ऐसा काम कर सकते हैं और यह सुन वह अपनी प्रशंसा पर रीझ कर और अपनी प्रतिष्ठा का विचार कर के उस हानिकारक कार्य को करने से रुक जाय ॥ तिय-तिथि तरुन-किसोर-बय पुन्यकाल-सम दोनु । काहू पुन्यनु पाइयतु बम-संध-संक्रोनं ॥ २७४ ॥ तरुन ( तरुण )-पंद्रह वर्ष के उपरांत तरुणावस्था का प्रारंभ होता है । किसोर ( किशोर )ग्यारहवें वर्ष के आरंभ से पंद्रह वर्ष के अंत तक किशोरावस्था रहती है ॥ यय ( वय ) = वयक्रम, अवस्था । पून्यकाल ( पुण्य-काल ) = शुभ समय । ज्योतिषशास्त्र में सूर्य-पथ क मंडल के बारह भाग माने जाते हैं। प्रत्येक भाग राशि कहलाता है । इन राशियों के भिन्न भिन्न नाम है । सूर्य के भिन्न भिन्न राशियों में रहने पर उसके भिन्न भिन्न नाम कह जाते हैं, अतः द्वादश आदित्य प्रसिद्ध है । जब एक राशि को समाप्त कर के सूर्य दूसरी राशि में प्रविष्ट होने लगता है, तो उसका दान राशियों को मंधि-रेखा उल्लंघन करनी पड़ती है । इसी उल्लंघन को संक्रमण अथवा संक्रांति कहत है । सूयाएड के मध्य विदु क' इम राध-रेखा के स्पर्श तथा त्याग में ना समय लगता है, संक्रांति का मुख्य पुण्य काल वहा है । वह समय बड़ा पुनात माना जाता है, और ऐसा सुक्ष्म होता है कि उसका अनुसंधान बड़ा कठिनता से हो सकता है। उसक विषय में प्रसिद्ध यह है कि बड़े पुण्यात्मा लोग ही उस समय का पाते हैं, अथात् उस समय का लाक्षत कर के समयोचित कर्तव्य कर सकते हैं ॥ पुन्यकाल-सम दोनु = पुण्य काल की भाति दोनों हैं, अधीत एकत्रित हैं । जिस प्रकार दो सूर्य, अथीन् दो राशियों के सूर्य, पुण्य-काल में एक ही संधि-रेखा पर रहते हैं, उसी प्रकार इस समय उस स्त्री में दोनों अवस्थाओं का संधि है ।। ( अवतरण )-नायिका का वयक्रम किशोर तथा तरुण अवस्था की संधि पर है, अतः उसकी सखी नायक के, उसकी व्यवस्था कह कर, उसके पास लाया चाहती है ( अर्थ )---[ उस ] स्त्री-रूपी तिथि में | इस समय] तरुण [ तथा ] किशोर वयक्रम, दोनों पुण्य-काल के समान [स्थित ] हैं। [यह] ययक्रम-संधि-रूपी संक्रमण केसी [मनुष्य] से [बड़े] पुण्यों [ के प्रभाव ] से पाया जाता है ( प्राप्त हो सकता है ), [ अतः आपको इसका लाभ उठाना चाहिए ] ॥ १. दौन ( २ ) । २. पाये ( ४ ) । ३. संक्रौन ( २ )। विहारी-रत्नाकर | इस दोहे मैं 'तरुन' शब्द का अर्थ मानसिंह तथा कृष्ण कवि ने सूर्य कर लिया है । अनवर चंद्रिकाका ने भी यही अर्थ उचित समझ कर 'तरुन' के स्थान पर पाठ ही ‘तरनि' कर डाला है। और, फिर उनकी देखा-देखी प्रायः अन्य टीकाकारों ने भी ‘तरनि' पाठ रख कर उसका अर्थ सूर्य किया है। पर ईसवीख़ाँ ने अपनी टीका मैं 'तरुन' का अर्थ यौवन ही माना है, और वही ठीक है । प्रभुदयालु पाँडे ने भी ‘तरुन' पाठ, और उसका अर्थ यौवन, रक्खा है ॥ गनती गनिबे हैं रहे, छत हैं अछत-समान ।। अलि, अब ए तिथि औम लौ परे रहौ तन प्रान ॥ २७५ ।। छत ( क्षत )= क्षय हुए । अछत = अक्षय ॥ तिथि औम ( अवम तिथि )-जो तिथि जिस दिन सूर्य के उदय के समय रहती है, वहीं तिथि उस दिन दिन भर मानी जाती है, चाहे सूर्योदय के बहुत थोड़े ही काल के पश्चात् दूसरी तिथि का प्रारंभ हो जाय । बहुधा ऐसा होता है कि किसी दिन सूर्योदय के समय जो तिथि रहती है, वह पल ही दो पल में बात जाता है, और दूसरी तिथि का प्रारंभ हो जाता है। यदि यह दूसरी तिथि दूसरे दिन के सूर्योदय के पूर्व ही व्यतीत हो जाती है, और दूसरे दिन सूर्योदय के समय तीसरी तिथि ग्रा जाती है, तो दूसरे दिन उस तीसरी तिथि हा का मान होता है। दूसरी तिथि, प्रथम दिन के सूर्योदय के पश्चात् से ले कर दूसरे दिन के सूर्योदय के पूर्व तक रहने पर भी, गिनती में नहीं आती, और न किसी दिन मानी ही जाती है। उसका उतने समय तक रहना न रहने के समान ही हो जाता है । इसी तिथि को अवम तिथि कहते हैं । | ( अवतरण )-ओषितपतिका नायिका प्रियतम-वियोग में अपने प्राणों का रहना न रहना बरापर समझ कर सखी से कहती है ( अर्थ )-हे सखी, [ प्रियतम के विरह में मेरे क्षीण प्राण ] गिनती [ में ] गिनने ( गिने जाने ) से [ तो ] रहे ( वंचित हो गए ), [ और ] न रहते हुए भी रहने के समान हैं । अब [ यदि इस पर भी ] ये प्राण शरीर में [ निर्लज्जता धारण कर के हठात् रहें ही, तो ] अवम तिथि की भाँति [ भले ही ] पड़े रहो । सबै हँसत करार है नागरता के नौवें । गयौ गरबु गुन कौ परेवु गरें गैरै गर्दै ॥ २७६ ।। नागरता = नगरनिवासीपन, चातुरा, गुण संपन्नता । आँवा = ग्रामीण, गुणहीन, अगुणग्राही ।। ( अवतरण ):-कवि की प्रास्ताविक उक्लि है कि अगुणग्राहक में बसने से गुणी की हँसी होती है ( अर्थ )-[ नगरनिवासी पर गाँव के ] सव के सव [ लोग ] नागरता के नाम [ ही] पर ताली बजा बजा कर हँसते ह ( अर्थात् 'यह देखी नागर हैं' इत्यादि कह कर उसके नाम ही की हँसी उड़ाते हैं, अथवा उसकी किसी नागरता अर्थात् चातुरी काव्य, संगीत १. अब पत्रा तिथि श्रम स ( ३, ५ ) । २. नाँम ( ३, ५ ) । ३. बसत ( १, २, ४ )। ४. गवेले ( ३, ५) । ५. गाँम ( ३, ५ )। ________________

विहारी-रत्नाकर ११७ इत्यादि का नाम ही सुन कर उसकी हँसी उड़ाते हैं )। [ देखा, ] आँवारों के गाँव में जाने से [ उस बेचारे का ] सब गुण-गर्व जाता रहा ( अर्थात् उसके गुण का वहाँ कोई ग्राहक न होने के कारण उसे अपने गुणो कोई उपयोगी पदार्थ मानना छोड़ देना पड़ा) ॥ जाति मरी बिछुरी घरी जल-सफरी की रीति । ग्विन खिन होति खरी खरी, अरी, जरी यह प्रीति ।। २७७ ॥ जरी-भाड़ में गई, उफ्फर पड़ने गई, झौसा, जरी इत्यादि का प्रयोग स्त्रियां कसने में करती हैं। वास्तव में तो ऐसे खंड-वाक्य का अर्थ 'भाड़ में जाय', 'उफ्फर पड़ने जाय', झांस, जले इत्यादि है, पर वाक्य-व्यवहार में इनका भूतकालीन प्रयोग व्यवहृत है ॥ ( अवतरण )-नायक पर नायिका की प्रीति प्रतिक्षण बढ़ती जाती है, और अब यहाँ तक बढ़ गई है कि क्षण मात्र के वियोग ही मैं उसके प्राण पर बन आती है। अपनी यह दशा वह सखी से कहती है, अथवा कोई सखी उसकी व्यवस्था किसी अन्य सखी से कहती है ( अर्थ )-है सखी, [ मेरी अथवा उसकी ] यह प्रीति जली ( भाड़ में गई ) । [ यह तो ] क्षण क्षण पर खरी खरी ( विशेष प्रभावशालिनी ) होती जाती है, [ और अब यहाँ तक बारी आ गई है कि मैं अथवा वह ] जल की मछली की भाँति ( जल से बिछुड़ने पर जैसे मछली की दशा होती है, वैसे ही ) [ प्रियतम से ] घड़ी भर [ भी ] बिछुड़ी हुई मरी जाती हूँ [ अथवा मरी जाती है ] ॥ पिय-प्राननु की पाहरू, कति जतन अति आपु । जाकी दुसह दसा पेयौ सौतिनिहूँ संतापु ॥ २८ ॥ ( अवतरण )--प्रोषितपातका नायिका की दशा विरह से ऐसी दुःसह हो रही है कि देखने वाल को उसके जीने मैं संदेह है। नायक का प्रेम उस नायिका पर ऐसा अधिक है कि वह उसके प्राण की रक्षक समझी जाता है, अर्थात् लागाँ को यह भावना है कि यदि इस नायिका के प्राण पर श्रा बनी, तो नायक का भी जाना कठिन है । इसी भावना के अनुसार उसकी सौत उसको व्याधि के शमन को स्वयं प्रयत्न करन में अत्यंत कष्ट पा रही है, अथवा उसके वियाग ताप से, उसके सन्निकट उपस्थित रहने के कारण, संतप्त हो रहा है। यही वृत्तांत कोई सखी किसी सखा से कहता है ( अर्थ )-[यह हमारी प्यारी सखी ] प्रियतम के प्राणों की [ ऐसी आवश्यक ] पहिरू (रक्षक ) है | कि ] जिसकी दुःसह ( कठिनता से सहे जाने के योग्य ) दशा से आप ( स्वयं ) अत्यंत यत्न ( उसकी व्याधि के शमन करने का उद्योग ) करती हुई सौत पर भी संताप ( कष्ट, दुःख ) पड़ा है ॥ १. बिछैरें ( २ ) । २. छिन छिन ( १, २ ), छिनु छिनु ( ४ ) । ३. के ( ३, ४, ५ ) ।। ४. करत ( ३, ५) । ५. परै ( ३ ), परे ( ४, ५)। बिहारी-राफर अहे, कहै न कहा कह्यौ तोस नंदकिसोर ।। बड़बोली, बलि, होति केत बड़े दृगनु हैं जोर ॥ २७९ ॥ बड़वोली = गर्वगुत बड़ी बड़ी बातें बोलने वाली ॥ जोर ( फ़ारसी जोर )= बल ।। ( अबतरण )- कलहांतरिता नायिका का मान अभी छूटा नहीं है, और वह बैठी हुई कुछ अंडबंड बक रही है कि वे बड़े झूठे तथा कपटी हैं' इत्यादि । सखी उसको समझाने और मनाने के निमित्त कहती है ( 4 )--- अहे ( हे सखी ), [ तु स्पष्ट ] कह न [ कि ] नंदकिशोर ने तुझसे क्या कहा है, [ जो तू एसे रोप भरे वचन कह रही है ]। मैं वलि जाऊँ, [ तू अपने] बड़े दृगों के बल पर ( अभिमान से ) वड़वेली क्यों होती है [ देख, वड़ा बाल बोलना अच्छा नहीं होता ] ॥ सखी के वचन बड़ी चातुरी के हैं। वह नायिका को बड़बोली कह कर लज्जित भी किया चाहती है, जिसमें उसका गर्व जाता रहे, और बड़े दृगनु नैं जोर' कह कर उसके नेत्रों की प्रशंसा भी करती है। इसके अतिरिक्त उसके मुग्न से नायक के वे वचन भी सुनना चाहती है, जिनके कारण वह रुष्ट हो रही है, जिसमें कि उसे समझाने का अवसर मिले ॥


----- दियौ जु पिथ लम्वि चखनु मैं खेलत फाग-खियालु ।

बाढ़ हूँ अति पीर सु न काढ़त बनतु गुलालु ॥ २८० ॥ खियालु = खल । ५२८-संख्यक दोहे में भी बिहारी ने यह शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त । ( अवतरण )--- नायक ने हाल के खेल मैं नायिका की अँखि मैं गुलाल डाल दिया है। उससे यद्यपि नायिका को पड़ा हो रही है, तथापि, यह सोच कर कि यह गुलाल नायक के हाथ का है, वह उससे निकालत नहीं बनता । यह प्रमाधिक्य सखी सखी से कहती है-- ( 14 )-- भियतम ने फाग का खेल खेलते हुए जो [ गुलाल ] लख कर ( ताक कर )[ उसकी ] ऑखा में दिया ( डाल दिया ), वह गुलाल [ नायिका से ] पीड़ा के बहुत बढ़ते हुए भी काढ़ते ( आँखों से निकालते ) नहीं बनता ।। = = = मैं तपाइ त्रयताप स राख्यौ हियौ भानु । मति कबहुँक आएँ यहाँ पुलकि पसीजै स्याम् ॥ २८१ ॥ त्रयताप = तीनों दुःख । संसार में दुःख तीन प्रकार का माना जाता है—(१) प्राधिभौतिक, जो किसी सांसारिक विषय से प्राप्त होता है । ( २ ) अधिदैविक, जो किसी देवता से मिलता है । ( ३ ) आध्यात्मिक, जो अपनी आत्मा के कारण होता है । हमाम ( अरबी हम्माम ) = स्नान करने की कोठरी, जो गरम कर दी जाती है । इसमें तीनों श्रोर से गरमी पहुँचाई जाती है—छत से, नीचे से तथा दीवारों से । इसी विचार से हृदय-रूपी हम्माम का तीनों ताप से तपाना कहा गया है । हम्माम में जाने से सब रोंगटे खुल जाते हैं, और १. कयौ कहा ( २ ) । २. कित ( ४, ५) । ३. बनें (२) ४. कबहूँ ( २, ३, ४, ५) । ________________

बिहारी-रत्नाकर भली भाँति पसीना आ जाता है । इसी लिए श्रीकृष्णचंद्र के हृदय-रूपी हम्माम में आने पर उनके पुलक कर पसीजने की संभावना कही गई है । मति-यह शब्द संभावनासूचक है। इसका प्रयोग इस प्रकार के वाक्यों में होता है-'मति वह आ ही जाय', अर्थात् संभव है कि वह या जाय ; ‘मति वहाँ जाना ही पड़े', अर्थात् संभव है कि वहाँ जाना पड़े ।। ( अवतरण )—किसी भक्त की उक्रि है ( अर्थ )-मैने [अपने] हृदय-रूपी हम्माम को तीनों तापों से तपा रक्खा है,मति (यह सोच कर कि कदाचित् ) कभी यहाँ आने पर श्याम ( श्रीकृष्णचंद्र ) पुलकित हो कर पसीज जायँ (करुणाई हो जायँ ) ॥ । बहकि बड़ाई अपनी कत राँचत मति-भूल । बिनु मधु मधुकर * हिमैं गड़े न, गुड़हर, फूल ।। २८२ ।। बहकि = संपत्ति अथवा किसी गुण के कारण उमंग में आ कर बकने अथवा अन्य कोई कार्य करने को बहकना कहते हैं ॥ मति-भूल = बुद्धि के भ्रम से । | ( अवतरण )-गुड़हर के फूल पर अन्योक़ि कर के कोई, किसी धनाढ्य तथा प्रतिष्ठित पर गुणहीन व्यक्ति को सुना कर, कहता है ( अर्थ )-हे गुड़हर, बुद्धि के भ्रम से अपनी बड़ाई से बहक कर ( उमंग में आ कर ) क्यों ‘राँचता' है ( १. रंजित होता है, अर्थात् लाल होता है । २. प्रसन्न होता है )। मधु ( १. मकरंद । २. सरसता गुण ) के विना मधुकर ( १. भ्रमर । २. गुणग्राही ) के हृदय में फूल नहीं गड़ता (१. चुभता । २. प्रभाव डालता ) ॥ आड़े ६ आले बसन जाड़े हूँ की राति । साहसु केकै सनेह-बस सखी सबै ढिग जाति ॥ २८३ ॥ (अवतरण )-प्रोपितपतिका नायिका की दूती नायक से उसके विरह-ताप का वृत्तांत कहती है ( अर्थ )-[ उसके शरीर में विरह-ताप ऐसा दुःसह हो रहा है कि ] जाड़े की रात में भी गीले कपड़ों को आड़े ( बीच में ) दे कर [ और फिर भी ] साहस कर कर के स्नेह के कारण सभी सखियाँ [ उसके ] पास जाती हैं ।। सब अंग करि राखी सुधर नाइक नेह सिखाइ । रसजुत लेति अनंत गति पुतरी पातुर-राइ ।। २८४ ॥ सब अंग ( सर्वांग )--पुतली के पक्ष में इसका अर्थ पुतली को सब भावों के साथ संचल करने में . रोगा, और पातुरी के पक्ष में इसका अर्थ नृत्य के सब अंगों में ।। सुघर=भद्देपन से राहत, सुंदर ॥ नाइक . . है है ( ३ ), के के ( ५ ) । २. नेह ( ३, ५) । ३. बसि ( १) । ४. तत्रै ( २ )। बिहारी-रत्नाकर ( नायक )-संगीत तथा नृत्य सिखलाने वाले को नायक कहते हैं ॥ रसजुत = रसलेपन से ॥ अनंत= अनेक प्रकार की ।। गति–नृत्य के किसी एक विधान को गति कहते हैं, जैसे गाने के किसी एक विधान को गीत कहते हैं । गते अनेक प्रकार की होती हैं, और नेत्र के संचालन भी अनेक भाव के होते हैं। पातुरराइ-जो स्त्री नाट्यशाला में किसी नाटक-निबद्ध व्यक्ति का वेष धारण कर के अभिनय करती है, उसको पात्री कहते हैं। उसी पात्री शब्द के विकृत रूप पातुर, पातुरी इत्यादि हैं, जो अब नर्तकी के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। 'पातुर-राइ' का अर्थ नर्तकियों की सर्दार, अर्थात् नर्तकियों में श्रेष्ठ, हुग्रा । इस दोहे में यद्यपि प्रबन' शब्द नहीं आया है, तथापि भान यह होता है कि विहारी ने लड़कपन में केशवदास द्वारा प्रशंसित प्रबीनराय पातुरी का नाच देखा था, जो उसके हृदय पर जमा हुआ था। इस दोहे में उसने प्रबनराय का स्मरण कर के ही पातुर शब्द के साथ 'राइ' ( राय ) का प्रयोग किया है ॥ ( अवतरण )-नायक को देख कर नायिका की आँखें अनेक प्रकार के भाव से चंचल होती हैं। कोई सखी इस बात को लक्षित कर के अन्य सखी अथवा नायक से कहती है-- ( अर्थ )-स्नेह-रूपी नायक के द्वारा सिखला कर सर्वांग-सुघर कर रक्खी गई [ उसकी आँखों की ] पुतली-रूपी पातुरराय अनंत प्रकार की रसीली गते लेती है ॥ सुनत पथिक-मुंह, माह-निसि चलति लुवै उहिँ गाम । बिनु बूझै, बिनु हाँ कहैं, जियाति बिचारी बाम ॥ २८५ ।। ( अवतरण )-अपने गाँव की ओर से आए हुए किसी पथिक के भह से यह सुन कर कि उस गाँव में माघ महीने की रात में भी लाएँ चलती हैं, प्रोषित नायक ने अपनी विरहिणी स्त्री के जीवित होने का अनुमान कर लिया है । यही बात कोई किसी से कहता है ( अर्थ )-[ नायक ने अपने गाँव की ओर से आए हुए किसी ] पथिक के मुंह से [ यह ] सुनते [ ही कि] माघ [ मास ] की रात्रि में उस गाँव में लुएँ चलती हैं, विना [ अपनी पत्नी का कुछ वृत्तांत ] पूछे [ ही तथा ] विना [ उस पथिक के और कुछ ] कहे [ ही विरह से परम संतप्त उस ] वामा को जीत विचार ( अनुमान कर ) लिया । उसने सोचा कि माघ की रात्रि में भी लए चलने का बस यही कारण हो सकता है कि मेरी विरहिणी पत्नी के संताप ने गाँव भर की वायु को तप्त कर रखा है। बस, इसके अतिरिक्त और ऐसा कौन कारण हो सकता है । इसी अनुमान से उसने अपनी पत्नी का जीवित होना मान लिया ; क्योंकि यदि वह मर गई होती, तो फिर माघ की रात्रि में जुएँ किसके साप से चखतीं ॥ अनत बसे निास की रिसनु उर बरि रही बिसेष । तऊ लाज आई झुकत खरे लहैं देखि ।। २८६ ॥ बरि रही= जल रही, संतप्त हो रही । बिसेषि= विशेष रूप से ।। झुकत = झुकते, क्रोधयुत कड़े वचन बोलते ॥ ( अवतरण )–नायिका उत्तमा कंडिता है। यद्यपि नायक के रात भर अन्यत्र रहने के कारण उसके हृदय मैं क्रोधाग्नि धधक रही है, तथापि उसे अति खज्जित देख कर वह उससे क्रोध के साथ बोलते खजाती है। सखी-वचन सखी से—

( अर्थ )-[ नायक के ] रात को अन्यत्र बसने की रिसों से [ यद्यपि वह नायिका ] हृदय में ( भीतर ही भीतर ) बहुत जल रही है, तथापि [ नायक को ] बहुत लजित देस कर [ उसे ] झुकते लज्जा आई ॥

सुरंगु महावरु सौति-पग निरखि रही अनखाइ । पिय-अंगुरिनु लाली लखें खरी उठी लगि लाइ ॥२८७॥

सुरंगु= अच्छे रंग वाला ॥ साइ= अग्नि, लवर ॥ ( अवतरण )-अन्यसंभाग-दुःखिसा नायिका का वृत्तांत सखी मस्सी से कहती है-- ( अर्थ )-सौत के पाँव में सुंदर रंग का महावर देख कर [ यह नायिका ] अनखा रही थी ( भीतर ही भीतर ईर्ष्या से दुखी हो रही थी कि सौत भी ऐसी सुघर है, जो ऐसा सुरंग महावर लगाती है)। [ इतने ही में ] प्रियतम की अंगुलियों में लाली देख कर [ इस अनुमान से कि उसने स्वयं सौत के पाँव में महावर लगाया है, उसके हृदय में ] भली भाँति आग लग उठी ॥ मानहु मुँह-दिखरावनी दुलहिहँ करि अनुरागु । सासु सदनुः मनु ललन हैं सौतिनु दियी सुहागु ।। २८८ ॥ मुँह दिखरावनी= मुंह-दिखाई । जब कोई नई दुलहिन म्याह कर आती है, तो सास, ससुर इत्यादि ससुराल के प्रायः सभी लोग उसे आभूषण आदि वस्तुएँ उपहार के रूप में, उसका मुँह देख देख कर, देते हैं। यह उहपार दुलहिन का निज धन हो जाता है । सुहागु ( सौभाग्य )—यहाँ इसको अर्थ, इस कहावत के अनुसार कि “जाकों पिय प्यारी चहै वह सुहागिन नारि, अपने ऊपर का प्रियतम-प्रेम होता है। ( अवतरण )-नई दुलहिन विवाहित हो कर आई है। आते ही उपकी सुथराई तथा शीत पर रीझ कर सास ने उसका घर का प्रभुत्व, नायक ने उसके रूप तथा गुण पर अनुरक हो कर अपनी मन एवं सार्ती ने अपने को उसके बराबर न समझ कर प्रियतम का प्यार दे दिया । यह सब उसको ऐसे अल्प काल ही में प्राप्त हो गया, मानो मुंह-दिखाई ही में मिल गया । सखी-वचन सभी से--- ( अर्थ )–सास ने गृह, नायक ने भी मन [ तथा ) सौतों ने सौभाग्य ( अपने अपने ऊपर का पति-प्रेम ) [ इसको ऐसा चटपट तथा सदा के लिए ] दे दिया, मानो दुलहिन को मुँह-दिखाई [ ही ] में अनुराग कर के दिया है] ॥ ‘मानहु' कहने का अभिप्राय यह है कि ये पदार्थ उस आते ही मिल गए, और उन पर उसका ऐसा स्वत्व हो गया कि जैसा मुंह-दिखाई में प्राप्त पदार्थों पर होता है। १. सहनि ( ३, ५) । २. सौतिनि ( २, ४) । ३. दयो ( ३, ५)।

बिहारी-रत्नाकर कत सकृचत, निधरकफि, रतियौ खारि तुम्हें न । कहा करौ, जौ जाई ! लगें लग हैं नैन ।। २८९ ॥ ( अवतर ) -खंडितः नायिका का वचन नायक स --- ( अर्थ )-- तुभ ] संकुचि। क्यों होते हो, निधड़क ( निःशंक ) [ जहाँ जी चाहे ] फिरा करो, [ ऐड करने में ] तुम्हें रत्ती भर भी ‘खेरि' ( दोष) नहीं है । [ तुम ]क्या करो ( तुम्हारा क्या यश है ), यदि [ तुम्हा ये 3 गाहें (चटपट रीझ जाने वाले ) नयन [ बरस ] जा कर [ शिजी ले ]ला जा { आसक्त हो जायें ), [ और तुम्हें भी बलात् खाँच कर उधर ले जायँ ॥ । वास्तव में नाभि का वचन-चानुरी से यह कहती है कि तुम बड़े निर्लज्ञ हो, तुम्हारा स्वभाव ही ऐसा पड़ गया है कि चाहे जिस पर री कर उसके यहाँ चले जाते हो । यदि तुम न जाओ, तो क्या तुम्हारे नयन खन कर ले जाथें ।। अापु दियौ भनु फेरि लै, पल दीनी पीठि। कौन चाल यह रावरी, लाल, लुकावत डीठि ॥ २९० ॥ पलटे = वदले में ।। लुकावत = छिपाते हो, चुराते हो । ( 'अ'तरण ) : परकीया नायिका नायक को उलाहना दती है-- ( अर्थ )-अपना दिया आ मन लौटा ले कर [ उसके ] बदल में [ आपने मुझको अब ] पीठ दी ( मुझले ह फेर लिया ) । हे लाल ! आपकी यह कौन [ भलमंसी की ] चाल है [ कि अब मुझसे ] आँखें [ भी ] चुराते हा ॥ गोपिनु सँग निास सरद की रमत रसिकु रस-रास । लहछेह अति गतिनु की सदनु लखे सव-पास ॥ २९१ ॥ रस-रा--क प्रकार के गोपजातीय नृत्य को रास कहते हैं। इसमें बहुत से स्त्री पुरुष एक साथ, मंडल बांध कर, नानते हैं । ‘र-रा' का अर्थ रसाला रास, अर्थात् अानंदोत्पादक रास, हुआ । लहाछेह-यह शब्द संस्कृत के लक्ष | 7 से बना ज्ञात होता है । नृत्य, गान तथा वाद्य में किसी निबंध को समता से, नियत काल में', सः। करन का लय कहते हैं । यह लय तीन प्रकार की होती हैं—विलंबित, मध्य तथा द्रुत । किसी ने पंव की भरे धरे (तनः उनकी बिताना लय कहलाती है। जितना काल किसी निबंध के धीरे धारे बरतन में लगता है, यदि उसका प्राधा कान लगाया जाय, तो उस निबंध में मध्य लय होगी । मध्य लय में जितना काल लगता है, यदि उससे भी ग्राधे काल में वह निबंध बरती जाय, तो उसकी द्रुत लय हो जाती है। यदि ग्रौर भी शोधता की जाय, तो अति द्रुत लय होगी । नृत्य के संबंध में लघ्वाक्षेप का अर्थ अति लाघव अर्था । फुत से पैरा का उठाना रखना, अर्थात् द्रुत लय में नृत्य करना है ॥ गति-नृत्य के १. खारति मेन ( ३, ५) । २. करा ( २, ३, ४, ५) । ३. जाहिँ ( २ ) । ४. लगे ( २, ४, ५ ) ।। ५. लकावति ( १, ३ ) । ६. लहछेह ( २ ), ले ह ( ३, ५) । ७. सय निरखे ( २ ) । ________________

१२३ बिहारी-रक्षाकर किसी परिमित निबंध को गति कहते हैं । इसी का रूपांतर अव गत रह गया है, जिसको कि ऐसे वाक्यों में लोग प्रयुक्त करते हैं-“उसने एक गत नाचा' ।। लहाह अति भतिनु की--इसका अर्थ नृत्य की गत का अत्यंत पद-लाघव के साथ नाचना, अर्थात् नाच में अति शीघ्रतापूर्वक चलत किरते करना, है ॥ ( अवतरण )-यह दोहा रास के समय का है। उस समय का सृत्तांत गापि आपस मैं ती हैं ( अर्थ )-[ उस ] शरद् निशा में गोपियों के संग रस रास में रमते हुए ( आनंदपूर्वक क्रीड़ा करते हुए ) [ उन] रसिक को, गतों के प्रति शीघ्र नाच के कारण, सबों ने सबों के पास देखः ॥ इस दोहे का भावार्थ यह है कि रास-मंडल में श्रीकृष्णचंद्र शेसे मत वेग से नृत्य करते थे कि सब को सव के पास दिखलाई दते थे, जैसे कि यदि किसी चक्र पर कोई विंदु लगा दिया जाय, और चक वेग से घुमाया जाय, तो वह विंदु हर जगह चक्राकार दिखलाई देगः ।। स्याम-सुरति करि राधिका, तकति तरनिजा-तरु ।। अँसुवनु करति तराँस कौ खिनऊ खरिह नीरु ॥ २९२ ॥ तरनिजा= यमुना ॥ ( अवतरण )--श्रीकृष्णचंद्रजी के मथुरा चले जाने पर श्रीराधिकाजी की स्मृति-दशा का वर्णन सखी सखी से करती है, अथवा उद्धवजी मथुरा मैं लौट अ कर श्रीकृष्णचंद्र से कहते हैं ( अर्थ )--श्रीराधिकाजी यमुना के तीर को देखती हुई , श्याम की स्मृति कर के, [ अपने ] आँसुओं से तराँस ( तट के निकट ) का पानी क्षण भर खारा कर देती हैं । गोपिनु के अँसुवनु भरी सदा असोस, अपार । डुगर डगर नै है ही, बगर बगर कै बार ॥ २६३ ॥ नै ( नइ )=नदी । संस्कृत शब्द नदी का प्राकृत रूप नई होता है। उसी रूप से 'नई' और 'ने' रूप बन गए हैं ॥ बार=द्वार ।। ( अवतरण )-उद्धवजी का वचन श्रीकृष्णचंद्र से ( अर्थ )[ हे श्रीकृष्णचंद्र, व्रजमंडल के ] डगर डगर (प्रति मार्ग ) में, घर घर के द्वार पर, गोपियों के आँसुओं से भरी हुई सदा असोस ( कभी न सूखने वाली ) [ तथा] अपार नदी हो रही है ( बन गई है ) ॥ दुचि चित हलति न चलति हँसति न झुकति, बिचारि। लखत चित्र पिउ लग्वि, चितै रही चित्र लौं नारि ।। २९४ ।। दुचितं = द्विविधा में पड़े हुए ॥ हलति न चलति =न हिलती है, न चलती है । हिलती चलती १. नइ ( ५ ) । २. रह ( १, ३ ) ।। बिहारी-रक्षाकर इस कारण नहीं कि उसके पाँव की आहट से कहीं प्रियतम उसका चित्रसारी में आना जान न जाय ॥ हँसति न झुकति=न प्रसन्न होती है, न रुष्ट होती है । हँसती तथा खिझलाती इसलिए नहीं कि अभी उसको यह नहीं बात है कि प्रियतम किस पर रीझेगा ॥ ( अवतरण )-नायक चित्रसारी में चित्र देख रहा है । नायिका भी वहाँ आ गई है। वहाँ अनेक बी-पुरुष के चित्र लगे हुए हैं। उनमें नायिका का चित्र भी है । नायिका इस बात को जानने की इच्छा से कि नायक किसके चित्र के अधिक ध्यान से रीझ कर देखता है, चुपचाप खड़ी हुई देख रही है। यही वृत्तांत कोई सखी किसी अन्य सखी से कह कर कहती है कि तू विचार कि नायिका के इस प्रकार खड़ी रहने मैं क्या भेद है ( अर्थ )-[ हे सखी, तु] विचार [ तो सही कि इसमें क्या भेद है कि वह ] द्विविधा मैं पड़े हुए चित्त से न हिलती है, न चलती है, [ और ] न हँसती है, न खिझलाती है; प्रियतम को चित्र देखते देख कर [ वह ] नारी चित्र की भाँति ( अचल रूप से, विना पलक गिराए ) ताक रही हैं ॥ ...


कन दैबौ सयौ ससुर, बहू थुरहथी जानि । रूप-रहचर्दै लगि लग्यौ मॉर्गन सबु जगु अनि ॥ २९५ ॥ थुरहथी= छोटे हाथ वाली ॥ रहच = लालच में । ( अवतरण )—यह हास्य रस का दोहा है। किसी कृपण की कृपणता पर कोई उपहास कर के रहता है ( अर्थ )-[ नई आई हुई ] बहू को थुरथी जान कर ससुर ने [ उसे भिखारियों को ]कन (कण, अन्न ) देने का काम सौंपा [ जिसमें अन्न कम लगे ]। [ पर उसके ] रूप के लालच में लग कर सारा जगत् [ उसके द्वार पर ] आ कर [ भिक्षा ] माँगने लगा [ जिससे और भी अधिक अन्न लगने लगा ] ॥ निरखि नबोढ़ानारि-तने छुटत लरिकइ-लेस । भी प्यारी प्रीतमु तियनु, मनहु चलत परदेस ।। २९६ ॥ ( अवतरण )-नवयौवना मुग्धा की मनमोहिनी शोभा का वर्णन सखी सखी से करती है ( अर्थ )-[ इस ] नवोढ़ा ( नई ब्याही हुई ) स्त्री के शरीर में से लड़कपन का लेश छूटता हुआ देख कर [ उसकी सपत्नी ] स्त्रियों को प्रियतम [ ऐसा ] प्यारा लगने लगा, मानो [ वह ] परदेश चल रहा है ॥ परदेश चलता हुआ मनुष्य इस कारण अधिक प्यारा लगता है कि उससे बहुत दिन पछे मिलने आशा होती है । इस नायिका के यौवनगमन से सौत ने समझा कि अब ऐसी सुंदरी को छोड़ कर प्रियतम हम लेग के यहाँ बड़ी कठिनता से अवेगा, अतः अब वह उनको अधिक प्रिय संगने कागा ॥ १. सबु गु मागन ( २, ३, ४)। २. त्यों ( २ ) । ३. भी । १, ४, ५ ) | ४. मनौ ( २ )। ________________

बिहारी-रत्नाकर १२५ प्रानप्रिया हिय मैं बसै, नखरेखा-ससि भाल । भलौ दिखायौ आइ यह हरि-हर-रूप, रसाल ॥ २९७ ॥ भलौ-इस शब्द का अर्थ लक्षणा से यहाँ भयानक तथा दुःखद होता है ॥ ( अवतरण )-खंडिता नायिका की उझि नायक स ( अर्थ ) -[आपके हृदय में [तो] प्राणप्रिया ( जो स्त्री आपको प्राण के समान प्यारी है, वह ) बसी है, [ जिस प्रकार विष्णु भगवान् के हृदय में लक्ष्मीजी वसती हैं, और ] नखरेखा-रूपी शशि [ अापके ] भाल में [ बसा है, जैसे शिवजी के मस्तक पर चंद्रमा रहता है ]। हे रसाल, [आपने आज ] आ कर यह हरि [ और ] हर का रूप [ एक साथ] बड़ा उत्तम दिखलाया ।। तिय निय हिय जु लगी चलत पिय-नग्व-रेख-खौं । सूखेन देति न सरसई खॉटि खटि खत-खौं ॥ २९८ ॥ निय = निज ॥ खरौं = वह घाव, जो शरीर में नख, काँटे इत्यादि से खुरच जाने पर पड़ जाता है । यह शब्द खरोट, खरीट तथा खट, तीनों रूपों में प्रचलित है ।। ( अवतरण )-प्रोषितपतिका नायिका प्रियतम के नख के खट को, उनका प्रसाद समझ कर, सूखने नहीं देती । सखी-वचन सखी से-- | ( अर्थ )-प्रियतम की नख-रेखा की जो खरौंट [ उनके परदेश ] चलते समय निज हृदय पर लगी है, [ उसकी ] सरसई ( गीलापन ) को [वह ] स्त्री [ यह समझ कर कि यह खर्राट प्रियतम के चलते समय का चिह्न है ] घाव के खुरंड को खट खट (नोच नोच) कर सुखने नहीं देती ॥ सघन कुंज, घन घन-तिमिरु, अधिक अँधेरी राति । तऊ न दुरिहै, स्याम, वह दीपसिखा सी जाति ॥ २९९ ॥ ( अवतरण )-नायक तूती अथवा सखा से प्रार्थना करता है कि आज अच्छा अवसर है, त नायिका को अभिसार करा कर अमुक कुंज मैं ले चल । सखी नायक की रुचि बढ़ाने के निमित्त, नायिका के रूप की प्रशंसा करती हुई, उसकी बात का खंडन करती है। अभिप्राय यह है कि नायक और अधिक लालायित हो कर प्रार्थना करे, तब ले जाऊँ | ( अर्थ )-[ यद्यपि ] कुंज सघन हैं, घन-तिमिर ( बादलों को अंधकार )[ भी ] घना है, [ तथा ] रात्रि [ भी अँधेरी है, एवं बादलों के कारण ] अधिक अँधेरी है; तथापि, हे श्याम, वह दीपशिखा सी [ नायिका ] जाती हुई ( अभिसार करती हुई ) छिपेगी नहीं [ कारण, अँधेरे में दिया नहीं छिपता ] ॥ | - - -

  • १. खरोट (४, ५) । २. सूकन (२, ३, ५)। ३. खोट (४, ५ ) । ४. यह ( ३, ४, ५)।

२६ बिहारी-रत्नाकर स्वारथुः सुकृतु न, श्रम बृथा; देखि, बिहंग, बिचारि । बाज, पराएँ पानि परि हूँ पच्छीनु न मारि ॥ ३०० ॥ स्वारथु= अपना लाभ ॥ सुकृतु= पुण्य ।। बिहंग=आकाशगामी, स्वच्छंद-विहारी, दूरदर्शी । यह शब्द पक्षी के अर्थ में प्रयुक्त होता है । पच्छीनु=(१) पक्षियों को । (२) अपने पक्षवर्तियों अर्थात् स्वजातियों को ॥ | ( अवतरण )—किसी दुष्ट स्वामी के सेवक को, जो उस दुष्ट के निमित्त स्वजन को कष्ट देता है, कोई बाज़ पर अन्योकि कर के समझाता है ( अर्थ ) हे बाज़ ! दुसरे के हाथ में पड़ कर ( दूसरे के वश में हो कर) तु पक्षियों (१. चिड़ियों । २. स्वजनों ) को मत मार। हे विहंग ( १. पक्षी । २. स्वच्छंद-विहारी ), [नैंक अपने मन में ] विचार कर देख, [इस काम में तेरा न तो ] स्वार्थ है, [ और ] न सुकृत, [ केवल ] वृथा ( बिना लाभ का ) श्रम है ॥ ज्ञात होता है कि मि राजा जयशाह जो शाहजहाँ की ओर से हिंदुओं के विरुद्ध युद्ध करते थे, वह बिहारी को अच्छा नहीं लगता था। सो उसने यह अन्योकि उन्हीं पर कही है। ‘पराएँ और ‘परछीनु' ( पक्षी ) शाहजहाँ तथा हिंदुओं के ऊपर बहुत अच्छे घटते हैं। 'बिहंग' शब्द से कवि यह व्यंजित करता है कि तेरी गति तो अनिरुद्ध है, और तू बड़ा दूरदर्शी भी है, फिर दूसरे के वश में पड़ कर स्वजातिर्यों को क्याँ हानि पहुँचाता है, और इसका परिणाम नहीं सोचता ॥ | जयशाह को, मुसलमान की ओर हो कर हिंदुओं से लड़ने पर, शिवाजी ने भी अपनी चिट्ठी मैं, बहुत फटकारा है। उस चिट्ठी के कुछ शेर नीचे लिखे जाते हैं जे खुन दिखो दीदए हिंदुवाँ। तु ह्वाही शवी सुर्खरू दर् जहाँ ॥ हिंदुओं के हृदय तथा आँखों के रक्त से तु संसार में सुर्खरू ( लाल मुँह वाला ) हुअा चाहता है । न दानी मगर की सियाही शवद् । क़ज़ाँ मुल्को द रा तबाही शवद् ॥ पर तू यह नहीं समझता कि इससे तेरे मुँह पर कालख पोती जा रही है, क्योंकि इससे देश तथा धर्म का सत्यानाश होता है ॥ | अगर सर् दमे दर् गरेबाँ कुन । चा नज़ारए दस्तो दामाँ कुन । यदि तू क्षण मात्र अपना सिर झुका कर सोचे और अपने हाथ तथा दामन का [ जो कि रक्त से सने हुए हैं ] निरीक्षण करे । बु यीनी कि इँ रंग अज़ खने कीस्त । कि दर दोजहाँ रंगे इँ रंग चीस्त ॥ तो तुझे ज्ञान हो कि यह रंग किसके खून का है, और इहलोक तथा परलोक, दोनों में इस रंग का वास्तविक रंग क्या है, काला है अथवा लाल । म बायर् कि बा मा नषद् आवरी । सरे हिंदुवाँ जैरे गद् आवरी ॥ तुझको हम लोगों से युद्ध करना और हिंदुओं के सिरों को धूल में मिलाना उचित नहीं है ॥ अ तुर्कता जी से शायद् तुरा । हवायत् सुराजे नुमायद् तुरा ॥ १. पंधीहि ( २ ), पच्छहि ( ३, ५ ), पंच्छिनु नहि ( ४ } } ________________

विहारीराफर १२७ इस वृथा की दौड़ धूप से तेरे हाथ क्या आता है ? तेरी तृष्णा तुझे मृग-तृष्णा मात्र दिखा रही है। बदाँ सिफ़्ल मानी कि जड्ढे मेरद् । उरूसे बचंगाखे खेश आवरद् ॥ तू उस नीच मनुष्य की भाँति है, जो बड़ा उद्योग कर के किसी सुंदरी को अपने हाथ में लाता है । बले बर् न अजू बाग़ हुस्न खुरद् । बदस्ते हरी व बेरपरन् । पर उसके सौंदर्य की वाटिका का फल स्वयं नहीं खाता, प्रत्युत उसको अपने पतिद्वंद्वी के हाथ में सौंप देता है ।