बिहारी-रत्नाकर/५
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यह बरियां नहिं और की, तँ करिया वह सोधि । पाहन-नाव चढ़ाई जिहिं कीने पार पयोधि ॥ ४०१ ॥ | बरिया ( वार ) = अवसर ॥ करिया--कर्ण संस्कृत में नाव की पतवारी को कहते हैं । उसी से यह शब्द बना है। इसका अर्थ पतवारी धारण करने वाला होता है ॥ ( अवतरण )- 'भक की उ िमन से अथवा गुरु की उकिं शिष्य से ( अर्थ )—यह अवसर ( भवसागर तरने का समय, अंत-समय ) और का नहीं है ( अन्य किसी से काम चल जाने के योग्य नहीं है ), [ अतः] तु वह करियर ( माँझी, केवट ) सोध ( सुधि कर, स्मरण कर ), जिसने [ करोड़ों भालु और कृषि ] पाहन ( पाषाण ) की नाव पर चढ़ा कर पयोधि ( समुद्र ) से पार कर दिए । यहाँ 'वह करिया' से श्रीरामचंद्र माने गए हैं, जिन्होंने समुद्र पर पत्थर तैरा कर, भाल फपिर्यों के पार जाने के निमित्त, लंका तक पुल बना दिया था। पाबक-झर तें मेहँ-झर दाहक दुसह बिसेखि । दहै देह वैके परर्स, याहि दृगनु हाँ देखि ।। ४०२ ॥ झर-पहिले ‘झर' शब्द का अर्थ लपट, ज्वाला अथवा दाह है, और दूसरे का लगातार पानी बरसना । बिसेखि = विशेष समझ ।। ( अवतरण )-प्रापितपतिका नायिका की उकिं सखी से ( अर्थ )-[ हे सखी, ] पावक की झर (लफ्ट ) से मेघ की झड़ी को [ 7 ] विशेष १. इहि ( ३, ४ ) । २, बिरिया ( ३ ), बेरिया (४) । ३. कीने ( १, २ ) । ४. मेघ ( ३, ५ ) । ५. वाकों ( ३, ५ )। ६. पररासि ( ५ ) । ________________
विवारी-राकर १६५ दुःसह जलाने वाली समझ, [ क्योंकि ] उसके ( पावक-झर के) [ तो ] स्पर्श से देह जलती है, [ पर ] इसको (मेघ की झड़ी कर ) आँखों ही से देख कर ॥ चलित ललित, श्रम-स्वेदकन-कलित, अरुन मुख रौं न । बन-बिहार थकीतरुनि-खरेथकाए नैन ॥ ४०३ ॥ ललित, अम-स्वेदकनकलित, अरुन-ये तीन मुख के विशेषण हैं ॥ बन-बिहार समिक्षरेकाप--यह सब एक समस्त पद है, और 'नैन' शद का विश पण । इसका अर्थ हुआ, वन-विहार में थकी हुई तरुणी के द्वारा भली भाँति थकाए हुए । | ( अवतरण )-वनविदार मैं, श्रम के कारण, नायिका के मुख पर जो लाली तथा पसीने की ५६ आ गई हैं, वे नायक को उसी अच्छी लगती हैं कि उसके नयन उसके मुख पर से टलते नहीं। सखी-वचन सखी से ( अर्थ )-वन-विहार से थकी हुई तरुणी [ की शोभा ]के द्वारा खरे ( भली भाँति) थकाए हुए ( मोहित किए हुए ) [ नायक के ] नयन ललित ( सुंदर ), श्रम-स्वेदकनकलित ( परिश्रम से निकले हुए पसीने की बूंदों से मंडित ), [ तथा ] अरुण (लाल) मुख से चलित नहीं [ होते ]॥ , , ये दोन शब्द पृथक् पृथक् हैं। यहाँ 'K' पंचमी की विभक्ति है । कुढेगु कोपु तजि रंग-रली कराँत जुवति जगे, जोइ । पावस, गूढ़ में बात येह, बूढनु हुँ रँगु होइ ॥ ४०४ ॥ आँ-रक्षा के आनंद-क्रीडा ॥ जइ = देख ॥ गढ़ =बिपी ।। बुढ्नु-ब्रज में पावस की बुदिया अथवा डोकरी चंद्रवधू अर्थात् वीरबहूटी के कहते हैं। केवल बूढ़' शब्द भी उसी अर्थ में प्रयुक्त होता है। उसी का बहुवचन ‘बूदनु हुा । यह शब्द यहाँ श्लिष्ट है। इसका एक अर्थ तो बूढों को है, और दूसरा अरबमय को ।। ( अवतरण )--मानि नायिका का मान छुड़ाने के निमित्त सखी कहती है कि पारस ख हैं तो वहीं का भी अनुराग उत्पन्न होता है, फिर तेरी सी युवतियों को ऐसे समय मान करना सर्व अयोग्य है, क्योंकि अनुराग के उद्गार के सन्मुख उसका स्थिर रहना असंभव है-- | ( अर्थ )-- यह बात गूढ़ ( छिपी हुई ) नहीं है [ कि ] पावस ( वर्षा ऋतु ) में वयों (१. बडढों” । २ . बीरबहूदियों ) में भी रंग ( १. अनुराग । २. रक्त-वर्ण ) होता है (क्स्पन्न होता है), [ फिर युवतियों की तो बात ही क्या ] । देख, कुढगे (बुरी रीति थाले } कोप( ब्रेक, मान ) को ले कर जग में युवाँ ( युवा अवस्था वाली सियाँ) -रली कर रही हैं, [ अतः तेरा भी ऐसा ही करना उवित है ] » --- - ---- १, चालत ( १, २, ५) । २. खरे ( ? ) । ३. करत ( १, ३), कर जुवती ( ५ ) । ४. जरी ( १ ) ५. इह ( ३, ५ ) । १६६ बिहारी-रत्नाकर न जक धरंत हरि हिय धेरै, नाजुक कमला बाल ।। भजत, भार:भर्यं-भीत है, घनु, चंदनु, बनमाल ॥ ४०५॥ भजत भोगते हुए, सेवन करते हुए ॥ धनु = घनसार, कपूर ॥ ( अवतरण )--सखी नायिका से नायक का विरह-निवेदन बड़ी चातुरी से करती है । कहा तो वह यह चाहती है कि उनको तेरे विरह मैं घन, चंदन, वनमाल इत्यादि सुखद नहीं हैं, पर उसी बात को वह यह कहकर व्यंजित करता है कि वह घन, चंदन, वनमाल को धारण कर के कल नहीं पासे, झ्याँकि उनको यह अ शंका होती है कि उनका भार उनके हृदय मैं बसी हुई तुझ कमला सी सुकुमारी बाला पर पड़ेगा । | ( अर्थ ) -हे कमला सी नाजुक ( सुकुमारी ) चाला ! हरि [ तुझको ] हृदय में धरने के कारण भार-भय-भीत ( तुझ पर भार पड़ने के भय से शंकित ) हो कर घन, चंदन तथा ] वनमाल धारण करते हुए (अर्थात् धारण कर के) जक ( कल, चैन ) न धरते ( नहीं पाते ) ॥ नासा मोरि, नचाइ जे करी कका की साहै ।। काँटे सी कसँकै ति हियँ गड़ी कँटीली भौंह ॥ ४०६ ।। कका-काका अथवा कका पितृव्य को कहते हैं । कका काका का लघु रूप है । स्त्रियों का स्वभाव है कि वे अपनी बात को सच्ची प्रत कराने के निमित्त 'काका की सह', 'बाबा की सौंह' इत्यादि वाक्याँ का प्रयोग करती हैं । ति ( ते )= वे ॥ कॅटली= कंटकित अर्थात् सात्विक के कारण खड़े हो गए बालों वाली ॥ | (अवतरण )-नायक ने नायिका को कहीं शून्य स्थान में पा कर उससे कुछ छेड़-छाड़ की थी, जिस पर नायिका ने नाक चढ़ा कर और भौहों को नचा कर कहा था कि काका की सह, मुझको यह छेड़-छाड़ अच्छी नहीं लगती' इत्यादि । ऊपर से तो उसने यह कहा, पर वास्तव में उसका हृदय भी नायक पर अनुरङ्ग हो गया था, जिससे सात्त्विक के कारण उसकी भई कंटकित हो गई थीं। इस बात नायक ने आँप लिया । एक तो वह नायिका उसके हृदय को भा ही गई थी, दूसरे उसका अनुराग विनित होने से नायक उस पर और भी लुभा गया, और अब उसका वियोग उसको साल रहा है। यह वृत्तांत वह उसकी सखी अथवा किस तूती से कह कर नायिका को अपने से मिलाने की प्रार्थना करता है ( अर्थ )-[ उसने मेरे छेड़ने पर ] नाक को मेड़ ( चढ़ा) कर, [ और ] जिम [ भौंह] को नवा कर काका की सौंई (शपथ) की [ कि तुम्हारी यह ढिठाई मुझे अच्छी नहीं लगती, इत्यादि ], वे कैंटीली ( कंटकित ) भाहे मेरे हृदय में गड़ी [ हुई ] काँटे सी कसकती ( खटकती, पीड़ा देती ) हैं। इस दोहे के पाठ में हमारी पाँचौं प्राचीन पुस्तक मैं ऐसा अंतर है कि अर्थ मैं बहुत अंतर १. धरति ( ३, ५ ) । २. धरत ( २ ) । ३. भै ( १ ) । ४. कै ( २, ३, ५), दृग ( ४ ) । ५. करति ( २ )। ६. कसकति ( २, ३, ४, ५) । ७. हियँ ( २, ३, ४, ५) । ८. ग. (२ )। ________________
बिहारी-रत्नाकर पड़ता है। हमने यहाँ पहिली पुस्तक का पाठ ज्य का त्यौं रख दिया है, और पाठांतर पाद-टिप्पणी में दे दिए हैं। यह पाठ विशेष संबद्ध ज्ञात होता है । क्यौं बसियै, क्यौं निषहियै, नीति ने-पुर नाँहि । लगालगी लोइन करें, नाहक मन बँधि जहि ॥ ४०७॥ लगालगी-यह शब्द यहाँ श्लिष्ट है । इसका पहिला अर्थ देखा-देख़, लगावट, पूराघूरी है, और दूसरा अर्थ लाग, टाँज, चोरी का उपद्रव ॥ बँधि जाँहि = बंध जाते हैं । यह क्रिया भी यहाँ श्लिष्ट है। मन विषय के पक्ष में इसका अर्थ होगा अनुरक्त हो जाते हैं , शोर मन में अनुक्तविषयी अन्य नगर निवासी के पक्ष में बाँध लिए जाते हैं, अर्थात् दंड के निमित्त बंधन में पड़ते हैं । ( अवतरण )-पूर्वानुराग में नायिका अथवा नायक का वचन सखी अथवा सखा से ( अर्थ ) -नेह( स्नेह )-रूपी पुर में नीति (म्याय-पूर्वक शासन ) नहीं है। [यहाँ] कैसे वसा जाय, [ तथा ] कैसे निर्वाह किया जाय । [ यहाँ की अनीति तो देखो कि] लगालगी [ तो ] लोचन [ रूपी चोर ] करते हैं, और ] नाहक (विना अपराध ही के) बँध मन [ रूपी अन्य भलेमाउस ] जाते हैं ॥ अन्याय यह है कि जो लोचन-रूपी चोर लालगी करते हैं, वे तो नहीं बाँधे जाते, बाँधे जाते हैं मन-रूपी निरपराध भत्तेमानुस । ललन-चलनु सुनि चुपु रही, बोली आपु न ईठि। राख्यौ गहि गर्दै गर्दै मनी गलगली डीठि ॥ ४०८॥ | ईठि = इष्ट कर के, प्रेम-पूर्वक ।। गाढ़े = गाढ़ता से, सर्वथा, भली भांति ।। गरै = गले में, अर्थात् गले के स्थान में ॥ गलगली = असु से भीगी हुई । ( अवतरण )--नायक ने नायिका से अपने परदेश चलने का समाचार कहा। कहते समय नायक की आँखें प्रेम से उबडबा आईं। यह देख कर प्रवरस्थरपतिका नायिका ने ससको चखना सुन तो लिया, पर स्वयं वह कुछ प्रेम-पूर्वक न बोली ; क्योंकि उसने सोचा कि एक तो नायक को पाप h परवेश-गमन को दुःख ऐसा व्याप्त हो रहा है कि उसकी आँखें उपदबाई हुई हैं, दूसरे मावि में भी अपना विरह-दुःख, प्रेम जता कर, कहने लगेंगी, तो उसको महान् कष्ट होगा । नायिका के इसी सूप रहने पर कोई सखा किसी अन्य सखी से, उस्प्रेक्षा कर के, कहती है कि मानो नाक की गलगली ती ने उसके गले में मार्ग रोक लिया, जिससे वह बोल न सकी ( अर्थ )-खलन ( प्रियतम ) का चलना ( परदेश-गमन ) [ उनके मुख से] सुन कर [ वह प्रवत्स्यत्पतिका नायिका ] चुप रह गई, [ और ] स्वयं [ कुछ अपने चिर-ब १. नाही ( ५ ) । २. जाहिँ ( ५ ) । ३. चुप (४, ५) । ४. गादै गहि राख्यौ गरौ ( २ ), राख्यौ मन गादे गरे (४)।
बिहारी-रक्षक बंजक वचन ] प्रेम-पूर्वक ने बोली, मानी [ उसके ] गले में [ प्रियतम की ] डबडबा दुई दृष्टि ने भली भाँति पकड़ रक्खा ( मार्ग सैथ रखt ) ॥ अपनी गरजेनु घोलियतु; कहा निहोरी तोहि । तू प्यारी मो जीर्य कौं, मी , प्यारी मोहूिँ ।। ४०९ ॥ गैर मर्नु = गरज से । गरज अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ प्रयोजेनं अन् इष्टार्थ अथवा स्वार्थ है । उभी ‘राज' शब्द का बहुवचन •गरजन है ।। निहारौ = कृतज्ञता, एहसान ।। ( अवतरण ) नायक के अपराध पर रुष्ट हो कर नायिका ने मैमावलंबन केर लिया था। नायक ने उसकी बहुत अनुनय विनय की, और अब उसके माने जाने पर वह कृतज्ञता प्रशित करता है। नायिका शिष्टाचार की रीति पर कहती है कि मेरे मन जाने के एहसान कुछ तुझ पर से है, प्रत्युत मेरे प्राणी ही पर है। इस कह मे मैं वह, यह भी कह करे कि मेरी प्राण विना तुझसे बौखे शरीर मैं मेरी रह सकता, अपमा प्रेमाधिक्य व्यंजित कर देती है, और यह भी ध्वनित करती है कि मैं केवलं अपने प्राण के माहे से सुझसे बोलती हैं, कुछ तेरी सुभषा से नहीं । यदि मैं अपने प्राण है। मोह पोच देंगी, तो फिर तेरा हाथ पाँव जोड़ना कुछ काम न आवैगा| ( अर्थ )---अपनी रार (वा [तुझसे] बौली जाती है( मुझे बोलना पड़ता है), तुझ पर [ इस बोलने का ] क्या निहोरा (पदसान ) है, [ कुछ मैं तेरी सुश्रूषा से प्रसन्न हो कर नहीं बोलती हैं कि इसका एहसीम तुझ पर हो। मैं तो केवल अपने प्राणों की रक्षा के निमित्त तुझसे बोलती हैं, क्योंकि ] [ तो ] मेरे जी को प्यारा है, [और ] मेरा जी मुझे प्यारा है ॥ रह्यौ चकितु चहुँघा चितै चितु मेरी मत भूलि ।। मूर उर्दै आए, रही इगेनु साँझ सी लि ॥ ४१० ॥ साँझ सी फूलि-सूर्यास्त के समय जो लोली पश्चिम दिशा में हो जाती है। उसकी वाक्य व्यवहार में संझ फूलना कहते हैं । ( अंबतरण )-खेती नायिका को उङ्गि नायक से ( अर्थ )-[ तुम मेरे यहाँ ] आए [ हैं। ] सूर्य के उगने परे हों, [ परे तुहारी] आँखों में साँझ सी फुले रही है ( लाली छा रही है ), [जिससे विक्ति होती हैं कि तुम रात भर किसी अन्य स्त्री के साथ जागे ही। अंतः 1मेरी चकित (विस्मित) चित्त [ प्रातःकोले तथा संध्या, दोनों की एक साथ ही देखे ] मति ( बुद्धि ) भूले के चारों ओर देख ही है कि वास्तव में इस समय सूर्य उदयविंल पर हैं अथवी अंतीम पर ] ॥ १ जेय ( ३, ५ ) । २. उदै ( २, ३, ४, ५ )। ________________
বিহাৰী-ল্পান্ধৰ अति अगाधु, अति औथरौ नदी, कृपु, सरु, बाइ । सो ताकौ सागर, जहाँ जाकी प्यासँ बुझाइ ।। ४११ ।। अगाधु = अथाह ॥ औथरौ= छिछला । वाइ ( वापी )= बावली ॥ ( अवतरण )–कवि की प्रास्ताविक उकिं है कि जिससे जिसका अभीष्ट सध जाय, वही उसके निमित्त सब कुछ है, चाहे वह बड़ा हो अथवा छोटा ( अर्थ )-नदी, कूप, सर, वापी [ कुछ भी हो, और वह भी चाहे ] अति अगाध [ हो अथवा ] अति औथरा; जिसकी प्यास जहाँ (जिस जलाशय से) बुझे, वही उसको ( उसके लिये ) सागर है ॥ कपट सतर मैं हैं करीं, मुख अनसें हैं बैन । सहज हहैं जानि कैसे करति न नैन ॥ ४१२ ॥ सतर=कड़ी, तर्जन-युक्त । अनखाह = क्वाधयुत ।। ( अवतरण )-नायिका ने लीजा तथा परिहास के निमित्त कपट-मान किया है ; पर यह समझ कर कि मेरी आँखें स्वभावतः हँसीली हैं, वह उनको नायक के सामने नहीं करती । वह समझती है कि यदि मैं नायक से अखें मिलाऊँगी, तो इनमें हँसी आ जायगी, और यह मान का दौंग खुल जायगा । सखी-वचन सखी से - | ( अर्थ )-कपट से [ अपनी ] भौहें [ तो इसने 1 सतर ( तनेनी ) कर ली हैं, [ और ] मुख में अनखांहें ( अप्रसन्नता-सूचक) वचन [ किए, अर्थात् वसा रक्ख, हैं ] । [पर अपने ] नयनों को सहज ( स्वभाव ही से) हसाहें ( हँसोड़ ) जान कर [ नायक के ] सामने नहीं करती ॥ मानहु बिधि तन-अच्छछवि स्वच्छ राखिमैं काज । दृग-पग-पोंछन क करे भूषन पायंदाज ।। ४१३ ।। पायंदाज (फा० ) = पावदान, वह टाट जो स्वच्छ बिछौने के पास बिछा दिया जाता है, जिस पर पैर पोंछ कर लोग बिछौने पर जाते हैं, जिसमें बिछौना मैला न हो ॥ ( अवतरण )-नायिका के शरीर की गुराई की प्रशंसा सखी नायक से करती है| ( अर्थ )--[ उसके शरीर की शोभा ऐसी उज्ज्वल है कि उसके आगे कनक के भूषण ऐसे जान पड़ते हैं, जैसे स्वच्छ बिछौने के आगे पायंदाज; अतः यह जान पड़ता है। कि ] मानो विधाता ने [ उसके] तन की ‘अच्छ' ( उज्ज्वल ) छवि को स्वच्छ (विमल ) रखने के निमित्त आँखों के पावों को पोंछने के लिये भूषण पायंदाज़ ( पाँव-पुछने ) किए ( बनाए हैं ) ॥ -- --- १. श्रौतरौ ( ३, ५ ) । २. तहाँ ( २ ) । ३. ताकी ( २ ) । ४. तृr ( ३, ५ ) । ५. कः (१,२,४ ) । ६. किए ( ३, ५ ) | बिहारी-रत्नाकर विरह-बिथा-जल-परस-बिन बसियतु मो-मन-ताल । कछु जानत जल-थंभ-विधि दुर्धन ल, लाल ।। ४१४ ॥ जल-थंभ विधि= ऐसा कोई प्रयाग, जिससे जल के प्रभाव का स्तंभन हो जाय ॥ दुर्बोधन ( दुर्योधन )-दुर्योधन को जल-स्तंभन-क्रिया आती थी, जिसके प्रभाव से वह ताल में छिपा रहा और जल से उसे कोई बाधा नहीं पहुँची ।। ( अवतरण )—पूर्वानुरागिन नाथका ने नायक को पत्र में यह दोहा लिखा है ( अर्थ )--हे लाल, [ ज्ञात होता है कि तुम ] दुर्योधन की भाँति कुछ जल-स्तंभन की विधि जानते हो, [ क्योंकि ] विरह-व्यथा-रूपी जल के स्पर्श विना [ तुमसे ] मेरे मनरूपी ताल में [ जिसमें वह विरह-व्यथा-रूपी जल भरा है ] बसा जाता है। [ भावार्थ यह कि तुभ बसते तर मेरे मन में हो, जो विरह-व्यथा से पूर्ण है, पर तुमको वह व्यथा स्पर्श भी नहीं करती ] ॥ - ----- रुख रूखी मिस-रोष, मुख कहति रुखहैं बैन । रूखे कैसँ होतए नेह-चीकने नैन ॥ ४१५ ॥ ( अवतरण )- परकीया नायिका उपपति से, सखी के सामने, प्रेम छिपाने के निमित्त, रूखा रुख कर के, रूखी बात करती है, पर उसके स्निग्ध नयन से सखी उसका प्रेम लक्षित कर के कहती है ( अर्थ )--बनावटी रोप से [ तेरी ] चेष्टा रूखी [ हो रही है, और तु] मुंह से रुख वचन कहती है, [ पर तेरे ]थे स्नेह से चिकनाए हुए नयन [ भला] कैसे रूख होते ( हो सकते ) हैं [ अर्थात् स्निग्ध नयनों से तेरा प्रेम लक्षित होता है ] ॥ पति-रितु-श्रौगुन-गुन बढ़तु मानु, माह कौ सीतु । जातु कठिन है अति मृदौ रवनी-मनु, नवनीतु ।। ४१६॥ माह = माघ । रवनी ( रमणी ) = स्त्री । नवनीतु = मक्खन ॥ ( अवतरण )-मानिनी नायिका की सख। नायक से कहती है कि उसका मान करना कुछ अन्यथा नहीं है । श्राप ही के अपराध से यह हुआ है । इस दोहे के कवि की प्रास्ताविक उक्ति भी मान सकते हैं ( अर्थ )-पति [ तथा ] ऋतु के अवगुण ( अपराध ) [ तथा ] गुण ( स्वभाव ) से मान [ तथा ] माघ महीने का शीत वढ़ता है, [ और उससे ] रमणी का मन [ तथा ] मक्खन अति मृदुल [ होने पर ] भए कठिन ( १. निष्ठुर । २. कड़ा ) हो जाता है। इस दोहे मैं संज्ञाएँ यथासंख्य आई हैं। १. परभि ( १ ), परसु ! ४ ) । २. जिय ( १, ४ ), हिय (२) । ३. दुरजेाधन ( ३ ) | ४. रमनी ( १ ) । ________________
बिहारी-रक्षाकर त्य त्यौं प्यासेई रहेत, ज्यौं ज्यौं पिर्यत अघाइ । सगुन सलोने रूप की ऊँ न चख-तृषा बुझाइ ॥ ४१७ ॥ | सगुन= अपने गुण अर्थात् प्रभाव से संपन्न । सलोने रूप के पक्ष में इसका अर्थ ललचाने की शक्तियुत, एवं रूप में आरोप्य अनुक्त सलोने जल के पक्ष में इसका अर्थ प्यास लगाने की शक्तियुत, होगा । जु ( जो )-इस शब्द का प्रयोग इस दोहे में व्रजभाषा के विशेष व्यवहार के अनुसार हुआ है । अतः इसके अर्थ में उलझन पड़ती है । इस ज़' ( जो ) का प्रयोग ‘क्योंकि' के अर्थ में समझना चाहिए ।।। (अवतरण )-नायिका नायक को बार बार बड़े प्रेम से देखती है । सखी उसका लोकापवाद के भय से ऐसा करने से रोकती है। इस पर नायिका कहती है ( अर्थ )-[ मेरे नयन-रूपी प्यासे ] ज्यों ज्यों [ उसको अर्थात् ‘सगुन सलोने रूप को ] अघा कर पीते हैं, त्यो त्यों प्यासे ही रहते हैं, क्योंकि [ अपने स्वाभाविक अर्थात् प्यास लगाने वाले ] गुण से संपन्न, सलोने (१. सुंदर । २. लावण्य-युत) रूप-रूपी जल से उत्पन्न की हुई 'चख-तृषा' ( आँखों की तृषा अर्थात् दिखसाध ) [ उसले अर्थात् ‘सगुन सलोने' रूप-रुपी जल से ] बुझती नहीं, [ प्रत्युत बढ़ती ही जाती है ] ॥ अरुन-बरन तरुनी-चरन-अंगुरी अति सुकुमार। चुत सुइँगुइँगु सी मनौ चपि बिछियनु नैं भार ॥ ४१८॥ सुरंगु रँगु= लाल कीट का रंग अथवा अालक्तक का रंग ॥ चपि = दब कर ॥ (अवतरण )-सी अथवा दूती नायक से नायिका की पादांगुतिय की अरुणाई तथा सुकुमारता की प्रशंसा कर के रुचि उपजाती है ( अर्थ )-[ उस ] तरुणी के चरणों की लाल अँगुलियाँ अति सुकुमार हैं। मानो [ सुकुमारता के कारण ] बिछियों [ ही ] के भार से दब कर चूते हुए सुरँग रंग सी ( टपकते हुए लक्लक के रंग की बूंद सी) [ हो रही हैं ] ॥
--- मोर-मुर्कट की चंद्रिकनु य राजत नंदनंद ।।
मनु ससिसेखर की अकस किय सेर्खर सत चंद ॥ ४१६ ॥ चंद्रिकनु = चंद्रिका से । मोर के पक्षों में जो चंद्राकार चमकीले चिह होते हैं, वे चंद्रक कहलाते हैं । विहारी ने उसी चंद्रक शब्द के सीलिंग रूप चंद्रिका' का प्रयोग इस दोहे में तथा ६७६-संख्यक दोहे में किया है ।। ननंद =नंदनंदन अर्थात् श्रीकृष्णचंद्र ॥ ससिसेखर ( शाश-शेखर )= महादेवजी, जिनके मस्तक पर चंद्रमा है ॥ अकस (अरबी अक्स )-इस शब्द का मुख्यार्थ उलटा है, पर उर्दू तथा हिंदी में यह वैर के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है ।
१. ४ ( १ ) । २. पिवत ( २, ३ ), पीत ( ५ ) । ३. कौं ( १, २ )। ४. जनु ( ३ )। ५. घुवात (१, ४)। ६. मुकुट ( २, ३, ४, ५) । ७. चंद्रकान ( ३ ), चंद्रकन (५)। ८. सतसेखर (३)।
१२ विहारी-रत्नाकर | ( 410 )-- सखी, नायिका से मयूर-मुकुटधारी श्री.ष्णचंद्र की शोभा का वर्णन कर के, उसके चित्त मैं उस अद्भुत शेभा के देखने की लालसा उत्पन्न करना और उससे अभिसार कराना चाहती है - | ( अर्थ )-मोरमुकुट की चंद्रिका से श्रीकृष्णचंद्र ऐसे विराजमान हैं (सुशोभित हैं ), मानो शशिशेखर की अकस किए हुए [ जो है, से अर्थात् कामदेव अपने ] मस्तक पर सौ चंद्रमा से [ शोभित है ]॥
दोहा ४२०-अधर धरत हरि कैं, परत ओठ-डीठि-पट-जोति । हरित बाँस की बाँसुरी इंद्रधनुषसँग होति ।। ( अवतरण )-- सखा श्रीकृष्णचंद्र को बाँसुरी बजाते देख आई हैं, और श्रीराधिकाजी से उसकी प्रशंसा कर के उनको उसके दिखाने के व्याज से ले जाना चाहती है । हरि के सामीप्य से एक सामान्य बांसुरी का इंद्रधनुष के रंग की हो जाना कह कर वह यह व्यंजित करती है कि यदि आप उनके समीप चलेंगी, तो आप की शोभा भी बड़ी रंगीली हो जायगी । वह ओठ, नेत्र तथा पट की ज्योति से बाँसुरी का इंद्रधनुष के रंग की हो जाना कह कर श्रीकृष्णचंद्र के अधर की ललाई, नेत्रों की श्यामता एवं पट की पियराई का अति चटक तथा प्रभा देने वाली होना भी व्यंजित करती है। अर्थ--हरि के [ अपने ] अधर पर [ बाँसुरी ] धारण करते [ ही और उस पर उनके ] ओठ, दृष्टि [ तथा ] पट की ज्योति ( झलक ) पड़ते [ ही वह ] हरित ( हरे ) बॉस की वाँसुरी इंद्रधनुप-रंग ( इंद्रधनुष के रंग की ) हो जाती है ॥ । तौ अनेक औगुन-भरिहिँ चाहै याहि बलाइ । जौ पति संपति हूँ बिना जदुपति राखे जाइ ॥ ४२१ ॥ औगुन ( गवगुण ) :- सद्गुणों का अभाव, दुर्गुण ।। बलाइ-फ़ारसी भाषा में 'बला' विपत्ति को कहते हैं । उर्दू तथा भाषा की वोलचाल में यह काम मेरी बल। अथवा बलाय करे' का अर्थ होता है, मैं यह काम कभी नहीं करूंगा ।। पति= ला ॥ | ( अवतरण )–कवि की प्रास्ताविक उक्रि है कि संपत्ति की आवश्यकता तो केवल संसार में सजा रखने के लिए है। यदि उसके बिना ही भगवान् जो रक्खे जायें, तो फिर इस अनेक दुर्गुण से भरी हुई संपत्ति को चाहना केवल बला मोल लेना है ( अ )- यदि संपत्ति के विना भी यदुपति (श्रीकृष्णचंद्र ) पति रक्खे जा (निबाहे जायँ ), तो [ फिर ] अनेक अवगुणों से भरी हुई इस [ संपत्ति ] को [ मेरी अथवा अन्य किसी भी मनुष्य की ] बलाय चाहे ॥ १. छवि ( ४ ) । २. भरी ( ३, ४, ५ ) । ३. राखै ( १, २ ), राखें ( ३ )। ________________
बिहारी-रत्नाकर १७३ प्रतिम-दृग-मिहचत प्रिया पानि-परस-सुख पाइ । जानि पिछानि अजान लौं नैकु न होति जनाइ ॥ ४२२ ॥ जनाइ = लक्षित ॥ ( अवतरण )–नायिका साखियाँ के बीच मैं खड़ी है। नायक पीछे से आ कर अपने हाथ से उसकी आँखें बंद कर लेता है । नायिका, नायक के कर-स्पर्श का सुख पा कर, उसे पहचान कर भी अनजान सी बन जाती है, और उसे अपना पहचान लेना लाक्षप्त नहीं होने देती, जिसमें उसे करस्पर्श का सुख कुछ देर तक मिलता रहे । कारण, इस ख-मिचौनी के परिहास में जब आँखें बंद करने वाले को वह व्यक्ति, जिसकी आँखें बंद की जाती हैं, पहचान लेता है, तो अाँखें बंद कर लेने वाला हँस कर हाथ हटा लेता है । सखी-वचन सखी से-- ( अर्थ )-प्रियतम के दृग मीचते [ ही ] प्रिया ( प्यारी नायिका ), हाथ के स्पर्श का सुख पाकर, [ यद्यपि आँख मीचने वाले को पहचान लो गई, पर इस अभिप्राय से कि स्पर्श का सुख कुछ समय तक प्राप्त रहे, वह जान पहचान कर भी अजान सी बनी रही, और उसने अजान बनने की क्रिया ऐसी चातुरी से की कि वह ] जान पहचान कर [ भी ] अजान सी [ बनी हुई ] किंचिन्मात्र [ भः ] लक्षित नहीं हुई ॥ देख जागेत वैसियै साँकर लगी कपाट । कित है आवतु, जातु भजि, को जानै, किहिँ बाट ॥ ४२३ ॥ ( अवतरण )-- नायिका नायक को स्वप्न में देखा करता है, पर अपने भोलेपन तथा प्रेम की मुग्धता से समझती है कि वातव में वह मेरे सोते समय आता है । पर फिर किवा मैं ज्यों की याँ साँकर लगी हुई देख कर वह चकित हो जाती है कि ना ५क किस बाट से आता-जाता है। यही बात वह अपनी अंतरंगिनी सखी से, अश्व अपने मन मैं, कहती है ( अर्थ )-जाग कर [ तो में ] कपाट ( किवाड़ ) में वैसी ही [ जैसी में सोने के पहिले लगा देती हूँ ] काँकर लगी हुई देखती हूँ, [ पर वह जो मेरे सोते समय आता है, सो ] कौन जाने किस ओर से हो कर ( किस मार्ग से ) आता है, [ और फिर ] किस बाट ( मार्ग ) से भाग जाता है ॥ करु उठाइ धैर्घटु करत उझरत पट-गॅझरौट। सुख-मोटें लूट ललन लखि ललना की लौटं ।। ४२४ ॥ गुझरौट=आँचल का वह सिमटन पड़ा हुया भाग, जो हाथ को ढके रहता है ।। लौट-अन्य टीकाकारों ने इस दोहे में, लौट' के स्थान पर लोट' पाठ मान कर, उसका अर्थ 'त्रिबली' अथवा 'पेटी' किया है। पर 'गुझरौट' के अनुरोध से यह शब्द ‘लोट' नहीं हो सकता । इसे 'लोट' करने से 'गुझरौट' को ‘शुभरोट' करना पड़ता है, जो उच्चारण-व्यवहार में सुनने में नहीं आता । अतः हमने 'लौट' का अर्थ 'लौट १. मचत ( ३, ५ ) । २. लखाइ ( २, ३, ५) । ३. देख्यो ( ४ ) । ४. जागित ( १, ४ ), गति तो ( २ ) । ५. चूँघट ( ५ ) । ६. उसरत ( २, ४ ) { ७. गुझरोट ( ३, ५) । ८. लौंटं ( २ )। १७४ विहारी-रत्नाकर पड़ना', 'घूम जाना' किया है । यदि 'मुझरौट' का उच्चारण ‘गुझरोट' होना माना जाय, तो 'लौट' के स्थान पर ‘लाट' पाठ ठीक हो सकता है, और उसी अवस्था में इसका अर्थ 'त्रिबली' अथवा 'पेटी' माना जा सकता है । ( अवतरण )-नायक को देख कर नायिका ने जो घूघट करने के निमित्त हाथ उठाया, तो उसका गुफरौटा ऊपर को उठ गया, जिससे उसके आँचल के नीचे के अंग खुलने लगे । अतः उनको नायक की दृष्टि से बचाने के निमित्त वह बड़ी शीघ्रता से पीछे की ओर लौट पड़ी । उसकी यह लौट देख कर नायक को बड़ा आनंद प्राप्त हुआ । सखी-वचन सवी से | ( अर्थ )--[उसके ] हाथ उठा कर घूघट करने में पट के गुझरौटे के ‘उझरत' (ऊपर की ओर सरकते ) [ ही ] ललना ( नायिका ) की लौट देख कर ‘ललन' ( नायक ) ने सुख की मोटें (गठरियाँ ) लूट ॥ करौ कुवत जगु, कुटिलता तौं न, दीनदयाल । दुखी होगे सरल हिय बसत, त्रिभंगी लाल ।। ४२५ ॥ कुवत= बुरी बात, बुराई, निंदा । कुटिलता =( १ ) बुराई । ( २ ) टेढाई ।। सरल = ( १ ) शुद्ध, कपटहीन । ( २ ) सीधे ॥ त्रिभंगी= तीन जगह से टेढ़े ।। ( अवतरण )-भ की उक्ति भगवान् से| ( अर्थ )-हे दीनदयालु, [ मैं आपको अपने हृदय में बसाने के निमित्त ऐसा दीन और आतुर हो रहा हूँ कि यद्यपि ] जगत् [ मेरी ] निंदा किया करो (करता रहे ), [ तथापि मैं अपना ] कुटिलता न तजूंगा । [ क्योंकि यदि में कुटिलता छोड़ दूंगा, तो मेरा हृदय सरल हो जायगा, और फिर ] हे त्रिभंगी लाल, [ तुम ] सरल (सीधे ) हृदय में बसते हुए दुग्त्री हेगे ( कप्न पाहोगे )[ क्याँकि टेढ़ी वस्तु सीधी वस्तु के भीतर नहीं रह सकती। कहावत भी है कि सीधी मियान में टेढ़ी तलवार नहीं रहती ]॥ | कवि अथवा इस दोहे का वक्रा भक्त त्रिभंगी लाल को हृदय मैं बसाने के निमित्त ऐसा दीन हो रहा है कि यह जान कर भी कि मेरी कुटिलता की निंदा जगत् में हो रही है, वह अपने हृदय को सीधा नहीं झिया चाहता, क्याँकि उसकी यह धारणा है कि यदि मैं सीधा हो जाऊँगा, तो वह तीन जगह से टेढ़े भगवान् मुझमें कैसे बसेंगे। अतः वह कुटिलता रखने ही मैं अपने को परम दीन मान कर भगवान् को ‘दीनदयाल' शब्द से संबोधित करता है ।। निज करनी सकुचेहिँ कत सकुचावत इहिँ चाल । मोहूँ से नित-बिमुख-त्य सनमुख रहि, गोपाल ॥ ४२६ ॥ बिमुख= किसी की ओर से मुख फेर कर रहने वाला, अर्थात् उसको न मानने वाला । त्य= ओर ।। सनमुख = किसी की शोर मुख किए हुए, अर्थात् उसके सानुकूल ।। ( अवतरण )-कोई अपनी करनी से अति संकुचित भक़ वृंदावन-विहारी श्रीगोपाल लाल को अपने ऊपर भी कृपा करते जान, अति संकुचित हो कर, कहता है १. स( २ )। ________________
बिहारी-रत्नाकर ( अर्थ )-हे गोपाल ! अपनी [ बुरी ] करनियों से सकुचे [ अपनी ] इस चाल ( कृपा की रीति ) से, [ अर्थात् ] मुझ ऐसे भी नित्य सन्मुख रह कर, [ अप और भी अधिक ] क्यों सकुचाते ( लाजित करते ) हैं । मोहिँ तुम्हें बड़ी बहेस, को जीतै, जदुराज । अपने अपनँ बिरद की दुहुँ निबाहन लाज ।। ४२७ ॥ वहस=विवाद । यह अरबी भाषा का शब्द है ।। बिरद ( विरुद )- जिस क्रिया से किसी मनुष्य का नाम विख्यात हो जाता है, उस क्रिया से बना हुआ विशेषण उस मनुष्य का विरुद कहलाता है। जैसे ईश्वर पतिता” के पावन करने में विख्यात होने के कारण पतित-पावन' कहलाते हैं । विरुद शब्द प्रायः प्रशंसात्मक विशेषण ही के लिए प्रयुक्त होता है। किंतु इस दोहे में प्रशंसात्मक तथा र्निदात्मक, दोनों ही प्रकारों के विशेषण के निमित्त प्रयुक्त हुआ है। ( अवतरण )-कोई श्रीकृष्णचंद्र का उपासक अपनी भावना के अनुसार उनको राजा समझ कर बढी चातुरी से, इस दोहे के द्वारा, उनको आन दिलाता है, जिसमें वे ताव मैं आ कर उसे चटपट तार दें। राजा लोग स्वभावतः शीघ्र ही ताव मैं आ जाते हैं और करनी न करनी, सब कुछ उस ताव में कर डालते हैं। इसीलिए यहाँ ‘जदुराज' नाम प्रयुक्त किया गया है| ( अर्थ )--हे यदुराज ! मुझसे तुमसे ‘बहस' बढ़ी है, [ देखें तो ] कौन जीतता है। अपने अपने विरुद की लजा का निर्वाह दोनों ही को करना है [ इधर मेरा नाम तो पतित है, सो मैं तो पतिते की जे करनी होती है, उसको, अपने नाम की लज्जा रखने के निमित्त, छोड़ने का नहीं । उधर तुम्हारा नाम पतित-पावन है, सो तुम भी, अपने नाम का निर्वाह करने के निमित्त, मेरे पातकों को नष्ट कर के मुझे पावन करते ही लोगे। अतएव अव देखना यही है कि अंत में में पाप करते करते थक जाता हैं, और तुम मुझे पावन कर ही के छोड़ते हो, अथवा तुम पावन करते करते मेरे पातकों से घबरा कर हार जाते हो, और अपना ‘पतितपावन' विश्व छोड़ देते हो ] ॥ दूरि भजत प्रभु पीठि ६ गुन-विस्तारन-काल । प्रगटत निर्गुन निकट हि चंग-रंग भूपाल ॥ ४२८ ॥ पीठि ६ = मुहँ फेर कर । स्मरण रहे कि पतंग का वह पाश्र्व, मिस श्रोर बाँस की कमाची लगी रहती है, उसका पेट अथवा छाती कहलाता है, और दूसरा पाश्र्व पीठ । गुट्टी के उड़ाने में उसकी पीठ उड़ाने वाले की ओर रहती है, और भागने वाले की पीठ भी जिससे वह भागता है, उसकी शोर रहती है । इसी सादृश्य से पीठि दै' क्रिया-विशेषण का प्रयोग कवि ने किया है । गुन ( गुण )-यह शव्द यहाँ श्लिष्ट है । पतंग के पक्ष में इसका अर्थ डोरा, और ईश्वर के पक्ष में इसका अर्थ प्रकृति-भाव, है । बिस्तारन = बढ़ाना । पतंगपक्ष में शुन-विस्तारन' का अर्थ डोरे का बढ़ाना, और ईश्वर पक्ष में इसका अर्थ उसके गुणों का वैभव वर्णन करना होता है। निर्गुन ( निर्गुण ) -पतंग-पक्ष में इसका अर्थ डोरा-रहित, और ईश्वर-पक्ष में इसका अर्थ १. तुमहिं ( ३, ५) । २. वहसि ( ३, ४, ५ ) । ३. है ( २ ) ।
१७६ बिहारी-रत्नाकर त्रिगुणातीत होता है ।। वंग-रंग = वेग अर्थात् ५। * ति । भूपाल = पृनी का पालन करने वाला । इस ‘भूपाल' शब्द के स्थान पर अनेक सटीक ग्रंथ में 'गोपाल' पाठ मिलता है । पर यह संस्करण जिन पाँच प्राचीन पुस्तक के ग्राधार पर संपादित हुआ है, उनमें भूपाल' ही २॥ठ है, अतः यही पाठ यहां रक्खा गया है । ( अवतरण १ )--इस हैं मैं कवि नर्गुणोपासना का समर्थन करता है । वह कहता है कि सगुणोपासना मैं तो प्रभु के गुण का, अनंत तथा अनीह होने के कारण, पार नहीं मिलता । अतः ज्याँ ज्याँ उनका विस्तार किया जाता है, याँ त्य, प्रभु दूर ही होते जाते हैं। पर निर्गुण-स्वरूप से सबके निकट है, अन् अंतःकण ही में, मिल जाते हैं, क्योंकि वह भूपाल, अर्थात् पृथ्वी भर का पालन करने वाले सर्वापी, हैं । इसी बात का कवि बदचातुरी से, उनकी उपमा चंग, अर्थात् गु, में देकर एवं गुण शब्द का श्लिष्ट प्रयेाग कर के, कहता है-- | ( अर्थ १. )-गुण-विस्तार करने के समय प्रभु तंग की भाँति पीठ दे कर दूर भागते हैं, [पर ] निर्गुण रूप से ( १. गुणों के बखेड़े ले रहित हो कर। २. डोरी से रहित हो कर) भूपाल ( भुवनपालक ) निकटवर्ती हा कर प्रकट होते हैं [ पतंग का उड़ाने वाला ज्यों ज्यों उसकी डोरी को विस्तृत करता जाता है, त्या त्या पतंग उससे दूर ही होती जाती है। पर जब वह उसको विना डोरी का कर देता है, अर्थात् उसकी डोरी समेट लेता है, तब वह उसके हाथ में आ जाती है। इसी प्रकार ईश्वर भी उसके गुण का विस्तार करने से दूर हो जाता है, पर निर्गुण रूप में, सर्वव्यापी होने के कारण, निकट ही, अर्थात् अपने ही में, रहता है ]॥ दोहे के पूर्वार्द्ध में वि ने 'प्रभु' शब्द का प्रयोग किया है, क्योंकि सगुणोपासना में सेव्य-सेवकभाव रहता है, जिनमें बड़ा अंतर है । पर उतरार्द्ध में उसने ‘भूपाल' शब्द का प्रयोग कर के उसके सर्वव्यापित्व का भाव दरसाया है । इस भाव में सृष्टि तथा सृष्टिकर्ता में अंतर का अभाव हो जाता है । यद्यपि पालक तथा पल्स में भी भद है, पर वहाँ ‘भूपाल' शव्द से सर्वव्यापी ही का भाव कवि ने ग्रहण किया है। ( अवतरण २ )-इभ दोहे का अर्थ राजा के गुणिय से दूर तथा गुणहीन से लिप्त रहने पर भी लगता है, और वह अर्थ विरोप सरल तथा स्पष्ट भी है, एवं भूपाल शव्द से पोषित भी होता है । अतः वह अर्थ भी नीचे लिखा जाना है ( अर्थ २ )--[ अपने ] गुण ( १. कलाकौशलादि । २. डोरी ) को विस्तृत ( १. वि. स्तार-पूर्वक प्रकट । २. लवी) करने के समय प्रभु ( राजा ) पीठ दे कर दूर भागता है। और निर्गुण ( १. गुण-हीन । २. डोरी-हीन ) के निकट रह कर भूपाल (राजा) चंग-रंग ( गुदी की रीति प्रकट करता है ॥ इस अर्थ मैं 'निर्गुण-निकट' को एक समस्त पद तथा ‘चंग-रंग’ को ‘प्रगटत' क्रिया का कर्म मानना चाहिए । घहै श्रुति सुम्रत्यौ, यही सयाने लोग । तीन दबावत निसकहीं पातक, राजा, रोग ॥ ४२९ ॥ | १. सुख सुप्रिति ( १ ), श्र। शमृति ( ३, ५ ), सो अति सुमृति ( ४ ) । २. यही ( ५ )। ३. निसकः ( २ ), निकसही ( ४ ), निकसई ( ५ ) ।।
बिहारी-रत्नाकर १०० श्रति = वेद । सुम्रत्यौ = स्मृति भी ॥ सयाने = सज्ञान ॥ निसकहीं =शक्तिहीन ही को, निर्बल ही को ॥ | ( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्रि है कि पातक, राजा तथा रोग, ये तीन निर्यण को दबाते हैं। अपनी इस उक़ि के विषय में कवि कहता है कि यही बात श्रुति, स्मृति तथा ज्ञानवान् पुरुष भी कहते हैं | ( अर्थ )-यही [बात] श्रुति [ और ] स्मृति भी कहती हैं, [और] यही ज्ञानी लोग [ भी कि संसार में ये ] तीन, [ अर्थात् ] पातक, राजा [ और] रोग, निर्बल ही को दबाते हैं ( दुःख देते हैं ) ॥ जो सिर धरि महिमा मंही लहियेति राजा राई । प्रगटत जड़ता अपेनियै सु मुटु पहिरत पाइ ॥ ४३० ॥ ( अवतरण )-कवि की उक्ति है कि जो वस्तु अथवा मनुष्य आदर के योग्य है, इसका निरादर करने से निरादर करने वाले ही की जड़ता प्रकट होती है-- ( अर्थ )—जो [ मुकुट] सिर पर धारण कर के मही ( पृथ्वी ) में राजा राइ के द्वारा महिमा ( बड़ाई) पाई जाती है, वह मुकुट पाँव में पहनते समय [ पहनने वाला] अपनी ही जड़ता प्रकट करता है [ उस मुकुट की गुणहीनता नहीं ] ॥ ‘मही’ को ‘महिमा' शब्द का विशेषण भी मान सकते हैं। को कहि सके बड़ेनु साँ' लखें बड़ीयौ भूल। दीने दुई गुलाब की इनै डारनु वे फूल ॥ ४३१ ॥ ( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्रि है कि बड़े लोग से यदि कोई बड़ी भूख से भी जाती है, तो भी उनको कोई कुछ नहीं कहता । अपने इस कथन की पुष्टि मैं वह कहता है कि देखो, गुलाब की ऐसी कैंटीली तथा सूखी साखी डालियाँ मैं यद्यपि विधाता ने ऐसे सुंदर, कोमल तथा सुगंधित पुष्प दिए हैं, जो कि वास्तव में बड़ी भूल की बात है, तथापि उसे कोई कु का गरी सकता-- ( अर्थ )-[ देखो, ] दई ( दैव ) ने गुलाव की इन [ सूखी तथा कँटीली ]रालियों में वे [ संदर, कोमल तथा सुगंधित ] पुष्प [ जो कि चैत्र मास में देखने में आए थे] दिए । [यह वास्तव में बड़ा अयोग्य संघट्टन है । पर दैव से कोई कुछ कह नहीं सकता, क्योंकि] बों से [उनकी ] बड़ी भूल देखने पर भी कौन कह सकता है [ कि यह भूख है]॥ | ‘इन रिनु वे फूल' के स्थान पर ‘इन डोरनु ये फूल' पाठ होता, जैसा कि कुष्य कवि तथा हरिचरणदास की टीका में है, तो अर्थ बहुत स्पष्ट होता । पर हमारी पाँचो प्राचीन पुस्तकों में १. महौं ( २, ४, ५ ) । २. लहियत ( २, ३, ५) । ३. आपनी ( २, ४) । ४. मुट ( ४ )। ५. ॐ ( ३, ४)। ६. बड़ी यै ( २ ), बड़ी इहि ( ५ ) । ७. क ( २, ४ ) । ८. उनि (२)। ________________
शिकारी रखाकर 'बे पूज' ही पा, बतः ही इस परब में रचा गया है। इस पास के अनुसार गुलाब की बारियों को प्रीष्म पतु में गुण पशा में चार और त्र मास के सुंदर पुल का स्मरण कर के इस बोरे का कहा जादा मावना परता. समै समै सुंदर सबै, रूपु कुरूपु न कोई। मन की रुचि जेती जिते, तित तेती रूचि होइ॥ ४३२॥ ( अवतरण )--कवि की प्रास्ताविक रति कि मनुष्य को संसार की सब वस्तुएँ समय समय पर, अपनी रूचि के अनुसार, मुंबर जगती है, पास्तत्र में रैव-सृष्टि की कोई वस्तु कुरूप नहीं है.- ___(अ) उस परम सौदर्यमय सर्वव्यापी सएिकर्ता की सृष्टि में ] कोई रुप कुरूप नहीं है, समय समय ( अपने अपने अवसर ) पर सब ही सुंदर [ लगते । मनुष्य के मन की रवि (प्रीति, चार) [जिस समय ] जिस भोर जितनी [होती है, उस समय ] उस मोर ( उस वस्तु के पक्ष में ) उतनी रुचि (शोभा ) हो जाती है (जान पड़ने अगती)। - :---- या भव-पारावार को उघि पार को आई। तिय-कवि-हायानाधिनी प्रौभीषहीं भाइ॥ ४३३ ॥ कायामाशिमी-सिंहिका नाम की एक रासी, जो कि राष्ट्र की माता मानी नाती और समुद्र में रहती थी । उसे गा शक्ति बी कि जिस उड़ते हुए पी इत्यादि की परवाही बल पर पड़ती थी, उसे उसी परबाही के द्वारा धाकर्षित कर के भागी बी। जन हनुमान्जी लंका को जाते थे, तब उसने उन्हें भी पाकवित कर लिया। पर हनुमान जी ने उसे मार कर साह पार किया। (भवतरण -विकी स किइस भवसागर से पार होने में श्री पड़ी भारी बाधा है... (अर्थ) इस भष-पारावार (संसार-रूपी समुद्र) को लाँघ कर कौन पार जा सकता है, [क्याफि] सी की पषि रूपी कायाारिणी (छाया पकड़ कर भाँच खेने पाखी रामसी ) बीय ही में भा कर पकड़ लेती है [बस यदि हनुमानजी ऐसा प्राचारी तथा पराकमी हो, सो उससे बब कर पार हो सकता]u दिन दस भादर पोह के करि लै पापु परवानु। जो लगि काग! सराधपरख, तो लगि तो सनमानु ॥४३४॥ सरापपा (मादपा ) = पितृपक्ष । पितृपक्ष में अब लोग पितरों का भार करते हैं, तो कुछ बन कौए के लिए भी निकाल कर उसको पुकार कर खिला देते हैं। (भवतरण )--किसी बीच मनुष्य किसी विशेष भासर पर सम्मानित हो कर गर्व करने पर कोई ना दोहा, काक पर सम्बोक्ति कर के, करता है-- १.रि (1. ५) । २. दिती तिवै ( २, ४) । ३. गहै ( १, ३ ), प्रहति ( २ )। ४. रूप कौ ( ४ )। १. ( ३, ५) । ..हो (१)। ( मर्ग )-2 काक! [तु] एस दिन (योड़े दिन) मादर पा कर [ भले ही अपना बज्ञान (भात्मश्लाघा ) कर ले।। पर वह समझ रख कि] तेरा [वह] सम्मान तभी तक है, जब तक भासपक्ष (भर्थात् यह अवसर विशेष ) है [ अभिप्राय वह कि तुममें वास्तव में कोई सन्मान के योग्य गुरु नहीं है, पर इस समय ऐसा भवसर ही उपस्थित है कि तेरा भादर करना पड़ता है, भतः तुमको इस भादर पर गर्व करना चाहिए,
मरतु प्यास पिँजरा-पर्यौ सुआ समै कैँ फेर।
आदरु दै दै बोलियतु बाइसु बलि की बेर॥४३५॥
बलि-पितृश्राद्ध अथवा बलि के समय वायस-बलि भी की जाती है। अर्थात् काक के निमित्त भी एक भाग निकाला जाता है, जिसके खिलाने के लिए कौआ पुकार पुकार कर बुलाया जाता है।
(अवतरण)-समय विशेष की आवश्यकता के अनुसार कहीँ गुणी का निरादर एवं मूर्ख का आदर देख कर कोई इस घटना का वर्णन, शुक तथा काक पर अन्योक्ति करके, करता है-
(अर्थ)-[देखो,] समय के फेर से (अवसर विशेष उपस्थित होने के कारण) [सब लोग पिंडदान के कार्य में ऐसे प्रवृत्त हैं कि] सुआ (शुक)[बेचारा तो] पिँजड़े मेँ पड़ा प्यास से मर रहा है, [किसी को उसके दाना-पानी का भी ध्यान नहीं है, और इस] बलिप्रदान के बेर (अवसर पर) 'बाइस' (वायस, काक) आदर दे देकर (बड़े आदर-पूर्वक) 'बोधियतु' (बोला जाता, पुकारा जाता) है॥
बेई कर, न्योरनि बहै, न्योरी कौन विचार । जिनहीं उभियौ मो दियो, तिनहीं सरझेबार ॥ ४३३॥ कर-हाथ । यहाँ इस शब्द का अर्थ घोटी, अर्थात् को काम करने का डंग विशेष, है ॥ ब्यौरनिबातों के सँवारने का विशेष रंग ॥ ब्यौरी-मेव ॥ (अवतरण )-मानिका ने अपनी सची को नायक के पास कुछ संदेश कर मेचा भा। मायक ने वहाँ रसके केश अपने हाथ में संवार दिए। उसके बौरने पर माविका कंश संपारने की बौटी तथा रीति से नायक-वारा सँगारे गए केरा पाचान कर पाती है (अर्थ )-[तेरे बालों के मनाव को हथौटी हीरे, [जो नायक की तथा ] 'म्यौरमि' (संवारने की रीति) [भ] वही है,जैसी नायक की । सोफिर भव] म्यौरा (भेद, अंतर ) किस विचार से [रा गया । यह तो निभव ही हो गया है कि जिनसे मेरा एब उकझा है, उन्हीं से ( उनीं के द्वारा)[तेरे पास मुखमेरे। .. भित्र भित्र टीकाकारों ने इस दोहे मिष मित्र किराहनारी भनक मैं पर चितामा अपं विशेष पर, अंगत बबाहदानुपापा। १. बोलियै ( २ ) । २. बायस (४) । ३. हरझत ( २ ) । ४. सुरझत (१)। इही आस अटक्यौ रहेतु अलि गुलाब के मूल । हैहैं फेरि बसंत ऋतु इन डारनु वे फूल ॥ ४३७॥
(अवतरण)-किसी राजा की संपत्ति नष्ट हो जाने पर गुणीजन उसका संग नहीं छोड़ते। उनको यह पाशा रहती है कि सुअवसर प्राप्त होने पर फिर उसी संपत्ति से वह संपन्न होगा। इसी विषय को कवि, भ्रमर पर अन्योक्कि कर के, कहता है
(अर्थ)-गुलाब की [ फूल-पत्तियों से रहित हूँठी ] जड़ (पेड़ी) में भ्रमर इसी माशा से अटका (निरत ) रहता है । कि] वसंत ऋतु में फिर इन डालों में वे फूल [जिनका आनंद मैं लेता था] होंगे॥
गुलाब की पेड़ी में भ्रमर अटका नहीं रहता । यह कवि की कल्पित प्रौढोक्ति मात्र है ॥
वे न इहाँ नागर, बढ़ी जिन आदर तो आब।
फूल्यौ अनफूल्यौ भयौ गवँई-गावँ, गुलाब॥४३८॥
आब-यह शब्द फ़ारसी का है। इसका मुख्यार्थ जल है; पर यह चमक, ओप इत्यादि के अर्थ मेँ, जिसमें संस्कृत शब्द पानिप प्रयुक्त होता है, प्रचलित है। इस अर्थ मेँ 'आब' शब्द स्त्रीलिंग माना जाता है। गवँई-गावँ=गवाँरों के गावँ अर्थात् वास-स्थल मेँ॥
(अवतरण)-मूर्खमंडली मेँ पड़े हुए किसी गुणी के गुण का निरादर देख कर उससे कोई चतुर, गुलाब पर अन्योक्ति कर के, कहता है-
(अर्थ)-हे गुलाब, यहाँ वे नागर [नगरनिवासी गुणग्राहक] नहीँ हैँ, जिनके आदर से तेरी आब (शोभा, प्रतिष्ठा) बढ़ी हुई है (अर्थात् तू सम्मानित होता है)। [इस] गवाँरोँ की बसती में [तो तू] फूला हुआ [भी] (विकसित गुण होने पर भी) अनफूला (बिना फूला हुआ, अर्थात् अविकसित-गुण) हो रहा है [भाव यह है कि यहाँ तेरे गुण का विकास होना न होना बराबर है]॥
चल्यौ जाइ, ह्याँ को करै हाथिनु के व्यापार।
नहिँ जानतु, इहिँ पुर बसैँ धोबी, ओड़, कुँभार॥४३९॥
ओड़-घरोँ का ईँट, चूना इत्यादि गदहोँ पर ढोने वाले॥
(अवतरण)-किसी महान् गुणी पुरुष को, अपने गुणोँ का ग्राहक प्राप्त करने की आशा से, निकट जनोँ की मंडली मेँ आया हुआ देख दर, कोई सजन, हाथी के व्यापारी पर अन्योक्ति कर के, उससे वहाँ से चले जाने की प्रस्तावना करता है-
(अर्थ)-[अरे हाथी के व्यापारी, महान् गुणी, तू यहाँ से] चला जा, यहाँ हाथियोँ के (अर्थात् तेरे महान् गुणों के) व्यापार (क्रय, विक्रय, गुण-ग्राहकता) कौन १. इहि पासा ( ३, ४ ) । २. रहै ( २ ) । ३. बरी ( ४ ) । ४. गाम ( २, ३, ५. ) । ५. को ( १, ४)। ६. सबै ( १, ४)। करे। [क्या तू यह बात] नहीँ जानता कि इस पुर में (अर्थात् इस मंडली मेँ) [सब] धोबी, ओड़ [तथा] कुँभार (अर्थात् निकृष्ट जन) [ही] बसते हैँ [जिनको नित्य गदहोँ से काम पड़ता है। फिर भला वे तेरे हाथियोँ अर्थात् महान् गुणोँ को क्योँ पूछने लगे]॥
खरी लसति गोर गरें फंसति पान की पीक । मनौ गुलीबद-लाल की, लाल, लाल दुति-लीक ॥ ४४०॥ ( अवतरण )-सखी नायिका की गुराई तथा श्रमलता की प्रशंसा कर के नायक की रुचि बढ़ाती है (अर्थ) हे लाल, [ उसके ] गोरे गले में धसती हुई (पान खाने के समय नीचे उतरती हुई ) पान की पीक [ उसकी विमल तथा पतली त्वचा में से झलक कर] खरी लसती (अति शोभा देती) है। मानो गुलूबंद (गले में पहनने के भूषण विशेष ) के खाल ( माणिक्य ) की झलक की लाल रेखा है॥ - - - - पाइल पाइ लगी रहै, लगौ अमोलिक लाल । भोडर हूँ की भासिहै बँदी भामिनि-भाल ॥ ४४१ ॥ भोडर = अभ्रक ॥ (अवतरण )-पायल तथा बंदी पर अन्योकि के रूप में कवि की उक्ति है कि जिस व्यकि मैं स्वयं योग्यता नहीं है, वह दूसरों की सहायता तथा भूषणादि से श्रेष्ठ पद नहीं पा सकता, पर जिसमें स्वयं योग्यता होती है, वह यद्यपि सामान्य भी हो, तथापि उच्च पद प्राप्त करता है (अर्थ)-पायल (पायजेब) पाँव [ ही ] में लगी रहती है (नीचे ही पद पर रहती है), [उसमें ] अमोलिक लाल (माणिक्य ) [ लगे हैं, तो] लगे रहो; [ पर सामान्य ] भोडर की भी बेंदी (टिकुली ) भामिनी ( सुंदर स्त्री) के भाल पर शोभा देगी (उच पद प्राप्त करेगी)॥ कुटिल अलक छुटि परत मुख बढ़िगी इतो उदोतु । बंक बकारी देत ज्याँ दामु रुपैयाँ होतु ॥ ४४२ ॥ बकारी टेढ़ी लकीर, जो किसी अंक को रुपया सूचित करने के निमित्त उसकी दाहिनी ओर खींच दी जाती है । जैसे यदि पाँच के अंक के विषय में यह सूचित करना हो कि इसका अर्थ पाँच रुपया है, तो इस रीति से-५)-लिखा जाता है ॥ दामु-एक पैसे के पच्चीसवें भाग को दाम कहते हैं। बिहारी के समय में कोई अंक विना नकारी लिखे जाने पर उतने दामाँ का बोधक माना जाता था ; जैसे, 'अमुक वस्तु ८ की है' लिखने से यह समझा जाता था कि वह वस्तु आठ दाम की है । पर जब किसी अंक की १. मानो ( ३, ५) २. गुलूबंध ( २ ), गुलबँद ( ३, ५ ) । ३. लगे ( ४ ) । ४. बढ़िगै (१)। ५. इतै (१)। ६. बकाई (५) । ७. रुपए ( ३, ५)।
दाहिनी ओर कारी लगा दी जाती थी, तो वह अंक पए का ज्ञापक हो जाता था ; जैसे, 19 दि के बाठ रुपया समझा जाता था, और ऐसा ही अब भी समझा जाता है। संप्रति दाम के लिखने की प्रथा ठती जाती है, और यदि लिषा भी जाता है, तो गधा अंक की बाई ओर बारी गा दी जाती है। जैसे, आठ दःम को बहुधा लाग )८ तिखते हैं । तो मी केवर अंक तिर देने की परिपाटी अनी सर्वथा र म हो गई है। अब भी कमी कभी अधेने के स्थान पर १२॥ लिखा देखने में आता है। | ( अवतरण )---नायिका के मुन्न पर पान की अव के खटक पाने से उपकी शोभा त छ । अली नायक ॥ ४गान उस ओर आकर्शित कर के अती है| ( अर्थ )--[ देम्वा, उसके ] मुख पर कुटिल अतक के छूट पड़ने से [ श्यामता तथा गुराई का मिलान होने के कारण उसकी गुराई का ] उदोतु ( उद्योत, रगाव ) इतना बड़ गया है [ कि ] जिस कार वंक ( रेट्री ) बकारी के देते [डी] दाम पवारो जाता है। राम तथा रूपए के मूत्र में बड़ा अंतर है । पर राम की दाहिनी ओर केयर एंड पारी बगा ने से इसे राम का मूथ अपया हो जाता है । सभी रती है कि इसी प्रकार मुर पर ही पर के ना जाने से उसकी शोभा बहुत बड़ जाती है। रहि न सक्यौ, कसु करि रह्यौ', बस करि जीनौ मार । भेदि दुसार कियौ हियो तन-दुति, भेदै सार ॥ ५४३ ॥ फस =खींचातानी, नक्ष, कान् । भेवि = छेद कर, काट कर ॥ दुसार = दो को, दोन ब्रो भिद्र वाडा, आरपार । इसी शन्द का 'दुसाल रुप विहारी ने १७५३ दोहे में प्रयुक्त किया है। तभ-तिशरीर की शोमा ॥ भेद = वेदती है, श्रीका देती है ॥ सार = राज्य । यहाँ असा अर्थ यह वस्तु है, जो चाय में रह जाने पर पड़ा देती है । इस दोहे में इसे शन्द का सीलिंग-प्रयोग हुआ है। | ( अनतरण ):- नायक नाथि की भी हेल कर मोहित हो गया है, और उसकी गए । उसके मिखने की अभिजाया मैं विकल है । वह अपनी ही दशा असकी सूची से र मिया है प्रार्थना भ्यंत्रित करता है ( अर्थ ). [ मैं बहुत ]कस ( क्रावू ) कर के रडा, पर] रह न सका (मेरा कु स न बला), और मार (कामदेव ) ने [ {झे अपने वश में कर [ ही ] लिया, [क्योंकि इसके] शरीर की शोभा ने भेद कर ( छेद कर ) इदय को आरपार कर दिया, [ और अब इसकी शोभा का] शल्य (अथात् दृश्य में रह गया हुआ स्मरण ) भेदता ( पौड़ा देता ) ।।। इस दोहे । अयं अन्य टीकाकारों ने और हरी और किया है, पर इसके उत्तरारे । १० हे के रसराई का भाव मिलने से हमारा किया इभा अर्थ ठीक प्रतीत होता है। बल-बड़ई लु केरि थके, कटे न कुवत-ठार । अलिया उर झालरी खरी प्रेम-तरु-र । ४४४ ॥ कुवत = निंदा ।। लाल (असवाल ) = क्यारी ॥ झालरी = पुष्प, पल्लव आदि से संपन्न हुई । १. हिया ( ४ ) । २. दुसाल ( ३, ५ ) । ३. कै ( ३, ५ ) । ________________
विद्दारी-रत्नाकर १८३ ( अवतरण )-किसी परकीया नायिका को बचन अंतरंगिनी सच्ची से-- ( अ )-[ सनी, मेरे ] दृदय-रूपी आलवाल में प्रेम पी तक की री झणराई Tई बात निदा-डपी ठार से कटती नहीं, [ यद्यपि ] अल( दुर्जन )-रुपी बाई बा कर के ए गए ॥ सोरठा % स्य विजुरी मनु मेड अनि इहाँ थिरहा धरे । ठौ जाम, अधेछ, दृग जु घरत बरसत रहत ।। ४४५ ॥ श्या = समेत, सहित ॥ अवेर ( अक्षेप )=निरंतर ॥ ( अवतरण )-प्रोपितपतिका नायिका का वचन सभी से-- ( अ )-[हे सबी, मेरे ] नेत्र जो आठों याम ( रातदिन ), निरंतर, बलते [ तथा] बरसते रहते हैं, सो ] मानो विरह ने बिजुली के समेत मेघ यहाँ (दन नेत्रों में ) खा रहे हैं। ॐ दोहा । कत पेकाज चलोइयति धतुराई की चाख । कहे देति यह रावरे सबै न मिरज मल ॥ ४४६ ॥ गुम ( गुण )-गुण का अर्थ यहाँ विपरीत लचणा से दोष लिया जाता है । निरगुन मायजी अधबा पुरुष बो मोतिय, अथवा अन्य किसी पदार्थ, की माला पहने होते हैं, उसके दाने आलिंगन करने में उदय पर उपट आते हैं, पर उसका दोरा ( गुण ) नहीं उपटता । यही विना गुण के उपटी हुई माया अ विड निव, अर्थात् विना डोरे की, भाला कहलाता है ॥ | ( अवतरण )-संहिता नायिका की उक्ति नायक से---- ( अ )[ मेरे आगे आपके द्वारा यह ] चतुराई की चाल { धूर्तता से मुकरने की रीति ) ब्यर्थ क्यों बताई जाती है। आपके सर गुण ( दोष ) यह निर्गुण माता कई देती है। उनको हितु उनहीं बनै, कोऊ करौ अनेकु ।। फिरतु काकगोलकु भयौ दुहुँ देह ज्यौ एकु ।। ४४७ ॥ | फागोलकु= कौए की आँख का देहूर अथवा पुतली । यह बात प्रसिद्ध है कि कौए की आँखों में गोखक एक ही होता है, और वह जब जिस आँख से देखना चाहता है, तब वह गोलक धूम कर उसी बॉस में चल्ला माता है ॥ ज्यौ ( जीव ) = प्राण ॥ | ( अवतरण )-रंपति का अनुपम तथः अलौकिक प्रेभ देख कर सन्नियाँ आपस में प्रसन्नतार दी है १. सौ ( २ ), न्यो (३, ४, ५ )। २. प्राइ ( १ ) । ३. वही ( १ ) । ४. थरी ( ३, ५), बरै (४) । ५. चलायत (१, ५ ) । १. विनगुन ( १ ) । ७. करे ( ४ ) ।। १६४ विहारी-रत्नाकर ( अर्थ )-उन [ दोनों ] का [ परस्पर जो अनुपम तथा अलौकिक ] हित ( प्रेम ) [ है, वह ] उन्हाँ से [ करते ] बनता है। [ वैसा प्रेम करने की ] कोई अनेक [ चेष्टा किया ] करो [ पर वैसा हो नहीं सकता ]। [ प्रेम के कारण उन दोनों की तो ऐसी दशा हो रही है कि दोनों के प्राण एक ही हो गए हैं, और ऐसा जान पड़ता है कि ] एक ही जीव काकगोलक हुआ दोनों के शरीर में फिरता है ॥ गड़े, बड़े छबि-छाक छकि, छिगुनी-छोर छुटै न ।। रहे सुसँग सँग सँगि उहीं नह-दी मेंहदी नैन ॥ ४४८ ॥ | छिगुनी-छोर= कानी अँगुली के सिरे पर ॥ सुरंग= लाल । उहाँ = उसी स्थल पर ॥ नह-दी= नख में दी हुई ॥ महदी= मेंहदी ॥ | ( अवतरण )-नायक को नायिका की कनिष्ठिकांगुली की शोभा ऐसी अच्छी लगी है कि उसके नयन वहाँ से टलते ही नहीं, और मैंहदी के रंग से अनुरक्र हो रहे हैं। यह वृत्तांत वह नायिका से कह कर उसको प्रसन्न किया चाहता है | ( अर्थ )–छवि के बड़े ( गहरे ) छाक ( मद्यपान ) से छक कर ( मतवाले हो कर ) छिगुनी के सिरे पर गड़े हुए [ मेरे ] नयन छूटते नहीं ( हट नहीं पाते ), [ और ] ‘उहाँ' (उसी स्थान पर अथवा उसी कनिष्ठिका अँगुली के) नह (नख ) में दी हुई मेंहदी से सुरंग रंग में रंग रहे हैं ( भली भाँति अनुरक़ हो रहे हैं )॥ 'गड़े, बड़े छबि-छाक छकि, छिगुनी-छोर', यह खंड-वाक्य 'नैन' शब्द का विशेषण है ॥ 'नह-दी महदी' पद करणकारक है ॥ होली के दिन मैं जब किसी को बहुत गना और छकाना होता है, तो पहिले उसको कोई गहरे नशे की वस्तु पिला देते हैं, जिससे वह मतवाला हो कर भाग नहीं सकता, और जब वह भकुआ हो कर रह जाता है, तो उसको रंग तथा गुलाल इत्यादि से भली भाँति लत्तपत्त कर के सब लोग आमोदप्रमोद मचाते हैं। नायक अपने नेत्र की वैसी ही दशा का होना कहता है ॥ बाढ़तु तो उर उरज-भरु “रि तरुनई-विकास। बोझनु सौतिनु नैं हिमैं श्रवति लँधि उसास ।। ४४९ ॥ ( अवतरण )-नवयौवना नायिका से सखी का वचन ( अर्थ )--तरुणाई के विकास ( खिलाव ) से भर कर उरज ( छाती, कुर्च ) का भरोष ( बोझा ) [ तो ] तेरे हृदय पर बढ़ता है, [ और] बोझ [ के प्रभाव ] से उसास सौतों के हृदय में सँध कर (घुट कर ) आता है ( अर्थात् तेरी जवानी के आने से सौतों को दुःख होता है ) ॥ १. बिंगुरी ( १ ) । २. रही ( १ )। ३. मेहदी (४) । ४. भरु ( २ ), मर ( ३, ४ ) । ५. श्रावत ( ५ )। ६. बँधी ( १, २ )। ________________
बिहारी-रत्नाकर १८५ इस दोहे मैं कवि ने यह समस्कार दिखाया है कि बोझा तो एक के हृदय पर बढ़ता है, और उसके प्रभाव से उच्छ्रास दूसरे का सँधता है । अलि, इन लोइन-सरतु कौ खरौ विषम संचारु । लगै लगाएँ एक से दुहूर्नु करत सुमारु ॥ ४५० ॥ ( अवतरण )-नायक से सामना होने पर नायिका ने, उसके ऊपर, नगन के बाण चलाए थे, जिनसे विकल हो कर नायक तड़प रहा है ! सखी ने उपका दृत्तांत नायिका से कुछ इस रीति पर कहा कि वाह ! उस दिन तूने कटाक्ष चला कर उस बेचारे को तो ऐसा घायल किया कि वह पड़ा कराह र है! इसके उत्तर मैं नायिका, इस दोहे के द्वारा, अपना भी उससे अनुरक्र होना विदित करती है | ( अर्थ )-हे सखी, [ तु यह मत समझ कि वह ही मेरे अनुराग में विकल हैं, मैं भी तो उनके मिलने की अभिलाषा से तड़प रही हूँ ] इन लोचन-रूपी सरों ( बाण ) का बड़ा विषम संचार( व्यापार ) है ।[ ये ] 'सुमारु' ( अच्छे अर्थात् बुरे मारने वाले ) ‘लगैं लगाएँ' ( जिसके लगे हैं तथा जिसके द्वारा लगाए गए हैं ), दोनों को एक सा [ विकल] करते हैं ॥ इस दोहे मैं जो ‘दुहुँनु' पाठ है, उसके कारण छंद की गति में कुछ शिथिलता आ जाती है। चौथे अंक की पुस्तक मैं ‘दुहुवन' पाठ है, और यही पाठ यूसुफ़ख़ाँ की टीका और हरिप्रकाश-टीका मैं भी मिलता है ; पर 'दुहुवन' रूप का प्रयोग बिहारी की टकसाली भाषा के बाहर ज्ञात होता है, यद्यपि इस पाठ से छंद की गति सुधर जाती है । कृष्ण कवि की टीका तथा अमरचंद्रिका मैं क्रमशः ‘दोउन तथा 'दोहन' पाठ मिलते हैं। इन पार्टी से छंद की गति भी ठीक हो जाती है, और भाषा भी ठीक रहती है। पर हमारी पाँच प्राचीन पुस्तक मैं से चार मैं ‘दुहुँनु' ही पाठ है, और अनवरचंद्रिका मैं भी ऐसा ही है, अतः इस संस्करण में ‘दुहुँनु' ही पाठ रक्खा गया है ॥ मुड़ चढ़ाएँॐ रहै पखौ पीठ कच-भारु । रहै गरै परि, राखिंबी तऊ हियँ पर हारु ।। ४५१ ॥ मुहू चढ़ाएँ-मूड़ चढ़ाने का शब्दार्थ सिर पर धारण करना, एवं लक्ष्यार्थ किसी का आदर कर कर के उसे धृष्ट कर देना होता है । पखौ पीठि–पीठ पर पड़े रहने का लक्ष्यार्थ बोलचाल में विना सन्मान के रहना होता है ॥ गर्दै परि-गले पड़ने का लक्ष्यार्थ लोकोक्ति में किसी के पास विना उसकी इच्छा के रहना होता है ॥ हियँ पर-हियँ पर' का शब्दार्थ छाती पर, एवं लक्ष्यार्थ सादर, है ॥ ( अवतरण )-- अयोग्य पुरुष का चाहे कितना ही सन्मान किया जाय, पर वह श्रेष्ठ पद का अधिकारी नहीं होता, और गुणी पुरुष यदि गले पड़ कर भी रहे, तो भी उसे श्रेष्ठ पद देना होता है। इसी बात को कवि, बाल संथा हार पर अन्योक्कि कर के, कहता है ( अर्थ )-कच-भार ( बालों का समूह ) मूड चढ़ाने पर भी पीठ ही पर पड़ा रहता १. दुहुवन ( ४ ) । २. चढायौऊ ( ३, ५ ), चढ़ाये हूँ (४) । ३. रहो ( ४ ) । ४. राखियै ( २, ३) । १८६ बिहारी-रत्नाकर है ( अग्रसर नहीं हो सकता ), [ और ] हार [ यद्यपि ] गले पड़ कर रहता है, तथापि [ उसे ] हृदय पर रखना [ ही ] योग्य है ॥ | इस दोहे मैं ‘मूढ़ चढ़ाएँ’, ‘पस्यौ पाठि’, ‘ग परि', 'हिउँ पर', इन चारों के मुख्यार्थ तथा लक्ष्यार्थ, दोन पर कवि की ताक झाँक है, एवं कच' तथा 'हार' शब्द के कञ्चे, अर्थात् सब काम मैं कच्चे मनुष्य, एवं हार ( हारक ), अर्थात् सब गुण मैं दक्ष, अर्थों पर भी कवि की दृष्टि प्रतीत होती है। करतु जातु जेती कटनि बढि रस-सरिता-सोतु । श्रालयाल उर प्रेम-तरु तितौ तितौ दृढ़ होतु ।। ४५२ ।। कटनि = काट । रस-पक्ष में इसका अर्थ हृदय में घाव करना, और जल-पक्ष में नदियों के द्वारा करारे का काटा जाना, होता है ॥ रस= मिलने का चाव तथा जल । इस शब्द में श्लिष्टपद-मूलक रूपक है । सोतु ( श्रोत )= सोता, धारा ॥ ( अवतरण )-नायिका नायक के प्रेम का वृत्तांत सुन कर उससे मिलने को उद्यत हो गई है। पर सखी उसको, नायक का प्रेम दृढ़ करने के निमित्त, शिक्षा देती है कि अभी कुछ समय तक तरसा कर नायक का प्रेम रढ़ हो जाने दे। यह मत समझ कि इस तरसाने से कह” उसका प्रेम जाता न रहे । सच्चे प्रेम की तो यह व्यवस्था है कि जितना ही मनुष्य का चाव बढ़ता है, उतना ही उसका प्रेम दृढ़ होता है ( अर्थ )-चाव-रूपी जल की नदी का प्रवाह बढ़ कर जितनी जितनी काट करता जाता है, उतना उतना हृदय-रूपी आलबाल में प्रेमरूपी तरु दृढ़ होता जाता है ॥ विलक्षणता यह है कि सामान्य नदी के बढ़ कर काट करने पर करारे के वृक्ष की जड़े निर्बल पड़ जाती हैं, जिससे वृक्ष ढह जाते हैं, पर चाव-नदी के बढ़ कर काट करने पर प्रेम-तरु हृदय में और भी रद होता है ॥ राति यौस हाँसै रहै, मानु न ठिकु ठहराइ । जेतौ औगुनु हँढियै, गुनै हाथ परि जाइ ।। ४५३ ॥ हौसै= हवस ही । फ़ारसी भाषा में 'हवस' तृष्णा, अर्थात् अभिलाषा, को कहते हैं । ठिकु= ठहरा हुआ, स्थिर ।। औगुनु ( अवगुण ) = दोष, वोट । ( अवतरण )-प्रेमगर्विता नायिका का वचन सखी से-- | ( अर्थ )-[ हे सखी, मुझे तो मान करने की ] प्रबल अभिलाषा ही रात दिन (सदैव ) रहती है [ कि नायक कुछ अपराध करे, तो मैं भी मान करने का स्वाद चख लँ। पर वह तो सदा मेरी सुश्रुषा में ऐसा लगा रहता है, और अन्य स्त्री की ओर से ऐसा विरक्त है कि मेरा ] मान स्थिर नहीं ठहरता । जितना [ ही उसका ] अवगुण [ मान १. ठिकु न ( १ ), ठकि न ( ५ ) । २. गुन्हे ( १ ), गुन्वे ( ४ )। ________________
विहारी-रत्नाकर १८७ करने के बहाने के निमित्त ] हूँढ़ा जाता है, [ उतना ही उसका ] गुण ही हाथ पड़ जाता है ( मिल जाता है )[ अतः मैं मान करने के स्वाद से वंचित ही रहती हैं]॥ मनु न मनावन कौं” करै, देतु रुठाइ रुठाइ । कौतुक-लाग्यौ प्यौ प्रिया-खिझहूँ रिझवति जाइ ॥ ४५४ ॥ कौतुक-लाग्यौ = कौतुक अर्थात् खिलवाड़ में लगा हुया । यह समस्त पद प्यौ' का विशेषण है । खिझ ( खीझ )= वेढ, रोष-पूर्वक कुछ कहना अथवा करना । | ( अवतरण )-नायक को नायिका के खीझने का भाव ऐसा अच्छा लगता है कि वह मनाते मनाते फिर वही भाव देखने के निमित्त कोई ऐसी बात बोल उठता है कि नायिका फिर रूठ जाती है, और वह फिर से मनाना प्रारंभ करता है । इसी कौतुक मैं नायक लगा हुआ है । सखी-वचन सखी से-- ( अर्थ )-कौतुक ( खिलवाड़ ) में लगे हुए प्रियतम को प्रिया की स्वीझ भी रिझाती जाती है। [ अतः उसका ] मन [उसे ] मनाने का नहीं करता, [ और जव यह कुछ मानने पर आती है, तो जान बूझ कर फिर उसे ] खिझा खिझा ( रुष्ट कर कर ) देता है। विरह-विपति-दिनु परत हीं तजे सुखनु सब अंग। रहि अब लौं” ऽ दुखी भए चलाचलै जिय-संग ॥ ४५५॥ ( अवतरण )-प्रोषितपतिका नायिका अपनी पत्रिका में नायक को अपनी दीन दशा लिखती है, और यह भी सूचित करती है कि अब मेरे प्राण चलने ही पर उद्यत हैं | ( अर्थ )विरह-रूपी विपत्ति के दिन ( अवसर, समय ) के पड़ते ही सुखों ने [ तो] सव अंग छोड़ [ ही ] दिए [ थे] ( मेरे सब अंग सुखानुभव से वंचित हो गए थे), [ और] अब तक रह कर अब दुःख भी प्राणों के साथ चलाचल ( चलने पर उद्यत ) ही हो रहे हैं (चला ही चाहते हैं ) ॥ | इस दोहे का ध्वन्यार्थ यह हुआ कि सब अंग को सुख तो छोड़ ही गए थे ; अब दुःख भी उन्हें छोड़ कर प्राण के साथ जाया ही चाहते हैं, अर्थात् अब शरीर में दुःख तथा सख, दोन ही न रह जायँगे ; पर प्रार्थों के दुःख शरीर-त्याग के पश्चात् भी होता रहेगा, क्योंकि तुःख प्राण के साथ ही चलाचल हो रहे हैं। अतः आप पधार कर दुःख से प्राण का पिंड छुड़ाइए ॥ 'चलाचलै’ ( चलाचल ही ) मैं जो ‘ही है, उससे व्यंजित होता है कि प्राण शीघ्र ही निकला चाहते हैं। अतः नायक को आने मैं किंचिन्मात्र भी विलंब न करना चाहिए । १. मान मनौवन ( ३ ) । २. कौतिक (१,४ ), कौतिग ( २ ) । ३. खीझ रीझवति (४) । ४. सब दुख ( ३, ५) । ५. चला चलू, चलाचली ( २ )।
बिहारी-रत्नाकर नयँ बिरह बढ़ती बिथा खरी विकल जिय बाल । बिलखी देखि परोसिन्यौ हरखि हँसी तिहिँ काल ।। ४५६ ॥ ( अवतरण )-नायिका को नया नया विरह हुआ है, जिसके कारण वह अत्यंत विकल हो रही है। पर अपनी बोलावस्था तथा पूर्वानुभव:शुन्यता के वश एवं लजा तथा अज्ञानता के कारण वह, संदेश भेज कर अथवा पत्र-द्वारा अपना विरह निवेदित कर के, नायक को बुलाने का उपाय करने में हिचकती है, और सोच रही हैं कि किस प्रकार विरह-दुःख दूर हो । इतने ही मैं वह, अपनी प्रवीण पड़ोसिन को भी दुखी देख कर, अनुमान करती है कि इसे भी मेरे ही पति का वियोग व्यथित कर रहा है, और यह चतुर होने के कारण अवश्य ही नायक को, पत्रादि-द्वारा अपना विरह निवेदन कर के, बुला लेगी । इस विचार से, विरह-व्यथा मिटने की संभावना मान कर, उसको हर्ष होता है, और वह अपना दुःख भूल कर, पड़ोसिन की चोरी खुल जाने पर तथा संयंग-भावना पर प्रसन्न हो कर, हँस देती है। सखी-वचन सखी से ( अर्थ )-नए विरह में बढ़ती हुई व्यथा से [ वह ] जी में अत्यंत विकल बाला ( नई अवस्था वाली स्त्री ) पड़ोसिन को भी बिल्खी ( दुखी ) देख कर उसी समय हर्षित हो कर हँस पड़ी ॥ छत नेहु कागेर हियँ, भई लखाई न टाँके । बिरह-तनैं उघखौ खै अब सँहुड़ कैसो आँकु ॥ ४५७ ॥ छतौ = क्षत हो गया, अलक्षित हुया, समा गया ॥ कागर= कागज ॥ लखाइ=लक्षित होने की क्रिया, पहिचान ।। टाँकु-एक बहुत छोटे तोल के परिमाण को कहते हैं । बोलचाल में टाँक का अर्थ बहुत थोड़ा लिया जाता है । आँकु= चिह्न । यहाँ इसका अर्थ अक्षर अथवा लेख समझना चाहिए ।। सेर कैसो आँकु= सँहुड़ के दूध से लिखे हुए शॉक के ऐसा आँक । श्वेत कागज पर सँहुड़ के दूध से लिख देने से लेख, सुख जाने पर, अलक्षित हो जाता है। पर जब वह कागज़ अग्नि पर सेंका जाता है, तो वह लेख काला हो कर दिखाई देने लगता है ।। | ( अवतरण )-इस दोहे की नायिका परकीया प्रोषितपतिका है । पर विलक्षणता यह है कि वह पूर्वानुरागिनी होने की अवस्था ही में प्रोषितपतिको भी हो गई है । पूर्वानुराग मैं उसने, कुखकानि के कारण, अपना अनुराग किसी पर प्रकट नहीं किया था, यहाँ तक कि नायक को भी यह नहीं प्रकट होने पाया था कि यह मुझ पर अनुरक है । यद्यपि नायक ने उससे मिलने का उद्योग भी किया था, तथापि वह टाल गई थी, और दूर ही दूर से उसके दर्शन मात्र से संतोष कर लेती और मिलने के निमित्त किसी परम सुअवसर की प्रतीक्षा करती थी । अब जब नायक पर देश चला गया, तो असे. देखे विना विकल हो कर उसने अपने अनुराग का वृत्तांत सखी से कहा, और उसको नायक के पास भेजा । सस्त्री ने जब नायक से उसका विरह-वृत्तांत कहा, तो नायक ने आश्चर्य से पूछा कि अब यह प्रेम कैसे उत्पन्न हो गया, मेरे वहाँ रहने पर तो वह मेरी ओर कुछ रुझान ही नहीं करती थी । इसके उत्तर में सखी कहती है कि उसके हृदय में आपका प्रेम कुछ नए सिरे से नहीं उत्पन्न हुआ है, प्रत्युत १. अयौ (४) । २. कागद (४) । ३. हियँ ( २ )। ________________
विहारी-रत्नाकर उस समय भी अलक्षित रूप से था । पर अब जब प्रवास के कारण उसे आपका दर्शन मिलमा भी बंद हो गया, तो क्लेशाधिक्य के कारण वह उसे छिपा न सकी-- | ( अर्थ )-[ उस समय, जब कि आप वहाँ उपस्थित थे, उसके ] हृदय-रूपी कागज़ में स्नेह [ विद्यमान तो था, पर ] अलक्षित हो गया [ था, और ] टाँक [ भर भी ] (किंचिन्मोत्र भी ) [ इस बात की ] ‘लखाइ' (पहिचान) नहीं हुई।[ पर ] अव विरहाग्नि से तपने पर सेंड के [ आँक ] ऐसा वह आँक उघरा ( प्रकट हुआ } ॥ | इस दोहे में कवि ने इस स्वाभाविक बात को भी प्रकाशित किया है कि जब कोई मनुष्य अथवा पदार्थ उपस्थित रहता है, तो उसकी विशेष चाह नहीं की जाती, पर जब व दुर्लभ हो जाता है, तो उसकी आकांक्षा दुःख देती है । | इस दोहे के ‘छतौ' शब्द के विषय में वर्तमान विद्वान मैं मतभेद है। कोई तो इसका अर्थ था करते हैं, और किसी के मत मैं छत' को अर्थ था होना संशयात्मक है । उनकी समझ में छतौ' के स्थान पर 'छप्यौ' पाठ विशेष संगत है । हमारी पाँच प्राचीन पुस्तक में से चार के अनुसार सो ‘छतौ' ही पाठ ठीक ठहरता है; और केवल चार अंक की पुस्तक मैं ‘छयौ' पाठ है। प्राचीन टीका में से अनबरचंद्रिका, कृष्ण कवि की टीका, रसचंद्रिका, हरिप्रकाश तथा लालचंद्रिका मैं 'ती' पाठ है, और अमरचंद्रिका, देवकीनंदन की टीका तथा श्रृंगारसरशती में ‘छप्यौ' । 'छत' का अर्थ कृष्ण कवि की टीका से अलक्षित अर्थात् छिपा हुआ होना प्रतीत होता है, पर रसचंद्रिका, हरिप्रकाश तथा खालचंद्रिका में इसका अर्थ था पाया जाता है । बिहारी के सबसे पहिले टीकाकार मानसिंह ने भी इसका अर्थ 'हो', अर्थात् था, ही लिखा है । हमारी समझ में इसका अर्थ अलक्षित हुआ, छिप गया, करना उचित है, जो कि कृष्णकवि लिखित सवैया से प्रतीत होता है । संस्कृत में ‘क्षत' शब्द का अर्थ नष्ट हुआ, बिगड़ा इत्यादि होता है, अर ‘छद्' धातु का अर्थ ढाँपना, छिपाना इत्यादि । इन्हीं दोनों में से किसी से यह शब्द बना प्रतीत होता है । २७५ अंक के दोहे मैं भी ‘छत' तथा 'अछूत' शब्द इसी प्रकार के हैं । बोलचाल मैं अब भी लोग कहते हैं कि तुम्हारे अछत अथव। आछत अमुक कार्य कैसे हुआ'। ऐसे वाक्य मैं ‘अछुत' का अर्थ नष्ट न होने पर, अर्थात् उपस्थित रहते, होता है। तुलसीदासजी ने भी अछूत' का प्रयोग इसी अर्थ में कई स्थान पर किया है, यथा “अस प्रभु हृदय अछत अविकारी ।” “परसु अछत देख जियत बैरी भूप-किसोर ।” इत्यादि । फूलीफाली फूल सी फिरति जु बिमल-बिकास । भोरतरैयाँ होहु ते चलत तोहिँ पिय-पास ॥ ४५८ ॥ ( अवतरण )-मानिनी नायिका से सखी अथवा दूती अभिसार कराने के निमित्त ( अर्थ )-[ तेरी सौतें ] जो विमल ( म्लानरहित, अर्थात् तुझसे बाधा पहुँचने के अटके के म्लान से रहित ) विकास-सहित फूल सी फूलीफाली ( प्रसन्नवदन ) फिरती हैं १. कमलु (२) ।
१९० विहारी-रखाकर (अफ्नी चटकमटक दियाती घूम रही हैं ), [ वह हम लोगों से सहन नहीं होता, अत: हम लोगों की अभिलाषा है कि ] वे तेरे प्रियतम के पास चलत' ( चलते ही अथवा घलने से ) 'भारतरैयाँ' ( प्रातःकाल की तरैयाँ अर्थात् प्रभाहीन ) हो जायँ ॥ | -- - - अरी, खरी सटपट परी विधु आधैं मग हेरि । संग-लगैं मधुपनु लई भागनु गली अंधेरि ।। ४५९ ॥ सटपट = सटपटी, घबराहट ॥ ( अवतरण )-परकीया कृष्णाभिसारिका प्रेम तथा रूपगर्विता नायिका यह विचार कर नायक से अँधेरी रात को मिलने गई थी कि चंद्रोदय के पूर्व ही घर लौट आऊँगी। पर नायक ने प्रेम-वश उसके लौटने मैं विलंब लगा दिया, जिससे लौटते समय आधे रास्ते ही में चंद्रमा निकल आया, और उसको पड़ी घबराहट हुई कि अब मुझे लोग देख लैंगे, पर उसके शरीर तथा अंगराग की सुगंधि के कारण संग लगे हुए भरों की भीड़ ने गर्ल को आच्छादित कर के अँधेरा कर दिया, जिससे वह साक्षस न हो सकी । यही सृांत वह सखी से कह कर अपने शरीर की सुगंधि तथा नायक के प्रेम का आधिक्य जनाती है ( अर्थ )-अरी [ सखी, उस रात्रि को नायक के पास से लौटते समय, वहाँ उसके प्रेमाधिक्य के कारण विलंब हो जाने से, मुझे ] श्राधे मार्ग में विधु (चंद्रमा ) देख कर खरी ( बड़ी ) सटपट ( घबराहट ) पड़ी। [ पर बड़ी कुशल हुई कि मेरे ] भाग्यों से [ मेरे शरीर की सुगंधि के कारण ] संग लगे हुए मधुपों ( भ्रमरों ) ने गली अँधर ( आँधियारी कर ) ली [ नहीं तो बड़ा अनर्थ होता, लोग मुझे देख लेते ] ॥ चलतु धैरु घर घर, तऊ घरी न घर ठहराइ । समुझि उहाँ घर कौं चल, भूलि उहीँ घर जाइ ॥ ४६० ॥ ( अवतरण )-सखी सखी से नायिका की स्नेह-दशा का वर्णन करती है ( अर्थ )-[यद्यपि ] घर घर [उसका] बैर ( निंदा ) चल रहा है कि वह अमुक पर अनुरक़ हो रही है, और कुलकानि आदि छोड़ बैठी है ], तथापि [वह] घड़ी [ भर भी अपने] घर में नहीं ठहरती, समझ कर (जान बूझ कर) [ भी ] उसी [ नायक के ]घर को चलती है, [ और ] भूल कर ( अनजान में ) [ भर ] उसी [ नायक के ] घर को जाती है [ भावार्थ यह कि वह प्रेम में ऐसी लिप्त हो रही है कि निंदा इत्यादि पर कुछ ध्यान नहीं देती । सुधि में भी वह उसी के घर जाती है, और बेसुध होने पर भी उसके मन तथा पाँव उसे उसी के घर ले जाते हैं ] ॥ १. घटपट ( १ ) । २. ठहराति ( २ ) । ३. जाति ( २ ) । ________________
१६१ बिहारी-रत्नाकर इक भी, चहौं हैं, बूड़, बैहैं हजार । किते न औगुन जग करै बैनै चढ़ती बार ॥ ४६१ ॥ बै= वयक्रम ॥ नै=नदी ।। ( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्ति है कि नदी की भाँति वय भी चढ़ते समय अनेक अनर्थ करती है, अतः मनुष्य को चढ़ती जवानी से सचेत रहना उचित है (अर्थ)-वय-रूपी नदी चढ़ते समय जगत् में कितने अवगुण नहीं करती । एक ( कोई )[ तो इस अवस्था के प्रभाव से ] भीग जाते हैं ( विषय-रस में मिल जाते हैं ), [ कोई ] कीचड़ में फँस जाते हैं (विषय-सुखों में ऐसे फैंस आते हैं कि दूसरी ओर जा ही नहीं सकते ), हज़ारों डूब जाते हैं ( सिर से पाँव तक विषय-भोग में मिमग्न हो जाते हैं ), [ और ] हज़ारों बह जाते हैं ( लोक, परलोक सबसे दूर हो जाते हैं ) ॥ गाढ़ें ठहैं कुचनु ठिलि पिय-हिर्य को ठहराइ । उकैसैं हैं हीं त” हियँ देई सबै उकसाइ ॥ ४६२ ।। गर्दै = सघन, कठोर तथा पीन । ठाढ़े = उन्नत, ऊँचे । ठिलि =ढकेली जा कर ॥ उकसह = उकास अर्थात् उभार पर आए हुए ॥ उकसाइ = उभार, उखाड़ ॥ ( अवतरण )-अंकुरितयौवना नायिका से सखी परिहास-पूर्वक उसके यौवनागमन तथा सौंदर्य की प्रशंसा करती हुई कहती है | ( अर्थ )- तेरे ] गाढ़े [ तथा ] ठाढ़े कुचों से ठिल कर (अर्थात् जव तेरे उरोज भाढे ठाढ़े हो कर प्रियतम के हृदय में धक्का लगाएँगे, तो उनसे केली जा कर ) [ तेरी ] कौन [ सौत ] प्रियतम के हृदय में ठहरेगी ( अर्थात् कोई न ठहर सकेगी ) । [ तेरे कुचों ने तो ] तेरे [ ही ] हृदय पर ( अर्थात् प्रियतम के हृदय पर विना लगे ही ) 'उकसाई' ही (उठते हुए से ही, अर्थात् विना उठे, केवल उठान पर आए हुए ही) [ हो कर ] सभाँ ( सब सौतों) को [ प्रियतम के हृदय में ] उकास दिया ( उभार दिया, हलचल में कर दिया ) है [ भावार्थ यह कि प्रियतम के हृदय में तेरी जो सौतें जमी हुई , उनमें हलचल तो तेरे उभार पर आए हुए ही कुचों ने, तेरे ही हृदय पर से, कर रखी है। अतः अब उनमें प्रियतम के हृदय से ढकेले जाने पर वहाँ थमे रहने का सामर्थ्य नहीं है। बस फिर जब तेरे उरोज पीन तथा उन्नत हो कर प्रियतम के हृदय में धकियापेंगे, तो वहाँ कौन ठहर सकेगी, अर्थात् अभी से तेरी सौतों की ओर से प्रियतम को वित्त कुछ फिर सा गया है, फिर जब तेरी पूर्ण यौवनावस्था आवेग, तब तो वह किसी को स्मरण भी न करेगा ] ॥ १. भीजे (२, ४, ५) । २. परे ( २, ४, ५ )। ३. बुड़े ( २, ४, ५) । ४. बहे ( २, ४, ५)। ५. करे ( ४, ५) । ६. नै ( २ ), नई ( ३, ५) । ७. बै ( ३, ४, ५) । ८. बाढे ( २ ), गादे ( ४ )। १. ही ( १ ) । १०. उकसाएँ” ( १ ) । ११. १ (१) । १२. सबै दई ( ३, ५ ), सब दीनी (४) । १९२ | बिहारी-रत्नाकर दीप-उजेरैं हूँ पतिहिँ हरत बसनु रति-काज । रही लपटि छवि की छटनु, नैको छुटी न लाज ।। ४६३ ।। ( अवतरण )–नायिका के शोभाधिक्य का वर्णन सखी सखी से करती है कि उसकी छवि की छटा मैं ऐसी दीप्ति है कि दीपक के उजेरे मैं भी प्रियतम उसको नग्न न देख सका, क्यूँकि उसकी आँखें उस पर न ठहर कर उसकी छवि की छटा में ही फैत्री रह गईं, अतः उस नायिका की जा रह गई ( अ )-दीपक के उजेरे में भी, रति के निमित्त पति के ( पति के द्वारा) वसन ( वस्त्र ) ‘हरत' ( हरने पर ), [ व अपनी ] शोभा की छटा ( किरण ) में [ ऐसी ] लिपट रही कि उसकी लजा ( पति ) किंचिन्मात्र भी नहीं छुटी ( गई ) [ भावार्थ यह कि उसे नग्न कर देने पर भी पति का ध्यान उसकी नग्नता पर नहीं गया, प्रत्युत उसकी शोभा ही में लगा रहा ] ॥ लखि दारत पिय-कर-कटकु बास-छुड़ावन-काज । बरुनी-थन गर्दै दृगनु रही गुढ़ौ' करि लाज ॥ ४६४ ॥ कटक= सेना ॥ बासु=( १ ) वसन, वस्त्र । ( २ ) वासस्थान ॥ गुढौ= छिप कर रहने का रह स्थान ॥ ( अवतरण )-रत्यारंभ में मध्या नायिका के नयन मैं बजा जो अपना मवास बना कर बस रही है, उसका वर्णन सखी सखी से करती है| ( अर्थ )-पति के कर-रूपी कटक को वसन-रूपी वासस्थान छुड़ाने के निमित्त दौड़ता देख कर घरुणी-रूपी सघन वन में, नयनों में 'गुढ़ौ' (मवास ) कर के ( बना कर ), लाज [ जा ] रही ( बसी )[ अर्थात् जब नायक ने वस्त्र हरना चाहा, तो नायिका की आँखों में लज्जा भर आई ] ॥ सकुचि सुरंत-आरंभ हाँ बिछुरी लाज लजाइ ।। सुरकि ढार दुरि ढिग भई ढीठ ढिठाई आइ ॥ ४३५ ॥ लजाइ–यहाँ 'लजाइ' का अर्थ लजाई हुई अथवा लजाती हुई कर के उसको लाज का विशेषण मानना चाहिए ॥ ढरकि=ढरकती हुई अर्थात् धीरे से । ढार=ढाल से, सुंदर चालढाल से ॥ दुरि= प्रसन्न हो कर ॥ दिग= समीप ॥ | ( अवतरण )-प्रौदा नायिका के सुरत का वर्णन सखी सखी से करती है ( अर्थ )-सुरत के आरंभ ही में [ उसका ] लजीली लज्जा [ तो ] संकुचित हो कर बिछड़ गई ( हट गई ), [ और ] सुंदर चालढाल से दुर कर (प्रसन्नतापूर्वक ) धीरे से डीठ ढिठाई आ कर [ उसके] समीप [ उपस्थित ] हुई -- ----- १. बसन ( २, ३, ५)। २. गूढ़ ( २ ) । ३. सुरति ( ५ )। ४. ढीठ (१, २, ३, ४)। ________________
बिहारी-रत्नाकर सकुचि सरकि पिय-निकट हैं, मुलकि कछुक, तनु तोरि। कर आँचर की ओट करि, जमुहानी मुँहु मोरि ॥४६६॥ ( अवतरण ) -रत्यंत मैं नायिका ने जो भाव किए, उनका वर्णन सखी सखी से करती है ( अर्थ )--संकुचित हो प्रियतम के निकट से सरक कर ( अर्थात् संकोच के कारण प्रियतम के पास से कुछ हट कर ), 'मुलकि कछुक' ( कुछ विशेष भाव से सुसकिरा कर ) [ तथा ] तन तोड़ कर ( अँगड़ाई ले झर ) [ वह ] हाथ से अंचल की ओट ( आड़ ) कर के [ और ] मुख को मोड़ कर ( मुख को प्रियतम की ओर से अन्य ओर कर के ) जमुहाई ॥ देह-लग्यौ ढिग गेहपति, तऊ नेहु निरबाहि ।। नीची अॅग्वियनु हाँ इतै गई कनखियनु चाहि ॥ ४६७ ॥ दह-लग्यौ = देह से देह भिड़ाए हुए ॥ गेहपति ( गृहपति )= अपने घर का पति अर्थात् स्वपति ॥ कनखियनु= श्रॉखों के कोन से अर्थात् दबी हुई आँखों से ॥ ( अवतरण )-उपपति नायक अपनी जिग्रिणी परकीया की चातुरी की प्रशंसा उसकी सखी से, अथवा स्वगत, करता है ( अर्थ )-[ यद्यपि उसका | गृहपति [ मेरी अथवा उसकी ] देह से देह लगाए हुए समीप ( अत्यंत समीप ) था, तथापि [ वह ] नीची ही आँखों से ( आँखों को मीची ही किए हुए) कनखियों से इस ओर ( मेरी ओर देख कर स्नेह को निबाह गई ( स्नेहोचित बर्ताव कर गई ) ॥ माखौ मनुहारिनु भरी, गायौ खरी मिठाहिँ । वाकौ अति अनखाहटौ मुसकाहट-बिनु नाहिँ ॥ ४६८॥ ( अवतरण )-नायक नायिका से ऐसा असुरक़ है कि उसे उसकी मार गाली भी अच्छी लगती है, अतः वह उसकी सखी से उसके प्रत्येक दशा मैं प्रिय लगने का वर्णन करता है ( अर्थ ) -[ उसकी ] मार भी मनुहारियों ( मन हरण करने की रीतियाँ) से भरी हुई है. [ और उसकी ] गालियाँ भी खरी ( बड़ी ) मिठाती हैं। उसकी [ तो ] अत्यंत अनखाहट ( क्रोध से बात करना भी विना मुसकराहट के नहीं होता ( उसका स्वभाव ऐसा हँस दुख है कि अत्यंत क्रोध की अवस्था में भी उसके मुख पर मुसकिराहट अ ही जाती है ) ॥ । नाचि अचानक हाँ उठे बिनु पावस वन मोर। जानति हौं, नंदित करी पैड दिसि नंदकिसोर ॥ ४६९ ॥ १. मुरकि ( २ ) । २. उॐ ( १ ) । ३. इह ( ३ ), इहि (४) १९४ बिहारी-रत्नाकर ( अवतरण )-नायिका का सखी उसे विरह-विकल देख कर, जी बहलाने के निमित्त, वन में ले जाया चाहती है । उसको यह आशा भी है कि कदाचित् वहाँ श्रीकृष्ण चंद्र से भेंट हो जाय, परंतु इस बात का उसको दृढ़ विश्वास नहीं है । अतः उनके वहाँ होने का यह अनुमान वह इस उद्देश्य से प्रकट करती है कि उनके दर्शन के लाभ से वह वन मैं जाने को उद्यत हो जाय, और अपने अनुमान के प्रमाण मैं विना पावस ही के उस वन मैं मेरौं के नाच उठने का, सच्चा अथवा कल्पित, वर्णन करती है, जिसमैं कि यदि श्रीकृष्णचंद्र से वहाँ भेंट न हो, तो नायिका उससे खीझे नहीं, प्रत्युत विना कारण नाच उठने के अपराधी मार समझे जायें | ( अर्थ )-[ हे सखी, आज मैं जव यहाँ आ रही थी, तो इस पास वाले ] वन में विना पावस के अचानक ही मोर नाच उठे [ इससे में ] जानती हूँ ( अनुमान करती हूँ ) [ कि घनश्याम-स्वरूप ] नंदकिशोर ने यह दिशा आनंदित की है ( अर्थात् इस दिशा को अपने पदार्पण से सुखी किया है ) ॥ मैं यह तोहीं मैं लवी भगति अपूरब, बाल । लहि प्रसाद-माला जु भी तनु कदंब की माल ॥ ४७० ॥ ( अवतरण )–नायिका किसी देव मंदिर में दर्शनार्थ गई है। वहाँ उसी समय उसका उपपति नायक भी आया है। नायक और नायिका, दोन ने देवार्चन कर के पुष्प की सुंदर सुंदर मालाएँ चढ़ाईं, और पुजारी ने मंदिरों की परिपाटी के अनुसार प्रसाद की मालाएँ उनको पहनाईं । संयोग से उसने मायिका को नायक की चढ़ाई हुई माला पहना दी । नायिका ने वह माला नायक को चढ़ाते देखी थी। अतः उसके स्पर्श से उसके सर्वांग मैं रोमांच सात्त्विक हो गया, जिससे सखी उसकी प्रीति लक्षित कर के कहती है-- | ( अर्थ )-हे बाल ( वाला ), यह अपूर्व ( विलक्षण ) भक्ति मैंने तुझी में देखी कि प्रसाद की माला पा कर [ तेरा ] तन कदंव की माला ( कदंव के पुष्पों की माला के रूप का, अर्थात् रोमांचित ) हो गया ॥ दोहे मैं स्वयं पुजारी से भी नायिका का अनुराग माना जा सकता है। ऐसी दशा मैं उसके रोमांचित होने का कारण पुजारी की दी हुई माला का स्पर्श माना जायगा । जाकै एकाएक हूँ जंग ब्यौसाई न कोइ ।। सो निदाघ फूलै फरै” कु डहडहौ होइ ।। ४७१ ॥ एकाएक हुँ=एकाकी भी, अकेला भी ।। ब्यौसाइ ( व्यवसायिन् ) = व्यवसाय अर्थात् उद्योग करने वाला ॥ | ( अवतरण )---निःसहाथ मनुष्य के हानिकारक दशा मैं भी ईश्वर की सहायता से संपन्न होने पर कोई, मदार-वृक्ष पर अन्योक़ि कर के, कहता है ( अर्थ )-जिसके निमित्त जग में कोई एकाकी [ मनुष्य ] भी व्यवसायी (उद्योग | १. एको ( १, ४), एकै ( २ ) । २. हीं ( २ ) । ३. फल ( ३, ५ ) । ४. फलै ( ३, ५ )। करने वाला) नहीँ है, सो [बेचारा] आक (अर्क, मदार) ग्रीष्म ऋतु मेँ [जब कि अन्य वृक्षोँ को सीँचने इत्यादि की आवश्यकता होती है] डहडहा हो कर फूलता फलता है॥
किसी बेकाम के मनुष्य के विशेष संपन्न होने पर भी यह दोहा अन्योक्ति हो सकता है॥
बतरस-लालच=बातचीत करने के आनंद के लालच से॥
(अवतरण)—श्रीराधिकाजी ने वार्तालाप के आनंद के लोभ से श्रीकृष्णचंद्र की मुरली कहीँ छिपा कर रख दी है। इस पर दोनोँ मेँ जो वचन-विनोद हो रहे हैँ, उसका वर्णन सखी सखी से करती है—
(अर्थ)—[श्रीराधिकाजी ने] वाक्य-विनोद के लालच से लाल (श्रीकृष्णचंद्र) की मुरली [कहीँ] लुका कर (छिपा कर) धर दी है। [सो देखो, अब कैसा विनोद हो रहा है कि श्रीकृष्णचंद्र के] सौँह (शपथ) [कि 'बाबा की सौँह! जो मेरी मुरली खोज देगी, उसका मैँ सदा ऋणी रहूँगा', अथवा 'भैया की सौँह! मुझे यह हँसी अच्छी नहीँ लगती' इत्यादि] करने पर [श्रीराधिकाजी] भौँहोँ मेँ (किंचिन्मात्र) हँस देती हैँ, [जिसमेँ श्रीकृष्णचंद्र को उन पर संदेह हो जाय, और वे निराश हो कर अन्यत्र न चले जायँ, पर] देने के कहने पर (माँगने पर) नट जाती हैँ (मुकर जाती हैँ, अर्थात् यह कह देती हैँ कि मैँ नहीँ जानती, मैँने नहीँ छिपाई है, इत्यादि)॥
लटू ह्वै–बोलचाल मेँ लट्टू होना अत्यंत रीझने को कहते हैँ, जैसे 'अमुक व्यक्ति अमुक वस्तु पर लट्टू हो रहा है'॥
(अवतरण)—नायिका के रूप की प्रशंसा कर के दूती नायक को उससे मिलाया चाहती है—
(अर्थ)—हे लाल, मैँ वह अनूप बाल (बाला, युवती) देख कर लट्टू हो रही हूँ। [मैँ नहीँ समझ सकती कि] इतने सलोने रूप मेँ [माधुर्य लाने के निमित्त] दैव ने कितना मिठास दिया है [कि इतने लावण्य पर भी माधुरी अपना स्वाद अलग ही दे रही है]॥
जिस पदार्थ मेँ लवण नहीँ पड़ा रहता, वह थोड़ा ही मीठा डालने से मधुर हो जाता है। पर जिसमें लवण पड़ा रहता है, उसमेँ मिठास लाने के निमित्त अधिक चीनी इत्यादि मिलानी पड़ती है, तब कहीँ वह दुरसा होता है॥
१८६ बिहारी-रत्नाकर नहिँ पावसु, ऋतुराजु यह तजि, तरवर, चित-भूल है। अपतु भएँ बिनु पाइहै क्याँ नव दल, फल, फूल ॥ ४७४ ॥ ( अवतरण )—केाई कि राजा से लाभ उठाने की आकांक्षा करने वाले से, वृक्ष पर अन्योक्ति कर के, कहता है कि सामान्य पुरुष ले लेग के सजे ही मैं लाभ पहुँच सकता है, पर किसी राजा से लाभ उठाने के निमित्त बाट उठाना तथा निरादर सहना पड़ता है| ( अर्थ )-हे तरुवर (श्रेष्ठ वृक्ष ), यह पावस ( सामान्य वर्षा ऋतु ) नहीं है, [ प्रत्युत ] यह [ ते ] ऋतुराज ( ऋतुओं का राजा वसंत ) है, [ अतः तू अपने] चित्त की [ यह ] भूल ! कि इससे भी पावस की भाँति सहज ही में प्राप्ति हो जायगी ] तज दे । [इससे ] विना अपत ( पत्रशून्य, निर्लज, मन-रहित ) हुए [ तू ] क्योंकर नए दल ( कोंपल ), फल [ तथा ] फूल ( अर्थात् वस्त्र, भोजन तथा अन्य सुख-सामग्री ) पाएगा ॥ बन-चाटनु पिक-वटपर लखि विरहिनु मत मैं नैं। कुही कुही कहि कहि उॐ, करि करि रात नैन । ४७५ ।। पिक = कोकिल ॥ वटपरा= डाकू । मत-यही इस शब्द का अर्थ ज्ञान, बोध, चेतना है । कुहौ कुहौ-ह काकिल के कूकने का अनुकरण शब्द है । इसका अर्थ यहां मारो मारो भी लिया गया है । 'कुष' थातु का अर्थ फाड़ना, मर्दन करना होता है । इसी से फ़ारसी शब्द 'कुश्तन' बना है, जिसका अर्थ मार डालना है ॥ राते ( रक्त ) = खाल । ( अवतरण )–नायक विदेश जाने पर उद्यत है । नायिका तथा उसकी सखियाँ उसे जाने से रोकने के निमित्त कहती हैं कि इस वसंत ऋतु मैं जाना बड़ा भयावह है| ( अर्थ )-[ वसंत ऋतु में विदेश-गमन उचित नहीं है, क्योंकि ) वन के माग में कोकिल-रूपी डाकू विरहियों को [ अपने ] मत ( चेतना ) में न देख कर ( अर्थात् विरह-दुःख से चेतना-रहित पा कर ), [ अपनी ] आँखें लाल कर कर के, [ और ] कुहौ कुहौ ( मारेर मारो ) कह कह र [चा अर से ] उठते है ( आक्रमण करने पर उद्यत हो जाते हैं ) ॥ डाकू की रीति है कि अंगों में वे पथिक के साथ साथ छिप कर चले जाते हैं, और जव उसको असावधान पाते हैं, तो मार मार ५६ कर उस पर टूट पड़ते हैं ।। -- * --- दिस दिसि कुसुमित देखिंयत उपवन-बिपिन-समाज । मर्भहूँ थियोगिनु क कियौ सर-पंजर रितुराज ।। ४७६ ॥ सार-पंजर ( शर-पंजर ) = बाण का पिंजड़ा । बड़े बड़े अपराधियों को देह-दंड देने के निमित्त १. पार ( १ ), पाइयै ( ३, ५) । २. बिरहनि ( २, ३, ५ ), बिरहिनि (४) । ३. मनु ( २ ), मन ( ३, ५ ) । ४. में न ( ३, ५ ), मैन ( ४ ) । ५. कुहू कुहू ( ३ ), कहुँ कहूँ ( ५ ) । ६. रातें ( १ ) । ७. देखियें ( २ ) । ८. मनौ ( २ )। ________________
बिहारी-रत्नाकर १६७ प्राचीन काल में शर-पंजर बनाया जाता था। इसके भीतर चारों ग्रोर बाणों के फलों की प्रकृति के शूल लगे रहते थे । अपराधी जब इसमें बंद कर दिया जाता था, तो किसी ओर हिलडुल नहीं सकता था, क्योंकि जिस ओर वह किंचिन्मात्र भी झुकता था, उस ग्रोर के भल्ल उसको चुभते थे । रितुराज ( ऋतुराज ) = ऋतुओं का राजा अर्थात् वसंत । ऋतुराज का प्रयोग कवि ने इस निमित्त किया है कि दंड देने का काम तथा अधिकार राजाँ ही का होता है । | ( अवतरण )-नायिका मान किया चाहती है। सखी उसको यह कह कर मान करने से रोकती है कि इस ऋतुराज के शासनकाल मैं मान कर के वियोगिनी बनना बड़ा अपराध है। देख, वियोगियाँ को दंड देने के निमित्त ऋतुराज महाराज ने वन-उपवन को काम के श द पिँजदा बना रखा है। यदि तु इस समय मान करेगी, तो महान् कष्ट नैं पड़ेगी । | ( अ )-[ हे सखी! देख, ] उपवन [ तथा ] विपिन के समाज प्रत्येक दिशा में कुसुभित ( फूल हुए ) दिखाई देते हैं । माने ( से तू यह समझ कि ) ऋतुराज ने वियोगियों [ को दंड देने ] के निमित्त । इन उपवन तथा वनों के समाज को काम के बाणे का ] शर-पंजर बनाया है ॥ - 'X ' - टटकी धोई धोती, चटकीली मुख-जोति' । लसति रसोई के बगर, जगरमगर दुति होति ॥ ४७७ ।। धोवती = धोती ।। बगर = कोठा, घर ॥ ( अवतरण )--आर्य-जाति के अच्छे घरौं मैं यह परिपाठी है कि जब नई पतोहू आती है, तो उससे रसोई बनवाने के निमित्त कोई शुभ दिन नियत किया जाता है। उस दिन वह नव-वधू धोई हुई, स्वच्छ तथा अपरस, धोती पहन कर रसोई बनाती है, और परिवार के लोग उसी दिन से उसके हाथ का बनाया हुआ भोजन करना प्रारंभ करते हैं। उसी अवसर की नायिका की शोभा सखी नायक को सुना कर उसे, उसको देखने के निमित्त, आवाहित करती है, क्योंकि उस समय, रसोई के कार्य में हार्थों के फैंसे रहने के कारण, वह शीघ्र धृवट भी नहीं कर सकती ( अर्थ )-[ इस समय उस नायिका की शोभा देखने ही योग्य हैं। उसके शरीर पर ] टटकी ( तुर की ) 9ोई धोनी [ शोभित है, और उसके ] मुख की ज्योति [ अग्नि की चरक से और भी ] चटकीली [ हो रही ] है। [ इस रूप से वह ] रसोई के बगर ( घर ) में लस रही है ( विराज रही है ) , [ और उसकी ] द्युति जगमगा रही है ॥ सोहति धोती सेत मैं कनक-बरन-तन बाल ।। सारद-रद-बीजुरी-भा रद कीजैति, लाल ॥ ४७८ ॥ बारद ( वार्द )= बादल ॥ भा= प्रभा, शोभा ।। ( अवतरण )—सखी अथवा पूर्ती नायक से नायिका के शरीर की युति की प्रशंसा कर के उसकी रुचि बढ़ाती है १. ज्योति ( ३, ५ ) | २. बारिद ( १, ३, ४) । ३. कीजतु ( २, ३ ), कोजत ( ५ ) ।
११८ बिहारी-रत्नाकर ( अर्थ )-हे लाल, श्वेत धोती मैं [ वह] कनक-वर्ण से तन वाली वाला [ऐसी] शोभित है [ कि उसके आगे ] शरद् ऋतु के बादल की बिजुली को प्रभा रद ( व्यर्थ, बेकाम ) की जाती ( समझी जाती ) है ॥ बहु धनु लै, अहँसानु कै', पारौ देत सराहि । बैद-बधू, हंसि भेद सौं, रही नाह-मुह चाहि ॥ ४७8 ।। ( अवतरण )--कोई वैद्य, जो स्वयं नपुंसक है, किसी को अपना फेंका हुअा पारा, बहुत धन से कर तथा बड़े निहोरे से, उसकी रति-शक्ति बढ़ाने के निमित्त, दे रहा है। यह देख कर उसकी जी, मर्म की बात सोच कर अर्थात् यह सोच कर कि यदि यह पारा वास्तव में ऐसा गुणद होता तो यह स्वयं क्र्यों नपुंसक बना रहता, हँस देती है। यही वृत्तांत कोई किसी से कहता है अथवा कवि ही की उक्ति है ( अर्थ )-[ किसी नपुंसक रोगी से ] बहुत सा धन ले कर, [ और ऊपर से उस पर ] एहसान कर के ( अपना उपकार जना कर ) [ एवं ] बड़ी प्रशंसा कर के [ अपने पति के] पारा देते समय वैद्य की बधू, भेद ( मर्म ) से हँस कर, नाह (नाथ, पति ) का मुख देख रही हैं अथवा देख कर रह गई ।।। रहौ, गुही बेनी, लखे गुहिबे के त्यौनर । लागे नीर चुचन, जे नीठि सुकाए बार ॥ ४८० ॥ त्यौनार=ढंग, रीति ॥ ( अवतरण )-नायक नायिका की चोटी पूँथ रहा है। स्पर्श से दोनों को स्वेद साविक हो गया है, जिससे नायिका के बाल भीग गए हैं। नायिका साविक छिपाने के निमित्त, मारे लाड़ के नायक के गूंथने के ढंग मैं दोषारोपण कर के, कहती है | ( अर्थ )-रहो ( ठहरो, रहने दो, बाल गुँथना बंद करे ), गुही बेनी ( तुम बेनी गॅथ धुके, अर्थात् तुम्हारे गूंथे बेनी गॅथी न जायगी ), [ तुम्हारे ] गूंथने के ढंग देखे गए ( अर्थात् परीक्षा करने पर सर्वथा निकम्मे ठहरे ) । [ नैंक तुम अपने गुँथने के ढंग की विलक्षणता तो देखो कि ] जो बाल नीठि ( बड़ी कठिनता से ) सुखाए थे, [ वे फिर से गीले हो कर ] नीर चुचाने ( टपकने ) लगे ॥ इस दोहे की नायिका स्वाधीनपतिका है। 'नीठि सुकाए बार' वाक्यांश से उसे अपने बा के सघन तथा क्षेबे होने का गर्व होना भी झलकता है ॥ भीत, न नीति गलीतु है जो धरियै धनु जोरि ।। खाएँ खरचैं जौ जुरै, तौ जोरियै कैरोरि ॥ ४८१ ॥ १. अहिसान ( २ ), हिसानु (४) । २. करि ( २ ) । ३. रही ( १, २ ) । ४. को ( ३, ५ ) । ५. सुचादने ( ३) । ६. सुखाए ( २ ) । ७. नीत ( १ ), मति ( ३, ५ )। ८. जोर ( ५ )। ९. करोर ( ५ )। ________________
बिहारी-रत्नाकर ( अवतरण )-कोई उदार मित्र किसी कृपण मित्र को शिक्षा देता है ( अर्थ ) हे मित्र, [ यह ] नीति नहीं है कि गलीत ( दुर्दशा में ) हो कर (अर्थात् अपनी दुर्दशा बना कर ) धन इकट्ठा कर के रक्खा जाय । [ पर हाँ, ] यदि खाने खर्चने ( आवश्यक व्यय करने ) पर [कुछ ] बचे, तो [ चाहे ] करोड़ [ रुपया ] जोड़ा जाय (इकट्ठा किया जाय) । [ भावार्थ यह कि मनुष्य को अपने खाने तथा अन्यावश्यक कायो में कृपणता कर के धन एकत्रित करना उचित नहीं है । हाँ, यदि इन व्यय के पश्चात् कुछ बचे, तो भले ही एकत्रित किया जाय । पर मनुष्य के श्रावश्यक व्यय ही इतने हैं कि उन्हाँ का पूरा पड़ना कठिन है ] ॥ दुरै न निघरघट्यो दियँ ए रवरी कुचाल । बिषु सी लागति है बुरी हँसी खिसी की, लाल ॥ ४८२ ॥ निघरघट्यौ–निघरघट उस मनुष्य को कहते हैं, जो पानी अथवा खाद्य पदार्थ को विना इँटे एक बार ही निगल जाय । इसका लक्ष्यार्थ निर्लज, धृष्ट तथा अपराध के स्पष्ट प्रकट हो जाने पर भी मुकरने वाला मनुष्य होता है । 'निघरघटी' का अर्थ निघरघटपन हुआ । इसी निघरघटी' शव्द से 'निघरघट्यौ' बना है, जैसे ‘परोसिनी' से ‘परोसिन्यौ' । इसका अर्थ निघरघटी भी अर्थात् निघरघटपन भी है, जैसे परोसिन्धौ का अर्थ परोसिनी भी ।। ( अवतरण )-प्रौढ़ा अधीरा गायिका का वचन धृष्ट नायक से ( अर्थ )-निघरधटपना भी देने से ( करने से ) आपकी ये कुचालें (परस्त्री के यहाँ जाने इत्यादि की बुरी चालें ) नहीं छिपतीं। हे लाल,[ तुम्हारी यह ] खिसी ( खिसियानपने ) की हँसी [ मुझे ] विष सी बुरी लगती है ॥ छाले परिबे कैं डरनु सकै न हाथ छुवाइ । झझकत हियँ' गुलाब के फँवा झैवैर्यंत पाइ ॥ ४८३ ॥ ( अवतरण )–नायिका के पाँव की सुकुमारता का वर्णन सखी नायक से करती है ( अर्थ )–छाले पड़ने के डरों से [ नाइन उसके पाँवों में अपने कठोर ] हाथ नहीं छुआ सकती । [ अतः नाइन-द्वारा उसके ] पाँव गुलाब के झावे से, झझकते हुए (एचकिचाते हुए ) हृदय से, कँवाए जाते हैं । तिय-तरसहैं मुंनि किए करि सरसहैं नेह । धर-परसौं हैं है रहे झर-बरसैहैं मेह ॥ ४८४ ॥ ( अवतरण )—बादल की उद्दीपन-शक्ति का वर्णन कवि करता है, अथवा सखी नायक से कहती है कि ऐसे समय, जब मुनि के मन भी खिर्यों के निमित्त तरस रहे हैं, आपको अलग रहना उचित नहीं है । १. निघरघटो (४) । २. फूल ( २ )। ३. झाइयत ( २ ), *वैयतु ( ३, ५) । ४. मम ( ३, ५)।
२०० बिहारी-रत्नाकर ( अर्थ )-झर-बरसीदें ( झड़ी बाँध कर बरसने वाले ) मेघ मुनियों को [ भी ] नेह से सरसोंह' ( सरस ) कर के, तिय-तरसह ( स्त्रियों के निमित्त तरसने वाले अर्थात् स्त्रियों की उत्क: अभिलाषा करने वाले ) किर हुए धर-परहें ( धरा को स्पर्श करते हुए से ) हो रहे हैं ।। धरा के स्थान पर ‘धर' का प्रयोग भाषा के प्रायः सभी कवि ने किया है ॥ घन-घेरा छुटि गौ, हघि चली चेहूँ दिसि रहि ।। कियौ सुचैनी आइ जगु सरद-सूरदरनाह ॥ ४८५ ॥ घन -यह शब्द यहाँ श्लिष्ट है । इसका एक अर्थ बादल और दूसरा अर्थ मार डालने वाला, अर्थात् डाकू इत्यादि, है। इन्हीं दो अर्थ के अाधार पर इसमें श्लिष्टपद मूलक रूपक है । ( अवतरण )-प्रोपितपतिका नायिका की सखी, उसको ढाढ़स बँधान के निमित्त, कहती है कि अब वर्ष बीत गई और शरद् का सुखद् समय आ गया है । वर्षा के कारण जो रास्ते बंद हो रहे थे, वे खुल गए और चारों ओर लोग आने जाने लगे हैं। अतः अब तु धैर्य धर, तेरे प्रियतम भी शीघ्र ही प्रायः चाहते हैं ( अर्थ ) --बदल-रूपी डाकु, घातक का घेरा ( घेघार ) छूट गया, चारों ओर हर्ष पूर्वक ( घने की बाधा से निडर हो कर ] राह ( मार्ग ) चलने लगी ( लोग मार्ग चलने लगे ). [ और ] शरद-रूपी शूर ( वहादुर ) राजा ने । कर ( अपना अधिकार जमा कर ) जगत् को ‘सुचेना' ( सुत्री, अर्थात् घना की वाधा से राहत ) कर दिया । वर्षा ऋतु मैं बादल की घरघार के कारण और निर्बल राजा अथवा विमा राजा के देश में डाकु इत्यादि के लगने के कारण मार्ग बंद हो जाते हैं। पर शरद् ऋतु मैं बादल के हट जाने पर एवं देश में प्रबल राजा का अधिकार हो जाने से डाकु ाँ इत्यादि के उपद्रव शांत हो जाने पर मार्ग खुल जाते हैं, और सब लोग सुख से चारों ओर आने जाने लगते हैं। पावस-घन-अँधियार मेरि रह्यौ भेदु नहिँ आनु । | रात द्यौस जाँन्यौ परतु लखि चकई चकवानु ॥ ४८६ ।। लखि चकई चकवानु = चकई-चकवाओं को पृथक् पृथक् एवं एकत्र देख कर, अथवा उनके शब्द से यह लक्षित कर के कि वे पृथक् पृथक् हें था एकत्र । चकई चकवा के विषय में यह प्रसिद्ध है कि वे रात्रि को एकत्र नहीं रहते, किसी जलाशय का अंतर दे कर, एक इस पार और दूसरा उस पार रहता है । दिन में फिर वे एकत्र हो जाते हैं। जब वे पृथक् रहते हैं, तो अन्य प्रकार से शब्द करते हैं, जो कि कराहने के सदृश होता है, और जब एकत्र रहते हैं, तो अन्य प्रकार का शब्द करते हैं, जिससे आनंद सूचित होता है । १. चहो ( ३, ५ ) । २. मैं ( २ ) । ३. जानी ( ३, ५ ) । ________________
( अवतरण )-कवि वर्षा ऋतु की सघन घटाओं ( अर्थ )-पावस (वर्षा ऋतु) के घन (बादल) के अंधेरे के कारण मी (पृथ्वी में [ रात तथा दिन में ] अन्य [ कोई ] भेद ( रूपांतर) नहीं रह गया। [अब ] रात दिन [ का समय-भेद केवल ] चर्काई-चकवाओं को [ पृथक् पृथक् एवं एकत्र ] लक्षित कर के जान फ्डता है ॥ | इस दोहे मैं चकई: चकवा के वर्णन के विषय में वर्तमान विद्वानों के मत मैं विरोध है। एक दल का कथन है कि वर्षा ऋतु में चक्रवाक इस देश में नहीं रहते, अतः इस ऋतु मैं उनका वर्णन करना अस्वाभाविक है । इससे बिहारी की नैसर्गिक अज्ञानता व्यक्त होती है। दूसरा दुख कहता है कि ऐसा नहीं है, वर्षा ऋतु में भी चक्रवाक समस्थल प्रदेश में रहते हैं, और कवियों ने इस ऋतु मैं उनका वर्णन भी किया है। हमारी समझ मैं इस दोहे मैं इन झग का कोई अवसर ही नहीं है । धनाढ्य के उपवन तथा पाइँबाग़ मैं मयूर, सरस, चक्रवाक इत्यादि प्रायः पते रहते हैं, और बहुधा उनके पर भी काट दिए जाते हैं। अतएव चाहे जंगल चक्रवाक वर्षा ऋतु मैं भारतवर्ष में रहते हैं वा नहीं, पर ये बेचारे पलुवे चक्रवाक तो अवश्य ही उन उपवन मैं उपस्थित रहते हैं। जो लोग उपवनँ मैं सारस, वाक इत्यादि पालते हैं, वे उनमें कोई कृत्रिम झील इत्यादि भी बनवा देते हैं। विहारी का यह चकई-चळवाओं से तात्पर्य ऐसे ही पलुवे चकई-चकवा से है, क्याँकि रात्रि दिवस का निर्णय करने के निमित्त कोई जंगल की दूरस्थ झील को देखने क्याँ जाने लगा, विशेषतः ऐसे समय, जब कि सघन घन के कारण दिन रात्रि सा हो रहा हो । चकई-चकवाओं के शब्द भी तो ऐसे उँचे नहीं होते कि ग्राम के बाहर की झीख से ग्राम में सुनाई दें। कवि की मुख्य वर्णनीय विषय यहाँ पावस व घन अंधकार है, चकई-चकवा का वर्णन केवल गौण रीति पर, मुख्यार्थ-साधन के निमित्त, हुआ है ॥ अरुनसरुह-कर-चरन, दृग-ग्वजन, मुग्व-चंद ।। समै आइ सुंदरि सरद काहि न कति अनंद ॥ ४८७ ॥ । अवतरण )-कवि शरद् ऋतु का वर्णः, सुंदरी स्त्री से रूपक कर के, करता है ( अ )-अरुनसरोरुह-कर-चरन (जिसके हाथ पाँव लाल कमल हैं ), हभ-स्त्रजन ( जिसके दृग खंजन हैं ). [ एवं] मुख-चंद ( जिसका मुख चंद है), [ ऐसी ] शरद-रूपी सुंदरी [ अपने ] समय पर ( अधिकार पर ) आ कर किसका आनंदित नहीं करती ॥ . नाहिँन ए पाचक-प्रवल तुर्दै ६ चहुँ पास । मानहु बिरह बसंत * ग्रांषम-वेत उसास ॥ ४८८ ॥ वक-प्रबल=पाबक सी प्रबल अर्थात् प्रचंड || ग्रीषम-लेत - ग्रीष्म के द्वारा ली जाती हुई ।। . मूंछु ( १ ) । २. सुंदर ( २, ५ )1,३. करतु (१); करे ३, ४), करत, ( ५ ) । ४. चालत १ ३, ५) । ५. ले ( १ ) तेइ (४) । ०२ बिहारी-रक्षाकर ( अबतरण )-प्रोषितपतिका नायिका प्रीष्म की लुओं के विषय में सखिर्यों से कहती है कि ये लुएँ नहीं हैं, प्रत्युत तुम इनको ऋतुराज के विरह से संतस्हृदया ग्रष्म ऋतु की उसासँ समझो ; फिर भला मैं अपने पति के विरह से संतप्त हो कर जो उष्ण उच्छ्रास लेती हूँ, तो अाश्चर्य क्या है ! देखो, ऋतु भी अपने पति के वियोग मैं ऐसा ही करती है । ( अर्थ )-[ह सखियो, ] चारों ओर ये पाचक सी प्रबल लुएँ नहीं चल रही हैं। [ इनको तो तुम ] वसंत ( ऋतुराज ) के विरह में ग्रीष्म-द्वारा ली जाती हुई उसासें समझो ॥ 'ग्राम' शब्द को लोग पुग्नंग तथा स्त्रीलिंग, दोन ही प्रकार प्रयुक्र करते हैं। इस दोहे में इसको स्त्रीलिंग ही मानना संगत है । सतया मैं केवल दो और दोहाँ मैं ग्रीष्म शब्द अाया है। पर उनमें उसका प्रयोग ऐसा है कि यह पता नहीं चलता कि बिहारी उसका कौन लिंग मानते थे । 'उसास' शब्द का प्रयोग बिहारी ने दोन लिंग में किया है । इस विषय में २६२-संख्यक दोहे की टीका द्रष्टव्य है ॥ कहलाने एकत बसंत अहि मयूर, मृग बाघ । जगतु तपोवन सौ कियौ दीरघ-दाघ निदाघ ।। ४८8 ।। तपोवन = तपस्वियों का वन । तपोवन में तपस्विया के प्रभाव से जीव जंतु परस्पर का वैर छाड़ कर बसते हैं । दीरघदाघ= दीर्घ अर्थात् प्रचंड ताप वाली ।। निदाघ = ग्रीष्म ऋतु ।। | ( अवतरण )-वन के जीवाँ को, ग्रीष्म के प्रचंड प्रभाव से कातर हो कर, परस्पर का वैर-भाय भून कर, एकत्र रहना कवि वर्णित करता है ( अर्थ )-अहि ( सर्प ) [ तथा] मयूर [एवं ] मृग [ तथा बाघ [ मारे गरमी के] कहलाने' ( कातर हुए, व्याकुल हुए ) एकत्र [ ही ] चलते हैं । प्रचंड ताप वाली ग्रीष्म ऋतु न [ अपने प्रभाव से ] जगत् के तपोवन सा कर दिया है ( बना रक्खा है ) ॥ उधर मयूर तथा बाघ को मारे गरमी के इस बात का ध्यान ही नहीं है कि सर्प तथा मृग हमारे अहार हैं, और न उनको उन पर झपटने की शक्ति ही है। इधर सर्प तथा मृग को भी इस बात की सुधि नहीं है कि हम मयूर तथा बाघ के अहार हैं, और न उनको भागने की शक्ति ही है। ग्रीष्म की प्रचंडता ऐसी व्याप्त हो रही है । पग पग मेग अगमन परत चरन-अरुनदुति झूलि । ठौर ठौर लखियत उठे दुपहरिया से फूलि ॥ ४९० ॥ अगमन= श्रागे । दुपहरिया= एक प्रकार का अरुण पुष्प, जो वर्षा ऋतु में मध्याह में फूलता है । संस्कृत में इसको बंधुजीव कहते हैं । ( अवतरण )-सखी नायिका के पाँव की सखाई की प्रशंसा नायक से कर के उसके हृदय में उसके देखने की उत्सुकता उत्पन्न करना चाहती है १. रहत ( २ )। ३. मैं ( १) । ३. रहें ( २ )। ( अर्थ )-[ उसके चलते समय ] मार्ग में एक एक पग प्रागे [उसके] चरणों की अरुण युति (लाल आभा) के झूल कर ( ऊपर से नीचे की ओर तिरछे बल में पा कर) पड़ते हुए ( पड़ते समय, पड़ने से ) ठौर ठौर पर दुपहरिया के फूल से फूल उठे देखे जाते हैं ( जान पड़ते हैं, अर्थात् ऐसा जान पड़ता है मानो ठौर ठौर पर दुपहरिया के फूल फूल उठे हैं )॥
नीच हियैँ हुलसे रहैँ गहे गेँद के पोत।
ज्यौँ ज्योँ माथैँ मारियत, त्यौँ त्यौँ ऊँचे होत॥४९१॥
पोत (प्रकृति)=स्वभाव॥
(अवतरण)-कवि की उक्ति है-
(अर्थ)-नीच [मनुष्य] गेंद के पोत (स्वभाव) धारण किए हुए [सदा निरादृत होने पर भी] हृदय में हुलसे (फूले) रहते हैँ। ज्योँ ज्याोँ [वे] माथे पर मारे जाते हैं (निरादृत होते हैं, अपने सिर पर चोट खाते हैँ), त्योँ त्योँ ऊँचे होते हैँ (अपने को श्रेष्ठ मानते हैँ, ऊपर को उछलते हैँ)॥
ज्यौँ ज्यौँ बदति विभावरी, त्यौँ त्यौँ बढ़त अनंत । अोक भोक सबलोक-सुख, कोक-सोक हेमंत ॥ ४६२॥ ( अवतरण )-हेमंत ऋतु का वर्णन । कवि की उक्ति ( अर्थ )- हेमंत ऋतु में ज्यों ज्यों रात्रि बढ़ती है, त्या त्याँ घर घर में सब लोगों के मुख [ और ] कोक (चकई-चकवा) के दुःख अनंत ( बहुत ) बढ़ते हैं । रयौ मोहु, मिलनौ रयौ, यौँ कहि गहँ मरोर । उत दै सखिहि उराहनी इत चितई मो ओर ॥ ४६३ ॥ (अवतरण )-कोई परकीया नायिका गुरुजनों के समाज में थी। इतने ही मैं उसका उपपति, जो बहुत दिनों से उससे मिला नहीं था, वहाँ आ गया, और संयोग से उसकी कोई सखी भी उसी समय वहाँ आई । नायिका ने बड़ी चातरी से मोहहीन होने तथा बहुत दिनों से न मिलने का उराहना तो सखी को दिया, पर उराहना देते समय नायक की ओर रुष्टता से देख कर उस पर यह विदित कर दिया कि वह उराहना वास्तव में उसे दिया गया है । नायिका की उसी चातुरी तथा मनोमोहिनी रोष-चेष्टा का वर्णन नायक अपने पीठमर्द सखा से करता है, जिसमें वह उसके रोष-निवारण का उद्योग करे (अर्थ)-[हे सखी, जो तू मुझ पर बड़ा मोह जनाया करती थी, सो तेरा सब] मोह रहा ( समाप्त हो गया ), [ और ] मिलना जुलना [ भी] रहा ( बंद हो गया), इस १. रहत (१, २) । २. को ( २ ) । ३. जेते ( ३, ४, ५)। ४. तेते ३, ४) । ५. ऊँचौ ( २ )। ६. मिलबो (५)। ७. सखी ( २, ३, ५) ।
६०४ बिहारी-रखाकर कार [ कुछ ] रुष्टता किए हुए कह कर [ उसने ] उधर सखी को उहता दे कर इधर मेरी ओर [ दयी अखिों से ] देखा [ से उसकी वह चेष्टा मुझे विकल किए डालती है ] ॥ -- ** G+---- नहिँ हरि लौं हियरा धरौ, नहिँ हर लौं अरधंग ।। एकत । करि राखियै अंग अंग प्रति अंग ॥ ४९४ ।। ( अवतरण )-दृता नायिका को नायक के पास जा कर कहती है कि यह सवग-सुंदरी है, अतः इसके प्रति अंग का सुख प्रापको प्रति अंग से लेना चाहिए । ( अर्थ )-[ इस सवंग-सुंदरी नायिका को आप ] न [ तो ] विष्णु भगवान् की भाँति हृदय में धारण कीजिए, [ और ] न शंकर की भाँति अद्धग में । [ इसके तो ] अंग अंग को [ आप अपने ] प्रति अंग ( अंग अंग ) में एकत्र ही कर के ( एक ही कर के ) खिए [ तभी आपको इसके सर्वांग-सुखदायिनी होने का अनुभव हो सकेगा ] ॥ कियौ सबै जगु काम-बस, जीते जिते अजेइ । कुसुमसरहिँ सर धनुष कर अगहनु गहन न देइ ॥ ४९५ ॥ ( अवतरण )-मानिनी नायिका का मान छुड़ाने के अभिप्राय से सखा उससे अगहन मास के विशेष उद्दीपनकारी होने का वर्णन करती है ( अर्थ )-[ यह ] अगहन ( १. जाड़े का मास विशेष । २. आगे मारने वाला, सेना का अग्रगामी, सेनापति ) [ ऐसा प्रवल तथा स्वामिभक्त है कि अपने प्रभु ] कुसुमसर [ महाराज ] को हाथ में सर [ तथा ] धनुष लेने [ का कष्ट उठाने ] नहीं देता । [ अपने प्रयल प्रभाव से उसने स्वयं ही ] सब जगत् को काम के वश में कर दिया है,[ और ] जितने [येगी, यती इत्यादि ] अजेय ( जाते जाने के अयोग्य ) [ समझे जाते ] ५, ! उनको भी । जीत लिया है । [ बस फिर ऐसे अगहन के अधिकार के समय तेरा मान करना सर्वथा अनुचित है । वयेाकि वह तेर हृदय के भी अवश्य ही काम-वश कर देगा ] । छकि रसाग-सौरभ, सने मधुर धु-गंध ।। ठौर ठौर भरत कैंपत भर-झौर मधु-अध ।। ४९६ ।। ( अवतरण )-वसंत का वर्णन कर के सखा मानिनी का मान छाया चाहती है ( अर्थ )-[ यह सुखद समय मान करने का नहीं है । देख, ] आम के बोरों की सुगंध से छुक ( अ ) कर, [ तथा ] माधुरी [ लता के पुष्पों ] की मधुर सुगंधि से सने हुए, [ एवं ] मधु ( मकरंद-रूपी मदिरा ) ! के पान ] से अधे ( मतवाले ) भ्रम के झुंड ठौर ठौर झरते ( भूमर बाँध कर मँडराते ) [ और ] कैंपते ( झुकते अथवा ढाप लेते ) हैं ॥ १. ध ( २, ३) । २. गहि (४) । ३. राखिहीं ( ३, ४) । ४. छिरें ( ३ )। ________________
३५ विहारी-रत्नाकर मिलि विहरत, विरत मरत, दंपति अति रति-लीन। नूतन बिधि हेमंत सर्वं जगत जुफा कीन ॥ ४९७ ॥ ( अवतरण )-मानिनी नायिका से सखी हेमंत ऋतु का प्रभाव वर्णन कर के उस का मान छुड़ाया बहती है | ( अर्थ )-[ देख, इस ऋतु में ] दंपति ( नायक नायिका ) अति रति-लीन ( प्रीति में समाए हुए ) [ हो ] मिले कर ( साथ साथ) विहार करते हैं, [ और] बिछुड़ते [ही ] मरते हैं ( मरने लगते हैं, अर्थात् अत्यंत कष्ट पाते हैं ) । [ इस ] हेमंत-रूपी नए ब्रह्मा ने सब जगत् को जुराफ़ा बना रखा है ॥ ऊँट की आकृति का एक पशु जुराफ़र अफरीका मैं होता है। इसके विषय में प्रसिद्ध यह है कि यह अपने जोड़े के साथ ही रहता है, और वियोग होने पर शीघ्र हर मर जाता है। प्राचीन टीकाकारों ने जुराफा का अर्थ पक्षी विशेष लिखा है ॥ पल सोहैं पगि पीक-सँग छल सोहैं सब बैन । बल-सैहिँ कत कीजियत ए अलॉहैं नैन । ४९८ ॥ ( अवतरण )-प्रौढ़ा धरा नायिका की उक्ति नायक से ( अर्थ )-[ तुम्हारी ] पलकें [ पान की ] पीक के रंग से पग कर (लिप्त हो कर ) सोहती हैं, [ तथा तुम्हारे ] सब ववन में छल शेाभित हैं, [ जिनसे तुम्हारे रात्रि के सत्र कमें स्पष्ट विदित हो रहे हैं । अब उनके छिराने के निमित ] ये अलरूप-भरे स ( सामना करने में कैंपते हुए से) नयन [व्यर्थ ही] ‘बल-सौं हैं' (बल-पूर्वक सामने) क्यों किए जाते हैं। कत लपटइयतु मो गरें; सो न, जु ही निसि सैन । जिहिँ चंपक-बरनी किए गुल्लाला-हँग नैन ॥ ४९९ ॥ ( अवतरण )-खंडिता नायिका की उकि नायक से - | ( अर्थ )-[ आपके द्वारा ] मेरे गले में क्यों लिपटा जाता है। [ में ] वह नहीं हैं, जो रात को [ आपकी ] शय्या पर थी, [ तथा ] जिस चंपक-वरणी ने [ अापको रात भर जगा कर आपके ] नयन गुलाला के रंग के कर दिए हैं ॥ इस दोहे में मुख्यार्थ के साथ साथ कई फूल के नाम भी आए हैं-लपटइया ( इश्करेचा ), मोगरा ( एक प्रकार का बेला ), सोनजुही, निशिशयन (कमल), चंपक, बरनी ( वय ), गुलाला, नैन ( पंच-नैना )। इनसे अर्थ मैं यद्यपि कोई उपकार नहीं होता, तथापि कवि की चातुरी प्रकट होती है। इस प्रकार नाम का संग्रह कर देना एक प्रकार का मुद्रालंकार कहलाता है ।। १. रस ( २, ४) । २. रितु (४) । ३. जग्वै ( २ ), जुग्यै (४) । ४. बलि ( ३, ५ ) । ५. कित ( ५ )।
२०६ बिहारी-रत्नाकर नैंक उतै उठि बैठियै, कहा रहे गहि गेछु । छुटी जाति नह-दी छिनकु महदी सूकने देहु ॥ ५०० ॥ गेहु ( गृह )= घर ।। नह-दी= नखों में दी हुई अर्थात् लगाई गई ।। अवतरण )--स्वाधीनपतिका नायिका की सखो का वचन नायक से । नायिका के नख में मैंहदी लगाई गई है। नायक वहाँ उपस्थित है । सखी कहती है कि तुम्हारे सामने रहने के कारण नायिका को स्वेद सात्त्विक हो रहा है, जिससे उसकी मैंहदी सूखने नहीं पाती । अतः तुम क्षण मात्र सामन से टल जाओ, तो मैंहदी सूख जाय । सखी का अभिप्राय, नायिका का साविक प्रकट कर के, नायक के हृदय में प्रीति बढ़ाना है ( अर्थ )-नैंक (थोड़े समय के लिए ) [यहाँ से उठ कर उधर (आड़ में) बैठ जाइए, [ भला आप इस प्रकार ] क्यों घर को पकड़े हुए हैं ( घरघुसने बने हुए हैं ) । [ देखिए, आपके सामने उपस्थित रहने से, स्वेद साविक के कारण, इसकी ] नखों में दी हुई ( लगाई गई ) [ टटकी ] मेंहदी छुटी जाती है, [ सो उसको ] क्षण मात्र सूखने दीजिए ।