बिहारी-रत्नाकर/८
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ज्य हैहौं, त्य” होउँगौ हौं, हरि, अपनी चाल । हङ न करी, अति कठिनु है मो तारिबी, गुपाल ।। ७०१ ॥
१. निन ( ५ ) । २. छीको ( २ ), छींकी ( ३ ), छीको (४), श्रीको ( ५ ) । ३. छियो ( २ ) , जुवे (४, ५) । ४. हाँ (२) । ५. किए (२) । ६. चलत ( ३, ५), चलति ( ४ ) । ७. होहुँ ( २ )। ________________
३६० बिहारी-रत्नाकर ( अवतरण )-अवि अथवा कोई भक्त श्रीकृष्ण चंद्र के वृंदावनविहारी गोपाख-स्वरूप का उपास है। वह अपनी भावना के अनुसार भगवान् को अति कोमलांग समझ कर उनको श्रम नहीं दिया चाहता । इधर वह, अपनी परम दीनता के कारण, अपने को अत्यंत अधम तथा ऐसा महान् पातकी समझता है कि अपने को तारना भगवान् के लिए भी अति कठिन काम मानता है। अतः वह, सचे प्रेम तथा निरपेक्ष भक्ति की उच्च भावना के अनुसार, अपने कष्ट के निवारण के निमित्त भी, अपने भक्ति-भाजन को इतने कठिन काम में हठ कर के प्रवृत्त होने देना नहीं चाहता । भक्ति-भाव से मुग्ध हो कर वह उनका सर्वशक्तिमान् होना भी भूल जादा है - ( अर्थ )-हे हरि ! मैं अपनी चाल ( क्रिया-प्रणाली ) से जैसा हँगा ( होने वाली हँगा ), वैसा हँगा ( हो लँगा अर्थात् अपने भले बुरे कर्म के जो फल होंगे, उन्हें भोग लँगा ) । भेर तारना ( कर्मबंधन से छुड़ाना ) अति कठिन है, [ तुम इस काम में ] हठ मत करो ( हठ कर के प्रवृत्त मत हो ) [ ]कि इसमें तुमको बड़ा श्रम होगा। इसके अतिरिक्त अपने कमोवी अधमता के विचार से मुझे संदेह है कि आपसे भी। कदाचित् यह काम न हो सके ] ॥ परसंत, पोंछत लखि रहतु, लगि कपोल कै ध्यान । करं ले प्यौ पाटल, बिमल प्यारी-पउँए पान ।। ७०२।। पाटल = गुलाबी ।।। ( अवतरण )-नायिका ने नायक के पास सुंदर गुलाबी रंग बिए हुए पान, प्रेमोपहार-रूप से, भेजे हैं। नायक उनको पा कर, सादृश्य के कारण नायिका के कपोत्व के ध्यान मैं निमग्न हो, उन्हें स्पर्श करता तथा उन पर हाथ फेरता हुआ देखता रह जाता है ! उसकी यह दशा पान ने जाने वाली सखी किसी अन्य सखी से, उसके प्रेम का प्राधिक्य व्यंजित करती हुई, कहती है ( अर्थ )-[ नायक के प्रेम का वर्णन में क्या करू.] प्यारी के भेजे हुए गुलाबी [ तथा] विमल पानों को हाथ में ले कर प्रियतम [ उसके ] कपोलों के ध्यान में लग कर ( निमग्न हो ), [ उनको ] स्पर्श करता [ तथा ] पोंछता हुआ, देखता रह जाता है ॥ बामा, भामा, कामिनी कहि बोलौ, प्रानेस । प्यारी कहत खिसात नहिँ पावस चलत बिदेस ।। ७०३ ॥ बामा ( वाम )-इस शब्द का अर्थ सुंदर स्त्री है । पर वाम का अर्थ टेढ़ा भी होता है, अतः इसका अर्थ कुटिला भी हो सकता है । इस दोहे में नायिका, इस शब्द को साभिप्राय प्रयुक्त कर के, इसका अर्थ कुटिला लेती है । भामा = क्रेाधवती स्त्री । इस शब्द को भी नायिका ने साभिप्राय प्रयुक्त किया है । कामिनी= कामयुक्त सी । यहा इस शब्द का अर्थ स्वार्थिनी लिया गया है, और यह भी साभिप्राय प्रयुक्त हुआ है। ( अवतरण )-नायक वर्षा ऋतु मैं विदेश चखने को उद्यत है, और नायिका को प्यारी' शब्द से संबोधित कर के धैर्य देता है । उसके प्यारी' शब्द प्रयुक्त करने पर नायिका कहती है १. सरसत ( २ )। २. नंदलाल लालच-भरे ताकत तियान यान ( ४ )। ३. पठया ( ३ )। ________________
विहारी-रत्नाकर २६१ ( अर्थ )-हे प्राणेश ( प्राणों के ईश ), [ तुम मुझको अब प्यारी कह कर मत संयोधित करो, प्रत्युत ] वामा ( कुटिला), भामा (लड़की), कामिनी ( स्वार्थिनी ) [ इत्यादि। शब्द ] कह कर बोलो ( संबोधित करो)। क्या पावस ऋतु में विदेश चलते समय [ तुम मुझे ] प्यारी कहते खिसियाते नहीं ( लज्जित नहीं होते ) [ कि मेरे हृदय में और तथा मुंह में और है । तुम्हें इस अवसर पर प्यारी कहते अवश्य लज्जित होना चाहिए, क्योंकि प्यार का कोई प्राण लेना नहीं चाहता । पर तुम तो वर्षा ऋतु में विदेश जा रहे हो, जिससे मेरा मरण निश्चित है । अतः तुम्हें इस अवसर पर मुझे कुटिला, लड़ाका, स्वार्थिनी शब्दों से संबोधित करना चाहिए, क्योंकि तुम ऐसी ही तो मुझे समझते हो, तभी तो मेरे प्राण हरण करने वाले कार्य पर उद्यत हो । 'वामा' इत्यादि शब्दों से संबंधित करने से मेरी ओर जो सच्ची भावना तुम्हारे हृदय में है, वही मुख से भी विदित होगी, और तुमको मुंह में और, पेट में और' वाले वन कर लज्जित न होना पड़ेगा ] । उठि, ठकु ठकु एतौ कहा पावस कैं अभिसार । जानि परैगी देखियौ दामिनि घन-अँधियार ॥ ७०४ ॥ ( अवतरण )–नायिका पावस-निशा मैं अभिसार करने के निमित्त कृष्णाभिसारिका के ठाट ठाट रही है, अर्थात् श्याम साड़ी इत्यादि से सुसज्जित हो रही है, जिससे विलंब हो रहा है। अतः दूती, जो उससे शीघ्र अभिसार कराने के निमित्त उत्सुक है, कहती है ( अर्थ )-उठ ( शीघ्र चलने पर उद्यत हो ), पावस के अभिसार में इतने ठकठक ( बखेड़े, विधिवत् कृष्णाभिसारिका के पूरे ठाट ठाटने ) की क्या आवश्यकता है। [ एक तो तूने जो शृंगार कर लिया है, उतना ही बहुत है, और दूसरे चारों ओर ऐसे बादल छाए हुए हैं कि तू ] 'देखियौ' ( देखी जाने पर भी ) [ अपनी दामिनी सी यति के कारण इस ] घन के अंधेरे में बिजली जान पड़ेगी। कैवा आवत इहिँ गली रेहौं चलाइ, चलें न । दरसन की साधे है, सूधे हैं न नैन । ७०५॥ ( अवतरण )-परकीया नायिका नयन भर कर नायक की छवि देखने की अभिलाषा में है, परंतु लज्जा वश डट कर देख नहीं सकतीं-उसकी अभिलापा जी की जी ही मैं रह जाती है। अपनी यही व्यवस्था वह अंतरंगिनी सखी से कहती है | ( अर्थ )-'कैवा' ( कई वार )[ ऐसा होता है कि नायक के ]इस गली में 'अवत' ( आने पर ) [ में अपने नयनों को चला कर (नायक की ओर देखने पर उद्यत कर के) १. देखियों ( २, ३ ) । २. रही ( २ ) । ३. साधे ( २ ), सॉधे ( ३, ५) । ४. रही (२) । ५. होहिं ( ३, ५ ) । ________________
૨૯૨ बिहारी-राकर रह जाती हैं ( हार जाती हैं), [ पर ये उस ओर लज्जा-वश] नहीं चलते । [ अतः मुझे] दर्शन की साध (श्रद्धा, अभिलाषा ) ही रहती है ( बनी रहती है), [ क्योकि मेरे ] नयन [ नायक से सामना होने पर ] सीधे (उसके सामने, अथवा मेरे वश में ) नहीं रहते ॥ बेसरि-मोती, धनि तुहीं; को बूझै कुल, जाति । पीयौ करि तिय-ओठ को रसु निधरक दिन राति ॥ ७०६ ।। ( अवतरण )–नायक किसी नायिका पर अनुरङ्ग हो कर उसके अधरामृत-पान की अभिलाषा में आतुर हो रहा है। अतः, बेसर-मोती को उसके अधर पर विकास करते देख, उससे ईर्षा-सूचक वन, नायिका को सुना कर अपनी अभिलाषा व्यंजित करता हुआ, कहता है ( अर्थ )-हे बेसर के मोती ! तु ही धन्य है । [ तेरे ] कुल [ तथा ] जाति की कौन जॉच करता है [ कि तू, कुल तथा जाति के अनुरोध से, इस योग्य है अथवा नहीं कि इस परम सुंदरी के अधर-पान का अधिकारी हो सके। यदि इस बात की जाँच होती, तो त् इस योग्य न ठहरता, क्योंकि तेरी उत्पत्ति तो सीप से है, जो कि कोई श्रेष्ठ पदार्थ नहीं है, और जाति में तू एक हड्डी का टुकड़ा मात्र है ] [ इस सुंदर ] श्री के ओठ का रस [ जो मुझ ऐसे उच्च कुल तथा श्रेष्ठ जाति वाले को भी अप्राप्य है ] दिन रात निधड़क ( निःशंक, अर्थात् इस बात की शंका से रहित हो कर कि कहीं कोई देख न खे, और मैं हटा दिया जाऊँ) पिया कर ॥ यह दोहा किसी नीच तथा कुजति मनुष्य के उच्च पद पर पहुँचने पर अन्योकि भी हो सकता है। तिय-मुख लाख हीरा-जरी बँदी य” बिनोद । सुत-सनेह मान लियौ बिधु पूरन बुधु गोर्दै ।। ७०७ ॥ हीरा-जरी= हीरे के नग से जड़ी हुई । सुत-सनह = पुत्र-स्नेह से ।। बिधु पूरन = पूर्ण चंद्र ने । बुधु= एक ग्रह विशेष, जो कि चंद्रमा का पुत्र माना जाता है । इस ग्रह का रंग सामान्यतः हरित कहा गया है। परंतु मत्स्यपुराण में जन्म के समय इसका ‘चंद्र-सान्निभ' होना लिखा है । यथा तारोदराद्विनिष्क्रान्तः कुमारश्चन्द्रसन्निभः ।। सवर्थशास्त्रविद्धीमान् हस्तिशाम्रप्रवर्तकः ॥ २ ॥ ( मत्स्यपुराण, २४वां अध्याय ) |. कदाचिन् यहाँ देख कर केशवदासजी ने भी नाक के मोती की उपमा चंद्र-सुत अर्थात् बुध से दी है । यथा | किधीं गोद चंदजू के खेलै सुत चंद के । | ( कविप्रिया, प्रभाव १५, छंद ५५ ) १. विनोदु (४) । २. बुध ( ४) । ३. बिधु ( ४ ) । ४. गोदु ( ४ ) । ________________
विहारी-रत्नाकर २९३ ( अवतरण )-सखी नायक से नायिका की हीरा-जड़ी बँदी की शोभा की प्रशंसा करती हुई उत्प्रेक्षा-द्वारा उससे मिलने का अति उपयुक्त अवसर व्यंजित करती है ( अर्थ )-[इस समय उस] स्त्री के मुख पर हीरा-जड़ी बेंदी देख कर [ देखने वालों के ] विनोद (आनंद) बढ़ते हैं। [ उसकी शोभा ऐसी शुभ तथा सुहावनी लगती है, ] मानो पूर्ण चंद्रमा ने सुत-स्नेह से बुध को [ अपनी ] गोद में लिया है [ अतः इस समय उससे मिलने में आपको विविध आनंद, सौख्य तथा पुत्र-प्राप्ति का लाभ है ] । | इस उत्प्रेक्षा से चतुर सस्ती, एक प्रह-संस्था विशेष पर ध्यान दिलाती हुई, नायिका के सौंदर्य का वर्णन करती है। उसका अभिप्राय यह है कि जो आनंद तथा सुख ऐसी ग्रह-संस्था में होता है, वही इस समय उसके मिलने में सुलभ है । इस प्रह-संस्था के विषय में ज्योतिष का यह वचन है चन्द्रस्यान्तर्गते सौम्ये केन्द्रलाभत्रिकोणगे । स्वधैं नवांश के सौम्ये तुङ्गे वा बलसंयुते ॥ ३१ ॥ धनारामं राजमानं प्रियवादिताभकृत् ॥ विद्याविनोदसद्धी ज्ञानवृद्धिः सुखावहः ॥ ४० ॥ संतानप्राप्ति संतोष वाणिज्यादनलाभकृत् ॥ वाहनछत्रसंयुक्तं नानालंकारभूषितम् ॥ ४१ ॥ | ( बृहत्पाराशरहोरा, पूर्व खंड, अध्याय ३८ ) इस प्रह-संस्था का होना तो सखी ने “जियो बिधु पूरन बुधु गोद' कह कर व्यजित किया, और इस संस्था का केंद्र में होना स्त्री-मुख मैं हीरा-जड़ी बँदो का होना कह कर कह दिया, यक ची का स्थान सातदाँ माना जाता है, जो कि केंद्र-गत है। इसी प्रकार का कथन ६९० अंक के दोहे में भी है। गोरी गदकारी परें हँसत कपोलनु गाड़ । कैसी लसति गवॉरि येह सुनकिरवा की आड़ ॥ ७०८ ॥ सुनकरवा ( स्वकीटक )--यह एक प्रकार का सुनहला परदार कीड़ा होता है । इसके पर पॉखी के परों के प्रकार के तथा बड़े चमकीले, हरे रंग के होते हैं, जिनके काट काट कर स्त्रियाँ गोल अथवा लंबी बॉदयाँ बना लेती हैं। इनको लोग कारचौत्र के काम में भी सिलवाते हैं। ( अवतरण )-किसी ग्राम वधूटी की स्वाभाविक शोभा का वर्णन कोई रसिक स्वगत करता है ( अर्थ )-[अहा !]यह गारी गदकारी (गुदगुदे, अर्थात् कुछ मांसिल, शरीर वाली ) आँवारी (प्राम-वधूटी ) हँसते समय [ अपने ] कपोल पर गाड़ ( गड़हा ) पड़ जाने से [ तथा ] सुनकिरया [के पंख ] की आड़ ( आड़ी बेंदी ) से ( के कारण ) कैसी लसती (शेोभा देती ) है ॥ १. हँसति ( २ ) । २. इह ( ३, ५ ) । ३. सनुकिरवा ( २, ५), सनिाकरवा ( ३ ) । ________________
जौ ल लखौं न, कुल-कथा तौ लै ठिक ठहराइ । देखें आवत देखि हाँ, क्यौं हूँ रह्यौ न जाइ । ७०९ ॥ ( अवतरण )-उच्च कुलोपयुक्न चरण-लजा, परपुरुप को न देखना इरग्रादि-की शिक्षा देती हुई सखी से नायिका कहती है ( अ )-[ तेरी यह ] कुलोचित [ आचरण की ] कहानी तभी तक ठीक ठहरती है। (उचित जान पड़ती है, अथवा हृदय में ठहरती है ), जब तक [ मैं नायक को ] नहीं देखती । [ पर नायक के ] देखने पर देखे ही आता है ( देखते ही बन पड़ता है), [ और विना देखे ] किसी प्रकार रहा नहीं जाता ॥ सामाँ सेन, सयान की सबै साहि के साथ। बाहुबली जयसाहिजू, फते तिहारै हाथ ॥ ७१० ॥ जयसाहि= बिहारी कवि के आश्रयदाता, ग्रामेरगढ़ के महाराज जयसिंह । उनको बादशाह के दरबार से 'शाही' की उपाधि मिली थी । ‘जयशाही’ का शब्दार्थ विजय पर शाही, अर्थात् प्रभुत्व रखने वाल, हो सकता है, शीर निहारी ने इस दोहे में बादशाह की जय का उनके हाथ में, अर्थात् उनके वश में, होना कहा है, अतः ‘जयसाहि' शब्द का प्रयोग यहां साभिप्राय हे ।। ( अबतरण )-काव राजा जयशाही की स्तुति करता है-- ( अर्थ )-[ यद्यपि ] सेना [ तथा ] सयानपने ( युद्ध-कौशल ) [ इत्यादि के सब ही सामान ( सामग्री ) शाह ( दिल्ली के बादशाह शाहजहाँ) के साथ उपस्थित ] हैं, [ तथापि, ] हे वाहुवली ( अपनी भुजाओं के द्वारा बली ) जयशाहीजी, [ बादशाह की ] फ़तह (विजय ) तुम्हारे [ ही ] हाथ में है ॥ इस दोहे मैं कई एक पक्षियं के नाम मुद्रालंकार की रीति पर आए हैं-( १ ) सामाँ ( श्यामा )=पक्षी विशेष, जिसका लाग उसकी मीठा बोली सुनने के निमित्त पालते हैं। ( २ ) सेन ( श्येन ) =एक प्रकार का बज । ( ३ ) सयान ( सचान, संसान =बहरी । ( ४ ) बै=बया पक्षी, जो खेल सिख जाने के लिए पाला जाता है । ( ५ ) साहि ( शाह )---फ़ारसी में शाह एक प्रकार के बाज़ को कहते हैं । ( ६ ) फते ( फ़तहबाज़ )-फारसी में फ़तइबाज़ एक प्रकार के बड़े बाज़ को कहते हैं। यौं दल काढे बलक हैं हैं, जयसिंह भुवाल । उदर अघासुर कैं परै ज्यौं हरि गाई, गुवाल ।। ७११ ॥ ( अवतरण )-कवि राजा जयसिंह की शुश्ता तथा कार्य कुशलत' की स्तुति करता है( अर्थ )-हे जयसिंह भूपाल, तूने [बादशाही] दलों ( सेनाओं) को { जो कि शत्रुओं १. लखें ( ३ ), लखे ( ४, ५ ) । २. ठिक तौ लॉ ( ३, ४, ५ ) । ३. हूँ ( २ ) । ________________
बिहारी-रत्नाकर से घिर गए थे] बलक (बलख ) से इस प्रकार [ सकुशल ]निकाला, जिस प्रकार अघासुर के उदर में पड़ने पर गायों [ तथा ] ग्वालों को हरि ( श्रीकृष्णचंद्र ) ने [ निकाला था ]॥ सन् १६४७ ईसवी में शाहजहाँ के आज्ञानुसार औरंगजेब ने, जो कि उस समय दक्खिन का सूबेदार था, बलख़ पर चढ़ाई की थी । उसके साथ मिर्जा राजा जपशाही भी थे। उस चढ़ाई में सफलता प्राप्त नहीं हुई, और शत्रु के अाक्रमण से ऐसी विपत्ति उपस्थित हुई कि औरंगजेब को ऑक्टोवर मास के आरंभ मैं वहाँ से लौटना पड़ा, और वह २७ ऑक्टोबर को काबुज पहुँच गया । पर उसकी सेना मिज़ा राजा जयशाही के साथ पीछे रह गई, जो, बड़ी कठिनता नथा आपत्तियाँ झेलने के परात्, १० नवंबर को काबुज पहुँची । सेना को बर्फ तथा शत्रु से बचा कर निकाल लाने में जयशाही ने बड़ी ही बुद्धिमानी तथा वीरता दिखलाई थी ॥ घर घर तुरकिनि, हिंदुनी देहिँ असीस सराहि ।। पतिनु राखि चादर, चुरी हैं राखी, जयसाहि ॥ ७१२ ॥ ( अवतरण )-यह दोहा तथा इसके पूर्व के दो दहे, ये तीन परस्पर संबद्ध हैं। पहिले (७१२-संख्यक ) दोहे से कवि जयसिंह के शौर्य तथा चातुर्य की सामान्यतः प्रशंसा कर के दूसरे (७११-संख्यक ) से उनके एक विशप अवसर के शोर्य तथा चातुर्म को लक्षित कर के उनकी प्रशंसा करता है, और फिर इस दोहे से, उक्त अवसर विशेष पर के कार्य से प्राणदान पाए हुए तुका तथा हिंदुओं की विधवा होने से बची हुई खियाँ के द्वारा, उनको आशीर्वाद दिलवाता है, क्योंकि ग्रंथ-समाप्ति है, और ऐसे अवसर पर नृप-स्तुति तथा उनके आशीर्वाद देना समीचीन ही है ( अर्थ १ )-हे जयशाही ! [ जब तु अलख से बादशाही सेना बचा कर ले अाया, तो उसमें जो मुसलमान तथा Gिदू मैनिक थे, उनकी स्त्रियाँ विधवा होने से बच गई, अतः ! घर घर तुर्किनियाँ [ तथा ] हिंदुनियाँ [ तरी ] सराहना कर के-[ कि वाह रे !] जयशाही, तूने [ हमारे ] पतियों की रक्षा कर के [ हमारी] चादर [ तथा ] चूड़ी रख ली ( हमको विधवा होने से बचा लिया )-[ तुझको ] असीस ( आशीर्वाद ) देती हैं ॥ ( अर्थ २ )- चलख से निकाल लाने के कारण ] घर घर में तुर्किनियाँ [तथा] हिंदुनियाँ[तुझके] सराह कर असीस देती हैं। क्योंकि उनके] पतियों को बचा कर, हे जयशाही. तून [उनकी] चादर [तथा] चूड़ी रख लीं (उनको विधवा होने से बचा लिया )॥ | विधवा होने पर मुसलमान की स्त्रियाँ चादर तथा हिंदु की स्त्रियाँ चुदा उतार डालती हैं। हुकुमु पाइ जयमाहि कौ, हरि-राधिका-प्रसाद ।। करी बिहारी सतसई भरी अनेक सवाद ॥ ७१३ ॥ ( अवतरण )-ग्रंथ की समाप्ति पर ऊपर लिखे हुए तीन दोहाँ से नृप-स्तुति कर के तथा नृप को आशीर्वाद दिलवा कर अब इस दोह से कवि ग्रंथ निर्माण का कारण, निर्माण कराने वाले का माम, अपना नाम तथा ग्रंथ का नाम विदित अरता है ________________
२९६ बिहारी-रत्नाकर | ( अर्थ )-[राजा ] जयशाही को हुक्म पा कर, श्रीहरि ( श्रीकृष्णचंद्र )[ तथा ] श्रीराधिकाजी के प्रसाद ( प्रसन्नता, कृपा ) से, [ मुझ] बिहारी [ नामक कषि ] मे [ यह ] अनेक सवाद (रस ) से भरी हुई सतसई [ नाम को पुस्तक ] करी ( बनाई, रची ) ॥ | यह दोहा हमारी पाँच प्राचीन पुस्तकों में से केवल दो मैं, अर्थात् सोसरी तथा पाँच पुस्तक *, है, और वास्तव में ये ही दोन पुस्तकें पूरी और माननीय भी हैं। इनमें से तीसरी पुस्तक, मानसिंह की टीका-सहित, संवत् १७७२ (वैशाख-कृष्ण-द्वितीया ) की लिखी हुई है। मानसिंह ने इस दोहे की टीका में लिखा है *ि बिहारी ने सात सौ तेरह दोहे बनाए हैं। यह दोहा ७१३ के अंतर्गत भी आ जाता है, और मानसिंह की टीका भी इस पर है, अतः इसके विरारी-कृत होने में संशय नहीं, यद्यपि, हरिप्रकाश तथा लालचंद्रिका के अतिरिक्त, अन्य किसी टीकाकार के ग्रंथ *, अथवा विना टीका के किसी हस्तलिखित ग्रंथ मैं, यह हमको नहीं मिला। ग्रह ऋघि निधि ब्रजचंद पाइ अनुकूल बरष बर । ऋषिपंचमी पुनीत, सुक्न भादों, रबि बासर ।। शोभा लखत नसीम-बाग, कसमीर-कुधर की । करि रचना यह रुचिर ‘बिहारी-रत्नाकर' की ।। निज छप्पनवें बयग्रंथि-दिन हरष्यौ रतनाकर-हियौ । श्रीजगदंबा-अवधेश्वरी-करकमलनि अर्पित कियौ ।
उपस्करण---१ [ बिहारी-रत्नाकर-स्वीकृत दोहाँ की अकारादि-क्रम सूची] । ________________
विज्ञप्ति इस उपस्करण में विहारी-रत्नाकर स्वीकृत दोहा की अकारादि क्रम से सूची दी जाती है, जिसमें पाठकों को काई दोहा विशेष खोज निकालने में सुर्व ता हो । इसमें अन्य छपी हुई टीकाओं के क्रमों के अनुसार भी दोहों के अंक कोष्ठा में दे दिए गए हैं, जिसमें उक्त टीकाओं में भी दोहे सरलता से निकाले जा सके। । यद्यपि भूमिका में विहारी-ग्नाकर को मिलाकर सत्र ५२ टीका का कथन किया गया है, पर उनम से केवल ये ४ टीकाएँ छपी हैं - ( १ ) कृष्ण कवि की टीका, (२) हरिप्रकाश-का,( ३ ) लाल-चंद्रिका (४) ऋगारसप्तशती, (५) रस-केमुदी, (६) पं० प्रभुदयालुजी की टीका, (७) विहारी-विहार, (८) पं० ज्वालाप्रसाद मिश्रजी की 2ीका, ( 8 ) गुलदस्तए-विहारी, (१०) सजीवनभाष्य, (११ ) विहार-वोधिनी, (१२) गुजराती टीका, (१३) पं० रामवृक्ष की टीका और ( १४ ) बिहारी-रत्नाकर ॥ अतः इस सूची में इन्ह १४ टीकाओं के अंक देना उचित प्रतीत हुआ । शेष टीकाएँ दुष्प्राप्य हैं; उनके अंक सामान्यतः पाठकों के निमित्त व्यर्थ होते । मानसिंह की टीका के अंक केवल 'बिहारी-रत्नाकर' के क्रम में स्वरूप परिवर्तन दिखाने के निमित्त दिए गए है ।। प्रथम कोष्ठ में दोहों के आदि के शब्द अकारादि क्रम से दिए गए हैं, और द्वितीय कोष्ठ में मानसिंह की टीका के अंक । शेष सात कच्चों में मुद्रित टीकाओं के अनुसार दोहों के अंक है ।। कृष्ण कवि की टीका में, जे नवलकिशोर-प्रेस से निकली है, बीच बीच के कई दोहे छोड़ दिए गए हैं। हमने जो अंक इस सूची में दिए हैं, वे उक्न टीका की कई प्रतियों के मिलान से शुद्ध करके, अतः छपी हुई पुस्तक के अंक से हमारे अंकों में कहाँ कहाँ १-२ तथा कहीं कहीं ८-१० अंकों का अंतर पड़ गया है । पाठक छपी हुई पुस्तक में दोहा खोजते समय ५-७ दोहे आगे पीछे देख लें । कवि सवितानारायण जी की गुजराती टीका के दो का क्रम कृष्ण कवि की टीका के क्रम के अनुसार ही है। | गुलदस्तए-बिहारी, बिहारी-बोधिनी तथा श्रीरामवृक्षजी की टीका, इन तीनों ग्रंथों में हरिप्रकाश-टीका का क्रम है ॥ बिहारी-बिहार, स्वर्गीय पं० ज्वालाप्रसाद मिश्र को टीका तथा संजीवन-भाष्य में लाल-चंद्रिका का क्रम स्वीकृत किया गया है ।। ऋगार-सप्तशती में सामान्यतः लाल-चंद्रिका का क्रम है, किंतु उसमें कुछ ऐसा हेरफेर पाया जाता है कि उसके अंकों के निमित्त एक पृथक् कोष्ठ रखना उचित समझ पड़ा। इसी कारण पं० प्रभुदयालुजी की टीका को को भी अलग रखा गया है, यद्यपि उसमें सामान्यतः कृष्ण कवि की टीका के क्रम है। का अनुकरण है॥ ________________
अं* परै न अरे, परेको अरुन-बरन अरुनसरोरुह अरी, सरी सटपट अलि, इन खेइन-सरनु अर हैं टरत अब तजि नाउँ अपनै कर गुद्दि अपने अंग के अनैं अपनें मत लगे अपनी गरजनु अनी बड़ी उमड़ी अनरस हूँ अनत बसे अनियार, दीर अधर धरत अति अगाधु अर्ज न आए अर्ज तखोना अंग अंग-प्रतिबिंब अंग-अंग-नग अंग अंग छवि अँगुरिनु उचि [अ] दाहों की अकारादि सूची
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- * * * * * * * * * * * * मानसिंह की टीका * * * * * * * * * * * * ६ | विहारी रत्नाकर
उपस्करण-१ कृष्ण कवि की टीका १ ४६३ | ३८६ । ५७ १ | ५ ६ ५१९ ४५६ । । | १: ५५७ ६८३ ३७१ चंद्रिका
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- ० ० * ० ० * ० ० ० * * ० * * ० ० हैं ० हैं ० ० ० ०
| रत-कौमुदी ________________
उने हरकी उनकी दिनु उति गुड़ी इह आस उठि, ठकु ठकु इ६ि को इहि वसंत न इहिँ छैहाँ उयौ सरद-राका-ससी इन दुखिया रती भीर हैं। इत ते उत रत श्रावति इक भीजै, चहले [ उ ] | अावत जात आयौ मीतु अषु दियो अड़े दे असे आज कळू श्राप अापु अहे, दड़ी अहे, कहै न [ 7 ] [३] दोहों की अकारादि सूची ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ मानसिंह की टीका ॐ ॐ | बिहारी-रत्नाकर २३१६३१ । २६४ | ३११ बिहारी रत्नाकर टीका
- * * * ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ० ॐ ॐ ॐ ॐ
- * * * * * * * * ॐ ॐ ६ ६ ६ ६ ६ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
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ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
- * | हरिप्रकाश-टीका
ॐ | लाल-चंद्रिका ॐ ॐ शृंगार-सप्तशती
- * * * ०
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० * *
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- * | रस-कौमुदी ________________
उपस्करण दोहों की अकारादि सूची टीका
- * * मानसिंह की टीका
- * | बिहारी-रत्नाकर * * * | कारण कवि की
- * | हरिप्रकाश-टीका
- * | लाल-चंद्रिका १ • * | श्रृंगार-सप्तशती
० ० ० | रस-कौमुदी । उर मानिक की उरलाने अति उरु उरुझ्यौ [ ऊ ] ऊंचे धित ७५ ३७४ ६६ । ६१३ ०
- * * * ६
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६ ०
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- * * * ६
० ० एरी, ३ तेरी । [ ] ] पेंचति सी चितवन . [ ओ ! ओछे वड़े न ओठ चै, हाँसी-भरी [ श्री ! आधाई सीसी और सबै हर पी श्रीरे-अप औरै गति, अरे वचन औरै भाँति [क] कंचनतन-धन-वरन कंज-नयनि मंजनु कत कहियत कत वेकाज कत लपटैयतु कत सकुचत
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६
- * * ० * * * ॐ ६ ६ *
० ० ० १५ ४.५ ४:५२ । ३५६३५६७६ १४६ ५२२ ० ० ० ५२०५२, ३५१ ४०७ | ४४६ । १४६ ३७१ ३६७ १६८ ४६६ ! ४६६।३५० ४११ । १६२ | १८७ | २८६ | २८६ ३७४ ४०३ : १६० | १०५ ० * ________________
विहारी रत्नाकर दोह की अकारादि सूची टीका • 3 | रस-कौमुदी | ४१२ ३९४ ४२६ | १६ | ५८६ १५८ ६६६ ५१६ ! ५१६ ४६३ कनकु कनक हैं कन देब। सान्यो कपट सतर भा ह कब की शान कब को रतु कर के मोड़ करतु जातु जेती करतु मलिन कर-मुंदरी की कर ले, चूमि कर ले, सँग्नि कर समेटि करी बिरह ऐसी करु उठाई। कर चार सी करी कुवत जगु कहत, नटत कहत सबै कवि कहत सबै, बेदी कहति ने देवर की कलाने एकत कहा कहा बाकी कहा कुसुम कहा भयौ जी का लड़ते दृग ६ ६ ६ ॐ ! ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ है । * * * * * * * *: * मानसिंह की टीका
- * * | लाल-चंद्रिका * * * * * * * * * * * * * ४ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | हरिप्रकाश-टीका * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * *
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | शृंगार-सप्तशती ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ • • • • * * ० * ० ० ० ॐ ११६ ११८ १११ १६ ८५ | ८५ ६२९ ५६५ ५२६ । २५४ १११ ११० | ४७१ २७७ | २९ ५१२ | ५१२ ८१ । १४५ ५१६ | ४३२ | ७= ८० ५७ ! ५७ ४७८ ५०६ । ३६७ ३८७ | ४७१ | १५० । १५४ १५४ ! २५१ | २८० २२७ २५२ | २४७ | ० ________________
| को कहि सके बड़ेनु 1ऊ कोरिक कैसे छोटे नरनु 1 कैवा आवत इहि केसरि कै सरि क्यों कुढंगु कोषु तजि केसर केसरि-कुसुम कुटिल अलक कुन-गिरि चढ़ि कुंज-भवनु ताज कीनें हैं कोरिक । कीजै चित सोई 1 कियौ सयानी | कियौ सबै जगु । कियौ जु, चिबुक किय हाइलु किती न गोकुल कालबूत दूती । यारे-बरन उरावने कागद पर लिखत कहं यह श्रुति कहे जु बचन कहि, लहि कौनु कहा लेहुगे कहि पठई जिय दोहों की अकारादि सूची ४३१ । ४३१ | १६५ ॐ ६ ६ ६ ६ ६ * * !! * * * * * * * * * * * * * मानसिंह की टीका * 2 ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ |बिहारी-रत्नाकर उपस्करण-१ कृष्ण कवि की टीका ।
- * • * f६ ६ ६ ६ ६ ६ हैं । ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | हरिप्रकाश-टीका * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * | लाल-चंद्रिका * * * * * * * * * * ६ ६ ६ ६ ६ ६ * * * * * * * | शृंगार-सप्तशती
IPI
- ० ० ० ० ० ० ६ ० ० हैं ० ० ० ० ० ० ० ० * * ० ० ० ० | रस-कौमुदी ________________
विहारी-रत्नाकर दोहों का अकारादि मुची टीका की टीका " | रस-कौमुदी | को छुट्यो इहि '६७१ । ६७१५८३ | ६६४ ६६८ के जाने, ह्रदै १५१ : १५० | १३४ १८८ २५१ २६८ केरि जतन की ३8 । ३७ ३१८ ! २४ ७५ ६७ | ३०५ कोरि जतन कोऊ का, तन करि जतन कोऊ कर, परे । केहर सी एड़ीनु की कोड़ा आंसू-वृंद २३२३० ११३' ५२६ ४०१ ३६१ । ११० ० कोन भाति रहि है : ३१ । ३१ ५७८ ६६३, ६८ ६८२ ५६७ कोनु सुने । ६३ । ६३ : ४१? | ११:१० ३८१, ४८७ : ६८१ क्या यसि ४०७ ४७, १४३ २६ ३७५ : २७६ | १३९ १०६ क्याहू सवात न * ३१० | ३.६ ! ४०२ : ४४७ ३७६, ३६८ ३६५
- * * * * * * * * * मानसिंह की टीका * * * * * * * * * * * | विहारी-रत्नाकर
- * * * * * * | हरिप्रकाश टीका * * * * * * | लाल-चंद्रिका
- * * | शृंगार-सप्तशती * * * * * * * * * *
० ० ० ६ ! ० ० ०
- ४४० ४५० ! २२३ ! १४
४६२ । ५०५ २१६ : ०
- * * * * * * * * * * * * * *
| ४४४ ४४५, ३२३ । २१६ २६४ २१: ३८ ६५३ । ६५.३ ५२६ ३६० ६१६ ३१६ ५२० । ६ ख़री पातरी खरी लसति खर खल-बढ़ई खलित वचन खिचं मान अपराध खिन खिन में खेलन सिखए खौरि-पनिच [ ग ] गड़। कुटुम गड़े बड़े छवि छाक गढ़-रचना
- * * * * * * * * * *
। ॐ ॐ ॐ * * * ० ० ० ० ० ० ० २०६ २०२ १४९ २५६ ३१३ ३०५ १४५ : ४५ : ५५ ५२ ! ५१ ४५८ ४६९ ५१ १:४; १८३ । ४९ ४५.३ ५६५ ० ' ५१८ | s८ ६६ ४३८ । ४६८ ६६ ० ४४८ ! ४४८ ३७३ । १०० | १७६ १७८ | ३६६० ३१६ ३१६ | ६६० ! ४७ ५६६ ! ५८९ | ६८४ | २६६ ________________
चमक तमक अटक न छड़तु घाम घरी चकी जकी सी घरु घरु डोलत घन-घेरा | घर घर तुरकिनि गई न गोरी छिगुनी। गोरी गदकारी गोपिनु सँग गोपिनु के गोधन, तें गोप अथाइनु गुनी गुन गिरै कंपि गाढ़ ठाढ़ गिरि ते ऊँचे गह अबोलौ गहिला, गरवु गहकि, गाँसु गली अंधेरी गनती गनिमें गदराने तन को [ च ] [ 9 ] दोहों की अकारादि सुची ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ मानसिंह की टीका ६ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ६ = |विहारी-रत्नाकर उपस्करण --१ | ३७ । ३७७ ५६.१ ६७ ३१३३१३ २१३ , ४४२ । ३६६ ३६० ६४२ ३५१ : ३५१ २५१ २५१ ६६५ ६ । ४६१ : ४६२ : १२ ६३३ ६३३ ५५६ ५५ ' ५२ ५५ ६८०
६६६६१९ ६५६ ४९८ ५१२ ५३ ६५३ । २५३ २६३,३६७, २५१ २१ ६७५ : २७५ { ४३७ ५३१४३१ | टीका
- * * * * * * ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
हैं !
- * * * * * * * * * * * * * * * | हरिप्रकाश-टीका ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | लाल-चंद्रका * * * * * * * * * * * * * * * * ऋगार-सप्तशः
| ५८४ ६७६ की टीका ० ० ० ० ० ० ० ० ० ६ ६ ६ ६ ६ ० ० ० ६ ० ० ० ० । रस-कौमुदी ________________
1. छाक रसात चुक्नु स्वेद चुनरी स्याम चिलक चिकनई चिरञ्जीवा चितु वितु वचनु चितु दे देखि चितु तरमनु चितवनि रुग्वे चितवनि भागे चितवत जितवत चित पितमारक चितई ललचाह चाह भरी चाले की बात चल्या जाइ चल चले चलित ललित चलन न पाउनु चलतु बरु অলর দায় चल देत चलते चलते [ छ ] चमचमात दोहा की अकारादि सूची ! १२
- *
५४७ ५४७ २६२ २६२ : ५१६
- * * * * * * * * * * * * * * * * ६ ६ * * * * * * * * * * * *
- * * * * मानसिंह की टीका * * * * * | बिहारी-रत्नाकर
बिहारी रत्नाकर टीका | ५२७ | ५६० | ५६५ | ५५७ | ५२१
- * * * 2 ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ हरिप्रकाश-टीका * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * | लाल-चंद्रिका * * * * * * ० ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | श्रृंगार-सप्तशती
की टीका
- * * * * * हैं ० ०
० ० * ० * ० ० ० ० * * * | रस-कौमुदी ________________
। ज जदपि नाहि जदपि तेज जबपि चवाइनु जटित नीलमनि जगतु जनायो जंघ जुगल झै छिगुनी छुटै न लाज छुटे छुटावत छुटन न पैयतु छुटत मुठिनु छुटी न सिसुता की छिरके नाह छिप्यौ छवील छिप छिपाकर छिनकु, छत्रीले निकु चलति छिन उघारति छाले परिबे के छला परोसिनि छला छबीले छती नेहु उझकि [ज ] दोहाँ की अकारादि सूची
- * * * * * * * *
१५३ १५३ | ५३८ ५.३८ | १६६ ५८८० ३४५ ५०४ : ५.०४ | १९८ ३८६ : ३८४ | ३३७ |
- * * * * * * मानसिंह की टीका * * * * * * * | बिहारो-रत्नाकर
३.? | ३७६ । १२३ । १६३ | २२ ! १७६ ३९६ : ४७५ उपस्करण-१ कृष्ण कवि की । | टीका
- * 2 2 ॐ ॐ ॐ
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ७ | ५०६ | ५२० ॐ ॐ हरिप्रकाश-टोका | लाल-चंद्रिका * * | ऋगार-सप्तशती • * * * *
- * * * * * * * * * * * *
० ० ० ६ ० ० ० ० ० ० ६ ० * ० ४ ० ० ० ० * ० * ॐ | रस-कौमुदी । ________________
विद्दार-रत्नाकर देहों की अकारादि सूची मानसिंह की टीका कृष्ण कवि की । टीका हैं ० । रस-कौमुदी ६८५ ६८५ २१४ । ८७ : ६५८ ६५८ ६८२ २५५ ३३७ ३१९. ३४७ ३७६ ५६० ० ६४१ ६३७ | १४५ १४१ ६४२, ६८० ६६६६६६ ! ६३६ ६५ । ६२ १५१ : ५१० : ४१ ४०० २१ २१ ६३५६७८ ६६८, १६४ ३८४३०४ ११६, १३१ । ४६१ ५०४ १५७ १५७ १२८ २३७ ६६८ २९५ जदपि ताग जद्यपि सुंदर जननु जलधि जपमाला, छाप जय जब वे जम-कर-मु-तेरहरि जरी-कर जसु अपनयु जहाँ जहाँ टाढू। जाकं पकाए। जात जात त्रिनु जात सयान जाति मरी मिरी जालरध-गग जिन दिन देख जिहि निदाघ जिहि भामिनि जुरे दुनु के जुवति जान्ह जे तव होत जैतो संपति जोग-जुगति जो तिय तुम जन्ह नहीं जो सिर धरि ॐ ॐ ॐ ॐ तु मानसिंह की टीका * * * * * * * * * * * * * * * * * 3 | विहारी-रत्नाकर ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ६३७ ६.६ ६७६ ६७० ६३५ हरिप्रकाश-टीका ॐ ॐ ॐ ॐ | लाल-चंद्रिका ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ • * * * * * * * * * * * * * * * | शृंगार-सप्तशती ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ * * * * * * * * * ॐ ॐ ॐ ६७७ २७७ ३२६ ५३२ २४९ । ६४० | ७१३ १११ २६३ २६३ १४ : ३६४ ३२६ । ३१८, ५० २५५ ५५' १८७ ६५५ ६३१६६५' ५८१३०९ | २४४ २४४४३५ : २३३८३ ६७४ ४२८ २०३ ६०७ ६०८ ३५३ ४६३ । १७५ १७१ ३४६ १६६ : १६= १६७ ६६ : ६१ ५४ १६३ | ७ ७ ३४७३१५ : १६० १५७ ३४० ६१५, ६१५ १४७ २०८:४७० ४.३ १४३ | १०६ १११६७२ । ६२२ ५९३ । ५. ६ ६३६ १३ : १३ ६०७ | १४ ४५७ : ४१८ २०३ '६५८ ५५= ३३४ २३४ ६८५ ८६ | १२० : ४० : ६८ ४३० ४३० ६५६ ० ० ० ६ ० * * * * * * * * ० ० ० ० ० * . ________________
उपस्करण --१ R 1. दोहों की अकारादि सूची ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ मानसिंह की टीका ७५ ७५ : ६८६ १८६ ५४७ | ५३८ ७०६ | ७०६ २६० २३१ १०४ ! १०३ ! १४१ | १४२४६५ २७६ ३०८ ३०३ ४५८ २०३ ६६१ | ६५७ ५०१ | ६०७ ५४१ ५३२ : ४६५ । । | ५४३ १४० ३२६ ! १५४ १५१ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | हरिप्रकाश-टीका ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | लाल-चंद्रिका * * * * * * * * * * | शृंगार सप्तशती ० * * * * * * * * * * | रस-कौमुदी = =-- -= जौ चाहत जौ न जुगति जौ ल लख जौ वाके तन । ज्य कर, त्या ज्या ज्या वति | ज्यौं व्या जोवन | ज्यौं ज्यों पटु । ज्यौं ज्यों पावक | ज्या ज्या वढ़ति ज्या छैहे, त्या | [ झ ] झटक चढ़ति । भने पट में । झुकि झुकि झूठे जानि । | [ ट ] ! टटकी घाई टुनहाई | [ ड ] | डगकु डगति सी डर न टरै डारी सारी नील की डारे ठोड़ी-गाड़ डिगत पानि
- * * ॐ
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ * * * * ० * ० *
- *
ॐ ॐ ॐ ॐ * * ०
- * * * *
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ * ६ ६ ६ ६ • 2 ॐ ॐ ० ________________
विहारी-रत्नाकर दोहों की अकारादि सूची
- * मानसिंह की टीका * * | बिहारी-रत्नाकर
कृष्ण कवि की टीका हरिप्रकाश-टीको
- * | लाल-चंद्रिका * * | शृंगार-सप्तशती
० ० | रस-कौमुदी ३३३ । ३३३ । ७३ १६३ १६६ १५१ ६५ । डीठि न परत डीठि-बरत | [ ] दरे दार। दीठि परोमिनि ढोठ्यो दे दोरी लाई २३२ २३२ ११५
- * * * * * * *
- * * * * * * *
० ० ० ० १७१ १७० ४६६ २०१ २०१ ३१४ | ३१६ | २१८, २७६ ६४४ } { ४४ ० । =- = -=--= तंत्री-नाद । तच्यौ आंच तजतु अठान तजि तीरथ तजी संक तनक झूठ तन भुवन तपन-तेज तर झरसी तरिवन-क्रनकु तरुनकोकनद तिय, कित तिय-तरस हैं। तिय-तिथि तिय निय हिय तिय-मुख तीज-परव ३४५ | ६४३ ५५१ : ५५ ५८३ | ३२ । ३२८, ४८१ : ५४१ ४०३ । ८२ :३ ३१७ १३६, १३ १७० १६६ ३६४३८७, १८० | १७७ ३५६ ! ३५६ ६३१ । ७६ ४६७ | ४७८ ! ६५६ ४८४ ४८४ : ५४१ : ५६७ :७२ | ५६५ : ५३५,
- * * * * * * : * * * * * * * * *
- * * * ६ ६ ६ हैं * * * * * :
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- * ० * ० ० ० ० * * ० * ० ० ०
२६. २६ ४३० ६१० २६१ | १७३ | ४५३ ७८७ ७८७, १८६ ४६ ४४८ | ४५६५८२ । ३१५ ३१५३१८ १३३ | ३३३ | ३६५ ३१३ ________________
दियौ तु पिय | दियौ अरघु दिन दस दच्छिन पिय थोरै हाँ गुन थाकी जतन त्रिवली नाभि त्यौं त्यों प्यासे तौ लगु या मन तौ बलियै तौ अनेक तो ही कौ छुटि तोही निरमोही तो लखि मो मन तो रस-राँच्यो ते पर वारी तो तन अवधि तेह-तरेरौ ६ रहि, हाँ हाँ हूँ मोहन-मन हूँ मति माने तुहूँ कहति तुरत सुरत | [थ] [३] दोहों की अकारादि सूची । ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ मानसिंह कीटका ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | बिहारी-रत्नाकर उपस्करण कृष्ण कवि की । टीका २५८ | ४४० ।।
- ॐ ॐ ॐ * * * * ॐ ॐ ॐ ॐ
ॐ ॐ * * ॐ ३६८ २४8 | २८६ ६५८ २८६ । ५४८ ४११ | ४५६ ६९ ३४० | २८१ ३२४ | ३१६, ३३३ २३२ ३५० ८ । ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ हैं है है * * * | हरिप्रकाश टीका * * * * * * * * * * * * * * * * | लाल-चंद्रिका ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | शृंगार-समशती प्रभुदयालु पाँडे को का।
- ० ० ० ० * * ० ६ ६ ६ ६ ६ ० ० ० ० | रसकोमुदी
० ० * *
- ________________
विहारी-रत्नाकर दोहों की अकरादि सूची कृष्ण कवि की टोको
- * ० * ० ० * ० | रस-कौमुदी
दियौ, सु सस | दिसि दिमि कुसुमिन दीप-उजेरे दीग्ध सॉस दुखाइनु दुचितं चित दुग्न न कुच दुर न निघग्घट्यो दुसह दुराज दुसह विरह दुसह सोति दृरि भजते दृग्या खरे दृग उरकत | दृग थिर है दृगनु लगत दृग मिहनत देखत कछु देखत बुरे देखी से न जु । देखो' जागत । देण्यी अनदेख्यौ देवर-फूल-हने | देह दुलहिया | देह-लग्यौ ५१ ५१ | ६२० ५६२ ५९२ | २६ २४४ २६४ २६४ | ६५९ २२६ ३४६ । १८ १८ ! २२६ : ११४ ! ४६६ ५१३ ४०२ : ४८२ ३७२ । ४६५ १३ ३५७ | ३५७६९९ ६३२ ६०५ ६६६६६६ ४२८ ४८५ ६६३ । ३८२ ६०० ६०० ३२२ १६४ ११२ : १११ ४२८ | ४२ ६४४ | ६८८ ६७४६६६ | ६३८ । ६३८ | ६३८ १६८ ७७ ६४ : ५५ ३६३ । ३६३ | ६३२ १६२ | २७३ : २७० | ६२७ १४२ | ६६२ : ६६२' ५०० ६०६ ५४२ | ५३३ ! ४६५ । ३४६ ३४९ ११२ ५७ ४६२ ४७३ ! १०६ १९८ २०० ५१६ ! ३५१ २१३ । २०८ ६३४ | ६३४. १२० २७० ४२ ४४ । ६० | १ ४६९ २६४ २६७ । २६३ ३३० ३३० ७२ १३२ ! ५१७४३७ ४२२ ४२३ १०२१२ । ३४४ | ३३४ ८७ ६१८, ६१८ | १०६ १६८ ४४ ४७ १०४ ० ० ० ० ० ० ० * * * * * * • • • ४०, ४० १५ | ३० | २५ ! २६ १५ ४६६ ४६७ ६६० | २२० | ३२० | ३१२ | ६५४ ________________
नहिँ पावसु नहिं परागु नहिं नचाइ । नहिं अन्हाई नव नागरितन | नयें विरह | नभ-लाली | नटि न सस न जक धरत नख-रेखा नख-सिख-रूप नर की अरु नलनीर नख-रुचि-चूरनु न करु, न डरु नई लगानि नए विससियहि ध्यान अनि धुरवा होहिं ने वैज-सुधा धनि यह वैज दोऊ चोर दोऊ चाह-भरे देऊ अधिकाई [ न ] [ ध] दोहों की अकारादि सूची ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ * * * * * * * * * * * * * * * * ॐ ॐ * * * ॐ ॐ ॐ ॐ मानसिंह की टीका
- * * | बिहारी-रत्नाकर
उपस्करण--१ ३८ ! ३८ | ! ३६४ । ३६४ ४७४ ४७४ ५८२ | ६७० ६३६ ६४५ ६४५ ५०३ | ६०० २२१ । २२० १७ | ३१ । ३२० : ३२१ । ० | ६४२ ३ | २६८ ! ६३० ६६ | २५३ I -
- * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * 22 ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ * * * * * * * * * * ॐ ॐ हैं ।
- * * ॐ ॐ ॐ ॐ ६
- * * | हरिप्रकाश-टका ॐ ॐ ॐ ॐ | लाल-चंद्रिका ॐ ॐ ॐ | शुभार-सप्तशती
का टीका
- * * * * * * * * * * ० * * ० *
० * ० ० ० ० ० | रस-कौमुदी ________________
| बैंक न जानी नैकु उतै नेहु न नैननु कौं नीठि नीठि उठि नीचयै नीची नीच हियें। नीको लसतु नीकी दई निसि अँधियारी निरदय नेहु निरखि नवोढ़ानारि निपट लजीली नित संसो हंसो निज करनी नाहिंन ए नित प्रति एकत है। नाह गरजि नावक-सर नासा मोरि नाचि अचानक नागरि विविध नाक चढ़ नाक मोर नाउँ सुनत नहिं हरि लो दोहों की अकारादि सूची ६ ६ ६ ६ ६ * * * * * * * * * * * * * * * * * * मानसिंह की टीका ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | बिहारी-रत्नाकर बिहारी-रत्नाकर कृष्ण कवि की टीका। ६३२ ४६६ : ४६९ ५७० ! ५७० ' १५७ । ८० २३८ ६०५ । ६०६ ५१३ ५०६ : ५०६ ६८३ २६६ : ३३१ ५६६ : ५६६ : ४८ ४६४ | ४६४ : ५६ ४६१ । ११ । ४८ ४५४ | ४६४ ६३३ ५१० | ३४६ २४७ ३०० | २३४ ४०७ ६ ६ ६ ६ ६ * * * * * * * * * * * * * * * * * इरिप्रकाश-टीका ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ६ | लाल-चंद्रिका ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | अंगार-सप्तशती ॐ ० ० * ० ० ० * ० * ० ६ ० ३ ० ६ ० ६ ० ० ० * * ० *] रस-कौमुदी ________________
पहिरि न भूषन पहिरत ह पल सोहैं पलनु पीक पलनु प्रगटि पल न चलें पथौ जोरु परसत पोंछत परतिय-दोषु पत्रा ही तिथि पति-रितु-औगुन पति रति की पतवारी माला पटु पाँखे । पट्ट सो पछि पट की हिंग पग पग मग पंचरंग-रंग-बंदी न्हाइ पहिरि नैना नेऊ न नैन लगे । नैको उहिँ न नैकु हँसीह नंकु न झुरसी [१] दोहों की अकारादि सूची ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ६ * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * *
- * * * * e मानसिंह की टीका * * * * * ? बिहारी-रत्नाकर
३३५ | ३३५ ] ७५ | ११६ | ५२६ | ५१३ । ५१३ | २७२ उपस्करण-१ कृष्ण कवि की |
- * * ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ६ * * ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ ॐ ॐ
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | हरिप्रकाश-टीका * * * * * | लाल-चंद्रिका # * * * * * | श्रृंगार-सप्तशती ३ ० ० * * * * * * * * * * * * * * ० ० ० * * ० ० ० | रस-कौमुदी ________________
प्रेम अडोलु प्रीतम-दृग प्रानप्रिया हिय प्रलय-करन प्रतिबिंबित प्रजखौ आगि प्रगट भए प्यासे दुपहर पूस-मास सुनि पूर्छ क्यों रुखी पीठि दिये हीं पिय-मन रुचि पिय-विठुरन पिय-प्राननु की पिय तिय सी पिय के ध्यान पावक सौ पावस-घन-अँधियार पावकः-झर नै पायौ सोरु पाइल पाई। पाइ महावरु पाइ तरुनिच पहुला-हारु पहुँचति डटि देहों की अकागदि सूची ४२ ३६७ १४६ ६८१ ३५० ६४० १५ ४८६ ३५ ३४८ का ५२६ १६८ | ५५३ | ५५ १०१ । ५
- * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * मानसिंह की टीका ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ हैं | बिहारी-रत्नाकर
२६७ २३७ | ५८५ | १२६ बिहारी-रत्नाकर कृष्ण कवि की टीका ७ ४८६ । ४६७ ।।
- * * * * * * ० हैं । ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ३ | हरिप्रकाश-टीका ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६* * * ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | लाल-चंद्रिका ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | शृंगार-सतशती
० ॐ ॐ ० ० ० ० ० * ० ६ ० ० ० ० * * * ० * * ० ० ० | रस-कौमुदी ________________
उपस्करग-१ दोहों की अकारादि सूची मानसिंहकीटका विहारी-रत्नाकर कृष्ण कवि की टीका | की टीका । रस-कौमुदी ५६७ ९६७ | हरिप्रकाश-टीका प्रभुदयालु पाँडे | ऋगार-सप्तशती * * | लाल-चंद्रिका
- * * * * * * * * * * * * * * * *
- * * * * *
६७० ' ६७० | ५१ ५६ | ४६३ : ४७५
- * * * * * * * * *
२३० २१९ ० ० ० ० * ० * * * ० ४५८ ४५८
- ६८३ ! ५६८
| [फ ] फिरत जु अटकत फिरि घर की फिरि फिरि चितु। फिरि फिरि दौरत फिरि फिरि बिलखी फिरि फिरि बुझति फिरि सुधि दै फुलीकाली फूले फदकन फेरु कळू [य] वंधु भए वड़े कहावत वड़े न हुने बढ़त निकसि बढ़त बढ़त बतरस-लालच वन-तन को वन-बाटनु बर जीते सर वरजं दूनी हठ बरन, बास बसि सोच वर्स बुराई ६२ | ६१ । ५७४ २२९ २६६२२८ १६६ | ६१ । ६६८ | ६६८ २३१ ३३१ | ३३१ : ६६८ ६४३ ४७१ : ४७२ : ५११३५६ | २५४ | २४५ १४७ | १४७ ! १५० | २३२ ६७२ | ४७५ | ४७५ : ५२६ ५२७ ३९२ | ३८४ ६७ ७ ३०५ ५५ : ४६० | ४७१ ६८६ ६८३1४३ ३६६ ५५० | ५४१ ६६४ | ६६४ ६१ : ४७६ ! ४६
- ० ० ० ० ० ० * ० ६ १ ० ६
३८० | ३८१६६१ । ६३३ । ६०७ : ५६६ | १४५ ________________
बिलखी सवै बिलखी उनको बिरह सुकाई बिरह-बिपात-दिनु बिरह-बिथा-जल बिरह-विकल विरह-जरी बिय सौतिनु विनती रति विधि, विधि कोन विथुल्यौ जावकु बिछुरै जिए विषम पृषादित विकसित-नवमल्ली बालमु बारें बाल-बेलि बाल छबीली बाल, कहा बामा, भामा बाम वाँह यादृतु नो उर बहु धन ले बहके, सब जिय बहकि बड़ाई वहकि न हैं। दोहों की अकारादि मुनी मानसिंह की टीका २ ३२६ ! ३२९ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ६ ६ ६ ६ ६ ६ | बिहारी-रत्नाकर | कृष्णकवि की विहारी-रत्नाकर | ५८७ ५८७ ३७६ | ४२४ | ११७ | ११६ |
- * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * ६ | हरिप्रकाश-टीका ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | लाल-चंद्रिका * * * * * * * * * ६ ६ ६ ० १ * * * * * * * * * * • | टंगार-सप्तशती |
० ० ० ० ० हैं ० * ० ० * ० * * ० *
- * • • • • | रस-कौमुदी ________________
.... = -=
- .
. | मंगलु बिंदु सुरंग । भाहनु त्रासति भौह उँचै, आँचरु | भौ यह ऐसोई भेटत बनै न भृकुटी-मटकनि भूषन-भारु भाव उभरींह भजन की भावरि-अनभावरि-भरे भए बटाऊ भाल-लालबंदी-छए. भाल लाल बेदी, ललन भई जु छवि [ म] | ब्रजवासिनु। बैठि रही अति बेसरि-मोती, धनि बेसरि-मोती-दुति বন্ধ স্মনি बैंदी भाल, लॅबोल बुरौ बुराई न्बुधि अनुमान बिहँसि बुलाइ बिहँसति, सकुचति दोही की अकारादि सूची ४१ । ४२ । १९१
- ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ मानसिंह की टीका * * * * * * * * * * * * * * * * ६ ६ ६ ६ ६ ६ | बिहारी-रत्नाकर
१६ ।। उपस्करण-१ कृष्ण कवि क टीका
- * ॐ
- * * * * * * * * * * * * * * ॥ ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | हरिप्रकाश-टीका * * * * * * * * * * * * * ६ ६ ६ ६ ६ ६ * * * * | लाल-चंद्रिका ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ शृंगार-सप्तशती
३ [ ० ८ ० * ० * ० ० * * * ० ० ० * * * * * * ० ० * | रस-कौमुदी ________________
विहारत्नाकर टीका दोहों की अकारादि । गरी-रत्नाकर टीका की टीका ४ मकराकृति गोपाल मन न धरति मनमोहन से मनु न मनावन मरकत-भाजन-सलिल मरतु प्यास ४१४ ४५४ | २६ १८६ ५ ४३५ मरनु भले मरिचे का मरी उरी मलिन देई मानहु बिधि मानहु मुंह-दिवरावनी मानु करत मानु तमासी मार-सुमार करी मायौ मनुहारिनु मिलि चंदनवदी मिलि चलि मिलि पर छह मिलि बिहरत मिसि ही मिसि मीत, ने नीति मुख़ उघारि मुँह मिठासु मुँहु धोवति ॐ ॐ ॐ ॐ | विहारी-रत्नाकर * * * * * * ६ ६ । ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ मानासंह की टीका ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | लाल-चंद्रिका * . ! शृंगार-सप्तशती
- * * * * * * * * * * * * * * * * * हरिप्रकाश-टोका * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * 2 * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * *
० ० ० ० ० * ० * * : * • • * * * * * * * * * * * ० | रस-कौमुदी ६७३ ३७३ । ३६१ ! ४३५ ३६४ ५६६ ! ५३९५२४ । ३५८ ३८ ! ३०८ ४४० ५३३ : ३८८ ४६८ ४६८ ! ६१ ४६६, ४३६ १८१ १८० | ५२२ ४५' ४५० ४६१ : ५१६ ६२४६६५४३३ : ४८४ १३६ १३० ४१६ ६७४ ६७४ | ३१३ : १८ १६४ : ११ ३०० ४९७ ४६७ | ५५८ ५८२ ' ५८० ५७३ | १४२ ५३१ | ५३१ | ४६६ ३२० : १६३ । १६० : ४८ ४७७ | ४८१ | ६८१६४६ ६०४ : ५९६ : ६७५ ६३९ ६३६ | ५८२ ३५५ २१५ २६५ : ४६६ ३२३ ३३३ ३८६ : ४६७ । २०४ २८० ३९६० | ६६७ ६६७ | ५०६ ६०३ : ५२ ६१ ५०० ० ________________
उपस्करण-१ दोहाँ की अकारादि सूची कृष्ण कवि के टीका काटाका ॐ ॐ ॐ मानसिंह की टीका ॐ ॐ ॐ | विहारी-रत्नाकर ॐ ॐ ॐ हरिप्रकाश-टीका * * * | लाल-चंद्रिका * * * | शृंगार-सप्तशती ० ० | रस-कौमुदी ४६८ { ४३६ | ४५१ ! ६७० ६४
। ८३ ६८१६६५ | ४१४ | १६३ ६६ ६६ : १४५ | ६७४ | २३६ २५६ २५६ ३४५ | १६० | ५४० ६४२ ६४२ : ६६५ | ::४ | ३१४ ४७०, ४७० १७० | १३ | ५४ मुँहु पखारि मुड़ चढ़ाएऊँ मृगनैनी दृग मेरी भव-बाशा मेर बुझत बात मं तपाइ में नासा में वरजी में मिसहा सायौ म यह तोह में में लखि नारी-ज्ञानु में लै दयौ में समुभयो में हो जान्यो मोरचंद्रिका मोर मुकट मोस मिलवति मोहन-मूरति मोहिं करत मोहि तुम्हें मोहिँ दयौ मोहिं भरोसौ मोहि लजावत मोहूँ दीजै। मोहूँ सौं तजि ५३५ ५३५ | ४७३ | २५: । ३०२ ६६८ ४६६ ! ६.८ । १६२ १८१ १२४ १६८१ | ६६६ ६६१ ६१६० ६४ ६४ : १८६ : १८५ | ६५७६५५ १०६ २१ '६७६ : ६७६ : १८६ ६८ | ६६८ : २६ ६८८ : २१८ । ४१६ ४१६५६६ १० | ३ ३ ५६३ । । ५०८ | ५०८३०६ ३७६ | ८६, ७६ ३०१ २४१ ! १६१ १६१६३० ३ ६६४ ६५९ ६२५ । ० । ५७६ ५७६ | ३८८ ४१८ | ११ १२ ३. ३ ० || ४२६ | ४२७ | ५७७ ' ७०४ | ६६४ । ६८८' ८७१।० । ८३ ८३ | ३६५ ४६५ | १८५ १६६ : ३६० १६१ ६८२ ६८२ । ६५ । ३८६ | ३३९ ३२९६४ : ५६ ५६६ : ५६६ | ४१२ | ४६० | १०१ १२८ । १८५; १६२ | ६१६ | २६१ ५७६ : ५०० ७०१ । ६६५ : ५५३ : ० । ७७ | ७७ १२६ | १८७ | २६६२६३ ! २ ० ________________
बिहारी-रत्नाकर दोहों की अकारादि म्यूची
- मानसिंह की टीका * | विहारी-रत्नाकर
ॐ | हरिप्रकाश-टीका * | लाल चंद्रिका रस-कौमुदी ३६६ ४०१ ६३८ ६८७ | ६७३। १२१ | १२० ४७२ ५२ १३१ । ६३४ | १८३ ! ६६५ ४८ ४८ ४४६ ४३३ | ४३३ ! ६४६ ७११ ७११६११ ६५१ ! ६५१ । २६७
- ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ * * * * * * *
मोहें मां बात [य] यह बरिया यह विनसतु या अनुरागी याकै उर या भव-पारावार यो दल काढ़ यो दलमलियनु [ र ] रैंगराती रँगी सुरत-रंग रंच ने लवियति रनित-शृंग-घंटावली रवि बंदी रमन को रस की सी रुख रस-भिजए दोऊ रमसिँगार-मजनु रहति न रन रहि न सकी रहि न सक्यो रहि मुँहु फेरि रहिह चंचल १६५ १६४ ४७७ , ५४० | ४०६ | ३६५ १८३ | १८३ २६६ ३४५ : ६२ | ८३ ६६५ ! ६६५ ! ८२ १५५ ५३२ ४४८ ३९० : ३८८ : ५६५ : ५६० ५८६ | ५७६ २२१ २२४ : ६१३ ६१६ ६५० | ६४५ ३१६ ३१९ ३०२ ३४४ २१० २०६ २४३ ६४३ । ३९२ ४२६ १९८ १९४ ५१४ ५१४ ५५८ ४६ ४६ २०६ | ८० ८० ६०८ । ६२९ ७०३ ६६७ ६०२ ३४३ ३४४ ५५० | ५८६ | ५८५ | ५७८ ५४४ ४४३ ४४५ २६१ १४३ : ५२१ । ४३८ २५७ ५७७ : ५७७ ४९ : ३२४ | ८२] ७३ : ४८ ३६६ ! ३६५ : ४२१ | ४७६ | १२९ | १२२ { ४१४ ________________
लगत सुभग लाख लोने लखि लखि | लखि दौरत सखि गुरुजन लई सह सी उप-सुधा । रुख रूखी रुझ्या सॉकर गधा हरि राति द्यौस रह्यौ मोड़ रह्यौ ढीठ रह्ये चकितु रह्यो ऐचि रहे। गुही र निगोड़े रहे बरोठे। रही लटू है रही पेज रही रुकी क्या हैं। रही पकरि रही दहेड़ी रही अचल दोहा की अकारादि सूची ३४१ ३४३
- * * * * * * * *
३६१ । ३८६ ५६
- * * * * * * * * * * * * * * * मानसिंह की टीका * * * * * * * * * * * * * * * * * * | बिहारी-रत्नाकर
कृष्ण कवि की। उपस्करण-१ ५६१ | ५४४ १७६ | ३३३ ३४२ ६११ २११३७८ ३६६ । ५५२ ५८४ | ५८४ ५६१ ५= ६ ६ ६ ६ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ४ ३ ३ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | हरिप्रकाश-टीका ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ * * | लाल-चंद्रिका ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | शृंगार सप्तशती ५ हैं ० ३ ० ३ ० ० ० * ० * ० * ० * ० * ० ० * ० * * • | रस-कौमुदी ________________
बिहारी-रत्नाकर दोहों की अकारादि सूची ॐ ॐ ॐ मानसिंह की टीका हरिप्रकाश-टीका ॐ ॐ | लाल-चंद्रिका ॐ | टंगार-सप्तशती ॐ ६६४ | २३३ १०६ | ५०५ ० ० ०. ss | रस-कौमुदी १६३ १६२ १२ २४१ ३२२ ८६. ३६३ : ३९२ | ५६४ !!६३ ५९० ५.३ : ५५८ | २४८ ३८ । ३८६ । ६२ । ६४: २८३ २१ ६१ ३३३ ४०८ १०८ ४१६ ४७८ ७३५ १६५ : ४१२ लगी अनलगी लग्यो सुमनु लट कि लटकि लटुवा ला लपटी पुहुप लरिका लेने ललन-चलनु सुनि चुपु ललन-चलनु सुनि लिनु ललन सलने ललित स्याम लसतु सेत लसे मुसा लहलहाति तनु लहि रति सुग्नु लहि सूने घर लाई लाल । लागत कुटिल लाज-गरव लाज गई। लाज-लगाम लाल, अलौलिक लाल, तुम्हारे विरह लाल, तुम्हारे रूप लालन, लहि लियन बैठ २४, २५० | २२ १५ : ४७ ५०० : २१८ १०७ ! १०६ २१६ : ६२ ४७६ | १६२ २१२ ६७३ : ६७३ | २१८ १६० ' ४८० | ४६ ३ २१४ । ५३२ : ५३२ ३३४ ३२ ५०४ | ५१८ ! २३० ६५५ ६५५ : २८ ३४६' ४३७ | २५ २६३ ५-६ | ५८२ | २८१ ३२६ ३२१ ३१३ ६७६ ६१३ | ६१३ | १७५ ३६१ ३४० ३३१ ११ । ३७६ | ३७५ ! ६८६ ! ७३ ३३० ३२२ : २०५०
- ? * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * | विहारी-रत्नाकर
० ० ० * * ० ० ० ६ । १२६ | १२६ । ४१७ १५, ५५ ६३ ४६० ६०६ | १० | १३१ २४७२६९ | २६६ १६७
- ० * * ० ० ० ० ० ०
३६ | ६६ | ४६८ ५८६ ३०७ ३०५ ४६१ : २१० ३६६ | ३६८ | ११६ २०६ ३५० ३१ ११५ १४६ . १८४ | ४ | ३६० | ३६५ १८२ १७६ ३५३ ० | ३४७ ३४७ | ८४ १६५ | ५३४ ४५० ८१ ________________
सकै सताइ सकुचि सुरत सकुचि सरकि संकुचि न सकत न संपति केस संगति सुमति संगति-दोषु वैसीयै जानी वे ने इहाँ वे ठाढ़े। वैऊ चिरजीवी वेई गड़ि गाड़े वेई कर, ब्यौरनि वाही दिन ते । वाही की चित वाहि लखें वारी, बलि । | [ स ] लौने मुँह लोभ-लगे लोपे कोपे लै चुभकी लीनं हूँ साहस दोहों की अकारादि सूची JI
- * * * * * * * * * * * * * * *
- * * * * * * * * * * * * * * * * *
- * * * * मानसिंह की टीका * * * * * | बिहारी-रत्नाकर
५६५ | ५६५ | १३० | ४९१ | ७६५ उपस्करण-१
- * * * * * * * ६ ६ ६ ६ ६ ॐ ॐ ० * * * * * * *
- * * * * * * * * ॐ ॐ ॥ ६ ६ * * * * * * ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ॐ
- * * ६ | हरिप्रकाश-टीका * * * * | लाल-चांद्रका ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ शृंगार-सप्तशती
० ० ० ० ॐ ॐ ६ ० ० * ६ ० हैं ० हैं *
- ० ० ० ० | रस-कौमुदी ________________
सालति है। सायक-सम सामाँ सेन साजे मोहन सही रँगीले सहित सनेह सहज सेतु सहज सचिक्कन सरस सुमिल सरस कुसुम समै समै समै-पलट सबै हँसत सबै सुहाएई समरस-समर-सकोच सब हर त्यौं सब अँग करि सनु सूक्यौ सनिकज्जल सदन सदन के सतर भौंह सटपटात सघन कुंज, घन सधनकुंज-छाया सखि, सोहति दोहों की अकारादि सूची १३५
- * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * = * * * * * * * * ई
- * * * * * मानसिंह की टीका * * * * * * | विहारी-रत्नाकर
१३५ | ६ | ६ | २१५ । १२२ ! १८१ | ५५ | ५५ | २०४ : ५३ | ४५६ ५४० | ५१० ३३६ : ३०६, १६५ १०६ | १०८ ४०८ ४५६ ६८ ५५ ३०१ । ६६६ ६८ ! ६८१ १५३ ३१२ | ३१२ । ३ ३८६ | ५ ४११ बिहारी-रत्नाकर कृष्ण कवि की टीका
- * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * | हरिप्रकाश-टीका
- * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * na | लाल-चंद्रका * * ० * ६ * * * * * * * * * * * * * * * * * * * | शृंगार-सप्तशती
० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ३ ० ० ० ० ० | ० ० ० ० ० ० रस-कौमुदी = = = = ________________
स्वेद-सलिल स्वारथु, सुकृतु स्यौं बिजुरी स्याम-सुरति साई हैं। सोहतु संगु सोहति धोर्त सोहत हैं सोहतु अँगुठा सोवत सुपर्ने सोधत सखि सोवत, जागत सोनजुही सी सुर उदित । सुरति न ताल सुरंगु महावरु सुभरु भयौ सुनि पग-धुनि सुनत पथिक सुदुति दुराई सुघर-सौति-बस सुख सौं बीती सीस-मुकट सीरें जतननु सीतलताऽरु दोहों की अकारादि सूची ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ मानसिंह की टीका ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | बिहारी-रत्नाकर उपकरण-१ कृष्ण कवि की ६ * * * * * * * * * * * * * * * * * * ६ * * * * * * * * * * * * * * * *
- ६ | हरिप्रकाश-टीका * * | लाल-चंद्रिका
१७१ : १४ ६६६ / ६३६६३० १७ | २६३ ६०८ २११ ३४५ | ३३५ की टीका २२५
-________________
| है कपूर-मनि ह्याँ न चले खाँ हैं हाँ है। रीझी हां है वौरी होमति सुख है हिय रहति हेरि हिंडोर हुकुमु पाइ ही औरै सी हितु करि हा हा ! बदनु हरि हरि हरि-छवि-जल हरि कीजति हरपि न | हम हारीं । हठ न हठीली हठि, हितु करि हँसि, माइ हँसि ओठनु हंसि उतारि [ दोहों की अकारादि सूची ] ६२ | ३६२
- * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * e
मानसिंह की टीका | विहारी-रत्नाकर १८७ । ४०४ । विहारी-रत्नाकर ७७ | १४८ | ५२३] ४४०
- * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * *
- * * * * * * * * *
| हरिप्रकाश-टीका ! लाल-चंद्रिका २ ३५ २७४। ७०७ लाल-चंद्रिका | श्रृंगार-सप्तशती की टीका ० ० ० ० * * * ० ० ० * ० * * ० ० ० ० ० ० ० * ० | रस-कौमुदी ________________
कुस्करण===३ = [ बिहारी-रत्नाकर स्वीकृत दोहाँ के अतिरिक्त बिहारी-सतसई की भिन्न भिन्न प्रतियाँ . मैं प्राप्य, दोहाँ का संग्रह ] *** ॐ ॐ ॐ ________________
विज्ञप्ति इस उपस्करण में वे दोहे एकत्र कर दिए गए हैं, जो विहारी-रत्नाकर में तो नहीं स्वीकृत किए गए हैं, पर बिहारी-सतसई की भिन्न भिन्न मूल अथवा सटीक प्रतियों में मिलते हैं। इनमें से कुछ दोहे तो प्रत्यक्ष ही मतिराम, रसलीन इत्यादि कवियों के हैं, और शेष में से पाँच-सात को छोड़ कर अन्य की न तो भाग बिहारी की परिमार्जित भाषा से मिलत है, और न रचना-प्रणाली उनकी सुगठित रचना-प्रणाली से ॥ | इन दोहों की पाठ-शुद्धि में विशेष श्रम नहीं किया गया है । दो-एक पुस्तकें के आधार पर उनके पाठ रखे गए हैं। किसी किसी के पाठांतर भी पाद-टिप्पणी में दे दिए ________________
अधिक दोहे हां आई सुनि के सखी, डलिया दावि दुकूल । हा ! हा ! हँसि, देख भरत कौन भाँति के फूल ॥ १ ॥ मोह सा सतरराति हो, जान देहु यह जामु । हाथ पकरि के सापि वशमी के कर कामु ॥ २ ॥ वाकौ मनु फाट्यौ हुतो, ही दे लाई टीभ । बोलत हैं। जिदं विसु वयो, निपट पानी जीभ ॥ ३ ॥ नेहु निवाई हाँ, बनै, सोचें बने न । श्रान । तनु दै, मनु है, सीसु है, प्रेम न दीजै जान ॥ ४ ॥ गही टेक सो ना तजे, चंचु जीभ जरि जाइ । मीठों कहा अंगार कौ, ताहि चकोर चबाई ॥ ५ ॥ क्या के रूठौ, क्या भुको, क्या के होउ उदास । प्रेम-पराए प्रान ए परे रही पिय-पास ॥ ६ ॥ आड़े परिहैं खेलत, बुरी भाँति है चाल । बासी रिस न बसाइये, हाँसी होइन, लाल ॥ ७ ॥ विधुवदनी मोसा कहत, में समुझी निज़ बात । नैन-नलिन पिय, रावरे न्याइ निरखि नै जात ॥ ८ ॥ में तब हूँ वरजी हुती, नहीं रोमं को काम । ताती बातें हैं कहाँ, सीरे है गए स्याम ॥ ६ ॥ कोटि कुटिलता छाँड़ि के कियो प्रेम-प्रतिपाल । टेढ़ी मैं हं ते कराँ, सूधे हे गए लाल ॥ १० ॥ आनन उपटे ओप अति, कसे कंचुकी लेति । का पर कोर्षे कामिनी जरु नैननि देति ॥ ११ ॥ कही वयन बिसु ही गई फिरि चितवन ३६ ओर।। कुँवर-कंरजै गड़ि रही ए कजरारी कोर ॥ १२ ॥ मानति मोसी क्यों नहाँ छई छबीली छाँह । प्रेम प्रगट भयौ हे सखी, आभा अखिनि माँह ॥ १३ ॥ प्रेमु दुरायौ ना दुरे, नैना देहिं बताइ । छैरी के मुंह री सखी, क्यों हूँ न कुम्ही माइ ॥ १४ ॥ १. ससि । २. तुम साँचो यह । ३. निरखत हाँ। ४. ध । ५. अज़रा । ६. क्य रु कुम्हैडौ । ________________
बिहारी-रत्नाकर ऐसें अंतर-नेह की अंग अंग दुति इति । जैसे पट फानूस के दुरै न दीपक-जोति ॥ १५ ॥ में समुझाई ही सखी, प्रेम न होई खलु । अपनी आराँ सीस हूँ प्रेम-पाँव मेलु ॥ १६ ॥ तव में तास हो को, माने नाहिंन बैन । से बसायी लै हिये, हियहाँ लाग्य लैन ॥ १७ ॥ या न करु, भैरै कह दियो प्रेम पिय नासि । फेरि घरी ली के धरै सुनि में हैं अखि ॥ १८ ॥ लोदन लोहू किन बहौ, जो जिये सॉच हेत। ऑमुनि कै मिसि नैन-मग प्रेम पानी देत ॥ १६ ॥ श्रीएं जोवन कै, सुन्यो, जो गति कीनी मैन । तिया-अंग के भेद सब कसबाती कहे नैन ॥ २० ॥ जियत न जिय की जानिये, इठ ही सी ज्यो लाँ। कौन रीति यह तियनि की, जियाइँ गएँ ज्यौ दे॥ २६ ॥ करु गहि नाइक हँसि को कछु बचन रति-काज । पलकनि कौ चूंघटु कियौ प्रिया प्रेम की लाज ॥ २२ ॥ भला बुरी जैसी परो, बानि न ताकी जाइ । अम्रित पियै चकोर वहि, वहे अँगार चबाइ ॥ २३ ॥ लाज घरि अँचई सबै, अरु कुरु दीनौ नाखि । ताही सी बातनि लगौ, जास लागी ऑखि ॥ २४ ॥ विधि हूँ यारक पूछियो-मिले तु सिर तिनु नाखि । हैं हैं देखीं हैं कहूँ, ऑखिनि ऐसी ऑखि ॥ २५ ॥ और कछु सुभै नहीं, दई दुहाई मैन । वाही के सँग है गए नैननि लागे नैन ॥ २६ ॥ कटि छोटी, छाती बड़ी, अँख्यौ लागतं कान । छीवरबार छोहरी लेति छुड़ाएँ प्रान ॥ २७ ॥ ताही तिनु है बुझियै, कई पतीजै साँच। गहिँ लागिह अगि सी, मेटै तन की आँच ॥ २८ ॥ चंदन, चंपक, चंद-रस, चंद चुस्यो तन जाइ । बारक अली, अंग सौं अँग्यौ देखि लगाइ ॥ २६ ॥ १. शेरें । २. समरु सजायो । ३. कहि न कहै मेरी कयौ । ४• आँखिनि । ५. पिय । ६. आयो जोवन आ मिल्यो जो गति । ७. कहाँ । ६. ६ पिघलाई । ________________
उपस्करण-२ बायौ बिरह हिय हुत, रहौ जु भातर लागि । छिरके उठी गुलाब के चुना की स अगि ॥ ३० ॥ बार बार कई बावरी, तनक पीर नहिँ तोहिं । जरी जाति हैं जोन्ह म, ले परछाँह मे ॥ ३१ ॥ ग्रीषम जाति ही जरी, पावस जारति काहि ।। बिरह बिरह की विरह की अगि अंग में ताहि ॥ ३२ ॥ बुढ़ परी बसुधा लखी, बहकि उठी से बार। पावस जरियै क्या नहीं, पानी मॅझ अँगार ॥ ३३ ॥ मृम्वि मिरच तनु रह्यौ, जौ देखेगी टोइ । प्रान उड़े घनसार लां, अवधि बँधेची हो ॥ ३४ ॥ सकुच सहित वातनि लगी, अननु फेरति नाहिँ । नैना हैंचितचोर ली निरखि निरखि नै जाईि ॥ ३५ ॥ कोटि अछरा वारिये, या सुकिया सुख देई । ईली ऑखिनि हाँ चितै, गाढ़े गहि मनु लेइ ॥ ३६॥ औगुन अगनित देखिये, पलको देहि न नाखि । नीचें नीचे कर्म सव, ऊँचे ऊँचे ऑखि ॥ ३७॥ बुरी न ऊ कहि सकै बड़े बस की कानि । ‘भत्नी भलो सब कहि उॐ धुवाँ अगर को जानि ॥ ३८ ॥ अपन हाँ गुन पाइयै, उपकारी जसु लेइ । घर हूँ के हाथ चढ़े, टेक महावत देइ ।। ३९ ॥ नख सिख निरखत हो। तुम्हैं, टेढुई सय गात । भगत-हृदय में कौन विधि सूधे है जु समात ॥ ४० ॥ हरि को फिस्य न पेड़ है, लोभ कियौ सय देस । मनु ने भयो कहूँ ऊज, भए ऊजरे केस ॥ ११ ॥ कर कंपै, लेखिनि डिगे, अंग अंग अकुलाइ । मुधि अहं छाती जरे, पाती लिखी न जाइ ॥ ४२ ॥ मुरत-अंत पीतम चले, नख लागें हिय नारि । जौ लें डारी जोन्ह म, तौ गइ चाँदनि मारि ॥ ४३ ॥ सरवर की छाती फटी, और कछु दुखु नहिँ । पारि देखि पंथी धंसं, नीर-हीन फिरि हिँ ॥ ५ ॥ १. भागि । २. न चुची । ३. मित्र । ४. भजहुँ । ५. फटे । ६. पाइ । ७. थके । ८. जाइ । ________________
बिहार-रत्नाकर दुखी सुख दिन काटिये, घाम बारि हूँ साइ। छाँह न ताकी तोकियै, पेड़ पातरी जोइ ॥ ४५ ॥ उगे उगें, छूटी लट, लट लटपटे बैन । तेरीई चहचर कर नेह-चकने नैन । ४६ ॥ भौन भीर, गुरजन भरे, सके न कहि के बैन । दंपति डडा कटाच्छ भरि चरि खेले नैन ॥ ५७ ॥ बिधुवदनी मोसा कहत कत उपजावत दाहु । नैननलिन फूले जहाँ रवि-बदनी के जादु ॥ १८ ॥ नन, स्रवन, मन ढरि मिले, अंग न रही सँभार । रूठन-हारी एक है, सब मनायन-हार ॥ ४६ ॥ निसि बोलौ नहिं नाह सां, उदे होन दे भानु । हीरा हीरा सी करे, तो पाछ कर मानु ॥ ५० ॥ लाख भॉति नेवजु करे, माँगे, महरि न देइ । मोहन मुख देखत रहे, जाखु गुरैया लेइ ।। ५१ ॥ ब्रज-वासिनि को वनि गयो याही में सव सुतु । गहकि गुरैया पूँजिये गद गदाधर पुनु ॥ ५२ ॥ बेद भेद जानें नहीं, नेति नेति कह बैन । ता मोहन सी राधिका कहे महावरुदैन । ५३ ॥ जग्य न पायौ ब्रह्म हैं, जोग न पायो ईस । । ता मोहन मैं राधिका सुमन गुहावति सीस ॥ ५४ ॥ सिव, सनकादिक, ब्रह्म हैं भरि देख्यौ नहिं डीठि। नामोहन-तन राधिका दै दै वैठति पीठि॥ ५५ ॥ मनु माथी केते' मुनिनि, मनु न मनायो आइ । ता मोहन पं राधिका मान गहावति पाइ ॥ ५६ ॥ जिन सिगरी बसुधा रची तत्व मिले के पाँच । ता मोहन की राधिका किते नचावति नाच ॥ ५७ ॥ देव अदेव सबै जपं अपने अपने ऐन । तामोहन-तन राधिका चितवति आधे नैन ॥ ५८ ॥ गाइ दुहावन हौं गई, लखे खरिक हरि साँझ । सखी, समोवन है गर्दै अखि अॉखिनि माँझ ॥ ५६ ॥ १. विरमिये । २. तेरे यह । ३. बहकि । ४. माइये । ५. जु मुनानि मन । ६. सत्रे स। ________________
३६ उपस्करण-२ कहा हुतौ मोसी कह्यौ, कत डारत बहराइ । गोपें गुऐ न सुरत-सुख, कोए कहत गुरार ॥ ६० ॥ पलकनि दाबत नैन पिय, उघरि उघरि ते जाहिँ । राते माते रूप-रस, कोए सोए नाहिँ ॥ ६१ ॥ चलौ चलें हीं मानिहै, मतै मतौ नहिँ न । रह्यौ, रावरी सौंह, है भाइक भौहनि मान ॥ ६२ ॥ तुम रूठी, उत वे झुके, थके हमारे पाई । पाथर लागै लोह सौं, रुई बीचि जरि जाइ ॥ ३ ॥ पिय की पुतरी देखि कै कर-वीरी दइ नाखि । मोहिं दिखावति देखि यो आँखिन में की ऑखि ॥ ६४ ॥ मनु मिलवति हम सौनहीं, मानु दिखावति नारि । नेह-चीनी देखियै रूखी रूठन-हारि ॥ ६५ ॥ ललाक लोल लोचन भए सुनत नाह के बोल । ऊपर की रिस क्यों दुरै हाँसी भरे कपोल ॥ ६६ ॥ कामिनि के वर रूठनौ, तमक चढ़ावन भौह । कामी कौ लाहस यहै-के हा-हा, के सह ॥ ६ ॥ बालम, तुम सी रूठियै, मन सौ कछु न बसाइ । यज्यौं खेंच आप यौं, त्यों तुम-तन जाइ ॥ ६ ॥ ऑखिनि सौं आँखें लगीं, मनु लाग्यो ता साथ । जैसे पंथी पंथ मैं ठगु येचे ठग-हाथ ॥ ६६. ॥ पाएँ अन पाएँ भली, दाताई नरु अंत । पातु न देइ करील कौं, फूलै तऊ बसंत ॥ ७० ॥ मानु दुरावति सखिनि हूँ, हँस हँसि वोलति वैन । प्रेम-परेखी हिय कछु, भरि भरि आवत नैन ॥ ७१ ॥ और हँसनि, औरै लसनि, और कसनि कटि-ठौर।। नैन चुगल काननि लगे, मनु करि डायी और ॥ ७२ ॥ बामन लॉ पिय छलु कियौ, में बाल ली कह्यौ दैन । प्रेम पैड़ है माँग के लागे सरबसु लैन ॥ ७३ ॥ मान छुटैगौ मानिनी, पिय-मुख देखि उदेति । जैसें लॉगै बाम के पाला पानी होत ॥ ७४ ॥ १. कहत मास कहत। २. मती मतेहीं । ३. है मट् । ४. चिकन” । ५. रूखहूँ अनुहार । ६. दाप्ति । ________________
विदारीरत्नाकर व्यौ बिछरत तनु थाक रखे, लागि चल्यौ चितु गैल। जैसे चीर चुराइ लै चलि नहिँ सके बुरेल ॥ ७ ॥ वलया, पक, उगार मुख गियौ संजोग-निवास । माखी विरह, मनी पस्यो पंजर, लोह, मास ॥ ७६ ॥ धुनि सुनि, सहित सनेह लखि, हेरं हियौ मुसकार । क्यों यह बात वनै, सखी, क्या जिय कौ दुखु जाइ ॥ ७ ॥ नई टीको, न गुलीबंद, नहिं हुमेल, नहिँ हरु । सुरति-समै इक नहिँयै नख-सिख होति सिँगारु ॥ ८ ॥ पावस कठिन जु पीर, अबला क्योंकरि सहि सके । तेऊ धरत न धीर, रकत-बीज-सम ऊपजं ॥ ७९ ॥ मोसी मति बोलेर हुद्दा, सखि, आए नंदलाल । मोहन कित, यों कह उठति भई विकल अति बाल ।। ८० ॥ हना पूतना अरु दिये जग मुंह में दिखाई। कहा जानिये, के भय प्रगट नंद-घर आइ ॥ ८ ॥ करि फुलेल को आचमन, मीठ झवत सरहि । रे गंध, मति-अंध तू, अतर दिखावत काहि ॥ ८ ॥ अंत मैग्गे, चलि जैरें चढ़ि पलास की डार ।। फिर न मेरं मिलिहू अली, ए निरधूम अँगार ॥ ८३ ॥ अहो पथिक, कहिया तुरत गिरधारी सी टेरि । दृग-झर लाई राधिका, अब बूड़त व्रज फेरि ॥ ८४ ॥ माल्हि दसहरा बीतहे, धरि मूरख, जिय लाज । दुस्खे फिरत कत इमनि में नीलकंठ विनु काज ।। ८५ ॥ गुरुजन दुजें व्याह को निर्सि-दिन रहत रिसाइ । पति की पति राखति वधू अपुन बँझ कहा ॥ २६ ॥ चंप-कला कर गहि कुँवरि हुती सखी का देति । वह बौर धोखे परी अँगुरी गहि गहि लेति ॥ ८ ॥ जदपि पुराने बक तऊ सरषर, निपट कुचाल । नए भए तु कहा भयो, ए मैन हरत मराल ॥ ८८ ॥ जुरत सुरति कै सुरति की खिन खिन हिय सक्रात। त्यां । नायक कमले के कमलाइत है जात ॥ ८ ॥ १. एके नहीं । २. अवतरे । ३. नित उठे । नित प्रति । ४. मन-हरन । ________________
उपस्करण--२ हा अरगनी तकन हौ, अहो अनोख नाह । अई कारी प्यारी लगै गरुड़-पच्छ की छाँह ॥ १० ॥ चन्दन यान वने, दुतिसुमेर हरि लीन । बदन-दुरावन क्या अने, चंद कियौ जिहे दोन ॥ ११ ॥ गति दे, मति दे, हेतु दे रसु दे, जसु दै दान । तनु दें, मनु ६, सीसुदै नेह न दीजै जान ॥ १२ ॥ बिनु धरजं धेां का कहै, वरज्यो कांप जाइ । जो जिय में ठायी रहे, तासां कहा बसाइ ॥ १३ ॥ सपत घड़े फुलत सकुचि सब-सुम्ब केलि-निबास । अपत कैर फूलत बहुत मन में मानि हुलास ॥ १४ ॥ मतसैया के दोहर' ज्या नावक के तार । देखत अति छ।टे लेंग, घाव कर गंभीर ॥ १५ ॥ मुदत, ग्वुलन दृग तय के, ६ रीझ ६ भइ । स्रमित भए पिय जानि के मान ढोरन हि ॥ १६ ॥ छप छप देखत कुन-तन कर मा अँगिया टारि।। नैननि में निरखुन रई, भई अनोखे नारि ॥ ७ ॥ सखियन में बैठी रहे, पूछ प्रति-प्रकार । हँसि सि अपुस म केहं प्रकट भये हे मार ॥ ६८ ॥ चित में तो कछ चेपर्सा, निपट न लाग्येः नेह। कईं दुरै, देखें कहूँ, कहूँ दिखायें देह ॥ ६६ ॥ लट्र भये वास रहत वाही से झुकि रंग। मन मोम मानी भयो वाही तय के संग ॥ १०० ॥ होति कहा कहि, हो सखी, दंपति की रस-रीति । वा समए की देख छवि गये। मदन-भुइ जति ॥ १०१ ॥ नैन पर पिय-रूप में, रूप में दिय माहि। बात परी सय कान में, मोहिं परै कल ना६ ॥ १०२॥ बूंघट पट की ओट में निडर रहै मति कोइ । कुद्दी बाज कुलही दिये अधिक सिकारी होइ ॥ १०३॥ सूक्यों बारिज, कुसुम-बन, पुडुप मालत-बृद । मधुप कहा जीवन जियै मूली के मकरंद ॥ १० ॥ १. जेठ-दुपहरी मांह । ________________
१३ घिद्वारी-रत्नाकर मन-मरकट के पग खुभ्यो निपट निरादर-खोभ । तदपि नचावत सठ, हठी, नच कलंदर लोभ ॥ १०५ ।। रह्यो न काहू काम को, सतें न कोऊ लेत । बाजू टूटे बाज कौं साहब चारा देत ॥ १०६ ॥ तीन बार लाला, तुम्नैं पठे दई अलि-साथ। चोरीम-सुगंधि की उघरि गई तिहिं हाथ ॥ १०७॥ फुल आग , गोद ले, पतरी दै घर आव । लाल, कही वारी नहीं करन-फूल पहिराव ॥ १०८।। गाइ नए गाइन बड़े, ले बैठ कर बीन । ए गाहक करबीन के, राग राग नवीन ॥ १०६ ।। चिनग फुही, लपेट छुटा, घटा धूम-विस्तार । पावस-रितु मानस विनु होत सकार ककार ॥ १० ॥ गुंजत अगुलि दे दसन, लखि कंजनि सकुचाइ । मूदति पति-दृग दाहिने, रति विपरीत लखाइ ॥ ११ ॥ परी दे री स्रवन, सुनि, तेरी अलक बटोरि । चढ़ि न सकत है चित्त-नट निपट चीकनी डोरि ॥ ११२ ॥ जे हरि स्वगपति सीस धरि, हर ध्यावत धरि ध्यान । ते ६ रि जहरि-तर किए हूँ राधे करि मान ॥ ११३ ।। नैन किरकिरी जो परे, कर मांजत जिय जाइ । देख प्रेम सुभाव रसमूरति नैन समाइ ॥ ११४ ॥ परी परी लौ चढ़ि अटा, निपट परी बढि जोति । फिरती दीठि दई छिनकु, दीठि विचल चल होति ॥ ११५॥ बधू-अधर की मधुरता बरनत मधु न तुलाइ । लिम्रत लिखक के हाथ की क्रिलिक ऊख है जाइ ॥ ११६॥ मारे काहू मीत के भूलि गए सब जैव । आप कहूँ, आसा कहूँ, तसवी कहूँ, कितेब ॥ ११७ ॥ हॅस हाँस रस-बस करि लयौ लँगर छोहरी-दीठि । निपट कपट उर देखियत ऑखिनि हूँ म पीठि ॥ ११८ ॥ सस्वी सिखावत मान-बिधि, सैननि बरजति बाल । हेर कहै, मो हीय में बसत बिहारी लाल ॥ ११६ ॥ बारनि की बुरका कियौ सव अॅग लियौ छिराइ । अगुठा दोख पखी नहीं, अंगुठा गई दिखाइ ॥ १२० ॥ ________________
उपस्करण-२ जा दिन हैं देखे दृगनि, भाजी लाज बजाइ । सखी, साँवरे रूप की सोभा कही न जाइ ॥ २१ ॥ निकट पाट कंदावली बँधी कनक सुभ-बेग । सोहत जनु बिजुरी किये सारद-ससि-परवेप !! १२२॥ अमी, हलाहल, मद-भरे, सेत, स्याम, रतनार ।। जियत, मरत, झुक झुक परत, जिहि चितवत इक चार॥ २३॥ सघन कुंज जमुहाति तिय, उठी प्रात तज्ञ सैन । लगे गुलाब खुसामदी चट चट चुटकी देन ।। १२४॥ ठाढ़ी मंदिर में लखे मोहन-दुनि सुकुमारि । तन थाकं हूँ ना थकै चख चित चतुर निहारि॥ २५ ॥ गुहि लैब अपनी हरा, छोड़। लाल, सुभाउ । मेरौ टुनहाई बहू पखी जात है नाउ ॥ २६॥ जो संपति बहुतै बढे, आनँद उपजै चित्त । ए तीनों न बिसारियै हरि, अरि, अपनो मित्त ॥ २७॥ नैन-तुरंगम, अलक-छबि-बुरी लगी जिहिँ आइ । तिहिँ चढ़ि मन चंचल भयो, मति दीनी विसराइ ॥ १२८॥ अरे हंस, या नगर में जैयो आपु बिचारि । कागनि सी जिन प्रीति करि कोकिल दई विडारि ॥ १२ ॥ नंद-नंद, गोविंद जै, सुख-मंदिर गोपाल । पुंडरीक-लोचन ललित, जै जै ऋण रसाल ॥ १३० ।। ताहि देखि मन, तीरथनि विकटनि जाइ बलाइ। जा मृगनैनी के सदा बेनी परसति पाइ ॥ ३१ ॥ कही बात सव ते भली, जौ कहि अवै दाइ । एक बात इाथी बँधे, एक वाँधियतु पाइ ॥ ३२॥ साहस करि कुंजनि गई, लख्यो न नंद-किसोर । दीप-सिखा सी थरहरी लगे बयार-झकोर ॥ १३३॥ मनमोहन के मिलन के करति मनोरथ नारि । धरै पौन के मामुहं दिया भौन को वारि ॥ ३४ ॥ केलि करें मधु-मत्त जहँ घन मधुपन के पुंज ।। सच न करि ते सारं सखी, सघन वनकुंज ॥ १३५॥ १. चल भोर । ________________
बिहारी रत्नाकर छरी सपल्लव-लाल कर लखि तमाल की हाल ।। कुँभिलानी उर साल धरि फूलमाल ज्यों बाल ॥ १३६॥ तेरी मलनि, चितौनि मृदु मधुर मंद मुसकानि । छाइ रद्दी सखि, लाल की लखि अनिमिष अँखियानि ॥ १७॥ नथुनी गजमुकतानि की लसत मारु सिंगार । जिन हिरे मुकुमारि तन और आभरन भार ॥ १३८॥ झूठ ही ब्रज में लग्यो मोहिँ कलेक गुपाल । सपने हैं कबहूँ हियें लगे न तुम नंदलाल ॥ १३९ ॥ प्रीतम के मनभावती मिलति बाँ६ ६ कंठ । न्याई छुट न कंठ तें, नाहीं छुटी न कंठ ॥ १० ॥ प्रान-पियारी पग परयो, तू म तकति इहिं ओर । ऐसी उर जु कठोर, तौ न्यायहिँ उग्जु कठोर ॥ ११ ॥ चली अली, कहि, कौन चें, बड़ी कौन कौ भाग ।। उलटी कंचुकि कुचनि १ कहें देति अनुराग ॥ १२॥ सिसुता-अमल-तगीर मुनि भए और मिलि मैन । कही होत है कोन के, ए कसबाती नैन ॥ १३ ॥ ________________
अधिक दोहाँ की अकारादि सूची ६७ -- ६१ जदगि पुराने जा दिन तं । जिन सिगरी जियत न जुरत सुरति १३ कामिनि के काल्हि दसहरा कुचदाँगन कैलि करें कोटि अपरा केटि कुटिलता क्यों के । ४ | [अ] अंत मेरंगे अपने हैं। अम, इलाहल अरे देस अहो पथिक । [ अर ] ऑखिनि मैं अाएँ जेवन अानन उपटै [ए] । ११३ १६ जौ संपत [ झ ] | [ 3 ] ठाढ़ी मंदिर १११ ८६ उगें पुगे । [ 1 ] १५६ १३९ गति है। गही टेक गाई दुहावन गाइ न गुंजत गुरुजन गुहि लही ग्रीषम | [ घ] चूंघट-पट १८३ " [च ] चंदन, चंपक २६ चंपकली | ८७ चली अली, कहि । १४२ चलौ चल ही ६२ चित मैं ६६ चिनग फुयी । ताहि देखि ताही तिनु तीन बार तुम रूठीं । तेरी चलनि १८७ ऐसें अंतर [ ] : आड़े परिहैं। औगुन अगनिन । और कछु । और हँसन [क] कटि छोटी का करी । करि फुलेल करु गहि कहा अरगना कहा बवन कहा इतौ कहौ बात कयौ ने १३ दुखी सुखी देव अदेव | [ ध] धुनि सुनि I छपि छपि छरी सपल्लव १३६ नंद-नंद नख सिख जग्य न ५४ ।। ________________
५० चुरौ न । विहार-रत्नाकर नथुनी गज १३८ । बिधि हैं। नहिँ टीको विधुश्दन। मेस कहत । लट भयो । । कत | ४८ १२२ ललकि लोल निकट पाट विधुवनी मोसों कहत,मैं ८ लाख भाँति निमि बोलौ विनु वरजं लाज घोरि नेहु निकाह लाइन लोहू नैन किरकिरी | बूढ़ परी [ व ] १२८ नैन-तुरंगम वेद भेद वाको मनु नैन परे ४६ नैन, स्रवन ब्रज-बासिनि [ स ] [भ] सकुच-सहित सखियनि मैं ६८ परी परी जी बुरी । सखी सिखावति ११९ पलकनि ने नीर सधन कुंज १२४ पाएँ [ म ! सतसैया के ६५ पावस कठिन मन-मरवट सपत वड़े। ६४ पिय क्री १३४ मनमोहन सरवर की यो विद्युत ४४ साहस करि १३३ मनु माय प्राल-पियारी मनु मिलचति ६५ सिव, सनकादिक । प्रीतम का मान छुटेगी सिसुता । १४३ प्रेमु दुरायौ मानति मोसा सुरत-अंत | [फ ] १०४ सूक्यौ बारिज मानु दुरावति फूल नि है। १०८ मारे काहू सूखि मिरच। ३४ [ ब ] मुंदन, खुलत | [ ह ] য-স্মথ। ११६ हँसि हँसि । ११८ यलया, पीक में समुझाई हनी पूतना ८१ दामन ल मोसों मति हरि को कियौ न । बारनि की । मोही सां। होति कहा चार बार हौं आई , बास्यो विरह ६८ रह्यो न बालम, तुम सा । . ५५ 5 १३ ४३ ७६ १२०