बेकन-विचाररत्नावली/१० संशय

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बेकन-विचाररत्नावली  (1899) 
द्वारा महावीरप्रसाद द्विवेदी

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संशय १०.

नोविश्वासाद्विन्दतेऽर्थानीहन्ते[१] नापि किंचन।
भयाद्येकतरान्नित्यं मृतकल्पा भवन्ति च॥

महाभारत.

सायंकाल-अर्थात् जिस समय कुछ अन्धकार और कुछ प्रकाश रहता है—जैसे चिमगादड़ अपने रहनेके वृक्षको छोड़ इतस्ततः उडने लगते हैं वैसेही जिस मनुष्य में ज्ञानका प्रकाश और अज्ञान का [ २७ ] अन्धकार दोनों रहते हैं उसके मन में संशय उत्पन्न होता है। संशय उत्पन्न होतेही उसे वहां का वहीं दबा देना चाहिये; परन्तु यदि ऐसा न होसकै तो उसके ऊपर तीव्र दृष्टि तो अवश्यही रखनी चाहिये; क्योंकि संशय के कारण बुद्धि भ्रमिष्ट होजाती है; मित्रों में भेदभाव उत्पन्न होता है और काम काज में प्रतिबन्धकता आती है; जिससे व्यवहार भलीभांति नहीं चलता। संशय से राजा लोग न्यायको छोड़ अन्याय परायण होजाते हैं; पत्नी से पति मत्सर करने लगते हैं; और बुद्धिमान् मनुष्य भी आनिश्चित वृत्ति और उदासीनता को धारण करते हैं। संशय हृदय में नहीं उत्पन्न होता किन्तु मस्तिष्क में उत्पन्न होता है; इस लिये उसका प्रादुर्भाव इंगलैंड के राजा सप्तम हेनरी के समान धृष्ट और बलिष्ट पुरुषों में भी होता है। इस राजा से अधिक धृष्टस्वभाववाला और साथही संशययुक्त और कोई नहीं हुआ। संशयका अवतार जहां ऐसे ऐसे पुरुषोंमें होताहै, वहां वह बहुत कम हानि पहुँचा सकता है, क्योंकि इसप्रकारके लोग संशयकी सत्यता अथवा असत्यताको परीक्षा द्वारा निर्णय करके काम करते हैं; परन्तु भीरुस्वभावके जो लोग हैं उनमें इसका प्रवेश बहुतही शीघ्र होताहै। किसीभी विषयका पूर्ण ज्ञान नहोनेहीसे संशयकी उत्पत्ति होती है। इस लिये संशयको यथावत् मनमें न रखकर तत्सम्बन्धी अधिक ज्ञान सम्पादन पूर्वक उसका निराकरण करनाहीं समुचित है।

मनुष्य चाहते क्या हैं? क्या वे यह समझतेहैं कि जिनसे वे व्यवहार करते हैं अथवा जिनको वे नौकर रखतेहैं वे सब साधु हैं? क्या वे यह नहीं जानते कि ऐसे लोग उनके हित की अपेक्षा अपना हित साधनमें विशेष तत्पर रहैंगे? क्या उन्हैं अपना स्वार्थ नहीं सूझता? अतएव सबसे उत्तम बात यहहै, कि संशयको सत्य समझना चाहिये; परन्तु मनमें उसे असत्य निग्रह पूर्वक अपने काम काज करने चाहिये, क्योंकि ऐसा करनेसे संशयके ऊपर अपनी सत्ता बनी रहती है। तथापि संशयके सत्य होने पर तज्जन्य अपायोंसे बचनेके [ २८ ] लिये मनुष्यको पहिलेहीसे उसका मतीकार सोच रखना चाहिये। जो संशय स्वयमेव मनमें उत्पन्न होजाते हैं वे मधुमक्षिकाकी भनभनाहटके समान समझने चाहिये; उनसे कोई हानि नहीं पहुँचती। परन्तु जो संशय, दूसरे लोग, नानाप्रकारकी उलटी सीधी बातैं सुझाकर, मनुष्यके मनमें उत्पन्न करदेते हैं वे डंक के समान लगते हैं अर्थात उनसे अवश्यमेव अनिष्ट होता है।

जिसके विषय में संशय उत्पन्न हुआ है उससे अपने मनकी बात को स्पष्टतापूर्वक कहदेनाही संशय के नाश करने का सर्वोत्तम उपाय है। ऐसा करने से सत्य क्या है यह पहले की अपेक्षा अधिक समझ में आजाता है, और जिसके ऊपर संशय उत्पन्न हुवा है वह मनुष्य उस दिनसे पुनर्वार संशयात्मक काम न करने के लिये सावधान होजाता है। परन्तु जो मनुष्य अत्यन्त नीच स्वभाव के हैं उनसे इस प्रकार का वर्ताव न करना चाहिये, क्योंकि उन्हैं यह समझ जाने पर कि हमारे ऊपर संशय आया है, फिर वे कदापि प्रामाणिक व्यवहार नहीं करते। इटली में एक कहावत प्रसिद्ध है, जिसका यह अर्थ है कि "संशय से विश्वास घटता है" परन्तु सच पूँछिये तो इसका विपरीत अर्थ करना चाहिये क्योंकि संशय उत्पन्न होने पर उसे निर्मूल सिद्ध करने के लिये विश्वास की और भी अधिक वृद्धि होती है।

  1. अविश्वाससे अर्थ की प्राप्ति नहीं होसकती, और जो हो भी सकती है तो जो विश्वासपात्र नहीं है उससे कुछ लेने को जी ही नहीं चाहता; अविश्वास के कारण सदा भय लगा रहता है, और भय से जीवित मनुष्य मृतक के समान खो जाता है।