बेकन-विचाररत्नावली/९ भाषण

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बेकन-विचाररत्नावली  (1899) 
द्वारा महावीरप्रसाद द्विवेदी

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भाषण ९.

तद्वक्ता[१] सदसि ब्रवीतु वचनं यच्छृण्वतां चेतसः
प्रोल्लासं रसपूरणं श्रवणयोरक्ष्णोर्विकासश्रियम्।
क्षुन्निदाश्रमदुःखकालगतिहृत्कर्मान्तरप्रस्मृति
प्रोत्कण्ठामनिशं श्रुतौ वितनुते शोकं विरामादपि॥

कल्पतरु।

[ २४ ]किसी किसी के भाषण में सत्यानुयायिनी विचार पद्धतिकी अपेक्षा कोटिकम लड़ाने का कौशल विशेष होताहै। चाहे उनका भाषण नितांत निःसारही क्यों न हो तथापि कुछ मनुष्य यह दिखलाना चाहतेहैं कि, वादप्रतिवाद करने की उनमें उत्कट शाक्तिहै। मानों विचार सरणिका ज्ञान सम्पादन करनेकी अपेक्षा कोटिक्रम लड़ानाही आधिक प्रशंसाकी बातहै! कुछ मनुष्य किसी किसी नियमित विषयको छोड़ अन्य विषयपर भाषण नहीं करते। ऐसे नियमित विषयोंपर जब वे बोलने लगतेहैं तब अच्छा बोलते हैं; परन्तु उनके पास विषयबाहुल्य न होने के कारण उनका भाषण सुनते सुनते जी ऊब जाताहै और इस प्रकारके विषयदारिद्रयका भेद खुल जाने पर वह भाषण उपहासास्पद हो जाताहै। आरंभमें अति मनोरंजक भाषणकरके क्रम क्रम से उसका संबन्ध कम करते हुए दूसरे विषयकी ओर बढ़ना सबसे योग्यताका कामहै। ऐसा करनेसे सुननेवालोंके चित्तको,नर्तकके समान, वक्ता अपनी ओर आकर्षण करलेताहै। संभाषण और वादप्रतिवाद करनेमें विषय को मनोरंजक करने के लिये समयानुकूल इधर उधरकी दो चार बातों का समावेश करना चाहिये; तर्कना करनी चाहिये; कोटिकम लड़ाना चाहिये; प्रश्नकरके स्वमतानुसार उनके उत्तर देने चाहिये; और गंभीरताप्रदर्शन पूर्वक विनोद भी करना चाहिये; क्योंकि ऐसा न करके एकही बातके पीछे पड़ना और उसीका पिष्टपेषणकरना अच्छा नहीं लगता।

विनोद करते समय इसका ध्यान रहै कि-धर्म, राजकीय प्रकरण, बड़े बड़े लोग, किसीका तत्काल प्रस्तुत कोई महत्त्वसूचक काम तथा जिसे सुनकर दया आतीहै ऐसी कोई बात-इन सबकी कदापि हँसीन करनी चाहिये। परन्तु, कुछ लोग यह समझाते हैं कि,यदि उन्होने मर्मभेदक और आक्षेपपूरित कोई विनोद न किया तो उनका बुद्धिप्राखर्य मानों निद्रित होगया-ऐसा लोग समझने लगेंगे। ऐसे [ २५ ] स्वभावको लगाम लगाकर अपने आधीन रखना चाहिए। कटु और क्षार पदार्थोंका भेद समझना मनुष्य के लिए अत्यावश्यक है। वक्रोक्ति कहने वालेसे जैसे मनुष्य डरतेहैं वैसेही उसे औरोंकी स्मरणशक्तिसेभी डरना चाहिए, क्योंकि वक्रोक्ति को मनुष्य कभी नहीं भूलते और अवसर पानेपर बदला लेनेको प्रस्तुत होजाते हैं।

जो विशेष पूँछपांछ करताहै उसके ज्ञानकी वृद्धिभी विशेष होती है, और उससे लोग सन्तुष्टभी रहते हैं। जो जिस विषयमें निष्णातहै उससे उसी विषयका प्रश्न करना चाहिए क्योंकि तत्सम्बन्धी भाषण करनेमें उसे एक प्रकारका आनन्दहोगा, और पूँछनेवालेका ज्ञानभी सतत बढ़ता रहैगा। परन्तु त्रासदायक प्रश्न करना उचित नहीं। एतादृश व्यवहार दूसरे की बलात् परीक्षा लेने की इच्छा रखनेवालोंही को शोभादेताहै।

बोलनेके समय सदैव अपनेही घोड़े को आगे न दौड़ाना चाहिए; जिसमें दूसरोंकोभी कुछ कहने का अवसर मिलै ऐसा करना परमावश्यक है। यदि किसी ऐसे धृष्ठसे काम पड़ै जो सारा समय अपनेही भाषणमें व्यतीत करना चाहता हो तो-जैसे देरतक निरर्थक नाचनेवालों को गायक रोक देते हैं-तैसेही उसे युक्तिसे स्तंभित करदेना चाहिए।

लोग जिस बात को समझते हैं कि तुम जानतेहो, उसे यदि तुमने एक बार उनसे छिपाया, तो दूसरी बार जो तुम नहीं जानते, उसे तुम जानतेहो, यह वे लोग अवश्य समझै़गे। अपने विषयमें मनुष्यको कम बोलना चाहिये। हमारे परिचयका एक पुरुष इसप्रकार तिरस्कार युक्त वचन कहा करताथा "वह मनुष्य अपने विषयमें बहुत कुछ बोलता है, अतः उसे बुद्धिमत्ता सीखनी चाहिये"। मनुष्यके लिये आत्मश्लाघा करनेका एक मात्र प्रशस्तमार्ग यह है कि वह दूसरों के सद्गुणोंकी प्रशंसा करै और विशेष करके ऐसे सद्गुणों की जो है अपनेमें वास करतेहों। ऐसा करनेसे अपनी स्तुतिकी स्तुति होजाती है और सुननेवालोंको बुराभी नहीं लगता। दूसरोंको जो बुरी लगै [ २६ ] ऐसी बात बहुत शोच विचार कर कहनी चाहिये। भाषण एक विस्तृत मैदान के समान है; उसका सम्बन्ध किसी एक व्यक्तिसे नहीं है।

अस्खलित वक्तृत्व की अपेक्षा सदसद्विचारयुक्त भाषणका माहात्म्य अधिक है; और सुसंगत और रमणीय भाषण की अपेक्षा जिससे बोलते हैं उसे अच्छालगनेवाले भाषणका माहात्म्य अधिक है। जिसे अस्खलित और मनोहर भाषण करना आता है, परन्तु प्रतिपक्षी के द्वारा किसी शंकाकी उद्भावना होनेपर, तान्नराकरण विषयमें अच्छा बोलना नहीं आता, उसका भाषण बुद्धिमांद्यबोधक समझना चाहिये। उसी भाँति जिसे शंका समाधान तो अच्छेप्रकार करना आताहै, परन्तु पूर्वपक्षनिरूपक विशदभाषण करना नहीं आता, उसका भाषण अल्पज्ञता और असमर्थता सूचक जानना चाहिये। यह बात पशुओंमें भी पाईजातीहै। जो दौड़नेमें प्रवीण नहीं हैं वे कैंची काटनेमें कुशल हैं। उदाहरणार्थ शिकारी कुत्ता और खरगोश।

मुख्य विषयका प्रारम्भ करनेके पहिले अनेक बातोंका उल्लेख करके लम्बी प्रस्तावना कहना रोचक नहीं होता; परन्तु नितान्त न कहनाभी अच्छा नहीं लगता।

  1. वक्ता को सभामें ऐसा भाषण करना चाहिये जो श्रोताजनों का अन्तःकरण उल्लसित करदेवे; कानों को श्रृंगारादिनवरसों से पूरित करदेवे; नत्रों को विकसित करदेवे; क्षुधा निद्रा श्रम दुःख और अन्य कार्यकी विस्मृति करदेवे तथा सुनने के लिये लोगों के चित्तमें उत्कंठा और बन्द होजाने पर शोक उत्पन्न कर देवें।