बेकन-विचाररत्नावली/१२ स्वार्थपरता
तृणं[१] चाहं वरं मन्ये नरादनुपकारिणः।
घासो भूत्वा पशून्पाति भीरूपाति रणाङ्गणे॥
शार्ङ्गधरपद्धति.
दमिक अपने आपके लिए अपने काम में चतुर होता है; परन्तु फलोत्पादक अथवा सामान्य वाटिकाको वह हानि पहुंचाता है। इसी प्रकार जो मनुष्य अत्यन्त स्वार्थ प्रिय होतेहैं वे सार्वजनिक कामोंको बिगाड़ देतेहैं। स्वहित और समाजहितमें सुविचारपूर्वकभेद करनाचाहिए। अपना हित साधन करनेके लिए चेष्ठा करना किसी प्रकार दूषणीय नहीं, परन्तु स्वेष्टसाधनमें दूसरों का और विशेष करके अपने देश तथा अपने राजाका जिसमें अनिष्ट न हो वही करना उचित है। अपनेही को केन्द्र कल्पना करके स्वार्थ के लिएही सदैव पुरुषार्थ करना अत्यन्त निंद्य हैं। इस प्रकारका व्यापार-अपने को केन्द्र मानना-यह जड़ात्मक पृथ्वी भी करती है। केवल वही अपने केन्द्रके चारों ओर फिरती हैं; शेष सारेग्रह और उपग्रह जिनका कुछ भी योग आकाशसे है वे दूसरेही के केन्द्र के चारों ओर घूमते और उन्हींको लाभ पहुँचातेहैं।
यदि राजा स्वार्थपरायण हुवा तो उससे उतनी हानि नहीं होती क्योंकि उसका लाभ केवल उसीका लाभ नहीं है। राजाकी भलाई में प्रजाकी भलाई है और उसकी बुराई में प्रजाकी बुराई है, परन्तु राजपुरुषों में अथवा प्रजासत्तात्मक देशके किसी नागरिक अधिकारी में स्वार्थपरता होनेसे घोर अनर्थ की संभावना रहती है। कारण यह है, कि ऐसे ऐसे पुरुषोंको जो कुछ करना पड़ैगा जो वे अपने स्वार्थ साधनकी ओर झुकावैंगे और उनका स्वार्थ राजा अथवा दशके स्वार्थ से अवश्यमेव भिन्न होगा। अतएव, एक व्यक्तिके हितके लिए समग्र देशका अनहित होजायगा। इस लिए राजाओं और प्रजासत्तात्मक संस्थानोंको, स्वार्थ परताका दुर्गुण जिनमें न हो, ऐसे अधिकारी ढूँढकर रखने चाहिए। परन्तु अधिकार द्वारा स्वार्थसाधनही के लिए यदि राजाने किसी की नियुक्तताकी हो तो वह बात दूसरी है। स्वामी और सेवक के हितका प्रमाण जहां लुप्तप्राय हो जाताहै वहां स्वार्थपरता से और भी भयंकर अनर्थ होते हैं। स्वामीके हित की अपेक्षा अपने हितकी ओर विशेषदृष्टि रखनेही में पहिले अधर्म है; फिर अपने थोड़ेसे लाभके लिये स्वामी को भारी हानि पहुँचाने में तो अधर्म की सीमाही नहीं। अब देखिये ऐसे कृत्यों में कितना प्रमाणवैषम्य है। तथापि अनेक उच्चपद, कोषाधिकार, सैनापत्य, दौत्य इत्यादि गुरुतरभार जिनके ऊपर न्यस्त हैं वे तथा अन्य दुर्वृत्त और उत्कोचग्राही राज पुरुष ऐसेही होते हैं। ऐसे ऐसे लोग अपने अत्यल्प लाभ के लिये स्वामी के बड़े बड़े और महत्वपूरित कार्यों को भी बिगाड़ने से नहीं हिचकते। एतादृश जघन्यकृत्य करके जो लाभ राजपुरुष उठाते हैं वह लाभ उनकी योग्यता के अनुसार थोड़ाही होता है; परंतु उस लाभके परिवर्तन में अपने स्वामी को जो हानि वे पहुँचाते हैं उस हानिका परिणाम स्वामी की योग्यतानुसार अवश्य अधिक होता है। सत्यतो यह है कि, अत्यन्त स्वार्थप्रिय मनुष्यों का स्वभावही ऐसा होता है, कि वे क्षणभर शीत से बचने के लिये पडोसी के घर को जलानेसे नहीं सकुचते। यह सब होने पर भी ऐसों से स्वामी बहुधा सुप्रसन्न रहते हैं क्योंकि ये लोग अपना इष्ट साधन के लिये स्वामी की प्रसन्नता सम्पादन करने में कभी भी त्रुटि नहीं करते। अतएव स्वामी को प्रमुदित रखने और स्वयं लाभ उठाने के लिए उसके लाभ को रसातलमें पहुँचाने से वे पश्चात्पद नहीं होते।
स्वार्थसाधन के लिये बुद्धिमानी दिखाना अतिशय गर्ह्य काम है। चूहों की बुद्धिमानी ऐसीही है; जब घर गिरने लगता है तब वे निकल जाते हैं। लोमडीका भी स्वभाव इसी प्रकार का है; वह दूसरे के खोदेहुए बिलमें प्रवेश करके खोदनेवालेही को निकाल देती है। मगर भी ऐसेही होते हैं; जीवों के निगल जाने के पाहिले वे रोने लगते हैं। जैसा सिसरो[२]ने पांपी[३]के विषयमें कहाहै, एक बात यह अवश्य ध्यान में रखनी चाहिये कि आत्मंभरि और स्वार्थपर मनुष्यों का कभी अभ्युदय नहीं होता। वे यह समझते हैं कि हमने अपने चातुर्यसे लक्ष्मी रूपी पक्षीके पक्ष अति दृढतापूर्वक बांधकर उसे अपने घररूपी पिंजरे में सुरक्षित रख लियाहै; परन्तु दूसरोंका अनिष्ट और अपना इष्ट साधन करते करते अन्तमें वह चंचलालक्ष्मी[४] उन्हैं धूल में मिलाकर न जानैं किस मार्गसे कहां निकल जाती है।
- ↑ परोपकार न करने वाले स्वार्थपर मनुष्यसे हम तृणको अच्छा समझतेहैं क्योंकि तृणसे पशु अपना उदर तो पोषण करतेहैं और रणक्षेत्रमें भयभीत हुए जन उसे मुखमें दाब शत्रुओंसे अपने प्राण तो बचातेहैं।
- ↑ सिसरो रोममें एक अत्यन्त प्रभावशाली वक्ता और तत्त्ववेत्ता होगया है। उसके राजकीय व्यवहारों से अप्रसन्न होकर ईसवी सन् के ४३ वर्ष पहिले ६२ वर्ष के वयमें उसे कई राजपुरुषोंने मिलकर मारडाला।
- ↑ पांपी रोमका एक प्रख्यात सरदार और सेनापतिथा। राजाके प्रतिकूल सिर उठानेके कारण ५९ वर्षकी अवस्थामें ईसवी सन्के ४८ वर्ष पहिले राजकीय पुरुषोंने विश्वासघात करके उसे मारडाला।
- ↑ लक्ष्मीके चंचलत्वपर एतद्देशीय अनेक कवियोंने अनेक प्रकारकी उक्तियां कहीं हैं उनमेंसे एक संस्कृत कवि कहता है:-
या स्वसद्मनि पद्मेपि सन्ध्याकाले विजृम्भते।
इन्दिरा मन्दिरेऽन्येषां कथं स्थास्यति निश्चला॥ १ ॥अर्थात् जो लक्ष्मी, और कहीं की कौन कहै अपने घर, कमलमें भी केवल सायङ्काल, सोभी क्षणमात्र के लिये आतीहै वह दूसरों के घरमें भला कब निश्चल होकर रहैगी? सायङ्काल लक्ष्मीका कमलमें वास करना कविसमयसिद्ध है।